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समर्पण ।
जिसने अपनी स्वाधीनताके समय अपने सुलभ साध्य घी, दूध, अन्न आदि द्वारा सारे संसारका पेट भरा और जो अब भी भर रहा है; परंतु दुर्दैव-वश आज वह इतना पराधीन--गुलाम बना हुआ है कि खुद अपनी रक्षा करनेका भी उसे अधिकार नहीं। यही कारण है कि आज जो दुर्भिक्ष रूपी अतिभीषण रोगसे मरणासन्न हो रहा है; दिन पर दिन दारिद्र रूपी पिशाच जिसे चूस कर जर्जर कर रहा है और जो स्वार्थी शासकोंके अमानुषिक अत्याचारों और अन्यायों द्वारा पादाक्रान्त हो रहा है उसी परम शान्त, गंभीर, तेजस्वी भारतको सुधा-तुल्य स्वराज्यौषधि द्वारा पुनर्जीवन प्रदान करनेके प्रयत्नमें निरंतर लगे रहनेवाले सच्चे धन्वन्तरि, प्रातःस्मरणीय, भारत माताके एक मात्र पुत्र महात्मा मोहनदास करमचंद गांधीकी. सवामें लेखककी ओरसे यह तुच्छ भेंट श्रद्धा-भक्ति पूर्वक समर्पित
हुई।
लेखक।
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