SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७४ भारतमें दुर्भिक्ष । गाड़ी आदि अपन साथ साथ लिये फिरा करते हैं । वे ब्राह्मण भी हैं जो मंदिर-सेवा द्वारा अपना काम चलाते हैं। वे फकीर भी हैं जो घर घर स्वाग धर कर माँगते रहते हैं। सारांश यह कि भिक्षावृत्ति करनेबालोंकी संख्या साठ लाख है, वे कोई भी हों। हमारा, साधु-समाज भारतवर्षके लिये बकरीके गलेके थनोंकी भाँति व्यर्थ ही है। पूर्वकालमें प्रायः अस्सी हजार साधु भारतवर्ष में थे । वे सब तपस्वी, धर्मनिष्ठ, वेद-वेदांगपारग और वनवासी थे। उनकी सारी आयु देशके कल्याण-चिंतनमें ही बीतती थी। जनताका उपकार उनके जीवनका एक मात्र लक्ष्य था । व्यास, बशिष्ठ, गौतम, कणाद, पतंजलि, पाणिनी आदि महर्षि उन्हीं अस्सी हजारमेंसे थे, जिन्होंने अपने तपोबलसे भारतका कल्याण किया है, जिनका वृहत् ऋण हमारे सिर है । कुपथगामी भूपालगणोंको सदुपदेश द्वारा अन्याय-पथसे हटा कर प्रजाका कल्याण करना एवं देशकी दशाका समय समय पर बोध कराते रहना उनका ही काम था। भारतवासियोंको सब प्रकारकी शिक्षा देना उन्हींका काम था। क्षत्रियादि अन्य वोंको उनके उनके धर्मामुसार चलाना उन्हींका काम था। भारतको दुर्भिक्षसे बचानेके निमित्त बड़े बड़े यज्ञ अहर्निशि करते रहना उन्हीं परोपकारी महात्माओंका काम था । क्योंकि वे विज्ञानवेत्ता थे--उन्हें श्रीकृष्ण भगवान्के गीतामें कहे वाश्य पर दृढ़ निश्चय था कि " अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवःयज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ।" For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy