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भारतमें दुर्भिक्ष ।
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भूखों मरते दिखाई पड़ेंगे। इस प्रकारके व्यापारसे भारतकी सारी लक्ष्मी विदेशोंको चली गई । भारत श्रीहीन हो गया-कान्तिहीन हो गया । शासकोंका यह कर्तव्य नहीं है कि जिस देश पर शासन करना हो उसीको स्वार्थान्ध हो चूस डालें--जिस खेतसे अन्न प्राप्त करना हो उसकी रक्षा न की जाय । जिस वृक्षसे अच्छे फल पानेकी आशा हो और पा रहे हों उसकी जड़में आग लगा दी जाय । जब तक भारतके पास धन है वह देगा, बादमें कहाँसे मिलेगा, क्या इस पर भी कभी सरकारने कुछ सोचा है। तिलोंका तेल निकल चुकने पर खलीमेंसे तेल नहीं मिलेगा। यदि भारत-रूपी कामधेनुसे यथेच्छ फल प्राप्त करना है तो इसे निर्बल न कीजिए। इसे पौष्टिक पदार्थ खिलाइए, कभी कभी हाथ भी फेरिए ताकि वह अपने स्वामीको पहचानने लगे। यदि चारा ही न दोगे तो क्या लेंगे ? जितना है वही ले लें। अतः हम सरकारसे प्रार्थना करते हैं कि वह इस बातका ध्यान रखे कि भारत दरिद्र है, भूखा है, बे-मौत भर रहा है। यही एक मात्र निवेदन वैश्य-समाजसे है कि व्यापार करते समय इस भूखे भारतकी याद मत भूलो।
" यत्र देशेऽथवा स्थाने भोगान्भुक्त्वा स्ववीर्यतः। .. तस्मिन् विभवहीने यो वसेत्स पुरुषाधमः !॥"
वैश्य-समाजके विषयमें हम अब विशेष लिख कर पाठकोंका समय नष्ट नहीं करना चाहते । " गौ-रक्षा" भी वैश्योंका एक कर्म है, अत एव हम प्रसंग आने पर आगे चल कर इस विषयमें लिखेंगे।
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