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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५८ www.kobatirth.org भारत में दुर्भिक्ष । वैश्य समाज | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हमारे शास्त्रकारों ने चारों वर्णों के कर्मों का पृथक् पृथक् वर्णन कर हुए वैश्यों के लिये: " कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् " बतलाया है । मनुजीने लिखा है:-- " पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च । वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च । अर्थात्- -- उस परमात्माने पशुओंकी रक्षा, दान देना, यज्ञ करना पढ़ना, व्यापार, व्याज और खेती ये कर्म वैश्यके लिये बनाये । " किन्तु वर्तमान समय में हमारे वैश्य समाजकी बहुत ही दुर्दशा है । पशु पालन, व्यापार और कृषि ये लोग कैसी करते हैं यह सब पर प्रकट है । हैं। शास्त्राज्ञाके विरुद्ध इनका प्रत्येक कार्य निस्सन्देह होता है । अपने देशकी दशाका इन्हें तनिक भी ध्यान नहीं I 66 तुम मर रहे हो तो मरो, तुमसे हमें क्या काम है ? हमको किसीकी क्या पड़ी है, नाम है धन-धाम है 1 तुम कौन हो जिनके लिये हमको यहाँ अवकाश हो, सुख भोगते हैं हम, हमें क्या जो किसीका नाश हो ? - भारतभारती । ये किसीके भले बुरे की तनिक भी पर्वाह न करके, “भज कलदारं भज कलदारं कलदारं भज मूढमते " का पाठ अहर्निश किया करते हैं। थोड़े से लाभ के लिये अपना, अपने समाजका और अपने देशका भविष्य बिगाड़ रहे हैं । उनका व्यापार विचित्र है - इस व्यापार से For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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