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भूमिका।
हमारे देशकी आबहवा और प्राकृतिक बनावट, कुछ ऐसी है कि यहाँ कृषिकी प्रधानता रहेगी। यहाकी बड़ी बड़ी नदियाँ, यहाँका जाड़ा, गरमी और बरसात सब कृषिके पक्षमें ही हैं । यही अवस्था भविष्यमें भी रहेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं । कृषि कार्यसे परोक्ष या अपरोक्ष रूपमें प्रति शत नब्बे भारतवासियोंका सम्बन्ध है । कृषिसे सम्बन्ध रखनेवालों तथा उस पर ही निर्भर करनेवालोंकी संख्या बढ़ती ही जाती है। इसका प्रमाण पिछले तीस वर्षोंकी मर्दुम शुमारियोंसे मिलता है।
देशकी आबादी बढ़ती ही जाती है, साथ ही साथ खेती-बाड़ी भी बढ़ी है सही। पर खेती जितनी बढ़ी है उतनी काफी नहीं है । फिर भी जितनी जमीन आबाद होती है उसमें अखाद्य द्रव्यों (कपास, जूट इत्यादि) की खतीका परिमाण बढ़ता जाता है, कहीं कहीं धानकी जगह जूट बोया जाता है और कहीं धान या गेहूँ की बढ़िया जमीन छीन कर कपास या जूट बो दिया जाता है और धान गेहू के लिये खराब जमीन छोड़ दी जाती है। इस लिये खानेका अनाज काफी मिकदारमें नहीं उपजता, वह बढ़ती हुई अबादीके लिये यथेष्ट नहीं होता । तिस पर भी इस अपर्याप्त खाद्य द्रव्यमेंसे बहुत कुछ, देशके बाहर बिकनेको चला जाता है। बर्मासे जितना चावल हिन्दुस्थान आता है, उससे कहीं अधिक चावल, गेहूँ हिन्दुस्थानसे बाहर चला जाता है । इससे स्पष्ट है कि हिन्दुस्थानमें जितने अन्नकी जरूरत है उतना अन्न रहने नहीं पाता।
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