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भारत में दुर्भिक्ष |
तक हो गया तब भी हम उसको त्यागना नहीं चाहते ? हमें चाहिए: कि हम इस तैलको प्रयोग में लाना एकदम छोड़ दें ताकि दरिद्र भारतका अरबों रुपया बाहर जानेसे बचे और प्लेग आदि भयंकर रागोंका देशसे काला मुंह हो !
हमें तिलोंके तैलकी रोशनी बुरी लगने लगी तब मिट्टीके तैलके लैम्पको काचका बना कज्जल-ध्वज लगा कर हमने अपने नेत्रोंको सुखी किया । शनैः शनै: हमें इस प्रकाशमें भी कम दीखने लगा तो Kitson Gigh की सृष्टि हुई -- विवाह शादियों में, नाच- रंगोंमें, आनन्द-उत्सवों में नाईकी मशालोंका अपमान कर इनको स्थान दिया गया । धीर धीरे हम अंधोंको इसमें भी नहीं सूझने लगा तक विद्युत् - प्रकाशका नम्बर आया । ईश्वर न करे, कहीं हम भार तीयोंको- तिलोंके तैलके प्रकाश में सतयुग से अब तक काम करनेवालोंको-अपनी दृष्टि शक्ति कम हो जानेके कारण यह बिजली की रोशनी भी पर्याप्त न हो ! और हमें पढ़ने के समयः सूर्य-सदृश प्रकाशवान् किसी ज्योतिको घर घर आवश्यकता पड़े ! आश्चर्य है कि आज हमने इस तैलका व्यवहार कर, अपने हाथों अपनी आँखें खराब कर लीं और ऐनक लगाने लग गये हमारे विदेशी बन्धुओं को इसमें भी लाभ है, क्योंकि करोड़ों रुपये की ऐनके अन्धे भारत में खप जाता हैं । हम यह बात जानना चाहते हैं कि रातदिन लिखनेवाले श्रागणेशजी, अथवा वाग्देवी सरस्वतीया १८ पुराणों तथा महाभारत के लेखक महर्षि व्यास किंवा रामायण के रचयिता महर्षि बाल्मीकिने भी कभी अपनी वृद्धावस्था तक ऐनक लगाई थी या नहीं ?
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