SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ और भी। यवनोंकी भैाति भारतवर्ष में बस नहीं गये हैं, बल्कि यहाँसे कमा-खा कर अपने देशकी सुधि लेते रहते हैं। उधर विदेशी लोगोंकी यह दशा है तो इधर भारतवासी आमरण एक ही जगह कौओंकी भाँति रह कर अपना जीवन व्यतीत करने में अपने को धन्य समझते हैं, तब भारत दरिद्र क्यों न हो! . जब हिन्दुस्थानकी ऐसी भयंकर स्थिति है तो यही व्यभिचार, नशेबाजी आदि दुर्व्यसनोंकी वृद्धि हो तो आश्चर्य ही क्या ? जब अभ इतना महँगा है और मजदूरीकी दर इतनी सस्ती है कि दिन भर पसीना बहाने पर भी भर पेट अन्न प्राप्त करना कठिन है, बीमारीको दशामें पानीकी भी पूछनेवाला कोई नहीं है, दवा देनेवाला कोई नहीं है, तो उसका फल क्या होगा ? देशमें पापाचरण होंगे, जुआरी बढेंगे, ठग, चोर डाकुओंके दल बनेंगे, नशेबाजोंकी संख्या बढ़ेगी आर व्यभिचारका बाजार गर्म होगा। क्योंकि " कष्टात कष्टतरं क्षुधा ''--भूखसे बढ़कर इस संसारमें कोई कष्ट नहीं है। यह सारा विश्व अपनी क्षुधा शांत करने के उद्योगमें ही लगा हुआ है, इस पापी पेटके भरनेके निमित्त बड़े बड़े घोर पाप तक हो जाते हैं। मौका पाते ही भूख मनुष्यसे अनेक निंद्य और अमानुषिक कृत्य करा डालती है। भारतवर्ष भूखा है, अत एव देशमें नशेबाजी, जुआचोरी, ठगी, व्यभिचार आदि पापोंका मूल कारण एक दुर्भिक्ष है। लोग कहा करते हैं कि “ ईश्वर भूखा उठाता है, किंतु भूखा सुलाता नही "यह बात विचारणीय है, क्योंकि आज भारतवर्षकी करोड़ों संतान--भूखी सोनेकी तो बात ही क्या, बल्कि सदा -सर्वदाके लिये नित्य सो रही है जो कभी न उठेगी! भारतमें दुर्भिक्ष For Private And Personal Use Only
SR No.020121
Book TitleBharat me Durbhiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshdatta Sharma
PublisherGandhi Hindi Pustak Bhandar
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy