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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir wwwwwwwwwwww भारतमें दुर्भिक्ष। कठिन बात है, बल्कि उन्हें रामायणकी चौपई पढ़ना भी भली भाँति नहीं आती । वनवास तो उन्हें नरक तुल्य लगता है, सदा गाँवके बाहर ठहर कर अपनेको वे बनवासी कहते हैं। देशके कल्याणका इन्हें जरा भी ध्यान नहीं । इन्हें यह भी पता नहीं कि भारतवर्षकी इस समय क्या दुर्गति है और हमारा इस समय क्या कर्तव्य है। बल्कि उसे मिट्टीमें मिलानेके कार्य ये सदैव करते रहते हैं। तीन पाव या सेरभर अन्नका दिनभरमें नाश करते हैं और गाँजा, भाँग, चरस, चंडू, अफीम आदि मादक पदार्थोंका सेवन कर अपनी बुद्धि भ्रष्ट करते रहते हैं । कुपथगामी भूपालोंको ये बेचारे क्या हटा सकेंगे जब कि वे खुद ही कुपथमें जा रहे हैं । भारतवासियोंको ये निरक्षर भट्टाचार्य गँवार लोग कुछ शिक्षा भी नहीं दे सकते । वाँको धर्माचरण करनेका सदुपदेश ये दें कहासे, इन्हें यही पता नहीं कि वर्ण कितने होते हैं ! इन्हें हवनादि द्वारा देशका कल्याण करना ही नहीं आता, हैं। यदि उदर-रूपी हवन कुंड में पड़नेसे घृतादि पौष्टिक पदार्थ बचें तो यज्ञ सूझे । रात-दिन तमाखूका हवन तो ये बिला नागा करते रहते हैं । शस्त्र ग्रहण में भी ये कायर हैं। हैं। पटेबाजी करके थोड़ा उछल कूद जरूर कर लेते हैं, परन्तु यदि गवर्नमेट उनसे कहती कि युद्धमें सहायता करो, तो शायद ही कोई आगे आता । क्योंकि मुफ्तखोरोंसे काम होना जरा कठिन ही है । आजकलके साधू खानेको माल और ओढ़नेको दुशाले प्रयोगमें लाते हैं। हाथी पर सवारी और साधु नामकी ख्वारी करते हैं । उक्त लेखसे मेरा प्रयोजन सच्चे साधु महात्माओंसे नहीं हैं। .. हमारा ब्राह्मण समाज तो भिक्षक समाज बना बनाया है ही। For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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