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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ और भी। २०७ हमारे शास्त्र भी विदेश गमनके कट्टर विरोधी हैं । वे समुद्र यात्राको भारी पाप बताते हैं । किंतु यह भारी भूल ह, क्योंकि " विद्या वित्तं शिल्पं तावन्नाप्नोति मानवः सम्यक् । यावद् व्रजति न भूमौ देशाद्देशान्तरं हृष्टः ।।" इसे भी जाने दीजिए। हमारे पुराणों में अनेक मनुष्यों, देवों, राक्षसों आदिका भारतसे समुद्रों पार विदेशोंमें जानेका साफ तौरसे वर्णन है । फिर यह धार्मिक पचड़ा तो केवल एक वितण्डावाद है, हमें इसकी कोई पर्वाह नहीं करनी चाहिए। __ हा, हमारे लाखों भाई विदेशोंमें हैं, परन्तु वे शर्तबन्दीकी हथक. डियोंसे जकड़ कर भेजे गये हैं--उनका जाना न जाना भारतवर्ष के लिये समान सा ही है । वे बेचारे अपना उदर-पोषण कर लें सोही गनीमत है ! हाँ, यदि कुछ उत्साही, समझदार, लिखे-पढ़े लोग विदेशोंमें जाकर काम करें और नई नई बातें सीख कर भारतमें उनका प्रचार करें तो उनका विदेश-गमन निस्सन्देह सार्थक माना जा सकता है। ___ भारतवासियोंका यह एक मुख्य कर्तव्य है कि उपनिवेशोंसे तथा विदेशोंसे लौटे हुए भारतवासियों के साथ अच्छा. बर्ताव करें, शास्त्ररूपी छुरीसे उनका गला न काटें, उन्हें जातिच्युत कर उन पर वन प्रहार न करें। अब तक इस विषयमें हम लोगोंकी नीति बिलकुल अनु. दार रही है । " फिजीमें मेरे २१ वर्ष " नामक पुस्तकमें पं० तोतारामजी सनाढ्य लिखते हैं:--"कितने ही स्त्री-पुरुष गिरमिट (agrecment) को पूरा करके तथा पाँच वर्ष और रह कर भारतवर्षको लौटना चाहते हैं तो वे इस विचारसे नहीं लौटते कि वहाँ पहुँचने For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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