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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिक्षुक। १७५ __ अर्थात्--अन्नसे प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है और मेघसे अन उत्पन्न होता है, यज्ञसे मेघ उत्पन्न होता है और कर्मसे यज्ञ उत्पन्न होता है ।" वे अपने यज्ञकर्म द्वारा भारतको रोग, शोक, चिंता, दुर्भिक्ष आदि भयंकर उत्पातोंसे बचाते रहते थे। यही नहीं समय समय पर अस्त्र ग्रहण कर वे राजाओंको सहायता देते थे। उसी मण्डलीमें द्रोणाचार्य और कृपाचार्य थे, जिन्होंने महाभारतमें अपूर्व संग्राम कर बड़े बड़ शस्त्रधारियोंको चकित कर दिया था । जिनका कहना था कि-- " अग्रतश्चतुरोवेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः । ____द्वाभ्यामपि समर्थोस्मि शास्त्रादपि शरादपि ।" अर्थात्--" चारों वेद मेरे आगे हैं-हृदयस्थ हैं और धनुष-बाण पीठ पर हैं । शास्त्र और शस्त्र दोनोंमें मैं समर्थ हूँ।" तत्कालीन साधुओंके गुणोंकी प्रशंसा करना मानों सूर्यको दीपक दिखलाना है। उस समय विश्वामित्र जैसे ब्रह्मर्षि द्वितीय सृष्टि उत्पन्न करनेमें समर्थ महात्मा मौजूद थे । भृगु जैसे उग्र तेजधारी महात्मा विद्यामान थे। परशुराम जैसे वीर महात्मा मौजूद थे। ऐसा कौन राज्य था, जिसके परामर्श-दाता मंत्रियों के समूहमें एक भी ऋषि न रहता हो । दधीचिके समान परोपकारी महर्षि, जिन्होंने अपनी जांघकी हड्डी वृत्तासुरके मारने को देवताओं को दे दी थी, विद्यमान थे। __ आजकलके साधु-समाज पर जरा दृष्टि डालिए-तपके नामसे तो वे आग जलाके तपने का अर्थ निकालते हैं। धर्मनिष्ठा केवल नहा कर राख मठ लेजा और ति उक-छापे करके गले में माला डालने में समा रही है। वेदवेदांग-पारग होना तो उनके लिये बड़ी For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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