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भारतमें दुर्भिक्ष |
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यह बात बिलकुल सत्य है । हम किसी देश के अनुकरण द्वारा अपनी उन्नति नहीं कर सकते । " यह महाशय रवीन्द्रनाथ ठाकुरका वाक्य है। | इस विषय में हम उनके कुछ कथनको उद्धृत करना उचित समझते हैं । कवि-सम्राट रवीन्द्र बाबू कहते हैं - " विदेशोंके साथ सम्बन्ध होनेसे भारतवर्षकी यह प्राचीन निस्तब्धता हिल उठी है; अर्थात् निस्तब्ध भारतवर्ष चंचल हो उठा है । मेरी समझ में इससे हमारा बल नहीं बढ़ता; उलटे हमारी शक्ति क्षीण होती जा रही है ।
इससे दिन दिन हमारी निष्ठा, अर्थात् विश्वास विचलित हो रहा है, हमारे चरित्रका संगठन नहीं होता, वह टूटता बिखरता जाता है, हमारा चित्त चंचल और हमारी चेष्टाएँ व्यर्थ हो रही हैं । पहले भारतवर्षकी कार्यप्रणाली अत्यन्त सहज-सरल, अत्यन्त शान्त: तथापि अत्यंत दृढ़ थी। उसमें किसी प्रकारका आडम्बर या दिखावा न था । उसमें शक्तिका अनावश्यक अपव्यय नहीं होता था । सती स्त्री अनायास ही पतिकी चिता पर चढ़ जाती थी और सेनाका सिपाही चने चबा कर समय पर उत्साह पूर्वक युद्धभूमिमें जाता और लड़ता था । उस समय आचारकी रक्षा के लिये सब प्रकारकी अड़चनें भोगना, समाजकी रक्षाके लिये भारीसे भारी यन्त्रणाएँ सहना और धर्म की रक्षा के लिये प्राण तक दे देना बहुत ही सहज था । निस्तब्धता या एकाग्रताकी यह अद्भुत शक्ति, इस समय भी भार
संचित है; स्वयं हम लोग ही उसको नहीं जानते । हम इनेगिने शिक्षा चंचल नवयुवक इस समय भी दरिद्रताके कठिन बलको, मौनके स्थिर जोशको, निष्ठाकी कठोर शान्तिको और वैराग्य अर्थात् अनासक्तिकी उदार गंभीरता को अपनी शौकीनी, अविश्वास,
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