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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतमें दुर्भिक्ष । चीजोंकी विक्री करना । इसीका स्पष्टार्थ-~~-उद्योग-धन्धे, कलाकौशल और व्यापार इस त्रयीका निरन्तर ऐक्य रहना है । और यही राष्ट्रकी उन्नतिका द्योतक है । इन पूर्वोक्त बातों पर विचार-पूर्वक दृष्टि डाली जाय तो सामान्यसे सामान्य मनुष्यको भी हमारे इस दरिद्र देश पर दया आये बिना न रहेगी। एक वह समय था जब कि हमारा भारतवर्ष औद्योगिक उन्नतिके शिखर पर स्थित था; इस देशकी नैसर्गिक सम्पत्ति, हस्त-कौशल, कारीगरी, दस्तकारी आदि विभूतियों और विशेषताओंकी बराबरी करनेवाला कोई देश नहीं था । कुतुबमीनारके पास जो लोहेका अद्भत स्तंभ है, उसके विषय में डाक्टर फरगुसन लिखते हैं--- " यह स्तंभ हमारी आँखें खोल कर निस्सन्देह बतलाता है कि हिन्दू लोग उस समयमें लोहे के इतने बड़े खम्भे बनाते थे जो कि यूरोपमें बहुत इधरके समयमें भी नहीं बने हैं और जैसे कि अब भी बहुत कम बनते हैं । और इसके कुछ ही शताब्दीके इस लाटके बराबरके खंभों को कनरिकके मन्दिरमें शहतीरकी भाँति लगे हुए मिलनेले हमको विश्वास करना चाहिए कि वे लोग इस धातुका काम बनाने में अपने बादके कारीगरोंकी अपेक्षा बड़े दक्ष थे और यह बात भी कम आश्चर्य-जनक नहीं है कि १४०० वर्ष हवा और पानीमें रह कर उसमें अब तक भी मोरचा नहीं लगा है । और उसका सिरा तथा खुदा हुआ लेख अब तक भी वैसा ही स्पष्ट और गहरा है जैसा कि १४०० वर्ष पहले बनाया गया था।" । पाँचवीं सदीके आरंभमें फाहियान नामक एक चीनी यात्री भारतमें आया था। वह पटने में कोई तीन वर्ष तक रहा। महाराजा आशोकके बनवाये हए छः सातसौ-वर्षके टूटे-फूटे राजमहलोंको For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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