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कुछ और भी।
२०७ हमारे शास्त्र भी विदेश गमनके कट्टर विरोधी हैं । वे समुद्र यात्राको भारी पाप बताते हैं । किंतु यह भारी भूल ह, क्योंकि
" विद्या वित्तं शिल्पं तावन्नाप्नोति मानवः सम्यक् । यावद् व्रजति न भूमौ देशाद्देशान्तरं हृष्टः ।।" इसे भी जाने दीजिए। हमारे पुराणों में अनेक मनुष्यों, देवों, राक्षसों आदिका भारतसे समुद्रों पार विदेशोंमें जानेका साफ तौरसे वर्णन है । फिर यह धार्मिक पचड़ा तो केवल एक वितण्डावाद है, हमें इसकी कोई पर्वाह नहीं करनी चाहिए। __ हा, हमारे लाखों भाई विदेशोंमें हैं, परन्तु वे शर्तबन्दीकी हथक. डियोंसे जकड़ कर भेजे गये हैं--उनका जाना न जाना भारतवर्ष के लिये समान सा ही है । वे बेचारे अपना उदर-पोषण कर लें सोही गनीमत है ! हाँ, यदि कुछ उत्साही, समझदार, लिखे-पढ़े लोग विदेशोंमें जाकर काम करें और नई नई बातें सीख कर भारतमें उनका प्रचार करें तो उनका विदेश-गमन निस्सन्देह सार्थक माना जा सकता है। ___ भारतवासियोंका यह एक मुख्य कर्तव्य है कि उपनिवेशोंसे तथा विदेशोंसे लौटे हुए भारतवासियों के साथ अच्छा. बर्ताव करें, शास्त्ररूपी छुरीसे उनका गला न काटें, उन्हें जातिच्युत कर उन पर वन प्रहार न करें। अब तक इस विषयमें हम लोगोंकी नीति बिलकुल अनु. दार रही है । " फिजीमें मेरे २१ वर्ष " नामक पुस्तकमें पं० तोतारामजी सनाढ्य लिखते हैं:--"कितने ही स्त्री-पुरुष गिरमिट (agrecment) को पूरा करके तथा पाँच वर्ष और रह कर भारतवर्षको लौटना चाहते हैं तो वे इस विचारसे नहीं लौटते कि वहाँ पहुँचने
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