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भारतमें दुर्भिक्ष
विषय-प्रवेश।
"एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥" मनु । से पाठकों के समक्ष सतयुगके समयका वर्णन उपस्थित कर,
म उन्हें आश्चर्य-सागरमें गोते खाते देखना नहीं चाहता। वह समय तो हमारे गौरवका था। उस समय भारत कल्पवृक्ष था। तत्कालीन भारतीयोंको जिस वस्तु की आवश्यकता होती थी, वह उन्हें अनायास ही, बिना परिश्रम प्राप्त हो जाया करती थी । उन दिनों हमारा भारत स्वर्गसे भी अधिक, सुखद, शान्ति-पूर्ण और रम्य था। यही कारण था कि उस समय स्वर्गस्थ देवता गण मानव-शरीर धारण कर, स्वर्गसे भी श्रेष्ठ, भारतमें आकर निवास करते थे। उस समय वह परब्रह्म परमात्मा भी बार बार इस भारत भूमि पर अवतार ग्रहण कर, इसकी उत्कृष्टता अपने वैकुण्ठसे भी अधिक सिद्ध करता था । यद्यपि उन दिनों, आजकलकी भाँति भारत दुःखागार नहीं था, यहाँ पापाचरण नहीं होते थे, हमारी यह दुर्दशा नहीं थी, धर्म पर इस प्रकार कुठाराघात नहीं हो रहा था, गौ-ब्राह्मणोंकी यह दुर्गति नहीं थी; तथापि परमात्माने कई बार
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