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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० , भारतमें दुर्भिक्ष । हैं, किन्तु इतनों दिनों तक काममे लाने पर भी उसमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। सच बात तो यह है कि यूरोपियन शाल मुफ्तमें मिलने पर भी हम उसका व्यवहार करना नहीं चाहते।" . बहुतसे विदेशी बने हुए माल हमें निर्धन ही नहीं बनाते; बल्कि हमारे निर्धन अति पवित्र धर्मसे भी भ्रष्ट करते हैं। उदाहरणार्थ विदेशी साबुनोंको लीजिए-ऐसा कोई विदेशी साबुन नहीं जिसमें चर्बीका प्रयोग न किया जाता हो ! क्या ऐसी अपवित्र वस्तु भी जान-बूझ कर काममें लाना ऋषि-संतानोंका कार्य है ? जितना विदेशी वस्तका व्यवहार हमें दरिद्र बना रहा है, उतना ही विदेशी पहिनावा भी हमें निर्धन बना रहा है । हम नीचे एक नकशा देते हैं जिससे आपको पता लगेगा कि विदेशी पहिनावा क्यों कर अहित कर है। प्राचीन समयमें एक आदमीको अपने अंगोंकी रक्षा करने के लिये कितने मूल्यके कपड़ोंकी आवश्यकता पड़ती थी उसका वर्णन हम नीचे देते हैं:१ साफा या पगड़ी, मूल्य १) १ अच्छा दुपट्टा १ कुरता या मिरजई ) १ जूती जोड़ा १ धोतीजोड़ा १॥) . . . कुल जोड़ ४०) यह तो आजसे ४०।५० वर्ष पूर्वका खर्च है, किंतु वर्तमान महा दुर्भिक्षके समय भी जब कि कपड़ा चौगुनी कीमत पर है, एक मनुध्यको हिन्दुस्थानी पहिनावेमें:-- १ साफा या पगड़ी ३) १ अच्छा दुपट्टा २ कुरत या मिरजई २) १ जूता जोड़ा २) १ जोड़ा धोती ४) कुल जोड़ १३॥) For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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