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स्वदेशी वस्तु तथा पहिनावा। पर खरीदते हैं, किंतु महीनों चलनेवाला सस्ता उत्तम देशी कपड़ा हमारे बदनको चुभता है । कितनी अचंभेकी बात है ! सुकुमारताको हद हो चुकी ! उन वीरोंकी संतान जो मनों वजनके कवच
और बख्तर शरीर पर धारण करते थे, आज अपने हितकारी मोटे कपड़े भी नहीं पहिन सकते। देशी धोतियाँ मोटी होती हैं, उन्हें पहिनना गँवारोंका काम है इत्यादि कहते हम कुछ भी विचार नहीं करते। मेरे विचारसे तो विदेशी पतली धोती--जिसमें से बदनके बाल तक दिखते हैं, और एक-दो महीने चलती है--पहिनना बिलकुल ही वारोंका काम है।
यदि आप अपने प्रिय स्वदेशको दरिद्र नहीं देखना चाहते और पहलेकी भाँति उसे सुखी किया चाहते हैं तो स्वदेशी वस्तुओंका व्यवहार आजसे ही आरंभ कर दीजिए। स्वदेशी वस्तओंका व्यवहार कोई अपराध नहीं है, इससे डरना भारी भूल है । वह कृतघ्न है जो अपने देशकी बनी वस्तुओंका आदर न कर विलायती वस्तुओंको अपनाता है । यदि आवश्यकतानुसार देशकी बनी वस्तुएँ प्राप्त होना कठिन है तो जितनी मिल सकें उतनी ही काममें लाकर अपने भारतीय व्यापारी और व्यापारकी एवं कला-कौशलकी उन्नति कीजिए । भारतीय बन्धुओ ! आलस्यका समय नहीं है, भारतमें दुर्भिक्ष और दरिद्रता सर्व-संहारी तांडव नृत्य कर रहे हैं। सावधान होकर अपने देशकी रक्षाका भार अपने हाथोंमें लीजिए । देखिए, मि० सर टामसमनरो नामी अँगरेज भारतीय मालकी कैसी प्रशंसा करते हैं:__ " हिन्दुस्थानी माल विलायती मालकी अपेक्षा कई गुना अच्छा होता है । एक हिन्दुस्थानी शालको हम सात वर्षसे काममें ला रह
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