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भारतमें दुर्भिक्ष। खाँडके आशिक बन रहे हैं । चुकन्दरकी खाडमें वह लज्जत और उम्दगी नहीं होती जो कि देशी नैशकरकी चीनीमें होती है । चुकन्दरकी बनी मिठाई जल्द बदबू देने लग जाती है। कोई कोई आम काले रंगका होता है, कोई काले और पीले रंगका । लेकिन रंगसे आमकी असलियतका फैसला नहीं कर सकते । इसी तरह रंगसें चीनीकी असिलियतका परखना, इल्मवालोंका काम नहीं । किफायत शुभारीकी रूसे भी देशी खाड ही अरजा है, क्योंकि जहाँ वह सेर काम देती है, वही यह भाध सेर ही काफी साबित होती है।" ___ " आयुर्वेद-प्रचार " लाहोरके १ नवम्बर सन् १९०३ में लिखा है-"हिन्दुस्तानी शक्कर बलिहाज़ फायदा भी आला है, हाला कि वलायती खाँडके अमराज पैदा करनेके मुताल्लिक कई डाक्टर लिख चुके हैं, मगर न मालूम हमारे भाई देशी खाडके इस्तैमालका सच्चे दिलसे इकरार क्यों नहीं करते और क्यों उसे इस्तेमाल में नहीं लाते। अगर मौजूदा हाल रहा तो देशी शक्करका मिलना भी दुश्वार हो जायगा। लोग नैशकरकी खेती ही छोड़ देंगे और फिर पछतायँगे और कुछ कर नहीं सकेंगे। अभी वक्त है अगर संभला चाहते हैं।"
‘हिन्दी-बंगवासी ' कलकत्ता अपने ३० नवम्बर सन् १९०३ ई० के अंकमें लिखता है__“ भारतवर्षसे प्रति वर्ष एक लाख टन प्रायः (२८००००० मन) जानवरोंकी हड्डिया भेजी जाती हैं । जर्मनी और इंग्लैण्डमें हड्डि. योंके कारखाने अधिक हैं । ये हड्डियाँ खाद तथा चीनी आदि अनेक पदार्थों के प्रस्तुत करने में काममें लाई जाती हैं।"
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