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मोरीशस टापू ।
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मि० बेटसनने जो दीन-दुखी भारतीय मजदूरोंका पक्ष लिया, इसका परिणाम यह हुआ कि मोरीशसकी व्यवस्थापक सभा के गोरे प्रतिनिधियोंने उनकी नियुक्ति के विरुद्ध आन्दोलन करना शुरू किया । वहाँ के स्वार्थी समाचार-पत्रोंने भी इन्हीं लोगों की हाँ में हाँ मिलाई । केवल यही नहीं बल्कि ये लोग ऐसी ऐसी चालाकियोंसे काम लेने लगे कि अन्त में विरक्त होकर इस न्यायवान्, सरल अँगरेज मजिस्ट्र ेटको इस उपनिवेश से विदा होना पड़ा ।
मोरीशस सरकार के अत्याचार ज्योंके त्यों जारी हैं । अभी बहुत दिन नहीं हुए तब उन्होंने पं० जयशंकर पाठक तथा मुसलमान भाइयोंको बिना कुसूर देशसे निकाल दिया था। हमारी समझमें यह प्रत्येक मनुष्यका अधिकार है कि दण्ड पानेके पहले वह दोषी सिद्ध किया जाय, पर मोरीशसके नादिरशाही राजकर्मचारियोंको इस बातकी क्या परवा है !
क्या भारत में रहनेवालोंका यही कर्तव्य है कि अपने देश बन्धुओंके साथ इस भाँति अन्याय, अत्याचार और जुल्म देखते रहें और हम वहाँको बनी शक्कर जो उनके रक्तके समान है, बिना कुछ सोचे समझे खाते चले जायँ ? जहाँ अपने भाइयोंको नरकके समान यातना दी जाती हो, वहाँ की वस्तु ग्रहण करना तो क्या छूना भी घोर पाप है । वहाँ की बनी वस्तुओंका घोर बायकाट करना मानों अपने दुखी भाइयों की तकलीफों को दूर करना है, मानों अपने देशको धनवान्, सुखी और दुर्भिक्ष रहित करना है ।
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कई लोग यह कह देते हैं कि "आज तक तो विदेशी शकर खाते रहे, नस नस में वह घुस गई, अब परहेज करनेसे कुछ लाभ नहीं ।"
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