SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८० भारतमें दुर्भिक्ष । उनके नेत्र भंगसे लाल लाल रहते हैं । माथा राखसे चुपड़ा होता है। और फटे हुए वस्त्र पहिने उत्तम भोजन मिलनेकी आशामें वे फूले नहीं समाते । इसी भाति प्रत्येक तीर्थके पंडे कसाईकी भाँति यात्रियों की खाल तक निकालने में कसर नहीं रखते । ये लोग बेचारे यात्रियोंका धन लूट-खसोट कर अपना घर बनाते हैं । भूखों मरते भारतवासी अपने पेट पर पट्टी बाँध कर उन्हें धन देते हैं। इस देश की क्या ही विचित्र दशा है कि दाता तो भूखों मरें और दान लेनेवाले लखपती करोड़पति बनें, ऐशो आराममें उम्र बिताया करें। ___ एक दल भिक्षुकोंका और भी है, वह फकीर कहाता है-ये मुसलमान साधु होते हैं । ये लोग तो प्रत्यक्षमें ठग होते हैं । माँग खाना इनका धन्धा है, बाकी फकीरीका लक्षण इनमें एक भी नहीं है। प्रायः इनका भार भी हिन्दुओंके माथे ही हैं । इनको माँगने के अच्छे अच्छे ढंग और हथकण्डे आते हैं । धूर्तता इनका मुख्य उद्देश और विलासिता इनकी सहचरी है। भारतवासियोंका-अहिंसा धर्मके अनुयायी हिन्दुओंका-पैसा ये लोग मांस-भोजन तथा व्यभि. चारमें व्यय करते रहते हैं । इनके अतिरिक्त और भी कई लोग भिक्षुक हैं जो अपना उदर-पोषण केवल भीख माँग कर ही करते हैं। ___ हमार यहाँकी दान-प्रथा बिलकुल बिगड़ गई । दाता पात्र-कुपात्रको देख कर दान नहीं देता तो याचक दान कुदानको नहीं देखता। जैसे राखमें डाला हवन नहीं कहाता, उसी प्रकार मूखों और कुपात्रोंको दिया हुआ भी दान नहीं कहाता । व्यासजी कहते हैं For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy