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भारतमें दुर्भिक्ष ।
मैलेसे घृणाका समाचार सुनाया जाता है तब वे बहुत आश्चर्य करते हैं। उनका यह दृढ़ विचार है कि भूमि उपजाऊ बनानेके लिये इस खादका प्रयोग सर्वोत्तम है। विदेशोंमें तो उसका मूल्य है,. पर भारतमें नगरों और कस्बोंका मल-मूत्र दूर तक खेतोंमें न पहुँचा कर नदियोंमें डाल दिया जाता है, जो उलटा हानि-प्रद होता है । ऐसा करना मानो लाखों रुपये पानीमें फेंक देना है । भारतके समान दीन देशका यदि एक रुपया भी खो जाय तो उसके लिये बड़ा ही दुखदायी है। ऐसी दशामें भारतका करोड़ों रुपया प्रति वर्ष खोना कितने आश्चर्य
और दुःखकी बात है । लण्डनमें यद्यपि मैलेकी खाद बनाने का उत्तम प्रबन्ध है तथापि वहाँके कृषि-विज्ञोंने अनुमान किया है कि लण्डनके मैलेसे इतनी खाद तैय्यार हो सकती है जिसकी कीमत ३१ करोड़ ५० लाख रुपये हो सकती है । मैलेको खादका मूल्य प्रति मनुष्य पाँच रुपये वार्षिक रखा गया है । बेल्जियममें इसका मूल्य प्रति मनुष्य प्रति वर्ष १०) रखा गया है। भारतकी जन-संख्या ३२ करोड़ है। अत एव कमसे कम पांच रुपये प्रति वर्ष प्रति मनुष्यके हिसाबसे भार. तको एक अरब, साठ करोड़ रुपये वार्षिक हानि उठानी पड़ती है। भारतकी म्यूनिसिपेलटियाँ कठिनतासे एक करोड़ रुपया वार्षिक पैदा करती होंगी। भारतकी यह मैलेकी खाद ४५६२५००० एकड भूमिको उपजाऊ बनानेके लिये पर्याप्त है।
खाद कई तरहकी होती है। यदि उन सबका हाल संक्षिप्तमें भी यह। लिखने बैठे तो कई पुष्ट रँगे जा सकते हैं, अत एव मुख्य तीन प्रकारकी खादोंका वर्णन ही यहाँ पर अलं होगा। मुख्य बात यह है. कि भारतीय कृषक अपने खेतोंमें खाद देना जानते ही नहीं । एक बार लेखकने एक गावके जमींदारसे पूछा कि क्या यहाँ खाद बनाई नहीं जाती ? उसने उत्तर दिया नहीं-तब मैंने पूछा,तो फिर खेतोंमें उपज
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