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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Aaparwwran कृषि। . अर्थात्-जो जाति केवल कृषि पर ही भरोसा रखती है अथवा केवल ऐसे ही बाणिज्य करती है जिनके बिना उसका किसी प्रकार निर्वाह नहीं है, वह अपनी आधी उत्पादक शक्तिसे वंचित रहती है।" यदि किसीके कानमें यह बात पहुँचे कि भारतीय प्रति शत ८० कृषिकार्य करते हैं तो आश्चर्यसे वह पूछ उठेगा कि क्या वहाँ अन्न सस्ता बिकता है ? या वहाँके लोग कुंभकर्णकी भाति बहुत अधिक भोजन करते हैं ! नहीं, इतना होने पर भी यह। रात-दिन दुर्भिक्ष तांडवनृत्य कर रहा है । हजारों भारतीय नित्य क्षुधासे अपने प्राण परित्याग करते हैं । इसका कारण क्या है, यह हम आगे चल कर बतायेंगे। हमारा देश कृषिको उत्तम समझ कर उसीकी ओर बिना सोचे समझे झुक पड़ा, अत एव निरा मूर्ख और पुराने ढर्रेका हो गया । जो देश व्यापार-कार्य में संलग्न हैं उनकी बुद्धिकी प्रखरता, शारीरिक उन्नति, आर्थिक उन्नति और स्वतन्त्रता कितनी बढ़ी हुई है, जरा ध्यानसे देखिए। अन्यान्य देशों में व्यापारके लिये जहाजी बेड़े बनते हैं और उनकी रक्षाके लिये सैनिक बेड़े बनते हैं। कच्चा माल प्राप्त करने के लिये नये देश और नई नई वस्तियोंकी आवश्यकता पड़ती है, जिन पर अधिकार जमानेके लिये युद्धकी तैय्यारी करनी पड़ती है। अत एव व्यवसाय-प्रधान देश अपने को खूब उन्नत कर सकता है । व्यवसायकी उन्नतिसे ही इंग्लैंड उन्नत हुआ और भारतने इसे छोड़ा तो अवनतिको अपना लिया। क्या किया जाय, यहाकी दशा ही विचित्र है। लगभग २०० वाँसे विदेशी व्यापारियोंकी धींगा-धींगी और राजनैतिक परिवर्तनोंके कारण यहाँका व्यवसाय तो मिट्टी में ही मिल गया है । आत्मरक्षाके For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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