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दुर्भिक्ष।
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चरमको पहुँची है । सच तो यह है कि इस समय भारतीय अन्नकी दर यहाँ तक चढ़ गई है; जहाँ तक इसकी रफ्तनी यूरोपीय व्यवसायियोंके हाथ रहनेसे भी न चढ़ी थी। फिर भी इस विषयमें चारों
ओर सन्नाटा छाया हुआ है । किसी तरहकी कैफियत निकल नहीं रही है; इसके प्रतिकारके सम्बधमें कोई सुव्यवस्था होती नहीं दिखाई देती है। इस विषयमें किसी भी प्रादेशिक सरकारकी ओरसे विशेष कोई बात कही नहीं गई है । गत सप्ताह एक बिहार सरकारने एक अच्छी बात कही है । उसकी ओरसे कहा गया है कि इस समय इस प्रदेशमें अन्नकी जैसी महाधता उपस्थित है उससे कृषकोंमें तकाबी बॉटनेकी व्यवस्था होने की बड़ी आवश्यकता प्रतीत हुई है। हो तकाबीकी व्यवस्था; किन्तु एक इसी व्यवस्थासे सारे भारतका महाप्रता-जनित हाहाकार कैसे मिट सकेगा? इस विषयमें जब तक भारत-सरकार कोई सुव्यवस्था न करेगी तब तक लोगोंका यह कष्ट कैसे मिटेगा? महार्घताके फलसे सारा देश उद्विग्न है; कोटि कोटि मनुष्य अन्नकी ज्वालासे सूखे जा रहे हैं; क्या इस समय भी भारतीय अन्नको वैदेशकि रफतीमें रुकावट उत्पन्न करने की आवश्यकता उपलब्ध की नहीं जाती है !
वस्त्रकी महार्घता भी कम आवश्यक प्रश्न नहीं । बहुतेरे लज्जाशील मनुष्य लज्जा परित्याग करने से पहले अपना जीवन परित्याग कर दिया करते हैं । अबसे कुछ समय पहले ऐसी कितनी ही दुर्घट. नाएँ हो चुकी हैं। कौन जानता है कि इस समय भी हो न रही होंगी। ऐसी ही इस भीषण आवश्यकताके मिटानेका क्या उपाय हो रहा है ? अबसे कुछ समय पहले भारत-सरकार समग्र भारतके लिये
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