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अन्नकी मांग देश विदेश सब जगह है । विदेशमें तो अधिक है; क्योंकि योरपमें खेती-बाड़ीसे काफी अन्न पैदा नहीं होता। उन लोगोंको बाहरसे मँगाने की हमेशा जरूरत रहती है। परन्तु योरपके लोग उद्योग-धंदे जैसे दूसरे दूसरे उपायोंसे यथेष्ट धन कमा लेते हैं । उसी आमदनीसे महँगे भाव पर भी अनाज खरीद सकते हैं । पर वेचारा हिन्दुस्थानी ऐसा नहीं कर सकता; उसकी औसत भामदनी ४२) रुपये सालसे ज्यादा कूती नही जा सकी है। अब खुले बाजार. में कौन चावल और गेहूँ खरीदेगा ? ४२) वार्षिक आमदनीवाला या ३३०) रुपयोंको आमदनीवाला गरीबसे गरीब योरोपियन ? उत्तर स्पष्ट है । इसी लिये अनाज विदेश जाया करता है। सरकार इसे रोकती भी नहीं है । रेल-लाइनें इस तरह बनी है, उनके भाड़ेकी दर इस नीतिसे कायम की जाती है कि प्रत्येक किसानका चावल, गेहूँ योरपकी ओर ही ताकता रहता है ! यदि इस हालतमें देशके लोग अनाज न पावें और वह अनाज महँगे दर विदेशमें बिकनेको चला जाय तो आश्चर्य ही क्या ? अन्न कष्ट और दुर्भिक्ष तो स्वाभा. विक ही है।
फिर करना क्या होगा ? कृषि हमारा प्रधान व्यवसाय है और रहेगा । पर उसमें जितने लोगों की आवश्यकता है, जितने लोगोंसे खेती-बाड़ीका काम मजेमें चल जायगा; ठीक उतने ही लोगोंको खेतीमें लगा रहना चाहिए, ज्यादाको कभी नहीं। यह सब कोई जानते हैं कि किसानोंके पास काफी जमीन नहीं है। यदि बापके पास बीस बीघे जमीन थी तो उसके मरने पर चारो लड़कोंने अलग होकर सिर्फ पाँच पाँच ही बीघे पाई । पर फिर भी उसी खेतीमें लगे रहे । दूसरा रोजगार नहीं किया, या किया भी तो थोड़े दिनके लिये, ऊपरी दिलसे । बापके समय मजे में दिन चैनसे कटते थे तो
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