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भारतमें दुर्भिक्ष । फटी बिवाई वह क्या जाने पीर पराई "। जिसका पेट भरा होता है वह भूखे आदमीकी पीड़ाका अनुभव नहीं कर सकता । जिन महापुरुषोंको इसका अनुभव है उनके पास इसका दूर करनेका काई साधन नहीं है । क्योंकि व्यापार तथा शासनकी बागडोर दूसरोंके हाथमें है । स्वराज्य ही हमारे व्यापारकी उन्नतिका एक मात्र बीजमंत्र है । | ___ वर्तमान मांटगू-चेम्सफोर्ड सुधारमें यह एक बड़ी त्रुटि है, और इस त्रुटिका कारण यह है कि प्रान्तीय सुधारोंके सिवाय बड़ी सरकारमें कुछ भी सुधार नहीं किये गये हैं । शासन-सुधारोंमें प्रांतीय स्वराज्यके साथ साथ ही प्रान्तीय व्यापार भी दिया गया है । किन्तु जरा सोचनेकी बात है कि किसी देशके उत्थानके लिये केवल अन्तदेशीय व्यापार कदापि अधिक लाभप्रद नहीं हो सकता। किंतु राष्ट्रका बल और पूजी तो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारसे ही बढ़ती है और उस
ओर सरकारने एक कदम भी आगे नहीं रखा है ! यह बड़े ही दुखकी बात है । भविष्यको सोच कर हम और भी अधिक भयभीत हैं। __अपने कृषकोंकी दीनताका दोषारोपण हम वैश्य-समाज पर करेंगे। क्योंकि बोनीके समय किसानके पास सब कुछ है, किन्तुबीज नहीं । अब क्या करे ? इसके सिवाय कि वह महाजनके पास जाय और या तो बीज लावे, या रुपये । दोनों हालतोंमें महाजनको जमानत चाहिए। किसानकी जमानत क्या ! उसकी जमीन या उसकी पैदावार । प्रायः पैदावार ही किसानको जमानत होती है। अब च कि उसकी जमानत अच्छी नहीं, अत एव साहूकार खूब कस कर उससे व्याज लेता है। यदि किसान १००) रु० ले तो पहले उसे कुछ तो स्टाम्पके लिये खर्च करना पड़ता है। फिर सेठजीने
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