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ફ્રૂટ
भारत में दुर्भिक्ष |
दस रुपये देने पड़ते हैं। तीन महीनों में दस रुपयेकी रकम हरगिज ख्यादः नहीं है । यह रुपया सरकार काश्तकारोंको सस्ते सूद पर देगी और साहूकारोंको वार्षिक नफा । इस तरहसे साहूकार लोग. रुपया कमायेंगे और हमारा वैश्य समाज संसार में प्रतिष्ठा और मान प्राप्त कर सकेगा । यहाँ एक बात और कह देनेकी है कि धर्मादा 1 खातेका बहुत सा रुपया हर एक स्थान पर जमा रहता है । वह यों ही किसीके यहाँ पड़ा रहता है और वह उसे चट कर जाता है । ऐसी दशा में उस धर्मादेके रुपये को भी सहकारी बैंकके हिस्सों में लगा देना चाहिए ।
अब जरा छोटे छोटे दुकानदारोंकी ओर दृष्टि डालिए । इनमें भी प्रायः कधिकांश वैश्य भाई ही होते हैं। उनकी सारी दूकान विदेशी मालसे परिपूर्ण होती है। या यों कह दें तो अनुचित न होगा कि उनके चारों ओर विदेशी सामानकी दीवारें बनी होती हैं । ढूँढ़ने पर दूकान में एक भी देशी वस्तु न मिलेगी । इनको इस बात का स्वप्न में भी ध्यान नहीं कि हम क्या कर रहे हैं ? व्यापार कर रहे हैं या कि विदेशोंकी दलाली अथवा अपने घरको खाली ? कुछ मुनाफा लेकर अपना उदर पोषण करते हैं और अपने देशका धन अपने हाथों विदेशियोंके सपुर्द करते हैं। जरा सोचिए आपके इस व्यापारसे देशको कितना लाभ है ! भारतको कितना धन आपके इस व्यापारसे प्रति वर्ष मिल जाता है ? फूटी कौड़ी नहीं - बल्कि उसने भारतको कंगाल और दरिद्र कर डाला । अपनी मूर्खतासे करोड़ों रुपये प्रति वर्ष विदेशोंको प्रसन्नता पूर्वक दे रहे हैं। क्या इस बातका भी कभी दिलमें विचार उत्पन्न हुआ है कि वह पूँजी जो अपनी दूकान में लगा कर विदेशी माल भर लिया था, आपके हाथ आवेगी ? नहीं, कदापि नहीं । आप कहेंगे कि हम उसे बेच कर
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