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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैश्य समाज । __ शासकको व्यापार नहीं करना चाहिए, यह बात दूसरी है। क्योंकि व्यापारी स्वार्थी हाता है, उसे अपने मतलबसे मतलब होता है, जो राजाके लिये बड़े कलंककी बात है। राजा प्रजाका वही सम्बन्ध है जो कि पिता-पुत्रका है। ऐसी दशामें व्यापारी पिता अपने निर्धन पुत्रका धन चूसनेका इरादा करे ऐसे पिताको पुत्र कब तक पिता ही मानता जाय ! व्यापारसे ही नहीं,बल्कि अनेक प्रकारके साधनोंसे हमारा धन खींचा जाता है। मानो हमारे प्रभुओंने येन केन प्रकारेण टका कमाना ही अपने शासनका मुख्य उद्देश माना है। कुत्ते पालनेका भी कर इस असहाय भारतको देना होता है। बाइसिकल आदि सवारियों पर चढकर घूमनेका कर भी देना होता है ! हाय अपने देश में हम ही सवारी पर चढ़ने के लिये भी टेक्स दें! बस इस अन्यायकी पराकाष्ठा हो चुकी ! बात तो यह है कि सड़कों पर चलनेका किराया है, क्योंकि हमारी सरकार व्यापारी है ! हम लोग कहा करते हैं कि सरकारने हमारे हितके लिये रेल, तार, नहर, सड़क आदि अनेक सामान उपस्थित कर रखे हैं, किंतु यह हमारी भूल है-यह सब कुछ उनके स्वार्थ-साधनका मसाला है। भारतको दरिद्र बनानेका षड़यंत्र है। इन सबके संचालक विदेशी व्यापारी हैं। हमारा व्यापारी-समाज अचेत है । हम तो तब सरकारका न्याय समझें जब कि वह सब वस्तुएँ भारतीय व्यापारियों द्वारा तैय्यार करा कर उनसे खरीद कर रेल, तार आदिका प्रबन्ध करे । यदि उनके पास कच्चा माल न हो तो अन्य देशोंसे मँगा दे । परन्तु नहीं वे प्रत्येक वस्तु अपने देशकी बनी ही भारतमें काम लाते हैं । क्या ताताका लोहेका कारखाना रेलें ( पटरिया ) भी तैय्यार करके दे सकता है ? अवश्य दे सकता है, पर वे लेते नहीं, क्योंकि विदेशी व्यापारी जो भारतके धन पर आज गुल छरें उड़ा रहे हैं, कल ही For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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