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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष। संवत् १९५६ में रुपयेका छः सेर अन्न मिलता था । तिस पर भी लोगोंकी लाशें सड़कों पर यों ही पड़ी हुई दिखाई पड़ती थीं। वे इतनी अधिक थीं कि उन्हें श्वान, गृद्धादि मांस-भोजी जन्तु भी नहीं खाते थे । परन्तु आज वह समय है कि रुपये का ६ सेर अन्न "मिलना सुभिक्ष समझा जाने लगा। लोगोंको धीरे धीरे दुर्भिक्षका अभ्यास सा पड़ गया । इतना होने पर भी यदि हम लोग इसी भांति गफलतमें रहे तो एक वह भयङ्कर दिन आने वाला है कि बिना अन्नके हम लोग छटपटा कर ठंडे हो जायँगे और सदा सर्वदाके लिये ऋषियोंके पावन वंशके वंश इस दुर्भिक्षक महोदरमें समा जायँगे । यहाँ अन्नका ही नहीं, बल्कि प्रत्येक वस्तुका दुर्भिक्ष हैघोरतर दुर्भिक्ष है । प्यारे वैश्य भाइयो ! जरा अपने निर्धन देशकी दशा पर दो आँसू डालो । देखो तो क्या हो रहा है, तुम्हारा प्यारा देश भारतवर्ष क्यों रो रहा है ? " टका धर्म टका कर्म टका हि परमं पदं” को छोड़ दो। इस समय भारतवर्षको तुमसे भारी सहायताकी आशा है। अपने या अपनी आल-औलादके लिये केवल पैसे ही संग्रह करके न छोड़ जाओ, बल्कि थोड़ा सा वह काम भी कर जाओ जिससे तुम्हारी भात्री सन्तानें बिना अन्नके अपने प्राण न छोड़ें । इस भूखे भारतके मुखका ग्रास इसके मुखमें हो जाने दो, इससे छीन कर अन्य देशोंके सपुर्द न करो। वैश्यों का एक कर्म व्यापार है अवश्य, किन्तु उन्हें व्यापार करना नहीं आता । उसका सम्यग्ज्ञान तो दूर रहा, किंतु जरा भी ज्ञान नहीं है । यदि वैश्य समाज व्यापारके रहस्यों अथवा माँको जानता तो देशकी ऐसी दुर्दशा अपने हाथों कदापि नहीं करता । यदि व्यापार करनेका थोड़ा भी उसे शऊर होता तो देशको आज दुर्भिक्ष-दानवके फेरमें कदापि न आना पड़ता । विदेशी लोग हमें हमारे जूतेसे ही For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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