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भारतमें दुर्भिक्ष ।
"हिन्दी-बंगवासी' ३ फरवरी १९१८ ई. के अकमें लिखता है
भन्न और वस्त्र मनुष्य-जीवनके सर्वापेक्षा अधिक आवश्यक द्रव्य हैं । बिना अन्नके मनुष्य जी नहीं सकता; बिना वस्त्रके मनुष्य लज्जा निवारण कर नहीं सकता । फिर भी इस समय यह दोनों ही आवश्यक द्रव्य अतीव दुष्प्राप्य हो गये हैं। इन दोनों द्रव्योंका मूल्य इतना अधिक हो गया है कि इन्हें दरिद्र तो दरिद्र, मध्यश्रेणीके भी मनुष्य आसानीसे पा नहीं सकते हैं। जिस समय केवल वस्तु महँगी और अन्न सस्ता था उस समय केवल दिगम्बरीका भय था। इस समय इन दोनों द्रव्योंके महाघ हो जानेसे दिगम्बरीकी भी आशङ्का है। अकाल मृत्युको भी आशङ्का है; केवल आश
ङ्का ही क्यों, अनेक स्थलों में दिगम्बरी और मृत्यु दोनों हाथसे हाथ मिला पैशाचिक नृत्य करती दिखाई देती हैं । नहीं जानते कि इन दोनोंके अत्याचारसे भारतवासियोंकी रक्षा कैसे होगी ?
यूरोपीय युद्धके उपरान्त जब समग्र भारतमें महार्यता दिखाई दी थी, तब भारत सरकारने अग्रसर हो यह कहा था कि इस युद्धके समय भारतीय अन्न देशान्तरित करने का अधिकार यूरोपीय व्यवसायियोंके हाथ नहीं; भारत-सरकारके हाथ रहेगा। यह कह इस सरकारने यह अधिकार यूरोपीय व्यवसायियोंके हाथसे निकाल अपने हाथ लिया था। साथ-साथ इसका सुफल भी प्रकट हुआ था। भारतीय भन्नकी चढ़ी हुई दर एकाएक गिर गई थी। किन्तु यह ब त कुछ ही समय तक रही। इसके उपरान्त वह दर एक बार फिर चढ़ने लगी । चढ़ते-चढ़ते वह बहुत चढ़ गई। इस समय यह
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