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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिक्षुक। १७७ ब्राह्मण जातिने अपने हाथों अपनी मिट्टी पलाद कर रखी है, इसमें कोई सन्देह नहीं। आजकल ब्राह्मण नामका अर्थ ही भिक्षुक सा हो रहा है । लोग इस सर्व पूज्य, सर्वोच्च जातिका हेय दृष्टिसे देखने लगे हैं। इसमें दोष लोगोंका नहीं है, जैसा जो करता है वैसा ही वह नाम धराता है । ये भी साधु लोगोंसे कम नहीं, बल्कि इनका पारा एक-दो डिग्री अधिक ही है; क्योंकि ये लोगोंसे भीख मांग कर विवाह शादी आदि कामोंमें सहस्रों रुपया व्यय करते हैं । पढे लिखे हों तो भीख ही क्यों माँगे । क्याकिः---- "प्रतिग्रहसमर्थोपि प्रसंगं तत्र वर्जयेत् । प्रतिग्रहेण ह्यस्याशु ब्राझं तेजो प्रशाम्यति ॥" मनुमहाराज कहते हैं कि दान लेनेसे ब्रह्मतेज नष्ट होता है। " तृणादपि लघुस्तूलस्तूलादपि हि याचकः।" अर्थात्-" तृणसे हलका रुईका फाया और उससे भी हलका भिक्षुक होता है । " यही कारण है कि आज अग्रजन्मा जाति नीच गिनी जा रही है । यह दुर्भिक्षके कारण हैं अथवा दुर्भिक्ष इनका कारण है ? मेरे विचारसे दुर्भिक्ष इनकी बेपरवाहीके ही कारण है। सच है या झूठ इसका अनुमान विज्ञ पाठक स्वयं कर लें। ___ यद्यपि ब्राह्मणोंमें तीर्थोके पण्डे समझे जा सकते हैं तथापि इनके विषयमें भी हम विशेष रूपसे कुछ लिखेंगे, क्योंकि दान लेनेवालों में और भिक्षुकोंमें ये भी अग्रगण्य हैं । देखिए मथुराके पंडे चौबोंके विषयमें मथुराके पुराने कलेक्टर मि० ग्राउस सा० मथुरा मेमोरियटमें लिखते हैं। “The Chanbes of Muttra, however, numbering in all some 6,000 persons, are a peculiar १२ For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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