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उद्योग-धन्धे।
देख कर उसे बड़ा ही दुख हुआ। इस विषय में उसने अपने भ्रमण.. वृत्तान्तमें लिखा है कि अशोकने इस महलको देवताओंसे अवश्य बनवाया होगा। इसकी ऊँची ऊँची दीवारें, भव्य द्वार और चौखटें बनाना मनुष्यका काम नहीं है । ” ।
भारतके कला-कौशलके विषयमें हम पीछे बहुत कुछ लिख आये है। सारांश यह कि उस समय यह देश सारी दुनियाका सिरताज माना जाता था। किन्तु आज वही हमारा देश जिस हीन दशाको प्राप्त हो गया है, और हो रहा है, उसे देख कर वह पहलेकी स्थिति स्वप्नके जैसी मालूम होती है । देशकी इस अधोगतिको देख कर कौन ऐसा भारतवासी होगा जिसका अन्तःकरण दुखी न होगा । अर्थात् कोई देशभक्त अपनी मातृभूमिकी इस दुरवस्थाको सहन करने में समर्थ नहीं होगा । खैर, अब इस दशाके सुधारनेका कौनसा उपाय किया जाय, इस विषयमें देश-भक्तोंके अन्तःकरणमें अनेक कल्पनाओंने आसन जमा कर तरह तरहके विचार उत्पन्न किये । इस प्रकार उन विचारकोंके चे विचार आज लगभग चालीस वर्षोंसे अपना काम कर रहे हैं । इन चालीस वर्षों में अपनी इस मातभूमिकी दुरवस्था पर जिन्हें हार्दिक कष्ट हुआ और हो रहा है ऐसे अनेक पुरुष हो चुके हैं और वर्तमानमें भी विद्यमान हैं । अब, इन पुरुषोंके उद्योग और विचारोंका फल क्या हुआ? ऐसा प्रश्न सहज ही सामने आता है। तो उसका उत्तर प्रत्यक्षमें सिद्ध ही है । अर्थात् औद्योगिक प्रश्नोंके विचार करनेवाली अनक संस्थाएँ भारतके पृथक् पृथक् प्रान्तोंमें स्थापित हो चुकी हैं । इन संस्थाओंमें सच्ची मार्ग-दर्शक संस्था वही कही जायगी जो सन् १८९१ ई० में रावबहादुर माधवराव रानडेकी स्थापित की हुई " औद्योगिक परिषद् ” के नामसे प्रसिद्ध है।
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