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भारतमें दुर्भिक्ष । तपोवनकी अमृत, अशोक, अभय होमकी अग्नि अब भी जल रही है। यदि कभी आधी आवेगी तो आजकलका यह बड़ा आडम्बर, डींग, तालिया पीटना और झूठी बातें बनाना--जो कि हमारी ही रचना है, जिसे हम भारत वर्षभरमें एक मात्र सत्य और महान समझते हैं, किन्तु यथार्थमें जो मुंहजोर चञ्चल और उमड़े पश्चिम सागरकी उगली हुई फेनकी राशि है-इधर उधर उड़ जायगा, दिखलाई भी न पड़ेगा । तब हम देखेंगे कि इसी अचल शक्तिधारी संन्यासी ( भारतवर्ष ) की तेजसे भरी आँखें उस दुर्दिनमें चमक रही हैं, इसकी भूरी जटाएँ उस अधीमें फहरा रही हैं। जब आँधीके हाहाकारमें अत्यंत शुद्ध उच्चारणवाली, अंगरेजी वक्तृताएँ सुनाई न पड़ेंगी, उस समय इस संन्यासीके वन-कठिन दाहिने हाथके लोहेके कड़ेके साथ बजते हुए चिमटेकी झंकार आँधीके शब्दके ऊपर सुनाई देगी। तब हम इस एकान्तवासी भारतवर्षको जाने और मानेगे । तब जो निस्तब्ध है उसकी उपेक्षा न करेंगे, जो मौन है उस पर अविश्वास न करेंगे; जो विदेशकी बहुतसी विलास सामग्रीको तुच्छ समझ कर उसकी ओर नजर नहीं करता उसको दरिद्र समझ कर उसका अनादर नहीं करेंग। हम हाथ जोड़ कर उसके भागे बैठेंगे और चुपचाप उसके चरणोंकी रज सिर पर धारण कर स्थिर भावसे घर आकर विचार करेंगे।" ___ महर्षि रवीन्द्र बाबूके उक्त कथनसे हमें बहुत शिक्षा लेनी चाहिए
और एकदम अपनी भारतीयताको और भारतको प्रेम-पूर्वक अपने हृदयसे लगा अपनेको धन्य एवं कृतकृत्य कर लेना चाहिए । इस भयंकर विदेशी तूफानके सपाटेमें आकर अपनी और अपने देशकी
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