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भारतमें दुर्भिक्ष। हाय, ऐसे अच्छे अवसरको हमने यों ही खो दिया और अपने पैरों उठना न सीखा ! " महँगीके मारे परेशान हैं " इत्यादि हल्ला मचाते रहे, पर आलस्यकी चादर अपने सिरसे न उतारी गई । जापानको देखिए, उसने क्या कर दिखाया ! कलका होश सँभाला हुआ बाजी ले गया। उसने दुनियाको और विशेष कर भारतवर्षको कैसा लूटा । हमारी आवश्यकताओंको पूर्ण करनेका बीड़ा उढा. लिया। अपनी बनाई सब प्रकारकी वस्तुओंसे भारतके बाजारोंको भर दिया और भारतका धन अपन देशमें भर लिया। वे वस्तएँ जो भारतमें अमेरिका, आस्ट्यिा , इंग्लैण्ड, जर्मनी,, इटली आदि देशोंसे आती थीं, उन सबके देनेका साहस एक छोटेसे जापानने किया। यद्यपि वह मजबूतीमें किसीकी समानता न कर सका तथापि नकल करनेमें वह पीछे भी नहीं रहा । उसकी वस्तुएँ टिकाऊ न होनेसे उसे और भी लाभ हुआ; क्योंकि पर-मुखापेक्षी भारतवासी उन्हें मोल लेते और वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती तब दूसरी लेते। इस भाँति बराबर जापानकी वस्तुएँ भारतके बाजारों में खूब खपती रहीं। किन्तु खेद है कि इतने पर भी भारतवासियोंने विदेशी वस्तुओंका तिरस्कार नहीं किया। हम आलसी हैं, हमें चीजें मिलनी चाहिए, फिर वह भले ही कितनी ही महँगी क्यों न हों उन्हें हम अवश्य खरीद लेंगे ! हम भूखों भले ही मर जायँ, घरमें भले ही कुछ भी न रहे, परन्तु हमारा-वैश्य समाज किसी प्रकार अपने आलस्यको छोड़ना नहीं चाहता । भगवान् इन्हें सुबुद्धि दें।
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपने श्रीमुखसे वैश्योंका प्रथम कर्म कृषि कहा है। हमारा भारत कृषि प्रधान देश है । अपने कृषिबल पर ही यह एक दिन संसारमें सर्वश्रेष्ठ था। कारण तत्कालीन वैश्यसमाज स्वधर्मको भली भाँति पहचानता था। उसकी कृपासे भारत
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