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कुछ और भी।
इस मिट्टीके तैलके साथ ही साथ अन्यान्य वस्तुओंकी भी आवश्यकता पड़ती है, जो कि सब विदेशो होती हैं। जैसे लेम्प, चिमनी, ग्लोब, बत्ती आदि । इसी भैाति गेस और बिजलीके लिये विदेशी ही वस्तु काममें लाई जाती है। बिजलीके कारखानोंके इंजिन, तत्सम्बन्धी सामान, तार, खंभे, काँचकी चिमनियाँ इत्यादि सभी विदेशोंकी बनी होती हैं, यहाँ तक कि उसका मालिक भी कोई विदेशी सज्जन ही होगा ! गैसकी बत्ती--जो छूनेसे ही नष्ट हो जाती है, बर्नर, काँच, तार, पंप आदि सभी चीजें विदेशी होती हैं । सारांश यह कि उसके काममें लानेवाले ही केवल भारतवासी स्वदेशी होते हैं, अन्य कुछ नहीं ! हँ। उस प्रकाशको देख कर " वाह वाह' कहनेवाले भी स्वदेशी ही होते हैं । परन्तु यह वाह वाह क्या सचमुच ठीक है या हमारी मूर्खताका नमूना है ? कुछ मी समझिए मेरे विचारसे अनेक मार्गोंसे भारतका धन विदेशोंको खिंचा जा रहा है और भारत हमारी अज्ञतासे दिनों दिन दरिद्र और दुर्भिक्षका भोजन होता जा रहा है। ___+ + + + + __ हम उसी नगरको उन्नतावस्था में समझते हैं जहाँ रेल, तार, टेलीफोन, पानीके नल, विजलीकी रोशनी, ट्रामगाड़ी, मोटर और बाइसिकलें आदि इधर उधर घूमती फिरती दृष्टि आती हैं। जहाँ दो चार मिलें या कारखाने न हों वह नगर कदापि उन्नत नहीं कहा जा सकता । जहाँ मोटर भों भों करती हुई अपनी दुर्गन्ध भरी वायु न छोड़ती जाती हो वह नगर नगर ही नहीं। हमारी कैसी उलटी समझ है! रेलका प्रत्येक सामान विदेशी है तो उसके मालिक भी विदेशी
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