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भारतमें दुर्भिक्ष । ओर पशुओंकी संख्या घटती है। दूसरे बैलों और भैंसोंको बधिया बनाके पशु-वंशका नाश किया जाता है। तीसरे महा लोभी ग्वाले जो दूध बेचनेका व्यापार करते हैं; पशुओंको इतनी कम खूराक दते हैं कि जिससे उनके पशु प्रायः बीमार होकर मर जाया करते हैं।
हम देखत हैं कि आजकल भारतके सब नगरोंकी म्यूनिसिपाल्टियाँ पशुआ पर टेक्स लगा कर प्रति वर्ष हजारों रुपये वसूल करती हैं, परन्तु पशुओंकी चिकित्साके वास्ते ऐसे डाक्टर नहीं रखती, जो पशुओंकी देख-भाल किया करें । हमने देखा है कि सैकड़ों दुष्ट ग्वाले गौ और भैसोंका फूकेसे दूध निकालते हैं, जो महा वृणित रीति है, इससे पशु बहुत जल्दी मरते हैं । __ हिन्दुओंमें गो-बंशको बढ़ानेवाली वृषोत्सर्ग (श्राद्धमें बैलको दागकर छोड़ने) की जो रीति है, उसकी ऐसी बुरी दशा है कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता। आजकल इस भयंकर दरिद्रताके कारण इस वृषोत्सर्ग-श्राद्धको कोई करता ही नहीं और यदि करते हैं तो उन दागे हुए सांडोंको लावारिस समझ कर या तो म्यूनिसिपाल्टियोंकी मैलागाड़ी में जोत दिया जाता है या कोई मार डालता है ।।
इसके अतिरिक्त आजकल गोमांसका व्यापार इतना बढ़ गया है कि जिसके कारण भारतमें पशुओंकी संख्या घटती ही जा रही है। भारतवर्षमें रहनेवाले मांस-भक्षियोंके पेट-पालनार्थ जितने पशु मारे जाते हैं, उनसे अधिक वर्मादेशके सूखे मांस-व्यापार के लिये केवल संयुक्त प्रांत में प्रति वर्ष १३४०५८ पशुओंका वध होता है। जिसका निम्नलिखित व्यौरेबार हिसाब सन् १९१९ में भारतवर्षीया
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