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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैश्य-समाज । उससे भी सवाई या डयौढी रकम ले सकेंगे; परंतु वह रकम क्या आप विदेशोंसे ले सकेंगे ? नहीं, इस दीन भारतसे ही बसूल करेंगे । वह धन जो विदेशोंको दे चुके उसका लौट आना तो अब टेढ़ी खीर है। हम चाँदी देकर राँगा खरीद रहे हैं । हीरे देकर पत्थरोंसे घर भर रहे हैं । अब भी सँभल जानेका समय है। __ हमारे वैश्य-बन्धु इस स्वदेशी विदेशीके नामसे ही घबड़ा उठते होंगे और इसे राजद्रोही बात समझते होंगे, पर यह उनकी भारी भूल है । क्या अपने देशकी वस्तु काममें लाना कोई अपराध है ? कदापि नहीं । हा, अपने देशकी वस्तुएँ काममें न लाना गुरुतर अपराध है, महापाप है, कृतघ्नता है । यदि अपने देशका पक्ष समर्थन हो अराजकता है तो इस समस्त भूमण्डल को हम एकदम अराजक कह देंगे। क्योंकि सिवाय भारतवासियोंके, सबको अपने अपने देशसे तथा तत्सम्बन्धी प्रत्येक बातसे प्रेम है । वैश्य-बन्धुओ! घबराइए मत, आपके साहससे भारत धन-धान्यसे परिपूर्ण हो सदा सुखी हो सकता है । परन्तु आवश्यकता यही है कि अपना प्रत्येक कार्य आप देश-हितकी दृष्टिसे करना आरंभ कर दें। हमारे शास्त्रकारोंका कथन है किः "राज्ञे धर्मिणि धर्मिष्ठा पापे पापा समे समा। प्रजा तदनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजा ।" अर्थात्-जैसा राजा वैसी प्रजा। किन्तु यह बात आज साफ झूठ दृष्टि आ रही है। क्योंकि हमारी सरकार एक अच्छो व्यापारी है; परन्तु प्रजाको यह भी ज्ञान नहीं कि व्यापारका असली अर्थ क्या है। हमारे वैश्य भाइयोंको ध्यान देना चाहिए कि हमारो व्यापारी सरकारने किस भाँति भारतका धन व्यापार द्वारा अपने देशको For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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