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भिक्षुक।
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ब्राह्मण जातिने अपने हाथों अपनी मिट्टी पलाद कर रखी है, इसमें कोई सन्देह नहीं। आजकल ब्राह्मण नामका अर्थ ही भिक्षुक सा हो रहा है । लोग इस सर्व पूज्य, सर्वोच्च जातिका हेय दृष्टिसे देखने लगे हैं। इसमें दोष लोगोंका नहीं है, जैसा जो करता है वैसा ही वह नाम धराता है । ये भी साधु लोगोंसे कम नहीं, बल्कि इनका पारा एक-दो डिग्री अधिक ही है; क्योंकि ये लोगोंसे भीख मांग कर विवाह शादी आदि कामोंमें सहस्रों रुपया व्यय करते हैं । पढे लिखे हों तो भीख ही क्यों माँगे । क्याकिः----
"प्रतिग्रहसमर्थोपि प्रसंगं तत्र वर्जयेत् ।
प्रतिग्रहेण ह्यस्याशु ब्राझं तेजो प्रशाम्यति ॥" मनुमहाराज कहते हैं कि दान लेनेसे ब्रह्मतेज नष्ट होता है।
" तृणादपि लघुस्तूलस्तूलादपि हि याचकः।" अर्थात्-" तृणसे हलका रुईका फाया और उससे भी हलका भिक्षुक होता है । " यही कारण है कि आज अग्रजन्मा जाति नीच गिनी जा रही है । यह दुर्भिक्षके कारण हैं अथवा दुर्भिक्ष इनका कारण है ? मेरे विचारसे दुर्भिक्ष इनकी बेपरवाहीके ही कारण है। सच है या झूठ इसका अनुमान विज्ञ पाठक स्वयं कर लें। ___ यद्यपि ब्राह्मणोंमें तीर्थोके पण्डे समझे जा सकते हैं तथापि इनके विषयमें भी हम विशेष रूपसे कुछ लिखेंगे, क्योंकि दान लेनेवालों में
और भिक्षुकोंमें ये भी अग्रगण्य हैं । देखिए मथुराके पंडे चौबोंके विषयमें मथुराके पुराने कलेक्टर मि० ग्राउस सा० मथुरा मेमोरियटमें लिखते हैं।
“The Chanbes of Muttra, however, numbering in all some 6,000 persons, are a peculiar
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