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दुर्भिक्ष । दोनों अभावोंकी ओर ध्यान दे-इनके मिटानेके सम्बन्धमें कोई उपयुक्त व्यवस्था करे।
भारतवर्षकी इस समय अत्यन्त भयकर स्थिति है। यदि हम अब भी अपने पैरों नहीं खड़े हुए तो देशकी दशाका सुधरना असंभव है । भारतवासियोंको अपनी दशा सुधारनेकी स्वयं चेष्टा करनी चाहिए, अब दूसरोंका मुंह ताकनेका समय नहीं है । जरा विचारिए, १९ वीं सदीके पिछले २५ वर्षोंमें दो करोड़ पच्चीस लाख मनुष्य दुर्भिक्षसे मरे, अर्थात् प्रति वर्ष १० लाख, प्रति मास ८६ हजार और प्रति दिन २८८० और प्रति घण्टा १२० एवं प्रति मिनिट २ भारतीय बराबर २५ वर्षों तक दुर्भिक्षसे मरते रहे । उन दिनों ही जब प्रति मिनिट दो मनुष्य मरे तो जरा आजका अन्दाजा आप ही लगा लीजिए कि कितने भारतवासी प्रति मिनिट भूखके मारे प्राण छोड़ रहे हैं ! हाय यह दुर्भिक्ष है या भारतवर्षका अन्तिम दृश्य ! भारतवासियो, यह निश्चय मान लो 'कि जब आप आनन्द-पूर्वक पलंग पर सुखसे लेटे हैं तब न जाने आपके कितने देश-भाई भूखों मरते इस संसारसे बिदा हो रहे हैं ! कोई एसा नहीं जो उनके मुखमें पानीकी बूंद भी जाफर डाले ! माता-पिताके जीवित रहते भूखसे व्याकुल हो, बिना अन्न उनके हृत्खण्ड छोटे छोटे बालक प्राण विसर्जन कर रहे हैं । और बादमें स्वयं भी प्राणत्याग रहे हैं। यदि माताने पहले प्राण त्याग दिये हैं तो बच्चा क्षुधा-तृषासे पीड़ित अपनी मृत माताके स्तनोंको चूस रहा है और अन्तमें रोते रोते भूखसे तड़फड़ाते हुए, हताश हो कर उसीकी छाती पर आप भी प्राण दोड़ देता है ! शिव ! शिव ! कैसा लोमहर्षण भयानक दृश्य है।
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