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भारतमें दुर्भिक्ष। सन् १९०९ ई० में भारतमें बैल, गाय, मेंढे, बकरी, भैंस, घोड़े आदिको संख्या लगभग एक करोड़ थी। अनुमानसे जाना गया है कि प्रति ढोर६८मन खाद प्रति वर्ष तैय्यार हो सकती है। इस हिसाबसे ६८ करोड़ मन खाद और एक रुपयेकी दस मनके हिसाबसे ६ करोड़ ८० लाख रुपयोंकी होती है। जिसे हम कण्डे बना कर जला डालते हैं । यदि कहीं खाद बनाई भी जाती है तो अनुपयोगी रीतिसे बनाई जाती है, जो किसी कामकी नहीं होती। इसी प्रकार पशुओंका मूत्र भी लाखों रुपयोंका हमारी अनभिज्ञतासे व्यर्थ जाता है । मूत्रकी खाद इतनी उत्तम होती है कि उसके गुणोंको देख कर दातों तले उँगली दबानी पड़ती है । परन्तु जिस बुरी तरहसे हमारे देश में उसका सत्तानाश होता है उसको भी देख कर दातों तले उँगुली. दबानी पड़ती है !
गोबरकी खादसे उत्तम खाद भी होती है। वह खाद है हड्डीकी । परंतु हमारे भारतीय कृषकोंको इसका स्वप्नमें भी ध्यान नहीं । पहले गाँवोंके आसपास पशुओंकी हड्डियाँ बहुतायतसे पड़ी रहती थीं। परंतु आजकल वहाँ एक हड्डी भी नहीं दिखाई देती। कारण यह कि यूरोपके कृषक जो हड्डियोंकी खादके लाभसे भली भांति परिचित हैं, भारतसे हड्डियाँ मँगा कर उनकी बहुत ही लाभदायक खाद बना कर अपने खेतोंको बेहद उपजाऊ बना रहे हैं। विलायतके कृषकोंके अतिरिक्त यहाँके हड्डी भेजनेवाले एजेण्टोंको भी बहुत लाभ होता है। भारतीय कृषकोंकी मूर्खताका इससे बढ़ कर और क्या प्रमाण होगा कि हड्डीके समान लाभकारी वस्तुको, जो कृषि और कृषकोंका प्राण है, कौड़ियोंके मोल विदेशी दलालोंके हाथ बेचे देते हैं। भारतवर्षसे सहस्रों, लाखों मन हड्डियाँ जहाजोंमें लद कर जाती हैं और इंग्लैण्ड, जर्मनी,
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