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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org A Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैश्य समाज | ६१ I पीट रहे हैं । हमारी आँखों में सरासर धूल झोंक रहे हैं । " मियाँ की जूती मियाँ के सिर " वाली कहावत चरितार्थ कर रहे हैं । हमारे देश से कच्चा माल अर्थात् सामग्रियाँ सस्ते दामों पर खरीद ले जाते हैं और अपने देश में उसकी वस्तु बना कर फिर मनमानी कीमत पर हमारे ही सिर मँढ़ जाते हैं और हम लोग मूर्खकी भाँति उसे खरीद लेते हैं, इस बातका हमें तनिक भी ध्यान नहीं । जिस देशके व्यापारी समाजकी ऐसी दुरवस्था हो, भला वह कैसे उन्नत हो सकता है ? जिस देश में यथोचित व्यापार नहीं वह देश समृद्धि - शाली क्यों कर हो सकता है ? जहाँका व्यापारी समाज मूर्ख और निरुद्यमी हो तथा अपना ही भला चाहनेवाला हो वह देश कब तक दुर्भिक्षसे बच सकता है ? जहाँसे कला और शिल्पका नाम उठ गया हो वह देश कब तक अपनी कुशल मना सकता है । हम अपनी निर्बलतासे अपनी आवश्यकताओंको स्वयं पूर्ण नहीं कर सकते। हम प्रत्येक बातमें दूसरोंकी ओर आशा लगाये देखते रहते हैं—किन्तु यह नहीं पता कि " पराई आशा करना नरक यातनाके तुल्य है । ” । " हम इतने आलसी हो गये हैं कि हमारी इच्छा यही रहती है कि हम अपने मुंहसे रोटो भी न खायें; कोई दूसरा ही कुचलकर हमारे मुखमें भोजनका ग्रास दे दिया करे । इस यूरोपीय महायुद्ध के समय हमें अपनी आवश्यकताएँ पूर्ण करना कठिन हो गया | यदि हमारा वैश्य समाज इस विषय में कुछ भी सावधान होता तो अपने देशका मुख उज्ज्वल रखता और आज धनसे परिपूर्ण दृष्टि आता । यह वर्तमान घोर दुर्भिक्ष यहाँ फटकने तक नहीं पाता ! जब हमें विदेशी चीजें नहीं मिलीं तो हम ही उन कौड़ीकी वस्तुओंको रुपयोंसे खरीदने लगे; परन्तु उसे तैयार करनेकी तरकीब या उसी मूल्य पर लेने का कोई भी उपाय किसीने भी नहीं सोचा । For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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