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भारतमें दुर्भिक्ष । कभी किसीके यहाँ विवाह-शादीमें जेवनार होने दीजिए तब जूठी पत्तलोंके पड़ते ही भिक्षुक और कुत्ते एक साथ उन पत्तलों पर टूट पड़ते हैं । कुत्ते उनसे छुड़ाते हैं और वे कुत्तोंसे छुड़ाते हैं। कैसी हृदय-विदारक बात है । हाय, इस अभागे भारतको सन्तान इस प्रकार भूखों मरती है । रेलवे स्टेशनों पर जब कि रेलगाड़ी आकर ठहरती है और मुसाफिर कुछ खाकर खाली दोने फेंकते हैं तब भूखों मरते हमारे भारतीय बन्धु उन्हें कुत्तोंसे छीन छीन कर खाना चाहते हैं। क्या ही शोचनीय दशा है ! क्या सिवाय भारतके किसी अन्य देशकी भी यह दशा है ? नहीं, कदापि नहीं । यह तो केवल एक अभागा भारतवर्ष ही है जहाँके लोग और कुत्ते आपसमें भोजनके लिये इस भाँति लड़ते हैं। किसी कविने सच कहा है
" मंगनमें अरु स्वानमें, इतो भेद विधि कीन्ह । स्वान सपुच्छ विलोकिये, मंगन पूछ विहीन ।” कहा जाता है कि भारतवासी कमजोर होते हैं, पर यह बात बिलकुल झूठ है । हैं। इतना अवश्य है कि पहले की अपेक्षा वे अब निर्बल हैं, किंतु अन्य देशोंके किसी मनुष्यसे शक्ति में कम नहीं हैं। भारतवासी इतनी कड़ी मिहनत करनेवाले होते हैं कि उनके समान दूसरे किसी देशका मनुष्य परिश्रम नहीं कर सकता। किंतु यहाकी मजदूरी इतनी कम है कि बेचारे मजदूरोंको अपना उदर-पालन करना भी कठिन है। दिन भर पत्थर फोड़ने पर भी एक मजदूर रातका वही ज्वारी या मक्कीकी सूखी रोटी नमककी डलीके साथ खाता है। और विदेशोंमें मजदूर लोग इतना पैदा कर लेते हैं कि अल्प परिश्रमसे खाने पीनेके
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