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भारतमें दुर्भिक्ष। ऐसे अन्यायके कई उदाहरण हैं, किंतु हमारा यह विषय नहीं, भत एव विशेष लिखना हम अनुचित समझते हैं ।
परन्तु हमें देश छोड़ कर विदेश जाना तो दूर रहा, गाँव छोड़ना भी कठिन है । क्योंकि घरके लोग कहा करते हैं-" तुम कहीं न जाओ, हम तो रूखी सूखीसे गुजर कर लेंगे । घरके सब लोगोंको एक जगह मिल कर रहना चाहिए ताकि समय कुसमय, सुख-दुःख में एक दूसरेका संगी रहे; कहींके कहीं पड़े रहना ठीक नहीं, इत्यादि । " सत्य मानिए, ऐसे संकीर्ण विचारोंके कारण ही भारत-वासी वर बैटे गरीब हालतमें गुजर किया करते हैं । यदि भारतमें ही उन्हें कहीं ३०) रु० मासिक मिलता हो तो वे वहँ। कदापि न जावेंगे; घर पर २०) रु० में ही गुजारा करना स्वीकार कर लेंगे। सहस्रों मनुष्य भारतमें ऐसे मिलेंगे कि जिनके तबादले का हुक्म आया कि उन्होंने घर छोड़ कर वहाँ जाना स्वीकार नहीं किया और नौकरीसे इस्तीफा देकर बेरोजगार होकर वे घरमें बैठ रहे। भोजनके लाले पड़ गये, परन्तु घरसे बाहर जाना पाप समझा। जब ऐसी दशा है तो भारतकी श्री-वृद्धि कैसे हो सकती है ? निर्धनता
और दुर्भिक्षका कैसे काला मुहूँ हो सकता है ? विदेशी लोगोंके बालक भी समुद्रों पार भारतमें आ जाते हैं और दरिद्र भारतसे मनचाहा द्रव्य पैदा कर अपने देशोंको ले जाते है ! यद्यपि उनके देश दरिद्र नहीं हैं, वहीं उद्योग-धन्धों की कमी नहीं है तथापि वे वहाँसे यहाँ आते हैं; क्योंकि वे इस बातको निश्चय मान चुके हैं कि विदेश-गमन करना मानो अपने देशको धनसे भरना है। इन लोगोंमें एक बड़ी भारी विशेषता यह है कि वे अपने देशसे आकर
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