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स्वदेशी वस्तु तथा पहिनावा। १२३ स्त्रीकार किया है-तो विचारनेका स्थल है कि क्या हमारे पूर्वजोंमें अपने पहिनावेको सुधारनेकी अक्ल नहीं थी जो हम पाश्चात्य पहिनावेको अपना रहे हैं ! किंतु नहीं उन्होंने देशके लिये एक प्रकारका अच्छा ही पहिनावा निर्माण किया है। हमें यहाँ भारतीय पहिनावेकी उपयोगिता और विदेशी पहिनावेकी निन्दा करना अभीष्ट नहीं है, अतः हम कुछ विशेष न लिख कर, अपने देशबन्धुओंसे भारतीय ढंगके वस्त्र पहिनने की प्रार्थना करते हैं। भारतीय पहिनावा कदापि निकृष्ट नहीं होता; क्योंकि इस भारतके लिये स्वर्गस्थ देवता लोग भी तरसते थे--देखो विष्णुपुराणमें लिखा है कि " देवता भी ऐसे गीत गाया करते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं जो कि स्वर्ग और अपवर्गके हेतु-रूप भारतवर्ष में जन्म लेते हैं, वे हमसे भी श्रेष्ठ हैं।"
" गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ये भारतभूमिभागे। स्वर्गापवर्गस्य च हेतुभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ।”
यदि यह भारत, जिसे पूर्व कालमें जंगली और असभ्य होने तथा गँवारू पोशाक पहिनने का दोष लगाते हैं, वास्तव में आपके कहे भनुसार ही होता तो देवतागण यहाँके लिये इस भाति " स्वर्गापवर्गस्य च हेतुभूते " आदि कह कर उसकी प्रशंसा नहीं करते। " जैसा देश वैसा वेश"
"As the country so the dress" अथवा“Where we are in Rome,
we must do as Romans dc."
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