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भिक्षुक ।
१७३ जिक शरीर बहु व्याधि-ग्रस्त और देश दारिद्रय दलित एवं दुर्भिक्षग्रस्त दिखाई देता है। इस कंगाल भारतमें यदि दानका ऐसा ही सर्व. स्वान्तक रूप कुछ दिनों तक बना रहा तो इस देशका भविष्य नन्द, यशोदाके भविष्यसे भी कहीं अधिक भयंकर हो उठेगा। हाय, क्या इसी स्वर्णभूमि भारत पर शिवि, दधीचि, हरिश्चन्द्र, रघु, गय, बलि, कर्ण, विक्रम आर श्रीहर्ष आदि प्रातःस्मरणीय वदान्य राजा राज्य कर चुके हैं ? हा न वे राम रहे न वह अयोध्या ही रही, न वह चमन ही रहा, न वे बुलबुलें ही रहीं ! ____“दानी बहुत थे किन्तु याचक अल्प थे उस कालमें ।
ऐसा नहीं जैसी कि अब प्रतिकूलता है हालमें । " भारतमें दान-प्रथाका रूप परिवर्तन हो गया । इस प्रथाने इतना जोर पकड़ा कि भारत में एक दम आलसी मनुष्योंने भिक्षा माँगना अपना एक रोजगार ही मान लिया। उसीसे वे अपने उदर-पोषणके अतिरिक्त अन्यान्य गृहकार्य चलाने लगे। इतना ही नहीं, कई भिक्षुक लखपति भी हैं । किन्तु--
" वन्दिनो दानमिच्छन्ति भिक्षामिच्छन्ति पङ्गवः । इह सत्पुरुषाः सिंहा अर्जयन्ति स्वपौरुषात् ।” अर्थात्-भिक्षाकी इच्छा करना लूले-लँगड़ोंका काम है, परन्तु भारतके लोग हट्टे कट्टे बलवान होते हुए भी भीख माँग कर उदरपोषण करते हैं । इत्यादि अनेक ग्रंथोंमें हमारे शास्त्रकारोंने भिक्षावृत्तिको अत्यन्त ही निंद्य कार्य कहा है। __ भारतवर्ष में लगभग साठ लाख मनुष्य भिक्षावृत्ति द्वारा अपना उदर भरते हैं। इनमें वे साधु भी हैं जो दल बाँध कर हाथी, घोड़े, ऊँट,
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