Book Title: Aavashyak Sutram
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (89) जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालजी-महाराज(२) विरचितया मुनितोपण्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृत हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहितम् । आवश्यकसूत्रमा AVASHYAKASUTRAM नियोजक:सस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि पण्डितमुनिश्री-कन्हैयालालजी महाराजः। प्रकाशक: 0000000000 अ भा श्वे स्था जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुख श्रेष्ठिश्री शान्तिलाल-मगलदासभाई-महोदय. मु राजकोट (सौराष्ट्र) द्वितीय सस्करणम् - १००० मूल्यम् - रू ७-८-० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રાપ્તિ સ્થાન શ્રી અ ભા જે સ્થાનકવાસી જે ન શા દ્વા૨ સમિતિ ગ્રીન લેજ પાસે, રાજકેટ બીજી આવૃત્તિ પ્રત ૧૦૦૦ વીર સ વત ૨૪૮૪ વિક્રમ સંવત ૨૦૧૪ ઈસ્વી સન્ ૧૫૮ મુદ્રક અને મુદ્રણસ્થાન તિલાલદેવચંદ મહેતા જ ય ભા ૨ ત પ્રેસ, ગ ૨ ડી આ ક વ રેડ શાક મારકીટ પામે, રાજકોટ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन रोग से आक्रान्त मनुष्य के लिये जैसे औपध सेवन नितान्त आवश्यक है, उसी प्रकार भवरोग से सतप्त प्राणियो के लिये सामायिक आदि क्रियायें आवश्यक है । क्यो कि विना इनके आत्मामें निर्मलता नहीं आ सस्ती, और अनिर्मल आत्मा कभी भी भवरोग से मुक्त नही हो सकता। ये सामायिक आदि मनुष्यो के लिये अवश्यफर्तव्य होने के कारण आवश्यक कहलाते हैं, और इनका ग्रथन इस आगममें किया गया है अतः यह आगम भी 'आवश्यक' कहलाता है। इस 'आवश्यक सूत्र' की परमोपयोगिता देखकर पूज्यश्री घासीलालजी म सा. ने इस पर, सस्कृतमें विस्तत प्रस्तावना सहित 'मुनितोपणी' नामक टीका लिखी है । यह टीका अत्यन्त सरल होने के कारण साधारण सस्कृतज्ञो के लिये भी सुवोध है। सर्वसाधारण के लाभार्थ इस टीकाका हिन्दी और गुजराती भाषा में अनुगाद भी किया गया है । इस लिये सभी वर्ग के जिज्ञासुओं के लिये यह उपादेय है । इस आवश्यकसूत्र की प्रथम आवृत्तिका प्रकाशन श्री श्वे. स्था जैन शास्त्रोद्वार समिति (राजकोट ) ने सन् १९५१ ई में किया था। प्रथम आवृत्ति की सभी प्रतियाँ वितरित हो चुकी हैं, अत इस सूत्र की यह द्वितीय आवृत्ति प्रकाशित की गयी है । आत्मार्थी जन इससे पूर्णतया लाभ उठावें यही हमारी आकादक्षा है । निवेदक मगनलाल छगनलाल शेठ मानद मत्री, श्री अ भा श्वे स्था जैनशा समिति राजकोट. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ એક અપીલ આપ ગચ્છપતિ હો કે સઘપતિ હૈ સાધુ મહાત્મા હ કે શ્રાવક હા પરંતુ આ શુભકાર્યોંમા મદદ કરવાની આપની ચેાસ ફરજ છે કારણ કે આપણી સમાજના ઉત્થાનના આવા ભગીરથ કાર્યોંમા આપના જેટલા વધુ સહકાર મળશે તેટલુ કા વ્હેલુ પૂર્ણ થશે ઘડી ઘડી આવા સતના ભેટો થવા દુર્લભ છે ૩૨ સૂત્રો જલ્દીથી તૈયાર કરાવી લેવાય તેની કાળજી રાખવાની છે અને તેથીજ આપશ્રીને અપીલ કરવામા આવી છે સમગ્ર સમાજનુ કાર્ય થતુ હોય ત્યા સાપ્રદાયકરાદ કે પ્રાતવાદ નજ હાવા જોઈએ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂ. ૧૦,૦૦૦ આપનાર આદ્ય મુરબ્બીશ્રી, સમિતિના પ્રમુખ, દાનવીર શેઠશ્રી હER કડ કરી - - - જો જ વિજય \ _ | શેઠ શાતિ લા લ મ ગ ળ દા સ ભાઈ મ મ દ વા ૬ Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી-વર્ધમાન-શ્રમણ-સઘના આચાર્યશ્રી પૂજ્ય આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ આપે લ સભ્ય તિ પ ત્ર ઉ ૫ રા ત પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ રચિત બીજા સૂત્રની ટીકા માટે તેઓશ્રીના મત તે મ જ અન્ય મહાત્માઓ, મહાસતીજીએ, અદ્યતન–પદ્ધતિવાળા કોલેજના પ્રોફેસરે તે મ જ શાસ્ત્રજ્ઞ શ્રાવકેના અભિપ્રાય કે ગ્રીન લેજ પાસે ગરેડીયા કુવાડ રાજકોટ સૌરાષ્ટ્ર શ્રી અખિલ ભારત છે સ્થા. જેન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (श्री द्रशवैकालिकसूत्रका सम्मतिपत्र ) ॥ श्रीवीरगौतमाय नमः॥ सम्मति-पत्रम् मए पडियमुणि-हेमचदेण य पडिय मूलचन्दवासवारापत्ता पडिय-रयण-मुणि-घासीलालेण विरइया सक्य-हिंदी-भाषाहिं जुत्ता सिरि-दसवेधालिय-नाम सुत्तस्स आयारमणिमजसा वित्ती अवलो. इया, इमा मणोहरा अस्थि, एत्थ सदाण अइसयजुत्तो अत्यो वणिओ विउजणाण पाययजणाण य परमोक्यारिया इमा वित्ती दीसइ ! आयारविसए वित्तीकत्तारेण अइसयपुष्व उल्लेहो कडो, तहा अहिंसाए सरूव जे जहा तहा न जाणति तेसि इमाए वित्तीए परमलाहो भविस्सइ, कत्तुणा पत्तेयविसयाण फुडस्वेण वणण कड, तहा मुणिणो अररत्ता इमाए वित्तीए अवलोयणाओ अइसयजुत्ता सिज्झड ! सकयछाया सुत्तपयाण पयच्छेओ य सुयोरदायगो अस्थि, पत्तेयजिपणासुणो इमा वित्ती दहव्वा । अम्हाण समाजे एरिसविज-मुणिरयणाण सम्भावो समाजस्स अहोभग्ग अत्थि, किं' उत्तविन मुणिरयणाण कारणाओ जो अम्हाण समाजो सुत्तप्पाओ, अम्हकेर साहिच च लुत्तप्पाय अत्यि तेसिं पुणोवि उदओ भविस्सह जस्स कारणाओ भवियप्पा मोक्खस्स जोग्गो भवित्ता पुणो निव्वाण पाविरिइ अओर आयारमणि-मजूसाए कक्षुणो पुणो पुणो धन्नवाय देमि-॥ वि स १९९० फागुनशुलरयोदशी मगले (अलवर स्टेट) । उज्झाय-जइण मुणी,आयारामो (पचनईओ) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ जैनागमवेत्ता जैनधर्मदिवाकर उपाध्याय श्री १००८ श्री आत्मारामजी महाराज तथा न्याय व्याकरण के ज्ञाता परम पण्डित मुनि श्री १००७ श्री हेमचद्रजी महाराज, इन दोनो महात्माओंका दिया हुआ श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रका प्रमाण पत्र निम्न प्रकार है सम्मइवत्तं सिरि-वीरनिव्वाण सवच्छर २४५८ आसोई ( पुण्णमासी) १५ सुकवारो लुहियाणाओ । मए मुणिहेमच देण य पडियरयणमुणिसिरि-घासीलालविणिम्मिया सिरिउवासगमुत्तस्स अगारधम्मसजीवणीनामिया वित्ती पडियमूलचन्दवासाओ अज्जोवत सुया, समीईण, इय वित्ती जहाणाम तहा गुणेवि धारेइ, सच्च, अगाराण तु इमा जीवण (सजमजीवण ) दाई एव अस्थि । वित्तिकत्तुणा मूलमुत्तस्स भावो उज्जुसेलीओ फुडीओ, अहय उवासयस्स सामण्णविसेसवम्मो, णयसियवायवाओ, कम्मपुरिसहवाओ, समणोवासयस्स धम्मदढत्ता य, उच्चाइक्सिया असि फुडरीइओ वणिया, जेण कणो पडिहाए मुहुप्पयारेण परिचओ होइ, तह इइहासदिट्टिओवि सिरिसमणस्स भगाओ महावीरस्स समए वट्टमाण- भरहवासस्स य कचुणा विसयपयारेण चित्त चित्तित, पुणो सकयपाढीण, माणकाले हिन्दीणामियाए भासाए भासीण य परमवया कडो, इमेण कणो अरिहत्ता दीसर, कत्तुणो एय कज्ज परमप्पससणिज्जमत्थि । पंत्तयजणस्स मज्झत्थभावाओ अस्स सुत्तस्स अवलोयणमईव लाहप्पय, अविउ सावयस्स तु ( उ ) इम सत्य सव्वस्समेव अस्थि, अओ कत्तुणो अणेगकोडीसी धन्नवाओ अत्थि, जेहिं, अञ्चतपरिस्समेण जइणजणतोवरि असीमोयारो डो, अहय सावयस्स वारस नियमा उ पत्तेयजणस्स पढणिज्जा अस्थि, जेसिं पहावओ वा गहणाओं आया निव्वाणाहिगारी भवइ, तहा भवियन्वयात्राओ पुरिसवार परकमवाओ य अवस्थमेव दसणिज्जो, किंबहुना डमी से वित्तीए पत्तेयविसयस्स फुडसदेहिं वण्णण कय, जइ अन्नोवि एव अम्हाण पमुत्तप्पाए समाजे विज्ज भवेज्जा तया नाणस्स चरितस्स तहा सघस्स य खिप्प उदयो भविस्सर, एव ह मन्ने ॥ भवईओउवज्झाय - जइणमुणि- आयाराम, - पचनईओ, Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ सम्मतिपत्र ( भाषान्तर ) श्री वीर निर्वाण स० २४५८ आसोज शुक्ला (पूर्णिमा) १५ शुक्रवार लुधियाना १ मैने और पडितमुनि हेमजन्दजीने पडितरत्नमुनिश्री घासीलालजीकी रची हुई उपासकदशाग सूत्रकी गृहस्थधर्मसजीवनी नामक टीका पडित मूलचन्द्रजी व्याससे आद्योपान्त सुनी है। यह वृत्ति यथानाम तथा गुणवाली - अच्छी बनी है। सच यह गृहस्थोके तो जीवनदात्री - सयमरूप जीवनको देनेवाली ही है। टीकाकारने मूलसूत्र के भावको सरल रीति से वर्णन किया है, तथा श्रावकका सामान्य धर्म क्या है ? और विशेष धर्म क्या है ? इसका खुलासा इस टीकामें अच्छे ढग से बतलाया है । स्याद्वादका स्वरूप कर्म - पुरुषार्थ - वाद और श्रावकको धर्म के अन्दर दृढ़ता किस प्रकार रखना, इत्यादि विषयोंका निरूपण इसमे भलीभाँति किया है । इससे टीकाकारकी प्रतिभा खूप झलकती है । ऐतिहासिक दृष्टिसे श्रमण भगवान् महावीरके समय जैनधर्म किस जाहोजलाली पर था और वर्तमान समय जैन धर्म किस स्थितिमे पहुंचा है ? इस विषयका तो ठीक चित्र ही चित्रित कर दिया है ! फिर संस्कृत जाननेवालोंको तथा हिन्दी भाषाके जाननेवालोको भी पुरा लाभ होगा, क्योंकि टीका संस्कृत है उसकी सरल हिन्दी करदी गई है । इसके पढने से कर्ताकी योग्यताका पता लगता है कि वृत्तिकारने समझानेका कैसा अच्छा प्रयत्न किया है। टीकाकारका यह कार्य परम प्रशसनीय है । इस सूत्रको भभ्यस्थ भावसे पढने वालोंको परम लाभकी प्राप्ति होगी । क्या कहें आवको (गृहस्थों) का तो यह सूत्र सर्वस्व ही है, अत टीकाकारको कोटिश धन्यवाद दिया जाता है, जिन्होंने अत्यन्त परिश्रम से जैन जनताके ऊपर असीम उपकार किया है । इसमें श्रावकके बारह नियम प्रत्येक पुरुषके पढने योग्य हैं, जिनके प्रभावसे अथवा यथायोग्य ग्रहण करनेसे आत्मा मोक्षका अधिकारी होता है। तथा भक्तिव्यतावाद और पुरुषकार Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराक्रमवाद हरएकको अवश्य देखना चाहिये । कहातक कहें इस टीकामें प्रत्येक विषय सम्यक प्रकारसे बताये गये है । हमारी सुप्तप्राय (सोई हुईसी) समाजमें अगर आप जैसे योग्य विद्वान् फिर भी कोई होंगे तो ज्ञान चारित्र तथा श्रीसघकाशीघ्र उदय होगा, ऐसामैमानताहूँ आपका उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम पजावी. इसी प्रकार लाहोरमें विराजते हुए पण्डितवर्य विद्वान मुनिश्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा प मुनिश्री त्रिलोकचन्दजी महाराजके दिये हुए, श्री उपाशकदशाङ्ग सूत्रके प्रमाणपत्रका हिन्दी सारांश निम्न प्रकार है श्री श्री स्वामी घासीलालजी महाराज कृत श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रकी सस्कृत टीका व भापाका अवलोकन किया, यह टीका अतिरमणीय व मनोरञ्जक है, इसे आपने घडे परिश्रम व पुरुषार्थसे तैयार किया है सो आप धन्यवादके पात्र है। आप जैसे व्यक्तियोकी समाजमें पूर्ण आवश्यकता है। आपकी इस लेखनीसे समाजके विद्वान् साधुवर्ग पढकर पूर्ण लाभ उठावेंगे, टीकाके पढनेसे हमको अत्यानन्द हुवा, और मनमें ऐसे विनार उत्पन्न हुए कि हमारी समाजमें भी ऐसे २ सुयोग्य रत्न उत्पन्न होने लगे-यह एक हमारे लिये बडे गौरवकी बात है। वि. स १९८९ मा आश्विन कृष्णा १३ वार भौम लाहोर Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र की 'अनगार धर्मामृतवर्षिणी' टीका पर जैनदिवाकर साहित्यरत्न जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्रद्धेय जैनाचार्य श्री आत्मारामजी महाराजका सम्मतिपत्र लुधियाना, ता. ४-८-५१. मैने आचार्यश्री घासीलालजी म द्वारा निर्मित 'अनगार- धर्मामृतवर्षिणी' टीका वाले श्री ज्ञाताधर्मकथा सूत्रका मुनि श्री रत्नचन्द्रजीसे आयोपान्त श्रवण किया । यह निःसन्देह कहना पडता है कि यह टीका आचार्यश्री घासीलालजी म ने बडे परिश्रम से लिखी है । इसमें प्रत्येक शब्दका प्रामाणिक अर्थ और कठिन स्थलो पर सार - पूर्ण विवेचन आदि कई एक विशेषतायें है । मूल स्थलोंको सरल बनाने में काफी प्रयत्न किया गया है, इससे साधारण तथा असाधारण सभी संस्कृतज्ञ पाठकों को लाभ होगा ऐसा मेरा विचार है । स्वायायप्रेमी सज्जनों से यह आशा क्रूँगा कि वे वृत्तिकारके परिश्रम को सफल बनाकर शास्त्रमें दीगई अनमोल शिक्षायों से अपने जीवनको शिक्षित करते हुए परमसाम्य मोक्षको प्राप्त करेंगे । श्रीमानजी जयवीर आपकी सेवामें पोष्ट द्वारा पुस्तक भेज रहे हैं और इसपर आचार्य - श्रीजी की जो सम्मति है वह इस पत्रके साथ भेज रहे है पहुचने पर समाचार देवें । श्री आचार्यश्री आत्मारामजी म ठाने ६ सुख शान्ति से विराजते हैं । पूज्य श्री घासीलालजी म सा ठाने ४ को हमारी ओरसे वन्दना अर्जकर सुखगाता पूछें । पूज्य श्री घासीलालजी म जी का लिखा हुआ (विपासून ) महाराजश्रीजी देखना चाहते है इसलिये १ कॉपी आप भेजने की कृपा करें, फिर आपको वापिस भेज दोंगे । आपके पास नहीं हो तो जहा से मिले हासे १ काँपी जरूर भिजवाने का कष्ट करें, उत्तर जल्द देनेकी कृपा करें । योग्य सेवा रिसते रहें । लुधियाना वा ४-८-५१ निवेदक प्यारेलाल जैन Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ जैनागमवारिधि-जैनधर्मदिवाकर - उपाध्याय - पण्डित - मुनि श्रीआत्मारामजी महाराज (पजाव) का आचारागसूत्र की __ आचारचिन्तामणि टीका पर सम्मति-पत्र। मैंने पूज्य आचार्यवर्य श्रीघासीलालजी (महाराज)की बनाई हुई श्रीमद् आचारागसूत्र के प्रथम अध्ययन की आचारचिन्तामणि टीका सम्पूर्ण उपयोगपूर्वक सुनी। यह टीका-न्याय सिद्धान्त से युक्त, व्याकरण के नियम से निबद्ध है। तथा इसमें प्रसङ्ग २ पर क्रम से अन्य सिद्धान्त का संग्रह भी उचित रूप से मालूम होता है। टीकाकारने अन्य सभी विपय सम्यक् प्रकार से स्पष्ट किये हैं, तथा प्रौढ विषयों का विशेषरूप से सस्कृत भाषा में स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन अधिक मनोरजक है, एतदर्थ आचार्य महोदय धन्यवाद के पात्र हैं। __ मैं आशा करता हूँ कि-जिज्ञास्लु महोदय इसका भलीभाँति पठन द्वारा जैनागम-सिद्धान्तरूप अमृत पी-पी कर मन को हर्पित करेगे, और इसके मनन से दक्ष जन चार अनुयोगों का स्वरूपज्ञान पावेगे । तथा आचार्यवर्य इसी प्रकार दूसरे भी जैनागमों के विशद विवेचन द्वारा श्वेताम्बर-स्थानकवासी समाज पर महान उपकार कर यशस्वी बनेंगे। वि स २००२ जैनमुनि-उपाध्याय आत्माराम मृगसर मुदि १ लुधियाना (पजाव) -: :- शुभमस्तु ।। बीकानेरवाळा समाजभूषण शास्रज भेरुदानजी शेठिआनो अभिप्राय आप जो शास्त्रका कार्य कर रहे है यह घडा उपकारका कार्य है। इससे जैनजनता को काफी लाभ पहुँचेगा. (ता. २८-३-५६ ना पत्रमाथी) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 27: 11 जैनागमवारिधि- जैनधर्मदिवाकर - जैनाचार्य - पूज्य श्री आत्मारामजीमहाराजना पञ्चनद - ( पंजाब ) स्थानामनुत्तरोपपातिकसूत्राणामर्थयोधिनीनाम कटी कायामिदम्सम्मतिपत्रम् आचार्यवर्यैः श्री घासीलालमुनिभिः सङ्कलिता अनुत्तरोपपातिकसूत्राणामर्थबोधिनीनाम्नी सस्कृतवृत्तिरुपयोगपूर्वक सकलाऽपि स्वशिष्य मुखेनाऽश्रावि मया, इय satarस्य वैदुष्य प्रकटयति । श्रीमद्भिर्मुनिभिः सूनाणामर्थान् स्पष्टयितु यः प्रयत्नो व्यय तदर्थमनेकशो धन्यवादानर्हन्ति ते । यथा चेय वृत्तिः सरला सुपोधिनी च तथा सारवत्यपि । अस्याः स्वाध्यायेन निर्वाणपदममीप्सुभिर्निर्वाणपदमनुसरद्भिर्ज्ञान - दर्शन - चारित्रेषु प्रयतमानैर्मुनिभि श्रावकैश्च ज्ञानदर्शन - चारित्राणि सम्यक् सम्माप्याऽन्येऽप्यात्मानस्तत्र वर्तयिष्यन्ते । आशासे श्रीमदाशुकविमुनिवरो गीर्वाणवाणीजुपा विदुषा मनस्तोपाय जैनागममृनाणा साराबोधाय च अन्येषामपि जैनागमानामित्थ सरलाः सुस्पष्टाथ वृत्तीर्विधाय तास्तान् सूत्रग्रन्थान देवगिरा सुस्पष्टयिष्यति । अते च "मुनिवरस्य परिश्रम सफलयितु सरला सुबोधिनीं चेमा सूत्रवृत्ति स्वायायेन सनाथयिष्यन्त्यवश्य सुयोग्या हसनिभा पाठकाः । " इत्याशास्ते विक्रमान्द २००२ श्रावणकृष्णा प्रतिपदा लुधियाना. ऐसेरी ----- उपाध्याय आत्मारामो जैनमुनि । मध्यभारत सैलाना - निवासी श्रीमान् रतनलालजी डोसी श्रमणोपासक जैन लिखते हैं कि श्रीमान की की हुई टीकावाला उपासकदशांग सेवक के दृष्टिगन हुवा, सेवक अभी उसका मनन कर रहा है यह ग्रन्थ सर्वांगसुन्दर एवम् का उपकारक है । ** Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकामूत्रका सम्मतिपत्र आगमवारिधि-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-जैनाचार्य-पूज्यश्री आत्मारामजी महाराजकी तरफ का आया हुवा सम्मतिपत्र लुधियाना. ता ११ नवम्बर ४८ श्रीयुत गुलाबचन्दजी पानाचदजी । सादर जयजिनेन्द्र ॥ पत्र आपका मिला ! निरयावलिका विषय पूज्यश्रीजीका स्वास्थ्य ठीक न होने से उनके शिष्य प. श्री हेमचन्द्रजी महाराजने सम्मति पत्र लिख दिया है आपको भेज रहै हैं ! कृपया एक कोपी निरयावलिका की और भेज दीजिये और कोई योग्य सेवा कार्य लिखते रहें ! भवदीय. गुजरमल वलवतराय जैन ॥ सम्मतिः॥ (लेखक जैनमुनि प श्री हेमचन्द्रजी महाराज) सुन्दरबोधिनीटीकया समलङ्कत हिन्दी-गुर्जरभापानुवादसहित च श्रीनिरयावलिकासूत्र मेधाविनामल्पमेधसा चोपकारक भविष्यतीति सुदृढ मेऽभिमतम् , सस्कृतटीकेय सरला सुबोधा सुललिता चात एव अन्वर्धनाम्नी चाप्यस्ति । सुविशदत्वात् सुगमत्वात् प्रत्येकदुर्योधपदव्याख्यायुतत्वाच टीकैपा सस्कृतसाधारणज्ञानवतामप्युपयोगिनी भाविनीत्यभिप्रेमि । हिन्दी-गुर्जरभापानुवादावपि एतभाषाविज्ञाना महीयसे लाभाय भवेतामिति सम्यक सभावयामि । जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजाना परि श्रमोऽय प्रशसनीयो धन्यवादाश्चि ते मुनिसत्तमा । एवमेव श्रीसमीरमलजी श्री कन्हैयालालजी मुनिवरेण्ययोनियोजनकार्यमपि श्लाध्य, तावपि च मुनिवरौ धन्यवादा। स्तः। सुन्दरप्रस्तावनाविपयानुक्रमादिना समलते सूत्ररत्नेऽस्मिन् यदि शब्दकोपोऽपि दत्त' स्यात्तर्हि वरतर स्यात् । यतोऽस्यावश्यकता सवऽप्यवेपकविद्वासोऽनुभवन्ति ।। पाठका : सूत्रस्यास्याध्ययना यापनेन लेखकनियोजकमहोदयाना परि नयिष्यन्तीत्याशास्महे । इति । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः॥ जैनागमवारिधि- जैनधर्मदिवाकर-जैनाचार्य-पूज्य-श्री आत्मारामजीमहाराजना पश्चनद-(पजाव)स्थानामनुत्तरोपपातिकसूत्राणा मर्थयोधिनीनामकटीकायामिदम् सम्मतिपत्रम् आचार्यययः श्री घासीलालमुनिभिः सङ्कलिता अनुत्तरोपपातिकसूत्राणामर्थबोधिनीनाम्नी सस्कृतत्तिरुपयोगपूर्वक सकलाऽपि पशिष्यमुखेनाऽश्रावि मया, इय हि वृत्तिर्मुनिवरस्य वैदुष्य प्रकटयति । श्रीमद्भिर्मुनिभिः सूत्राणामर्थान् स्पष्टयितु यः प्रयत्नो व्यधायि तदर्थमने कशो धन्यवादानईन्ति ते । यथा चेय उत्तिः सरला सुबोधिनी च तथा सारवत्यपि । अस्याः स्वाध्यायेन निर्वाणपदममीप्सुभिनिर्वाणपदमनुसरद्भिर्ज्ञान-दर्शन-चारित्रेषु प्रयतमानैमुनिभिः श्रावकैश्च ज्ञानदर्शन-चारित्राणि सम्यक् सम्प्राप्याऽन्येऽप्यात्मानस्तत्र प्रवर्तयिष्यन्ते । ___ आशासे श्रीमदाशुकविर्मुनिवरो गीर्वाणवाणीजुपा विदुपा मनस्तोपाय जैनागममूनाणा सारावोधाय च अन्येपामपि जैनागमानामित्थ सरला मुस्पष्टाश्च वृत्तीविधाय तास्तान् मूत्रग्रन्थान् देवगिरा सुस्पष्टयिष्यति । अते च "मुनिवरस्य परिश्रम सफलयितु सरला सुपोधिनी चेमा सूत्रवृत्ति स्वाध्यायेन सनाथयिष्यन्त्यवश्य सुयोग्या हसनिभा' पाठका ।" इत्याशास्तेविक्रमान्द २००२ ) श्रावणकृष्णा मतिपदा उपाध्याय आत्मारामो जैनमुनिः । लुधियाना ऐसेही - मध्यभारत सैलाना-निवासी श्रीमान् रतनलालजी डोसी श्रमणोपासक जैन लिखते हैं कि : श्रीमान की फी एई टीकायाला उपासकदशाग सेवक के दृष्टिगत हुया, सेवक अभी उसका मनन कर रहा है यह ग्रन्थ सर्वांगसुन्दर एवम् उचकोटि का उपकारक है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) सेलाना-ता. २९-११-३६ का पत्र, शास्त्रों के ज्ञाता श्रीमान् रतनलालजी डोसी. . (११) खीचन-ता. ९-११-३६ का पत्र, पडितरत्न न्यायतीर्थ मुश्रावक धीयुत् माधवलालजी ता २५-११-३६ सादर जय जिनेन्द्र __ आपका भेजा हुवा उपासक दशाग सूत्र तथा पत्र मिला यहां विराजित प्रवर्तक वयोवृद्ध श्री १००८ श्री ताराचदजी महाराज पण्डित श्री किशनलालजी महाराज आदि ठाणा १४ शुख शांती में विराजमान हैं आपके वहा विराजित जैनशास्त्राचार्य पूज्यपाद श्री १००८ श्री घासीलालजी महाराज आदि ठाणा नव से हमारी वन्दना अर्ज कर सुख शाति पूछे आपने उपासकदशाग सूत्र के विषय मे यहां विराजित मुनिवरों की सम्मती मगाई उसके विपय में वक्ता श्री सोभागमलजी महाराज ने फरमाया है कि वर्तमान में स्थानकवासी समाज में अनेकानेक विद्वान मुनि महाराज मौजूद हैं मगर जैनशास्त्र की वृत्ति रचने का साहस जैसा घासीलालजी महाराज ने किया है वैसा अन्य ने किया हो ऐसा नजर नहीं आता दूसरा यह शास्त्र अत्यन्त उपयोगी तो यों हैं सस्कृत प्राकृत हिन्दी और गुजराती भाषा होने से चारों भापा वाले एक ही पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं जैन समाज में ऐसे विद्वानों का गौरव बढे यही शुभ कामना है आशा है कि स्थानकवासी सघ विद्वानों की कटर करना सीखेगा। योग्य लिखें शेष शुभ भवदीय जमनालाल रामलाल कीमती श्री सोमी अनेकानेक सजैसा चाही आता इजराती भान समाज आगरा से: श्री जैनदिवाकर प्रसिद्धवक्ता जगदवल्लभ मुनि श्री चोथमलजी महाराज व पडितरत्न सुव्याख्यानी गणीजी श्री प्यारचन्द जी महारज ने इस पुस्तक को अतीव पसन्द की है।। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उपासकदशाङ्ग सूत्र परत्वे जैन समाजना अग्रगण्य जैनधर्मभूषण महान विद्वान सतोए तेमज विद्वान श्रावकोए सम्मतिओ समपी छे तेमना नामो नीचे प्रमाणे छे (१) लुधियाना- सम्बत् १९८९, आश्विन पूर्णिमा का पत्र, श्रुतज्ञान के भडार आगमरनाकर जैनधर्मदिवाकर श्री १००८ श्री उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज, तथा न्यायव्याकरणवेत्ता श्री १००७ तच्छिष्य श्री मुनि हेमचन्दजी महाराज (२) लाहौर-वि० स० १९८९ आश्विन चदि १३ का पत्र, पण्डित रन श्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा तच्छिष्य पण्डित रत्न श्री १००७ श्री त्रिलोकचदजी महाराज (३) खिचन से ता. ९-११-३६ का पत्र, क्रियापान स्थविर श्री १००८ श्री भारतरत्र श्री समरथमलजी महाराज (४) वालाचोर-ता. १४-११-३६ का पत्र, परम प्रसिद्ध भारतरत्र श्री १००८ श्री शतावधानीजी श्री रतनचन्दजी महाराज (५) बम्बई-ता १६-११-३६ का पत्र, प्रसिद्ध कवीन्द्र श्री १००८ श्री कवि नानच द्रजी महाराज (६) आगरा-ता १८-११-३६, जगत् वल्लभ श्री १००८ श्री जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज, गुणवन्त गणीजी श्री १००७ श्री साहित्यप्रेमी श्री प्यारचन्दजी महाराज (७) हैद्रापाद (दक्षिण) ता २५-११-३६ का पन, स्थिवरपदभूपित भाग्यवान पुरुप श्री ताराचन्दजी महाराज तथा प्रसिद्ध वक्ता श्री १००७ श्री सोमागमलजी महाराज (८) जयपुर-ता २६-११-३६ का पत्र, समदाय के गौरवर्धक शात स्वभावी श्री १००८ श्री पूज्य श्री सूपचन्दजी महाराज (९) अम्याला-ता २९-११-३६ का पत्र, परम प्रतापी पनाव केशरी श्री १००८ श्री पूज्य श्री रामजी महाराज Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ (१०) सेलाना - ता. २९-११-३६ का पत्र, शास्त्रों के ज्ञाता श्रीमान् रतनलालजी डोसी. (११) खीचन - ता. ९ - ११ - ३६ को पत्र, पडितरत्न न्यायतीर्थ सुश्रावक श्रीयुत् माधवलालजी ता २५-११-३६ सादर जय जिनेन्द्र आपका भेजा हुवा उपासक दशाग सूत्र तथा पत्र मिला यहां विराजित प्रवर्तक वयोवृद्ध श्री १००८ श्री ताराचदजी महाराज पण्डित श्री किशनलालजी महाराज आदि ठाणा १४ शुख शांती में विराजमान हैं आपके वहां विराजित जैनशास्त्राचार्य पूज्यपाद श्री १००८ श्री घासीलालजी महाराज आदि ठाणा नव से हमारी बन्दना अर्ज कर सुख शांति पूछे आपने उपासकदशाग सूत्र के विषय मे यहा विराजित मुनिवरों की सम्मती मगाई उसके विषय में वक्ता श्री सोभागमलजी महाराज ने फरमाया है कि वर्तमान में स्थानकवासी समाज में अनेकानेक विद्वान मुनि महाराज मौजूद हैं मगर जैनशास्त्र की वृत्ति रचने का साहस जैसा घासीलालजी महाराज ने किया है वैसा अन्य ने किया हो ऐसा नजर नही आता दूसरा यह शास्त्र अत्यन्त उपयोगी तो यों हैं संस्कृत प्राकृत हिन्दी और गुजराती भाषा होने से चारों मापा वाले एक ही पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं जैन समाज में ऐसे विद्वानों का गौरव बढे यही शुभ कामना है आशा है कि स्थानकवासी सघ विद्वानों की कदर करना सीखेगा । योग्य लिखें शेष शुभ भवदीय जमनालाल रामलाल कीमती आगरा से - -- · * श्री जैनदिवाकर प्रसिद्ध वक्ता जगद्ववल्लभ मुनि श्री चोथमलजी महाराज व पडितरत्न सुव्याख्यानी गणीजी श्री प्यारचन्द जी महारज ने इस पुस्तक को अतीव पसन्द की है । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान न्यायतीर्थ पण्डित माधवलालजी खीचन से लिखते हैं किःउन पडितरत्न महाभाग्यवत पुरुषों के सामने उनकी अगाधतत्वगवेषणा के विषय में मैं नगण्य क्या सम्मति दे सकता हूँ। परन्तु : मेरे दो मित्रों ने जिन्होंने इसको कुछ पढा है बहुत सराहना की है वास्तव में ऐसे उत्तम व सबके समझाने योग्य ग्रन्थों की बहुत आवश्यकता है और इस समाज का तो ऐसा ग्रन्थ ही गौरव बढा सकते हैं-ये दोनो ग्रन्थ वास्तव में अनुपम है ऐसे ग्रन्थरत्नों के सुप्रकाश से यह समाज अमावास्या के घोर अन्धकार में दीपावली का अनुभव करती हुई महावीर के अमूल्य वचनों का पान करती हुई अपनी उन्नति में अग्रसर होती रहेगी। ता २९-११-३६ अम्बाला (पजाब) पत्र आपका मिला श्री श्री १००८ पजाब केशरी पूज्य श्री काशीरामजी महाराज की सेवा मे पढ कर सुना दिया। आपकी भेजी हुई उपासकदशाह सूत्र तथा गृहिधर्मकल्पतरु की एक प्रति भी प्राप्त हुई। दोनों पुस्तकें अति उपयोगी तथा अत्यधिक परिश्रम से लिखी हुई हैं, ऐसे ग्रन्धरनों के प्रकाशित करवाये की घडी आवश्यकता है। इन पुस्तकों से जैन तथा अजैन सयका उपकार हो सकता है। आपका यह पुरुपार्थ सराहनीय है। आपका शशिभूषण शास्त्री अध्यापक जैन हाई स्कूल अम्बाला शहर Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ शान्त स्वभावी वैराग्य मूर्ति तत्व वारिधि, धैर्यवान श्री जैनाचार्य पूज्यवर श्री श्री १००८ श्री खूबचन्दजी महाराज साहेनने सूत्र श्री उपासक दशाहजी को देखा । आपने फरमाया कि पण्डित मुनि घासीलालजी महाराज ने उपासक दशाङ्ग सूत्रकी टीका लिखने में वडा ही परिश्रम किया है । इस समय इस प्रकार प्रत्येक सूत्रोकी सशोधक पूर्वक सरल टीका और शुद्ध हिन्दी अनुवाद होने से भगवान निग्रन्थो के प्रवचनों के अपूर्व रस का लाभ मिल सकता है वालाचोर से भारतरत्न शतावधानी पडित मुनि श्री १००८ श्री रतनचन्दजी महाराज फरमाते है कि : उत्तरोचर जोता मूल सूत्रनी सस्कृतटीकाओ रचत्रामा टीकाकारे स्तुत्य प्रयास कर्यो छे, जे स्थानकवासी समाज माटे मगरूरी लेवा जेवु छे, बली कराचीना श्री सघे सारा कागलमा अने सारा टाइपमा पुस्तक छपात्री प्रगट कर्पू छे जे एक प्रकारनी साहित्य सेवा बजावी छे. बम्बई शहर में विराजमान कवि मुनि श्री नानचन्दजी महाराजने फरमाया है कि पुस्तक सुन्दर है प्रयास अच्छा है । खीचन से स्थविर क्रिया पात्र मुनि श्री रतनचन्दजी महाराज और पडितरत्न मुनि सम्रथमलजी महाराज श्री फरमाते है कि - विद्वान महात्मा पुरुषोका प्रयत्न सराहनीय है क्या जैनागम श्रीमद् उपासक दशाङ्ग सूत्र की टीका, एव उसकी सरल सुवोधनी शुद्ध हिन्दी भाषा बडी ही सुन्दरता से लिखी है । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રમણ સંઘના પ્રચાર મત્રી ૫ જાન કેશરી મહારાજ શ્રી પ્રેમચંદજી મહારાજ જેઓશ્રી “રાજકેટમાં પધારેલા હતા ત્યારે તેના તરફથી શાસ્ત્રોને માટે મળે અભિપ્રાય શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ તરફથી પૂજ્યપાદ શાસ્ત્ર વારિધિ પડિત રાજ સ્વામીશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ દ્વારા શાસ્ત્રોદ્ધારનું જે કાર્ય થઇ રહ્યું છે તે કાર્ય જેન સમાજ તેમા ખાસ કરીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજને માટે મૂળભૂત મૌલિક સાસ્કૃતિની જડને મજબુત કરવાવાળું છે એટલા ખાતર આ કાર્ય અતિ પ્રશસનીય છે માટે દરેક વ્યકિતએ તેમાં યથાશકિત ભેગ દેવાની ખાસ આવશ્યકતા છે અને તેથી એ ભગીરથ કાર્ય જલ્દીથી જલદી સ પૂર્ણપણે પાર પાડી શકાય અને જનતા શ્રુતજ્ઞાનને લાભ મેળવી શકે દરીયાપુરી સંપ્રદાયના પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ઇશ્વરલાલજી મહારાજ સાહેબના બધે વિચારે નમામિ વીર ગિરી સાર ધીર પૂજ્ય પાદ જ્ઞાન પ્રવરશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તથા પડિતશ્રી કનૈયાલાલજી મહારાજ આદિ થાણું છની સેવામા અમદાવાદ શાહપુર ઉપાશ્રયથી મુનિ દયાનંદજીના ૧૦૮ પ્રણિપાત આપ સર્વે થાણ સુખ સમાધિમાં હશે નિરતર ધર્મધ્યાન ધર્મારાધનમાં લીન હશે. સૂત્ર પ્રકાશન કાર્ય વરીત થાય એવી ભાવના છે દશવૈકાલિક તથા આચારાગ એક એક ભાગ અહીં છે ટીકા ખૂબ સુંદર, સરળ અને પડિતજનને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે સાથે સાથે ટકા વીનાને મુળ અને અર્થ સાથે પ્રકાશન થાય તે શ્રાવકગણ તેને વિશેષ લાભ લઈ શકે અત્રે પૂજ્ય આચાર્ય ગુરુદેવને આખે મેતીયા ઉતરાવ્યા છે અને સારૂ છે એજ આ ગુદ ૧૦, મગળવાર તા ૨૫-૧૦-૫૫ પુન મુન શાતા ઇરછતે, દયા મુનિના પ્રણિપાત Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હessess*==== === ==== == ==a s ses કારગ ભાણવડ (સ્વ) શેઠ હરખચંદ કાલીદાસ વારીયા કા૬,૦૦૦ આપનાર આદ્ય મુરબ્બીશ્રી, ssessess Exam Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રમણ સંઘના પ્રચાર મત્રી ૫ જાબ કેશરી મહારાજ શ્રી પ્રેમચંદજી મહારાજ જેઓશ્રી રાજકેટમાં પધારેલા હતા ત્યારે તેના તરફથી શાઓને માટે મળેલ અભિપ્રાય શાસ્ત્રોદ્વાર સમિતિ તરફથી પૂજ્યપાદ શાસ્ત્ર વારિધિ પડિતરાજ સ્વામીશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ દ્વારા શાસ્ત્રોદ્ધારનું જે કાર્ય થઇ રહ્યું છે તે કાર્ય જેન સમાજ તેમા ખાસ કરીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજને માટે મૂળભૂત મૌલિક સસ્કૃતિની જડને મજબુત કરવાવાળું છે એટલા ખાતર આ કાર્ય અતિ પ્રશસનીય છે માટે દરેક વ્યકિતએ તેમા યથાશકિત ભેગી દેવાની ખાસ આવશ્યકતા છે અને તેથી એ ભગીરથ કાર્ય જલ્દીથી જલદી સંપૂર્ણપણે પાર પાડી શકાય અને જનતા તજ્ઞાનને લાભ મેળવી શકે દરીયાપુરી સરદાયના પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ઇશ્વરલાલજી મહારાજ સાહેબના સૂત્ર સંબંધે વિચારે નમામિ વીર ગિરી સાર ધીર પૂજ્ય પાદ જ્ઞાન પ્રવરશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તથા પડિતશ્રી કનૈયાલાલજી મહારાજ આદિ થાણુ છની સેવામા અમદાવાદ શાહપુર ઉપાશ્રયથી મુનિ દયાન દજીના ૧૦૮ પ્રણિપાત આપ સર્વે થાણુઓ સુખ સમાધિમાં હશે નિરતર ધર્મધ્ય ન ધર્મારાધનમા લીન હશે સુત્ર પ્રકાશન કાર્ય ત્વરીત થાય એવી ભાવના છે દશવૈકાલિક તથા આચારાગ એક એક ભાગ અહીં છે ટીકા ખૂબ સુંદર, સરળ અને પડિતજનેને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે સાથે સાથે ટીકા વીનાના મુળ અને અર્થ સાથે પ્રકાશન થાય તે શ્રાવકગણ તેને વિશેષ લાભ લઈ શકે અત્રે પૂજ્ય આચાર્ય ગુરુદેવને આખે મેતી ઉતરાવ્યું છે અને સારું છે એજ આસે ગુદ ૧૦, મગળવાર તા ૨૫-૧૦-૫૫ પુન પુન શાતા ઇચ્છતે, દયા મુનિના પ્રણિપાત. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દરીયાપુરી મપ્રદાયના પડિત રત્ન ભાઈચદજી મહારાજને અભિપ્રાય રાણપુર તા ૧૯-૧૨-૧૯૫૫ (જ્યપાદ જ્ઞાનપ્રવર પડિતરત્ન પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આદિમુનિવરેની માં આપ સર્વ સુખ સમાધીમા હશે શીત થયેલા કેટલાક જ કે પંડિતરને સુપ્રિય થઈ પડે ન ને ભાવિ આત્માઓને આ તે પ્રકાશનનું કામ સદર થઈ રહ્યું છે તે જાણી અત્યત આનદ આપના Gો કેટલાક સૂત્રે જોયા. સદર અને સરલ સિદ્ધાતના ન્યાયને પુષ્ટ કરતી ભાન પ્રય થઈ પડે તેવી છે સત્ર પ્રકાશનનું કામ વરિત પૂર્ણ થાય અતિભાઓને આત્મકલ્યાણ કરવામાં સાધનભૂત થાય એજ અભ્યર્થના લી પતિના બાળબ્રહચારી ૫ શ્રી ભાઇચદ મહારાજની આજ્ઞાનુસાર શાતિમુનિના પાયવદન સ્વીકારશો તા ૧૧-૫-૫૬ વિરમગામ છાધિપતિ પત્ય wારાજ શ્રી નાનચદ્રજી મહારાજના કે ક્રિયાપા, ૫ડિતરત્ન, અનિશ્રી અમરથમલ સિંધ્યાય, હારાજના આ જ શા ઝાનચદ્રજી મહારાજના સંપ્રદાયના ખીચનથી આવેલ ના ૧૧-૨-૧દન પરથી ઉપ્રિત * મરી જાપા; ય એ મળવાને તે બહુ જ " નકવાસી સમાજની ૧ આચાર્ય શાસ્ત્રી લાલજી મહારાજના હસ્તક જે સૂનું લખાણ સુંદર ભાષામાં વાય છે ને મારિયા પતિ કનિકી રમવમલજી મહારાજ " મળવાને મને શ્રી જઈ નથી અને જેટલું સાટિન્ય ચું જ સારૂ અને મનન ચાધિ લઆવે છે તે લખાણ વાસ માને છે કે આ માહિત્ય , શ્રદ્ધા ન વાવવા ચાગ્ય છે ! અમજની દ્રા, કાળા અને ઇશાની ના પાસાનુદી છે * અપૂર્વ મ લઈ શકાજ ક ન કપાઇ કરે છે લી, ગનલાલ જીજ માવું nી. ન . " Page #26 --------------------------------------------------------------------------  Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફરી શાસ્ત્રોદ્ધારક પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને એમની આ સેવા અને પરમ કલ્યાણકારક પ્રવૃત્તિને માટે વારંવાર અભિનદન છે શાસનનાયક દેવ તેમના શરિરાદીને સશકત અને દીર્ધાયુ રાખી સમાજ ધર્મની વધુ ને વધુ સેવા કરી શકે છે. અસ્તુ ચાતુર્માસ સ્થળ લીબડી ! મા ૨૦૧૦ શ્રાવણ વદ ૧૩ ગુરૂ સદાનદી જૈનમુનિ છોટાલાલજી શ્રી વર્ધમાન સંપ્રદાયના પૂજ્ય શ્રી પુનમચંદ્રજી મહારાજને અભિપ્રાય શાસ્ત્ર વિશારદ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ જૈન આગમ ઉપર જે સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચેલ છે તે માટે તેઓશ્રી ધન્યવાદને પાત્ર છે તેમણે આગ ઉપરની સ્વતંત્ર ટીકા રચીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજનું ગૌરવ વધાર્યું છે આગમે ઉપરની તેમની સંસ્કૃત ટકા ભાષા અને ભાવની દૃષ્ટિએ ઘણુંજ સુ દર છે સસ્કૃત રચના માધુર્ય તેમજ અલકાર વગેરે ગુણેથી યુક્ત છે વિદ્વાનોએ તેમજ જૈન સમાજના આચાર્યો, ઉપાધ્યાયે વગેરે એ શાસ્ત્રો ઉપર રચેલી આ સાસ્કૃત રચનાની કદર કરવી જોઈએ અને દરેક પ્રકારને સહકાર આપ જોઈએ આવા મહાન કાર્યમાં પડિતાને પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જે પ્રયત્ન કરી રહ્યા છે તે અલૌકિક છે તેમનું આગમ ઉપરની સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચવાનું ભગીરથ કાર્ય શીધ્ર સફળ થાય એજ શુભેરછા સાથે અમદાવાદ તા ૨૨-૪-૫૬ રવિવાર છે મુનિ પૂર્ણચ દ્રજી મહાવીર જસ્થતિ ખભાત સંપ્રદાયના મહાસતી શારદાબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય લખતર તા ૨૫-૪-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાતીલાલભાઈ મગળદાસભાઈ પ્રમુખ સાહેબ અખિલ ભારત અને સ્થા જેન શાદ્વાર સમિતિ મુ અમદાવાદ અમે અત્રે દેવગુરૂની કૃપાએ સુખરૂપ છીએ વિમા આપની સમિતિ દ્વારા પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ સાહેબ જે સત્રનું કાર્ય કરે છે તે પૈકીના સૂત્રેમાથી ઉપાસક દશાગ સૂત્ર, આચારાગ સૂત્ર, અનુત્તરપપાતિક સૂત્ર, Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ લીબડી સંપ્રદાયના સદાનદી મુનિશ્રી છોટાલાલજી ! મહારાજને અભિપ્રાય શ્રી વીતરાગદેવે-જ્ઞાનપ્રચારને તીર્થકર નામ ગોત્ર બાધવાનું નિમિત્ત કહેલ છે જ્ઞાન પ્રચાર કરનાર, કરવામાં સહાય કરનાર, અને તેને અનુમોદન આપનાર જ્ઞાનાવણિય કર્મને ક્ષય કરી-કેવળ જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરી પરમપદના અધિકારી બને છે શાસ્ત્રજ્ઞ–પરમ શાન્ત, અને અપ્રમાદિ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પિતે અવિશ્રાન્તપણે જ્ઞાનની ઉપાસના અને તેની પ્રભાવના અનેક વિકટ પ્રસ ગેમા પણ કરી રહ્યા છે તે માટે તેઓશ્રી અનેકશિ ધન્યવાદના અધિકારી છે વદનિય છેતેમની જ્ઞાન પ્રભાવનાની ધગશ ઘણું પ્રમાદિએને અનુકરણીય છે જેમ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પિતે જ્ઞાનપ્રચાર માટે અવિશ્રાન્ત પ્રયત્ન કરે છે તેમજશાસ્ત્રૌદ્ધાર સમિતિના કાર્યવાહકે પણ એમાં સહાય કરીને જે પવિત્ર સેવા કરી રહેલ છે તે પણ ખરેખર ધન્યવાદના પૂર્ણ અધિકારી છે એ સમિતિના કાર્યકરોને મારી એક સૂચના છે કે – શાસ્ત્રોદ્ધારક પ્રવર પડિત અપ્રમાદિ સત ઘાસીલાલજી મહારાજ જે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ કરી રહેલ છે તેમાં સહાય કરવા માટે-પડિતે વિગેરેના માટે જે ખર્ચો થઈ રહેલ છે તેને પહેચી વળવા માટે સારૂ સરખુ ફડ જોઈએ એના માટે મારી એ સૂચના છે કે – શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના મુખ્ય કાર્યવાહકે,–જે બની શકે તે પ્રમુખ પિતે અને બીજા બે ત્રણ જણાએ ગુજરાત, સૌરાષ્ટ્ર અને કચ્છમાં પ્રવાસ કરી મેમ્બરો બનાવે અને આર્થિક સહાય મેળવે જે કે અત્યારની પરિસ્થિતિ વિષમ છે વ્યાપારીઓ, ધધાદારીઓને પિતાના વ્યવહાર સાચવવા પણ મુશ્કેલ બન્યા છે છતા જે સભાવિત ગૃહસ્થો પ્રવાસે નીકળે તે જરૂરી કાર્ય સફળ કરે એવી મને શ્રદ્ધા છે આર્થિક અનુકુળતા થવાથી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પણ વધુ સરલતાથી થઈ શકે પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જ્યા સુધી આ તરફ વિચરે છે ત્યા સુધીમાં એમની નાન શકિતને જેટલે લાભ લેવાય તેટલે લઈ લે કદાચ સૌરાષ્ટ્રમાં વધુ વખત રહેવાથી તેમને હવે બહાર વિહરવાની ઈચ્છા થતી હોય તો શાન્તિભાઈ શેઠ જેવાએ વિનતી કરી અમદાવાદ પધરાવવા અને ત્યા–અનુકુળતા મુજબ બે-ત્રણ વર્ષની સ્થિરતા કરાવીને તેમની પાસે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પૂર્ણ કરાવી લેવું જોઈએ થોડા વખતમાં જામજોધપુરમાં શાકાર કમીટી મળવાની છે તે વખતે ઉપરની સૂચના વિચારાય તે ઠીક Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૯ ફરી શાસ્ત્રોદ્ધારક પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને એમની આ સેવા અને પરમ કલ્યાણુકારક પ્રવૃત્તિને માટે વારવાર અભિનદન છે, શાસનનાયક દેવ તેમના શિરાદીને સશકત અને દીર્ઘાયુ રાખી સમાજ ધર્મની વધુ ને વધુ સેવા કરી શકે ૐ અસ્તુ ચાતુર્માંસ સ્થળ લી ખંડી સા ૨૦૧૦ શ્રાવણ વદ ૧૩ ગુરૂ } શ્રી વર્ધમાન સપ્રદાયના પૂજ્ય શ્રી પુનમચ દ્રજી મહારાજના અભિપ્રાય શાસ્ત્ર વિશારદ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ જૈન આગમે! ઉપર જે સસ્કૃત ટીકા વગેરે રચેલ છે ને માટે તેઓશ્રી ધન્યવાદને પાત્ર છે તેમણે આગમા ઉપરની સ્વતંત્ર ટીકા રચીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજનું ગૌરવ વધાર્યું છે આગમે ઉપરની તેમની સંસ્કૃત ટીકા ભાષા અને ભાવની દૃષ્ટિએ ઘણીજ સુદર છે સંસ્કૃત રચના માધુ તેમજ અલ કાર વગેરે ગુણેાથી યુકત છે વિદ્વાનાએ તેમજ જૈન સમાજના આચાર્યાં, ઉપાધ્યાયે વગેરે એ શાસ્ત્રો ઉપર રચેલી આ સંસ્કૃત રચનાની કદર કરવી જોઇએ અને દરેક પ્રકારના સહકાર આપવે જોઇએ તા ૨૨-૪-૫૬ રવિવાર મહાવીર જય તિ લિ સદાનદી જૈનમુનિ છેટાલાલજી આવા મહાન કાર્યમાં પડિતરત્ન પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જે પ્રયત્ન કરી રહ્યા છે તે અલૌકિક છે તેમનું આગમ ઉપરની મસ્કૃત ટીકા વગેરે રચવાનું ભગીરથ કાર્ય શીઘ્ર સફળ થાય એજ શુભેચ્છા સાથે અમદાવાદ મુનિ પૂણુ ચદ્રજી I * ખભાત સપ્રદાયના મહાસતી શારદાબાઇ સ્વામીના અભિપ્રાય લખતર તા ૨૫-૪-૫ શ્રીમાન શેઠ શાતીલાલભાઈ મગળદાસભાઈ પ્રમુખ સાહેબ અખિલ ભાર્ગી વૅ સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ અમદાવાદ અમે અત્રે દેવગુરૂની કૃપાએ સુખરૂપ છીએ વિમા આપની સમિતિ દ્વારા પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ સાહેખ જે સૂત્રાનુ કાર્ય કરે છે તે પૈકીના સૂત્રામાથી ઉપાસક દાગ સૂત્ર, આચારગ સૂત્ર, અનુત્ત પપાતિક સૂત્ર, Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દશવૈકાલિક સૂત્ર વિગેરે રાત્રે જોયા તે સસ્કૃત હિંદી અને ગુજરાતી ભાષા એમા હોવાને કારણે વિદ્વાન અને સામાન્ય જનેને ઘણુ જ લાભદાયિક છે તે વાચન ઘણુ જ સુંદર અને મનેર જન છે આ કાર્યમાં પૂજ્ય આચાર્યશ્રી જે અઘાત પુરુષાર્થે કાર્ય કરે છે તે માટે વારંવાર ધન્યવાદને પાત્ર છે. આ સૂત્રેથી સમાજને ઘણું લાભનું કારણ છે હસ સમાન બુદ્ધીવાળા આત્માઓ સ્વપરના ભેદથી નિખાલસ ભાવનાએ અવલોકન કરશે તે આ સાહિત્ય સ્થાનકવાસી સમાજ માટે અપૂર્વ અને ગૌરવ લેવા જેવું છે માટે દરેક ભવ્ય આત્માઓને સૂચન કરૂ છું કે આ સૂત્ર પિતાના ઘરમાં વસાવાની સુદર તકને ચૂકશે નહિ કારણ આવા શુદ્ધ પવિત્ર અને સ્વપર પરા ને પુષ્ટીરૂપ સૂ મળવા બહુ મુશ્કેલ છે. આ કાર્યને આપશ્રી ત્થા સમિતિના અન્ય કાર્યકરે જે શ્રમ લઈ રહ્યા છે તેમાં મહાન નિજારાનું કારણ જેવામા આવે છે તે બદલ ધન્યવાદ એજ લી શારદાબાઈ સ્વામી ખભાત સંપ્રદાય બરવાળા સપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી મોઘીબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય ધધુકા તા ર૭–૧-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાન્તીલાલ મગળદાસભાઈ પ્રમુખ અ. ભાટ - સ્થા. જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ મુ રાજકેટ અત્રે બિરાજતા ગુરુ ગુરુના ભડાર મહાસતીજી વિદુષી મોઘીબાઈ સ્વામી તથા હીરાબાઈ સ્વામી આદિ ઠાણુ બને સુખશાતામા બિરાજે છે આપને સૂચન છે કે અપ્રમત અવસ્થામાં રહી નિવૃત્તિ ભાવને મેળવી ધર્મધ્યાન કરશેજી એજ આશા છે વિશેષમાં અમને પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના રચેલા સુત્રો ભાઈ પોપટ ધનજીભાઈ તરફથી ભેટ તરીકે મળેલા તે સૂત્રે તમામ આઘોપાન વાગ્યા મનન કર્યા અને વિચાર્યા છે તે સૂત્ર સ્થાનકવામી સમાજને અને વીતરાગ માર્ગની પૂબજ ઉન્મત્ત બનાવનાર છે તેમાં આપણી શ્રદ્ધા એટલી ન્યાય રૂ૫થી ભરેલી છે તે આપણા સમાજ માટે ગૌરવ લેવા જેવું છે હમ સમાન Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આત્માએ જ્ઞાન ઝરણાઓથી આત્મરૂપ વાડીને વિકસીત કરશે ધન્ય છે આપને અને સમિતિના કાર્યકરોને જે સમાજ ઉત્થાન માટે કેઈની પણ પરવા કર્યા વગર જ્ઞાનનું દાન ભવ્ય આત્માઓને આપવા નિમિત્તરૂપ થઈ રહ્યા છે. આવા સમર્થ વિદ્વાન પાસેથી સંપૂર્ણ કાર્ય પુરૂ કરાવશે તેવી આશા છે. એજ લિ બરવાળા સંપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી મેઘીબાઈ સ્વામી ને ફરમાનથી લી એડીદાસ ગણેસભાઈ ધ ધુકા સ્થાનકવાસી જૈન સંઘના પ્રમુખ અધતન પદ્ધતિને અપનાવનાર વડોદરા કોલેજના એક વિદ્વાન પ્રોફેસરને અભિપ્રાય સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયના મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જેનશાસ્ત્રોના સંસ્કૃત ટીકાબદ્ધ, ગુજરાતીમાં અને હિન્દીમાં ભાવાત કરવાના ઘણા વિકટ કાર્યમાં વ્યાપ્ત થયેલા છે. શાસ્ત્રો પિકી જે શાસ્ત્રો પ્રસિદ્ધ થયા છે તે હું જોઈ શકો છુ, મુનિશ્રી પિતે સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી હિન્દી ભાષાઓના નિષ્ણાત છે, એ એમને ટુકા પરિચય કરતા સહજ જણાઈ આવે છે. શાસ્ત્રોનું સંપાદન કરવામાં તેમને પિતાના શિષ્યવગને અને વિશેષમાં ત્રણ પતિને સહકાર મળે છે, તે જોઈ મને આનંદ થયે સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયના અગ્રેસર એ પડિતેને સહકાર મેળવી આપી મુનિશ્રીના કાર્યને સરળ અને શિષ્ટ બનાવ્યું છે સ્થાનકવાસી સમાજમાં વિદ્વતા ઘણું એ છી છે તે દિગબર, મૂર્તિપૂજક શ્વેતાંબર વગેરે જૈનદર્શનના પ્રતિનિધિઓના ઘણા સમયથી પરિચયમાં આવતા હુ વિરોધના ભય વગર, કહી શકુ પૂ મહારાજને આ પ્રયાસ સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં પ્રથમ છે એવી મારી માન્યતા છે સસ્કૃત સ્પષ્ટીકરણે સારા આપવામાં આવ્યા છે ભાષાં શુદ્ધ છે એમ હું ચે કસ કહી શકુ છુ ગુજરાતી ભાષાતરે પણ શુદ્ધ અને સરળ થયેલા છે અને વિશ્વાસ છે કે મહારાજ શ્રીના આ સ્તુત્ય પ્રયાસને જેનસમાજ ઉતેજન આપશે અને શાસ્ત્રોના ભાવાતરેને વાચનાલયમા અને કુટુંબોમાં વસાવી શકાય તે પ્રમાણે વ્યવસ્થા કરશે પ્રતાપગજ, વડેદરા કામદાર કેશવલાલ હિમતરામ, એમ એ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દશવૈકાલિક સૂત્ર વિગેરે અને જયા તે ( સસ્કૃત હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષા એમાં હેવાને કારણે વિદ્વાન અને સામાન્ય જનેને ઘણુ જ લાભદાયિક છે તે વાચન ઘણુ જ સુંદર અને મનેર જન છે આ કાર્યમાં પૂજ્ય આચાર્યશ્રી જે અઘાત પુરુષાર્થે કાર્ય કરે છે તે માટે વારવાર ધન્યવાદને પાત્ર છે આ સૂત્રેથી સમાજને ઘણુ લાભનું કારણ છે હસ સમાન બુદ્ધીવાળા આત્માઓ સ્વપરના ભેદથી નિખાલસ ભાવનાએ અવલોકન કરશે તે આ સાહિત્ય સ્થાનકવાસી સમાજ માટે અપૂર્વ અને ગૌરવ લેવા જેવું છે માટે દરેક ભવ્ય આત્માઓને સૂચન કરૂ છું કે આ સૂત્રે પિતાપિતાના ઘરમાં વસાવાની સુદર તકને ચૂકશો નહિ કારણ આવા શુદ્ધ પવિત્ર અને સ્વાર પરા ને પુષ્ટીરૂપ સૂત્રે મળવા બહુ મુશ્કેલ છે. આ કાર્યને આપશ્રી ત્થા સમિતિના અન્ય કાર્યકરે જે શ્રમ લઈ રહ્યા છે તેમાં મહાન નિર્જરાનું કારણ જેવામાં આવે છે તે બદલ ધન્યવાદ એજ લી શારદાબાઈ સ્વામી ખ ભાત સંપ્રદાય બરવાળા સપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી મેઘીબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય ધ ધુકા તા ૨૭-૧-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાન્તીલાલ મગળદાસભાઈ પ્રમુખ અ. ભાટ સ્પે. સ્થા. જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ મુ રાજકેટ અત્રે બિરાજતા ગુના ગુરાના ભડાર મહાસતીજી વિદુષી મોઘીબાઈ સ્વામી તથા હીરાબાઈ સ્વામી આદિ ઠાણા બને સુખશાતામા બિરાજે છે આપને સૂચન છે કે અપ્રમત અવસ્થામાં રહી નિવૃત્તિ ભાવને મેળવી ધર્મધ્યાન કોઇ એજ આશા છે વિશેષમાં અમને પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના રચેલા સૂત્રે ભાઈ પોપટ ધનજીભાઈ તરફથી ભેટ તરીકે મળેલા તે સત્ર તમામ આઘોપાન વાચ્યા મનન કર્યા અને વિચાર્યા છે તે સૂ સ્થાનકવાસી સમાજને અને વીતરાગ માર્ગની પૂબજ ઉન્નત બનાવનાર છે તેમા આપણી શ્રદ્ધા એટલી ન્યાય રૂપથી ભરેલી છે તે આપણા સમાજ માટે ગૌરવ લેવા જેવું છે હમ સમાન Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩. આ સૂત્રે જોતા પહેલી જ નજરે મહારાજશ્રીને સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી, હિન્દી તથા ગુજરાતી ભાષાઓ ઉપરનો અસાધારણ કાબ જણાઈ આવે છે. એક પણ ભાષા મહારાજશ્રીથી અજાણ નથી આપણે જાણીએ છીએ કે એ સૂત્રે ઉચ્ચ અને પ્રથમ કેટિના છે તેની વસ્તુ ગભર, વ્યાપક અને જીવનને તલસ્પર્શી છે આટલા ગહન અને સર્વગ્રાહ્યા સૂત્રોનું ભાષાંતર ૫ ઘાસી વાલજી મહારાજ જેવા ઉચ્ચ કોટિના મુનિરાજને હાથે થાય છે તે આપણું અહોભાગ્ય છે ય ત્રવાદ અને ભૌતિકવાદના આ જમાનામાં જ્યારે ધર્મભાવના ઓસરતી જાય છે એવે વખતે આવા તત્વજ્ઞાન આધ્યાત્મિકતાથી ભરેલા સત્રનું સરળ ભાષામાં ભાષાતર દરેક જીજ્ઞાસુ, મુમુક્ષુ અને સાધકને માર્ગદર્શક થઈ પડે તેમ છે. જૈન અને જૈનેતર, વિદ્વાન અને સાધારણ માણસ, સાધુ અને શ્રાવક દરેકને સમજણ પડે તેવી સ્પષ્ટ, સરળ અને શુદ્ધ ભાષામા સૂત્રે લખવામાં આવ્યા છે. મહારાજશ્રીને જ્યારે જોઈએ ત્યારે તેમના આ કાર્યમાં સકળાયેલા જોઈએ છીએ એ ઉપરથી મુનિશ્રીના પરિશ્રમ અને ધગશની કલ્પના કરી શકાય તેમ છે તેમનું જીવન સમા વણાઈ ગયું છે મુનિશ્રીના આ અસાધારણ કાર્યમાં પિતાના શિષ્યો તથા પડિતાને સહકાર મળે છેમને આશા છે કે જે દરેક મુમુક્ષુ આ પુસ્તકને પિતાના ઘરમા વસાવશે અને પિતાના જીવનને સાચા સુખને મા વાળશે તે મહારાજશ્રીએ ઉઠાવેલો શ્રમ સંપૂર્ણ પણે સફળ થશે છે. રસિકલાલ કસ્તુરચદ ગાધી એમ એ એલ એલ બી ધર્મેન્દ્રસિંહજી કોલેજ રાજકોટ (સૌરાષ્ટ્ર) મુબઈ અને ઘાટકે પરમા મળેલી સભાએ ભિનાર કેન્ફરન્સ તથા સાધુ સમેલનમાં મેકલાલ ઠરાવ હાલ જે વખતે શ્રી તાબાર સ્થાનકવાસી જૈન સ ધ માટે આગમસાધન અને સ્વત બ ટેકાવાળા શાસ્ત્રોદ્ધારની અતિ આવશ્યકતા છે અને જે મહાનુભાવોએ આ વાત દીર્ધ દ્રષ્ટિથી પહેલી પિતાના મગજમાં લઈ તે પાર પાડવા મહેનત લઈ રહ્યા છે તેવા મુનિ મહારાજ પડિતરત્ન શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કે જેઓને સાદડી અધિવેશનમાં સર્વાનુમતે સાહિત્ય મત્રી નીમ્યા છે તેઓશ્રીની દેખરેખ નીચે અ ભા કરે સ્થા જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ જે એક માટી વગવાળી કમિટી છે તેની મારફતે કામ થઈ રહ્યું છે જેને પ્રધાનાચાર્યશ્રી તથા પ્રચાર મંત્રીશ્રી Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કર સુબઇની એ કૉલેજોના પ્રોકેસરાના અભિપ્રાય સુબઈ તા ૩૧-૩-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાતીલાલ મગળદાસ પ્રમુખશ્રી અખિલ ભારત જે સ્થા જૈન સાઓહાર મિત, રાજકોટ પૂજ્યાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે તૈયાર કરેલા આચારાગ, દશવૈકાલિક આવસ્યક, ઉપાસકદશાગ વગેરે સૂત્રા અમે તૈયા આ સત્રા ઉપર સસ્કૃતમા ટીકા આપવામા આવી છે અને સાથે સાથે હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષાતરા પણ આપવામાં આવ્યા છે, સસ્કૃત ટીકા અને ગુજરાતી તથા હિન્દી ભાષાતરા જોના આચાર્ય શ્રીના આ ત્રણે ભાષા પરના એકસરખા અસાધારણુ પ્રભુત્વની સચેટ અને સુરેખ છાપ પડે છે. આ સૂત્ર થામા પાને પાને પ્રગટ થતી માચાશ્રીની અપ્રતિમ વિદ્વતા મુગ્ધ કરી દે તેવી છે ગુજરાતી તથા હિન્દીમા થયેલા ભાષાતરમા ભાષાની શુદ્ધિ અને સરળતા નેાધપાત્ર છે. એથી વિદ્વન્દ્વજન અને સાધારણુ માણુસ ઉભયને સતેષ આપે એવી એમની લેખિનીની પ્રતીતિ થાય છે ૩૨ સૂત્રામાથી હજુ ૧૩ સૂત્રે પ્રગટ થયા છે ખીજા ૭ સત્રા લખાઈને તૈયાર થઈ ગયા છે આ બધા જ સૂત્રા જ્યારે એમને હાથે તૈયાર થઈને પ્રગટ થશે ત્યારે જૈન સૂત્ર–સાહિત્યમાં અમૂલ્ય સપત્તિરૂપ ગણાશે એમા સશય નથી ાચાર્યશ્રી આ મહાન કાર્યને જૈન સમાજને વિશેષત સ્થાનકવાસી સમાજના સપૂર્ણ સહકાર સાપડી રહેશે એવી અમે આશા રાખીએ છીએ પ્રે રમણલાલ ચીમનલાલ શાહ સેટ ઝેવિયર્સ કોલેજ મુબઈ પ્રે તારા રમણલાલ શાહ સાન્ડ્રીયા કોલેજ, સુખઇ. * રાજકોટની ધર્મેન્દ્રસિંહજી કોલેજના પ્રોફેસર સાહેબના અભિપ્રાય. જયમાલ જાગનાથ પ્લેટ રાજકેટ, તા ૧૮-૪૫૬ પૂછ્યાચા` ૫ સુનિ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આજે જૈન સમાજ માટે એક એવા કાર્યમા વ્યાસ થએલા છે કે જે સમાજ માટે બહુ ઉપયે.ગી થઇ પડશે. સુનિશ્રીએ તૈયાર કરેલા આાચારાગ, વૈકાલિક, શ્રી વિપાકથત વિ મે તૈયા Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આ સૂત્રે જોતા પહેલી જ નજરે મહારાજશ્રીને સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી, હિન્દી તથા ગુજરાતી ભાષાઓ ઉપર અસાધારણ કાબુ જણાઈ આવે છે એક પણ ભાષા મહારાજશ્રીથી અજાણ નથી આપણે જાણીએ છીએ કે એ સૂત્રે ઉચ્ચ અને પ્રથમ કેટિના છે તેની વસ્તુ ગભીર, વ્યાપક અને જીવનને તલસ્પર્શી છે આટલા ગહન અને સર્વગ્રાહ્ય સૂનું ભાષાંતર ૫ ઘાસીલાલજી મહારાજ જેવા ઉચ્ચ કેટિના મુનિરાજને હાથે થાય છે તે આપણા અહભાગ્ય છે યત્રવાદ અને ભૌતિકવાદના આ જમાનામાં જ્યારે ધર્મભાવના ઓસરતી જાય છે એવે વખતે આવા તત્વજ્ઞાન આધ્યાત્મિકતાથી ભરેલા સત્રનું સરળ ભાષામાં ભાષાંતર દરેક જીજ્ઞાસુ, મુમુક્ષુ અને સાધકને માર્ગદર્શક થઈ પડે તેમ છે જેન અને જૈનેતર, વિદ્વાન અને સાધારણ માણસ, સાધુ અને શ્રાવક દરેકને સમજણ પડે તેવી સ્પષ્ટ, સરળ અને શુદ્ધ ભાષામા સુત્ર લખવામાં આવ્યા છે મહારાજશ્રીને જ્યારે જોઈએ ત્યારે તેમના આ કાર્યમાં સકળાયેલા જોઈએ છીએ એ ઉપરથી મુનિશ્રીના પરિશ્રમ અને ધગશની કપના કરી શકાય તેમ છે તેમનું જીવન સુત્રોમાં વણાઈ ગયુ છે. મુનિશ્રીના આ અસાધારણ કાર્યમાં પિતાના શિખેને તથા પડિતેને સહકાર મળે છે. મને આશા છે કે જે દરેક મુમુક્ષુ આ પુસ્તકને પિતાના ઘરમા વસાવશે અને પિતાના જીવનને સાચા સુખને મા વાળશે તે મહારાજશ્રીએ ઉઠાવેલ શ્રમ સંપૂર્ણ પણે સફળ થશે રસિકલાલ કસ્તુરચદ ગાધી એમ એ એલ એલ બી ધર્મેન્દ્રસિંહજી કોલેજ રાજકેટ (સૌરાષ્ટ્ર) મુબઈ અને ઘાટકોપરમાં મળેલી સભાએ ભિનાર કેન્ફરન્સ તથા સાધુ સમેલનમાં મેકલાવેલ ઠરાવ હાલ જે વખતે શ્રી ઝવેતાબાર સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ માટે આગમ-સશે ધન અને સ્વતંત્ર ટીકાવાળા શાસ્ત્રોદ્ધારની અતિ આવશ્યકતા છે અને જે મહાનુભાવોએ આ વાત દીર્ધ દ્રષ્ટિથી પહેલી પિતાના મગજમા લઈ તે પાર પાડવા મહેનત લઈ રહ્યા છે તેવા મુનિ મહારાજ પડિતરત્ન શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કે અને સાદડી અધિવેશનમાં સર્વાનુમતિ સાહિત્ય મત્રી નીમ્યા છે તેઓશ્રીની રેખ નીચે આ ભાવે સ્થા જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ જે એક મેટી વગવાળી રી છે તેની મારફતે કામ થઈ રહ્યું છે જેને પ્રધાનાચાર્યશ્રી તથા પ્રચાર મત્રીશ્રી ખરે મઃ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સુબઇની બે કેલેના પ્રોફેસરોને અભિપ્રાય સુબઈ તા ૩૧-૩-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાતીલાલ મગળદાસ પ્રમુખ , શ્રી અખિલ ભારત જે સ્થા જેન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, રાજકેટ પૂજ્યાચાર્ય શ્રી ઘસીલાલજી મહારાજે તૈયાર કરેલા આચારાગ, દશવૈકાલિક આવશ્યક, ઉપાસકદશાગ વગેરે સૂત્રે અમે જોયા આ સત્ર ઉપર સંસ્કૃતમા ટીકા આપવામા આવી છે અને સાથે સાથે હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષાતર પણ આપવામા આવ્યા છે, સસ્કૃત ટીકા અને ગુજરાતી તથા હિન્દી ભાષાતરે જોતા આચાર્યશ્રીના આ ત્રણે ભાષા પરના એકસરખા અસાધારણ પ્રભુત્વની સચોટ અને સુરેખ છાપ પડે છે આ સૂત્ર ગ્રંથમાં પાને પાને પ્રગટ થતી આચાર્યશ્રીની અપ્રતિમ વિદ્વતા મુગ્ધ કરી દે તેવી છે ગુજરાતી તથા હિન્દીમાં થયેલા ભાષાતરમાં ભાષાની શુદ્ધિ અને સરળતા નોધપાત્ર છે એથી વિદ્વજન અને સાધારણ માણસ ઉભયને સતેાષ આપે એવી એમની લેખિનીની પ્રતીતિ થાય છે ૩૨ સૂત્રોમાથી હજુ ૧૩ સૂત્રે પ્રગટ થયા છે બીજા ૭ સત્રે લખાઈને તૈયાર થઈ ગયા છે. આ બધા જ સૂત્રે જ્યારે એમને હાથે તૈયાર થઈને પ્રગટ થશે ત્યારે જૈન સુત્ર–સાહિત્યમાં અમૂલ્ય સંપત્તિરૂપ ગણાશે એમા સશય નથી આચાર્યશ્રી આ મહાન કાર્યને જે સમાજનો-વિશેષત સ્થાનકવાસી સમાજને સંપૂર્ણ સહકાર સાપડી રહેશે એવી અમે આશા રાખીએ છીએ . રમણલાલ ચીમનલાલ શાહ સેટ ઝેવિયર્સ કેલેજ મુંબઈ છે તારા રમણલાલ શાહ સેકીય કેલેજ, મુંબઈ રાજકેટની ધર્મેન્દ્રસિંહજી કેલેજના પ્રોફેસર સાહેબને અભિપ્રાય જમહાલ જાગનાથ પ્લેટ રાજકેટ, તા ૧૮-૪-૫૬ પૂજ્યાચાર્ય ૫ મુનિ શ્રી ઘસીલાલજી મહારાજ આજે જૈન સમાજ માટે એક એવા કાર્યમાં વ્યાપ્ત થએલા છે કે જે સમાજ માટે બહુ ઉપયેગી થઈ પશે. મુનિશ્રીએ તૈયાર કરેલા આચારા, શવૈકાલિક, શ્રી વિપકત વિ મે જોયા Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫ નવાઈ નથી અને પૂ શ્રી ઘાસીલાલજીના બનાવેલા સૂત્ર જેતા સૌ કોઈને ખાત્રી થાય તેમ છે કે દામોદરદાસભાઈએ તેમજ સ્થાનકવાસી સમાજે જેવી આશા શ્રી ઘાસીલાલજી મ પાસેથી રાખેલી તે ખરાખર ફળીભૂત થયેલ છે શ્રી વમાન શ્રમણુસ ઘના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી હ્રાસીલાલજી મહારાજના સૂત્રેા માટે ખાસ પ્રશંસા કરી અનુમતિ ઉપરથી જ શ્રી ધાસીલાલજી મ ના સૂત્રાની ઉપયેાગિતાની ખાત્રી થશે આ સૂત્ર વિદ્યાર્થીને, અભ્યાસીને તેમજ સામાન્ય વાચકને સર્જને એક સરખી રીતે ઉપયેગી થઇ પડે છે વિદ્યાર્થીને તેમજ અભ્યાસીને મૂળ તથા સસ્કૃત ટીકા વિશેષ કરીને ઉપયેગી થાય તેમ છે ત્યારે સામાન્ય હિન્દી વાચકને હિન્દી અનુવાદ અને ગુજરાતી વાચકને ગુજરાતી અનુવાદથી આખુ સૂત્ર સરળતાથી સમાય જાય છે * મહારાજે શ્રી આપેલ છે તે કેટલાકને એવો ભ્રમ છે કે સૂત્રો વાચવાનું આપણુ કામ નહિ, સૂત્રો આપણને સમજાય નહિ આ ભ્રમ તદ્દન ખાટી છે બીજા પણ શાસ્ત્રીય પુસ્તક કરતા સૂત્રેા સામાન્ય વાચકને પણ ઘણી સરળતાથી સમજાઇ જાય છે સામાન્ય માસ પણ સમજી શકે તેટલા માટે જ ભ મહાવીરે તે વખતથી લેક ભાષામા (અધ માગધી ભાષામા) સૂત્રે બનાવેલા છે એટલે સૂત્રે વાચવા તેમજ સમજવામા ઘણા સરળ છે માટે કંઇ પણ વાચકને એને ભ્રમ હૈાય તે તે કાઢી નાખવા અને ધર્મનું તેમજ ધર્માંના સિદ્ધાતાનું સાચુ જ્ઞાન મેળવવા માટે સૂત્રે વાચવાને ચૂકવુ નહિ એટલુ જ નહિ પણ જરૂરથી પહેલા સૂત્રેાજ વાચવા સ્થાનકવાસીઓમા આ શ્રી સ્થા જૈન શાઓદ્ધાર સમિતિએ જે કામ કર્યુ છે અને કરી રહી છે તેવુ કાઈ પણ સસ્થાએ આજ સુધી કર્યું નથી સ્થા જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના છેલ્લા રિપોર્ટ પ્રમાણે બીજા છ સત્રે લખાયેલ પડયા છે, બે સૂત્ર—અનુયગદ્વાર અને ઢાળુાગ સૂત્રા-લખાય છે તે પણ થાડા વખતમા તૈયાર થઈ જશે તે પછી બાકીના સૂત્રેા હાથ ધરવામા આવશે તૈયાર સૂત્રા જલ્દી છપાઈ જાય એમ સમિતિને ઉત્તેજન અને સહાયતા આપીને ઇચ્છીએ છીએ * ઇચ્છીએ છીએ અને સ્થા ખ એ તેમના સૂત્રે ઘરમા વસાવે એમ ‘જૈન સિદ્ધાન્ત” પત્ર – મે ૧૯૫૫ - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તથા અનેક અનુભવી મહાનુભાવેએ પિતાની પસંદગીની મહેર છાપ આપી છે અને કેટલામાં છેલા વડેદરા યુનિવર્સીટીના પ્રેસર કેશવલાલ કામદાર એમ એ એ પિતાનું સવિસ્તર પ્રમાણપત્ર આપ્યું છે તે શાસ્ત્રોદ્ધાર કમિટીના કામને આ સમેલન તથા કેન્ફરન્સ હાર્દિક અભિનંદન આપે છે અને તેમના કામને જ્યા જ્યા અને જે જે જરૂર પડે-પડિતની અને નાણાની–પિતાની પાસેના ફડમાથી અને જાહેર જનતા પાસેથી મદદ મળે તેવી ઈચ્છા ધરાવે છે આ શાસ્ત્રો અને ટીકાઓને જ્યારે આટલી બધી પ્રશ સાપૂર્વક પસદગી મળી છે ત્યારે તે કામને મદદ કરવાની આ કોન્ફરન્સ પિતાની ફરજ માને છે અને જે કાઈ ત્રુટી હેય તે ૫ ૨ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજની સાનિધ્યમાં જઈ બતાવીને સુધારવા પ્રયત્ન કરો આ કામને ટલ્લે ચઢાવવા જેવું કંઈપણ કામ સત્તા ઉપરના અધીકારીઓના વાણી કે વર્તનથી ન થાય તે જેવા પ્રમુખ સાહેબને ભલામણ કરે છે (સ્થા જૈન પત્ર તા ૪-૫-૫૬) સ્વતંત્ર વિચારક અને નિડર લેખક જૈન સિદ્ધાતના તત્રીશ્રી શેઠ નગીનદાસ ગીરધરલાલને અભિપ્રાય શ્રી સ્થાનકવાસી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ સ્થાપીને પૂ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને સૌરાષ્ટ્રમાં લાવી તેમની પાસે બત્રીસે સૂત્રે તૈયાર કરવાની હિલચાલ ચાલતી હતી ત્યારે તે હિલચાલ કરનાર શાસ્ત્રજ્ઞ શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈ સાથે મારે પત્રવ્યવહાર ચાલે ત્યારે શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈએ તેમના એક પત્રમાં મને લખેલું કે આપણું સૂના મૂળ પાઠ તપાસી શુદ્ધ કરી સસ્કૃત સાથે તૈયાર કરી શકે તેવા સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમા મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ સિવાય મને કઈ વિશેષ વિદ્વાન મુનિ જેવામાં આવતા નથી લાબી તપાસને અને મે મુનિ શ્રી ઘાસીલાલજીને પસંદ કરેલા છે” શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈ પિતે વિદ્વાન હતા શાસ્ત્રજ્ઞ હતા તેમ વિચારક પણ હતા. શ્રાવકે તેમજ મુનિઓ પણ તેમની પાસેથી શીક્ષા વાચના લેતા, તેમ સાન ચર્ચા પણ કરતા. એવા વિદ્વાન શેઠશ્રીની પસંદગી યથાર્થ જ હોય એમ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્ નવાઈ નથી અને પૂ. શ્રી ઘાસીલાલજીના બનાવેલા સૂત્ર જોતા સૌ કોઈને ખાત્રી થાય તેમ છે કે દામોદરદાસભાઇએ તેમજ સ્થાનકવામી સમાજે જેવી આશા શ્રી ઘાસીલાલજી મ પાસેથી રાખેલી તે ખરાખર ફળીભૂત થયેલ છે શ્રી વમાન શ્રમણુસ ઘના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી બાસીલાલજી મહારાજના સૂત્રો માટે ખાસ પ્રશંસા કરી અનુમતિ ઉપરથી જ શ્રી ઘાસીલાલજી મ ના સૂત્રાની ઉપયેાગિતાની ખાત્રી થશે મહારાજે શ્રી આપેલ છે તે આ સૂત્રેા વિદ્યાર્થીને, અભ્યાસીને તેમજ સામાન્ય વાચકને સર્વને એક સરખી રીતે ઉપયોગી થઈ પડે છે વિદ્યાર્થીને તેમજ અભ્યાસીને મૂળ તથા સંસ્કૃત ટીકા વિશેષ કરીને ઉપયોગી થાય તેમ છે ત્યારે સામાન્ય હિન્દી વાચકને હિન્દી અનુવાદ અને ગુજરાતી વાચકને ગુજરાતી અનુવાદથી આખુ સૂત્ર સરળતાથી સમજાય જાય છે કેટલાકને એવો ભ્રમ છે કે સૂત્રે વાચવાનું આપણુ કામ નહિ, સૂત્રે આપણને સમજાય નહિ આ ભ્રમ તદ્ન ખાટે છે ખીન્ન કેઈપણુ શાસ્ત્રીય પુસ્તક કરતા સૂત્ર સામાન્ય વાચકને પણ ઘણી સરળતાથી સમજાઇ જાય છે માણુસ પણુ સમજી શકે તેટલા માટે જ લ મહાવીરે તે વખતથી લેક ભાષામા (અધ માગધી ભાષામા) સૂત્રો બનાવેલા છે એટલે સૂત્રે વાચવા તેમજ સમજવામા સામાન્ય ઘણા સરળ છે માટે કાઈ પણ વાચકને એના ભ્રમ હાય તે તે કાઢી નાખવા અને ધર્મનું તેમજ ધર્મના સિદ્ધાતાનું સાચુ જ્ઞાન મેળવવા માટે સૂત્રે વાચવાને ચૂકવુ નહિ એટલુ જ નહિ પણ જરૂરથી પહેલા સૂત્રેાજ વાચવા સ્થાનકવાસીએમા આ શ્રી સ્થા જૈન શાઓદ્ધાર સમિતિએ જે કામ કર્યુ છે અને કરી રહી છે તેવુ કાઇ પણ સસ્થાએ આજ સુધી કર્યું નથી સ્થા જૈત શાસ્ત્રોદ્વાર સમિતિના છેલ્લા રિપોર્ટ પ્રમાણે ખીજા છ સત્રા લખાયેલ પડયા છે, બે સૂત્ર–અનુયાગદ્વાર અને ઠાણાગ સૂત્રેા-લખાય છે તે પણ થાડા વખતમાં તૈયાર થઈ જશે તે પછી બાકીના સૂત્રેા હાથ ધરવામા આવશે તૈયાર સૂત્રેા જલ્દી છપાઈ જાય એમ સમિતિને ઉત્તેજન અને સહાયતા આપીને ઇચ્છીએ છીએ * ઇચ્છીએ છીએ અને સ્થા ખ ધુએ તેમના સૂત્રે ઘરમા વસાવે એમ જૈન સિદ્ધાન્ત” પત્ર – મે ૧૯૫૫ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , } T ( પૂ. આચાર્ય શ્રી ઈશ્વરલાલજી મેં સા ની આજ્ઞા અનુસાર લખનાર) દ સ. ના જૈન મુનિ શ્રી દયાનદજી મહારાજ い t ૬ ' શ્રુત ભકિત , * * 3 તા ૨૩-૨-૫૬ શાહપુર, અમદાવાદ આજે લગભગ ૨૦ વર્ષથી શ્રદ્ધેય પરમપૂજ્ય, 'જ્ઞાન દિવાકર ૫ " મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ ચરમ તીર્થંકર ભગવાન મહાવીરના અનુત્તર અનુપમ ન્યાય યુકત, પૂર્વાપર અવિરધ, સ્વપર કલ્યાણુકારક, ચરમ શીતળ વાણીના દ્યોતક એવા શ્રી જિનાગમ પર પ્રકાશ પાડે છે તેઓશ્રી પ્રાચીન, પૌર્વાત્ય સંસ્કૃતાદિ અનેક ભાષાના પ્રખર પતિ છે અને જિન વાણીને પ્રકાશ સસ્કૃત, ગુજરાતી અને હિન્દીમા મૂળ શબ્દાર્થ, ટીકા, વિસ્તૃત વિવરણ સાથે પ્રકાશમા લાવે છે એ જૈત સમાજ માટે અતિ ગોરવ અને આનદના વિષય છે : 4. ભ॰ મહાવીર અત્યારે આપણી પાસે વિદ્યમાન નથી પરંતુ તેમની વાણી રૂપે અક્ષરદેહ ગણુધર મહારાજેએ શ્રુત પર પરાએ સાચવી રાખ્યું શ્રુત પર પરાથી સચવાતુ જ્ઞાન જ્યારે વિસ્તૃત થવાના સમય ઉપસ્થિત થવા લાગ્યા ત્યારે શ્રી દેવગ્નિગણિ ક્ષમાશ્રમણે વલ્ભીપુર-વળામા તે આગમાને પુસ્તકરૂપે આરૂઢ કર્યો આજે આ સિદ્ધાતે આપણી પાસે છે તે અ માગધી પાલી ભાષામા છે અત્યારે આ ભાષા ભગવાનની, દેવાની તથા જનગણની ધર્મ ભાષા છે તેને આપણા શ્રમણે અને શ્રમણીએ તથા મુમુક્ષુ શ્રાવક શ્રાવિકાઓ મુખપાઠ કરે છે, પરન્તુ તેને અ અને ભાવ ઘણુા ચેડાઓ સમજે છે う જિનાગમ એ આપણા શ્રદ્ધેય પવિત્ર ધમસૂત્ર છે. એ આપણી આખે છે તેના અભ્યાસ કરવા એ આપણી સૌની જૈન માત્રની જ છે તેને સત્ય સ્વરૂપે સમજાવવા માટે આપણા સદ્ભાગ્યે જ્ઞાન દિવાકર શ્રી ઘાસીવાલજી મહારાજે સત્સ કલ્પ કર્યો છે. અને તે લિખિત સૂત્રાને પ્રગટાવી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિર્ઝા દ્વારા જ્ઞાન વહેતી કરી છે. આવા અનુપમ કાર્યોંમા સકળ જૈનાના સહકાર અવસ્ય હાવા ઘટે અને તેના વધારેમા વધારે પ્રચાર થાય તે માટે પ્રયત્નો કરવા ઘટે પરમ t ભ॰ મહાવીરને ગણધર ગૌતમ પૂછે છે કે હે ભગવાન, સૂત્રની આરાધનાં કરવાથી શુ ફળ પ્રાપ્ત થાય છે? ભગવાન તેને પ્રતિ ઉત્તર આપે છે કે શ્રુતની આરાધનાથી જીવેના અજ્ઞાનને નાશ થાય છે અને તેઓ સસારના કલેશેાથી નિવૃત્તિ મેળવે છે અને સસાર કલેશેથી નિવૃત્તિ અને અજ્ઞાનને નાશ થતા મેક્ષ કુળની પ્રાપ્તિ થાય છે આવા જ્ઞાન કાર્યમાં મૂર્તિપૂજક જૈન, દિગબરો અને અન્ય ધર્મીએ હજારો અને લાખ રૂપીયા ખર્ચે છે. હિન્દુ ધર્મમા પવિત્ર મનાતા ગ્રંથ ગીતાના એક નહિ પણ ખતરા ટીકા કયા દુનિયાની લગભગ સવ' ભાષાઓમા પ્રગટ થયા છે ધર્મના પ્રચારકે તેમના પવિત્ર ધર્મગ્રન્થ ખાઇનલના પ્રચારાથે તેનું જગતની સ ભાષાઓમા ભષાતર કરી, તેને પડનર કરતા પણ ઘણી ઓછી કિંમને વેચી ધમ ઈસાઈ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સૂત્રને પ્રચાર કરે છે મુસ્લીમ લેકો પણ તેમના પવિત્ર મનાતા ગ્રન્થ કુરાનનું ચણ અનેક ભાષાઓમાં ભાષાતર કરી સમાજમાં પ્રચાર કરે છે આપણે પૈસા પર મેહ ઉતારી ભગવાનના સિદ્ધાંતને પ્રચાર કરવા માટે તન, મન, ધન સમર્પણ કરવા જોઈએ અને સૂત્ર પ્રકાશનના કાર્યને વધુ ને વધુ વેગ મળે તે માટે સક્રિય પ્રયત્ન કરવા જોઈએ આવા પવિત્ર કાર્યમાં સાપ્રદાયિક મતભેદ સૌએ ભૂલી જવા જેએ અને શુદ્ધ આશયથી થતા શુદ્ધ કાર્યને અપનાવી લેવું જોઈએ સમિતિના નિયમાનુસાર ૨ ૨૫૧] ભરી સમિતિના સભ્ય બનવું જોઈએ ધાર્મિક અનેક ખાતાઓનો મુકાબલે સૂત્ર પ્રકાશનનું-જ્ઞાન પ્રચારનું આ ખાતુ સર્વશ્રેષ્ઠ ગણાવુ જોઈએ આ કાર્યને વેગ આપવાની સાથે સાથે એ ગમે-ભગવાનની એ'મહાવાણીનું પાન કરવા પણ આપણે હરહમેશ તત્પર રહેવું જોઈએ જેથી પરમ શાન્તિ અને જીવન સિદ્ધિ મેળવી શકાય ( સ્થા જૈન તા ૫-૭-૫૬). થી એ ભા એ સ્થા જેન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના પ્રમુખશ્રી વગેરે રાણપુર પરમ પવિત્ર સૌરાષ્ટ્રની પુણ્ય ભૂમિ પર જ્યારથી શાન્ત-શાવિશારદ અપ્રમાદિ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના પુનિત પગલા થયા છે ત્યારથી ઘણા લાબા કાળથી લાગુ પડેલ જ્ઞાનાવરણિય કમેના પડળ ઉતારવાના શુભ પ્રયાસ થઈ રહ્યો છે અને જે પ્રવચનની પ્રભાવના તેઓશ્રી કરી રહ્યા છે તે અનત ઉપકારક કાર્યમાં તમે જે અપૂર્વ સહાય આપી રહ્યા છે તે માટે તમે સર્વને ધન્ય છે અને એ શુભ પ્રવૃત્તિના શુભ પરિણામે જનતા લાભ લે છે અને તે સમજાય છે કે સાધુજી છઠે ગુણસ્થાનકે હોય છે પણ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તે બહુધા સાતમે અપ્રમત ગુણસ્થાનકે જ રહે છે એવા અપ્રમત માત્ર પાચ-સાત માધુઓ જે સ્થાનકવાસી જૈન સમાજમાં હાથ તે સમાજનું શ્રેય થતા જશએ વાર ન લાગે સમજા કાશમાં સ્થા જૈન સંપ્રદાયને દિવ્ય પ્રભાકર જળહળી નીકળે ૫ ણ છે દિન શ્રી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને હારી એક નમ્ર સૂચના છે કે પૂજ્યશ્રીની વૃદ્ધા વસ્થા છે, અને કાર્યપ્રણાલિકા યુવાને શરમાવે તેવી છે તેમને ગામેગામ વિહાર કરવા અને શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય કરવું તેમાં ઘણું શારીરિક-માનસિક અને વ્યવહારિક મુશ્કેલી વેઠવી પડે છે તે કઈ ગ્ય સ્થળ કે જ્યાના શ્રાવક ભકિતવાળા હેાય વાડાના રાગના વિષથી અલિપ્ત હોય એવા કેઈ સ્થળે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય પૂર્ણ થાય ત્યા સુધી સ્થીરતા કરી શકે એના માટે પ્રબંધ કરવો જોઈએ બીજી કઈ એવા સ્થળની અનુકુળતા ન મળે તે છેવટ અમદાવાદમાં ચેશ્ય સ્થળે રહેવાની સગવડતા. કરી અપાય તે વધુ સારૂ હારી આ સૂચના પર ધ્યાન આપવા ફરી થાદ આપુ છુ ફરીવાર પૂજ્ય આચાર્યશ્રીને અને તેમના સત્કાર્યના સહાયકોને મારી અભિન દમ પાઠવું છું તે સ્વીકારશેજી લિ સહાનદી જૈનમુનિ લાલજી Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન સિદ્ધાતના” તત્રીશ્રીને અભિપ્રાય. સ્થાનકવાસીઓમાં પ્રમાણુભત રાત્રે બહાર પાડનારી આ એકની એક સંસ્થા છે અને એના આ છેલા રિપોર્ટ ઉપરથી જણાય છે કે તેણે ઘણું સારી પ્રગતિ કરી છે તે જોઈ આનદ થાય છે મૂળ પાઠ, ટીકા, હિન્દી તથા ગુજરાતી અનુવાદ સહિત રાત્રે બહાર પાડવા એ કાઈ સહેલ કામ નથી એ એક મહાભારત કામ છે અને તે કામ આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ઘણી સફળતાથી પાર પાડી રહી છે તે સ્થાનકવાસી સમાજ માટે ઘણા ગૌરવને વિષય છે અને સમિતિ ધન્યવાદને પાત્ર છે સમિતિ તરફથી નવ રાત્રે બહાર પડી ચૂક્યા છે, હાલમાં ત્રણ સ છપાય છે નવ સૂત્રે લખાઈ ગયા છે અને જ બુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ તથા નદીસુત્ર તૈયાર થઈ રહ્યો છે હાલમા મત્રી શ્રી સાકરચદ ભાઈચદ સમિતિના કામમાં જ તેમને આપે વખત ગાળે છે અને સમિતિના કામકાજને ઘણે વેગ આપી રહ્યા છે તેમની ખત માટે ધન્યવાદ અને આ મહાભારત કામના મુખ્ય કાર્યકત તે છે વૃદ્ધ પડિત મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ મૂળ પાઠનું સાધન તથા સંસ્કૃત ટીકા તેઓશ્રી જ તૈયાર કરે છે મુનિશ્રીને આ ઉપકાર આખાય સ્થા જૈન સમાજ ઉપર ઘણે મહાન છે એ ઉપકારને બદલે તે વાળી શકાય તેમજ નથી પરંતુ આ સમિતિના મેમ્બર બની, તેને બહાર પડેલા સુત્રે ઘરમાં વસાવી તેનું અધ્યયન કરવામાં આવે તે જ મહારાજશ્રીનું થોડુ ત્રાણુ અદા કર્યું ગણાય ભગવાને કહ્યું છે કે અમે ન તો પહેલું જ્ઞાન પછી દયા, દયા ધર્મને યથાર્થ સમજે છે તે ભગવાનની વાણીરૂપ આપણું સુ વાચવા જ જોઈએ તેનું અધ્યયન કરવું જોઈએ અને તેને ભાવાર્થ યથાર્થ સમજે જોઈએ એટલા માટે આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના સર્વ સુત્રો દરેક સ્થા જેને પિતાના ઘરમાં વસાવવા જ જોઇએ સર્વ ધર્મજ્ઞાન આપણા સમાજ સમાયેલું છે અને મૂત્ર સહેલાઈથી વાચીને સમજી શકાય છે, માટે દરેક સ્થા. જૈન આ સૂત્રે વારે એ ખાસ જરૂર છે જેન સિદ્ધાત” ડીસેમ્બર- પદ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૯. શ્રી ઉપાશક દશાગ સૂત્રને માટે અભિપ્રાય મૂળ સૂત્ર તથા ૫ મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ બનાવેલ સસ્કૃત છાયા તથા ટીકા અને હિંદી તથા ગુજરાતી-અનુવાદ સહિત 3 - - 1 પ્રકાશક- અ ભા સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, ગરેડીઆ કુવા રડ, ગ્રીન લેજ પામે, રાજકેટ (સૌરાષ્ટ્ર) પૃષ્ઠ ૬૧૬ બીજી આવૃત્તિ બેવડુ (માટુ) કદ પાકુ પુછુ જેકેટ સાથે સને ૧૯૫૬ કિમત ૮-૮-૦ આપણું મૂળ બાર અગ સૂત્રોમાનું ઉપાશક દશાગ એ સાતમુ અગ સૂત્ર છે, એમાં ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસકે શ્રાવકેના જીવનચરિત્ર આપેલા છે તેમાં પહેલું ચરિત્ર આનદ શ્રાવકનું આવે છે આન દ શ્રાવકે જન ધર્મ અગીકાર કર્યો અને બારવ્રત ભગવાન મહાવીર પાસે અગીકાર કરી પ્રતિજ્ઞા (પ્રત્યાખ્યાન) લીધા તેનું સવિસ્તર વર્ણન આવે છે તેની અતર્ગત અનેક વિષયે જેવા કે, અભિગમ, કાલકસ્વરૂપ, નવતત્ત્વ, નરક દેવલોક વગેરેનું વર્ણન પણ આવે છે આનદ શ્રાવકે બાર વ્રત લીધા તે બારે વ્રતની વિગત અતિચારની વિગત વગેરે બધુ આપેલ છે તે જ પ્રમાણે બીજા નવ શ્રાવકેની પણ વિગત આપેલ છે '. આનદ શ્રાવકની પ્રતિજ્ઞામા ચરિત જેરૂં શબ્દ આવે છે મૂર્તિપૂજકે મૂર્તિપૂજા સિદ્ધ કરવા માટે તેને અર્થ અરિહતનું ચિત્ય (પ્રતિમા) એ કરે છે પણ તે અર્થ તદન ખેટે છે અને તે જગ્યાએ આગળ પાછળના સ બધ પ્રમાણે તેને એ પેટે અર્થ ન ધ બેસતું જ નથી તે મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ તેમની ટીકામા અનેક રીતે પ્રમાણે આપી સાબિત કરેલ છે અને ગતિ ચારે ને અર્થ સાધુ થાય છે તે બતાવી આપેલ છે આ પ્રમાણે આ સૂત્રમાથી શ્રાવકના શુદ્ધ ધર્મની માહિતી મળે છે તે ઉપરાત તે શ્રાવકેની બદ્ધિ, રહેઠાણુ, નગરી વગેરેના વાને ઉપરથી તે વખતની સામાજિક સ્થિતિ, રીતરિવાજ રાજવ્યવસ્થા વગેરે બાબતની માહિતી મળે છે એટલે આ સત્ર દરેક શ્રાવકે અવશ્ય વાચવું જોઈએ એટલું જ નહિ પણ વાર વાર અધ્યયન કરવા માટે ઘરમા વસાવવું જોઈએ પુસ્તકની શરૂઆતમાં વદ્ધમાન શ્રમણ સંઘના આચાર્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજનું સંમતિ પત્ર તથા બીજા સાધુઓ તેમજ શ્રાવકેના સમતિ પત્રો આપેલા છે, તે સૂત્રની પ્રમાણભૂતતાની ખાત્રી આપે છે - “જેન સિદ્ધાત” જાન્યુઆરી, ૫૭ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન સિદ્ધાતના” તત્રીશ્રીને અભિપ્રાય. સ્થાનકવાસીઓમા પ્રમાણુભત રાત્રે બહાર પાડનારી આ એકની એક સંસ્થા છે અને એના આ છેલલા રિપોર્ટ ઉપરથી જણાય છે કે તેણે ઘણું સારી પ્રગતિ કરી છે તે જોઈ આનદ થાય છે મૂળ પાઠ, ટીકા, હિન્દી તથા ગુજરાતી અનુવાદ સહિત સત્ર બહાર પાડવા એ કાઈ સહેલું કામ નથી એ એક મહાભારત કામ છે અને તે કામ આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ઘણું સફળતાથી પાર પાડી રહી છે તે સ્થાનકવાસી સમાજ માટે ઘણું ગૌરવને વિષય છે અને સમિતિ ધન્યવાદને પાત્ર છે સમિતિ તરફથી નવ સૂત્ર બહાર પડી ચૂકયા છે. હાલમાં ત્રણ સુ છપાય છે નવ સૂત્રે લખાઈ ગયા છે અને જ બુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ તથા નદીસૂત્ર તૈયાર થઈ રહ્યા છે હાલમા મત્રી શ્રી સાકરચદ ભાઈચદ સમિતિના કામમાં જ તેમનો આખો વખત ગાળે છે અને સમિતિના કામકાજને ઘણે વેગ આપી રહ્યા છે તેમની ખત માટે ધન્યવાદ અને આ મહાભારત કામના મુખ્ય કાર્યકર્તા તે છે વયેવૃદ્ધ પતિ મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ મૂળ પાઠનું સંશોધન તથા સંસ્કૃત ટીકા તેઓશ્રી જ તૈયાર કરે છે મુનિશ્રીને આ ઉપકાર આખાય સ્થા જૈન સમાજ ઉપર ઘણે મહાન છે એ ઉપકારને બદલે તે વાળી શકાય તેમજ નથી પરંતુ આ સમિતિના મેમ્બર બની, તેને બહાર પડેલા સત્રે ઘરમાં વસાવી. તેનું અધ્યયન કરવામાં આવે તે જ મહારાજશ્રીનુ ડુ અણુ અદા કર્યું ગણાય ભગવાને કહ્યું છે કે પટમ જાળ તો રથ પહેલું જ્ઞાન પછી દયા, દયા ધર્મને યથાર્થ સમજે હોય તે ભગવાનની વાણીરૂપ આપણું સત્ર વાચવા જ જોઈએ તેનું અધ્યયન કરવું જોઈએ અને તેને ભાવાર્થ યથાર્થ સમજ જોઈએ એટલા માટે આ શાઓઢારસમિતિના સર્વ સત્ર દરેક સ્થા જેને પિતાના ઘરમા વસાવવા જ જોઇએ સર્વ ધર્મજ્ઞાન આપણા સમાજ સમાયેલું છે અને રાત્રે સહેલાઈથી વાચીને સમજી શકાય છે, માટે દરેક સ્થા. જન આ સૂત્રે વારે એ ખાસ જરૂરનું છે. ભજન સિદ્ધાત” સેમ્બર- ૫૦ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 - આ સાલે પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના સુશિષ્ય ઉપ મુનિશ્રી કન્વેયા લાલજી મહારાજ મલાડ મુકામે ચાતુર્માસ બિરાજે છે અને તેઓશ્રી શાસ્ત્રોનો મેમ્બરે કરવા માટે અથાગ પ્રયત્ન કરીને પ્રવચનની સેવા બજાવી રહ્યા છે અને અત્યાર સુધીમાં મુબઈ તેમજ પરાઓના લગભગ ૪૦ જેટલા ગૃહસ્થ લાઈફ મેમ્બર બની ગયા છે અને મુંબઈમાં લગભગ ૩૦૦ જેટલા મેમ્બરે થાય તે ઈરછવાયેગ્ય છે શ્રીમત ગૃહસ્થ હજાર રૂપિયા પિતાના ઘર ખર્ચમા તેમજ મજશોખના કામમાં તેમજ વ્યવહારિક કામમાં વાપરી રહ્યા છે તે આવા શાસ્ત્રોદ્ધાર જેવા પવિત્ર કાર્યમાં રૂપિયા વાપરશે તે ધર્મની સેવા કરી ગણાશે અને બદલામાં ઉત્તમ આગમસાહિત્યની એક લાયબ્રેરી બની જશે જેનું વાચન કરવાથી આત્માને શાંતિ મળશે અને શાસ્ત્રજ્ઞા પ્રમાણે વર્તવાથી જીવન સફળ થશે. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સેકડ સર્ટીફીકેટ ઉપરાંત હાલમાં મળેલા 1 1 : કેટલાક તારા અભિપ્રાયો શા સ્ત્રોદ્ધાર ના કાર્યને વેગ આપ * તવીસ્થાનેથી (જેન તિ) તા. ૧૫-૨૦ - પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કાણા ૪ હાલમાં અમદાવાદ મુકામે સરસપુરના સ્થા જેને ઉપાશ્રયમાં બિરાજમાન છે તેઓશ્રી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય ખૂબ જ અત અને ઉત્સાહથી વૃદ્ધ વયે પણ કરી રહ્યા છે તેઓશ્રી વૃદ્ધ છે છતા પણ આ દિવસ શાસ્ત્રની ટકાએ લખી રહ્યા છે આજ સુધીમાં તેમણે લગ ભગ ૨૦ જેટલા શાસ્ત્રોની ટીકાઓ લખી નાખી છે અને બાકીના સત્રની ટીકા જેમ બને તેમ જલદી પૂર્ણ કરવી તેવા મનોરથ સેવી રહેલ છે સ્થા. જૈન સમાજમાં શાસ્ત્રો ઉપર સંસ્કૃત ટીકા લખવાને આ પ્રથમ જ પ્રયાસ છે અને તે પ્રયાસ સ પૂર્ણ બને એવી અમે શાસનદેવ પ્રત્યે પ્રાર્થના કરીએ છીએ આજ સુધી ઘણા મુનિવરેએ શાસોનું કામ શરૂ કરેલ છે પણ કોઈએ પૂર્ણ કરેલ નથી પૂજ્યશ્રી અમુલખષીજી મહારાજે બત્રીસે શાસ્ત્રો ઉપર હિન્દી અનુવાદ કરેલ અને સપૂર્ણ બનેલ ત્યારબાદ આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ હિન્દી ટીકા કેટલાક શાસ્ત્રો ઉપર લખેલ પણ ઘણા શાસે બાકી રહી ગયા પૂજ્ય હતિમલજી મહારાજે એક બે શાસ્ત્રો ઉપરની ટીકાઓના અનુવાદે કરેલ પૂજય શ્રી જવાહિરલાલ મહારાજશ્રીએ સૂયગડાગ સત્ર ટકા સહિત હિન્દી અનુવાદ સાથે કરેલ શ્રી સોભાગ્યમલજી મહારાજે આચારાગની હિન્દી ટીકા લખેલ પણ સંપૂર્ણ શા ઉપર સકૃત ટીકા હજી સુધી થા જૈન સાધુએ તક્થી થયેલ નથી જ્યારે પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ ૨૦ શાસ્ત્રો ઉપર સસ્કૃત ટીકા તેને હિન્દી ગુજરાતી અનુવાદ કરાવેલ છે આથી હવે આ શા બધાય છે કે તેઓશ્રી બત્રીસે બત્રીસ શાસ્ત્રો ઉપર સસ્કૃત ટીકા લખવામાં સફળ થશે અને શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિએ આજ સુધી ૧૦ થી ૧૨ શાસ્ત્રો છપાવી પણ દીધા છે અને હજી પણ તે શા વિશેષ જલદી છપાય તે માટે શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ સંપૂર્ણ પ્રયત્ન કરી રહેલ છે તે ધ યવાદને પાત્ર છે જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના રૂ ૨૫૧૫ ભરીને લાઈફ મેમ્બર થનારને શાસ્ત્રો તમામ, શાઓઢાર સમિતિ તરફથી ભેટ મળે છે. આ રીતે એક પથ અને દે કાજ બંને રીતે લાભ થાય તેમ છે રૂ ૨૫૧ મા ૫૦૦ રૂપિયાની કિંમતના શાસ્ત્રો મળે એ પણ મોટો લાભ છે અને પ્રવચનની પ્રભાવના કરવાને ધર્મલાભ પણ મળે છે Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૧ આ સાલે પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના સુશિષ્ય પ. મુનિશ્રી કહેવાલાલજી મહારાજ મલાડ મુકામે ચાતુર્માસ બિરાજે છે અને તેઓશ્રી શાસ્ત્રોની મેમ્બરે કરવા માટે અથાગ પ્રયત્ન કરીને પ્રવચનની સેવા બજાવી રહ્યા છે અને અત્યાર સુધીમાં મુંબઈ તેમજ પરાઓના લગભગ ૪૦ જેટલા ગૃહસ્થ લાઈફ મેમ્બર બની ગયા છે અને મુંબઈમાં લગભગ ૩૦૦ જેટલા મેમ્બરે થાય તે ઈરછવા યોગ્ય છે શ્રીમત ગૃહસ્થ હજાર રૂપિયા પિતાના ઘર ખર્ચમા તેમજ જશેખના કામમાં તેમજ વ્યવહારિક કામમાં વાપરી રહ્યા છે તે આવા શાસ્ત્રોદ્ધાર જેવા પવિત્ર કાર્યમાં રૂપિયા વાપશે તે ધર્મની સેવા કરી ગણાશે અને બદલામાં ઉત્તમ આગમસાહિત્યની એક લાયબ્રેરી બની જશે જેનું વાચન કરવાથી આત્માને શાતિ મળશે અને શારઆજ્ઞા પ્રમાણે વર્તવાથી જીવન સફળ થશે. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૨ શતાવધાની મુનિશ્રી જયતિલાલજી મહારાજશ્રીને અમદાવાદને પત્ર “સ્થાનકવાસી જૈન તા ૫-૯-૫૭ના અકમાં છપાએલ છે જે નીચે મુજબ છે - 1 સૂત્રના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર હોઈ શકે ખરે? તે ૭-૮-૧૭ના રોજ અત્રે બિરાજતા શાસ્ત્રોદ્ધારક આચાર્ય મહારાજશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પાસે, મારા ઉપર આવેલ એક પત્ર લઈને' હુ ગયું હતું, તે સમયે મારે , મસા સાથે જે વાતચીત થઈ તે સમાજને જાણ કરવા સારૂ લખું છુ શાસ્ત્રોનું કામ એક ગહન વસ્તુ છે અપ્રમાદી થઈ તેમા અવિરત પ્રયત્ન કરવા જોઈએ સંપૂર્ણ શાસ્ત્રોનું જ્ઞાન તેમજ દરેક પ્રકારની ખાસ ભાષાઓનું જ્ઞાન હેય તેજ આગોદ્ધારકનું કાર્ય સફળતાથી થાય છેઆ પ્રકારનો પ્રયત્ન હાલ અમદાવાદ ખાતે સરસપુર જૈન સ્થાનકમાં બિરાજતા પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કરી રહ્યા છે. શાસ્ત્ર લેખનનું આ કાર્ય થઈ રહ્યું છે, તેમાં અનેક વ્યકિતઓને અનેક પ્રકારની શકાઓ થાય છે તેમાં શાસ્ત્રોના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર થાય છે? કરવામાં આવે છે? એ પ્રશ્ન પણ કેટલાકને થાય છે અને તે પ્રશ્ન થાય તે સ્વાભાવિક છે, કેમકે અમુક મુનિરાજે તરફથી પ્રગટ થયેલ સૂબેના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર થયેલા છે જેથી આ કાર્યમાં પણ સમાજને શક થાય પણ ખરી રીતે જોતા, અત્યારે જે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ ચાલી રહ્યું છે તે વિષે સમાજને ખાત્રી આપવામા આવે છે કે, શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ તરફથી અત્યાર સુધીમાં પ્રગટ થયેલા આગમના મૂળ પાઠમાં જરાપણું ફેરફાર કરવામાં આવેલ નથી અને ભવિષ્યમાં જે સૂ પ્રગટ થશે તેમાં ફેરફાર થશે નહિ તેની સમાજ નેધ ભે શતાવધાની શ્રી જયત યુનિ-અમદાવાદ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂા. ૫,૨૫૧ આપનાર આદ્ય સુરીશ્રી, . હતા + : , ક, દર નાસિક, ! - તું * ? આ છે છે * + + - a t કે ઠારી હ ર ગ વી દ ભા ઇ ર જ કે ટ જે ચ દ Page #50 --------------------------------------------------------------------------  Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “શ્રી અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને ટુક પરિચય સ્થાનકવાસી સમાજની આ એકની એક સંસ્થા છે કે જેણે અત્યાર સુધીમાં તેર છપાવી બહાર પાડી દીધા છે સાત સૂરો છપાય છે અને બીજા કેટલાક છાપવા માટે તૈયાર થઈ ચૂક્યા છે આ પ્રમાણે આ મ સ્થાએ મહાન પ્રગતિ સાધી છે તેને ટુક પરિચય આ પત્રિકામા આપેલ છે તે વાચી જઈ સર્વ સ્થા જેન ભાઈબહેનેએ આ સંસ્થાને યથાશકિત મદદ કરી તેના કાર્યને હજુ વિશેષ વેગવાન બનાવવાની જરૂર છે ખાલી ઘડે વાગે ઘણે એમ સ્થા કેન્ફરન્સ જેમ બેટા બણગા ફુકનારી સસ્થાની કઈ કિંમત નથી, ત્યારે નક્કર કામ કરનારી આ શાઓઢાર સમિતિને દરેક પ્રકારે ઉત્તેજન આપવાની દરેક સ્થાનકવાસી જૈનની અનિવાર્ય ફરજ છે અને આ સર્વ સૂત્રે તૈયાર કરનાર પૂજ્ય મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને સ્થાનકવાસી સમાજ ઉપર ઘણે મહાન ઉપકાર છે વૃદ્ધ હોવા છતા તેઓશ્રી જે મહેનત લઈ સૂત્ર તેયાર કરાવે છે તેવું કામ હજુ સુધી બીજા કૈઈએ કર્યું નથી અને બીજુ કંઈ કરી શકશે કે નહિ તે પણ શકાભર્યું છે પૂજ્ય મુનિશ્રીના આ મહાન્ ઉપકારને કિંચિત બદલે સમાજે આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને બની શકતી સહાય કરીને વાળવાને છે સ્થાનક્વાસી સમાજ જ્ઞાનની કદર કરવામાં પાછો હઠ તેમ નથી એવી અમે આશા રાખીએ છીએ “જૈન સિદ્ધાન” પત્ર ઓકટેમ્બર ૧૯૫૭ Page #52 --------------------------------------------------------------------------  Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૩ “શ્રી અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના ટુંક પરિચય” સ્થાનકવાસી સમાજની આ એકની એક સસ્થા છે કે જેણે અત્યાર સુધીમા તેર સૂત્રા છપાવી બહાર પાડી દીધા છે સાત સૂત્રા છપાય છે અને બીજા કેટલાક છાપવા માટે તૈયાર થઈ ચૂકયા છે આ પ્રમાણે આ સસ્થાએ મહાન પ્રગતિ સાધી છે તેના ટુક પરિચય આ પત્રિકામા આપેલ છે તે વાચી જઇ સર્વ સ્થા જૈન ભાઈબહેનેાએ આ સસ્થાને ચાતિ મદદ કરી તેના કાર્યંને હજી વિશેષ વેગવાન બનાવવાની જરૂર છે ખાલી ઘડા વાગે ઘણા એમ સ્થા કેન્ફરન્સ જેમ ખેાટા ખણુગા પુકનારી સંસ્થાની કાઈ કિંમત નથી, ત્યારે નક્કર કામ કરનારી આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને દરેક પ્રકારે ઉત્તેજન આપવાની દરેક સ્થાનકવાસી જૈનની અનિવાર્ય ક્રુજ છે અને આ સર્વે સૂત્રો તૈયાર કરનાર પૂજ્ય મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના સ્થાનકવાસી સમાજ ઉપર ઘણા મહાન ઉપકાર છે વયેવૃદ્ધ હાવા છતા તેઓશ્રી જે મહેનત લઈ સૂત્ર તૈયાર કરાવે છે તેવુ કામ હજી સુધી બીજા કાઈએ કર્યુ નથી અને ખીજુ કાઈ કરી શકશે કે નહિ તે પણ શકાભર્યું છે પૂજ્ય મુનિશ્રીના આ મહાન ઉપકારને કિંચિત બદલા સમાજે આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને અની શકતી સહાય કરીને વાળવાના છે. સ્થાનકવાસી સમાજ જ્ઞાનની કદર કરવામા પાછે હેઠે તેમ નથી એવી અમે આશા રાખીએ છીએ “ જૈનસિદ્ધાત ” પત્ર ઓકટોમ્બર ૧૯૫૭ , Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | શ્રી દશવૈકાલિક તથા ઉપાસક દશાગ સૂઝે છે ગુજરાતી ભાષામાં અનુવાદ થયેલા પૂજ્ય શ્રી ઘસીલાલજી મહારાજ વિરચિત શ્રી ઉપરોકત બે સુત્ર જૈન ધર્મ પાળતા દરેક ઘરમાં રહેવા જ જોઈએ તે વાચવાથી શ્રાવક ધર્મ અને શ્રમણ ધર્મના આચારનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકે છે અને શ્રાવકે પિતાની નિરવલ અને એષણિય સેવા શ્રમણ પ્રત્યે બજાવી શકે છે વર્તમાનકાળે શ્રાવકેમ તે જ્ઞાન નહિ હોવાને લીધે અધશ્રદ્ધાએ શ્રમણ વર્ગની વૈયાવચ્ચ તે કરી રહેલ છે પરંતુ “કલ્પ શું અને અક૫ શુ” એનું જ્ઞાન નહિ હેવાને લીધે પિતે સાવધ સેવા આપી પોતાના સ્વાર્થ ખાતર શ્રમણ વર્ગને પિતાને સહાયક થવામાં ઘસડી રહ્યા છે અને શ્રમણ વર્ગની પ્રાય કુસેવા કરી રહ્યા છે તેમાથી બચી લાભનું કારણ થાય અને શ્રમણને યથાતથ્ય સેવા આપી તેમને પણ જ્ઞાનદર્શન ચારિત્રની આરાધના કરવામાં સહાયક થઈ પિતાના જ્ઞાનદર્શન ચારિત્રની આરાધના કરી સુગતિ મેળવી શકે શ્રમણની યથાતથ્ય સેવા કરવી તે અવશ્ય ગૃહસ્થની ફરજ છે પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મ શાસ્ત્રોદ્ધારનુ અનુવાદન ત્રણ ભાષામાં રૂડી રીતે કરી રહ્યા છે અને રૂપિયા ૨૫ ભરી મેમ્બર થનારને રૂ ૪૦૦-૫૦૦ લગભગ ની કીંમતના બત્રીસે આગ ફ્રી મળી શકે છે તે તે રૂ ૨૫શુ ભરી મેમ્બર થઈ બત્રીસે આગમે દરેક શ્રાવકઘરે મેળવવા જોઈએ બત્રીસે શાસ્ત્રોના લગભગ ૪૮ પુસ્તકે મળશે તે તે લાભ પિતાની નિર્જરા માટે પુન્યાનું ધી પુન્ય માટે જરૂર મેળવે ઉપરોકત બને સૂત્રોની કીંમત સમિતિ કઈક ઓછી રાખે તે હરકોઈ ગામમા શ્રીમતી હોય તે સૂત્રે લાવી અરધી કીંમતે, મફત અથવા પૂરી કીંમતે લેનારની સ્થિતિ જોઈ દરેક ઘરમાં વસાવી શકે –એક ગૃહસ્થ નોધ-ઉપરની સૂચનાને અમે આવકારીએ છીએ આવા સૂત્રે દરેક ઘરમાં વસાવવા કેમ્પ તેમજ દરેક શ્રાવકે વાચવા ગ્ય છે તત્રિ રનત” પત્ર તા. ૧-૧૦-૧૭ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂા ૫,૦૦૧ આપનાર આદ્ય મુરબ્બીશ્રી, છે . ૧. દર 3 નારા, (4) શેઠ ધા ૨ સી ભાઈ જી વણે ભાઈ સે લાપુર Page #56 --------------------------------------------------------------------------  Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં બનાવેલાં સૂત્રો કાશ્મીર થી કન્યાકુમારી તેમજ કરાંચી થી કલકત્તા સુધી દરેક સ્થળે હોશથી વાચાય છે કારણ કે આવી રીતે શાસ્ત્રો તૈયાર કરવાનુ અનેખું કાર્ય હજુ સુધી કોઈ કરી શક્યું નથી ક શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સમાજ ઉ૫રા ત શ્રી દેરાવાસી સંપ્રદાયના મહાન આચાર્યશ્રી રામવિજયસૂરીજી તથા અન્ય મુનિવરોએ તેમજ તેરાપ થી મહાસભા કલકત્તાવાળાએ આ સૂત્રે અપનાવ્યા છે દેશ-પરદેશના મેમ્બરે વાચી જૈન ધર્મના શ્રુતજ્ઞાનને અણુમેલો લાભ લઈ રહ્યા છે હમણાજ લડનની ઈન્ડીઆ ઓફીસ લાઇબ્રેરીએ આ સૂત્રે મગાવ્યા છે આપ રૂપીઆ ૨૫૧-૦-૦ એકલી મેમ્બર તરીકે નામ નોંધાવી હતે હસ્તે લગભગ રૂપીઆ પાચસો સુધીની કિંમતના શાસ્ત્રો વિના મૂલ્ય મેળવી શકે છે વધુ વિગત માટે લખે ઠે શીન લેજ પાસે, ]. ગરેડીઆકુવા રોડ , રાજકેટ શ્રી અખિલ ભારત & શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ સ્થા. જૈન Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकसूत्रस्य विषयानुक्रमणिका विषय १ प्रस्तावना नमस्कारमन्त्रव्याख्या ३ सामायिकम् ४ चतुर्विंशतिस्तवः ५ वन्दना ६ प्रतिक्रमणम् ७ कायोत्सर्गः ८ मत्याख्यानम् ९ हिदीपरिशिष्ट १० गुजराती परिशिष्ट पृष्ठ १- ४० ४१- ६७ ६८-११७ ११८-१४५ १४६-१५६ १५७-२८५ '२८६-२९९ ३००-३२२ ३२३-३२८ ३२९-३३५ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय नमः ॥ MFUNNY जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजेन __ आवश्यकभूत्रस्य मुनितोपण्याख्या व्याख्या वितन्यते इह हि जन्मजरामरणाऽऽविव्याधिजनितदुःखपटलसकुले क्षणक्षणविलक्षणव्यवहारेऽनन्तविस्तारेऽसारेऽपि सारवदाभासमाने ससारे सर्व एव पाणिनः मुखमाप्तिं दुःखाभिहतिं च कामयमानाः सदरीदृश्यन्ते, किन्तु सुखदुःखोत्पत्तिकारणज्ञानमन्तरेण तन्न सभवत्यतो दुःखहेतुभूतान् ‘मिथ्यात्वाऽविरति कपाय-प्रमादा ऽशुभयोग-हिंसाऽऽरम्भेया-राग-द्वेपप्रभृत्यन्तः-शत्रुसमूहान् श्री आवश्यकसूत्र की मुनितोषणी नामकी व्याख्या की हिन्दी प्रस्तावना जन्म-जरा-मरण-आधि-व्याधि के दुःखो से भरे हुए, प्रतिक्षण विलक्षण व्यवहार वाले, असार होने पर भी सार सहित मालूम होने वाले इस अनन्त ससार मे, सब जीव सुख चाहते हैं और दुःख का नाश करना चाहते हैं। किन्तु जय तक सुख और दुःख के कारणो का ज्ञान न हो, तब तक सुख की प्राप्ति और दुःख का नाश नहीं हो सकता। इसलिये मिथ्यात्व, अविरति, कपाय, प्रमाद, अशुभ योग, हिंसा, आरम्भ, ईर्ष्या, राग, द्वेप आदि दुःखों के પ્રસ્તાવના આ અખિલ સસાર, જન્મ, જરા, મરણ, આધિ, અને વ્યાધિરૂપ દુ નથી ભરેલે છે, પ્રતિક્ષણ ચલિત સ્વરૂપથી દૃશ્યમાન થાય છે, તે પણ આવા ક્ષણ ભગુર જગતમાં સર્વ જીવે સુખની વાચ્છના રાખે છે અને દુખના નાશની આકાક્ષા ધરાવે છે પરતું જ્યાં સુધી વાસ્તવિક સુખ દુખનું મૂળકારણ ન જણાય ત્યા સુધી સુખની પ્રાપ્તિ અને દુખને નાશ થે અસભવિત છે એટલા માટે દુખના કારણભૂત મિથ્યાત્વ અવિરતિ (સાસારિકસુખમાથી ન નિવવું) કષાય (ક્રોધ માન માયા લેભ ) પ્રમાદ ( સત્કાર્યોમાં આળસ રાખ ) અશુભગ (મન વચન કાયાને ખેટી રીતે પ્રવર્તાવવા) હિંસા, આર ભ (પિતાના સુખ માટે Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकसूत्रस्य सम्यग् विज्ञाय तमाशे सत्येव दुःखाद्विमुक्तात्मानः सान्द्रानन्दसन्दोहसन्दानिता मोक्षलक्ष्मीमधिगन्तुमर्हन्ति । तदेव लक्ष्यीकृत्य समस्तजागतिकजन्तुजातहिताय परमकारुणिकेन वीतरागेण भगता श्रीमहावीरेणाऽवितथपथभूताभ्या सम्यग्ज्ञान क्रियाभ्यामेव सकलसुखनिदानमोक्षमाप्तिः प्रतिपादिता । सम्यग्ज्ञान हि नाऽऽत्मशुद्धिमन्तरेण कदापि सभवति, आत्मशुदिश्व क्रिया विना सर्वथैवाऽसम्भविनी, नहयोपधिसेवन विना रोगापयादिज्ञानमात्रेणाssकारण अन्तरग शत्रुओं को भलीभाँति जानकर, नाश करने पर ही दुःख से छुटकारा पाने वाले अनन्त अविनाशी आत्मिक आनन्द युक्त-मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त होते हैं। इसी कारण समस्त ससारी, प्राणियों के हित के लिये, परम दयालु, वीतराग भगवान् श्री महावीर ने सम्यग्ज्ञान और सम्यक् क्रिया से ही मोक्ष की प्राप्ति होना बतलाया है। सम्यगज्ञान आत्मा की शुद्धि के विना कदापि नहिं हो सकता, और आत्मा की शुद्धि विना क्रिया के विलकुल असभव है। विना औषध सेवन किये, केवल जान लेने से आरोग्य की प्राप्ति नहीं અન્ય જીવેને હણવા) ઈષ્ય, રાગ, દ્વેષ, આદિ અતરગ શત્રુઓને જાણી તેના નાશ કરવાથીજ અવિનાશી આત્મિક સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે એટલા માટે સમસ્ત પ્રાણીઓના હિત માટે પરમકૃપાળુ મહાવીર સભ્યજ્ઞાન, અને સમ્યફ ક્રિયાથી મેક્ષની પ્રાપિત બતાવી છે એકાત જ્ઞાન કે એકાત ક્રિયાથી મોક્ષની પ્રાપ્તિ થતી નથી ત્રાષિ-મુની એએ કહ્યુ છે કે 'ज्ञानठियायाम मास । અર્થા-સમ્યફ જ્ઞાન અને ક્રિયાથીજ મેક્ષની પ્રાપ્તિ થઈ શકે છે જેમ ગાડીવાનને અમુક રસ્તાની માહીતી છે પણ જે તે રસ્તે બળદને દેરીને નહિ લઈ જાય છે તે સ્થળે ગાડીવાન પહેચી શક્યું નથી, તેવી રીતે મોક્ષરૂપી નગરમાં પહોંચવાને રસ્તે જા પણ તે જાણું તથારૂપ કિયા ન થાય તે ઈતિ સ્થળે પહોંચી શકાતું નથી. તેમ જ્ઞાન મેળવવા છના યથાસ્ય ક્રિયા ન થાય તે આત્મિક સુખની પ્રાપ્તિ થવી અશકય છે Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपिणी टीका प्रस्तावना रोग्यलाभः, किन्तु रोगनिदानज्ञानपूर्वकतदीयौपधि सेवनेनैव, तथैव न क्रिया विना ज्ञानमात्रेण पापक्षयः समस्ति भवितुम् , अपितु ज्ञानपूर्वकक्रिययैवेति । किश्च मोक्षस्याव्यवहितकारणमपि क्रियैव, सत्यपि केवलज्ञाने पूर्णयथाख्यातचारित्ररूपक्रियाया भावे मोक्षाभावात् , तद्भावे च तद्भावात् , अत: सम्बकचारित्ररूपायाः क्रियायाः सझाव एवाऽजितस्य कर्मणो निर्जरणसभवेन हो सकती। हॉ, जब रोग के कारण का और औपध का ज्ञान हो जायगा तर यदि औषध का सेवन किया जाय तो रोग मिट सकता है। इसी प्रकार क्रिया के विना अकेले ज्ञान से ही कर्मों का क्षय नहीं हो सकता, बल्कि ज्ञानपूर्वक क्रिया से होता है। दुसरी बात यह है कि मोक्ष का अव्यवहित कारण क्रिया ही है, क्योंकी केवलज्ञान के हो जाने पर भी पूर्ण यथाख्यात चारित्र रूप किया के अभाव से मोक्ष नही होजाता । जय पूर्ण यथाख्यात चारित्र होजाता है तय तत्काल ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अतः सम्यकचारित्र रूप क्रिया से ही पहले धधे हुए कर्मों की निर्जरा होकर अन्त मे समस्त જેમ રોગનું નિદાન જાણ્યા પછી ઔષધનું યથાનિયમ સેવન ન થાય તે રેગ જાતે નથી તેમ સાસરિક દુખનું કારણ સમ્યક્ પ્રકારે જાણ્યા છતા જે તે દુખના નિવારણ રૂપ સુક્રિયા ન થાય તે દુ અને અત આવતું નથી એટલા જ માટે જ્ઞાન અને ક્રિયા એ બન્નેની આવશ્યક્તા છે આ ઉભય પદને स भा knowledge and action नाले भने मेशन ४ छे भान शास्त्रीय होमसो से छे है व ज्ञान (Perfect knowledge પરફેકટ નેજ) થયા પછી પણ પૂર્ણ યથાખ્યાત (Perfect પરફેકટ) ચારિત્રના અભાવથી આત્મા સિદ્ધગતિને પામતે નથી સમ્યક ચરિત્ર એટલે સમ્યક ક્રિયારૂપ વહન આ સમ્યફ ક્રિયારૂપ વહનથી આત્મા પિતાના કર્મોની નિર્જરા (છૂટકા) કરે છે આ નિર્જરા કરતા કરતા પિતાની શક્તિ વધારે પ્રમાણમાં કેળવે છે આટલી શકિત કેળવા કેવળ જ્ઞાન થાય છે છતા અમુક કર્મોની સત્તા રહી જવાથી, આત્માને તે કર્મોની નિર્જરા માટે ઘણું વધારે પ્રમાણમાં શક્તિ વધારવાની આવશ્યકતા જણાય છે. આવા પ્રકારની જે શબધ ક્રિયારૂપ વહનને જેને શાસ્ત્રકારે “યથાખ્યાતચારિત્ર” ના Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकम्त्रस्य कृत्वकर्मात्यन्तविमुक्तस्याऽऽत्मनोऽसगतया अपगतलेपपन्धाऽलायूवत् , बन्धच्छेदादेरण्डवीजवद् जगतिस्वभावादमिशिखापच स्वयमेवाऽऽलोकान्तमूगमनमुपपद्यते । इत्थ चाभिनवपापकर्माऽसम्बन्धाय चिरकालप्रवृत्तमिथ्यालाऽविरतिकपाय-प्रमाद-योगादिजनितकर्मकलापप्रणाशाय च सम्यश्रद्धान-सम्यग्ज्ञानवद्भिरपि निरन्तर सम्यरचारित्राऽऽचारणपरायणैरेव भवितव्यमिति निर्णये तादृशचारित्रपवित्रकर्मप्रतिपादकमिद- 'भावावश्यरसूत्र' सादरमालोक्याऽनाकर्मोंसे सर्वथा छूट कर आत्मा निस्सग होने से, जिसका लेप पानी के योग से छट गया हो ऐसी तबी की तरह, वध का विनाश हो जाने से एरण्ड के बीज की भॉति, ऊर्ध्वगमन करने का स्वभाव होने से अग्नि की लौ की नाई स्वय ही लोक के अन्त तक ऊर्ध्वगमन करता है। इसलिये नवीन कर्मों का बन्ध रोकने के लिये तथा चिरकाल से लगे हुए मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय योग से उत्पन्न होने वाले कर्मों के समूह का नाश करने के लिये सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी जनों को भी सम्यक् चारित्र मे परायण रहना चाहिए। यह निश्चय हो जाने पर इस प्रकार के चारित्ररूप पवित्र कर्तव्य को प्रतिपादन करने वाला यह 'आवश्यक' नामक शास्त्र आदर के साथ पढ कर शीघ्र ही નામે ઓળખે છે. આ ક્રિયારૂપ વહન છેવટનું વન છે, અને આ વહન પ્રાપ્ત થયે સર્વ કમને ક્ષય થે જોઈએ, જે સર્વ કર્મને ક્ષય થયે અનત આત્મિક સુખ ઉદ્ભવે છે જેમ લેપ લગાડેલ તુ બીપાત્ર પાણીના વેગથી લેપમાથી મુકત થાય છે ને જેમ તે તુ બીપાત્ર પાણીની સપાટીએ તરે છે તેમ આત્મા કર્મરૂપી રજથી ચારિત્ર વડે મુક્ત થઈ સસારની સપાટી પર રહે છે, જેને અગ્રેજીમાં surface of the world (सरदेश सा घी १८) ४ छे નવા કર્મોના બંધનની રૂકાવટ માટે અને લાબા વખતથી વ્યાપ્ત એવા મિથ્યાત્વ અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય અને વેગથી ઉત્પન્ન થતા કર્મોના નાશને માટે સમ્યમ્ દષ્ટિ અને સમ્યક જ્ઞાનીઓએ પ, સમ્યફ ચારિત્રમા પરાયણ રહેવું જોઈએ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपिणी टीका प्रस्तावना यासतो अटिति स्वकीयाऽवश्यकर्मणि विज्ञाते तदनुष्टानाय मात्तितव्यमुभयलोकसाधनसामग्रीसकलनचातुरीचणैर्विचक्षणैः । अस्मिन् शास्त्रे निनोक्ताः क्रियाः प्रतिपादिता:- (१) सामायिकम् _(सावययोगनिटत्तिः), (२) चतुर्विंगतिस्तयः (२४ जिनस्तुतिः), (३) चन्दनम् (गुरुवन्दना), (४) प्रतिक्रमणम् (पायश्चित्तम् ), (५) कायोत्सर्गः, (६) प्रत्याख्यान च । या स्वाभीष्टाऽन्यानभीष्टभूता क्रिया सा सापद्यरूपलान्नाऽमन्दाऽऽनन्द सरलता पूर्वक आवश्यक क्रियाएँ जान कर इह-लोक-परलोक को साधन करने की सामग्री इकट्ठी करने में कुशलजनों को उनके अनुष्ठान करने मे प्रवृत्ति करना चाहिए। इस शास्त्र में निम्न-कहीदई क्रियाओं का प्रतिपादन किया गया है-(१) सामायिक (सावध योग की निवृत्ति) (२) चतुर्विंशति स्तव (२४ जिनस्तुति) (३) वन्दना (गुरुवन्दना) (१) प्रतिक्रमण (प्रायश्चित्त) (५) कायोत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान । जो क्रिया अपने इष्ट और दूसरे के अनिष्ट के लिये की जाती है, वह मावद्यरूप होने से अनन्त अनुपम आत्मिक आनन्द ઉપરોક્ત નિશ્ચય એ ચારિરૂપ પવિત્ર કર્તવ્યને પ્રતિપાદન કરવાવાળા આવશ્યક સૂનનું સમ્યકજ્ઞાની અને સભ્યદષ્ટિ એ સાદર પઠન કરવું જોઈએ, અને સૂત્રોકત ક્રિયાનું યચિત અનુષ્ઠાન અવશ્ય થવું જોઈએ સદરહુ શાસ્ત્રમાં નીચે પ્રમાણે ક્રિયાઓનું પ્રતિપાદન કર્યું છે (૧) સામાયિક (સાવદ્ય કાર્યની નિવૃત્તિ) (૨) ચતુર્વિશતિસ્તવન – ૨૪ તિર્થ કરની સ્તુતિ (3) पना ( २३५ ६ ) (४) प्रतिम= गणेस पा५३५ ठियामाने ना જવી અને ફરીથી તેવા પ્રકારની ક્રિયા નહિ કરવાનું પ્રતિબંધન કરવું અને થએલ પાપ બદલ હદયપૂર્વક પશ્ચાત્તાપ કરે (૫) કાત્સર્ગ (કાયાને વ્યુત્સર્ગ કરશે કાયાના અગપાળને સ્થિર રાખવાની ક્રિયા ) (૬) પ્રત્યાખ્યાન-પચ્ચખાણ-અમુક કાર્યો કરવાની બધી કરવી) જે ક્રિયા પિતાના ઈષ્ટ અને અન્યના અનિષ્ટ માટે કરાય છે તે પાપકરી લેવાથી અનુપમ આત્મિક સુખ પ્રાપ્ત કરાવનારી નથી પરંતુ આત્માને Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य - - % - - - - - - % 3D सन्दोहसजननाय प्रभाति, प्रत्युताऽधोगतिनयनायर जायते । या तु स्वकल्याणप्रार्थनपूर्वक-समस्तजन्तुजातशाताभिलापगमिता, मैत्री प्रमोद-कारण्य माध्यस्थ्यभावनारूपजागरयोत्तरोत्तर-वैराग्यवृद्धिकारिणी, सैव निरवयरूपतया वास्त. विकाऽऽत्मानन्दास्वादसम्पादिका भवतीत्यस्याः पडियाऽऽवश्यकरूपक्रियाया साधु-साध्वी श्रावक-श्राविकाणामुभयकालमवश्यकरणीयत्वादिद-' भावावश्यक 'मिति कथ्यते, यथोक्तम्को देने वाली नहीं, बल्कि अधोगति में लेजाने वाली है। जो अपने कल्याण की प्रार्थना के साथ समस्त प्राणियों के कल्याण की इच्छा से युक्त, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थभावना-रूप जागृति से उत्तरोत्तर वैराग्य बढाने वाली होती है, वही क्रिया सच्चे सुख का आस्वादन करा सकती है। छह प्रकार की यह आवश्यक क्रिया साधु माध्वी श्रावक और श्राविका को दोनों समय अवश्य ही करने योग्य है, इसलिये इसे 'आवश्यक' कहते हैं। कहा भी हैઅગતિમાં વહન કરનારી છે જે તેમજ પરકરયાણ કરવાના ઈરાદાપૂર્વક મૈત્રી, પ્રમેહ, કારૂણ્ય અને માધ્યચ્ય ભાવનારૂપ ક્રિયાનું આચરણ કરવામાં આવે તે તે ભાવનાના પ્રસાદથી આત્મા ઉત્તરોત્તર વૈરાગ્યમય થાય છે, એટલું જ નહી, પણ અતુલ્ય સુખને આસ્વાદન અગીકાર કરી શકે છે મહાત્માઓએ કહ્યુ છે કે – સત્વેષ મિત્રી ગુણિયું પ્રમોદ કિલષ્ટ વેષ દયાપરત્વમ, માધ્યચ્ચભાવ વિપરીતવૃત્ત, સદા માત્મા વિદધાતુ દેવ અર્થ-દરેક જી તરફ મિત્રીભાવ રાખવા, દરેક વ્યક્તિમાં ગુણ ધીને તેની તરફ આ દિત થવુ, દુખી જી તરફ કૃપાદૃષ્ટિ રાખવી, વિપરીત આચરણ કરનારી વ્યકિતઓ તરફ મધ્યસ્થભાવે જેવું ઉપરોકત ચાર પ્રકારની ભાવના જે ક્રિયારૂપે અગીકાર થાય તે શાશ્વત સુખ તરફ અનુક્રમે વહન થાય છે છ પ્રકારની આવશ્યક ક્રિયા સાધુ સાધ્વી, શ્રાવક અને શ્રાવિકાએ અવશ્ય આચરવા યોગ્ય છે, તે આવશ્યકતાને લઈ મજકુર સત્ર-સિદ્ધાંતને આપણે આવશ્યક સૂત્ર” નામે ઓળખીએ છીએ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपिणी टीका प्रस्तावना " समणेण सावएण य, अवस्सकायन्त्र हवइ जम्हा | यतो अहोनिसस्स य, तम्हा ' आवस्सय' नाम ॥ १ ॥” इति । यच्च सूत्रमिदमावश्यकमित्यारयायते, तत्प्रतिपाद्य-प्रतिपादकाऽभेदाऽभिमायादित्यवगन्तव्यम् । आवश्यक हि नैवोपयोगमन्तरा केवल शुरुवद-आरट्यमान सम्यक्तया फलमद, किन्तु सोपयोग स्वात्मनि तद्गतविषयपरिणमनपूर्वक विधीयसल्लोकोचरफलप्रदमत एवेद - लोकोत्तरभावावश्यकमिति कथ्यते । मान यथोक्त भगवता - " जण्ण इमे समणे वा समणी वा सावए वा साविया वा तच्चिते तम्मणे तलेस्से तदज्झसिए तत्तिन्वज्झवसाणे तदट्टो उत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए समणेण सावएण य, अवस्सकायव्व हवइ जम्हा । अतो अहोनिसस्स य, तम्हा 'आवस्य' नाम ॥ इन क्रियाओं को 'आवश्यक' कहने का कारण बतलाया जा 'चुका है। किन्तु इस सूत्र को भी आवश्यक कहते है। वह इसलिये कि यहाँ प्रतिपाद्य - जिसका प्रतिपादन किया जाय (आवश्यक), और प्रतिपादक (शास्त्र) के अभेद की विवक्षा है | विना उपयोग लगाये तोतारटन्ती कर लेने से आवश्यक का वास्तविक फल नहीं होता, किन्तु उपयोग के साथ, उनके विषय को आत्मा के साथ एकमेक करते हुए जो आवश्यक किया जाता है वही लोकोत्तर फल देने वाला लोकोत्तर भावावश्यक कहलाता है । भगवान् ने कहा है- "जण्ण इमे समणे वा समणी वा सावओ वा साविया वा જો કોઈ પણ ક્રિયા ઉપયેગપૂર્વક આચરવામા આવે તે જ તેનું વાસ્ત વિક ફળ પ્રાપ્ત થઈ ટાકે છે ખાડી પઢો પોપટભાઈ રાજારામ' તે સૂત્ર અનુસાર પેટીઆ જ્ઞાનની માફક મુખથી ખેલી જવુ, તેથી કાઈ અર્થ સરતા નથી જે ઉપયેગ અને ભાવપૂર્વકજ આવશ્યક ક્રિયાઓનુ આચરણ થાય તેજ તેથી ઉપ લક્ષિત આનંદ પ્રાપ્ત થાય છે ભગવાને કહ્યુ છે કે 'ले दोध साधु साध्वी, श्राव श्रावि तम्यिते तन्भये, तन्खेसे, तदृध्य Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ 117° आश्यक सूत्रस्य मन्दोहजननाय प्रभवति, प्रत्युताऽधोगतिनयनायैव जायते । या तु स्वक्ल्याणमानपूर्वक - समस्तजन्तुजातशाताभिलापगर्भिता, मैत्री- प्रमोद - कारुण्य माध्यस्थ्यभावनारूप जागरयोत्तरोत्तर - वैराग्यवृद्धिकारिणी, सैव निखयरूपतया वास्तविकाऽऽत्मानन्दास्वादसम्पादिका भरतीत्यस्याः पडियाऽऽवश्यकरूपक्रियाया साधु सावी श्रावक-श्राविकाणामुभयकालमवश्य करणीयत्वादिद - भावावश्यक मिति कथ्यते, यथोक्तम् को देने वाली नही, बल्कि अधोगति मे लेजाने वाली है। जो अपने कल्याण की प्रार्थना के साथ समस्त प्राणियों के कल्याण की इच्छा से युक्त, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थभावना-रूप जागृति से उत्तरोत्तर वैराग्य बढाने वाली होती है, वही क्रिया सच्चे सुख का आस्वादन करा सकती है। छह प्रकार की यह आवश्यक क्रिया साधु साध्वी श्रावक और श्राचिका को दोनों समय अवश्य ही करने योग्य है, इसलिये इसे 'आवश्यक' कहते हैं । कहा भी है--- અધાતિમા વહુન કરનારી છે १ જો તેમજ પરક યાણુ કરવાના ઈરાદાપૂર્વક મૈત્રી, પ્રમેદ, કારૂણ્ય અને માધ્યસ્થ્ય ભાવનારૂપ ક્રિયાનુ સ્માચરણ કરવામા આવે તે તે ભાત્રનાના પ્રસાદથી આત્મા ઉત્તમત્તર વૈરાગ્યમય થાય છે, એટલુજ નહી, પણ અતુલ્ય સુખને આસ્વાદન અગીકાર કરી શકે છે. મહાત્માઓએ કહ્યુ છે કે સત્ત્વે મૈત્રી ગુણિષુ પ્રમાદ કિલટે જીવેષુ દયાપરવમ, માધ્યસ્થ્યભાવ વિપરીતવૃત્તૌ, સદા મમાત્મા વિધાતુ દેવ અર્થાત્—દરેક જીવા તરફ મૈત્રીભાવ રાખવા, દરેક વ્યક્તિમાં ગુણુ શેાધીને તેની તરકે આનંદિત થવું, દુખી જીવે તરફ કૃપાદૃષ્ટિ રાખવી, વિપરીત આચરણ કરનારી વ્યકિતએ તર્ક મધ્યસ્થભાવે જોવું - ઉપરોકત ચાર પ્રકારની ભાવના જે ક્રિયારૂપે અંગીકાર થાય તે શાશ્વત સુખ તરફ્ અનુક્રમે વહન થાય છે ' ' છ પ્રકારની આવશ્યક ક્રિયા સાધુ સાધ્વી, શ્રાવક અને શ્રાવિકાએ અવશ્ય આચરવા ચૈગ્ય છે, તે આવશ્યકતાને લઈ મજકુર સુત્ર-સિદ્ધાતને આપણે આવશ્યક સૂત્ર' નામે એળખીએ છીએ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपिणी टीका प्रस्तावना " समणेण सावएण य, अवस्सकायच हवइ जम्हा । __ यतो अहोनिसस्स य, तम्हा 'आवस्सय' नाम ॥१॥" इति । __यञ्च सूत्रमिदमावश्यकमित्याख्यायते, तत्प्रतिपाय प्रतिपादकाऽभेदाऽभिमायादित्यवगन्तव्यम् । आवश्यक हि नैवोपयोगमन्तरा केवल शुकवद-आरटयमान सम्यक्तया फलप्रद; किन्तु सोपयोग स्वात्मनि तद्गतविषयपरिणमनपूर्वक विधीयमान सलोकोत्तरफलप्रदमत एवेद-लोकोत्तरभावावश्यफमिति कथ्यते । यथोक्त भगवता "जण्ण इमे समणे वा समणी वा सावए वा साविया वा तञ्चित्ते तम्मणे तहेस्से तदज्झवसिए तत्तिव्यज्झवसाणे तदट्टोवउत्ते तदप्पियकरणे तव्भावणाभाविए समणेण सावएण य, अवस्सकायव्य हवड जम्हा । अतो अहोनिसस्स य, तम्हा 'आवस्सय' नाम । इन क्रियाओं को 'आवश्यक' कहने का कारण बतलाया जा चुका है । किन्तु इस सूत्र को भी आवश्यक कहते है। वह इसलिये कि यहाँ प्रतिपाद्य-जिसका प्रतिपादन किया जाय (आवश्यक), और प्रतिपादक (शास्त्र) के अभेद की विवक्षा है। विना उपयोग लगाये तोतारटन्ती कर लेने से आवश्यक का वास्तविक फल नहीं होता, किन्तु उपयोग के साथ, उनके विपय को आत्मा के साथ एकमेक करते हुए जो आवश्यक किया जाता है वही लोकोत्तर फल देने वाला लोकोत्तर भावावश्यक कहलाता है। भगवान ने कहा है "जण्ण इमे समणे वा समणी वा सावओ वा साविया वा જે કઈ પણ ક્રિયા ઉપગપૂર્વક આચરવામાં આવે તે જ તેનું વાસ્ત વિક ફળ પ્રાપ્ત થઈ કે છે બાકી “પઢે પિપટભાઈ રાજારામ” તે સ્ત્ર અનુસાર પિપટીઆ જ્ઞાનની માફક સુખથી બેલી જવું, તેથી કોઈ અર્થ સરતે નથી જે ઉપગ અને ભાવપૂર્વકજ આવશ્યક ક્રિયાઓનું આચરણ થાય તે જ તેથી ઉપ લક્ષિત આનંદ પ્રાપ્ત થાય છે ભગવાને કહ્યું છે કેજે કઈ સાધુ સાધ્વી, શ્રાવક શ્રાવિકા તશ્ચિત્તે તન્મયે, તલેસે, તદધ્ય Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - - - - आवश्यकमूत्रस्य अण्णस्थ कत्थइ मण अरेमाणे उभोकाल आवस्सय करेंति, सेत्त लोगुत्तरिय भावावस्सय ॥" नन्वेव तर्हि उपयोगादिक मिनाऽऽवश्यक न कर्तव्यमिति नौद्भावनीयम् , वीतरागमार्गे क्रियाया विरक्ति (हिंसादित्याग) रूपत्वात , सत्यौपधसेवनवदाव श्यक सर्वेपा कर्तव्यमेव, यथाऽयथाविधानमपि सेव्यमान सत्यौपधमारोग्यायैव प्रभवति, तद्गत-पथ्याऽपथ्यादिविचारणा-तदनुकूलवर्तना-पूर्वक सेव्यमान तु तदेवौपध समधिगुणान् प्रदर्शयति । तचित्ते तम्मणे तल्लेस्से तदज्झचसिए तत्तिव्यज्झवसाणे तदहोवउत्ते तदप्पियकरणे तन्भावणाभाविए अण्णस्थ कत्थइ मण अकरेमाणे उभओ काल आवस्सय करेति, से त लोगुत्तरिय भावावस्सय ।" यहाँ यह प्रश्न उठता है कि, यदि उपयोगपूर्वक आवश्यक करने से ही अलौकिक फल की प्राप्ति होती है, तो क्या विना उपयोग के आवश्यक करना ही नहीं चाहिए लेकिन बात ऐसी नहीं है। वीतराग के मार्ग मे क्रियाएँ विरक्ति (हिंसा आदि के त्याग) रूप हैं, इसलिए सत्य औषध के समान उनका सेवन अवश्य करना चाहिए। बिना पथ्य के मत्य औषध का सेवन करने से कुछ न कुछ आरोग्य लाभ होता ही है। और यदि पथ्य अपथ्य का विचार रख कर उसके अनुसार प्रवृत्ति की जाय तो अधिक लाभ होता है। इसी प्रकार उपयोग पूर्वक आवश्यक करने से समस्त कर्मों की निर्जरा होती है, વસાએ તભાવે આવશ્યક ક્રિયા કરશે તે નિશ્ચયપણે લોકેત્તરભાવને પ્રાપ્ત કરશે” અહિં આ પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થાય છે કે જે ઉપયોગ અને ભાવપૂર્વક આવશ્યક ક્રિયાઓ કરવામાં આવે તે જ અલોકિક ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે ફરી પ્રશ્ન થાય છે કે વિના ઉપગે આવશ્યક ક્રિયા ન કરવી? પ્રત્યુત્તરમા જણાવે છે કે સાકર અધારામા ખાય તે પણ મિઠાશ આપે છેજ અને પ્રકાશમાં વિચાર કરીને આસ્વાદન લેતા લેતા તે સાકર ખવાય તે અને આનંદ અને શારીરિક વૃદ્ધિ થાય છે. આ ઉપરથી એમ સમજાય છે કે ઉપગ પૂર્વક સાકર ન ખવાય તો પણ તેને મીઠાશ ગુણ જતો નથી તેમજ આવશ્યક ક્રિયાઓ કદાચ ઉપગપૂર્વક ન કરવામાં આવે Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपिणी टीका मस्तावना उपयोगादिपूर्वक हि क्रियाऽनुष्ठान सर्वकर्मनिर्जराकर भवति, यः कश्चिदुपयोगादिविरहितोऽपि क्रियानुष्ठाने मत्तस्तस्यापि यदा कदाचिन्सम्यक्रिया विधान कमपि दृष्ट्वा तीववैराग्यप्राप्त्या यथार्थवैराग्यस्य सणमानमध्यवसायेन सर्वकर्मनिर्जरासमवस्तस्मादावश्यक करणीयमेव सर्वेपामिति निर्विवादम् । __ पडध्ययनात्मकस्याऽऽवश्यकस्य द्वितीय नाम 'प्रतिक्रमण ' मित्यस्ति तत्र किं कारणम् ? उन्यते प्रतिक्रमणशब्दः प्रायश्चित्तपर्यायो वर्तते । मायश्चित्त हि पापप्रक्षयम्य प्रधानकारणमस्ति यथा विविधोपस्करपरिष्कृतमपि व्यञ्जनादिक और यदि उपयोग के विना करे तो भी सभव है कि कभी दूसरों को सम्यक् प्रकार क्रिया करते देख कर उसे तीन वैराग्य की प्राप्ति हो जाय और तीत्र वैराग्य क्षण भर भी हृदयमे टिक जाय तो वेडा पार हुआ समझिए। इसलिये सभी को नित्य प्रति आवश्यक करना आवश्यक है। आवश्यक सूत्र के छह अध्ययन है। इसका दूसरा नाम प्रतिक्रमण है। इसका कारण यह है-प्रतिक्रमण का अर्थ है प्रायश्चित्त । प्रायश्चित्त पाप के प्रक्षय का प्रधान कारण है। यदि अनेक प्रकार के मसालों से युक्त भी व्यञ्जन (साग तथा दाल आदि) हैं, परन्तु उनमें लवण न होवे तो चे स्वादु नहीं होते, अपितु फीके लगते है। इसी તે પણ તે ક્રિયાઓમાં રહેલ અહિંસા, સવર, કાર્યોત્સર્ગ વદન આદિ ગુણેને લાભ છે જ, પણ જે આવશ્યક ક્રિયાઓ ઉપયોગ અને ભાવપૂર્વક આચર વામાં આવે તે પ્રકાશમાં ખવાએલ સાકરની માકક અલૌકિક અને અનુપમ આનદ પ્રાપ્ત કરાવે છે અને સમસ્ત કર્મોની નિર્જરા થાય છે જે ઉપગ વગર કિયા કરે તે પણ એ સંભવ છે કે અન્યને રૂડા પ્રકારે ક્રિયા કરતે જે તેને તીવ્ર વૈરાગ્યની પ્રાપ્તિ થાય અને એ તીવ્ર વૈરાગ્ય એક ક્ષણભર હદયમાં સ્થિર થાય તે ભવભ્રમણ ને અત આવે, એમ સમજવું, તેથી પ્રત્યેક ભવ્યને હમેશ આશ્યક કરે જરૂરી છે આવશ્યક સૂત્રના છ અધ્યયન છે તેનું બીજુ નામ પ્રતિક્રમણ છે, અને તેનું કારણ એ છે કે પ્રતિક્રમણને અર્થે પ્રાયશ્ચિત્ત છે, અને પ્રાયશ્ચિત્ત એટલે પાપને વિશેષ પ્રકારે ક્ષય કરવાનું મુખ્ય કારણ જેમ વિવિધ મશાલાથી Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकसूत्रस्य लवणमन्तरेण न मुस्वादाई तथा तपश्चर्या-गुरुस्तुति-पत्यारयानादिका सर्वाऽपि क्रिया प्रायश्चित्त (पश्चात्तापरूप) विना नैर नितान्तसुग्यफल प्रापयितु क्षमा, तद्विपया प्रतिक्रमणारय चतुर्थमध्ययनमस्मिन्नस्तीत्यस्य शास्त्रस्य 'प्रतिनमण' मिति नामान्तर जातम् । यद्यपि समृतिगर्तनिपतिताना प्राणिना यदा तदा येन केन चित्प्रकारेण पापपङ्कलेपो दुर्निवार्यस्तथापि तस्य पापस्य तत्क्षणमेर पश्चात्तापेनाऽऽलोचना क्रियेत चेत्तदा भुक्ततत्क्षणवान्तविपवत् तदुदयेऽपि जीवः पापजनितीनदुःखभाग् न भवेत् , तत्क्षणकृतमायश्चित्तेन दुःखनिदानकर्मणा प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशप्रकार तपश्चर्या, गुरुस्तुति, प्रत्यारयान आदि समस्त क्रियाएँ प्रायश्चित्त (पाश्चात्ताप रूप) के बिना आत्मीय-आनन्दप्रद नहीं होती। यह पश्चात्ताप-प्रतिक्रमण इस शास्त्र मे प्रतिपादित किया गया है, अतएव इस समूचे सूत्र का भी नाम प्रतिक्रमण पड गया है। इस ससाररूपी खड्ढे में गिरे हुए जीव कभी न कभी, किसी प्रकार पापकर्मरूपी कीचड में फंस ही जाते हैं। ऐसी अवस्था मे यदि तत्काल ही उस पाप कर्म का पश्चात्ताप करके उसकी आलोचना कर ली जावे तो खाये हुए विप को तत्काल वमन कर देने की तरह उस पाप कर्म के उदय होने पर भी तीव्र दुख नहीं भोगना पडता। क्योंकि तत्काल प्रायश्चित्त कर लेने से उसके अनुभाग લારપુર રાક-દાળ નિમક (સબરસ) ના અભાવે સ્વાદિષ્ટ બનતું નથી અને નીરસ લાગે છે તેમ તપશ્ચર્યા, ગુરૂ સ્તુતિ, પરચખાણ વિગેરે ક્રિયાઓ પ્રાયશ્ચિત્ત વગર આત્મિક આનદ આપનાર થઈ શકતી નથી આ પ્રતિકમણનું આ શાસ્ત્રમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવે છે એથી આ આખા સત્રનું નામ પ્રતિ ક્રમણ પડી ગયું છે આ સંસાર રૂપ ખાડામાં પડી ગએલ જીવ કયારે ન કયારે કઈને કઈ પાપકર્મ રૂપ કીચડમાં ફસાઈ જાય છે એવી અવસ્થામાં જે તત્કાલ તે પાપકર્મનું પશ્ચાત્તાપ કરીને આલેચના કરવામાં આવે તે જેવી રીતે ખવાઈ ગયેલુ ઝેરનું તરત વમન કરવામાં આવે છે, તેની વિઘાતક અસર થતી નથી તેવી રીતે તે પાપ કર્મને ઉદય ઉપસ્થિત થતા તેનું તીવ્ર દુખ ભોગવવું પડતું Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपिणी टीका प्रस्तावना ११ वन्येषु न्यूनत्व- शिथिलत्वसभवात् । यथा तत्काल विरचितभिन्यादीना तद्गतसन्धिवन्धशिथिलीकरणे तत्पातने च नैव प्रयासबाहुल्यमपेक्ष्यते किन्तु कालप्राचुर्ये सति तत्पातने तच्छिथिलीकरणे च प्रचुरपरिश्रमाऽपेक्षासम्भवस्तथैव दुखहेतुभूतकर्मणा तदिवसे तत्क्षणे एव यदि पश्चात्तापः क्रियेत तर्हि नैत्र तानि भविष्यत्काले स्वोदयेऽपि प्रभूतदुःखप्रदानि जायेरन् प्रत्युताऽऽत्मा लघुकर्मत्वात् गामी सखायेत । यथा मखलीपुत्रो गोशालकः पश्चात्तापप्रायश्चित्तेन स्वकृतकर्माणि fear द्वादशे देवलोके देवत्वमवाप एव प्रसन्नचन्द्रराजर्षिः सप्तमनरकमापकाणि कर्माणि बद्ध्वाऽपि पश्चात्तापेन घनघातक कर्म विनाशनपूर्वक वध आदि में न्यूनता और शिथिलता हो जाती है। जैसे तत्काल बनाई हुई दीवार को ढीली करने या गिराने में अधिक परिश्रम नही करना पडता, किन्तु बहुत दिनों बाद उसे ढीली करने या गिराने में बहुत परिश्रम करना पडता है । वैसे ही दुःख के कारण भूत कर्म ( कार्य ) का उसी दिन, उसी क्षण ही पश्चात्ताप कर लिया जाय तो उसके उदय आने पर वह अधिक दुःखदायक नहीं होता, बल्कि आत्मा लघुकर्मी होकर ऊर्ध्वगामी घनता है । मखलीपुत्र गोशालक पश्चात्ताप - प्रायश्चित्त करके, किये हुए घोर कर्मोंको पश्चात्तापसे नाश कर बाहरवें देवलोक में देव हुआ । राजऋषि प्रसन्नचन्द्र सातवें नरक में पहुँचानेवाले कर्मोको मन के परिणामोंसे घाँध करके भी पश्चात्ताप के द्वारा घनघातिकम નથી કારણકે પાપનું તાત્કાલિક પ્રાયશ્ચિત્ત કરવાથી તેના અનુભાગ-ખ ધ વગેરેમા મદતા આવી જાય છે જેવી રીતે નવી ચણેલી દિવાલને તાત્કાલિક ઢીલી કરવામા અને પાડવામાં વિશેષ પરિશ્રમની જરૂર પડતી નથી પરંતુ તૈયાર થયા ખાદ ઘણા દિવસે પછી તેને ઢીલી કરવા માટે અને પાડવા માટે ઘણાજ પરિશ્રમ કરવા પડે છે એવી રીતે દુખના કારણરૂપ થએલ પાપકર્મનું તેજ દિવસે તેજ ક્ષણે પ્રાયશ્ચિત્ત કરવામા આવે તે તે પાપકર્મોને ઉદયવિપાક આવ્યે ઉદય કે વિપાક વિશેષ પ્રમાણુમા દુખદાયક છાનતા નથી, પરંતુ આત્મા કમથી હળવા ખની ઉચ્ચત દેવગતિમા જાય છે મખત્રીપુત્ર શૈશાલક પાતે કરેલા ઘા પાપ કર્માનું પ્રાય ચિત્ત કરી પશ્ચાત્તાપથી પાપકર્મોના ઉદયના નાશ કરી મારમા દેવલે કે દેવ થયા રાષિ પ્રસન્નચ મનના દુષ્ટ પરિણામે વડે સાતમી નરકે પહેાચાડનાર પાપ Page #72 --------------------------------------------------------------------------  Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषिणी टीका मस्तावना वन्येषु न्यूनत्व-शिथिलत्वसभवात् । यथा तत्कालविरचितभित्त्यादीना तद्गतसन्धिवन्धशिथिलीकरणे तत्पातने च नैव प्रयासबाहुल्यमपेक्ष्यते किन्तु कालप्राचुर्ये सति तत्पातने तच्छिथिलीकरणे च प्रचुरपरिश्रमाऽपेक्षासम्भवस्तथैव दुःखहेतुभूतकर्मणा तदिवसे तत्क्षणे एव यदि पश्चात्तापः क्रियेत तर्हि नैव तानि भविष्यकाले स्वोदयेऽपि प्रभूतदुःखपदानि जायेरन् प्रत्युताऽऽत्मा लघुकर्मत्वाद ऊर्वगामी सञ्जायेत । यथा मखलीपुत्रो गोशालकः पश्चात्तापप्रायश्चित्तेन स्वकृतधनकर्माणि क्षपयित्वा द्वादशे देवलोके देवत्वमवाप, एव प्रसन्नचन्द्रराजर्षिः सप्तमनरकमापकाणि कर्माणि बद्ध्वाऽपि पश्चात्तापेन घनघातकर्मविनाशनपूर्वक वध आदि में न्यूनता और शिथिलता हो जाती है । जैसे तत्काल बनाई हुई दीवार को ढीली करने या गिराने में अधिक परिश्रम नही करना पडता, किन्तु बहुत दिनों बाद उसे ढीली करने या गिराने में बहुत परिश्रम करना पडता है । वैसे ही दुःख के कारण भूत कर्म (कार्य) का उसी दिन, उसी क्षण ही पश्चात्ताप कर लिया जाय तो उसके उदय आने पर वह अधिक दुःखदायक नहीं होता, बल्कि आत्मा लघुकर्मी होकर ऊर्ध्वगामी बनता है । मखलीपुत्र गोशालक पश्चात्ताप-प्रायश्चित्त करके, किये हुए घोर कर्मोंको पश्चात्तापसे नाश कर बाहरवे देवलोक में देव हुआ। राजऋषि प्रसन्नचन्द्र सातवें नरक में पहुँचानेवाले कोको मन के परिणामोंसे बाँध करके भी पश्चात्ताप के द्वारा घनघातिकर्मों નથી કારણકે પાપનું તાત્કાલિક પ્રાયશ્ચિત્ત કરવાથી તેના અનુભાગ-બધ વગેરેમાં મદતા આવી જાય છે જેવી રીતે નવી ચણેલી દિવાલને તાત્કાલિક ઢીલી કરવામાં અને પાડવામાં વિશેષ પરિશ્રમની જરૂર પડતી નથી પરંતુ તૈયાર થયા બાદ ઘણા દિવસે પછી તેને ઢીલી કરવા માટે અને પાડવા માટે ઘણેજ પરિશ્રમ કરે પડે છે એવી રીતે દુખના કારણરૂપ થએલ પાપકર્મનું તેજ દિવસે તેજ ક્ષણે પ્રાયશ્ચિત્ત કરવામાં આવે તે તે પાપકર્મને ઉદયવિપાક આવ્યે ઉદય કે વિપાક વિશેષ પ્રમાણમાં દુખદાયક બનતા નથી, પરંતુ આત્મા કર્મથી હળ બની ઉગ્રગતિ દેવગતિમાં જાય છે મખવીપુર ગોશાલક પોતે કરેલા ઘેર પાપ કર્મોનું પ્રાય શ્ચિત્ત કરી પશ્ચાત્તાપથી પાપકર્મોના ઉદયને નાશ કરી બારમા દેવલેકે દેવ થયા રાજર્ષિ પ્રસન્નચદ્ર મનના દુષ્ટ પરિણામે વડે સાતમી નરકે પહોંચાડનાર પાપ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ आवश्यफमूत्रस्य सघः केवलाऽऽलोकमासाथ मोक्षमगच्छत् , तत एव पापप्रायश्चित्तस्य प्राधान्ये नाऽस्य नामापि 'तिक्रमण' मिति जातम् । नन्येव प्रतिमक्रणस्य (पडावश्यकात्मकस्य ) पापनिवर्तकत्वे प्रमाणिते प्रतिक्रमणवेशृणा तन्नाशोपायज्ञातत्वात्पापाचरणप्रतिनं शङ्कावहा नापि परिहार्येति चेन्मैवम्-यथा कस्यचित्पार्धे विपापहरणोपध वर्तते तेन किं विप भक्ष्यते ? एत्र वस्वधावनोपयोगिक्षारादिसामग्रीसद्भावेऽपि रजक. किं स्ववस्त्राणि पङ्कादिलेपेन को नष्ट करके, केवलज्ञान पाए और मोक्ष को प्राप्त हुए । पाप के प्रायश्चित्त की प्रधानता के कारण इस शास्त्र का नाम 'प्रतिक्रमण है। यदि कोई यह तर्क करने लगे कि जब छह अध्ययन रूप प्रतिक्रमण करने से ही पापों से छुटकारा मिल जाता है तो जो प्रतिक्रमण के जानने वाले है वे पापो मे प्रवृत्ति करने से क्यों झिझकेगें और क्यों पापों कात्याग करेगे क्योंकि उन्हें पापों से छुटकारा पाने का उपाय मालूम है, जब चाहेंगे तय प्रतिक्रमण करके उनसे छुट्टी पा लेंगे। ऐसा विचार करना भी ठीक नहीं है । क्योंकि जिसके पास विप उतारने की ओषधि होती है, वह जान-बूझकर कभी विष खाता है? क्या कपडे साफ करने के लिये सावुन क्षार आदि पदार्थ जिनके पास मौजूद होते हैं, वे लोग कभी जान बूझकर अपने कपड़े कीचड मेलथेड लेते हैं? क्या कोई समझदार કર્મો બાધેલ હતા છતા પ્રાયશ્ચિત્ત દ્વારા તે સર્વ ઘનઘાતી કર્મોને નાશ કરી કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી મોક્ષ પ્રાપ્ત કર્યો પાપના પાયશ્ચિત્તની પ્રધાનતાના કારણે આ શાસ્ત્રનું નામ પ્રતિકમણ છે જે કે એ તક ઉઠાવે કે જ્યારે છ અધ્યયન રૂપ પ્રતિકમણ કરવાથી પાપમાંથી મુક્ત થાય છે તે જેઓ પ્રતિક્રમણ જાણનારાઓ છે તેઓ પાપમય પ્રવૃત્તિ કરવાથી શા માટે પાછા હઠે? અથવા પાપ કમેને ત્યાગ શા માટે કરે ? તેઓને તે પાપમાંથી મુકિત મેળવવાને ઉપાય હાથમા છે, જ્યારે ઈરછા કરે ત્યારે પ્રતિક્રમણ કરી મુકિત મેળવી શકે આ તર્ક ઉઠાવ ઠીક નથી, કારણ કે જેની પાસે ઝેર ઉતારવાની અવધિ છે તે જાણી બુઝીને કદી ઝેર ખાય છે? વળી જેઓની પાસે કપડા સાફ કરવા માટે સાબુ, ક્ષાર વગેરે પદાર્થો છે તેઓ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितो पणी टीका प्रस्तावना १३ मलिनीकरोति ? यद्वा गृहे वहव्यः सम्मार्जन्यः सन्तीतिकृत्वा किं वहिः प्रदेशादानीय वूल्यादिक गृहे विक्षिप्यते ? अपितु न, किन्तु यदि प्रमादादिवशादनभिज्ञतया वा विषभक्षणादि कृत भवेत्तर्हि तत्प्रयोगेण तन्निवारणमभिमत विपश्चिता तदेव श्रेयस्कर च, अन्यथा तादृशानुचिताऽऽचरणविख्यापितमौर्यस्य निन्दा - दुःखादिभागित्व समासादित भवत्यतो नैव भावनीय जैनेन्द्रमवचनानुशीलनशीलैः। तच्च प्रतिक्रमण पञ्चधा भवति - (१) दैवसिक, (२) रात्रिक, (३) पाक्षिक, (४) चातुर्मासिक, (५) सावत्सरिक चेति । यह विचार करके कि घर में बहुतेरी समार्जनिया- (बुआरियां) पडी हैं, बाहर से कूडा कचरा इकट्ठा करके घरमे फैलाता है ? नहीं, कदापि नहीं । हाँ, प्रमाद वश या अनजान में विष का भक्षण हो जाय तो उस दवा का प्रयोग करके उसका प्रतिकार करना समझदारी है, और इसी में भलाई है । अन्यथा अपने अनुचित आचरण से मूर्खता प्रगट होगी और निन्दा तथा दुःख का पात्र बनना पडेगा । इसलिये जिनेन्द्र भगवान् के प्रवचन रूपी प्रशम पीयूप (अमृत) के पिपासुओं को ऐसी भावना मन में न लानी चाहिए । प्रतिक्रमण पाँच प्रकार का है- १ दिवस सम्बन्धी २ - रात्रि सम्बन्धी ३ - पाक्षिक ( पखवाडा) सम्बन्धी ४ चातुर्मास सम्बन्धी ५ - सवत्सरશુ જાણી જોઈને પેાતાના કપડા કાદવમાં નાખી ગદા કરે છે ? ઘરમા સાસુપ્રી કરવા માટે ઘણી સાવરણી છે એવા ખ્યાલ કઇ સમજદાર મનુષ્ય કરીશુ અહારથી પેાતાના ઘરમા કચરો એકઠો કરશે ? નહિ, કદાપિ નહિ હા, કદાચ પ્રમાદી અથવા અજ્ઞાન દશામા વિષ ખાવામા આવે તે તેના ઉતારા પ્રયાગ કરીને વિષના પ્રતિકાર કરવે, તેજ ખરી સમજ છે અને તેજશિષ્ટ રાહ છે આ સમજનું અનુસરણ ન કરે તે પેતાના અયેગ્ય આચરણથી પેાતાની સૂર્યાં મહાર આવે છે, અને પેાતાને નિંદા અને દુખનું પાત્ર મનવુ પડે છે માટેજ જીતેદ્ર ભગવાનના પ્રવચન રૂપ શાન્ત અમૃતના પાન કરનારાઓમા આવી અશિષ્ટ ભાવના આવવી ન જોઈએ, આવા કુતર્ક આવવા ન જોઈએ अति भणु याथ प्रहारना छे – (१) हिवस- समधी (२) रात्रि - समधी (3) पाक्षि-समधी (४) यातुर्भास-समधी (4) सवत्सर-समधी दिवस ६२भ्यान Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमुत्रस्य सद्यः केवलाऽऽलोकमासाध मोक्षमगच्छत् , तत एव पापप्रायश्चित्तस्य भाधान्ये नाऽस्य नामापि 'तिक्रमण' मिति जातम् । नवे प्रतिमक्रणस्य (पडावश्यकात्मकस्य ) पापनिवर्चकत्वे प्रमाणिते भतिक्रमणवेणा तन्नाशोपायज्ञातत्वात्पापाचरणप्रति शङ्कावहा नापि परिहार्येति चेन्मैवम्-यथा कस्यचित्पार्च विपापहरणौपध वर्तते तेन किं विप भक्ष्यते' एव वस्त्रधावनोपयोगिक्षारादिसामग्रीसद्भावेऽपि रजकः किं स्ववस्त्राणि पङ्कादिलेपेन को नष्ट करके, केवलज्ञान पाए और मोक्ष को प्राप्त हुए । पाप के प्रायश्चित्त की प्रधानता के कारण इस शास्त्र का नाम 'प्रतिक्रमण' है। यदि कोई यह तर्क करने लगे कि जब छह अध्ययन रूप प्रतिक्रमण करने से ही पापों से छुटकारा मिल जाता है तो जो प्रतिक्रमण के जानने वाले है वे पापो मे प्रवृत्ति करने से क्यो झिझकेगें और क्यों पापों कात्याग करेगे? क्योंकि उन्हें पापो से छुटकारा पाने का उपाय मालूम है, जब चाहेंगे तब प्रतिक्रमण करके उनसे छुट्टी पा लेंगे। ऐसा विचार करना भी ठीक नहीं है । क्योंकि जिसके पास विप उतारने की ओपधि होती है, वह जान-बूझकर कभी विष खाता है? क्या कपडे साफ करने के लिये सावुन क्षार आदि पदार्थ जिनके पास मौजूद होते हैं, वे लोग कभी जान-बूझकर अपने कपडे कीचड में लथेड लेते हैं? क्या कोई समझदार કર્મો બાધેલ હતા છતા પ્રાયશ્ચિત્ત દ્વારા તે સર્વ ઘનઘાતી કર્મોને નાશ કરી કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી મોક્ષ પ્રાપ્ત કર્યો પાપના પાયશ્ચિત્તની પ્રધાનતાના કારણે આ શાસ્ત્રનું નામ પ્રતિક્રમણ છે જે કઈ એ તક ઉઠાવે કે જ્યારે છ અધ્યયન રૂપ પ્રતિક્રમણ કરવાથી પાપમાંથી મુક્ત થાય છે તે જેઓ પ્રતિકમણ જાણનારાઓ છે તેઓ પાપમય પ્રવૃત્તિ કરવાથી શા માટે પાછા હઠે? અથવા પાપ કર્મોને ત્યાગ શા માટે કરે ? તેઓને તે પાપમાંથી મુકિત મેળવવાને ઉપાય હાથમાં છે, જ્યારે ઈરછા કરે ત્યારે પ્રતિક્રમણ કરી મુક્તિ મેળવી શકે આ તર્ક ઉઠાવ ઠીક નથી, કારણ કે જેની પાસે ઝેર ઉતારવાની ઓષધિ છે તેઓ જાણે બુઝીને કદી ઝેર ખાય છે? વળી જેઓની પાસે કપડા સાફ કરવા માટે સાબુ, ક્ષાર વગેરે પદાર્થો છે તેઓ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपिणी टीका प्रस्तावना सम्पादनेऽपि सर्वे पर्वमहोत्सवादितिथिपु खण्डग्वायतपूरा-पूप लपनश्रीमभृतीन् विशिष्टान् भोज्यपदार्थसभारान् सम्पादयन्ति । यथा वा लोके लोका अनुदिन भवन समार्जयन्तोऽपि दीपावल्यादिपर्वसु तत इतः कोणकादिगताऽज्ञातसफलावकरसमार्जनेन सविशेप गृहगतकचवरादिशुद्धिं विदधतीति सुप्रसिद्धमेष, उक्तश्चात्र "जह गेह पइदिवस पि सोहिय, तहवि पक्खसधीसु । सोहिजइ सविसेस, एव इह यावि नायन्च ॥ १ ॥" घेवर, मालपूआ, लपसी आदि विशिष्ट पक्वान तैयार किये जाते हैं, अथवा जैसे लोग प्रतिदिन मकान की सफाई करते हैं तो भी दीपावली आदि त्योहारों पर अच्छी तरह कोने-आतर तक झाड गुहार कर सफाई करते हैं, वैसे ही दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण कर लेने पर भी अनाभोग (अनजाने) लज्जा मन्दपरिणाम आदि कारणोंसे या अज्ञान के कारण यदि पूरी शुद्धि न हो तो पाक्षिक आदि प्रतिक्रमणों में, लगे हुए उन-उन अतिचार-अनाचार का स्मरण करने से विरक्ति (हिंसा आदि के त्याग ) की अधिक भावना होती है और भलीभांति पाप की शुद्धि हो जाती है । कहा भी है___जह गेह पइदिवस पि सोहिय, तहवि पक्खसधीसु । सोहिजड सविसेस, एव इह यावि नायव ॥ १॥" બનાવવામાં આવે છે તેમ છતા પણ તહેવાર અને ઉત્સવના દિવસે ખીર, માલ પુવા, લાપસી, મીeઈ વગેરે પકવાન તૈયાર કરવામાં આવે છે, અને જેવી રીતે મનુષ્ય હમેશા પિતાના મકાનની સફાઈ રાખે છે તે પણ દિવાળી વગેરે તહેવારે ઉપર વિશેષ પ્રકારે ખૂણે ખાચેથી પણ સાફસુફી કરે છે, એવી જ રીતે દેવસિક અને ત્રિક પ્રતિક્રમણ કરી લેતા અજાણ પણે, શરમથી મદ પરિણામ આદિ કારણથી અથવા અજ્ઞાનથી જે પાપની પૂર્ણ શુદ્ધિ ન હોય તે પાક્ષિક વગેરે પ્રતિક્રમણમાં ભૂતકાળમાં લાગેલા અતિચાર અનાચાર (પાપ) ના સ્મરણ કરવાથી હિંસા વગેરેના ત્યાગની અધિક ભાવના જાગૃત થાય છે, અને સંપૂર્ણ પણે રૂડી રીતે પાપની શુદ્ધિ થાય છે કહયું પણ છે– "जह गेह पइदिवसपि सोहिय, तहवि पक्खसधीमु सोहिज्जइ सविसेस, एव इह यावि नायच ॥१॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ आवश्यकमूत्रस्य तत्र दिवससजातपापस्य देवसिकेन, रात्रिसजातपापस्य रात्रिकेण, एव पक्ष चतुर्मास सवत्सरसनातपापस्य क्रमात् पाक्षिकेण चातुर्मासिकेन सावत्सरिकेण प्रतिक्रमणेन शुदिविधातव्या भव्यभावनशीलैः । ननु प्रतिक्रमणस्य दैवसिक-रात्रिकोभयभेदेनैव सर्वपापप्रक्षयद्वारा शुद्धिसभवः, प्रतिदिवससजातपापस्य दिनान्ते देवसिकेन, रातिकृतस्य च राज्यन्ते रानिकेण भतिक्रमणेन शुद्धिसभवात् , किं पुनः पाक्षिक चातुर्मासिक सावत्सरिकप्रतिक्रमणैः प्रयोजनम् ' इति चेदनोच्यते लोके यथोभयकाल प्रतिदिवसमशनादिसम्बन्धी। दिन में लगे पापों की दैवसिक से, रात्रिमे लगे हुए पापों की रात्रिक से, इसी प्रकार पक्ष, चतुर्मास और सम्वत्सर (वर्ष) में लगे हुए पापो की शुद्धि क्रमशः पाक्षिक चातुर्मासिक और सावत्सरिकप्रतिक्रमण से भव्य जीवों को करनी चाहिए । यहाँ यह प्रश्न होता है कि प्रतिक्रमण के दैवसिक और रात्रिक भेद ही ठीक है । इन्हींके द्वारा समस्त पापों से छुटकारा पाया जासकता है। दिनमें जो पाप लगेंगे उनकी दिन के अन्तमें किये जाने वाले देवसिक प्रतिक्रमण से और रात्रि में लगे हुए पापों की रात्रिके अन्त मे किये जानेवाले रात्रिक प्रतिक्रमण से शुद्धि हो जाएगी। फिर पाक्षिक, चातुर्मासिक और सावत्सरिक प्रतिक्रमणों की क्या आवश्यकता है? इसका समाधान यह है-कि जैसे लोकव्यवहार में प्रतिदिन दो बार भोजन बनाया जाता है, फिर भी त्योहार और उत्सव के समय खीर, થએલા પાપનું દેવસિકથી, રાત્રિમાં થએલા પાપનું રાત્રિથી, આ પ્રમાણે પખ વાડિયા, ચાતુર્માસ અને સંવત્સર દરમ્યાન થએલા પાપની શુદ્ધિ અનુક્રમે પાક્ષિક ચાતુર્માસિક અને સાવત્સરિક પ્રતિક્રમણથી ભવ્ય જીવેએ કરવી જોઈએ અહીં એક એવે પ્રશ્ન ઉઠે છે કે પ્રતિક્રમણના દેવસિક અને રાત્રિક ભેદ ગ્ય છે અને એનાથી જ સમગ્ર પાપોથી મુક્ત થઈ શકે છેદિવસ દરમ્યાન જે પાપ થાય તેની શુદ્ધિ દિવસને અંતે દેવસિક પ્રતિક્રમણથી અને રાત્રિ દરમ્યાન થએલા પાપની શુદ્ધિ રાત્રિને અને રાત્રિક પ્રતિક્રમણથી થાય છે, તે પછી પાક્ષિક ચાતુર્માસિક અને સાવત્સરિક પ્રતિક્રમ કરવાની શી જરૂર છે? આ તર્કનું સમાધાન એ છે કે જેવી રીતે લેક વહેવારમાં બે વાર ભોજન Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपिणी टीका कृतातीचार विस्मरणादिदोपवाहुल्य प्रसङ्गः, ततः दैवसिकादिप्रतिक्रमणमवश्यमेवानुष्ठेयम् । अन्यदपि श्रूयताम् - प्रस्तावना १७ यथा कोऽपि मृदुल पल्लवित कलम्बः प्रचण्ड मार्तण्डाऽऽतपेन म्लानो न केवलमेकवारसलिलसिञ्चनेन किन्त्वनेकशः सलिलसेकेन पूर्वावस्थामाप्नोति तथैवाऽत्राऽपि वोयम् । अन्यच्च — पूर्व तु आत्मसयमे तीत्रोपयोगस्याऽखण्ड परिणत्याऽविचलावस्थया पापलेपोऽसभाव्यः, यदि प्रमादादिना पापसपर्कस्तदा तत्क्षण एव पश्चात्तापादिना तस्य पाप की विशुद्धि के लिए देवसिकादि प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए । फिरभी उदाहरण यह है । जैसे लहलहाता हुआ पौधा धूपसे मुरझा जाय तो एक बार जल सींचने से ही हराभरा नही हो सकता ! बारम्बार जल सीचने की आवश्यकता होती है । इसी प्रकार व्रतरूपी पौधा अतिचाररूपी धूपसे मुरझा गया तो उसे पूर्वावस्थामें वारम्बार प्रतिकमणरूप जलसिञ्चन की आवश्यकता है अत एव दैवसिक रात्रिक आदि सभी प्रतिकमण करने योग्य हैं । अथवा प्रथम तो चाहिए कि तीव्र उपयोग की अखंड परिणति और अविचल अवस्था द्वारा पापका लेप भी न लगने दें। यदि प्रमादाઅનેક દોષાને પ્રસગ આવે છે એ કારણથી ઉપર કહેવામા આવેલા પાપની વિશુદ્ધિને માટે જૈવસિકાદિ પ્રતિક્રમણુ અવશ્ય કરવુ જોઇએ ક્રી પણ સાભળે ! જેવી રીતે લીલાછમ રહેલા છેડવાઓ (વૃક્ષના છેડવા) તાપથી તદ્દન સુકાઇ જાય તે એક વખત પાણી સીચન કરવાથી તે લીલાછમ જેવા થઈ શકતા નથી, પરન્તુ તે છેડવાઓને વાર વાર પાણીનું સીચન કરવાની આવશ્ય ના રહે છે એ પ્રમાણે વ્રતરૂપી છેડ અતિચાર રૂપી તાપથી તદ્ન સૂકાઈ ગયા તે તેને પૂર્વે જે સ્થિતિમા હતા તેવી સ્થિતિમા લાવવા માટે વારવાર પ્રતિક્રમણુ રૂપ પાણીનું સિંચન કરવાની આવશ્યકતા છે એટલા માટે દેવસિક રાત્રિક આદિ સ પ્રતિક્રમણ કરવા ચેગ્ય છે અથવા પ્રથમ તેા ઈચ્છીએ કે તીવ્ર ઉપયેગની અખડ અવસ્થા દ્વારા પાપને લેપ પણુ લાગવાજ નહિ દેવા પરિણતિ અને અવિચલ જોઇએ. પરન્તુ જો કે Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ आवश्यकमूत्रस्य तथैव प्रतिवासर दैवसिकरानिकपतिक्रमणमुभयकालमावश्यककरणे ऽपि अनाभोगलज्जामन्दपरिणामादिकारणवशेनाऽनभिज्ञतया वा यदि सम्यरुशुद्धिर्न जायेत तदा तेन पाक्षिकादिषु तत्तदतिचारस्मरणेन समधिकरैराग्यभावनापुरस्सरा पापशुद्धिः समीचीना भवति, ततः पाक्षिकादिप्रतिक्रमणमपि करणीयमेवेतिसिद्धम् । अस्तु तावत्, किन्तु सावत्सरिकभतिक्रमण यत्र कर्तव्यत्वेन विहित तत्र किमन्यैर्दैवसिफादिभिः प्रयोजनम् ? सत्सरसञ्जातपापत्राताना सवत्सरान्ते सावत्सरिकपतिक्रमणेन क्षय स्यादेवेति चेत्, उच्यते-दैवसिकादिप्रतिक्रमण विधानेन सवः-सलग्नमलमलिनसबोधीतवस्त्रवत्सयाकृतपापपरिशुद्धिः सय एव सजायते, तेन च चारित्रशुदिविशिष्टतरा भवति, कालातिक्रमे सति प्रतिक्रमणेन अतः पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण भी अवश्य करना चाहिये । प्रश्न-जब सावत्सरिक प्रतिक्रमण करने का विधान कर दिया तो देवसिक आदि प्रतिक्रमण की क्या आवश्यकता है। वर्ष भरमें जो पाप लगेंगे उनका वर्षके अन्तमे सावत्सरिकप्रतिक्रमणसे क्षय हो ही जायगा। उत्तर-यह है कि जिस प्रकार कपडे पर लगे हुए दाग को तत्काल धोनेसे वह साफ हो जाता है उसी प्रकार देवसिकादि प्रतिक्रमण करनेसे लगे हुए पापकी तत्काल परिशुद्धि हो जाती है, जिससे चारित्रशुद्धि अत्यन्त विशिष्ट होती है। समय के बीत जाने पर जो प्रतिक्रमण किया जाय तो लगे हुए दोपो का विस्मरण हो जाना आदि अनेक दोषों का प्रसग आता है, अत. ऊपर की ऊपर માટે પાક્ષિક વગેરે પ્રતિક્રમણે અવશ્ય કરવા જોઈએ પ્રશ્ન - જ્યારે સાવત્સરિક પ્રતિક્રમણ કરવાને નિર્દેશ કરવામાં આવ્યું છે તે પછી દેવસિક, રાત્રિક પ્રતિક્રમણ કરવાની શી જરૂર છે? વર્ષ દરમ્યાન જે પાપે થાય તેનું નિવારણ વર્ષને અંતે સાવત્સરિક પ્રતિક્રમણ કરવાથી થ5 જાય છે ઉત્તર–એ છે કે – જેવી રીતે કપડા ઉપર લાગેલા ડાઘને તત્કાલ જોઈ નાખવાથી તે કપડું સાફ થઈ જાય છે તે પ્રમાણે દેવસિકાદિ પ્રતિક્રમણ કરવાથી જે કોઈ પાપ લાગેલા હોય તેની તત્કાલ શુદ્ધિ થઈ જાય છે જેના વડે ચારિત્ર શુદ્ધિ અત્યંત વિશુદ્ધ થઈ જાય છે સમય વીતી ગયા પછી જે પ્રતિક્રમણ કર. વામાં આવે તે જે કાઈ દે લાગેલા હેય તેનું વિસ્મરણ (ભૂલી જવુ) થવુ આદિ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ मुनितोपिणी टीका प्रस्तावना मुकदिवसे एतावदेतावद्दव्य दास्यामी"ति तेनाऽस्माद्ऋणदानदिवसात्पर पञ्चमे मामि सकुसीदसकलद्रव्यशोधन भविष्यतीति, तत्राऽधमर्णस्य नाय भावस्तिष्ठति यदन्तिमसमये पूर्ण सत्येव मया सर्व प्रदेयमिति किन्तु यथाऽवसर शीघ्रमेव ऋणविशोधनाया मया प्रयासः कर्तव्य इति, अतो यदि नियमितसमयात्मागेव ऋण विशो येत तदाऽधमर्णस्य महती शोभा सजायते । प्रथमे नियतसमये ऋणविशोधने साधारणी शोभा, द्वितीये मान्यमा, तृतीये किञ्चिढ़ना, चतुर्थे न्यूना, एव पूर्ण पञ्चमे मासि तु सकुसीद सर्व द्रव्यमवश्यमेव देय येन व्यवहारो न त्रुटयेत। किन्तु पूर्णे ऽप्यवधौ यद्यधणः साकल्येन ऋण न परिशोधयेत् तदाऽवश्य व्यव किश्तयन्दी कर दी कि- “मैं इतने इतने दिनोमें इतना इतना ऋण चुका कर इतने दिनोंमें ऊरिन हो जाऊँगा।" ऐसी टशामें किसी भले कर्जदार का यह भाव नहीं होता कि जन किउतरन्दी का ममय पूरा होगा तबही हम सर चुका देंगे, किन्तु जितना जल्दी हो सकता है पहली वार ही ऋण चुका देना चाहेगा, तो तदनुसार यदि नियमित किश्त के समयसे पहले ही ऋण पूरा चुका दे तो उसकी ससार में गोमा होती है। अगर दुमरी किस्त पर सब ऋण चुका दे तो कुछ कम शोभा होती है, एव तीसरी किरतपर चुकावे तो उससे कम, चोथीवारमें उससे भी कम शोभा होती है। आखिर पाचवी वार चुकाना तो उसको बिलकुल लाजिमी है। यदि इस समयभी न चुकावेगा तो साख शोभामें हानि और હપ્તાની મૂદત બાધી દીધી કે- “હ અમુક દિવસમાં અમુક-અમુક ચુકાવીને આટલા દિવસમાં મુકત થઈ જઈશ” આવી સ્થિતિમાં કોઈ પણ સમજદાર દેણદારની એવી ભાવના થતી નથી કે જ્યારે ભૂદત બાધીને સમય પૂરો થશે ત્યારે હું સર્વ પ્રકારનું કરજ ચૂકાવી આપીશ ? પરંતુ જેટલું વહેલું કરજ ચૂકાવી શકાય તેટલી ઉતાવળથી કરજ ચૂકવવા બનતુ કરશે તે સસારમાં તેની શોભા દેખાશે અથવા તે બીજી મુદત ઉપર તમામ કરજ ચૂકાવી આપશે તે પ્રથમ કરતા શેભા ઘેડી ઓછી દેખાશે ત્રીજી મૂદત ઉપર ચૂકવશે તે બીજી કરતા પણ શોભા ઓછી, ચેથી મુદત પર ચૂકવશે તે તેથી પણ ઓછી શેભા દેખાશે છેવટે પાચમી મૂત પર કરજ ચૂકાવવુ તે તે કરજદાર માટે એકદમ અ ગ્ય છે તે પણ જે તે Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य नाशो विधेयः। तत्क्षण एर पश्चात्तापाभावे दिवसान्ते राज्यन्ते पक्षान्ते चतु सान्ते च क्रमेण प्रतिक्रमणेन पापक्षयो विधातव्यः। यदि च प्रगाढममादादिवशात् पूर्वोक्तसमयेपु पश्चात्तापादि समाचरित न भवेत् तदा सवत्सरान्ते खवश्यमेव शुद्धान्तःकरणेन सवत्सरसमुद्भूतपापानि स्मार स्मार प्रतिक्रमणमवश्यमाचरणीयम् , अन्यथा पापाना वज्रलेपायितलमेवाऽऽपयेत । अत्र दृष्टान्त: यथा केनचिन्नरेण ऋणविशोधनसमयो नियतीकृतो यथा-"अह ममुकादिवश पापका सपर्क हो जाय तो उसी क्षण पश्चात्तापादि द्वारा उसका नाश कर देना चाहिये। अगर उस वक्त पश्चात्तापादि न हो सका तो दिन, रात्रि, पक्ष, एव चतुर्मास के अन्तमें अनुक्रम से प्रतिक्रमण द्वारा पाप का क्षय कर देना जरूरी है, यदि प्रगाढ प्रमाद आदिके कारण पूर्वोक्त समय चूक गया हो अर्थात् पूर्वनिर्दिष्ट समयमे अतिचार शोधन नहीं किया गया हो तो सवत्सर (वर्ष) के अन्तमे तो मनुष्यको शुद्धअन्तःकरण हो कर वर्षभर के लगे हुए पापों को याद कर-कर के प्रतिक्रमण अवश्य करनाही चाहिये। ऐसा न किया जाय तो लगे हुए पाप वज्रलेप जैसे हो जायेंगे, अर्थात् पाप से अपने को छुडाना मुश्किल पडेगा । इस पर दृष्टान्त कहते हैं जैसे किसी मनुष्यने ऋण चुकाने के लिए पाच बार की પ્રમાદ આદિ દેના વશ થવાથી પાપને સપક થડ જાય તે તેજ સમયે પશ્ચાત્તાપાદિ દ્વારા તેને નાશ કરી દેવું જોઈએ અથવા તે તે સમયે પશ્ચાત્તાપાદિ ન કરી શકાય તે દિવસ, રાત્રિ, પક્ષ, એ પ્રમાણે ચતુર્માસના અન્તમાં અનુક્રમથી પ્રતિક્રમણ દ્વારા પાપ નાશ કરી દેવું જોઈએ, એ જરૂરી વસ્તુ છે જે વિશેષ, બલવાન પ્રમાદ આદિના કારણે આગળ જે સમય કહ્યો છે તે ભૂલી જવાય તે, અર્થાત આગળ કહેલા સમયે પ્રતિક્રમણની ક્રિયા નહિ બની શકે તે સંવત્સર (વર્ષ)ને અતમાં મનુષ્યએ શુદ્ધ આત કરણ થઈને એક વર્ષ સુધીમાં જે પાપ લાગેલા હોય તેને યાદ કરીને પ્રતિક્રમણ અવશ્ય કરવું જ જોઈએ એ પ્રમાણે કરવામાં ન આવે તે લાગેલા પાપ વજલેપ જેવા થઈ જશે, અર્થાતપાપથી પિતાને બચવાનું મુશ્કેલ થઈ પડશે તે માટે દાત કહે છે કે માની લેશેકે –કે મનુષ્યને ત્રણ-દેણુ-કરજ)સૂકાવવા માટે પાચ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषिणी टीम प्रस्तावना मुकदिवसे एतावदेताबद्रव्य दास्यामी"ति तेनाऽस्माऋणदानदिवसात्पर पञ्चमे मामि सकुसीदसकलद्रव्यशोधन भविष्यतीति, तत्राऽधमर्णस्य नाय भावस्तिष्ठति यदन्तिमसमये पूर्ण सत्येव मया सर्व प्रदेयमिति किन्तु यथाऽवसर शीघ्रमेव ऋणविशोधनाया मया प्रयासः कर्तव्य इति, अतो यदि नियमितसमयात्मागेत्र ऋण विशोध्येत तदाऽधमणस्य महती शोभा सजायते । प्रथमे नियतसमये ऋणविशोधने सापारणी शोभा, द्वितीये मध्यमा, तृतीये किश्चिदूना, चतुर्थे न्यूना, एव पूर्ण पञ्चमे मासि तु सकुसीद सर्वे द्रव्यमवश्यमेव देय येन व्यवहारो न त्रुटयेत। किन्तु पूर्णे ऽप्यवधौ यद्यपणः साकल्येन ऋण न परिशोधयेत् तदाऽवश्य व्यव किश्तयन्दी कर दी कि- "मैं इतने इतने दिनोमें इतना इतना ऋण चुका कर इतने दिनोंमे जरिन हो जाऊँगा।" ऐसी दशामें किसी । भले कर्जदार का यह भाव नहीं होता कि जब किस्तरन्दी का ममय पूरा होगा तयही हम सर चुका देंगे, किन्तु जितना जल्दी हो सकता है पहली वार ही ऋण चुका देना चाहेगा, तो तदनुसार यदि नियमित किश्त के समयसे पहले ही ऋण पूरा चुका दे तो उसकी ससार में शोभा होती है। अगर दूसरी किस्त पर सय रुण चुका दे तो कुछ कम शोभा होती है, एव तीसरी किरतपर चुकावे तो उससे कम, चोथीवारमें उससे भी कम शोभा होती है। आखिर पाचवी वार चुकाना तो उसको बिलकुल लाजिमी है। यदि इस समयभी न चुकावेगा तो साख शोभामें हानि और હપ્તાની મૂદ્દત બાધી દીધી કે- હુ અમુક દિવસોમાં અમુક-અમુક ચુકાવીને આટલા દિવસમાં મુક્ત થઈ જઈશ” આવી સ્થિતિમાં કોઈ પણ સમજદાર દેણદારની એવી ભાવના થતી નથી કે જ્યારે મૂદત બધીને સમય પૂરો થશે ત્યારેજ હું સર્વ પ્રકારનું કરજ ચૂકવી આપીશ? પરંતુ જેટલું વહેલું કરજ ચૂકાવી શકાય તેટલી ઉતાવળથી કરજ ચૂકવવા બનતુ કરશે તે સંસારમાં તેની શોભા દેખાશે અથવા તે બીજી મુક્ત ઉપર તમામ કરજ ચૂકાવી આપશે તે પ્રથમ કરતા શોભા થેડી ઓછી દેખાશે ત્રીજી મૂદત ઉપર ચૂકવશે તે બીજી કરતા પણ શોભા ઓછી, ચેથી મૂત પર ચૂકવશે તે તેથી પણ ઓછી શેભા દેખાશે છેવટે પાચમી મૂદત પર કરજ ચૂકાવવું તે તે કરજદાર માટે એકદમ અયોગ્ય છે તે પણ જે તે Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० आवश्यकमूत्रस्य हारस्त्रुट्येत प्रतिष्ठाहानिश्च जायेत, राजद्वारे सातिशय दण्डनीयश्च भवेत् । एव प्रतिक्रमणविपयेऽपि योद्धव्यम् । ननु इयमावश्यकक्रिया श्रापकश्राविकाणा सर्वेपामेव करणीयेति तु युक्तम् गृहस्थत्वेन तेपा पापसभवात् , जिनेन्द्रशासनप्रतिपालकाना साधूना तु सर्वसावधयोगनिवृत्त्यभ्युपगमेन मनोवाकायमहत्तयो विशुद्धा एव भवन्ति कथ पुनस्तेपा पापसभवो येन देवसिकादिमतिक्रमणैस्तेपामपि तच्छुद्धिः कर्तव्या भवेत् ' इति चेदत्रोच्यते _ यथा तालकनियन्त्रितकपाटावरुद्धगृहेऽपि येन केनचित्मकारेण रजःलोकनिन्दा होगी, तथा न्यायालयमे दण्ड पावेगा । यही बात प्रतिक्रमण के विषयमें समझना चाहिए। प्रश्न यह है कि आवश्यक क्रिया सब श्रावक श्राविकाओ को तो करनी चाहिये, क्योंकि वे गृहस्थ है और गृहस्थ होने से पाप लगने की सभावना है, किन्तु जिनेन्द्र भगवान के शासन का पालन करने वाले साधु और साध्वी तो सावद्य के सर्वथा त्यागी होते हैं, उनके मन वचन और काय की प्रवृत्ति विशुद्ध ही होती है, इन्हें पाप कैसे लग सकता है कि जिसके कारण देवसिक आदि प्रतिक्रमण करके उन्हें भी पाप की शुद्धि करना आवश्यक हो। इसका समाधान यह है कि जैसे बिलकुल बन्द मकान में સમયે પણ કરજ ચૂકાવી નહિ શકે તે પ્રતિષ્ઠાની હાનિ સાથે લેનિન્દા થશે તેમજ ન્યાયની અદાલતમાં દડ થશે, એજ પ્રમાણે પ્રતિકમણના વિષયમાં સમજવું नय આ આવશ્યક ક્રિયા સર્વ શ્રાવક શ્રાવિકાઓએ તે કરવી જ જોઈએ કારણ કે તે ગૃહસ્થ છે, અને ગૃહસ્થ હોવાથી પાપ લાગવાને સ ભાવ છે, પરંતુ જિનેન્દ્ર ભગવાનના શાસનનુ પાલન કરનારા સાધુ અને સાધ્વી તે સાવધના સર્વથા ત્યાગી હોય છે, તેમના મન, વચન અને કાયાની પ્રવૃત્તિ વિશુદ્ધજ હેય છે તેમને પાપ કેવી રીતે લાગી શકે છે? કે જે કારણથી દેવસિક આદિ પ્રતિ ક્રમણ કરીને તેમણે પણ પાપની વિશુદ્ધિ કરવી જરૂરી હોય? તેનું સમાધાન એ છે કે જે પ્રમાણે એકદમ બધ કરેલા મકાનમાં પણ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितो पणी टीका २१ प्रवेशों जायत एव तथैवैतेपा सम्मति यथाख्यातचारित्रासभवात् साधूनामपि प्रमादसभवाच्च सूक्ष्मवादरातिचारसभव एव एतदेवाऽभिप्रेत्य - 'प्रथमान्तिमजिनसाधूनामुभयकाल प्रतिक्रमणमवश्यमेव कर्त्तव्यमिति भगवताऽऽज्ञप्तम्, तथा चोक्तम् प्रस्तावना “सपडिकमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाण, कारणजाए पडिकमण ॥ १ ॥” इति । ( आव नि.) अपि च अतिचारसभवाभावेऽपि मतिक्रमणकरणेन तज्जनिताऽऽत्मशुद्धेः माल्य ववश्य सभवति तृतीयवैौपधिवत्, यथा भी किसी न किसी प्रकार धूल घुस ही जाती है वैसे ही साधुओ के पूर्ण यथाख्यात चारित्र न हो सकने से और प्रमाद का अस्तित्व होने से सूक्ष्म या स्थूल अतिचार लग ही जाते है। इसी लिए जिनेश्वर भगवान की आज्ञा है कि- प्रथम और अन्तिम तीर्थकरो के साधुओं को उभयकाल प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए । कहा भी है सक्किमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स व जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाण, कारणजाए पडिक्कमण ॥१॥ (371. far) दूसरी बात यह है कि अतिचार न लगने पर भी प्रतिक्रमण करने से तज्जन्य आत्मशुद्धि की प्रनलता अवश्य होती है। तीसरे वैद्य की કોઇને કોઇ પ્રકારે ધૂળ ઘુસી જાય છે તેવીજ રીતે સાધુઓને પૂર્ણ રીતે યથાખ્યાત ચારિત્ર નહિ હેાઇ શકવાથી અને પ્રમાદનું અસ્તિત્વ હોવાથી સૂક્ષ્મ અથવા સ્થૂલ અતિચાર લાગીજ જાય છે એટલા માટે જિનેશ્વર ભગવાનની આજ્ઞા છે કે પ્રથમ અને અન્તિમ તીર્થંકરના સાધુઓએ અને સમય પ્રતિકમણુ અવશ્ય કરવુ જોઈએ उ छे ! - सपडिक्मणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाण, कारणजाए पडिक्मण ॥ १ ॥ (आ. नि ) ખીજી વાત એ છે કે—અતિચાર નહિ લાગે તે પણ પ્રતિક્રમણ કરવાથી Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आवश्यकमूत्रस्य हारस्त्रुटयेत प्रतिष्ठाहानिश्च जायेत, राजद्वारे सातिशय दण्डनीयश्च भवेत् । एव पतिक्रमणविपयेऽपि योद्धव्यम् ।। ननु इयमावश्यकक्रिया श्रावकश्राविकाणा सर्वेपामेर करणीयेति तु युक्तम् गृहस्थत्वेन तेपा पापसभवाद, जिनेन्द्रशासनमविपालकाना साधूना तु सर्वसावधयोगनिवृत्त्यभ्युपगमेन मनोवाकायमहत्तयो विशुद्धा एव भवन्ति कय पुनस्तेपा पापसभयो येन दैवसिफादिमतिक्रमणैस्तेपामपि तच्छुद्धिः कर्तव्या भवेत् ' इति चेदत्रोच्यते ___ यथा तालकनियन्त्रितकपाटावरुद्धगृहेऽपि येन केनचित्मकारेण रजःलोकनिन्दा होगी, तथा न्यायालयमे दण्ड पावेगा । यही बात प्रतिक्रमण के विषयमे समझना चाहिए। प्रश्न यह है कि आवश्यक क्रिया सब श्रावक श्राविकाओ को तो करनी चाहिये, क्योंकि वे गृहस्थ हैं और गृहस्थ होने से पाप लगने की सभावना है, किन्तु जिनेन्द्र भगवान के शासन का पालन करने वाले साधु और साध्वी तो सावध के सर्वथा त्यागी होते हैं, उनके मन वचन और काय की प्रवृत्ति विशुद्ध ही होती है, इन्हें पाप कैसे लग सकता है कि जिसके कारण दैवसिक आदि प्रतिक्रमण करके उन्हें भी पाप की शुद्धि करना आवश्यक हो । इसका समाधान यह है कि जैसे बिलकुल बन्द मकान मे સમયે પણું કરજ ચૂકાવી નહિ શકે તે પ્રતિષ્ઠાની હાનિ સાથે લેનિન્દા થશે તેમજ ન્યાયની અદાલતમા દડ થશે, એ જ પ્રમાણે પ્રતિક્રમણના વિષયમા સમજવું नध्य આ આવશ્યક ક્રિયા સર્વ શ્રાવક શ્રાવિકાઓએ તે કરવી જ જોઈએ કારણ કે તે ગૃહસ્થ છે, અને ગૃહસ્થ હેવાથી પાપ લાગવાને સંભવ છે, પરંતુ જિનેન્દ્ર ભગવાનના શાસનનું પાલન કરનારા સાધુ અને સાધ્વી તે સાવધના સર્વથા ત્યાગી હોય છે, તેમના મન, વચન અને કાયાની પ્રવૃત્તિ વિશુદ્ધજ હાય છે તેમને પાપ કેવી રીતે લાગી શકે છે? કે જે કારણથી દેવસિક આદિ પ્રતિ ક્રમણ કરીને તેમણે પણ પાપની વિશુદ્ધિ કરવી જરૂરી હોય? તેનું સમાધાન એ છે કે જે પ્રમાણે એકદમ બધ કરેલા મકાનમાં પણ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ __ मुनितोपिणी टीका मस्तावना नाशयति, रोगाभावेऽपि सेवित सदाऽऽगन्तुकाऽऽतङ्कान निवारयति शरीरकान्ति सवर्द्धयति, रसायनस्यास्याऽपराप्यद्भुतचमत्कारजननी शक्तिर्विद्यते यदस्य सेवने पुना रोगशङ्काऽपि न सभवतीति"। राजा च तत्सर्वं निगम्य तृतीयवैद्योपदिष्टमेवौषध तनयाय पादापयत् । एव साधुभिरप्यात्मनीनमेतादृश क्रियौपध सेवनीय येन तद्गतकर्मरोगसक्षयपूर्वकमागन्तुकर्मरोगावरोधपुरस्सरमात्मशुद्धिः सनायते । अनेन दैवसिकादिकमपि प्रतिक्रमण साधूनामप्यवश्यमासेव्यम् , पापसद्भावे तत्क्षयस्य तदभावे चाऽऽत्मिकविशुद्धेरवश्यम्भावात् । और अद्भुत है। ऐसी दवा और कहीं नहीं मिल सकती। यह शारीरिक रोगोंको जडसे नष्ट कर देती है और रोग न होने पर आगे आने वाले रोगोंको रोकती है, तथा शरीर की कान्ति बढाती है। इसमे एक और चमत्कार यह है कि इसका सेवन कर लिया तो भविष्यमें आने वाले रोगों की आशका ही नहीं रहती।" राजाने यह सब सुनकर तीसरे वैद्य की रसायन ही अपने लडके को दिलवाई। साधुओंको भी ऐसी क्रिया रूपी औपध का सेवन करना चाहिये कि जिससे लगे हुए कर्मोंका नाश और आगामी काँका निरोध हो कर आत्मशुद्धि हो । अतएव साधुओंको दैवसिक आदि प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए, क्योंकि इससे पाप लगने पर उसका नाश होता है और पाप न भी लगा हो तो आत्मशुद्धि अवश्य होती है। રસાયણ બીજે કઈ સ્થળે મળી શકતું નથી આ રસાયણ શારીરિક રેગેને જડ-મૂળથી નષ્ટ કરી શકે છે અને રોગ ન હોય અને તે રસાયણને ઉપગ કરવામાં આવે તે બીજા રોગોને થતા અટકાવે છે તથા શરીરની કાંતિ વધારે છે, અને તેમાં એક બીજે ચમત્કાર એ છે કે –તેનું સેવન કરવામાં આવે તે ભવિષ્યમાં રેગ થવાની શકાજ રહેતી નથી રાજાએ આ સર્વ વાત સાભળી ત્રીજા વૈદ્યની દવા (સાયણ) જ પિતાના પુત્રને અપાવી સાધુઓએ પણ એવી ક્રિયારૂપી ઔષધીનું સેવન કરવું જોઈએ કે જેનાથી લાગેલા કર્મને નાશ થાય અને આગામી કમેને નિરોધ (અટકાવ) થઈને આત્મશુદ્ધિ થાય એટલા કારણથી સાધુઓએ દેવસિક આદિ પ્રતિક્રમણ અવશ્ય કરવું જોઈએ, કારણકે પાપ લાગે તે પણ તેને નાશ થઈ જાય છે અને પાપ નહિ લાગ્યા હોય તો આત્મશુદ્ધિ અવશ્ય થાય છે Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक सूत्रस्य कथिन्नरपतिर्देधान आहूय मोक्तान - " यद् भवद्भिस्तथा विधीयता यथा मम प्राणप्रियस्याद्वितीयस्य तनयस्य शरीरे आयत्या रोगस्पर्शोऽपि न सभवेत्" इत्याकर्ण्य तन्मध्यादेको वैद्यः समभ्यधात् - " मत्पार्श्वे एवविध रसायन वियते यद् रोगसद्भावे सेवित सत् तत्क्षणमेव त नाशयति, रोगाभावे तत्सेवन तु नूतनरोगोत्पत्तये जायते" इति । द्वितीयेनोक्तम् - " मदौषध रोगसद्भावे त विनाशयति, रोगाभावे तत्सेवने तु न कञ्चिदगुण दोष वा प्रदर्शयति" | तदनन्तर तृतीयो नै सामोदमवादीत् - "हे राजन् ! अतिमशस्यमद्भुत च मम रसायन, नचैतादृग्रसायनमन्यत्र क्वाप्युपलभ्यते, यदिद देहस्थितानातङ्कान् समूल २२ औषधि की तरह । किसी एक राजाने वैद्यों को बुलाकर कहा - "आप लोग कोई ऐसा उपाय कीजिए कि मेरे प्राणोंसे भी प्यारे लडके को भविष्यमे रोग छू भी न सके ।" राजाकी बात सुनकर एक वैद्य बोला"मेरे पास ऐसी दवा है कि रोग होने पर उसका सेवन किया जाय तो पलभरमे उस रोग को मिटा देती है, और रोग न होने पर सेवन किया जाय तो नवीन रोग उत्पन्न कर देती है । ” दूसरे वैद्यने कहा"मेरे पास ऐसी दवा है कि रोग हो तो उसे फौरन दवा देती है और रोग न हो तो न कुछ गुण करती है न अवगुण ।" इसके बाद तीसरे वैद्य प्रसन्नतासे बोले - "महाराज ? मेरी दवा अति प्रशसनीय તજન્ય આત્મશુદ્ધિની પ્રમલતા અવશ્ય થાય છે ત્રીજા વૈદ્યની ઓષધિ પ્રમાણે ઉદાહરણના ખુલાશે એ છે કે–કેઇ એક રાજાએ વૈદ્યોને ખેલાવીને કહ્યુ કે – આપ લેાક કેઇ એવા ઉપાય કરે કે મારા પ્રાણુથી અધિક વ્હાલા પુત્રને ભવિષ્યમાં રાગ સ્પર્શ પણ ન કરી શકે ? રાજાની આ પ્રમાણે વાત સાભળીને એક વૈદ્ય બોલ્યા કે “ મારી પાસે એવુ રસાયણ છે કે-ગ થાય તે તે રસા યણુનું સેવન કરવામા આવે તે એક પલમા તે રસાયણુ રાગને મટાડી શકે છે, અને રંગ ન હોય છતાય સેવન કરવામા આવે તે નવા શગ ઉત્પન્ન કરી આપે છે બીજા વૈદ્યે કહ્યુ કે મારી પાસે એવી દવા છે કે રાગ હાય તે એકદમ તેને દબાવી દે છે, અને રેગ ન હોય અને દવાના ઉપયેગ કરાય તે નથી ગુણુ કરતી કે નથી અવગુણુ કરતી ત્યાર પછી ત્રીજા વૈધે પ્રસન્નતાથી કહ્યુ કે મહારાજ ! મારી પાસે જે રસાયણ છે તે બહુજ વખાણુવા ચૈગ્ય અને અદ્ભુત છે, આવું Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपिणी टीका प्रस्तावना २५ यथा न खलु कोऽपि " श्रावकोऽयम्" इति ज्ञात्वा अभक्ष्यमकल्प्य वा किञ्चिदपि वस्तु समर्पयति, श्रावककुलोत्पन्नत्वेनैव तस्याऽकल्प्य वस्तु जातत्यागित्वमसिद्धेः, तथैवाऽनापि ज्ञातव्यम् | (( उत्तर- अव्रती हो या व्रती, प्रतिक्रमण सबको पूरा करना चाहिए इसमे कोई दोष नही आसकता, क्योंकि अती प्रतिक्रमण करेगा तो प्रतिक्रमण का महत्त्व समझनेसे व्रत नही ग्रहण करनेका उसे पश्चात्ताप होगा तथा व्रत ग्रहण करने की क्या जरूरत है ? इनमें क्या धरा है ?" इत्यादि मिथ्या श्रद्धा का पश्चात्ताप होगा, इससे अन्तःकरणमे निर्मलता आदि अनेक आत्मगुण प्रकट होंगे। इसलिए, तथा व्रतधारी को ग्रहण किये हुए व्रतो में लगनेवाले अतिचारोंका, तथा यदि उसने पूरे व्रत न लिये हों तो नही लिये हुए व्रतोंको ग्रहण करने मे किये हुए प्रमाद और व्रत विषयक विपरीत श्रद्धा के विपयमे पश्चात्ताप होगा इसलिए व्रती या अव्रती सबको प्रतिक्रमण करना ही चाहिए, क्यों कि अव्रती भी श्रावक है और श्रावक होने से ही उन्हे प्रतिक्रमण करने का अधिकार हो ही जाता है। ઉત્તર——અત્રી ( વ્રત ધારણ નહિ કરનાર) હાય અથવા વ્રતી ( વ્રત ધારણ કરનાર ) હાય એ સૌએ પૂરેપૂરૂ પ્રતિક્રમણુ કરવુ જેઈએ, અને એ પ્રમાણે કરવામા કોઈ પ્રકારના દેષ આવી શકતા નથી કારણ કે અત્રતી પ્રતિક્રમણ કરશે તે પ્રતિક્રમણનું મહત્ત્વ સમજવાથી વ્રત ગ્રહણુ નથી કરી શકયે તેના પશ્ચાત્તાપ થશે તથા ખત ગ્રહણ કરવાની શુ જરૂર છે? તેમા શુ લાભ છે ?” વગેરે ખેડટી શ્રદ્ધાને પશ્ચાત્તાપ થશે અને તે પશ્ચાત્તાપ કરવાથી અત કરણમાં નિર્દેલતા આદિ અનેક આત્મગુણા પ્રગટ એ માટે તથા વ્રતધારીએ જે તે ધારણ કરેલા હશે તે તેમા જે જે અતિચારો લાગી શકે છે તે અતિચારાના તથા કદાચ પૂરા વ્રત ગ્રહણ નહિ કર્યાં હોય તે આજ સુધી વ્રત–ગ્રહણ નહિ કરવામા કહેલે જે પ્રમાદ તેમજ વ્રત વિષેની વિપરીત શ્રદ્ધા તે વિષે પશ્ચાત્તાપ થશે, એટલા માટે વ્રતી અથવા તે અત્રતીએ પ્રતિક્રમણુ કરવુ જોઇએ અન્નતી પણુ શ્રાવક છે અને શ્રાવક હાવાથીજ તેને પ્રતિક્રમણ કરવાના અધિકાર મળીજ જાય છે થશે, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आवश्यकमूत्रस्य ननु पूर्व यदभिहितम्-"साधु साधी पारमारिकाणामिद पडध्ययनास्मरमावश्यकमवश्य करणीय" मिति तद्नतिनामातिना वा ? इति जिज्ञासाया वत्यानिसाधारण्येन सर्वेपामेव तेपा तत्करणीयमिति सिध्यति मुत्रे पतिपदोक्तवया ततन्नामाऽनुपादानात् , पर तदन्तर्वति प्रतिक्रमणार य, चतुर्थमध्ययन तु प्रत सलग्नाचारशुद्धिमेव प्रतिपादयति ततस्तत्करणमातिनामयोग्यमेव, अतिप्वपि भिन्न २ प्रतधारिणो भवन्तीति कथ तेपामिद सपूर्णमभ्ययन युज्यते ? इति चेद् , अत्रो च्यते-अप्रतिनो तिनो वा भवन्तु नाम तथाऽपि न कोऽपि दोपलेशः समुदेतु क्षम', अातिना तद्रहण तच्छूद्धाविपर्यासादिविषयक. तिना गृहीतेषु व्रतेषु सलग्नातिचारात्मकः अगृहीताना चावशिष्टताना तद्रहणप्रमाद-तन्छूद्धाविपयोसादिविषयकश्च पापपश्चाताप, करणीय एव, श्रावकत्वेनैव तेपा तत्करणाधिकारात् । प्रश्न-आपने पहले कहा है कि यह पडध्ययनरूप आवश्यक साधु साध्वी श्रावक और श्राविकाओंको अवश्य करना चाहिए, क्योंकि सूत्र में 'व्रतीको करना चाहिए या अवतीको" ऐसा विशेष कथन नहीं किया गया है, इससे मालूम होता है कि व्रती और अवती दोनोंको ही करना चाहिए, किन्तु इसमे चौथा अध्ययन प्रतिक्रमण का है वह व्रतोंमे लगे हुए अतिचारोकी शुद्धि के लिए किया जाता है। ऐसी अवस्थामें अव्रती जीव प्रतिक्रमण करके शुद्धि किस की करेगा। अब रहे व्रती सो उनमें भी कोई किसी व्रतका धारी होता है, कोई क्सिी व्रतका, उन सब के लिए एकही प्रतिक्रमण (पूरा का पूरा) कैसे उपयुक्त हो सकता है! પ્રશ્ન—આપે પ્રથમ કહ્યું કે- આ છ અધ્યયનરૂપ આવશ્યક સાધુ સાધ્વી અને શ્રાવક-શ્રાવિકાઓએ અવશ્ય કરવા જોઈએ, કારણ કે સૂત્રમા વ્રતધારીઓને કરવા જોઈએ કે અવ્રતીએને? એવું વિશેષ કથન કહેવામાં આવ્યું નથી તેથી જાણું શકાય છે કે-ઘતી અને અગ્રતી સોએ આવશ્યક કરવું જોઈએ, પરંતુ તેમા થુ અધ્યયન પ્રતિક્રમણનું છે તે વ્રતમાં લાગેલા અતિચારેની શુદ્ધિને માટે કહેલ છે, એવી અવસ્થામાં અનતી જીએ પ્રતિક્રમણ કરવું વ્યર્થ છે, જ્યારે તેઓને વતજ નથી તે પ્રતિક્રમણ કરીને શુદ્ધિ કેની કરશે ? હવે વતી વિશે કહેવાનું રહ્યું છે તેમા કેઈ કયા વ્રતના ધારી અને કેઈ કયા વ્રતના ધારી હોય છે, એ સર્વ માટે એક જ પ્રતિક્રમણ કેવી રીતે ઉપયોગી થઈ શકે? Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपिणी टीका प्रस्तावना २५ यथा न खलु कोऽपि "श्रावकोऽयम्" इति ज्ञात्वा अभक्ष्यमकल्प्य वा किश्चिदपि वस्तु समर्पयति, श्रावककुलोत्पन्नत्वेनैव तस्याऽकल्प्यवस्तुजातत्यागित्वमसिद्धेः, तथैवाऽनापि ज्ञातव्यम् । उत्तर-अव्रती हो या व्रती, प्रतिक्रमण सबको पूरा करना चाहिए इसमे कोई दोष नही आसकता, क्योंकि अव्रती प्रतिक्रमण करेगा तो प्रतिक्रमण का महत्व समझनेसे व्रत नही ग्रहण करनेका उसे पश्चात्ताप होगा तथा "व्रत ग्रहण करने की क्या जरूरत है ' इनमें क्या धरा है " इत्यादि मिथ्या श्रद्धा का पश्चात्ताप होगा, इससे अन्तःकरणमे निर्मलता आदि अनेक आत्मगुण प्रकट होंगे। इमलिए, तथा व्रतधारी को ग्रहण किये हुए व्रतो में लगनेवाले अतिचारोंका, तथा यदि उसने पूरे व्रत न लिये हो तो नहीं लिये हुए व्रतोंको ग्रहण करने में किये हुए प्रमाद और व्रत विषयक विपरीत श्रद्धा के विषयमें पश्चात्ताप होगा इसलिए व्रती या अव्रती सयको प्रतिक्रमण करना ही चाहिए, क्योंकि अवती भी श्रावक है और श्रावक होनेसे ही उन्हें प्रतिक्रमण करने का अधिकार हो ही जाता है । उत्तर-मनती (व्रत धारण नहि २ना२) डाय मया प्रती (प्रत ધારણ કરનાર) હેય એ મોએ પૂરેપૂરૂ પ્રતિક્રમણ કરવું જોઇએ, અને એ પ્રમાણે કરવામાં કોડ પ્રકારને દેવ આવી શકતે નથી કારણ કે અવ્રતી પ્રતિક્રમણ કરશે તે પ્રતિક્રમણનું મહત્વ સમજવાથી વ્રત ગ્રહણ નથી કરી શક્યું તેને પશ્ચાત્તાપ થશે તથા “વ્રત ગ્રહણ કરવાની શું જરૂર છે? તેમાં શું લાભ છે ?” વગેરે બેટી શ્રદ્ધાને પશ્ચાત્તાપ થશે અને તે પશ્ચાત્તાપ કરવાથી અત કરણમાં નિર્મલતા આદિ અનેક આત્મગુણે પ્રગટ થશે, એ માટે તથા વ્રતધારીએ જે વ્રતે ધારણ કરેલા હશે તે વ્રતમાં જે જે અતિચારે લાગી શકે છે તે અતિચારોને તથા કદાચ પૂ વ્રતે ગ્રહણ નહિ કર્યા હેય તે આજ સુધી વ્રત-ગ્રહણ નહિ કરવામાં કહેલે જે પ્રમાદ તેમજ વ્રત વિશેની વિપરીત શ્રદ્ધા તે વિષે પશ્ચાત્તાપ થશે, એટલા માટે વતી અથવા તે અગ્રતીએ પ્રતિક્રમણ કરવું જોઈએ અઢતી પણ શ્રાવક છે અને શ્રાવક હેવાથી જ તેને પ્રતિક્રમણ કરવાનો અધિકાર મળી જ જાય છે Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ आवश्यकसूत्रस्य यद्वा-"अखण्डित सूत्रमुच्चारणीय" मित्यनुशासनात् , मूत्रेऽक्षरमात्रस्या हीनतयाऽधिकतया योचारणे "हीणखर अञ्चक्खर" इत्यादिना ज्ञानाऽऽशातना ऽऽख्यापनाच मूत्रमखण्डमेव पठनीयम् , अन्यथा यद्यद्रत गृहीतमस्ति तत्तद्विषय कपाठमेव तस्मानिस्सार्य पठने तु हीनाक्षरात्यक्षरायनेकदोपाः सभवन्ति सर्वेपा तादृशयोग्यताया असभवात् । सत्यामपि योग्यतायामेवकरणेऽन्येषा मीयोदिसभवः 'यदहमप्येव कथ न करोमी' ति, तेन च यथोक्तमूत्रशैलर विश्वससभवात् , तत्तपाठचैपम्याचाऽतिशयेनातिचारसभवस्तस्मात् सर्वैरखण्डतयै सूत्रोच्चारण करणीयमिति सिद्धम् ।। अथवा शास्त्रों में कहा गया है कि-'अखण्डित सूत्रमुच्चारणीयम अर्थात् सूत्र अखण्डित बोलना चाहिए। इस कथन से यह सिद्ध कि खण्डित सूत्र बोला ठीक नहीं है। जिसने जो व्रत लिया। वह यदि उसी व्रतका पाठ निकाल कर पढे तो 'हीनाक्षर' 'अत्यक्षर आदि बोलने के अनेक दोष लगेंगे। क्योंकि सबमें ऐसी योग्यत नहीं होती कि वे उस-उस पाठ को शुद्ध रीति से निकाल कर प सकें। जिन थोडे से व्यक्तियों में ऐसी योग्यता है वे यदि ऐसा करे तो दूसरे अज्ञ जन उनका अनुकरण करने लगेंगे। क्योंकि अधिकार लोग अनुकरणप्रिय होते है। इससे उपरोक्त सूत्र-पठन-शैली । बहुत बाधा पहुँचेगी। अतण्व श्रुतपठन के अतिचार टालने के लि आवश्यकता है कि सूत्र अखण्डित पढा जाय । અથવા શાસ્ત્રોમાં કહેવુ છે કે – "अखण्डित मूनच्चमुच्चारणीयम्" अर्थात सूत्र मति मासपुर मे-२ વાકયથી એ સિદ્ધ થાય છે કે ખાડિત સૂત્ર બેલવુ તે ઠીક નથી જેણે જે વ્રત લીધુ तन मे प्रत। 8 टीन पाये तो "हीनाक्षर अत्यक्षर" मा मने है। લાગશે, કારણ કે સર્વમા એવી યોગ્યતા નથી કે તે સર્વ પાઠને શુદ્ધ રી ઉચ્ચારણ કરી શકે જે ડીએક વ્યકિતઓમા એવી ગ્યતા છે તે છે એ પ્રમા કરશે તે બીજા અજાણ્યા માણસે તેનું અનુકરણ કરવા લાગી જશે કારણ કે મોટા ભાગના માણસને અનુકરણ પ્રિય છે તે કારણથી ઉપ કહેલ સૂર-પઠન-રેલીમા બહુજ હરક્ત આવશે એ કારણથી શ્રુત અભ્યાસ અતિચાર નિવારણ માટે જરૂર છે કે સૂર અખડિત વાચવુ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपिणी टीका प्रस्तावना अस्त्वेव दोपप्रतिविधान तथापि स्वाध्यायजन्य ज्ञानावरणीयकर्मक्षयकर महत्फल त्यतिनामग्यनिवार्यमेव । उक्तञ्च उत्तराध्ययनमूत्रे "सज्झाएण भते! जीवे फि जणयड १ गोयमा ! सज्झाएण नाणावरणिज्ज कम्म खवेड" इति । एव चावतिनामपि तत्कर्तु युज्यत एवेत्यलम् । सामायिकम् (१) ननु 'सामायिकाख्यमययन'-मित्यत्र का सामायिकशब्दार्थः १ समस्य-समभावस्य आय लाभो यस्मिन् तत् समाय तदेव सामायिकम् , रही अव्रती जीवों की यात सो प्रतिक्रमण करने से उन्हें जानावरणीय कर्म का क्षयरूप स्वाध्यायजन्य महत्फल होगा ही। उत्तराध्ययन में कहा भी है-"सज्झाएण भते । जीवे किं जणयइ ? गोंयमा। सज्झाएण जीवे नाणावरणिज्ज कम्म खवेइ।" अर्थात्-श्री गौतमस्वामीने पूछा-"प्रभो। स्वाध्याय से जीव को क्या फल मिलता है " भगवान बोले-"गौतम । स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है।" अत' प्रतिक्रमण अवती जीवों को भी करना ही चाहिए। सामायिक (१) प्रश्न-सामायिकाध्ययन आप कहते हैं, सो 'सामायिक' शब्द का अर्थ क्या है? उत्तर-जिसमे सम-समताभाव का, आय-लाभ हो, उसे હવે અવ્રતી જીની વાત કહીએ તે તે પ્રતિક્રમણ કરવાથી તેને જ્ઞાન વરણીય કર્મના ક્ષયરૂપ સ્વાધ્યાયજન્ય મહાન ફળ થશેજ ઉત્તરાધ્યયન सूत्रमा ध्यु छ - "सज्झाएण भते ! जीवे कि जणयइ ? गोयमा ! सज्झाएण जीवे नाणावरणिज्ज कम्म खवेइ" अर्थात्-श्री गौतम स्वाभीमे पूछ्यु " प्रो ! સ્વાધ્યાયથી જીવેને શુ ફળ મળે છે? ભગવાને કહ્યું કે ગૌતમ? સ્વાધ્યાયથી જીવ જ્ઞાનાવરણીય કર્મને ક્ષય કરે છે આ કારણથી પ્રતિક્રમણ અવ્રતી જીએ પણ કરવું જ જોઈએ સામાયિક પ્રશ્ન-સામાયિકાશ્ચયન આપ કહે છે તે સામાયિક શબ્દને અર્થ શું છે? ઉત્તર–જેમા સમ-સમતા ભાવને આય-લાભ હેય તેને સામાયિક કહે છે Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ आवश्यकमूत्रस्य यद्वा-"अखण्डित सूत्रमुच्चारणीय" मित्यनुशासनात् , मूत्रेऽक्षरमात्रस्यापि हीनतयाऽधिकतया चोच्चारणे "हीणखर अचस्वर" इत्यादिना ज्ञानाऽऽशातना ऽऽख्यापनाच मुत्रमखण्डमेर पठनीयम् , अन्यथा यद्यव्रत गृहीतमस्ति तत्तद्विषयकपाठमेव तस्मान्निस्सायं पठने तु हीनाक्षरात्यक्षरापनेकदोपाः सभवन्ति, सर्वेपा तादृशयोग्यताया असभवात् । सत्यामपि योग्यतायामेवकरणेऽन्येषा मीp दिसभवः 'यदहमप्येव कथ न करोमी' ति, तेन च यथोक्तमूत्रशैल्या विश्वससभवात् , तत्तपाठवैपम्याचाऽतिशयेनातिचारसभवस्तस्मात् सर्वैरखण्डतयैत्र सूत्रोच्चारण करणीयमिति सिद्धम् । अथवा शास्त्रों में कहा गया है कि-'अखण्डित सूत्रमुच्चारणीयम्' अर्थात् सूत्र अखण्डित बोलना चाहिए। इस कथन से यह सिद्ध है कि खण्डित सूत्र बोलना ठीक नहीं है। जिसने जो व्रत लिया है वह यदि उसी व्रतका पाठ निकाल कर पढे तो 'हीनाक्षर' 'अत्यक्षर' आदि बोलने के अनेक दोष लगेंगे। क्योंकि सबमें ऐसी योग्यता नहीं होती कि वे उस-उस पाठ को शुद्ध रीति से निकाल कर पढ़ सकें। जिन थोडे से व्यक्तियों में ऐसी योग्यता है वे यदि ऐसा करेगे तो दूसरे अज्ञ जन उनका अनुकरण करने लगेंगे। क्योंकि अधिकाश लोग अनुकरणप्रिय होते है। इससे उपरोक्त सूत्र-पठन-शैली में बहुत बाधा पहुँचेगी। अतएव श्रुतपठन के अतिचार टालने के लिये आवश्यकता है कि सूत्र अखण्डित पढा जाय। અથવા શાસ્ત્રોમાં કહેવું છે કે – "अखण्डित मूत्रञ्चमुच्चारणीयम्" अर्थात् सूत्र अपडित मासपुर मे-मा વાક્યથી એ સિદ્ધ થાય છે કે ખાડેત સૂત્ર બેલવું તે ઠીક નથી જેણે જે વ્રત લીધુ છે. तन मेरा तन 8 दीन पाये तो "हीनाक्षर अत्यक्षर" मा भने ष લાગશે, કારણ કે સર્વમાં એવી યોગ્યતા નથી કે તે સર્વ પાઠને શુદ્ધ રીતે ઉચ્ચારણ કરી શકે જે ડીએક વ્યકિતઓમાં એવી ગ્યતા છે તે જે એ પ્રમાણે કરશે તે બીજા અજાણ્યા માણસે તેનું અનુકરણ કરવા લાગી જશે કારણ કે મોટા ભાગના માણસને અનુકરણ પ્રિય છે તે કારણથી ઉપર કહેલ સ-પઠન-શિલીમાં બહુજ હરત આવશે એ કારણથી શ્રત અભ્યાસના અતિચાર નિવારણ માટે જરૂર છે કે સૂર અખડિત વાચવુ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपिणी टीका भस्तावना २९ "चउचीसत्थएण भते । जीचे कि जणयइ १ गोयमा ! चउवीसत्थएण दसणविसोहिं जणयइ ।” इति । दर्शनशुद्धया च जीव आत्मस्वरूप लभते, यथा भृद्भगृहस्थितः कीटविशेषः स्वस्यौघदशायामपि तन्छन्ददृढसस्कारेण भृङ्गता प्रतिपयते तथैव जीवोऽपि भक्त्युदेकेण परम्परया शुद्धस्वरूप लभतेऽतो द्वितीयमावश्यक चतुर्विंशतिस्तवाख्यमस्ति । २। चाहिये । इससे वीतराग प्रभु में जीव की भक्ति होती है । भक्ति से दर्शन की विशुद्धि होती है। कहा भी है " चउवीसत्थएण भते । जीवे कि जणयह ? चउवीसत्यएणदसणविसोहिंजणयह।" अर्थात् श्री गौतम स्वामीने पूछाभगवन् । चतुर्विंशतिस्तव का जीव को क्या फल होता है ? भगवान् ने उत्तर दिया-दर्शनविशुद्धि होती है। दर्शनविशुद्धि से आत्मा को शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति होती है। जैसे भौरे के घर मे रहा हुआ कीडा अपनी ओघदशा में भी उसके शब्द के दृढ सस्कार से मौरा बन जाता है, उसी प्रकार जीव चतुर्विंशतिस्तव द्वारा परम्परा से अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता है। अतः दूसरा चतुर्विशतिस्तव है। यतुर्विशतिस्तव (२) સામાયિક પછી એવી જિનેન્દ્ર દેવેની સ્તુતિ કરવી જોઈએ, એ વડે વીતરાગ પ્રભુમા જીવેને ભકિત થાય છે, અને ભકિતથી દર્શનની વિશુદ્ધિ થાય છે खु प छ 3-- चउवीसत्थएण भते जीवे फि जणयइ ? चउवीसस्थएणं दसणविसोहि जणयइ । अर्थात श्री गौतम ५७यु-भगवन् ! यतुर्विशतिस्तव (સ્તવન) કરવાથી જીવને શુ ફલ થાય છે? ભગવાને ઉત્તર આપે કે દર્શનવિશુદ્ધિ થાય છે દર્શનવિશુદ્ધિથી આત્માને શુદ્ધ સ્વરૂપની પ્રાપ્તિ થાય છે જેવી રીતે ભમ રીના ઘરમાં રહેલે કીડે પિતાની એઘદશામાં પણ તેના શબ્દો દઢ સંસ્કારથી ભમરી બની જાય છે જેને “કીટ ભગી ન્યાય કહે છે તે પ્રમાણે જીવ ચતુ વિંશતિસ્તવથી પરમ્પરાથી પોતાના શુદ્ધ સ્વરૂપને પ્રાપ્ત કરે છે તેથી બીજુ સ્થાન ચતુર્વિશતિસ્તવનું છે Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ आवश्यकमूत्रस्य - - अर्थात् पाणिमात्रे समभाषपूर्वक सावधव्यापारविरतिसम्पादकम् , उक्तश्च"सामाइएण भते ! जीवे किं जणयइ ? सामाइएण सावजजोग विरइ जणयइ" ___ समभावेन चित्तस्थैर्य भवति, तस्मिंश्च सत्येव सकलाः क्रिया यथोक्तविधिना सम्पद्यन्ते, तस्मात् प्रथममिद सामायिकाभ्ययनमुपन्यस्तम् । चतुर्विशतिस्तवः (२) तदनन्तर चतुर्विंशतिजिनस्तुतिः कर्तव्या, सा च जीवस्य परमात्मनि सद्भक्तिं जनयति, तया च दर्शनशुद्धिः सजायते, उक्तञ्चसमाय कहते हैं और उसीको सामायिक कहते हैं । अर्थात् प्राणी मात्र में समता धर कर समस्त सावध व्यापार का त्याग करना। कहा भी है-"सामाइएण भते! जीवे कि जणयइ १ सामाइएण सावजजोगविरड जणयइ।" अर्थात् श्रीगौतम स्वामीने पूछा प्रभो । सामायिकसे जीव को क्या फल होता है। भगवान ने उत्तर दिया'हे गौतम ! सामायिक से सावध योग की निवृत्ति होती है और समभाव उत्पन्न होता है, समभाव से चित्त मे स्थिरता आती है, और चित्त की स्थिरता से ही समस्त क्रियाएँ विधि के अनुसार सम्पादित होती हैं । अतः पहले-पहल सामायिक अध्ययन कहा गया है। चतुर्विंशतिस्तव (२) सामायिक के अनन्तर चौवीस जिनेन्द्रों की स्तुति करनी અથ–પ્રાણી માત્રમાં સમતભાવ રાખીને સમસ્ત સાવદ્ય (પાપમય) વ્યાપારને ત્યાગ કરે घु पy छ - "सामाइएण भते ! जीवे कि जणयइ' गोयमा! सामाइएण सावज्जजोगविरइ जणयइ" અર્થાત-શ્રી ગૌતમ ગણધરે પૂછ્યું કે હે પ્રભે! સામાયિક કરવાથી જીવને શુ ફળ થાય છે? ભગવાને ઉત્તર આપે કે હે ગૌતમ! સામાયિક કરવાથી સાવધ ચાગની નિવૃત્તિ થતા સમભાવ ઉત્પન્ન થાય છે અને સમભાવથી સાવદ્ય ક્રિયાની નિવૃત્તિ થાય છે, તેથી ચિત્તમાં સ્થિરતા આવે છે, અને ચિત્તની સ્થિરતાથી સમસ્ત ક્રિયાઓ વિધિ-અનુસાર પ્રાપ્ત થાય છે એ કારણથી પ્રથમ સામાયિક અધ્યયન કહેલુ છે Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ मुनितोपिणी टीका प्रस्तावना "चउवीसत्थएण भते । जीवे किं जणयइ ? गोयमा । चउवीसत्थएण दसणविसोहिं जणयइ ।" इति । दर्शनशुद्धया च जीव आत्मस्वरूप लभते, यथा भृङ्गगृहस्थितः कीटविशेषः स्वस्यौघदशायामपि तन्छन्ददृढसस्कारेण भृङ्गता प्रतिपयते तथैव जीवोऽपि भक्युटेकेण परम्परया शुद्धस्वरूप लभतेऽतो द्वितीयमावश्यक चतुर्विंगतिस्तवारयमस्ति । २। चाहिये । इमसे वीतराग प्रभु में जीव की भक्ति होती है। भक्ति से दर्शन की विशुद्धि होती है। कहा भी है "चउवीसत्यएण भते । जीवे कि जणयह ? चउवीसत्यएणदसणविसोहिंजणयड। -अर्थात् श्रीगौतम स्वामीने पूछाभगवन् ! चतुर्विंशतिस्तव का जीव को क्या फल होता है ? भगवान् ने उत्तर दिया-दर्शनविशुद्धि होती है । दर्शनविशुद्धि से आत्मा को शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति होती है। जैसे भौरे के घर मे रहा हुआ कीडा अपनी ओघदशा मे भी उसके शब्द के दृढ सस्कार से भौरा बन जाता है, उसी प्रकार जीव चतुर्विंशतिस्तव द्वारा परम्परा से अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता है। अतः दूसरा चतुर्विंशतिस्तव है। यतुविशतिस्तव (२) સામાયિક પછી એવી જિનેન્દ્ર દેવેની સ્તુતિ કરવી જોઈએ, એ વડે વીતરાગ પ્રભુમાં જીને ભકિત થાય છે, અને ભકિતથી દર્શનની વિશુદ્ધિ થાય છે यु पर छे - चउवीसत्थएण भते जीवे किं जणयइ ? चउवीसस्थएणं दसणविसोहिं जणयइ । अर्थात श्री गौतमे ५७यु-भगवन् । यतुविशतिस्तव (સ્તવન) કરવાથી જીવને શુ ફલ થાય છે? ભગવાને ઉત્તર આપે કે દર્શન વિશુદ્ધિ થાય છે દર્શનવિશુદ્ધિથી આત્માને શુદ્ધ સ્વરૂપની પ્રાપ્તિ થાય છે જેવી રીતે ભમ રીના ઘરમાં રહેલે કીડે પિતાની ઓઘદશામાં પણ તેને શબ્દના દૃઢ સસ્કારથી ભમરી બની જાય છે જેને “કીટ ભૂગ ન્યાય કહે છે તે પ્રમાણે જીવ ચતુ વિંશતિસ્તવથી પરમ્પરાથી પિતાના શુદ્ધ સ્વરૂપને પ્રાપ્ત કરે છે તેથી બીજુ સ્થાન ચતુર્વિશતિસ્તવનું છે Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य - - - - चन्दनम् (8) पापपर्यालोचन तु बन्दनपूर्वक गुरुसमक्षमेव करणीयमिति ततीय वन्दना ख्यमध्ययनमुक्तम् । चन्दनकेन हि जीवस्योच्चगोत्रादिवन्धो जायते, तथोक्तम् ___ "वदणएण भते ! जीवे कि जणयइ ? बदणएण जीवे नीयागोय खवेइ उच्चागोय कम्म निवघइ, सोहग्ग च ण अप्पडिहयआणाफल निवत्तेइ दाहिणभाव च ण जणयइ" इति वन्दनाख्य तृतीयमभ्ययनमुक्तम् । वन्दना (३) पाप की आलोचना वन्दनापूर्वक गुरू के सामने ही करनी चाहिए, यह बात बताने के लिये तीसरा वन्दना नामक अध्ययन है। वन्दना से उच्च गोत्र का बन्ध तथा अन्यान्य फल होते हैं। कहा भी है-"वदणएण भते ! जीवे किं जणयह ? वदणएण जीवे नीयागोय खवेइ उच्चागोय कम्म निवधइ, सोहाग च ण अप्पडिय आणाफल निवत्तेइ, दाहिणभाव च ण जणयह ” अर्थात् गौतमस्वामी ने पूछा-प्रभो । वन्दना से जीव को क्या फल होता है। भगवान् ने उत्तर दिया-वन्दना से नीच गोत्र का क्षय होता है, उच्च गोत्र का बन्ध होता है, सौभाग्य और अप्रतिहत आज्ञा फल को प्राप्त करता है, तथा दाक्षिण्य (अनुकूलता) की प्राप्ति होती है । यह तीसरा अध्ययन हुआ। वन1 (3) પાપની આલોચના વદનાપૂર્વક ગુરુની સમીપેજ કરવી જોઈએ, એ વાત બતાવવા માટે ત્રીજુ વદને નામક અધ્યયન છે વદન વડે કરીને ઉચ્ચ ગેત્રને બધ તથા અન્યાન્ય ફળ પ્રાપ્ત થાય છે કહ્યું છે કે वदणएण भते ! जीवे किं जणयइ १ वदणएण जीवे नीयागोय खवेइ उच्चागोय कम्म निवन्धइ, सोहग्गचण अप्पडिहय आणाफल निवइ, दाहिणभाव चण जणयइ" અર્થત શ્રી ગૌતમ સ્વામીએ પૂછયુ- હે પ્રભે? વદના કરવાથી જીવને શુ ફલ થાય છે? ભગવાને ઉત્તર આપે–ગૌતમ? વદના કરવાથી નીચ ગેમને ક્ષય થાય છે, અને ઉચ્ચ ગેત્રનો બધ થાય છે, સોભાગ્ય અને અપ્રતિહત આજ્ઞા ફલને પ્રાપ્ત કરે છે તથા દાક્ષિણ્ય (અનુકૂલતા) ની પ્રાપ્તિ થાય છે આ ત્રીજુ અધ્યયન થયુ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषिणी टीका प्रस्तावना प्रतिक्रमणम् ( ४ ) वन्दनानन्तर पापप्रायश्चित कर्त्तव्यतयोल्लिखित दिवसे रात्रौ वा यथा कथञ्चित् कोऽप्यतिचारः सलग्नस्तत्मकाशन - तदनुतापन तन्निन्दादिविधानेन प्रतिक्रमण विधेय भव्यैः, अनेन व्रतगतच्छिद्राच्छादन जायते, तेनाऽऽगन्तुकाऽऽस्रवजलमात्मनि न प्रविशतीत्यादि बहुविध फल जीवो लभते तथा चोक्तम्" पडिकमणेण भते ! जीवे किं जणयइ ? पडिकमणेण वयच्छिदार पुण जीवे निरुद्धासवे असवलचरिते असु पत्रयणमायासु ક अपुहते + 36 १ ३१ (४) · करने का विधान किया गया है । भी अतिचार लगा हो उसकी निन्दा आदि "तिक्रमण करने से 14 वाला आस्रव पाता । इत्यादि ते । जीवे किं उद्दे पुण जीवे उत्ते अपुहते 4 અથવા રાત્રીએ તેને પશ્ચાત્તાપ તિક્રમણ કરવાથી બાસવરૂપી જલ पल थाय छे, - पिछेइ, उत्ते Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य - वन्दनम् (३) पापपर्यालोचन तु वन्दनपूर्वक गुरुसमक्षमेव करणीयमिति ततीय वन्दनाख्यमध्ययनमुक्तम् । चन्दनकेन हि जीवस्योञ्चगोत्रादिव-धो जायते, तथोक्तम् "वदणएण भते ! जीवे किं जणयइ ? वदणएण जीवे नीयागोय खवेइ उच्चागोय कम्म निवघइ, सोहग्ग च ण अप्पडिहयआणाफल निवत्तेइ दाहिणभाव च ण जणयइ” इति वन्दनाख्य तृतीयमययनमुक्तम् । वन्दना (३) __ पाप की आलोचना वन्दनापूर्वक गुरू के सामने ही करनी चाहिए, यह बात बताने के लिये तीसरा वन्दना नामक अध्ययन है। वन्दना से उच्च गोत्र का बन्ध तथा अन्यान्य फल होते हैं। कहा भी है-"वदणएण भते ! जीवे किं जणयइ ' वदणएण जीवे नीयागोय खवेइ उच्चागोय कम्म निवधइ, सोहग्ग च ण अप्पडिय आणाफल निवत्तेइ, दाहिणभाव च ण जणयइ" अर्थात् गौतमस्वामी ने पूछा-प्रभो । वन्दना से जीव को क्या फल होता है ? भगवान् ने उत्तर दिया-वन्दना से नीच गोत्र का क्षय होता है, उच्च गोत्र का बन्ध होता है, सौभाग्य और अप्रतिहत आज्ञा फल को प्राप्त करता है, तथा दाक्षिण्य (अनुकूलता) की प्राप्ति होती है। यह तीसरा अध्ययन हुआ। कहना (3) પાપની આલોચના વદનાપૂર્વક ગુરુની સમીપેજ કરવી જોઈએ, એ વાત બતાવવા માટે ત્રીજુ વદના નામક અધ્યયન છે વદન વડે કરીને ઉચ્ચ ગોત્રને બધ તથા અન્યાન્ય ફળ પ્રાપ્ત થાય છે કહ્યું છે કે – पदणएण भते ! जीरे किं जणयइ १ चदणएण जीवे नीयागोय खवेइ उच्चागोय कम्म निवन्धइ, सोहग्ग चणअप्पडिहय आणाफल निवचेइ, दाहिणभाव चण जणयई" અથશ્રી ગૌતમ સ્વામીએ પૂછયુ-હે પ્રભેરવદના કરવાથી જીવને શુ ફલ થાય છે? ભગવાને ઉત્તર આપેગૌતમ? વદના કરવાથી નીચ ગોત્રને ક્ષય થાય છે, અને ઉચ્ચ ગોત્રને બધ થાય છે, સૌભાગ્ય અને અપ્રતિહત આજ્ઞા ફલને પ્રાપ્ત કરે છે તથા દાક્ષિણ્ય (અનુલતા) ની પ્રાપ્તિ થાય છે આ ત્રીજુ અધ્યયન થયુ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपिणी टीका भस्तावना प्रतिक्रमणम् (४) वन्दनानन्तर पापप्रायश्चित कर्तव्यतयोल्लिखित, दिवसे रात्रौ वा यथा कथञ्चित् कोऽप्यतिचारः सलग्नस्तत्मकाशन-तदनुतापन तन्निन्दादिविधानेन प्रतिक्रमण विधेय भव्यैः, अनेन व्रतगतच्छिद्राच्छादन जायते, तेनाऽऽगन्तुकाऽऽस्रवजलमात्मनि न प्रविशतीत्यादि बहुविध फल जीवो लभते, तथा चोक्तम्-- __“पडिक्मणेण भते ! जीवे किं जणयह ? पडिक्मणेण वयच्छिद्दाइ पिहेइ, पिहियवयन्छिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरिते असु पवयणमायासु प्रतिकमण (४) वन्दना के बाद प्रायश्चित्त करने का विधान किया गया है। दिन मे या रात में किसी भी प्रकार जो कोई भी अतिचार लगा हो उसे प्रकट करके, उसका पश्चात्ताप करके तथा उसकी निन्दा आदि करके भव्य जीवों को प्रतिक्रमण करना चाहिये । प्रतिक्रमण करने से व्रतों में लगे हुए दोप मिट जाते है। आगे आने वाला आस्रव रूपी जल आत्मा रूपी नौका में प्रवेश नहीं कर पाता। इत्यादि अनेक लाभ होते है। कहा भी है-"पडिक्कमणेण भते । जीवे किं जणयइ ? पडिक्कमणेण वयच्छिद्दाइ पिहेड, पियिवयच्छिद्दे पुण जीवे निरद्धासवे, असवलचरिते अहसु पवयणमायासु उपउत्ते अपुहत्त सुप्पणिहिए विहरइ ।" प्रतिभY (४) વદના પછી પ્રાયશ્ચિત્ત કરવાનું વિધાન કરેલું છેદિવસમાં અથવા રાત્રીએ કઈ પણ પ્રકારને જે અતિચાર લાગ્યો હોય તે પ્રગટ કરીને તેને પશ્ચાત્તાપ કરીને તથા તેની નિંદા કરીને ભવ્ય જીવેએ પ્રતિક્રમણ કરવું જોઈએ પ્રતિક્રમણ કરવાથી તેમાં લાગેલા દોષનું નિવારણ થાય છે, આગળ આવવાવાળા આવરૂપી જલ આત્મારૂપી નૌકામાં પ્રવેશ કરવા પામતા નથી ઈત્યાદિ અનેક લાભ થાય છે, ४ छ - पडिक्कमणेण भते ! जीवे फि जणयइ ? पडिकमणेण वयच्छिद्दाइ पिहेइ, पिहियवयच्छिद्दे पुण जीवे निरुद्वासवे असवलचरित्ते, अढस पवयणमायाम उवउत्ते अपुहत्ते मुप्पणिहिए विहरइ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ आवश्यफमूत्रस्य - --- - - उवउत्ते अपुडत्ते सुपणिहिरा विहरड" । तस्मादिद प्रतिक्रमणारय चतुर्थमावश्यरुमभिहितम् । कायोत्सर्गः () पूर्वक्रियया मानसिकी गाचिकी च शुद्धिः सजाता, तदनन्तर कायिकी शुद्धिरावश्यकीति कायमर्थान्कायममत्व त्यक्त्वाऽऽत्मन्येव रमण जायते तेन हे भदन्त । प्रतिक्रमण करने से किम फल की प्राप्ति होती है ? हे गौतम !-प्रतिक्रमण, व्रतों के छिद्रों को रोकता है, व्रतों के छिद्र रुकजाने से जीव आस्रवरहित होता है, आस्रव रुक जाने से चारित्र निर्मल होता है, चारित्र निर्मल होने से अष्ट' प्रवचन माता में उपयोगवान् (समिति गुप्ति के आराधन में सावधान) होता है, जिससे सयम में तत्परता होती है, और मन, वचन, काया के योग असद्मार्ग से रुक जाते हैं, अतएव वह समाधिभावयुक्त हो कर विचरता है। यह प्रतिक्रमण नामक चौथा अध्ययन हुआ। कायोत्सर्ग (५) पहले की क्रियाओं से मानसिक और वाचिक शुद्धि हुई। હે ભદન્ત ! પ્રતિક્રમણ કરવાથી કયા ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે? હે ગૌતમ? પ્રતિક્રમણ વ્રતના છિદ્રોને રેકે છે વ્રતના છિદ્રો કાઈ જવાથી જીવ આસવરહિત થાય છે આસવ રેકાઈ જવાથી ચારિત્ર નિર્મળ થાય છે અને ચારિત્ર નિર્મળ હોવાથી આઠ પ્રવચનમા ઉપગવાન (સમિતિ ગુપ્તિની આરાધનામાં સાવધાન) બને છે, તેથી સયમમા તત્પરતા વધે છે અને મન વચન કાયાના યોગ અસત્ય માર્ગથી રેકાઈ જાય છે જેથી તે સમાધિભાવવાળ થઈ વિચરે છે. આ પ્રતિક્રમણ નામનું ચોથું અધ્યયન થયુ પ્રથમની ક્રિયાઓ વડે માનસિક અને વાચિક શુદ્ધિ થઈ તેના પછી કાયિક શદ્ધિ કરવી જરૂરી છે કાયા ધર્મને આધાર તથા નિમિત્ત ત્યારે બની શકે टि. १-पाच समिति और तीन गुप्ति मिलकर आठ प्रवचनमाता है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका प्रस्तावना चातीतप्रत्युत्पन्नप्रायश्चित्तविशुद्धयादिभिः प्राणी सुखी भवति, उक्तश्चात्र " काउसग्गेण भते । जीवे किं जणय ? काउसग्गेण तीयपड़प्पन्नपायच्छित्त विसोहेड, विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे निव्बुयहियए ओहरियभरुव्वभारवहे पसत्थज्झाणो गए सुहसुहेण विहरइ " । इत्यतोऽस्य पञ्चमा-ययनस्य ' कायोत्सर्ग' इति नाम । ३३ इसके पश्चात् कायिक शुद्धि करना आवश्यक है । काय धर्म का आधार और निमित्त तब ही बन सकता है जब उसमें आत्मीयताममता न रहे। शरीर में ममता न होने को ही कायोत्सर्ग कहते हैं । यह कायोत्सर्ग धर्मसाधक होने से कायिकशुद्धिरूप है । अतएव कायिकशुद्धि करने के लिये कायोत्सर्ग नामक पाँचवाँ अध्ययन कहा गया है । इससे अतीत अनागत तथा वर्तमान - कालीन प्रायश्चित्त की विशुद्धि आदि होती है और इससे आत्मा सुखी होती है । कहा भी है- " काउस्सग्गेण भते । जीवे किं जणयइ ? काउसग्गेण तीयपपन्नपायच्छित्त विसोहेह, विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे निव्यहियए ओहरियभरुव्वभारवहे पसत्थज्झाणो गए सुरसुहेण विहरइ । ” हे भगवन् । काउस्सग ( कायोत्सर्ग ) करने से किस फलकी प्राप्ति होती है ! हे गौतम! कायोत्सर्ग से अतीत अनागत और છે કે —જ્યારે કાયામા આત્મીયતા—મમતા ન રહે, એટલે કે શરીરમા મમતારહિતપણુ તેનેજ કાર્યોત્સર્ગ કહે છે તે કાર્યોત્સર્ગ ધર્માંસાધક હાવાથી તે કાયિક શુદ્ધિરૂપ છે. એટલા માટે કાયિત શુદ્ધિ કરવા અર્થે કાયેત્સર્ગ નામનું પાંચમુ અધ્યયન કહ્યુ છે તેવી અતીત અનાગત અને વમાન કાલની પ્રાયશ્ચિત્તવિશુદ્ધિ વગેરે થાય છે, અને તેથી આત્મા સુખી થાય છે " કહ્યું પણ છે કે काउस्सग्गेण भते ! जीवे किं जणयइ ? काउसग्गेण तीयपपन्नपायच्छित विसोहेइ, विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे निव्युयहियए ओहरियमन्वभाव पसत्यन्झाणो गए मुहमुद्देण विहरइ ।” હે ભગવાન્ ! કાઉસગ્ગ (કાયાસ) કરવાથી કયા ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે? હૈ ગૌતમ! કાયેટ્સથી અતીત અનાગત અને વમાનમા લાગેલા અતિચારીની Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ आवश्यकमूत्रस्य प्रत्याख्यानम् (६) प्रत्याख्यान नाम इच्छानिरोधः । सर्वाः क्रियाः स्वीकृताचेत्तहि इच्छानिरोधोऽप्यवश्य करणीयः । सुवर्णादिभूपणानामुज्ज्वलीकरणक्रियेच प्रत्याख्यान मिद विशिष्टात्मशक्केरारिष्करणाय प्रभवति, अतो यथाशक्ति प्रत्याख्यान करणीयमेव, आस्रवद्वारनिरोधादिविशिष्टफलपतिपादकम् , उक्त पञ्चक्खाणेण भते ! जीवे कि जणयइ ? पञ्चक्खाणेण आसवदाराइ निम्भइ, पचक्खाणेण इच्छानिरोद्द जणयइ, इच्छानिरोहगए ण जीचे सव्वदन्वेस वर्तमान में लगे हुए अतिचारों की शुद्धि होती है और हृदय विशुद्ध होता है, हृदय विशुद्ध होने से आत्मा कर्मभार से हलका होकर प्रशस्तध्यानयुक्त बनता है, और समाधिभावमे विचरण करता है। प्रत्याख्यान (६) प्रत्याख्यान इच्छा के निरोध को कहते हैं। जब पूर्वोक्त सभी क्रियाएँ स्वीकार करली तो इच्छा का भी निरोध अवश्य करना चाहिए। जैसे सफाई करने से सोनेके आभूषण की उज्ज्वलता बढती है, वैसे ही प्रत्याख्यान से आत्मा में विशिष्ट शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। अतएव आश्रव द्वार के निरोध आदि विशिष्ट फलको देने वाला प्रत्याख्यान करना ही चाहिए। कहा भी है-"पञ्चक्खाणेण भते ! जीवे किं जणयइ ? पच्चक्खाणेण आसवदाराइ निरुभइ, पचक्खाणेण શુદ્ધિ થાય છે અને હૃદય વિશુદ્ધ બને છે હદય વિશુદ્ધ થવાથી આત્મા કર્મભારથી હવે ઈ પ્રશસ્તધ્યાની બને છે અને સમાધિભાવમા વિચરણ કરે છે प्रत्याभयान (8) ઈચ્છાને નિરોધ કરે તેને પ્રત્યાખ્યાન કહે છે, જયારે પૂર્વ કહેલી તમામ કિયાઓને સ્વીકાર કરી લીધું તે પછી ઈચ્છાને નિરાધ પણ અવશ્ય કરવે જોઈએ જેવી રીતે સફાઈ કરવાથી સેનાના આભૂષણની ઉજવલતા વધે છે, તેવી જ રીતે પ્રત્યાખ્યાનથી આત્મામાં વિશિષ્ટ શકિત ઉત્પન્ન થાય છે એટલા માટે આવદ્વારના નિધિ આદિ વિશિષ્ટ ફલને આપવાવાળા પ્રત્યાખ્યાન શ્રતને કરવું જ नमे घुछ- "पच्चक्खाणेण भते! जीवे किं जणयइ ? पच्चक्खाणेण Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका पम्तावना विणीयतण्हे सीइभूए विहरइ ।" इति पष्ठमावश्यक प्रत्याख्यानाख्य समुपन्यस्तम् । एतद्धि पडध्ययनात्मकमावश्यक (प्रतिक्रमण) सर्वेपामुभयकाल करणीयमेव । तापि साधनामनिवार्यतया कर्तव्यमेतत् । यथाऽतिस्वन्छवस्त्रेषु कालिमापातशङ्का, निना च लुण्टाकायातको विशेषरूपेण जञ्जन्यते तथैव, शुद्धचारित्रइच्छानिरोह जणयह, इच्छानिरोगए ण जीवे सव्वदव्वेसु विणीयतण्हे सीडभूए विदरड ।” हे भदन्त ! पचक्खाण (प्रत्याख्यान) करने से किस फल की प्राप्ति होती है। हे गौतम ! प्रत्याख्यान करने से आस्रवद्वार रुक जाते हैं और इच्छा का निरोध होता है, इच्छा के निरोध से आहारादि में तृष्णा रुक जाती है, और तृष्णावरोव से आत्मा बाह्य तथा आभ्यन्तरिक सन्ताप से रहित होती है। ___यह प्रत्याख्यान नामक छट्टा आवश्यक हुआ। ये उहों आवश्यक यद्यपि सभी को उभय काल करना चाहिए, तो भी साबुओं के लिये उभय काल करना अनिवार्य है। जैसे अत्यन्त स्वच्छ कपडे पर धब्या लगने की आशका रहती है या धनवानों को लुटेरों का डर विशेप रूप से रहता है, उसी प्रकार आसवदारार निरुभद, पच्चक्खाणेण इच्छानिरोह जणयइ, इच्छानिरोहगए ण जीवे सचदम्बेसु चीणीयतण्हे सीडभूए विहरइ." હે ભદન્ત ! પચ્ચખાણ (પ્રત્યાખ્યાન) કરવાથી કયા ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે? હે ગૌતમ! પ્રત્યાખ્યાન કરવાથી આસવાર રેકાઈ જાય છે અને ઈચ્છાનિરોધ થાય છે, ઈચ્છાનિધિથી આહારાદિમાં તૃષ્ણા રેકાઈ જાય છે તેમજ તૃષ્ણવરોધથી આત્મા બાહ્ય આભ્યન્તરિક સન્તાપથી રહિત થઈ જાય છે આ પ્રત્યાખ્યાન નામનું છઠ્ઠું આવશ્યક પૂર્ણ થયુ આ છ આવશ્યક છે કે સર્વને ઉભય કાળ કરવા જોઈએ, તે પણ સાધુઓ માટે તે બન્ને કાળ કરવું અનિવાર્ય છે જેમ કે સ્વરછ કપડા ઉપર ડાઘ લાગવાની શકા રહે છે અથવા તે ધનવાનને લુટારાને ભય વિશેષ રહે છે તેવી રીતે શુદ્ધ-ચરિત્ર ધારી જ્ઞાન આદિ ગુણેથી વિભૂષિત સાધુઓને પાપને ભય બહુજ રહે છે એ માટે Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य प्रत्याख्यानम् (६) प्रत्याख्यान नाम इच्छानिरोधः । सर्वाः क्रियाः स्वीकृताश्चेत्तहि इच्छानिरोधोऽप्यवश्य करणीयः । सुवर्णादिभूपणानामुज्ज्वलीकरणक्रियेव प्रत्याख्यानमिद विशिष्टात्मशक्केराविष्करणाय प्रभवति, अतो यथाशक्ति प्रत्याख्यान करणीयमेव, आस्रवद्वारनिरोधादिविशिष्टफलपतिपादकम् , उक्तश्च पञ्चक्खाणेण भते ! जीवे किं जणयइ ? पञ्चक्खाणेण आसवदाराइ निरुभइ, पञ्चक्खाणेण इच्छानिरोह जणयइ, इच्छानिरोहगए ण जीवे सबदव्वेसु वर्तमान मे लगे हुए अतिचारों की शुद्धि होती है और हृदय विशुद्ध होता है, हृदय विशुद्ध होने से आत्मा कर्मभार से हलका होकर प्रशस्तध्यानयुक्त बनता है, और समाधिभावमें विचरण करता है। प्रत्याख्यान (६) प्रत्याख्यान इच्छा के निरोध को करते हैं। जब पूर्वोक्त सभी क्रियाएँ स्वीकार करली तो इच्छा का भी निरोध अवश्य करना चाहिए। जैसे सफाई करने से सोनेके आभूषण की उज्ज्वलता बढती है, वैसे ही प्रत्याख्यान से आत्मा मे विशिष्ट शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। अतएव आश्रव द्वार के निरोध आदि विशिष्ट फलको देने वाला प्रत्याख्यान करना ही चाहिए। कहा भी है-"पञ्चक्खाणेण भते ! जीवे कि जणयइ १ पच्चक्खाणेण आसचदाराइ निरुभइ, पचक्रवाणेण શુદ્ધિ થાય છે અને હૃદય વિશુદ્ધ બને છે હૃદય વિશુદ્ધ થવાથી આત્મા કર્મભારથી હલ થઈ પ્રશસ્તધ્યાની બને છે અને સમાધિભાવમાં વિચરણ કરે છે अत्याध्यान () ઈચ્છાને નિરોધ કરે તેને પ્રત્યાખ્યાન કહે છે, જયારે પૂર્વ કહેલી તમામ ક્રિયાઓને સ્વીકાર કરી લીધું તે પછી ઈરછાને નિરોધ પણ અવશ્ય કર જોઈએ જેવી રીતે સફાઈ કરવાથી સેનાના આભૂષની ઉજજવલતા વધે છે, તેવી જ રીતે પ્રત્યાખ્યાનથી આત્મામાં વિશિષ્ટ શક્તિ ઉત્પન્ન થાય છે એટલા માટે આસવદ્વારના નિધિ આદિ વિશિષ્ટ ફલને આપવાવાળા પ્રત્યાખ્યાન વ્રતને કરવું જ नमे घुछ - "पच्चरखाणेण मते! जीवे कि जणयइ ? पच्चक्खाणेण Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका प्रस्तावना ३७ तदानीं धर्ममन्तरेण नान्यः कोऽपि तस्य शरणीभूय तदाति दूरयितुं प्रभवति । तस्मिंश्च क्षणे स पूर्वकृतातिचारादीनि स्मार स्मार बहुधा पश्चात्ताप विधत्ते । अङ्कुरतामापादितः कालान्तरेण दृढमूल पापवृक्षः पथाद्दुरुत्पाटनीयो भवति, अतः पूर्व वीजमेव न वपनीयमिति प्रथमा बुद्धिमत्ता । यदि कथञ्चिदुप्तमपि भवेत् तर्हि तत्क्षण एवं तन्मूलोन्मूलनाय प्रयतनीयमिति द्वितीया । एवमपि नो चेत्तर्हि पश्चात्तापादिना तच्छैथिल्य स्ववश्य विधेयम्, येन वृद्धोऽपि दुखफलकः पापवृक्षो निस्सारत्वेन कालान्तरे दुःखलक्षणकटुफलं जनहुआ समस्त ससार में शरण खोजता है तब धर्म के सिवा और कोई भी शरण नही होता, न कोई उसकी चिल्लाहट मिटा सकता है । उस समय वह पहले किए हुए अतिचार आदि का स्मरण कर-करके अत्यन्त पश्चात्ताप करता है । अकुरित हुआ तथा कुछ कालमें दृढ जडवाला होकर वह पापवृक्ष फिर बडे कष्टसे उखाडने योग्य होता है, इसलिए बीज न होना पहली श्रेणी को बुद्धिमत्ता है । यदि असावधानी से बोया गया हो तो तत्काल समूल उखाडने के लिए प्रयत्न करना दूसरे दर्जे की बुद्धिमत्ता है । यदि यह भी न हो सके तो पश्चात्ताप आदि करके उसे शिथिल तो अवश्य कर देना चाहिए, जिससे कि दुखरूप फल देनेवाला पापवृक्ष निस्सार होजाने के कारण રમા શણુને શેાધે છે ત્યારે ધર્મ વિના ખીજી ભયને ધર્મ વિના કાઈ મટાડી શકતુ નથી તે આદિનું સ્મરણ કરી કરીને અત્યન્ત પશ્ચાત્તાપ કરે છે કોઈ શરણુ નથી થતુ તેમજ તેના સમયે તેણે પ્રથમ કરેલા અતિચારા અકુનિત થયેલ તથા થાડા સમયમાં દૃઢમૂળવાળુ બનીને તે પાપવૃક્ષ *ીને મેટા કષ્ટથી ઉખડી શકે તેવુ થઈ જાય છે એટલા માટે પ્રથમ બીજરૂપે થવા ન દેવું તે પહેલી શ્રેણીની બુદ્ધિમત્તા છે જો અસાવધાનતાથી ખીજ વાવી દેવામાં આવ્યુ હાય તા તત્કાલ મૂલસહિત ઉખેડી નાખવાના યત્ન કરવો તે ખીજી શ્રેણીની બુદ્ધિમત્તા છે એ પ્રમાણે ન અની શકે તો પશ્ચાત્તાપ આદિ કરીને તે પાપને શિથિલ તે અવશ્ય કરવું જ જોઈએ કે જેથી કરીને ૬ ખરૂપ લ આપનાવાળુ પાપવૃક્ષ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य - - - धारिणा ज्ञानादिगुणगणशालिना साधूना सातिशय पापमय जायते, अतस्तदक्षणो पायभूते कर्मणि तेपामाधानदानमावश्यामित्यत्र तेपा प्रतिक्रमणविधिरुपदर्शितः, अतोऽस्य 'साधुपतिक्रमण,-सा गावश्यक' चेति नाम रेय जातमिति ॥ अस्य हेतुमर्थं च सम्यगवगम्य स्सस्सपापाना सक्षयाय शैथिल्यापादनाय च सर्वैरेव भव्यभावनशीलैर्भव्यैः प्रयतनीय, यतो वीतरागप्रणीततया सर्वप्राणिना तत्पालन श्वोवसीयसाधायफमिति । इह खल निखिले जगतीतले जीवो यदाधिकाधिकाऽऽधिव्याधि वाधाविकलान्तःकरणः 'त्रायस्व त्रायस्वे' -ति समाक्रोशन् शरण गवेषयति, शुद्ध-चारित्रधारी, ज्ञान आदि गुणों से विभूषित साधुओं को पापों का यहुत डर रहता है । अतः उन्हें रोकने की क्रिया में साधुओं को सावधान रहना बहुत आवश्यक है। प्रस्तुत सूत्र में साधुओं के प्रतिक्रमण की विधि बताई गई है, इसलिए इसका नाम 'साधुप्रतिक्रमण' और 'साधु-आवश्यक' है। आवश्यक का हेतु और अर्थ सम्यक रीतिसे जानकर अपनेअपने पापों का क्षय करने अथवा शिथिल करने के लिए सभी भव्यप्राणियों को प्रयत्न करना चाहिए, क्यों कि यह प्रतिक्रमण वीतराग प्रणीत होने से सब प्राणियों को इस प्रतिक्रमण करने रूप वीतराग की आज्ञा का पालन करना कल्याण का साधक है। जीव आधिव्याधि आदि बाधाओं से अत्यन्त व्याकुल हृदय होकर जब "बचाओ, बचाओ, रक्षा करो" इस प्रकार चिल्लाता પાપને રેકવાની ક્રિયામાં સાધુઓએ સાવધાન રહેવુ ઘણુ જ જરૂરી છે. પ્રસ્તુત સૂત્રમાં સાધુઓના પ્રતિકમણની વિધિ બતાવી છે એટલા માટે તેનું નામ “ સાધુ प्रतिभ! " मने “साधु-मापश्य" આવશ્યક હેતુ અને અર્થ સમ્યક્ રીતે જાણી કરીને પિતાના પાપને ક્ષય કરવા અથવા શિથિલ કરવા માટે સો ભવ્ય પ્રાણીઓએ પ્રયત્ન કરી જોઈએ, કારણ કે આ પ્રતિક્રમણ વીતરાગપ્રણીત હોવાથી સર્વ પ્રાણુઓએ આ પ્રતિક્રમણ રૂપ વીતરાગની આજ્ઞાનું પાલન કરવું તે ક૯યાણનુ સાધક છે જીવ આધિ-વ્યાધિ આદિ બધી પીડાઓથી અત્યત-વ્યાકુલ-હૃદય થઈને જયારે “બચાવે ! બચા' રક્ષા કરે!” એ પ્રમાણે ભય પામતે થકે સમસ્ત સંસા Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका प्रस्तावना ३७ तदानीं धर्ममन्तरेण नान्यः कोऽपि तस्य शरणीभूय तदाति दूरयितुं प्रभवति । तस्मिंश्च क्षणे स पूर्वकृतातिचारादीनि स्मार स्मार वहुधा पश्चात्ताप विधत्ते । अङ्करतामापादितः कालान्तरेण दृढमूलश्च पापक्षः पश्चाद्दुरुत्पाटनीयो भवति, अतः पूर्व वीजमेव न वपनीयमिति प्रथमा बुद्धिमत्ता । यदि कथञ्चिदुप्तमपि भवेत् तर्हि तत्क्षण एव तन्मूलोन्मूलनाय प्रयतनीयमिति द्वितीया । एवमपि नो चेत्तहि पश्चात्तापादिना तच्छैथिल्य त्ववश्य विधेयम् , येन प्रद्धोऽपि दुःखफलकः पापक्षो निस्सारत्वेन कालान्तरे दुःखलक्षणकटुफलं जनहुआ समस्त ससार में शरण खोजता है तव धर्म के सिवा और कोई भी शरण नहीं होता, न कोई उसकी चिल्लाहट मिटा सकता है। उस समय वह पहले किए हुए अतिचार आदि का स्मरण कर-करके अत्यन्त पश्चात्ताप करता है। अकुरित हुआ तथा कुछ कालमें दृढ जडवाला होकर वह पापवृक्ष फिर बडे कष्टसे उखाडने योग्य होता है, इसलिए वीज न होना पहली श्रेणी की बुद्धिमत्ता है। यदि असावधानी से धोया गया हो तो तत्काल समूल उखाडने के लिए प्रयत्न करना दूसरे दर्जे की बुद्धिमत्ता है। यदि यह भी न हो सके तो पश्चात्ताप आदि करके उसे शिथिल तो अवश्य कर देना चाहिए, जिससे कि दुखरूप फल देनेवाला पापवृक्ष निस्सार होजाने के कारण રમા શરણને શોધે છે ત્યારે ધર્મ વિના બીજી કોઈ શરણ નથી થતું તેમજ તેના ભયને ધર્મ વિના કેઈ મટાડી શકતું નથી તે સમયે તેણે પ્રથમ કરેલા અતિચારે આદિનું સ્મરણ કરી કરીને અત્યન્ત પશ્ચાત્તાપ કરે છે અકુરિત થયેલ તથા ડા સમયમાં દમૂળવાળુ બનીને તે પાપવૃક્ષ કરીને મેટા કષ્ટથી ઉખડી શકે તેવુ થઈ જાય છે એટલા માટે પ્રથમ બીજરૂપે થવા ન દેવું તે પહેલી શ્રેણીની બુદ્ધિમત્તા છે જે અસાવધાનતાથી બીજ વાવી દેવામાં આવ્યું હોય તે તત્કાલ મૂલસહિત ઉખેડી નાખવાને યત્ન કરે તે બીજી શ્રેણીની બુદ્ધિમત્તા છે એ પ્રમાણે ન બની શકે તે પશ્ચાત્તાપ આદિ કરીને તે પાપને શિથિલ તે અવશ્ય કરવું જ જોઈએ કે જેથી કરીને દુ ખરૂપ ફલ આપવાવાળું પાપવૃક્ષ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक्रमूत्रस्य यितु न प्रभवेत् प्रत्युत समूल शीर्येत । एव चाऽऽत्मनो निस्सहायाऽवस्था माभूदित्येतदर्थ प्रतिक्रमणमेव शरणीकुर्वाणैः मियाऽऽचरणपरायणान्त'करणैरवश्य भवितव्य भव्यैः, येन ऐहिकाऽऽमुप्मिकमुखान्यनुभवितुमईताऽधिगम्येत । पतिक्रमणाऽपरपर्यायमिदमावश्यकमवश्यमनुप्ठेय निजव्रतमखण्डीकर्नुका मेन साधुना । अनुष्ठान चेदमितिकर्तव्यतापरिज्ञानमन्तरेणाऽसम्भवि, तच (इतिकर्तव्यतापरिज्ञान) गूढार्थकाना सूत्राणा सरलव्याख्ययैव सम्भवति सुकुमारमतीनामिदानीन्तनजनानाम् । दुःखरूपी कडवा फल देने में समर्थ न हो मके, बल्कि शिथिल होता जाय। आत्मा निस्सहाय न हो इसलिए प्रतिक्रमण की शरण में जानेवाले भन्यो को अन्तःकरणसे क्रिया करने में परायण अवश्य होना चाहिए, जिस से इस लोक और परलोक-सम्बन्धी सुखों की प्राप्ति हो सके। यह प्रतिक्रमण, दूसरा नाम आवश्यक अपने व्रतों को अखण्डित रखने वाले साधु को अवश्य करना चाहिए। यह अनुष्ठान कर्तव्यज्ञान के विना नहीं हो सकता। आजकलके अल्पबुद्धिवालों को कर्तव्यज्ञान तब ही हो सकता है, जब गूढ अर्थवाले सूत्रों की सरल व्याख्या कर दी जाय । નિસ્સાર થઈ જાય, જેથી દુ ખ રૂપી કડવા ફળ આપવા સમર્થ થઈ શકે નહિ અને શિથિલ થઈ જાય આત્મા નિ સહાય ન થઈ જાય એટલા માટે પ્રતિક્રમણના શરણમાં જવા વાળા ભવ્ય જીવેએ ક્રિયા કરવામાં પરાયણ અત કરણવાળા અવશ્ય થવું જોઈએ, જેથી આ લેક અને પરલોક સ બ ધી સુખની પ્રાપ્તિ થઈ શકે આ પ્રક્રિમણ કે જેનું નામ આવશ્યક છે તેને પિતાના વ્રત રૂપ ગણીને અખડિત વ્રત ધારણ કરવાવાળા સાધુઓએ અવશ્ય કરવું જોઈએ આ અનુષ્ઠાન કર્તવ્યજ્ઞાન વિના થઈ શકતું નથી આજકાલના અ૮૫બુદ્ધિ વાળાઓને કર્તવ્યજ્ઞાન ત્યારે જ થાય છે કે જ્યારે ગૂઢ અર્થવાળા સૂની સરલ વ્યાખ્યા કરી આપવામાં આવે Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका प्रस्तावना यद्यप्यस्य प्रतिक्रमणस्य भूयस्यो व्याख्या लोचनगोचरतामञ्चन्ति, किन्तु मुक्ष्मेक्षिकया निसमीक्षितासु तासु नैकाऽपि मरला मन्दमतिबोधजनिका च व्यारया समुपलभ्यते, अतः कोमलघुद्धीनामनायासेन झटित्यर्थाऽवबोधसंजननाय मया सूत्राऽऽशयाऽनुसन्धानपुरस्सर 'मुनितोपणी' नामवेया टीकेय विरचिता। एतस्या मायो विषयास्तु प्रमाणीभूतेभ्य शास्त्रेभ्यः सगृहीता एव, नासगृह्य विपयान् अयत्वे प्राचीनाना महीणामभिप्राय प्रकटीकर्तु पटिष्ठः कोऽपि भूमिष्ठ उप यद्यपि प्रतिक्रमण की बहुतेरी टीकाएँ (व्याख्याएँ ) दृष्टिगोचर होती हैं, किन्तु उनमे मन्दमतिवाले भव्यों को योध करानेवाली सरल व्याख्या कोई नहीं है, इसलिए कोमल बुद्धिवालों को विना विशेष परिश्रम के शीघ्र अर्थ-ज्ञान कराने के लिए मैने सूत्रों का आशय ध्यानमें रखकर इस आवश्यक सूत्र की मुनितोपणी नामकी टीका बनाई है, इस टीकामे विपयो का संग्रह प्रामाणिक शास्त्रों से किया गया है, क्योंकी विना विषयों के संग्रह किये प्राचीन महर्पियोंका अभिप्राय प्रकट करने में आजकलके विद्यान જે કે પ્રતિક્રમણની ઘણજ ટીકાઓ (વ્યાખ્યાઓ) દેવામા આવે છે પરંતુ તે સર્વ ટીકાઓમા મદ મતિવાળા ભવ્ય ઇવેને બેધ થઈ શકે તેવી સરલ વ્યાખ્યા કેઈ જેવામાં આવતી નથી એ મનમાં વિચાર કરીને કેમલબુદ્ધિવાળાઓને વિના વિશેષ પરિશ્રમે શદ્ય અર્થજ્ઞાન કરાવવા મે સૂના આશયને ધ્યાનમાં રાખીને આ આવશ્યક સૂત્રની મુનિતેષણ નામની ટીકા બનાવી છે. આ ટીકામા વિષયને સંગ્રહ પ્રામાણિક શાઓમાથી કરવામાં આવ્યું છે, કારણ કે વિષયને સંગ્રહ કર્યા વિના પ્રાચીન મહર્ષિઓના અભિપ્રાય Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ आवश्यकत्रस्य यितु न प्रभवेत् प्रत्युत समूल शीर्येत । एव चाऽऽत्मनो निस्सहायाऽवस्था माभूदित्येतदर्थ प्रतिक्रमणमेव शरणीकुर्याणैः मियाऽऽचरणपरायणान्त करणैरवश्य भवितव्य भव्यैः, येन ऐहिकाऽऽमुमिकमुखान्यनुभवितुमर्हताऽधिगम्येत । पतिक्रमणाऽपरपर्यायमिदमावश्यकमवश्यमनुष्ठेय निजातमखण्डीकर्नुका मेन साधुना। अनुष्ठान चेदमितितव्यतापरिवानमन्तरेणाऽसम्भवि, तच (इतिकर्तव्यतापरिज्ञान) गृढार्थकाना सूनाणा सरलव्याख्ययैव सम्भवति सुकुमारमतीनामिदानीन्तनजनानाम् । दुःखरूपी कटुवा फल देने में समर्थ न हो मके, बल्कि शिथिल होता जाय। आत्मा निस्सहाय न हो इसलिए प्रतिक्रमण की शरण में जानेवाले भव्यो को अन्तःकरणसे क्रिया करने में परायण अवश्य होना चाहिए, जिस से इस लोक और परलोक-सम्बन्धी सुखों की प्राप्ति हो सके। यह प्रतिक्रमण, दूसरा नाम आवश्यक अपने व्रतों को अखण्डित रखने वाले साधु को अवश्य करना चाहिए। यह अनुष्ठान कर्त्तव्यज्ञान के विना नहीं हो सकता। आजकलके अल्प बुद्धिवालों को कर्तव्यज्ञान तब ही हो सकता है, जब गूढ अर्थवाले सूत्रों की सरल व्याख्या कर दी जाय। નિસાર થઈ જાય, જેથી દુ ખ રૂપી કડવા ફળ આપવા સમર્થ થઈ શકે નહિ અને શિથિલ થઈ જાય આત્મા નિ સહાય ન થઈ જાય એટલા માટે પ્રતિક્રમણના શરણમાં જવા વાળા ભવ્ય જીએ ક્રિયા કરવામાં પરાયણ અત કરણવાળા અવશ્ય થવું જોઈએ, જેથી આ લોક અને પરલેક સ બ ધી સુખની પ્રાપ્તિ થઈ શકે આ પ્રક્રિમણ કે જેનું નામ આવશ્યક છે તેને પિતાના વ્રત રૂપ ગણીને અખડિત વ્રત ધારણ કરવાવાળા સાધુઓએ અવશ્ય કરવું જોઈએ આ અનુષ્ઠાન કર્તવ્યજ્ઞાન વિના થઈ શકતું નથી આજકાલના અ૮૫બુદ્ધિ વાળાઓને કર્તવ્યજ્ઞાન ત્યારે જ થાય છે કે જ્યારે ગૂઢ અર્થવાળા સૂની સરલ વ્યાખ્યા કરી આપવામાં આવે Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका ॥ वीतरागायनमः ॥ ४१ ॥ अथाऽऽवश्यकसूत्र सटीकम् ॥ सिविद्धमाणदेव, जिणणाह कम्मपडलमलरहियं भीमभवगहणविभम, - भयत्तमणजीवमग्गणेयार ॥१॥ लडिमत महातेय, जिणसासणदीवयं । चउण्णाणसमावन्न नच्चा गणहर वरं सद्दत्थसारसजुत्त, घासीलालो मुणी वई । वित्तिमावस्सयस्साह, कुणेमि मुणितोसणि ॥२॥ ॥३॥ कर्ममलसे रहित, ससाररूप भयङ्कर अटवी में परिभ्रमण के भय से व्याकुल भव्य जीवों को मोक्षमार्ग पर लाने वाले जिनेश्वर श्री वर्द्धमान स्वामीको ॥ १ ॥ तथा-जिनशासन के प्रदीपक, चार ज्ञान के धारक, 'आमोसहि' आदि लब्धियों को धारण करने वाले, महा तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ श्री गणवर भगवान को नमस्कार करके ॥ २ ॥ मैं घासीलाल मुनि आवश्यक सूत्र की शब्दार्थसारगर्भित मुनितोपणी नामक टीका को करता हूँ ॥ ३ ॥ ક`મલ વિનાના, સ સારરૂપી ભય કર અટવીમા પરિભ્રમણુ કરવાના ભયથી વ્યાકુલ ભવ્ય જીવાને મેક્ષમાર્ગીમા લાવવાવાળા જિનેશ્વર શ્રીવ માન સ્વામીને (१) तथा निनशासनना अहीप, यार ज्ञानि धारये ४२वावाजा, 46 आमोसहि " वगेरे લબ્ધિઓને ધારણ કરવાવાળા, મહાન તેજસ્વી સશ્રેષ્ઠ શ્રી ગણધર ભગવાનને નમસ્કાર કરીને (૨) હું ઘાસીલાલ મુનિ આવસ્યકસૂત્રની શબ્દા સારગતિ સુનિતાષણી નામની ટીકા ચથાબુદ્ધિથી કરૂ છુ (૩) लनि स्पर्श करने से ही सब प्रकार की व्याधियों का दुर हो जाना, इत्यादि प्रकार की आत्मशक्ति को लब्धि कहते हैं । 1 लब्धि = १२al માતથીજ દરેક પ્રકારના શા દૂર થઈ જાય, આવા પ્રકારની આત્મશકિતને લબ્ધિ કહે છે Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ আগন্তু - - - - लभ्यते, तथापि यथाशक्ति पर्यालोच्य जैनागमसिद्धान्तानुसारेण कतिपये वि अत्र स्पष्टीकृत्य प्रदर्शिताः सन्ति । समर्थ नहीं हो सकते ! तो भी कितनेक विषय अपनी शक्ति अनुसार विचार कर जैनसिद्धान्तानुसार स्पष्ट कर के दिखत गये हैं। પ્રગટ કરવામાં આજકાલના વિદ્વાને સમર્થ થઈ શક્તા નથી તે પણ કેટ વિષય પિતાની શકિત-અનુસાર વિચાર કરી જેનસિદ્ધાતાનુસાર સ્પષ્ટ ક બતાવ્યા છે Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका ४३ ર 'खुत्तो ' = कृत्वा' | अथवा 'तिखुत्तो' इति पाठमाश्रित्य 'त्रि कृत्वः' इति सस्कृतम्, तथा च सति आदक्षिणप्रदक्षिणमिति क्रियाविशेषणतया समर्थनीयम् । 'वदामि = वन्दे = वाचा स्तौमि रत्नाधिक, 'नमसामि ’- नमस्यामि प्रणमामि कायेन नम्रीभवामीत्यर्थः । “सकारेमि ” - सत्करोमि अभ्युत्थानादिना, " सम्माणेमि " - सम्मान - यामि वभक्तादिना कीदृशम् रत्नाधिकमित्याह - "कलाण”-कल्याणम्-कल्यो= मोक्षः कर्म्मजनितसकलोपाधिरहितत्वात् तम् आ = समन्तान्नयति = मापयतीति, अथवा कल्येन = ज्ञानदर्शनचा रिनलक्षणेनाऽऽरोग्येण आणयति = जीवयति - ससारमोहजालानलज्वालामालावलीढान् मृढान् प्राणिनः प्रशमयतीति वा कल्याणम् । " मंगल " पूर्वक स्तुति करता हूँ, तीन वार उठ-बैठ पाच अग झुका कर नमस्कार करता हूँ, अभ्युत्थान आदि से सत्कार करता हूँ, वस्त्र भक्त (अन्न) आदि से सम्मान करता हूँ, क्योंकि आप कल्याणस्वरूप हैं, अर्थात् कल्य=मोक्ष को देने वाले, अथवा कल्य-ज्ञानदर्शन चारित्ररूप आरोग्य से जन्मजरामरणसताप - सतप्त भव्य जीवों को अपने सदुपदेशद्वारा शान्ति देने वाले हैं, और मङ्गलम्वरूप हैं, क्योंकि ससार के નમાવીને નમસ્કાર કરૂ છુ અભ્યુત્થાન વિગેરેથી સત્કાર કરૂ છુ वस्त्र लडत (अन्न) विगेरेथी सन्मान ४३ ४ अरगुडे माथ उत्यायुस्व३५ छो, अर्थात् कल्य= भोक्ष आपवा वाणा अगर कल्य-ज्ञानदृर्शन शास्त्रिय आरोग्यथी, नन्स, ४रा, मृत्युना हुथी તપેલા ભવ્ય જીવેાને પોતાના સદ્ઉપદેશદ્વારા શાતિ આપવાવાળા છે અને મગળ १ कृत्वे' - स्यस्य 'खुत्तो' इत्यात्वात् । न च 'तिम्खुत्तो' इत्यस्य 'त्रि कृत्व' इति संस्कृतमिति वाच्यम्, सुजन्तात्कृत्वसुचो दुर्लभत्वात् । ' तिखुत्तो' इति पाठेऽपि द्वित्रिचतुर्भ्यः सुचा कृत्वसुचो बाधात्, उत्थितायाः प्रदक्षिणमित्यस्य सकर्म्मकक्रियाऽऽकाङ्क्षाया दुष्परिहरत्वाच्च । २ - आर्पत्वात्कृत्वसुच एव समाधानात् । २' चिती सज्ञाने ' इति धातोः 'स्त्रिया किन्' (पा० ३ । ३ । ९४ ) इति भावे क्तिन् । ३ - वर्णादित्वाद्राह्मणादेराकृतिगणत्वाद्वा स्वार्थे यत्र' 'यस्येति च ' ( पा० ६ । ४ । १४८) इतीकारलोप, अन पक्षे 'चेइय' इत्यार्थत्वात् । यद्वा 'चिन चयने' इत्यस्मादेव प्राग्वत् क्तिनादौ चैत्यमिति । धातूनामनेकार्थत्वाथोक्तोऽर्थः । दृष्ट हि परिचिनोतीत्यादौ चित्रो ज्ञानार्थकत्वम् । उपसर्गाणा धोतत्वमभिप्रेत्य धातुनामेव तत्तदर्थमति पादस्त्वसिद्धान्तात् । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ आवश्यकभूत्रस्य इह पडभ्ययनात्मक श्रमणावश्यक मारीप्सित, यस्याही पञ्चनमस्कारात्मक मगल वक्ष्यमाणेभ्यो हेतुभ्यो नियमेन कर्त्तव्यमिति तदर्थ गरोराज्ञा ग्रहीतव्या, सा च वन्दनापूर्तिकोति प्रथम गुस्यन्दनोच्यते-- ॥ मूलम् ॥ तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिण वदामि नमसामि सकारेमि सम्माणेमि कल्लाण मगल देवय चेइय पज्जुवासामि मत्थएण वंदामि ॥ सू० १॥ ॥ छाया ॥ त्रि. कृत्वा आदक्षिणप्रदक्षिणं वन्दे नमस्यामि सत्करोमि सम्मानयामि कल्याण मङ्गल दैवत चैत्य पर्युपासे मस्तकेन वन्दे ।। मू० १॥ ॥ टीका ॥ ति-नि:, श्रीन' वारानित्यर्थः । आयाहिणपयाहिण-अञ्जलिपुट बद्भवा त बद्भाञ्जलिपुट दक्षिणकर्णमूलत आरभ्य ललाटपदेशेन वामकणोंन्तिकेन चक्राकार त्रि. परिभ्राम्य ललाटदेशे स्थापनरूपम् आदक्षिणप्रदक्षिणम् । यहा पर छह अध्ययनवाला श्रमणावश्यक सूत्र प्रारम्भ करना है, जिसके आदि में आगे कहेजाने वाले हेतुओं से पचनमस्काररूप मगल करना जरूरी है, अतएव उसके लिए गुरु महाराजकी आज्ञा लेनी चाहिए, वह आज्ञा वन्दनापूर्वक ही ली जाती है, इसलिए पहले गुरुवन्दना कहते हैं 'तिक्खुत्तो' इत्यादि। हे गुरुमहाराज। मै अञ्जलिपुटका तीन वार दाहिने हाथ की ओर से प्रारभ करके फिर दाहिने हाथ की ओर तक घुमाकर अपने ललाट प्रदेश पर रखता हुआ प्रदक्षिणा અહિં છ અધ્યયનવાળા શમણાવશ્યક સૂત્ર પ્રારંભ કરવું છે જેની શરૂઆતમાં આગળ કહેવામાં આવનાર હતુઓથી પચનમસ્કારરૂપ મગલ કરવુ જરૂરનું છે, તે માટે ગુરૂ મહારાજની આજ્ઞા લેવી જોઈએ તે આશા વદનાપૂર્વક જ લેવાય છે, તે માટે પ્રથમ ગુરૂવદના કહે છે 'तिक्खुत्तो इत्यादि २३ मारा | AAYटन (यडी)त्रण मत જમણ પાથ તરફથી આર ભીને ફરી જમણા હાથ સુધી ફેરવીને પિતાના લલાટપ્રદેશ ઉપર રાખીને પ્રદક્ષિણાપૂવક સ્તુતિ કરૂ છુ ત્રણ વખત ઉઠી બેસી અને પાચ અગ 1-द्वित्रिचतुर्यः मुच्' इति क्रियाऽभ्यात्तिगणने मुच् । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका ४५ इमा पट्टिका त्रिरुचार्य निर्वन्दना च विधाय गुरोः सकाशात्सविनय पडावश्यकाऽऽज्ञा याचेत, तदनु-"इच्छामिण भते ! तुम्भेहि अभणुन्नाए समाणे देवसिय पडिकमण ठाएमि, देवसियनाणदसणचरित्ततवअइयारचिंतणट्ट करेमि काउस्सग्ग" इति पट्टिका पठित्वा नमस्कारमन्त्रोच्चारणपूर्वकमावश्यक समारम्भणीयमिति नमस्कारमन्त्रमाह ॥ मूलम् ॥ णमो अरिहताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूण ॥ सू० २॥ ॥ छाया ॥ नमः अरिहद्भयः, नमः सिद्धेभ्यः, नमः आचार्येभ्यः, नम उपाध्यायेभ्यः, नमो लोके सर्वसाधुभ्यः ॥ सू० २।। इस (तिक्वुत्तो के) पाठ को तीन बार पढकर एव तीन बार ऊठ बैठ कर पचाग-नमन-पूर्वक वन्दना करके विनयपूर्वक गुरुसे आवश्यक-प्रतिक्रमण करने की आज्ञा मागे। बादमें 'इच्छामिण भते' का पाठ पढकर पहले नमस्कार-मन्त्रोचारणपूर्वक आवश्यक का आरम्भ करना चाहिए, अतएव पहले नमस्कार मन्त्र कहते हैं __'नमो अरिहताण' चार घनघातिक कर्मों का नाश करके अनन्त केवलज्ञान केवलदर्शन को प्राप्त करने वाले, अरिहन्त को नमस्कार हो । यहाँ नमः शब्द का अर्थ नमस्कार होता है, वह दो प्रकार का है-(१) द्रव्यनमस्कार और (२) भावनमस्कार । उनमें આ તિવૃત્તા ના પાઠને ત્રણ વખત ભણીને તથા ત્રણ વખત ઉઠી બેસીને પચાગ નમનપૂર્વક વદના કરીને વિનયપૂર્વક ગુરૂદેવ પાસેથી આવશ્યક–પ્રતિક્રમણ કરવાની भाज्ञा भावी पछी 'इच्छामि ण भतेन पाया प्रथम नभ४२ भारयार પૂર્વક આવશ્યકને આર ભ કરે જોઈએ, એ માટે પ્રથમ નમસ્કાર મિત્ર કહે છે 'नमो अरिहताण' यार धन धाति: भाना नाश शन अनन्त ज्ञान जानने पात ४२वावा. मति भगवान ने नमा२ याय अहिं नमः शनी अर्थ १महीभावार्थकात् नम्धातोरौणादिकेऽसिपत्यये 'स्वरादिनिपातमव्ययम्' (१-१-३७) इति पाणिनिबचनेनाव्ययत्वम् । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ आवश्यकसूत्रस्य मम्भासम्बन्धि बन्धन, तन्निबन्धन दुःखं पा गालयतिन्नाशयतीति, यद्वा मायते-माप्यते स्वर्गों मोक्षो वाऽनेनेति मगः धर्मः, त लाति-गृहातीति माला श्रुतचारित्रधर्मधारकस्तम् । "देवय" देवतेर दैवत धर्मदेवमित्यर्थः । 'चेड्य' चैत्यम् , चेतन चित्तिः सम्यग्ज्ञानम् , तदेव चैत्यम् । चैत्यशदस्य ज्ञानार्थकबमुक्त बोधमाभूते कुन्दकुन्दस्वामिनाऽपि बुद्ध ज चोहतो, अप्पाणं वेइयाइ अण्ण च ।. पचमहत्वयसुद्धं, णाणमय जाण चेदिहरं" ॥ इति। राजमश्नीयसूत्रे मलयगिरिभिरपि-"कल्लाण मगल देवय चेइय" इत्यस्य व्याख्याया-'कल्याण'-कल्याणकारितात, मगल-दुरितोपशमनकारितात् । दैवत देव त्रैलोक्याधिपतिवाद, चैत्य-सुप्रशस्तमनोहेतुला'-दिति । भागवत तु चैत्यशब्देन न केवल ज्ञानमेव, अपितु पूर्णज्ञानवानात्मा गृहीतोऽस्ति, तथाहि"अहङ्कारस्ततो रुद्रश्चित्त चैत्यस्ततोऽभवत्" (तृतीय स्कन्धे पदिशतितमे अ याये श्लो. ६१) इति, विरारूपस्य ब्रह्मणो हृदयात् अहङ्कार उत्पन्नस्तस्माद्वैद्रस्तथा चित्त मुत्पन्न, चित्ताच चैत्य इत्यर्थ । चैत्या क्षेत्रज्ञ., इति तट्टीकाया श्रीधरस्वामी । 'क्षेत्रज्ञ आत्मा पुरुपः' इत्यमरः । एवमेवात्रैव स्कन्धेऽध्याये च (श्लो० ७०) मोक्तम्-"चित्तेन हृदय चैत्य. क्षेत्रज्ञः प्राविशयदा। विराट् तदैव पुरुषः सलिला दुदतिष्ठत" इति तदस्यास्तीति चैत्यस्ता सम्यग्ज्ञानवन्तमित्यर्थः। चैत्यशब्दा नानार्थकः स चेहाऽपपश्चितोऽपि प्रसङ्गादन्यत्र निरूपयिष्यते । 'पज्जुवासामि' पर्युपासे सविधि सेवे । “मत्थएण वदामि' मस्तकेन-मस्तक नमयित्वेत्यर्थः, वन्दे अभिवादये ।। सू० १॥ दुखोंका अन्त करनेवाले हैं, अथवा मङ्ग-मोक्ष प्राप्ति के साधनभूत श्रुतचारितरूप धर्म को धारण करने वाले, एव धर्मदेवस्वरूप है, और चैत्य अर्थात् ज्ञानवान् हैं, अतएव मनवचन काय से मै आपकी सेवा तथा शिर झुकाकर वन्दना करता है । सू० १॥ સ્વરૂપ છે, કારણ કે સંસારના દુખેને અતિ લાવવાવાળા છે અથવા મના=મેક્ષપ્રાપ્તિના સાધનભૂત શ્રત ચારિત્રરૂપ ધર્મને ધારણ કરવાવાળા એટલે કે ધર્મદેવ સ્વરૂપ છે, અને ચૈત્ય અર્થાત જ્ઞાનવાળા છે એટલે મન વચન અને કાયાથી હ આપની સેવા અને મસ્તક નમાવીને વદના કરૂ છુ (સૂ૦ ૧) १ अर्श आदित्वादन् । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ मुनितोपणी टीका मातिहार्यरूपायाः सेवायाः शाश्वतिकनिरतिशयसुखस्य चाईति-योग्या भवन्तीत्यहन्तस्तेभ्य २ । अथवा 'अरहद्भयः' इतिच्छाया, रागादिनिदानभूतपकृष्टविषयसान्येऽपि वीतरागत्वादिरूप भाव न रहन्ति न त्यजन्तीत्यरहन्तस्तेभ्य इत्यर्थः । 'अरुहताण' इति पाठे 'अरोहद्भयः ४ इतिच्छाया, इह पक्षे प्रक्षीणनिखिलफर्मवीजतया कदाऽप्यनुत्पद्यमानेभ्य इत्यर्थः, यदुक्तमौपपातिकमूत्रे-"बीयाण* अग्गिदड्ढाण, पुणरवि अकुरुप्पत्ती ण भवड, एवामेव सिद्धाण कम्मवीए दबढे पुणरवि जम्मुप्पत्ती न भवइ" इति । भगवन्तोऽईन्तोऽपि हि तित्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायपट्क भव्यो को निर्भय मार्ग बताकर शिवपुरी मे पहुचाने वाले, अथवा भव्यजनों से किये जानेवाले गुणवर्णन अभिवादन आदि के तथा इन्द्रादिक देवताओं से किये हुए अष्टमहाप्रातिार्यों से युक्त और शाश्वतिक निरतिशय सुख को पानेवाले, या (अरह्य ) रागादिके कारणभूत प्रकृष्ट विपयों का सबन्ध रहते हुए भी वीतरागत्वरूप अपने स्वभाव को कभी नहीं छोडने वाले, अथवा (अरोहद्भयः) कर्मवीज के दग्ध होजाने के कारण फिर से कभी जन्म नही लेने वाले अरिहन्तों को नमस्कार हो। युत भने ति निरतिशय सुमने भगवा, मथवा (अरहद्भ्यः ) साहिना કારણથી ઉત્કૃષ્ટ વિષને સબન્ધ રહેતા થકા પણ વીતરાગત રૂપ પિતાના સ્વરૂપને यरिय नही छ।उना२, अथवा अरोहदभ्यः भभी मनी-पान र शथी अर्थ વખત જન્મ નહિ લેવાવાળા અરિહતેને નમસ્કાર હે मरिहत भगवान स्वय ५८यनी २क्षा ४२ता ४२ता भीत'मा हण मा हण' આવા પ્રકારને ઉપદેશ દેવાવાળા તથા ભયકર ભવપર પરાથી ઉત્પન્ન થએલ १ अशोवृक्ष' मुरपुष्पवृष्टिदिव्यध्वनिश्चामरमासन च । ___ भामण्डल दुन्दुभिरातपत्र, सत्मातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥१॥ २ योग्यतार्थकादकर्मकात् 'अहं' धातोर्लटः शत्रादेश। ३ त्यागार्थक-'रह'-धातोः शान्तस्य नत्रा समास' । ४- प्रादुर्भावार्थकस्य रुहधातो शत्रन्तस्य नया समास आपत्वाद्गुणाभावश्च । व्याख्यानान्तराणि सभवन्त्यपि लिटत्वादनुपयुक्तत्वाञ्चोपेक्षितानि । * छाया-वीजानामग्निदग्धाना पुनरप्यड्डरोत्पत्तिर्न भवति, एवमेव सिद्धाना कर्मवीजे दग्गे पुनरपि जन्मोत्पसिन भवति । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ॥ टीका || ' णमो अरिहताण, नमोऽरिहद्भयः=घनघातिककर्मचतुष्टयहन्तभ्यः । अत्र 'नमः' शदस्य द्रव्य (हस्तपादादिपञ्चाह ) - भार (मानादि ) - सङ्कोचार्थ कनिपात रूपत्वान्मानादित्यागपुरस्सरशुद्धमनः सन्निवेशपूर्वकः पञ्चाङ्गनमस्कारोऽस्त्वित्यर्थः । नमस्कार्यानाह - 'अरिहताण " इत्यादिना । आवश्यक सूत्रस्य 'अरिहद्भयः' अरीन = ज्ञानावरणीय - दर्शनावरणीय - मोहनीयाऽन्तरा यरूपाणि घातिकर्माणि घ्नन्ति = नाशयन्तीत्यरिहन्तः तेभ्य' । ' अरहताण' इति पाठे 'अर्दद्भय'' इतिच्छाया, अत्र पक्षे विकटभ परम्पराऽटवी पर्यटन परिश्रान्ति नितान्वक्लान्त प्राणिजात निर्भयमार्गप्रदर्शनेन तदिष्टा निर्वृति (मोक्ष) - पुरीं नेतु, यद्वा भव्यजनकर्तृकगुणवर्णनाऽभिवादनादे सुरनिकरसम्पादिताऽशोकाद्यष्टकद्रव्यनमस्कार दो हाथ दो घुटने एक शिर, इन पाच अगों को झुकाना | भावनमस्कार-मान आदि का परित्याग करना । ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय, इन घातिककर्मरूप शत्रओं का नाश करने वाले, भयङ्कर ससाररूप अटवी मे वार वार भ्रमण अथवा (अर्हद्भयः) करने से व्याकुल નમસ્કાર થાય છે તે બે પ્રકારના છે-(૧) દ્રબ્ય નમસ્કાર એમા દ્રવ્યનમસ્કાર બે હાથ બે છુટી એક માથુ આ ભાવનમસ્કાર, માન વિગેરેના પરિત્યાગ કરવે અને (૨) ભાવ નમસ્કાર પાંચે અગાને ઝુકાવવા જ્ઞાનાવરણીય દર્શોનાવરણીય માહનીય અને અતરાય આ ઘાતિક ક રૂપ શત્રુએ ના નાશ उरवावाणा, अथवा 'अर्हदद्भ्य ' ભયકર સસારરૂપ અટવીમા વાર વાર ભ્રમણુ કરવાથી વ્યાકુલ ભબ્યાને નિ યમાગ તાવીને શિવપુરીમાં પહેાચાડવાવાળા, અથવા ભવ્ય લેાકેાથી કરાએલા ગુણવન અભિવાદન વિગેરેના તથા ઇંદ્રાદિક દેવતાઓએ કરેલા અષ્ટમહાપ્રાતિહાર્યાંથી 1 १ निरुक्तोक्तरीत्या सत्यादिशब्दवत्पृपोदरादित्वात्साधना वोभ्या उपश्च"वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ । धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविध निरस्तम्” इति, “यात्रतामेव धातूना लिङ्ग रूढिगत भवेत् । अर्थवाप्यमिप्रेयस्य, स्वावद्भिर्गुणविग्रह " इति च । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका ४७ प्रातिहार्यरूपाया: सेवायाः शाश्वतिकनिरतिशयमुखस्य चाईति-योग्याभवन्तीत्यईन्तस्तेभ्य'२ । अथवा 'अरहद्भयः । इतिच्छाया, रागादिनिदानभूतमकृष्टविषयसरन्धेऽपि वीतरागत्वादिरूप भाव न रहन्ति न त्यजन्तीत्यरहन्तस्तेभ्य इत्यर्थः । 'अरुहताण' इति पाठे 'अरोद्भया'४ इतिच्छाया, इह पक्षे पक्षीणनिखिलर्मवीजतया कदाऽप्यनुत्पद्यमानेभ्य इत्यर्थः, यदुक्तमौपपातिकम्त्रे-"बीयाण अग्गिदढाण, पुणरवि अकुरुप्पत्ती ण भवइ, एवामेव सिद्धाण कम्मरीए दबढे पुणरवि जम्मुप्पत्ती न भवइ" इति । भगवन्तोऽहन्तोऽपि हि नित्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसफायपट्क भव्यों को निर्भय मार्ग बताकर शिवपुरी में पहुंचाने वाले, अथवा भव्यजनों से किये जानेवाले गुणवर्णन अभिवादन आदि के तथा इन्द्रादिक देवताओं से किये हुए अष्टमहापातितार्यों से युक्त और शाश्वतिक निरतिशय सुख को पानेवाले, या (अरय )-रागादिके कारणभूत प्रकृष्ट विषयों का सवन्ध रहते हुए भी वीतरागत्वरूप अपने स्वभाव को कभी नहीं छोडने वाले, अथवा (अरोहद्भयः) कर्मवीज के दग्ध होजाने के कारण फिर से कभी जन्म नहीं लेने वाले अरिहन्तों को नमस्कार हो। युत मन शायति निरतिशय सुजन भगवावा, अथवा (अरहदभ्यः) शाहिना કારણથી ઉત્કૃષ્ટ વિઘાને સબન્ધ રહેતા થકા પણ વીતરાગત રૂપ પિતાના સ્વરૂપને ध्याश्य नही छ।उना२, अथवा अरोह यः ४ी मणीपान र शथी अर्थ વખત જન્મ નહિ લેવાવાળા અરિહતેને નમસ્કાર હે मरिडत लगवान स्वय पटायनी २क्षा र ४२ मीann'मा इण मा हण' આવા પ્રકારને ઉપદેશ દેવાવાળા તથા ભયકર ભવપર પરાથી ઉત્પન્ન થએલ १ अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनिश्चामरमासन च । भामण्डल दुन्दुभिरातपत्र, सत्मातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ।।१।। २ योग्यतार्थकादकर्मकात् 'अई' धातोर्लट. शत्रादेशः । ३ त्यागार्थक-'रह'-धातोः शत्रन्तस्य नत्रा समासः । ४-मादुर्भावार्थकस्य रुहयातो शान्तस्य नया समास आपत्वादुगुणाभावश्च । व्याख्यानान्तराणि सभवन्त्यपि लिटत्वादनुपयुक्तत्वानोपेसितानि । * छाया-वीजानामग्निदग्धाना पुनरप्यकुरोत्पत्तिर्न भवति, एवमेव सिद्धाना कर्मवीजे दग्धे पुनरपि जन्मोत्पतिनं भवति । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ आवश्यकभूत्रस्य - - रक्षन्तरतदये 'माण मा हण' इत्यादिवाक्यैः सर्वानुपदिशन्ति भीष्ममवपरम्परोद्भुतप्रभूतभीतिभूमभीरुभूताऽद्भुतानन्दसन्दोहकन्दलीयमानाऽपुनराशत्तिविशिष्टनित्रतिपुर्यवितथपथ प्रदर्शयन्तीति चैपा नमस्करणीयस्वमईताम् । __णमो सिद्धाण' इति, नमः सिदभ्यः, असेत्सुः साधनीयाऽखिलकार्यसाधनेन परिनिष्ठितार्था अभूवन्निति, असेधिपु'शाश्वविकतयाऽपवर्गम् अनन्तचतुष्टयरूप मङ्गल च भापनिति या सिद्धाः ॥ सिदत्व च सिद्धाना न दीपनिर्वाणबदभावरूप किन्तु सद्भावस्वरूपमत एव चक्रवर्त्यादिमनुष्यानारभ्याऽनुत्तरविमानपर्यन्तै वैरपि ____ अरिहन्त भगवान स्वय पट्काय की रक्षा करते हुए दूसरों को 'मा रण मा हण' इस प्रकार का उपदेश देने वाले, तथा भयङ्कर भवपरम्परासे उत्पन्न महाभय के कारण व्याकुल भव्यों को अलौकिक आनन्द के मूलभूत, पुनरावृत्ति (आवागमन)-रहित मोक्षपुरी के पवित्र मार्ग को दिखलाने वाले है, अतएव ये नमस्कार के योग्य हैं (१)। ___ 'नमो सिद्धाण' समस्त कर्तव्यों की सिद्धि होने के कारण कृतकृत्य, तथा शाश्वतिक मोक्षसुख और अनन्तचतुष्टयरूप मङ्गल को प्राप्त हुए सिद्धों को नमस्कार हो। सिद्धों का सिद्धत्व दीपक बुझ जाने की तरह अभावस्वरूप नहीं, किन्तु सद्भावस्वरूप है, अतएव मनुष्यों में चक्रवर्ती से लेकर મહાભયના કારણથી વ્યાકુલ ભને અલૌકિક આનન્દના મૂળભૂત, પુનરાવૃતિ (આવાગમન)-રહિત એક્ષપુરીના પવિત્ર માર્ગને બતાવવાવાળા છે, એટલે એ નમસ્કાર કરવાને એગ્ય છે 'नमो सिद्धाण' सायना सिद्धि पाथी कृतकृत्य तथा शायति माक्ष સુખ અથવા અનત-ચતુષ્ટયરૂપ મ ગલને પ્રાપ્ત કરેલા સિદ્ધોને નમસ્કાર હિ સિદ્ધનું સિદ્ધત્વ દીપકના કરી જવાની જેમ અભાવસ્વરૂપ નહિ પણ સદ્ભાવ સ્વરૂપ છે એટલા માટે મનુષ્યમાં ચક્રવર્તીથી લઈને અનુત્તર વિમાન સુધી દેવતા એને પણ દુર્લભ તથા બીજા સુખની અપેક્ષાએ એના સુખે અનત ગણ છે, કારણ १-'पिधु सराद्धी' इत्यस्मादनिटो देवादिकात् , 'पिध गत्याम्' इत्यस्मात्सेटो भौवादिकात् , 'पिधू शास्त्रे मागल्ये च ' इत्यस्माद्वेटो भौवादिकाद्वा कर्तरि क्तः । व्युत्पत्त्य तराणि यथामत्यूहनीयानि । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका सुदुर्लम मुग्वान्तरानन्तगुणित भवति तेपा सुख, सर्वकालसमयावच्छिन्नतया समावितमनन्तवर्गवर्गवर्णित लोकालोकाकाशयोरनन्तप्रदेशेषु परिपूर्णतयाऽनन्तमपि कदाचित्स्याद्देवादिसुख, तथापि न जातु सिद्धमुखेन तुलाधृत, तस्यापरिच्छि. नपरिमाणतया कचिदपि समावेशाभावात् । तचोक्तमौपपातिकमूत्रे "णवि* अस्थि माणुसाणं, तं सोक्ख णवि य सव्वदेवाण। ज सिद्धाण सोक्ख, अव्वावाहं उवगयाणं ॥ १३ ॥ ज देवाण सोक्ख, सव्वद्धापिडिय अणतगुण । ण य पावइ मुत्तिसुह, णताहि वग्गवग्गूहि ॥ १४ ॥ सिद्धस्स सुहो रासी, सव्वद्धापिडिओ जड हवेज्जा । सोऽणतवग्गभडओ सव्वागासे ण माइज्जा ॥१५॥” इति । अनुत्तर विमान पर्यन्त देवों को भी दुर्लभ, तथा अन्य सुखों की अपेक्षा इनका सुख अनन्त गुण है, कारण यह कि देवादिकों के सुख कदाचित् सर्वकाल में स्थायी अनन्त वर्गों के भी वर्गों से गुणित तथा लोक-अलोकरूप दोनों आकाशों के अनन्त प्रदेशों में भरपूर होकर अनन्त भी हो जाये तो मी सिद्धों के सुखों की घरापरी नही हो सकती, क्योंकि अपरिमित होने से सिद्गों के सुख अपार है। એ છે કે દેવાદિકના સુખે કદાચિત સર્વકાળમાં થાયી અનત વર્ગોના પણ વર્ગોથી ગુણિત તથા લેક-અલેકરૂપ બને આકાશના અનત પ્રદેશમાં ભરપૂર થઇને અનત પણ થઈ જાય તે પણ સિદ્ધોને સુખની બરાબરી થઈ શકતી નથી, કારણ કે અપરિમિત હોવાથી સિદ્ધોના સુખ અપાર છે * नाप्यस्ति मनुष्याणा तत्सौरय नापि च सर्वदेवानाम् । यत्सिद्वाना सौग्व्यम् , अव्यावाधमुपगतानाम् ॥१३॥ यदेवाना सौरय, सर्वादापिण्डितमनन्तगुणम् । न च प्राप्नोति मुस्तिसुख, अनन्ताभिर्वर्गवगिताभि (अद्धाभिः) ॥१४॥ सिदस्य सौख्यराशिः, सर्वादापिण्डितो यदि भवेत् । सोऽनन्तवर्गभरत. सर्वाकाशे न मायात् ।। १५॥ तिन्छाया। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकसूत्रस्य - - - - - - - एतेनेर नमस्करणीयत्वमपि सिद्धाना सिद्धम् , अविनश्वरानन्तज्ञानदर्शन मुखवीर्याक्षयस्थितिमभृतिमगुणगुणगणगुम्फिताहतया ध्यानादिवशाहव्यात्मा नन्दोद्रेकोद्भावकत्वेनोपकारित्वात् । णमो आयरियाण' इति, नम आचार्येभ्यः, आ-समन्तात् मर्यादया वा चर्यन्ते परिचर्यन्ते शिष्यादिभिरित्याचार्या. आचार-ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीपेरूप ग्राहयन्तीति, आचिन्वन्ति गृहयन्ति शिष्याणा ज्ञानादीनीति, आचारयन्ति-सम्पा दयन्ति शिष्यैरागमोक्तविधीनिति वाऽऽचार्या.२ । अथवा आमर्यादया चरन्तिगच्छन्तीति, आचारैर्वा चरन्तीत्याचार्याः । यद्यपि शिल्पाचार्य-कलाचार्य सिद्धों को इसलिये नमस्कार किया गया है कि ये अपने अविनाशी अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवाय, अनन्त अक्षय स्थान आदि उत्कृष्ट गुणोंसे आत्मानन्द के उद्भावक होकर भव्य जीवों के उपकारक हैं। (२) 'नमोआयरियाण' आ-मर्यादापूर्वक शिष्यों से सेवित अथवा शिष्यों को ज्ञान दर्शन चारित्र तप तथा वीर्यरूप आचार की शिक्षा देनेवाले, या उनके ज्ञानादि आचार को घढानेवाले, अथवा ज्ञानाचार आदि की मर्यादामे चलनेवाले आचार्य को नमस्कार हो। यो तो शिल्पाचार्य कलाचार्य और धर्माचार्य के भेदसे સિદ્ધોને એટલા માટે નમસ્કાર કરવામા આવેલ છે કે એ પિતાના અવિનાશી અનતજ્ઞાન, અન તદર્શન, અન ત સુખ, અને તવીર્ય, અનત અક્ષયસ્થાન વિગેરે ઉત્તમ ગુણથી આત્મિક આનદના ઉદ્દભાવક થઈને ભવ્ય જીવો માટે ઉપકારક છે (२) 'नमो आयरियाण' 'आ'=भापूर्व शिष्योथी सेवामेसा मा शिव्याने જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર, તપ તથા વીર્યરૂપ આચારની શિક્ષા દેવાવાળા અથવા તેમના જ્ઞાનાદિ આચારને વધારવાવાળા અથવા જ્ઞાનાચાર વિગેરેની મર્યાદામાં ચાલવાવાળા આચાર્યને નમસ્કાર થાય એમ તે શિલ્પાચાર્ય કલાચાર્ય અને ધર્માચાર્યના ભેદથી આચાર્યના १ आहुपसर्गपूर्वकात् चरधातो कर्मणि ण्यत् उपधारद्धि । २ सत्यादिशब्दवन्निरुक्तोक्तरीत्या पृपोदरादिपाठात्पदसिद्धिः । ३ आहुपसर्गपूर्वकात् चरधातो हुलकारकर्तरि ण्यत्मत्यय । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका धर्माचार्यभेदेनाऽऽचार्यत्रैविध्य तथाऽप्यर्हत्सिद्धसाहचर्यान्नमःपदसान्नि याचात्र धर्माचार्याणामेव ग्रहणम्। तत्त्व' च सूत्रार्थज्ञावत्वार्थवाचकत्व-गच्छमेधीभूतत्व-गणचिन्तारहितत्व-स्त्रीकथा-राजकथा-देशकथा-भक्तकथा-सम्यक्त्वशैथिल्यकथावकत्व, तथा नवविधब्रह्मचर्यगुप्तिधारकत्व-पत्रेन्द्रियसवरणकारकत्व-कपायचतुष्टयरहितत्व-पञ्चमहावतोपेतत्व- पञ्चविधाचारपालकत्व- पञ्चसमितिसमितस्व-गुप्तित्रयगुप्तत्वरूपपटरिंशद्गुणवत्व, सारणा-वारणा-धारणा - नोदना-प्रतिनोदनावत्त्व च । तत्र सारणा-विस्मृतसामाचारिकेभ्यो मुनिभ्यः, 'मुने ! भवतेद आचार्य के तीन भेद हैं, तो भी 'अरिहत' 'सिद्ध ' तथा 'नमो' पद् के साहचर्य से यहा पर धर्माचार्य का ही ग्रहण है। जो सूत्रार्थ को जाने, शिष्यों को प्रवचन का मर्म समझावे, गच्छमें मेढी (खलिहान का खभा) समानहो, गण की चिन्ता से रहित हो, सम्यक्त्व को शिथिल करनेवाली कथा का वर्जन करे, तथा नौ वाड ब्रह्मचर्यधारण (९), पांच इन्द्रियों को जीतना (१४), चार कषायो का परित्याग (१८), पाच महाव्रतों (२३) और पांच आचारों का पालन (२८) पाच समिति (३३) और तीन गुप्तियों का धारण (३६), इन उत्तीस गुणों से तथा सारणा, वारणा, धारणा, चायणा, पडिचायणा से युक्त हो। उनमें सारणा-प्रमादवश सामाचारीमें भूले हुए मुनिको ले छे तो पg 'अरिहत' 'सिद्ध' तथा 'नमो' पहना इयथी भाडया ધર્માચાર્યનું જ ગ્રહણ છે જેઓ સૂત્રના અર્થને જાણે શિષ્યને પ્રવચનનું રહસ્ય સમજાવે ગરછમાં મેધિ સમાન ગણની ચિંતાથી રહિત હોય સમ્યકત્વ શિથિલ થાય એવી કથાનું વર્જન કરે તથા નવતાડ બ્રહ્મચર્યનું પાલન, (૯) પાચે ઈદ્રિને छतची (१४) थारे पायाने। त्याग (१८) पाय मानतो (२३) तथा पाय આચારેનું પાલન (૨૮) પાચ સમિતિ (૩૩) અને ત્રણ ગુપ્તિઓનું ધારણ કરવું આ છત્રીસ (૩૬) ગુણેથી તથા સારણા, વારણા, ધાણુ, ચેયણ અને પડિયjથી યુકત હોય તેમા સારણા પ્રમાદથી સામાચારીમા ભૂલેલા મુનિને યોગ્ય જ્ઞાન આપવું १ धर्माचार्यत्वम् , Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ आवश्यकमप्रम्य सम्यद्नानुष्ठितमेर फर्तव्य' - मित्यादिरीत्योपदेशदानम् । वारणा-कुसाति प्रभृतिमवृत्तशिष्यमतिपेधनम् 'ए। न कढापि कर्तव्य'-मिति, इयच द्विविधा द्रव्यतो भावतश्च, यथा कवित्पौढशिरित्सको विचिरित्सकान् कॉविद्रोगिणो चारयति-'युष्माभिरोपभ्यनुलपथ्याहारादिना वर्तितव्यमितरथा रोगो दुश्चि कित्स. स्या'-दिति, इम चिरित्साहितोपदेश प्रेम्णा श्रुत्वा ये तया पथ्येन वर्तन्ते ते ततो रोगान्मुक्त्वा मुखिनो भवन्ति, ये च जिहालोलपिनो वैववचनमनादृत्य यथारुचि विदधते ते तेनैवाऽपथ्यसेवनेन गददलितदेहा निरुपाया मृत्युमुख प्रविशन्ति, उचित शिक्षा देना। वारणा अकृत्य सेवनसे रोकना। यह दो प्रकारकी है। (१) द्रव्यवारणा और (२) भाववारणा, उनमें द्रव्यवारणा जैसे-कोई वैद्य रोगी को कहता है-'अमुक दवाम अमुक अमुक वस्तु पथ्य है इसका सेवन करो और अमुक अमुक वस्तु कुपथ्य है इसे छोडो, नही तो रोग दूर नहीं होगा' इत्यादि जो रोगी वैद्य के इस वचन को हितबुद्धि से सुनकर इसके अनुकूल पथ्य सेवन करता है वह उस रोग से मुक्त हो कर सुख का प्राप्त करता है, और जो वैद्य के वचन का अनादर कर अपना इच्छासे वर्त्तता है वह नाना प्रकार के कष्टों को भोगता हुआ मृत्यु तक को भी प्राप्त हो जाता है। વારણ નહિ કરવા લાયક કામથી રોકવુ તે બે પ્રકારની છે (૧) દ્રવ્યવારણ અને (૨) ભાવવારણ દ્રવ્યવારણ– જેમ કે વૈદ્ય રોગીને કહે કે “અમુક દવામાં અમુક વસ્તુ ખાવા લાયક છે તેનું સેવન કરે અને અમુક વસ્તુ ખાવા લાયક નથી તેથી તેને છે નહિતર રોગ મટશે નહિ” વિગેરે, જે દદી વૈદ્યનું આ વચન હિત-બુદ્ધિથી સાભળીને તેને અનુકૂળ 5 પચ્ચનું સેવન કરે છે તે તેને રેગથી છુટીને સુખ મેળવે છે, અથવા જે વૈદ્યનું વચન પાળ્યા વિના પિતાની મરજી પ્રમાણે વતે છે તે અનેક પ્રકારના દુ ને ભેગવતે થકે મૃત્યુ સુધી પહોચી જાય છે १ वारणा। २ सशयालन् । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका सैपा द्रव्यवारणा, भाववारणा तु दृष्टान्तस्यैवोपनयो यथा-काँश्चित्कर्मरोगग्रस्तॉस्ततो मुक्तिकामान् प्राणिन आचार्यवैद्यो वारयति-'युप्माभिः सर्वदा प्रवचनौपधग्रहणपूर्वक ज्ञानाचारादिपथ्यसेवकर्भवितव्यमितरथा प्रमादादिरोगोऽय दुश्चिकित्स' स्यादिति, तेषु ये तथा ज्ञानाचारादिपथ्यपालनेन वर्तन्ते ते तस्माद्रोगाद्विमुच्य सुखमश्नुवते, ये चेन्द्रियारामाः कामभोगादिरूपमपथ्य न त्यजन्ति ते भूयो भूयो जन्म-जरा-मरणानि प्राप्नुवन्तीति । धारणा विषयान्तरनित्तिपुरस्सर मनस. सयममार्गे स्थिरीकरणम् । नोदना (चोयणा)=सामाचारीतो बहि. प्रवर्त्तमानाना सामाचारी पालयितु प्रवर्जना । प्रतिनोदना (पडिचोयणा) च भाववारणा-दृष्टान्त का उपनय स्वरूप है, जैसे कर्मरोगसे पीडित मोक्षाभिलाषी प्राणियोंको आचार्यरूप वैद्य उपदेश देते है'इस प्रवचनरूप औपध में ज्ञानाचार आदि पथ्य है इस का सेवन करना चाहिये और विषय भोगादि कुपथ्य है उसे छोडना चाहिये, अन्यथा कर्मरोग का मिटना असम्भव है' इत्यादि, जो इस वचन के अनुसार नियमसे चलता है वह उस कर्म रोग से मुक्त होकर शिवसुख को पाता है, और जो आचार्य के वचन का अनादर कर स्वच्छन्द प्रवृत्ति करता है वह नाना प्रकार के दुखों को भोगता हुआ बारवार जन्म जरा मरण पाता है। धारणा-मनको अन्य २ विषयों से हटा कर सयम मार्ग मे स्थिर करना। चायणा-सामाचारी से याहर प्रवृत्ति करने वालों को ભાવવારણુ–-દષ્ટાતનું ઉપનય સ્વરૂપ છે જેવી રીતે કર્મજન્ય રોગથી પીડિત મેક્ષાભિલાષી પ્રાણિઓને આચાર્યરૂપ વૈદ્ય ઉપદેશ આપે છે “આ પ્રવચનરૂપ ઓષધમા જ્ઞાનાચાર આદિ પચ્ચ છે તેનું સેવન કરવું જોઈએ અને વિષયભોગ વિગેરે કુપ છે તેને છેડી દેવા જોઈએ નહિતર કર્મજન્ય રોગ મટવા કઠિન છે ઈત્યાદિ જે આ વચન અનુસારે નિયમથી ચાલે છે તે કર્મરોગથી મુકત થઈને શિવસુખને પ્રાપ્ત કરે છે, અને જે આચાર્યના વચનને અનાદર કરીને સ્વરછન્દ પ્રવૃત્તિ કરે છે તે અનેક પ્રકારના દુ ખેને ભગવતે વારવાર જન્મ જરા અને મરણ પામે છે ધારણમન બી--બીજા વિમાથી હઠાવીને સયમમાર્ગમાં સ્થિર કરવું એયણું=સામાચારીથી બહાર પ્રવૃત્તિ કરવાવાળાને ફરીથી સામાચારીમાં પ્રવૃત્ત Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ आवश्यकसूत्रस्य - - पौनापुन्येन सामाचारीस्खलिताना धिम्मिगिस्यादिपरुपमर्सनापूर्वकमगाढमेरणा। आचार्यस्य 'गणी'-त्यपि नाम, गणः साधुसमुदायः सोऽस्त्यस्येति व्युत्पत्तेर्गणी, तस्य गणिन सम्पदः प्रसङ्गदो लक्ष्यन्ते, वा अष्टी-(१) आचारसम्पद , (२) श्रुतसम्पत्, (३) शरीरसम्पत् , (४) वचनसम्पद, (५) पाचनासम्पद, (६) मति सम्पत्, (७) प्रयोगसम्पत् , (८) सग्रहसम्पचेति । एता अपि प्रत्येक चतुर्विधा, त थाहि-आचारसम्पच्चतुर्दा यथा-(१) सयमनुवयोगयुक्तत्व, (२) जात्यादिमदरहितत्वम् , (३) अनियतविहारित्र, (४) वृद्धवन्मनःकायनिर्विकारत्न चेति । फिर से सामाचारी में प्रवृत्त करना । पडिचायणा-यारयार सामाचारी से स्खलितों को रूक्ष वचनों से फटकार कर सामानारी में प्रवृत्त करना। आचार्य को गणी भी कहते हैं, उनकी आठ सपदाएँ है (१) आचारसम्पदा, (२) श्रुतसम्पदा, (३) शरीरसम्पदा, (४) वचनसम्पदा, (५) वाचनासम्पदा, (६) मतिसम्पदा, (७) प्रयोगसम्पदा (८) सग्रहसम्पदा। [१] आचारसम्पदा के चार भेद हैं - (१) चारित्रमें निरन्तर समाधियुक्त रहना, (२) जात्यादिमद का परित्याग (३) अप्रतिबन्ध विहार, (४) वृद्ध के समान इन्द्रियादिविकार रहित होना। કરવા પડિયા વારંવાર સામાચારીમાં ભૂલ કરનારને રૂક્ષ વચનેથી ફિટકારીને સામાચારીમાં પ્રવૃત્ત કરવા આચાર્યને ગણું પણ કહે છે, આચાર્યની આઠ સપદા છે (૧) આચાર सपही, (२) श्रुतसम्पहा, (3) शरीरस पहा, (४) पयनस पहा, (५) वायना Al, (९) भातसम्हा , (७) प्रयोगस पEt, (८) ससपहा । (૧) આચારસસ્પદાના ચાર ભેદ છે-(૧) ચરિત્રમાં હમેશા સમાધિયુક્ત રહેવું (૨) જાતિ વગેરેના મદને પરિત્યાગ, (૩) અપ્રતિબન્ધ-વિકાર, (૪) વૃદ્ધ સમાન ઇકિયાદિ-વિકાર-રહિત થવું १ 'गणी' इत्यत्र गणशब्दात् 'अत इनिठनौ' (५।२।१५) इवि पाणिनिवचनेन मत्वर्थीय इनिः । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपणी टीका ५५ श्रुतसम्पञ्चतुर्दा यथा-(१) बहुश्रुतत्व, (२) परिचितमूत्रत्व, (३) परिज्ञातोत्सर्गापवादत्वम् (४) उदात्तानुदात्तायनुसन्धानपूर्वकयथोचितवर्णोच्चारयितत्व चेति । तत्र बहुश्रुतत्व-यदा यावन्ति भूत्राणि तदा तावत्सर्वपरिज्ञातृत्वम् , परिचितमूत्रत्व स्वनामादिवत्कदाप्यविस्मृतमूत्रत्वम् । शरीरसम्पञ्चतुर्दा यथा(१) समचतुरस्रसस्थानत्वम् , (२) सम्पूर्णागोपाङ्गत्वम् , (३) प्रतिपूर्णेन्द्रियत्वम् , (४) स्थिरसहनत्व चेति । वचनसम्पञ्चतुर्दा यथा-(१) आदेयवचनत्व, (२) मधुरवचनत्व, (३) म-यस्थवचनत्व, (४) स्फुटवचनत्व चेति । वाचनासम्पञ्चतुर्दा यथा-(१) पानपात्रविवेचकत्व, (२) कृतपूर्वसूत्रार्थ [२] श्रुतसम्पदा के चार भेद हैं- (१) जिस समय जितने सूत्र हों उन सब का ज्ञान रखना । (२) अपने नामकी तरह सूत्रों को कभी न भूलना । (३) उत्सर्ग अपवादका ज्ञान रखना । (४) उदात्त अनुदात्त आदि स्वरों के अनुसन्धान पूर्वक वर्णों का शुद्ध उच्चारण करना। [3] शरीरसम्पदा के चार भेद- (१) समचोरस सस्थान का होना, (२) अगउपागों से अविकल होना, (३) सर इन्द्रियों से परिपूर्ण होना, (8) दृढ सहननका होना। [४] वचनसम्पदा के चार भेद- (१) आदेय वचन होना, (२) मधुर वचन होना, (३) मध्यस्थ वचन होना, (४) स्फुट वचन होना। [५] वाचना सम्पदा के चार भेद- (१) शिप्यों में पात्र શ્રતસમ્પદાના ચાર ભેદ છે (૧) જે સમયે જેટલા સૂત્ર હોય તે સર્વનું જ્ઞાન રાખવું, (૨) પિતાના નામની જેમ સૂત્રેને કદી પણ નહિ ભૂલવા (૩) ઉત્સર્ગ–અપવાદનું જ્ઞાન રાખવુ, (૪) ઉદાત્ત-અનુદાત્ત આદિ સ્વરેના અનુસંધાન પૂર્વક વર્ણોને શુદ્ધ ઉચાર કરે (૩) શરીરસર્પદાના ચાર ભેદ– (૧) સમોન્સ સસ્થાનનું હોવું (२) २५-पागोथी अविश्व यवु, (3) सप दियाथी परिपूर्ण पY (४) ६८ સહનનનું કહેવું (४) क्यानसहाना या२ - (१) माय पयन (२) मधु२ पयन (3) मध्यस्य चयन, (४) शुट पयन (૫) વાચનાસભ્યદાને ચાર ભેદ– (૧) શિમાં પા-કુપાત્રપણને Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य परिपाकाय शिष्याय सत्रार्थपदावत्य, (३) मत्राभ्ययनार्थमुत्साहदातृत्व (४) पूर्वापरार्थसागत्यनिपुणत्व चेति । मतिसम्पचतुर्दा यथा-(१) अत्रग्रहः (सामा न्येन पदार्थनिर्णयः), (२) ईहा (विशेष विमर्शः), (३) अवायः (निश्चयः) (४) धारणा (कालान्तरायाविस्मरण) चेति । 'प्रयोगसम्पच्चतुर्दा यथा-(१) वादविपयकस्वसामर्थ्यज्ञान, (२) परिपत्परिज्ञान, (३) क्षेत्रपरिज्ञान, (४) वस्तुपरिज्ञानर चेति । सग्रहसम्पचतुर्दा यथा-(१) गणस्थालवृद्धादिमुनिनि कुपात्र का विचार करना, (२) पूर्व पढाए हुए सूत्रार्थ का परिपाक होने पर आगे पढाना, (३) सूत्र पढनेके लिए उत्सार देना, (४) सूत्रार्थ की पूर्वापर सगति करने में निपुण होना । [६] मतिसम्पदा के चार भेद- (१) अवग्रह (सामान्य रूपसे पदार्थों का निर्णय करना), (२) ईहा (विशेष रूप से जानना), (३) अवाय (पदार्थ का ठीक निश्चय करना), (४) धारणा (कालान्तर में नहीं भूलना)। [७] प्रयोगसम्पदा के चार भेद- (१) बादमें अपने सामथ्र्यका ज्ञान रखना, (२) परिपद् का ज्ञान रखना, (३) क्षेत्र का ज्ञान रखना, (४) राजा मन्त्री आदि का ज्ञान रखना। [८] सग्रहसम्पदा के चार भेद- (१) गणमें रहे हुए बाल વિચાર કર, (૨) પ્રથમ ભણવેલા સૂત્રના અર્થને પરિપાક થયા પછી આગળ અભ્યાસ કરાવ, (૩) સૂત્રને અભ્યાસ કરવામાં ઉત્સાહ આપે, (૪) સૂરાર્થના પૂર્વાપર સગતિ કરવામાં નિપુણ થવુ (6) भतिसम्पहाना यार लेह- (१) अपय-सामान्य ३५थी पहाना નિર્ણય કરે (૨) ઈહા વિશેષરૂપથી જાણવુ, (૩) અવાય-પદાર્થને બરાબર નિશ્ચય કર (૪) ધારણ-કાલાન્તરમાં પણ ભૂલવું નહિ (૭) પ્રાગ સર્પદાના ચાર ભેદ (૧) વાદ કરવા વખતે પિતાના સામર્થ્યનું ज्ञान राम, (२) परिवहनु ज्ञान रामधु, (3) क्षेत्र ज्ञान (४) Ron, भत्री વગેરેનું જ્ઞાન રાખવું (૮) સંગ્રહ સંપદાના ચાર ભેદ- (૧) ગણુમાં રહેલા બાલ વૃદ્ધ આદિ १- प्रयोगसम्पत्=बादमेधा। २-वस्तुपरिज्ञानराजामात्यादिपरिज्ञानम् । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ - मुनितोपणी टीका वाहयोग्यक्षेत्रादिनिरीक्षणविपया, (२) वालग्लानादियोग्यसस्तारकादिव्यवस्थाकरणविषया, (३) यथाकाल स्वाध्यायाधनुष्ठानविषया, (४) यथायोग्यविनयविपया चेति । आसामष्टविधसम्पदा विस्तरतो व्यारया मकृद्दशाश्रुतस्कन्धमत्रस्य टीकाया विलोकनीया । एत एवोक्तलक्षणा आचार्याः (१) प्रवचनप्रभावकोपदेश-(२)वादाधिकरणकगावतिकजय-(३) निमिचज्ञान-(४) तपस्वित्वा-(५)ऽजनसिद्धि-(६) लब्धिसिद्धि(७) कर्मसिद्धि-(८) विद्यासिद्धि-(९) मन्त्रसिद्धि--(१०) योगसिद्वया-(११) ऽऽगमसिद्धि-(१२) युक्तिसिद्धय-(१३) ऽभिपायसिद्धि-(१४) गुणसिद्ध(१५) ऽर्थसिद्धि-(१६) कर्मक्षयसिद्धि-रूपैविशिष्टैः पोडगभिर्गुणैरप्युपलक्षिता वृद्ध आदि मुनियोंके निर्वाहयोग्य क्षेत्र आदिका निरीक्षण करना, (२) बाल-ग्लान आदिके योग्य शय्या-सथारा आदि की व्यवस्था करना, (३) यथाकाल स्वाध्याय आदि करना, (४) यथायोग्य बडों का वन्दन आदि विनय करना। ये ही उक्तगुणसम्पन्न आचार्य जय-(१) प्रवचनप्रभावक उपदेश देना, (२) वादमें मदा जय, (३) निमित्तज्ञान, (४) तपस्या, (५) अवनसिद्धि, (६) लब्धिमिद्धि, (७) कर्ममिद्वि, (८) विद्यासिद्धि, (९) मन्त्रसिद्धि, (१०) योगसिद्धि, (११) आगमसिद्धि, (१२) युक्तिसिद्धि, (१३) अभिप्रायसिद्धि, (१४) गुणसिद्धि, (१५) अर्थसिद्धि, (१६) कर्मक्षयसिद्धि, इन सोलह विशेप गुणों से युक्त होते हैं तय મુનિન નિર્વાહ એગ્ય ક્ષેત્ર આદિને તપાસ કરે, (૨) બાલ, દ્વાન આદિના યેગ્ય શા સારા આદિની વ્યવસ્થા કરવી, (૩) યથાસમય સ્વાધ્યાય આદિ કરવા (૪) મોટા હોય તેને યોગ્ય વિનય અને વદનાદિ કરવું ઉપર પ્રમાણે કહેલા ગુણથી પૂર્ણ હોય તેવા આચાર્ય જ્યારે (૧) પ્રવચન પ્રભાવક ઉપદેશ આપે છે (૨) વાદમાં વિજય મેળવે છે, (૩) નિમિત્તજ્ઞાન, (४) तपस्या, (५) Arela, (6) allAa, (७) भसिद्धि, (८) विधासिद्धि, (6) भत्रसिद्धि, (१०) योगसिदि, (११) मामासाद, (१०) युतिसिद्धि (13) मक्षिप्रायसिद्धि, (१४) शुशुमिति, (१५) मसिद्धि (१६) भक्षयसिद्धि આ મેળ વિશેષ ગુણેથી યુકત હોય છે ત્યારે તે “યુગપ્રધાનાચાર્ય Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य % 3D परिपाकाय शिष्याय मृत्रार्थपदावत्व, (३) मनाध्ययनार्थमुत्साहदातृत्व (४) पूर्वापरार्थसागत्यनिपुणत्व चेति । मतिसम्पञ्चतुर्दा यथा-(१) अवग्रहः (सामान्येन पदार्थनिर्णयः), (२) ईहा (विशेपरिमर्शः), (३) अवायः (निश्चयः) (४) धारणा (कालान्तरायाविस्मरण) चेति । प्रयोगसम्पचतुर्दा यथा-(१) वादविपयकस्वसामर्थ्यज्ञान, (२) परिपत्परिज्ञान, (३) क्षेत्रपरिज्ञान, (४) वस्तुपरिज्ञान' चेति । सग्रहसम्पञ्चतुर्दा यथा-(१) गणस्थवालवृद्धादिमुनिनि कुपात्र का विचार करना, (२) पूर्व पढाए हुए सूत्रार्थ का परिपाक होने पर आगे पढाना, (३) सूत्र पढनेके लिए उत्साह देना, (४) सूत्रार्थ की पूर्वापर सगति करने में निपुण होना। [६] मतिसम्पदा के चार भेद- (१) अवग्रह (सामान्य रूपसे पदार्थों का निर्णय करना), (२) ईहा (विशेष रूप से जानना), (३) अवाय (पदार्थ का ठीक निश्चय करना), (४) धारणा (कालान्तर में नहीं भूलना)। [७] प्रयोगसम्पदा के चार भेद-(१) वादमें अपने सामथ्र्यका ज्ञान रखना, (२) परिषद् का ज्ञान रखना, (३) क्षेत्र का ज्ञान रखना, (४) राजा मन्त्री आदि का ज्ञान रखना। [८] सग्रहसम्पदा के चार भेद- (१) गणमें रहे हुए बाल વિચાર કર, (૨) પ્રથમ ભણવેલા સૂત્રના અર્થને પરિપાક થયા પછી આગળ અભ્યાસ કરાવે, (૩) સૂત્રને અભ્યાસ કરવામાં ઉત્સાહ આવે, (૪) સૂરાર્થની પૂર્વાપર સગતિ કરવામાં નિપુણ થવું (6) मतिसम्पहाना यार लेह- (१) अव-सामान्य ३५थी पहायला નિર્ણય કરે (૨) ઈહા વિશેષરૂપથી જાણવુ, (૩) અવાય-પદાર્થને બરાબર નિશ્ચય કરે (૪) ધારણુ-કાલાન્તરમા પણ ભૂલવું નહિ (૭) પ્રયોગ સર્પદાના ચાર ભેદ (૧) વાદ કરવા વખતે પિતાના સામર્થ્યનું ज्ञान राम, (२) परिष ज्ञान समयु (3) क्षेत्रनु ज्ञान राम (४) रात, भत्री વગેરેનું જ્ઞાન રાખવું ૮) સંગ્રહ સંપદાના ચાર ભેદ– (૧) ગણુમાં રહેલા બાલ-વૃદ્ધ આદિ १-प्रयोगसम्पत्-बादमेधा। २- वस्तुपरिज्ञानराजामात्यादिपरिज्ञानम् । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मुनितोपणी टीका गणधरास्तमेव परम्पराऽऽयात शिष्यानध्यापयन्ति ये ते उपाध्याया उच्यन्ते इति सारः। अपिया आधे मनोव्यथाया आया लाभः आध्यायः, उपहता नाशित आध्यायो यैस्ते उपा-याया: प्रवचनतत्त्वोपदेशेन मुनिहृदयसन्तोपका इत्यर्थः, अतएव नमस्कारार्हाः, ज्ञानदर्शनचारित्रयुक्तत्वाच्च । णमो लोए सब्बसाहूण' इति, नमो लोके सर्वसाधुभ्यः' । साधयन्ति सानुवन्ति वाभिलपितार्थ निर्वाणसाधकान् योगान्, यद्वा सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपरनत्रयवलेनाऽपवर्गमिति, अथवा निरुक्तव्युत्पत्त्या भूतेषु समता ध्यायन्तीति दधत इति, मोक्षमार्ग प्रति गच्छता सहायका भवन्तीति वा 'साधवः, अत्र 'सई' पदेन सा द्वीपद्वयरूपलोकस्था गृह्यन्ते, ते च ते साधवश्व, यद्वा तीर्थरो से उपदिष्ट और सूत्ररूपमें गणधरो से रचित परम्परा से प्राप्त द्वादशाङ्ग के पढाने वाले, अथवा प्रवचन का पाठ देकर आधिमनकी व्यथा के आय-प्राप्तिको उप-उपहत अर्थात् दूर करने वाले उपायाय को नमस्कार हो। ज्ञानदर्शनचारित्र से युक्त तथा सूत्र पढाने के कारण उपकारी होनेसे उपाध्याय नमस्कार के योग्य हैं। ___ 'नमो लोए सव्वसाहण'-अभिलषित अर्थ को, निर्वाणसाधक योगो को अथवा सम्यग् ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नों से मोक्षको साधनेवाले, अथवा सब प्राणियों पर समभाव रखनेवाले, या मोक्षाभिलाषी भव्यों के सहायक, तथा अढाई द्वीपरूप लोकमें रहनेवाले કરોથી ઉપદેશાયેલા અને સૂત્રરૂપમા ગણધરેથી રચાયેલા પરમ્પરાથી પ્રાપ્ત દ્વાદશાગ ને અભ્યાસ કરાવનાર, અથવા પ્રવચનને પાઠ આપીને આધિ=મનની વ્યથાને આય પ્રાપ્તિને ઉપsઉપહત અર્થાત દૂર કરવાવાળા ઉપાધ્યાયને નમસ્કાર થાય જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રથી યુક્ત તથા સૂત્રને અભ્યાસ કરાવવાના કારણે ઉપકારી હોવાથી ઉપાધ્યાય નમસ્કાર કરવા એગ્ય છે _ 'नमो लोए सव्यसाहूण'---मभिसाषित मर्थन, નિર્વાણસાધક ગેને, અથવા સમ્યફ જ્ઞાન દર્શન ચરિત્ર રૂ૫ રનેથી મેક્ષને સાધવાવાળા અથવા સર્વ પ્રાણુઓ ઉપર સમભાવ રાખવાવાળા અથવા મોક્ષના અભિલાવી ભવ્ય અને સહાયક તથા અઢી કપ-રૂપલેકમાં રહેવાવાળા સર્વ १- 'साधव' औणाग्यिपक्रियया पृपोदरादित्वाद्वा शन्दसिद्धिः । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमुत्रस्य भवन्ति, तदा युगपधानाचार्या उच्यन्ते । ते चाचार्या यथा तीव्रभानी भानावस्तमिते प्रदीपो घटपटादिपदार्थजात स्वभासा भासयति तमश्च व्यपोहति तथा भगवति तीर्थकरे सिद्धगति समाप्ते भुवननयस्य तत्त्वार्थप्रकाशनेन मिथ्यात्वादिक निजमतिभया व्यपगमयन्तीत्यतो नमस्करणीयत्वमेपाम् । णमो उवझायाण' इति 'नम उपायायेभ्य:' उप-समीपम् एत्याधी यते येभ्यस्ते 'उपाध्यायाः। यद्वा उपस्य सामीप्यार्थकत्वादधीत्यस्य चाऽऽधिक्यार्थकत्वात् उप-समीपम् अधि आधिक्येन ईयते भाप्यते येपा ते तथा । अथवा उपाधीयते समीपावस्थानेन स्मयते सूत्रतो जिनभापित मुनिभिर्येभ्यस्ते. तथा । य द्वादशाङ्गस्वरूप स्वाध्यायमादावर्थतस्तीर्थकरा उपदिदिशुस्तदनु च मूत्रतो 'युगप्रधानाचार्य' कहलाते हैं। जैसे तीव्र किरणोंवाले सूर्यके अस्त हो जाने पर दीपक अपने प्रकाश से घट-पट आदि पदार्थों को प्रकाशित करता और अन्धकार को हटाता है उसी तरह तीर्थङ्कर भगवान के मोक्ष पधार जाने पर आचार्य महाराज तीनों लोक के जीवादि पदार्थोंका प्रकाश करते (स्वरूप बताते) हुए मिथ्यात्व आदि को हटाते हैं, इसलिए उपकारी होने के कारण वे वन्दन करने योग्य हैं। . __नमो उवज्झायाण'-समीपमें आये हुए मुनियों को अर्थरूपमे કહેવાય છે જેવી રીતે નીવ્ર કિરણે વાળે સૂર્ય અસ્ત પામી જાય છે ત્યારે દીપક [દી પિતાના પ્રકાશથી ઘટ-પટ વગેરે પદાર્થોને પ્રકાશિત કરે છે અને અધિકારને દૂર કરે છે તેવી રીતે તીર્થ કર ભગવાનના મેક્ષ ગયા પછી આચાર્ય મહારાજ ત્રણેય લેકના જીવાદિ પદાર્થોને પ્રકાશ કરીને સ્વિરૂપ બતાવીને મિથ્યાત્વ આદિને દૂર કરે છે એટલા માટે ઉપકારી હોવાના કારણે તેઓ નમસ્કાર કરવા ગ્ય છે 'नमो उवज्झायाण' पोताना सभापमा २९सा भुनिभाने म३५मा तार्थ १-'इड् अध्ययने' अस्मात् 'इडश्च' (३।३।२१) इति वचनेनाऽऽपादाने घन्। २-'यद्वा उपाध्याया' उपाऽधिपूर्वकात् ' इण गतौ ' अस्मात् 'अकर्तरि च फारके सज्ञायाम् ' (६ । ४ । २८) इति वचनवलेन बाहुलकाद्वाऽधिकरणे घन । ३-अथवा 'इक् स्मरणे' अस्मात्पूर्वोक्तोपसर्गद्वयविशिष्टात्माग्वद् घन् । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका 'णमो सिद्धाण णमो लोए सव्वसाहूण' इत्युभयात्मक एव नमस्कार उच्येत न तु पञ्चविधात्मक , साधुत्वावच्छिन्नतयाऽईदाचार्यादीना साधुष्वन्तर्भावात् , सिद्धाना च कृतकृत्यतया साधुग्रहणेनाऽग्रहणात् । न द्वितीयम् , एव सति हि 'नमो उसभस्स' 'नमो अजिअस्स' इत्याचेकैकशो नामग्रहणपूर्वकमेवोक्तियुक्ता, ततश्व नमस्काराऽऽनन्त्य प्राप्नोति, अहंता सिद्धाना च समयभेदेनाऽऽनन्त्यात्, एवमाचार्योपान्यायसाधुनामपीति सर्वथा पञ्चविधात्मको नमस्कारो न युज्यत इति, अत्रोच्यते-अईदादिपु नियमेन साधुगुणसद्भावात्साधुत्व, साधुषु त्वहत्त्वाहो चुके हैं, इसलिए सावु-पदसे ग्रहण नहीं होसकने के कारण 'नमो सिद्धाण' और अरिहन्त आचार्य उपाध्यायों में सावुपन रहने के कारण 'नमो लोए सव्वसाट्टण' इतना ही कहना आवश्यक था। यदि विस्तारसे किया गया मानें तो 'नमो उसभस्स' 'नमो अजिअस्स' इत्यादि प्रकार से सव तीर्थङ्कर अरिहन्तों का, तथा 'नमो एगसमयसिद्धाण' 'नमो दुसमयसिद्धाण' इत्यादि प्रकारसे यावत् सख्यात असख्यात अनन्तसमय सिद्धों का एव आचार्यादिकों का अलग २ नाम ग्रहण करने से अनन्त भेद हो जायँगे, अत एव यह पच नमस्कार न सक्षेपसे कह सकते है और न विस्तारसे । उत्तर-माना कि अरिहन्त आचार्य आदि भी साधु हैं परन्तु सामान्यतया साधु शब्दसे नमस्कार करने पर सिर्फ साधुनमस्कारका पथी अडए नहि ५६ पाना जाणे 'नमो सिद्धाण' म मरिसत भाया Sपाध्यायोमा साधुपा २७वाना र 'नमो लाए सव्यसाहूण' मेदु ४५ ४३॥ तु ने तमे विस्तारथी अपामा माथ्यु छ मेम भान त 'नमो उसभस्स' 'नमोअजिअस्स' त्या प्रस्थी सतीर्थ ४२ मशिन्ताना तथा 'नमो एगसमयसिद्धाण' 'नमो दुसमयसिद्धाण' इत्याहि २थी तमाम सध्यात असभ्यात मनन्तसमय સિદ્ધોના, એ પ્રમાણે આચાર્યાદિના જુદા-જુદા નામ ગ્રહણ કરવાથી અનત ભેદ થઈ જશે એ કારણથી આ પાચ નમસ્કાર સક્ષેપથી છે અથવા તે વિસ્તારથી છે એમ કહી શકાશે નહિ ઉત્તર–માની ત્યે કે અરિહત આચાર્ય આદિ પણ સાધુ છે, પરંતુ સામાન્ય રીતે સાધુ શબથી નમસ્કાર કરવાથી માત્ર સાધુનમસ્કારનું જ ફળ થાય Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावश्यक मूत्रस्य 'सर्वस्य सर्वज्ञस्य (अर्हतः) साधवः सर्वसाधरः । अथवा प्राकृते सर्व-सार्वशब्दयोः 'सव्व' इतिरूपसचात् सार्वस्य सर्वज्ञस्येत्यादि माग्वत् तेभ्य इत्यर्थः । साधवो हि शब्दरूपगन्धरसस्पर्शपञ्चककामगुणनियत्ता विशुद्धचारित्रेण विविधाभिग्रहादि नियमैश्च सयुक्ता' मोक्षगुणसाधका उपदेशद्वारा सर्वमाणिहितकारिणश्च, अतएव नमस्कारार्हाः। आह-मूत्रमत्तिद्विधा सक्षेपतो विस्तरतो वा, सक्षेपतो यथा-सामायिकमूत्रम् , रिस्तरतो यथा-द्वादशागगणिपिटकः तत्रेद नमस्का रात्मक सूत्र कि सक्षेपमधिकृत्य वर्त्तते विस्तर वा ? नाय, तथा सति हि सभी या सर्वज्ञ के साधुओं को नमस्कार हो। शब्द-रूप-गन्ध-रस और स्पर्श, इन पाच कामगुणों से निवृत्त और विशुद्ध चारित्र तथा अनेक अभिग्रहों से युक्त, एव आत्म कल्याण के लिये मोक्षगुण के साधक तथा उपदेश द्वारा प्राणी मात्र के हितकारी होने से साधु नमस्कार के योग्य है। . यहा प्रश्न उठता है कि-सूत्रकी प्रवृत्ति या तो सक्षेपसे होती है, जैसे सामायिक सूत्र, या विस्तार से-जैसे-द्वादशाङ्ग गणिपिटक, सो यह नमस्कार क्या सक्षेपसे किया गया है या विस्तारसे' यदि कहें कि सक्षेपसे किया गया है तो सिद्ध भगवान् कृतकृत्य અથવા સર્વજ્ઞના સાધુઓને નમસ્કાર કરૂ છું. શબ્દ-રૂપ–ગન્ધ-રસ અને સ્પશે આ પાચ કામગુણોથી નિવૃત્ત અને વિશુદ્ધ ચારિત્ર તથા અનેક અભિગ્રહોથી યુકત એ પ્રમાણે આત્મકલ્યાણ માટે મેક્ષ ગુણના સાધક તથા ઉપદેશ દ્વારા પ્રાણી માત્રના હિતકારી હોવાથી સાધુ નમસ્કાર કરવા ગ્ય છે અહિં એક પ્રશ્ન ઉઠે છે કે –સૂત્રની પ્રવૃત્તિ સંક્ષેપથી હોય છે, જેવી રીતેસામાયિક સૂત્ર અથવા તે વિસ્તારથી જેમ કે દ્વાદશાંગ ગણિપિટક, તે આ નમસ્કાર સક્ષેપથી કહેવામાં આવ્યું છે કે વિસ્તારથી? જે કહેશો કે સક્ષેપથી કહેવામાં આવ્યું છે તે સિદ્ધ ભગવાન કૃતકૃત્ય થયેલા છે એટલા માટે સાધુ १- देवादिशब्दस्य देवदत्तादिपरत्ववत् "विनापि प्रत्यय पूर्वोत्तपदयोर्वा लोपो वाच्य." (३ । २ । ८८) इति कात्यायनवार्तिकानुशासनबलात् सर्वपद सर्वज्ञपर तेन सर्वस्य सर्वज्ञस्येत्यर्थ । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका __ आह-क्रम आनुपूर्वी, सा च द्विविधा-पूर्वानुपूर्वी पश्चादानुपूर्वी च, क्रमेण प्रथममारभ्यान्तानुधावन पूर्वानुपूर्वी, व्युत्क्रमेणान्तमारभ्य प्रथमानुधावन पश्चादानुपूर्वी, तत्रायमईदादिनमस्कारक्रमो न पूर्वान्वयी कृतसकलकृत्याना 'सिद्धाण णमोकार करेंति' (आचा० द्वि. शु. १५ भा. अ.) इत्यादिनाs हद्भिरपि नमस्कार्यतया सर्वाभ्याहितत्वेन मार प्रयोज्याना सिद्धानामादावनमिधानात् । नापि पश्चादानुपूर्वी, तथा सति ह्यदादिपञ्चके सर्वाप्रधानभूतानादौ साधूस्तत उपाध्यायॉस्तत आचार्यास्ततोऽर्हतः प्रतिपाद्य सिद्धाना प्रतिपादन युज्यते न तु यथोक, तस्मान्नेय पूर्वानुपूर्वी नापि पश्चानुपूर्वीति । प्रश्न-आनुपूर्वी (क्रम) दो प्रकार की है, एक पूर्वानुपूर्वी और दूसरी पश्चादानुपूर्वी, प्रधान क्रमको पूर्वानुपूर्वी कहते हैं और अप्रधान क्रमको पश्चादानुपूर्वी, उनमें यह नमस्कार यदि पूर्वानुपूर्वी से किया गया मानें तो 'अरिहताण' से पहले 'सिद्धाण' कहना चाहिये, क्योंकि कृतकृत्य होने तथा अरिहन्तोंसे नमस्कार किये जाने के कारण सिन्द भगवान अरिहन्तों से भी श्रेष्ठ हैं, यदि पश्चादानुपूर्वी से माने तो सब से प्रथम साधु, तय उपायाय, अनन्तर आचार्य, तदनन्तर अरिहन्त, बादमें सिद्ध को नमस्कार किया जाना चाहिये, न कि उक्त रीतिसे, अतः यह नमस्कार आनुपूर्वी (क्रम) से रहित है, इत्यादि। પ્રશ્ન–આનુપૂર્વી [ક્રમ બે પ્રકારની છે એક પૂર્વાનુમૂવી અને બીજી પશ્ચાદાનુપૂવી પ્રધાન મને પૂર્વાનુપૂવી કહે છે, અને અપ્રધાન મને પશ્ચાદાનું પૂવી કહે છે, તેમાં આ નમસ્કારને જે પૂર્વનુપૂવથી કરેલા છે એમ માનશે તે ચરિતાળ થી પહેલા વિજ્ઞાન કહેવું જોઇએ કારણ કે કૃતકૃત્ય થવાથી તેમજ અરિહન્તએ તેમને નમસ્કાર કરેલા છે તે કારણથી સિદ્ધ ભગવાન અરિહન્તથી પણ શ્રેષ્ઠ છે હવે જે પશ્ચાદાનુપૂવીથી માનશે તે સૌથી પ્રથમ સાધુ, તે પછી ઉપાધ્યાય, અનન્નર આચાર્ય, ત્યાર પછી અરિહત અને છેવટે સિદ્ધને નમસ્કાર કર જોઈએ નહિ કે ઉપર પ્રથમ કહેવા પ્રમાણે એ કારણથી આ નમસ્કાર-પદ્ધતિ આનુપૂર્વી (ક્રમ)થી રહિત છે વગેરે १-'अभ्यहित च' उति (का.या ११४।१२) वचनेनाऽभ्यहितस्य पूर्वपयोगविधानात् । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ आवश्यकमूत्रस्य दयो भजनीयाः (फचित्सभवन्ति कचिन्न ), इति सामान्यतः साधुशब्देन नमस्कारेऽन्नमस्कारजन्यस्य विशिष्टफलस्य प्राप्तिर्न जातु सभाति, नहि नरसामान्य नमस्कारेण राजादिनमस्कारजन्य विशिष्ट फल कचिदपि दृष्टचरम् । नरसामान्यग्रहणेन विशिष्टराजादिपरिज्ञानस्य तत्मसादस्य चैकान्तमसम्भवादिति सामान्यतो नमस्कारद्वैरिय विशिष्टफलानुत्पादकत्वादुपेक्ष्य पञ्चविधो नम स्कार आश्रित इति सक्षेपत एवाय नमस्कारों न विस्तरत इति । ही फल होता है, अरिहन्त आचार्य आदि के नमस्कार का नहीं, क्योंकि नमस्कार ऐसे शब्दो से किया जाता है जिनसे नमस्करणीयमें रहे हुए असाधारण गुणोंका बोध होसके, अरिहन्त आचार्य आदिमें रहे हुए गुणोका बोध अरिहन्त आचार्य आदि शब्दों से ही होसकता है, साधुशब्दों से कदापि नही ! जैसे कोई यह जानकर कि राजा भी तो मनुष्य ही है, मनुष्य शब्दसे राजाको नमस्कार करना चाहे तो वह राजाके नमस्कार का फल नही प्राप्त कर सकता है, राजाके नमस्कार के लिए उसका परिचायक शब्द चाहिये, अत एव जितने शब्दों के विना विशेष विशेष अवस्था में रहे हुए अरिहन्त सिद्ध आदिको का ग्रहण होना असम्भव था, उतने शब्दोंका ग्रहण करनेपर भी यह पच नमस्कार सक्षेपसे ही है विस्तारसे नहीं । છે મળે છે પણ આચાય આદિના નમસ્કારનુ ફળ મળતુ નથી, કારણ કે – નમસ્કાર એવા શબ્દોથી કરવામા આવે છે કે જેના વડે નમસ્કરણીયમાં રહેલા અસાધારણ ગુણાને બેધ થઈ શકે અહિન્ત, આચાય આદિમાં રહેલા ગુણ્ણાના બધ અરિહન્ત આચાર્ય વગેરે શબ્દોથીજ થઈ શકે છે, પરન્તુ સાધુ શબ્દથી પિ થઈ શકશે નહિ. જેમ કેઇ માને કે રાજા પણ મનુષ્ય છે મનુષ્ય શબ્દથી રાજાને નમસ્કાર કરવા ઇચ્છા કરે તે તે માથુસ રાજાને નમસ્કાર ४२ વાનું ફળ પ્રાપ્ત કરી શકશે નહિ. રાજાને નમસ્કાર કરવા માટે રાજાના નામના પરિચય કરાવનાર શબ્દનેજ ઉપયેગ કરવા જોઈએ એ કારણથી જેટલા શબ્દે વિના વિશેષ-વિશેષ અવસ્થામા રહેલા અરિહત સિદ્ધ આદિ સોનુ અહેણુ કરવુ અસભવ છે એલા શબ્દનું ગ્રહણુ કરતા છતાય આ પચનમસ્કાર સક્ષેપથીજ છે, વિસ્તા રથી નહિ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ D मुनितोपणी टीका छद्मस्थतीर्थङ्करादिक्रममपेक्षामहे, किं तर्हि ? समुत्पन्नज्ञानदर्शनधराऽहंदादिक्रममेव, तस्मात्तीर्थमवर्तकस्वाद्देशनयाऽपारससारपारावारोतारणेन भव्येभ्यः सिद्धगतिप्रदत्वाचाईन्त एवाऽभ्यहन्तीत्येपामेव युक्तः प्रथमो नमस्कारः । ननु तर्याचार्योंपदेशतोऽपि क्दाचिद्भव्यैरहतामवगतेराचार्यादिरेव क्रमो विधेयो नाइंदादिः, न च तथा विहितोऽस्ति, तस्माद् यो यस्योपदेशकस्तस्य तदपेक्षयाऽभ्यर्हितत्वेन मागुपादानमिति त्वदुक्तमयुक्तम् , तथा सति हि गौतमादिगणधरादिभिरहद्देशनया सिद्धाना, गौतमादिशिष्योपशिष्यादिभिश्च स्वस्वगुरूपदेशत• सिद्धादीना परिज्ञानाद्गणधराणामईदादिस्तच्छिष्यादीना चाऽऽचार्यादिः क्रम आपयेतेति पूर्वपक्षिसमाक्षेपः । नही सकते हैं, इसलिये नमस्कार मन्त्र से कहे हुए अरिहन्त पदसे केवली अरिहन्तोंका ही ग्रहण है, जो कि सिद्ध भगवानके स्वरूप का भी उपदेश देकर भव्यों के अत्यन्त उपकारी है, अतः यह नमस्कार पूर्वानुपूर्वी से किये जाने के कारण क्रमशून्य नहीं है। प्रश्न-जैसे अरिहन्तके उपदेशसे सिद्ध भगवानका ज्ञान भव्यों को होता है वैसेही आचार्य उपदेशसे अरिहन्तोंका ज्ञान होना सम्भव है, ऐसी अवस्थामें अरिहन्नकी भी अपेक्षा आचार्य ही को प्रथम नमस्कार होना चाहिये, अत' उपदेशक के क्रमसे यह नमस्कार किया गया है, ऐसा कहना उचित नहीं। જ્ઞાન ઉત્પન્ન થયેલ નથી તેથી તેઓને અહિત અથવા સિદ્ધ શબ્દથી કહી શકાય જ નહિ એટલા માટે નમસ્કાર મિત્રમા કહેલા અરિહન્ત પદથી કેવલી અરિહન્તાનું જ ગ્રહણ થઈ શકે, જે અરિહંત, સિદ્ધ ભગવાનના સ્વરૂપને ઉપદેશ આપીને ભવ્ય જીને અત્યન્ત ઉપકારી છે એ કારણથી આ નમસ્કાર પૂર્વાનુમૂવીથી કરવામાં આવ્યા છે તેથી ક્રમશૂન્ય નથી પ્રશ્ન-જે પ્રમાણે અરિહન્તના ઉપદેશથી ભવ્ય જીને સિદ્ધ ભગવાનનું જ્ઞાન થાય છે, તેવી જ રીતે આચાર્યને ઉપદેશથી અરિહન્તનું જ્ઞાન થવા સંભવ છે એવી સ્થિતિમાં અરિહતની અપેક્ષાએ પણ આચાર્યને જ પ્રથમ નમસ્કાર જોઈએ એ કારણથી ઉપદેશકના કમથી આ નમસ્કાર કરવામાં આવ્યા છે એમ કહેવુ તે યોગ્ય નથી Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमुत्रस्य 3 % 2 4 - - - - - - - - -- -- - - तनोच्यते-नमस्कारमूत्रमिद नानुपूर्वीमतिर्त्तते पूर्वानुपूाः सद्भावात्, यदुक्तम्-'अभ्यस्तित्वेनादौ सिद्धामिधान युक्तम्' इति, तन्मन्दम् , अहंदुपदेशेनैव सिद्धावगतेरहतामेव तदपेक्षयाऽप्यभ्यहितत्वात् कृतसालकृत्यत्वस्य चों भयत्र साम्यात् , अर्हनमस्कार्यत्व तु न हेतुः, यतो भूता भाविनधानन्ताः सिद्धा अपि कदाचिच्छद्मस्थावस्थाया कृताईन्नमस्कारा एन । यस्था सन्तो भगवन्तोऽहन्तो नमस्कुर्वन्ति चेद्गुणाधिकान् सिद्धान्नमस्कुर्वन्तु नाम, नैतावता न किञ्चिदाच्छियते केवलोत्पत्तावेवाईत्वमाप्तिस्तदानीमईचासत्वात् । न हि वय उत्तर-नमस्कार करने वाले भव्यों के लिए सिद्धि भगवान की अपेक्षा व्यवहारनयसे अरिहन्त ही में प्रधानता है, कारण यह कि सिद्धों का भी ज्ञान भव्यों को अरिहन्तों के ही उपदेशसे होता है, साथ ही तीर्थप्रवर्तक होने से अपनी देशना द्वारा भव्यों को भवसमुद्रसे पारकर सिद्धगति तक पहुँचानेवाले अरिहन्त ही है, रही बात कृतकृत्यता और अरिहन्तसे सिद्धोंको नमस्कार किये जाने की, सो दोनो मे बराबर है, क्योंकि अरिहन्तका भी कोई कर्तव्य बाकी नहीं रह पाया है और अनन्त सिद्धों मे से भावी (होने वाले) सिद्ध भी छद्मस्थ अवस्था मे अरिहन्तको नमस्कार करते ही हैं, अतएव छमस्थ अवस्थामे अरिहन्त सिद्वों को और भावि सिद्द अरिहन्तों को नमस्कार करते हैं, क्योंकि उस अवस्थामे केवलज्ञान उत्पन्न न होने के कारण उनको अरिहन्त या सिद्ध शब्द से कह ही ઉત્તર–નમસ્કાર કરવાવાળા ભવ્ય છે માટે સિદ્ધ ભગવાનની અપેક્ષા વ્યવહારનયથી અરિહન્તની પ્રધાનતા છે કારણ કે સિદ્ધોનું પણું જ્ઞાન ભવ્ય અને અરિહન્તના ઉપદેશથી થાય છે તેમજ તીર્થપ્રવર્તક હોવાથી પિતાના ઉપદેશ દ્વારા ભવ્ય અને ભવ સમુદ્રથી પાર ઉતારીને સિદ્ધગતિ સુધી પહોચાડનાર અરિહન્ત જ છે હવે કૃતકૃત્યની અને અરિહન્ત સિદ્ધોને નમસ્કાર કરે છે તે વિશેની વાત કરવી રહી તે બન્નેમા બરાબર છે, કારણ કે અરિહન્તને પણ કઈ કર્તવ્ય બાકી રહ્યું નથી અને અનન્ત સિદ્ધોમાથી ભાવિમા થવાવાળા સિદ્ધ પણ છદ્મસ્થ અવસ્થામાં અરહિતને નમસ્કાર કરે છે જ એ કારણથી છમસ્થાવસ્થામાં અરિહન્ત સિદ્ધોને અને ભાવિ સિદ્ધો અરિહન્તને નમસ્કાર કરે છે કારણ કે તે અવસ્થામાં કેવલ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका पकृष्टत्ववोधनपूर्वकपरनिष्ठोत्कृष्टत्वपकारकज्ञानानुकूल शिरोनमनादिलक्षणो व्यापारविशेषः । 'सबपावप्पणासणो' सर्वपापप्रणाशनः, सर्वाणि-निखिलानि अष्टावपीत्यर्थः, पम्पनिलमर्थान्मलिनभावमापयन्ति-भापयन्तीति, पे-पातालेऽर्थान्नरकायधोगतो आपयन्ति पापयन्तीति, प-क्षेमम्, आ-समन्तात् पिबन्ति शोपयन्तीति, नरकादिकुगतिपु जीवान् पातयन्तीति, कलुपतभावरजोभिरात्मान 'पाशयन्ति मलिनयन्तीति वा पापानि-ज्ञानावरणीयादिकर्माणि, तेपा प्रमाण नाशन'-वि बसक , 'च' किञ्च, 'सव्वेर्सि' सर्वेषा 'मगलाण' मङ्गलाना-द्रव्यभावभेद भिन्नाना, निरणे पष्ठी, तेन सर्वेषु मङ्गलेवित्यर्थः, 'पढम' प्रथम मुख्यमिति यावत् मङ्गल 'हवइ' भवति-अस्तीत्यर्थः॥१॥ ॥ इति नमस्कारमन्त्रव्याख्या ॥ अपेक्षा अन्य को अन्तःकरण से उत्कृष्ट समझते हुए शिर आदि पाच अगो को झुकाना) आत्मा को मलिन करने वाले, अथवा नरकादि कुगति में पहुचाने वाले, या आत्मकल्याण का नाश करनेवाले सव (आठों) पापों (ज्ञानावरणीयादि कर्मों) का नाश करने वाला, तथा द्रव्य-भावरूप सर्व मगलों में श्रेष्ठ मगलस्वरूप है ॥१॥ ॥ इति नमस्कारमन्त्रव्याख्या ॥ 'एसो' त्याहि मा ५२-परमेष्टिनमा२ (पातानी अपेक्षा અન્યને અન્તકરણથી ઉત્કૃષ્ટ સમજીને મસ્તક આદિ પાચે અને નમાવવુ), આત્માને મલિન કરવાવાળા અથવા નરકાદિ કુગતિમા લઈ જનારા, અથવા આત્મકલ્યાણ નાશ કરવાવાળા સર્વ(આઠ)પાપો(જ્ઞાનાવરણી યાદિ કર્મો)ના નાશ કરનાર તથા દિવ્ય-ભાવ-રૂપ સર્વમ ગલેમાં શ્રેષ્ઠ મગલસ્વરૂપ છે # ૧ ઇતિ નમસ્કાર–મત્ર-વ્યાખ્યા . १- पाशुः=लिः । 'पाशुर्ना न द्वयोरज ' इत्यमरः, सोऽस्यास्तीति पाशुमान , पाशुमन्त कुर्वन्ति पाशयन्ति, 'तत्करोति तदाचष्टे' इति णिचीष्ठवावाद्विमन्तो गिति मतुपा लुक् ततष्टिलोपः।। २- पापशब्दस्य तजनके लक्षणयात्र कर्माष्टकपरत्वम् । - 'नाशन ' नन्धादित्वाकर्तरि ल्यु । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य - - - - - अत्राभिधीयते-योऽयमुपदेशक्रमोऽपेक्षितस्तत्र सर्वप्राथम्यमहतामेव, गण धरेभ्यो बईतामेव प्रथममुपदेश, तदितरे गुर्माचार्यादयस्तु केवलमईदुपदिष्टस्यैवानुवदन्त इति यद्यपि तदुपदेशेन सिद्धादयो ज्ञायन्ते तथापि तस्मन्नुपदेशे ते न स्वतन्त्रा अपि खईदुपदेशाधीना एवेति मोक्तोऽहुंदादिक्रम इत्यास्ता विस्तरः।। इत्य नमस्कृत्य तत्फलमाह ॥ मूलम् ॥ एसो पचनमुक्कारो, सबपावप्पणासणो । मगलाण च सव्वेसि, पढम हवइ मगल ॥१॥ ॥ छाया ॥ एप पश्चनमस्कार , सर्वपापप्रणाशन' । मगलाना च सर्वैपा, प्रथम भवति मङ्गलम् ॥१॥ (टीका) 'एसो'-एप-मागुक्तस्वरूप. 'पचनमुकारो' पञ्चनमस्कार', पञ्चा नाम्-अर्हत्मिद्धाचार्योपा यायसर्वसाधुरूपाणा परमेष्ठिना 'नमस्कारः स्वनिष्ठा उत्तर-आचार्य आदि का उपदेश गणधरों के प्रति अरिहन्त भगवानसे किये गये प्रथम उपदेश का ही अनुवाद है स्वतन्त्र नहीं, इसलिये आचार्य आदि के उपदेशसे जो अरिहन्तका ज्ञान होता है उसमें भी कारण अरिहन्त ही हैं, अत एव अरिहन्तको नमस्कार पहले किया गया है। अब नमस्कारका फल करते हैं 'एसो' इत्यादि । यह पचपरमेष्ठियोंका नमस्कार (अपनी ઉત્તર-આચાર્ય આદિને ઉપદેશ ગણધર પ્રતિ અરિહન્ત ભગવાને કરેલા પ્રથમ ઉપદેશને જ અનુવાદ છે, સ્વતંત્ર નથી એ કારણથી આચાર્ય આદિના ઉપદેશથી જે અરિહન્તનું જ્ઞાન થાય છે તેમાં પણ અરિહન્ત જ કારણ રૂપ છે એટલે અરિહન્તને પ્રથમ નમસ્કાર કરવામા આવ્યા છે હવે નમસ્કારનું ફળ કહે છે १- नम पूर्णकात् कृपातो वे घन , 'साक्षात्मभृतीनि च' (१।४।७४) इति नमःशब्दस्प गतिसज्ञाया 'कुगतिपादय ' (२।२।१८) इति समासे 'नमस्पुरसोर्गत्यो ' (८।३।१०) इति नम शब्दस्य विसर्गस्य सत्वम् । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका ॥ टीका ॥ भन्दते कल्याण मुख वा प्रापयतीति भवन्तः, यद्वा भव-ससारमन्तयति दूरीकरोतीति,२ अथवा भवस्य ससारस्याऽन्तो = ऽवसान येनेति भवान्तः। यद्वा भयस्य जन्मजरामरणरूपस्यान्तो नाशो येनेन्त भयान्तः स एव भदन्त इति वा, अपि वा भय ददतीति भयदा भोगास्तानन्तयतीति भदन्तः, यद्वादान्त-दमित भय येनस भयदान्त स एव 'भदन्तः। किंवाभान्तिदीप्यन्ते-समुल्लसन्तीत्यर्थात् स्वस्त्रविपयेविति भानि-इन्द्रियाणि तानि दान्तानि येन स भदान्तः स एव भदन्त,, अथ च भाति-सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रैर्दीप्यते इति 'करेमि भते' इत्यादि । हे भदन्त कल्याण तथा सुखको देने वाले, अथवा हे भवान्त-ससार का अन्त करनेवाले, अथवा हे भयान्त-जन्मजरामरणरूप भय तथा इलोकादि सात भयों का अन्त करनेवाले, अथवा हे भयदान्त अर्थात् कामभोगों का नाश करनेवाले, या भयद भयका दमन करनेवाले, अथवा हे भदान्तभ-इन्द्रियगण, उसका दमन करनेवाले, अथवा हे भान्त सम्यग् करेमि भते त्यादि हे भदन्त-स्या तथा सुमने देवावा, अथवा हे भवान्त= सारना मत ४२वावा, अथवा हे भयान्त=NM N भ२५ ३५ मय तथा से सात मयना मत ४२वावा, हे भयदान्त-मर्थात म सागान! नाथ ४२वापाणा, मया हे भदन्त =भ- मेरो द्रियगानु भन १-'भदन्त.'-अन्तर्भावितण्यर्थात् 'भदि कल्याणे मुखे च' अस्मादौणादिकेऽन्तप्रत्यये पृपोदरादिपाठादातुनकारलोप. । २-भवान्तः (भदन्त) 'कर्मण्यण' (पा० ३।२।१) इत्यण, शकन्वादेराकृतिगणत्वात्पररूपे पृपोदरादिपाठाद्वस्य द. । ३-'भवान्त'- व्यधिकरणपदो बहुव्रीहि पररूपादेशौ प्राग्वत् । ४-'भयान्त.'- पृपोदरादित्वात्सिद्ध । ५-'भयदान्त'-कर्मण्यणन्तभधदान्तशब्दस्य प्रपोदरादित्वाभदन्त इति। ६- 'यद्वा-'भयदान्त' निष्ठान्तस्य परनिपात आहिताग्न्यादिपाठाद् , यलोपो इस्वश्च पृपोदरादिकृतः। ७-'भदान्त'-निष्ठान्तपरनिपात. प्राग्वत्, पृपोदरादित्वादाकारस्य इस्वः। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ आवश्यकमूत्रस्य - - - - । अथ प्रथमाध्ययनम् । नाकृष्टाया भूमी निपुणेन केनापि कृपीरलेन पीजमुग्यते इति हेतोः मोक्तेभ्यश्च हेतुभ्योऽईदादिपञ्चक नमस्कृत्य शिष्यः सामायिक चिकीपन्नाह ॥ मूलम् ॥ करेमि भंते। सामाइय, सव्वं सावज जोग पञ्चक्खामि जावज्जीवाए, तिविह तिविहेण मणेणं वायाए काएण न करेमि न कारवेमि करतपि अन्न न समणुजाणामि, तस्स भते । पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाण वोसिरामि ॥सू० १॥ ॥ छाया ॥ करोमि भदन्त ! सामायिक, सर्व सावध योग प्रत्याख्यामि यावजीवया, त्रिविध त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्य न समनुजानामि, तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गामि आत्मान व्युत्सृजामि ॥१॥ जैसे कोई भी चतुर किसान परत (बिन-जोती) जमीनमे बीज नही योता, और कोई यदि योये भी तो वह बीज व्यर्थ जाता है, वैसेही पचपरमेष्ठी-नमस्कार से हृदयक्षेत्र को पवित्र किये विना सामायिक सफल नहीं हो सकती! अतएव शिष्य परले नमस्कार करके सामायिक करता है જેમ કેઈ ચતુર ખેડુત ખેડયા વિનાની જમીનમાં બી વાવતે નથી અને વાવે તે તે બીજ નકામુ જાય છે તેમ પચ–પરમેષ્ઠી–નમસ્કારથી હૃદયરૂપી જમીનને પવિત્ર કર્યા વિના સામાયિક સફળ નથી થઈ શકતી ! તેટલા માટે શિષ્ય પ્રથમ નમસ્કાર કરે છે १-प्राकृतशैल्या 'अत एत्सौ पुसि, (८४१२८७) इति प्राकृतसूत्रेणैकारादेशे 'भते' इति सिद्धम् । -- Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका ७१ समाचरामि । एव पतिज्ञाय सामायिफविपिस्वरूपमाह-'सच' इत्यादिना, न वदितु योग्यम् अवदाम् अवयेन-सकलतीर्थकरगणपरादिविहितेन (पापेन) सह वर्तत इति सावधो-निन्यः, युज्यत इति योजनमिति वा श्योगा कायिक - वाचिक-मानसिकव्यापार., त सावय योग प्रत्याख्यामि चिन्तामणि कल्पवृक्ष कामधेनु स्पर्शमणि आदि से भी *उत्कृष्ट, ससाररूपी गहन वनमें भटकते हुए जीवों के सारे दुःखोंका नाश करने वाले सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्रसे युक्त आत्मस्वरूप की प्राप्तिरूप सामायिक करता है। अत एव यावजीवन (जीवन भर के लिए) में सर्व सावध व्यापार का तीन करण तीन योग से त्याग કલ્પતરૂ, કામધેનુ, સ્પર્શમણિ વિગેરેથી પણ અતિશ્રેષ્ઠ જગતરૂપી ભય કર અટવીમા ભટકતા પ્રાણુઓના બધા દુખેને નાશ કરનાર, સમ્યજ્ઞાન દર્શન ચારિત્રથી યુકત આત્મસ્વરૂપની પ્રાપ્તિરૂપ સામાયિક કરૂ છુ એટલા માટે યાજજીવ (જિદગીભર) હુ દરેક સાવધ વ્યાપારને ત્રણ કરણ ત્રણ વેગથી ત્યાગ કરૂ છું *-समताभाव की प्राप्ति हुए विना रागद्वेपका क्षय नही होसकता, रागद्वप का क्षय हुए बिना केवलज्ञान केवलदर्शन की माप्ति नहीं होसकती, और केवलज्ञान केवलदर्शन की प्राप्ति हुए बिना मुक्ति नहीं मिल सकती, इसलिए मोक्ष का मूल कारण सामायिक ही है, अतएव इसे केवल सासारिक सुख के देनेनाले चिन्तामणि पारसमणि आदि से भी उत्तम कहा है । * સમતા ભાવની પ્રાપ્તિ વિના રાગદ્વેષને ક્ષય થતું નથી અને રાગદ્ધના ક્ષય વિના કેવલજ્ઞાન કેવળદર્શનની પ્રાપ્તિ થતી નથી અને કેવળજ્ઞાન કેવળદર્શનની પ્રાપ્તિ વિના મુકિત મળતી નથી મોક્ષનું મૂળસાધન સામાયિક જ છે, એથી સામાયિક, કેવલ સાસારિક સુખ આપનાર ચિન્તામણિ પારસમણિ આદિથી પણ ઉત્તમ કહેલ છે १- 'अवद्यम्'- नशुपपदाद्वटे• 'वद सुपि क्यप् च (३ । १।१७६) इति प्राप्तौ यत्क्यपौ प्रवाध्य “ अबापण्यवर्या गर्दापणितव्यानिरोपु (३।१। १०१) इतिनिपातनाद्गर्दाया यत् । यत्तु 'वदितु योग्य वय, न नयमवय'-मिति व्याख्यान तद्व्याकरणतत्वानववोधमूलकमेव, नजुपपदादेव वदधावायत्मत्ययनिपातनस्य प्रागुक्तसात् । २- योग:-'युजिर योगे' अस्माद्धन् । ३- प्रत्याख्यामि प्रस्यापूर्वकस्य रया 'मस्यने इत्यस्य रूपम् । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ আনাম। - - भान्तः स एप भदन्तः, (एर यथामति व्युत्पत्त्यन्तरेपपि निरुक्तोक्तभाकटा यनादिमतिपादितरीत्या साधनप्रक्रिया चोदव्या ।) तत्सम्बोधने-हे भदन्त ! हे भगवन् ! अह, समोरागद्वेपरहितस्तस्याऽऽयो गमन तिरिति यावद, अथ वा समानाम्सम्यग्ज्ञानादिरत्ननयस्य आयो लामः, यहा समानिशानाढीनि तेषु तैर्वा आयोगमनम् , अपि पा समोरागद्वेपाचस्पृष्टान्तःकरण' स्ववन्निखिलभूत दर्शी विशुद्ध आत्मा तुच्छितानल्पचिन्तामणिकल्पतरुकामधेनुभिर्गहनभवगहन परिभ्रमणजसलेशरशनाशकैरपूर्वनिदर्शनादिभिः सटतत्वात् तस्याऽऽया प्राप्ति:स्वात्मविशुद्धीकरणमिति यावत् , समायः स एव सामायिक, तत् करोमि ज्ञान दर्शन चारित्रसे देदीप्यमान ! भगवन् ! (गुरुमहाराज!) में सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयकी प्राप्ति, अथवा रागद्वेषसे रहित, समस्त जीवों को अपने समान देवनेवाले तथा ४२वावा, मया हे भान्त=सभ्यशान दर्शन यास्त्रिया सुशोजित मान । (३भी રાજ ) હું સમ્યગ જ્ઞાન સમ્યગ્રદર્શન અને સમ્યફરિત્ર રૂપ રત્નત્રયની પ્રાપ્તિ અથવા રાગ અને દ્વેષથી રહિત, દરેક પ્રાણને મારી જેમ જેવાવાળે તથા ચિંતામણિ १-'भान्त.'-'भादीप्तौ' अस्मादौणादिकोऽन्तः प्रत्यय , सिद्धि पोदरादित्वादेव। २- 'शैत्य हि यत्सा प्रकृतिलस्य' इत्यादिषु यथेच्छमुद्देश्यगत विधेयगत वा लिङ्गमादाय त्यदादिप्रयोगस्य सुप्रसिद्धत्वादत्र समायशब्दगत पुस्त्वमादाय 'स' इति । तदुक्त-'किं यत्तत्सास्नालालम्कुदखुरविपाण्यर्थरूप स शब्दः' इति पस्पशाहिकभाष्यप्रतीकमादाय कैयटे-'उद्दिश्यमानप्रतिनिर्दिश्यमानयोरेकत्वमापा दयन्ति सर्वनामानि पर्यायेण ततल्लिङ्गमुपाददते इति कामचारत. स शब्द इति पुल्लिङ्गेन निर्देश.' इति । ३-'विनयादिभ्यष्ठक् (५।४।३४) इत्यत्रत्यगणे समायशब्दस्य पाठात्स्वार्थ ठक, तस्येकादेश फित्वादादिद्धि । यतु कचिदुक-'विनयादिषु 'समय' शब्द एव पठ्यते न तु समायशब्दस्तस्मादत्रैकदेशविकृतस्याऽनन्यत्वात्समयशब्देन समायशब्दस्यापि ग्रहणम्'। यद्वा 'विनयादेराकृतिगणत्वाहगिति' तदुभयमप्यसारम् , समयशब्दवत्समायशब्दस्यापि विनयादिगणे प्रतिपदोक्तपाठाद्विनयादेराकृतिगणत्वे प्रमाणामावाच । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका ७३ त्यादिना प्रतिपदमेवोत्तम् एव सति त्रिविनेनेत्युपादान पुनरुक्त भवति । यद्वा त्रिविधेनेति विशेषण मनसेत्यादेरेव सभवति, ततश्च त्रिविधेन मनसा, त्रिविधया वाचा, त्रिविधेन कायेनेत्यन्वये मनोवाक्कायाना प्रत्येक त्रैविय प्राप्नोति, तच्चानिष्ट, नत्र मनभादीनि प्रत्येक त्रैविभ्यमर्हन्ति किं तर्हि ? तद्वयापारा एवेति चेन्न, तदभावे हि मनसा वाचा कर्मणेत्येतावन्मात्रोक्तौ ' न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्य न समनुजानामी' - त्यनेन सह " यथासख्यमनुदेगः समानाम् ” ( १ | ३ | १० ) इति वचनानुरोपेन " आयन्तौ टकितौ” (१ । १ । ४६ ) इत्यादिवत्, “ शत्रु मित्र विपत्तिं च जय रञ्जय भञ्जये" - स्यादिवत् 'एचोऽय " 'मनसा' (मनसे) 'चाचा' ( वचन से) 'कायेन' (कायसे) कहने से पुनरुक्ति (कहे हुएको पुनः कहना) होती है। या (तीन प्रकार से ) यह विशेषण 'मन, वचन, काय' का ही होसकता है । यदि ऐसा मान लिया जाय तो इसका अर्थ होगा कि 'तीन प्रकारके काय से ' आरम्भ न करें । अर्थात् मन वचन काय के तीन तीन भेद होंगे। ऐसा अर्थ शास्त्रविरुद्ध है, शास्त्रों में भगवानने मन आदि के तीन तीन भेद नही बताये हैं, किन्तु मन आदि के व्यापारो को तीन प्रकार का बताया है । उत्तर -- यह शका ठीक नही है । यदि 'त्रिविधेन' न कहकर केवल 'मनसा वाचा कायेन' कह देते तो अर्थ ठीक नही बैठता, क्यों कि जैसे कोई कहे कि 'हेय और उपादेयको त्यागो और वाचा (पथनथी) कायेन (अयाथी) अडेवाथी चुन३ति (उडेसाने इरी डेवु) थाय छे આ ‘ત્રણ પ્રકારે’ એ વિશેષણુ ‘મન, વચન, કાયા'નું જ હાઇ શકે છે જો એમ માનવામા આવે તે એના અર્થ એવા થશે કે પ્રકારના મનથી, ત્રણ પ્રકારના વચનથી અને ત્રણ પ્રકારની કાયાથી' આરભ ન કરે અર્થાત્ મન, વચન, કાયાના પણ ત્રણ ત્રણ ભેદ બનશે, એવા અર્થ શાસ્ત્રવિરુદ્ધ શાસ્ત્રમા ભગવાને મન આદિના ત્રણ ભેદ તાવ્યા નથી, પરંતુ મન આદિના વ્યાપારેશને તે ત્રણ પ્રકારના બતાવ્યા છે ત્રણ છે उत्तर—मेश डी मराणर नथी ले त्रिविधेन न उडीने ठेवण मनसा वाचा कायेन કહ્યુ હાત તે અર્થ ખરાખર મધ બેસત નહિ, કારણ કે કોઇ જેમ કહે કે ‘હૈય અને ઉપાદેયને ત્યાગે અને ગ્રહણ કરે’ તે એ વાકયમા ક્રમાનુસાર હેયની Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ आवश्यकसूत्रस्य %3D - - - - - सर्वथा परित्यजामीत्यर्थः । यद्वा 'प्रत्याचक्षे इतिन्छाया, अस्याप्यर्थः माग्वदेव, केवल धातुरेशातिरिच्यते-'चसिक् व्यताया वाची'-ति । कियत्कालार्थ प्रत्याख्यामी ? त्याह-यापनीये'-ति, अत्र यावच्छन्दः परि माणार्थको मर्यादार्थकोऽवधारणार्थकयाऽव्ययः । जीवनम्जीवा,' तया जीवया' जीगमित्यर्थः, यावन्मम जीवनपरिमाण तावत्मत्याख्यामीति जीवन मर्यादीक त्यान्न केवल मरणकाल एवाऽपि तु ततः प्रागपि प्रत्याख्यामीति, जीवन एव न तु तदुत्तरार्थमपि प्रत्याख्यामीत्यर्थः । कीदृश त योग प्रत्याख्यामी? त्याह 'त्रिविध'-मिति-तिस्रो विधा:-प्रकारा यस्य त कृतकारितानुमतरूप मनोवा कापच्यापारम् । तत्र कृत-स्वतन्त्रेणाऽऽत्मना सम्पादित, कारितम्-अन्यद्वारा सम्पादितम्, अनुमत सावधव्यापारमारभमाणस्य 'खया सम्यक् क्रियते, एवमेव क्रियता'-मित्यादिना, यद्वा चक्षुपा हास्यापि तूष्णीमवस्थानेन निषेधावकरणा प्रोत्साहितम् । त्रिविपेनकारत्रयविशिष्टेन कारणभूतेन, केन तेने'-त्याह'मनसा' वाचा कायेनेति । ननु त्रिविधेनेत्यनेन यत्मकारत्रय गृह्यते तत् मनसेकरता हूँ। तीन करण ये हैं- कृत कारित अनुमोदित । कृत अपनी इच्छासे स्वय करना, कारित दूसरे व्यक्ति से कराना, अनुमोदित-जो सावद्य व्यापार कर रहा हो उसे अच्छा समझना। तीन योग ये हैं-(१) मन, (२) वचन, (३) काय । प्रश्न-सूत्र में 'त्रिविधेन' (तीन प्रकार से) कहा ही है फिर ४ ४२ मा छ- (१) त, (२) रित, (3) अनुमाहित કુત-પિતાની ઈચ્છાથી પિતે કરવું કારિત–બીજી વ્યક્તિ પાસે કરાવવું અનુદિત-જે સાવદ્ય વ્યાપાર કરી રહ્યો હોય, તેને સારૂ જાણવું त्रय योग मा छ (१) मन, (२) क्यन, (३) आया। प्र--सूत्रमा निविधेन (aey प्रा३) ९४ , पछी मनसा-(भनया), १-जीवा-'जीव माणधारणे' अस्मात् 'गुरोध इल' (३।३।१०३) इति बचनेन स्त्रियामकारमत्यये स्त्रीत्वाहाप्, 'ईहा, ऊहा' इत्यादिवत् । २-'जीवया' -'ततोऽन्यत्रापि दृश्यते' इति वचनबलावावच्छन्दयोगे द्वितीयाया प्राप्तावप्यापत्वातृतीया । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका तत्मकारान् दर्शयितु विशेपत आह-मनसेत्यादीति नास्ति पौनरुक्त्यम् । केचित्'मनसा वा वाचा वा कायेन वे'-ति विकल्पसग्रहार्थ त्रिविधेनेत्युक्तमित्यूचिरे। न कारयामीत्यत्राऽन्येनेति शेपः पूरणीयः। न समनुनामि=नानुमन्ये । 'तस्येति तस्मात् सावधयोगादित्यर्थः । 'भते' इति भदन्तेति सम्मोपन प्राग्वदेव, पूर्वानुवृत्त्यैवार्थसिद्वौ पुनः ‘भते' इत्युक्तिः पारम्भवत् पर्यवसानमपि गुर्वामन्त्रणपूर्वकमेव कर्तव्यमिति मूचनाय । यहा पुनरुच्चारणयत्नेनाऽनुवृत्तिरेव लभ्यते, करूँ, परन्तु वे तीन प्रकार कौन-कौनसे हैं ? ऐसी जिज्ञासा होने पर विशेषरूपसे पता दिया कि "मनसा चाचा कायेन" ये तीन प्रकार हैं, इसलिए पुनरुक्ति आदि कोई दोप नहीं है। ___अथवा मन, वचन और कायके निमित्तसे होनेवाले तीन भेदों का सग्रह करने के लिए 'त्रिविधेन' पद रखा है। व्याकरण में 'भते' शब्द अनेक प्रकार से सिद्ध होता है, इसलिए उसके अर्थ भी बहुतसे है। जैसे (१) कल्याण और सुखको देनेवाले, (२) ससार का अन्त करनेवाले, (३) जिनकी सेवा-भक्ति करने से ससारका अन्त हो जाता है वे, (४) जन्म-जरा मरणके भयका नाश करनेवाले-निर्भय, (५) भोगों को त्याग देनेवाले, (६) भय को दमन करनेवाले, (७) इन्द्रियोंका दमन करनेवाले, (८) सम्यगज्ञान, सम्यग्दर्शन, और सम्यकचारित्र से પ્રકાર કયા કયા છે? એવી જિજ્ઞાસા થતા વિશેષરૂપે બતાવી આપ્યું કે મનસા વાવ ન એ ત્રણ પ્રકાર છે એથી કરીને પુનરૂકિત આદિ ઈદેષ થતું નથી અથવા મન વચન અને કાયાને નિમિત્તે થનારા ત્રણ ભેદને સંગ્રહ કરવાને માટે ત્રિવિરેન શબ્દ રાખે છે વ્યાકરણમાં મતે શબ્દ અનેક પ્રકારે સિદ્ધ થાય છે તેથી એના અર્થ ઘણા છે, જેવા કે (૧) કલ્યાણ અને સુખને આપનાર, (૨) સસારને અત કરનાર, (૩) જેની સેવાભકિત કરવાથી સસારને અતિ આવી જાય છે તે, (૪) જન્મ જરા મરણના ભયને નાશ કરનાર, (૫) ભેગેને ત્યાગ કરનાર, ભયનું દમન કરનારનિર્ભય, (૭) ઇદ્રિયનુ દમન કરનાર, (૮) સભ્યજ્ઞાન સમ્યગ્દર્શન અને સભ્યફ १- 'तस्येति तस्मात्' अनाऽपादानस्य शेपत्वविवक्षया पष्ठी । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ৩৪ __ आवश्यवसूत्रस्य गायावः' (६ । १ । ७८) इत्यादिवटा ऋम्किाचये 'मनसा न करोमि, वाचा न कारयामि, कायेन कुन्तिमप्यन्य न समनुनानामी'-त्यनमीष्टोऽय आपघेत, तद्वारणार्थ निविषनेत्युना, तेन मनसा न करोमि न कारयामि कुर्वन्तम प्यन्य न समनुजानामि, पाचा न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्य न समनुजा नामि, एव कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्य न समनुजानामीत्यर्थी भवति । यद्वा पूर्व सामान्यतस्विरिषनेत्युक्त्वा केन विविधेनेति जिज्ञासाया ग्रहण करो।' तो इस वाक्य में क्रमसे 'हेय' के साथ 'त्यागो' का सम्बन्ध हो जाता है और 'उपादेय के साथ 'ग्रहण करो' का। इसी प्रकार 'चोलपट्टा चदर पहनो, ओढो' कहने से यह अर्थ होता है कि 'चोलपट्टा पहनो और चद्दर ओढो', इसी प्रकार 'त्रिविधन' (तीन प्रकार से) पद न रखते तो ऐसा अनिष्ट अर्थ हो जाता कि मनसे न करे, वचनसे न करावे और कायसे अनुमोदना न कर इस अनिष्ट अर्थ का परिहार करने के लिए 'त्रिविधेन' पद रखन से यह अर्थ हुआ कि-(१) मनसे न करूँ, (२) न कराऊँ (३) न करते हुए को भला जान । (४) वचन से न करूँ, (६) न कराऊ, (६) न करते हुए को भला जानूं। (७) काय से न करूँ, (८) न कराऊ, (९) न करनेवाले को भला जान । अथवा पहले सामान्यरूप से कहा है कि तीन प्रकार से न સાથે “ત્યાગીને સબંધ થઈ જાય છે અને “ઉપાદેયની સાથે “ગ્રહણ કરેના એજ રીતે “લપટ્ટો ચાદર પહેરે એ કહેવાથી એ અર્થ થાય છે કે શૈલપટ્ટી पडे। मन या४२ माढा में शत त्रिविधेन (३१ ॥३) श६ - राज्य डात તે એ અનિષ્ટ અર્થ થઈ જાત કે મનથી ન કરે, વચનથી ન કરાવે અને કાયાથી ન અનુમોદના કરે અનિષ્ટ અર્થને પરિહાર કરવાને માટે ત્રિવિધેન શબ્દ આપે છે, એમ ત્રિવિધેન શબ્દ આપવાથી એ અર્થ થયે કે-(૧) મનથી ન કરે, (२) रापु, (3) न ४२नारने सो त, (४) क्यना न ४३, (५) न ४रापु, (6) न नारने म , (७) याथी न ४३, (८) न ४२ (6) ન કરનારને ભલે જાણુ અથવા પહેલા સામાન્ય રૂપે કહ્યું છે કે “ત્રણ પ્રકારે ન કરૂ પરંતુ તે ત્રણ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका ৩৩ स्तदर्थत्वाभावेन न तद्योग इदम्, कुप्यति कस्मै चिदित्यायसाध्वेवे -ति। 'निन्दामि, गर्हामि' इत्यनयोस्तस्येत्यनेन प्रागुतन सम्बन्धस्तेन सावायोगसम्बन्धिनी स्वसासिकी गुरुसाक्षिकी च निन्दा करोमीति निर्गलितोऽर्थः, तस्येत्यत्र सम्बन्धसामान्ये पष्ठयाः प्रागुक्तत्वात् । यद्वा 'आत्मान'-मित्यस्यैव मन्यमणिन्यायादेहलीदीपन्यायाद्वा व्युत्सृजामीत्यनेन निन्दामि, गर्हामि' इत्याभ्या च सम्बन्धस्तेन सावधयोगकारिणमात्मान जुगुप्से, व्युत्सृजामि-विविधभावनया विशिष्य वा परित्यजामीत्यर्थः ॥१० १॥ साक्षी से होती है। अथवा निन्दा साधारण कुत्साको कहते है और गर्दा अत्यन्त निन्दा को कहते है। इसका अर्थ यह होता है कि-हे भगवन् ! अतीत काल में सावध व्यापार करनेवाले आत्मा (आत्मपरिणति) को अनित्य आदि भावना भाकर त्यागता हूँ, निन्दा करता हूँ, गहीं करता है। जैसे घर की देहलीपर दीपक रखने से भीतर भी प्रकाश होता है और बाहर भी प्रकाश होता है, इसीको 'देहली दीपक' न्याय करते हैं, कहा भी है-'परै एक पद् वीच मे, दुहु दिम लागै सोय। सो है दीपक-देहरी, जानत है सर कोय ॥१॥ बीच में मणि जड देने से दोनों ओर मणिका प्रकाश होता है, यह 'म यमणि' न्याय कहलाता है, इसी प्रकार 'अप्पाण' का दोनो के साथ सम्बन्ध होता है। अर्थात् सावन्य व्यापारवाली आत्मा को त्यागता हूँ और उसकी निन्दा करता हूँ तथा गर्दा करता हूँ॥सू० १॥ ગોં ગુરૂસાક્ષીએ થાય છે, અથવા નિદા સાધારણ કુત્સાને કહે છે અને ગહ અત્યત નિદાને કહે છે આનો અર્થ એ થાય છે કે હે ભગવન્! અતીત કાળમાં દડ (સાવદ્ય વ્યાપાર) કરનાર આત્મા (આત્મપરિણતિ) ને અનિત્ય આદિ ભાવને ભાવીને ત્યાગુ છુ, નિંદુ છુ, ગણું છુ, જેમ ઘરની દેહલી (ઉબર) પર દી રાખવાથી અદર પણ પ્રકાશ થાય છે અને બહાર પણ પ્રકાશ થાય છે તેને “દેહલી-દીપક ન્યાય” કહે છે કહ્યું છે કે-પરે એક પદ બીચમે, દુહ દિસ લાગે સંય સે है '५४-हेरी,' बनत स५ अय (1) क्यमा मधिी वाथी 6 બાજુ મણિને પ્રકાશ થાય છે તેને મધ્યમણિ-ન્યાય' કહે છે એ જ રીતે Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७६ आवश्यकमूत्रस्य यतः केवलमनुत्तिमात्रेण न किमपि कार्य भाति चिन्तृवारणादिप्रयत्नेनैव, तदुन वैयाकरणैः-"अनुवर्तन्ते च नाम धियो न चानुपर्तनादेव भवन्ति, किं तर्हि " यत्नाद्भवन्ति, स चाय यत्नः पुनरुच्चारणम्" इति । अथवा स्वस्यापि भदन्तवादात्मन एवेदमामन्त्रण सारधानीकरणाय । यद्वा भूयः सम्बोधनेन गुरु प्रति भत्त्युदेकोऽभिव्यज्यते । प्रतिक्रामामिप्रतिनिपर्ने, पृथग्भवामीति यावत् । यत्र कचिट्टीकामु 'पडिकमामि' इत्यस्य 'प्रतिकमामि' इतिग्गयोपलभ्यते सा मामादित्येव "क्रमः परस्मैपदेपु" (७।३ । ७६) इति वचनवलेन क्रमेरुपधादीर्घस्य दुर्निवारत्वात् । निन्दामि-जुगुप्से । ग¥-जुगुप्स इत्येवार्थः । ननु तहि निन्दागर्हयो 'कुत्सा निन्दा च गईणा' इति कोपरीत्या पर्यायत्वेन पौनरुत्य वज्रलेपायितमेवेति चेन्न, यत स्वसासिकी निन्दा, गुरसाक्षिकी च गर्हति परस्पर भवति भूयान् भेदः। यद्वा निन्दा साधारणी कुत्सा, गर्दा सेवातिभूयसी'-ति परस्परमर्थभेदान्नास्ति पर्यायता, यथा-प्रवृद्ध एव कोपः क्रोधो न साधारण इति कोपमोधयोः पर्यायत्वाभावेन क्रुभ्यर्थत्वाभावात्कुब्धातुयोगे चतुर्थी नेष्यते, तदुक्त-'क्रुधगुहेासूयार्थाना यम्पति कोप (१।४ । ३७) इत्यत्र शब्देन्दु शेखरे नागेशेन-'नह्यकुपित. यतीति भाष्येण भरूढकोप एव क्रोध इति कुपे दीपनेवाले । इन सब को 'भते' कहते हैं। इसी प्रकार और अर्थ भी समझने चाहिए । 'भदन्त' । इस सम्बोधनसे यह प्रगट होता है कि समस्त क्रियाएँ गुरुमहाराज की साक्षीसे ही करनी चाहिए। हे भगवन् । मैं सावत्ययोगसे निवृत्त होता हूँ, निन्दा करता हूँ और गर्दा करता हूँ। कोशों में निन्दा और गर्दा शब्द का एक ही अर्थ है, इसलिए पुनरुक्ति होती है, ऐसा नही समझना चाहिए, क्यो कि निन्दा आत्मसाक्षी से होती है और गर्दा गुरु ચારિત્રથી દીપ્તિમાન એ બધાને મને કહે છે, એજ રીતે બીજા અર્થો પણ સમજી લેવા “ ભદન્ત” એ સબોધનથી એમ પ્રગટ થાય છે કે બધી ક્રિયાઓ ગુર મહારાજની સાક્ષીએ જ કરવી જોઈએ હે ભગવાન! હુ દડથી નિવૃત્ત થાઉ છુ, નિદા કરૂ છુ અને ગહ કરૂ છુ શબ્દકેથેમા “નિન્દા અને ગહ’ શબ્દને એક જ અર્થ છે, તેથી પુન રકિત થાય છે, એમ ન સમજવુ, કારણ કે નિંદા આત્મસાક્ષીએ થાય છે અને Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका स्तदर्थत्वाभावेन न तयोग इदम्, कुप्यति कस्मै चिदित्यायसाध्वेवे' - ति । 'निन्दामि, गर्दामि' इत्यनयोस्तस्येत्यनेन मागुतेन सम्बन्धस्तेन सावययोगसम्बन्धिनीं स्वसाक्षिक गुरुसाक्षिकी च निन्दा करोमीति निर्गलितोऽर्थः, तस्येत्यत्र सम्वन्धसामान्ये पष्ठ्याः प्रागुक्तत्वात् । यद्वा 'आत्मान' - मित्यस्यैव मय्यमणिन्यायाद्देहलीदीपन्यायाद्वा व्युत्सृजामीत्यनेन निन्दामि गर्हामि' इत्याभ्या च सम्बन्धस्तेन सावप्रयोगकारिणमात्मान जुगुप्से, व्युत्सृजामि = विविधभावनया विशिष्य वा परित्यजामीत्यर्थ ॥०१॥ ७७ साक्षी से होती है । अथवा निन्दा साधारण कुत्साको कहते हैं और गर्दा अत्यन्त निन्दा को कहते है । इसका अर्थ यह होता है कि हे भगवन् । अतीत काल में सावध व्यापार करनेवाले आत्मा (आत्मपरिणति) को अनित्य आदि भावना भाकर त्यागता हूँ, निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ । जैसे घर की देहलीपर दीपक रखने से भीतर भी प्रकाश होता है और बाहर भी प्रकाश होता है, इसीको 'देहली दीपक' न्याय कहते हैं, कहा भी है-' परे एक पद बीच मे, दुहु दिन लागे मोय । सो है दीपक - देहरी, जानत है सव कोय ॥ १॥ बीच में मणि जड देने से दोनों ओर मणिका प्रकाश होता है, यह 'म यमणि' न्याय कहलाता है, इसी प्रकार 'अप्पाण' का दोनों के साथ सम्बन्ध होता है । अर्थात् सावध व्यापारवाली आत्मा को त्यागता हूँ और उसकी निन्दा करता हूँ तथा गर्दा करता हूँ ॥ सू० १॥ ગાઁ ગુરૂસાક્ષીગ્મે થાય છે, અથવા નિદા સાધારણ કુત્સાને કહે છે અને ગાઁ અત્યંત નિને કહે છે 4 આના અર્થ એ થાય છે કે હે ભગવન્ ! અતીત કાળમા દડ (સાવદ્ય વ્યાપાર) કરનાર આત્મા (આત્મપરિણતિ) તે અનિત્ય આદિ ભાવના ભાવીને ત્યાગુ छ, निहु छ, गर्नु छ, नेम धरनी हेडेवी (गर) पर ही रामनाथी અંદર પશુ પ્રકાશ થાય છે અને અહાર પણ પ્રકાશ થાય છે તેને દેહલી-દીપક ન્યાય' કહે છે. કહ્યુ છે કે પ૨ એક પદ ખીચમે, દુહુ દિસ લાગે નેય મે ३ 'टीप- हेडरी, ' जनत है सम होय (1)' वथमा भधि डी देवाधी मेउ ખાજી મણિના પ્રકાશ થાય છે તેને મધ્યમણિ-ન્યાય' કહે છે. એજ રીતે " Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आवश्यकमूत्रस्य यत' केवलमनुत्तिमात्रेण न किमपि कार्य भाति किन्तुचारणादिप्रयत्नेनैव, तदुना चैयाकरणैः-"अनुवर्तन्ते च नाम विधयो न चानुवर्तनादेव भवन्ति, किं तर्हि " यत्नाद्भवन्ति, स चाय यत्नः पुनरुचारणम्" इति । अथवा स्वस्यापि मदन्तवादात्मन एवेदमामन्त्रण सावधानीकरणाय । यद्वा भूयः सम्बोधनेन गुरु मति भक्त्युदेकोऽभिव्यज्यते । पतिकामामि प्रतिनिपर्ने, पृथग्भवामीति यावत् । यत्र कचिट्टीकासु 'पडिकमामि' इत्यस्य 'प्रतिकमामि' इतिन्जयोपलभ्यते सा प्रामादिस्येव "क्रमः परस्मैपदेपु" (७।३ । ७६) इति वचनवलेन क्रमेरुपधादीर्घस्य दुर्निवारसात् । निन्दामि-जुगुप्से । गजुगुप्स इत्येवार्थः । ननु तहि निन्दागहयो 'कुत्सा निन्दा च गईणा' इति कोपरीत्या पर्यायत्वेन पोनरुक्य वज्रलेपायितमेवेति चेन्न, यत. स्वसाक्षिकी निन्दा, गुरसाक्षिकी च गईंति परस्पर भवति भूयान् भेदः। यद्वा 'निन्दा साधारणी कुत्सा, गर्दा सैवातिभूयसी'-ति परस्परमर्थभेदान्नास्ति पर्यायता, यथा-प्रवृद्ध एव कोपः क्रोधो न साधारण इति कोपरोधयोः पर्यायत्वाभावेन क्रुभ्यर्थत्वाभावात्कुब्धातुयोगे चतुर्थी नेष्यते तदुक्त-'क्रुधदुहेर्पासूयार्थाना यम्मति कोप (१ । ४ । ३७) इत्यत्र शब्देन्दु शेखरे नागेशेन-'नह्यकुपित. ऋयतीति भाष्येण प्ररूढकोप एवं क्रोध इति कुप दीपनेवाले । इन सब को 'भते' कहते हैं। इसी प्रकार और अर्थ भी समझने चाहिए । 'भदन्त' । इस सम्बोधनसे यह प्रगट होता है कि समस्त क्रियाएँ गुरुमहाराज की साक्षीसे ही करनी चाहिए। हे भगवन् । मैं सावययोगसे निवृत्त होता हूँ, निन्दा करता हूँ और गहीं करता हूँ। कोशों मे निन्दा और गर्दा शब्द का एक ही अर्थ है, इसलिए पुनरुक्ति होती है, ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्यो कि निन्दा आत्मसाक्षी से होती है और गर्दा गुरु ચારિત્રથી દીપ્તિમાન એ બધાને મત્તે કહે છે, એજ રીતે બીજા અર્થે પણ સમજી લેવા “ ભદન્ત ” એ સ બેધનથી એમ પ્રગટ થાય છે કે બધી ક્રિયાએ ગુરૂ મહારાજની સાક્ષીએ જ કરવી જોઈએ હે ભગવાન! હું દડથી નિવૃત્ત થાઉ છુ, નિદા કરૂ છુ અને ગઈ કરૂ છુ શબ્દકે શેમા “નિન્દા અને ગહ’ શબ્દને એક જ અર્થ છે, તેથી પુન નતિ થાય છે, એમ ન સમજવું, કારણ કે નિંદા આત્મસાક્ષીએ થાય છે અને Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका ७९ गुप्तीना, चतुर्णा कपायाणा, पञ्चाना महावताना, पण्णा जीवनिकायाना, सप्ताना पिण्डैपणाना,-मष्टाना प्रवचनमावणा, नवाना ब्रह्मचर्यगुप्तीना, दशविधे श्रमणधर्म श्रमणाना योगाना यत्खण्डित यद्विराधित तस्य मिथ्या मे दुप्कृतम् ।। सू०२ ॥ ॥ टीका ॥ ठामि ' स्थातु चित्तैकाग्रतयेति शेषः, कर्तुमित्यर्थः । 'काउस्सग्ग' कायोत्सर्ग, कायस्य शरीरस्य उत्सर्गतदेकतानतापूर्वकैकदेशावस्थितिभ्यानमौनव्यतिरिक्तयावक्रियाकलापसम्बन्धमधिकृत्य सर्वावेच्छेदेन परित्यागम्-अतिचारसशुद्धये व्युत्सर्जन, ममत्वापवर्जन वा 'इच्छामिवान्छामि । तत्रादौ वक्ष्यमाणरीत्या दोपान् पर्यालोचयति-'जो' इति। यकायोत्सर्गः मया कर्तृभूतेन 'देविसओ'=दिवसेन निवृत्तो दैवसिकर , दिवमपद रात्रेरप्युपलक्षक तेन हे भदन्त ! मै चित्तकी स्थिरता के साथ एक स्थान पर स्थिर रहकर ध्यान मौन के सिवाय अन्य सभी व्यापारों का परित्यागरूप कायोत्सर्ग करता हूँ, परन्तु इसके पहले शिष्य अपने दोषो की आलोचना करता है-'जो मे' इत्यादि । जो मुझसे प्रमादवश दिवससम्बन्धी तथा रात्रिसम्बन्धी सयममर्यादा का उल्लङ्घनरूप હે ભદન્ત! હુ ચિત્તની સ્થિરતાની સાથે એક સ્થાન ઉપર સ્થિર થઈને ધ્યાન મૌન સિવાય અન્ય બધા કામને ત્યાગરૂપ કાર્યોત્સર્ગ કરૂ છુ ५२तु भेना पडसा शिष्य पोताना पानी भाडोयना ४२ छ "जो मे त्या" જે મારાથી આળસવશ દિવસસબધી તથા રાત્રિસ બધી સમયમર્યાદાને १- 'ठामि' कर्तुमित्यर्थ । धातूनामनेकार्थत्वात् 'स्था'धातुः करोत्यर्थः, आपत्वाद् 'मिप्' प्रत्यय. तुमुन्नर्थ , आर्षेषु हि प्रयोगेपु वाहुलकेन सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते, यदुकम्-'कचित्मवृत्ति कचिदमवृत्तिः, कचिद्विभापा कचिदन्यदेव । विधेविधान बहुधा समीक्ष्य, चतुर्विध बाहुलक पदन्ति" ॥१॥ इति, किञ्च"मुप्तिडुपग्रहलिगनराणा, कालहलच्स्वरकर्तृयडाच। व्यत्ययमिच्छति शास्त्रकदेपा, सोऽपि च सिध्यति राहुलकेन ॥२॥" इति, तर उपग्रहः= परस्मैपदाऽऽत्मनेपदे, नरः प्रथमादिपुरुपत्रयम् । काल.= कालवाचक. प्रत्यय र्तृिशब्दः कारकत्वावछिन्नोपलक्षकस्तेन कारकवाचिना कृत्तद्धिताना विपर्ययः ।यडिति यहो यशब्दादारभ्य लिड्याशिष्यड्डिति डकारेण प्रत्याहार । स्पष्ट शिष्टम् । २ " तेन निवृत्तम् " (५ । १।७८) इति ठरु । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ आवश्यक मूत्रस्य साधोः सपिरतिस्प सामायिक यानीपन भात्यवश्यकर्तव्य' तस्मिंश्च सति प्रमादादिनाऽतिचाराः सम्भान्तीति सामायिकनिरूपणोत्तरमने कायोत्सर्गपनिज्ञापूर्वक शिष्यः प्रथम दोपान् पर्यालोचयति ॥ मूलम् ॥ इच्छामि ठामि काउस्सग्ग जोमे देवसिओ अईआरो कओ काइओ वाइओ माणसिओ उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिजो दुज्झाओविचितिओअणायारो अणिच्छियव्यो असमणपाउगो नाणे तह दसणे चरिते सुए सामाइए, तिण्ह गुत्तीण, चउण्ह कसायाण, पचण्ह महव्वयाण, छह जीवनिकायाणं, सत्तण्ह पिडेसणाण, अण्ह पवयणमाऊण, नवण्ह वभचेरगुत्तीण, दसविह समणधम्मे समणाण जोगाण ज खडिय जं विराहिय तस्स मिच्छा मि दुक्कड ॥सू० २॥ ॥ छाया ॥ इच्छामि स्थातु कायोत्सर्ग यो मया देवसिकोऽतीचार' कृत• कायिका वाचिको मानसिक उत्सून उन्मार्गोऽकल्पोऽकरणीयो दुातो दुर्विचिन्तितोऽना. चारोऽनेष्टव्योऽश्रमणमायोग्यो ज्ञाने तथा दर्शने चारित्रे श्रुते सामायिके, तिसृणा मुनियों की सर्वविरतिरूप सामायिक यावजीवन होती है, उसमें प्रमाद आदि से अतिचार की सभावना रहती है, अतएवं सामायिक का निरूपण करके अब इसके आगे शिष्य कायोत्सर्ग पूर्वक अतिचार की आलोचना करने के लिये प्रथम कायोत्सगे की प्रतिज्ञा करके दोपों की आलोचना करता है-'इच्छामि ठामि काउस्सग्ग' इत्यादि । ગપાળ ને બેઉની સાથે સબંધ થાય છે અર્થાત સાવઘવ્યાપારવાળા આત્માને ત્યાગુ છુ અને તેની નિંદા કરૂ છુ, તથા ગઈ કરૂ છું (રૂ૧) મુનિની સર્વવિરતિરૂપ સામાયિક યાજજીવ હોય છે એમા પ્રમાદ આદિથી અતિચારની સંભાવના રહે છે, એટલા માટે સામાયિક નિરૂપણ કરીને તે પછી શિખ્ય કાર્યોત્સર્ગપૂર્વક અતિચારની આચના કરવા માટે પ્રથમ योत्सर्गनी प्रतिज्ञा शन होघानी मायना ४२ छ इच्छामि ठामि काउस्सग्ग વિગેરે १- 'लुम्पेरवश्यम. कृत्ये' इति मकारलोप । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका 'दुज्झाओ' इत्यादिना, 'दुज्झाओ' दुयातः, दुष्टो दुःस्थो वा ध्यातो दातः विरुद्धध्यानसपन्नः कपायक्लपितान्तःकरणैकाग्रताऽऽतरौद्ररूपः, यद्वा आपलादत्र भावे क्तः पुस्त्व च, तेन दुष्ट यानरूप इत्यर्थः, अत एव 'दुन्विचिंतिओ' दुःखेन दुष्टो वा विचिन्तितो-दुर्विचिन्तित' अनवस्थितचित्ततया तत्चपरिभ्रशनपूर्वकाऽशुभचिन्तनोपेत., अतएव 'अणायारो' अनाचार:सयममार्गेण प्रचलता सयमिनामनाचरितव्यः । यतोऽनाचरितव्योऽतण्व 'अणिच्छियबो' अनेष्टव्यः चेतसाऽपि लेशतोऽप्यनभिलपणीयः, यतश्चैवमतः 'असमणपाउग्गो' न योग्योऽयोग्य' प्राणाऽयोग्यः प्रायोग्यः श्रमणाना श्रमगैर्वा प्रायोग्य =श्रमणमायोग्यः न श्रमणमायोग्योऽश्रमणपायोग्य:-श्रमणानामयोग्य इत्यर्थः, मुनिभिरननुष्ठेय इति यावत् । अत्र व्युत्क्रमव्यारयान तु सूत्रक्रमविरोधादनुभवविरोधाचोपेक्षितव्यमेव । किंफिविपयकोऽतिचारः १ इत्याह'नाणे' इत्यादिना, 'नाणे' ज्ञाने पदार्थपरिवोधलक्षणे, 'दसणे' दर्शने भवचनाभिरोचनस्वरूपे, 'चरित्ते' चारित्रे-आश्रवनिरोधरूपे 'नाणे' इत्यादिषु वैषयिकाधारे सप्तमी, मोक्षे इच्छाऽस्तीत्यादिवत्, तेन ज्ञानविषयको दर्शनविषयकधारित्रविषयकश्चेति फलति । विशेषेणोच्यते-'सुए' इति, 'सुए' श्रुते=मत्या दिज्ञानस्वरूपे, श्रुतग्रहणस्य मत्यादिज्ञानोपलक्षकलाद मत्यादिज्ञानविषयक इत्यर्थः, यद्वा 'मुए' इत्यस्य श्रुते-धर्मेऽर्थान्छास्त्रपठनादिरूप इत्येवार्थों न तु मत्यादिज्ञान इति, अतिचारथानाऽकाले सूत्रपठनादिरूप । अधुना चारित्रातिचारकहते है-'दुआओ'-दुानकपाययुक्त अन्तःकरण की एकाग्रतासे आर्तरौद्रध्यानरूप, 'दुविचिंतिओ'-दुर्विचिन्तित-चित्त की असावधानता से वस्तु के अयथार्थ स्वरूपमा चिन्तनरूप, 'अणायारो'-अनाचारसयमियो को अनाचरणीय, 'अणिच्छियन्वो'-अनेष्टव्य सर्वथा अवाछनीय तथा असमणपाउग्गो'-अश्रमणप्रायोग्य-साधुओं के आचरणके अयोग्य दुज्झाओ-दुर्थ्यान-पाययुत मत ४रनी मेयतायी मातशेद्रयान३५ दुबिचितिओ-दुर्विचिन्तित-पित्तनी असावधानताथी पन्तुना अयथार्थ ५५३५सा यितन३५ अणायारो-अनाचरणीय सयभियान मनाय२९यअणिन्छियन्वो अनेष्टन्य मे नडि ४२छपायाय तथा असमणपाउग्गो-अश्रमणप्रायोग्य-साधुमाना આચરણને અગ્ય હાય તેમજ જ્ઞાનમાં, દર્શનમા, ચારિત્રમા તથા વિશેષરૂપથી થત Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० आवश्य सूत्रस्य दिवसकृतो रात्रिकृतथेत्यर्थः । रात्रिकृतथेत्यर्थः । ' अईआरो' अतिक्रम्य चारः = चरणमतीचारः = सयममर्यादातो नर्तिन-सयममर्यादालय गमनमिति यावत्, 'ओ' कृतो विहित इत्यये । कीदृशः स देवसिकोऽतीवारः ? इत्यत आह'फाइओवा माणसिओ' इति, काये भवः काये जातः, कायेन निर्वृत्तो वा कायिक. | एक नाचको मानसिक इत्युभयत्रापि बोध्यम्, फायजातो वागजातो मनोजात इति निष्कर्षः । ' उस्सूत्तो ' सूनमुच्ज्यिोत्क्रम्य वा मुत्रात्रे वा सजात उत्सूनः सूनोलङ्घनेन निप्पन्नोऽर्थात्तीर्थकर गणधरायाप्तोपदिष्टमवचन परित्यागेनो द्भूतः । अतएव ' उम्मग्गो' मार्गादुद्गत उन्मार्गः क्षायोपशमिकभावप्रहाणपूर्वकौ दयिभावपोसक्रमः ( क्रान्तः ) । 'अप' क्ल्प. =करणचरणव्यापाररूप आचारः, न कल्पोऽल्प. करणचरणापाररहित इत्यर्थः । यद्वा अकल्पयः इतिच्छाया तस्य क्ल्पयितु योग्य अल्प्यो मुनिधर्म' न कल्प्योऽकल्प्यो =मुन्यावार विशृहलित अतएव 'अकरणिजो ' अकरणीय = मुनिभिरनाचरणीय ॥ उक्ता' कायिक- वाचिक - योरतीचारयोर्भेदा, सम्मति मानसिकस्याऽविचारस्य तानाह 6 1 अतिचार किया गया हो, चाहे वह कायसम्बन्धी, वचन सम्बन्धी, मनसम्बन्धी, 'उस्सुत्तो' उत्सूत्ररूप अर्थात् तीर्थङ्कर गणधर आदिके उपदिष्ट प्रचचनके विरुद्ध प्ररूपणादिरूप, 'उम्मग्गो' - उन्मार्गरूप अर्थात् क्षायोपशमिक मायका उल्लइन करके औदयिक भावमे प्रवृत्तिरूप, 'अकप्पो'–अकल्प(ल्प्य) = करणचरणरूप आचार रहित, 'अकरणिजो'अकरणीय अर्थात् मुनियोंके नही करने योग्य हो । य सब ऊपर कहे हुए कायिक तथा वाचिक अतिचार हैं, अब मानसिक अतिचार ઉલ ઘનરૂપ અતિચાર કરાયા હોય, ચાહે તે એ શરીરસખ ધી વચનસ ખ ધીમન समधी, उस्मुत्तो - उत्सूत्ररूप अर्थात् नीर्थ और आयुधर विगेरे उपद्दिष्ट अवयननी वि३द्ध अ३पयाहि, उम्मग्गो उन्मार्ग३य अर्थात् क्षायोपशमि लावनु उस धन पुरीने मोठ भावभा प्रवृत्ति३५, अकप्पो सहय, उरयर आयाररहित भने अकरणिजो અકરણીય અર્થાત્ મુનિએને નહિ કરવા લાયક હાય ઉપર કહેલ એ બધા કાયિક તથા વાચિક અતિચાર છે હવે માનિસક અતિચાર કહે છે१ 'कायिकः । तत्रभव ( ४ । ३ । ५३ ) इति, "वत्रजात. " (४ । ३ । २५) इति, “ तेन निर्वृत्तम् " ( ५ । १ । ७८) इति वा ठक् । 66 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका ८१ , ' दुज्झाओ ' - इत्यादिना, 'दुज्झाओ ' दुयतिः, दुष्टो दुःस्थो वा ध्यातो दुर्म्यातः=विरुद्धयानसपन्नः कपाय लुपितान्तःकरणैकाग्रताऽऽतरौद्ररूपः, यद्वा आर्पखादत्र भावे क्तः पुस्तत्र च तेन दुष्टयानरूप इत्यर्थः, अत एव 'दुव्विचितिओ ' दुःखेन दुष्टो वा विचिन्तितो दुर्विचिन्तितः =अनवस्थितचित्ततया तत्रपरिभ्रशनपूर्व काऽशुभचिन्तनोपेतः, अतएव 'अणायारो' अनाचार = सयममार्गेण प्रचलता सयमिनामनाचरितव्यः । यतोऽनाचरितव्योऽतण्व ' अणिच्छियन्त्रो' अनेतृव्यः = चेतसाऽपि लेशतोऽप्यनभिलपणीयः, यतश्चैवमतः 'असमणपाउरगो' न योग्योऽयोग्यः प्रकर्षेणाऽयोग्यः प्रायोग्य' श्रमणाना श्रमणैर्वा प्रायोग्य. = भ्रमणमायोग्यः न श्रमणमायोग्योऽश्रमणमायोग्यः - श्रमणानामयोग्य इत्यर्थः, मुनिभिरननुष्ठेय इति यावत् । अन व्युत्क्रमव्याख्यान तु सूत्रक्रमविरोधादनुभवविरोधाची पेक्षितव्यमेव । किंकिंविपयकोऽतिचारः १ इत्याह'नाणे ' इत्यादिना, ' नाणे ' ज्ञाने= पदार्थ परिवो वलक्षणे, 'दसणे' दर्शने= मवचनाभिरोचनस्वरूपे, 'चरिते' चारित्रे = आश्रवनिरोधरूपे 'नाणे ' इत्यादिषु वैपयिका सप्तमी, मोक्षे इच्छाऽस्तीत्यादिवत्, तेन ज्ञानविषयको दर्शनविषयकचारित्रत्रियकश्चेति फलति । विशेषेणोच्यते - ' सुए ' इति, 'सुए ' श्रुते = मत्यादिज्ञानस्वरूपे, श्रुतग्रहणस्य मत्यादिज्ञानोपलक्षकत्वात् मत्यादिज्ञानविषयक इत्यर्थः यद्वा ' सुए ' इत्यस्य श्रुतेऽर्थाच्छास्त्रपठनादिरूप इत्येवार्थी न तु मत्यादिज्ञान इति, अतिचाग्यात्राकाले मूत्रपठनादिरूप । अधुना चारिनातिचार " कहते हैं- 'दुज्झाओ' - दुर्ध्यानकपाययुक्त अन्त' करण की एकाग्रतासे आर्त्तरौद्र यानरूप, 'दुव्विचितिओ' -दुर्विचिन्तित - चित्त की असावधानता से वस्तु के अयथार्थ स्वरूपका चिन्तनरूप, 'अणायारो' - अनाचार - सयमियों को अनाचरणीय, 'अणिच्छियव्वो' अनेष्टव्य- सर्वथा अवाछनीय तथा 'असमणपाउग्गो' - अश्रमणप्रायोग्य - साधुओं के आचरणके अयोग्य दुज्झाओ - दुर्म्यान-पायुक्त तराशुनी मेडाश्रताथी मार्त्तरौद्र ध्यान दुविचितिओ - दुर्विचिन्तित - वित्तनी असावधानताथी वस्तुना यथार्थ स्वभा तिन३५ अणायारो - अनाचरणीय सायभियाने अनाथरीय अणिच्डियन्यो- अनेष्टव्यहमेशा नहि ४२छवायोज्य तथा असमणपाउग्गो - अभ्रमणमायोग्य - साधुमोना આચરણને અગ્ય હાય તેમજ જ્ઞાનમા, દર્શનમા, ચાત્રિમા તથા વિશેષરૂપથી ત Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य माह- सामाइए' इति, सामायिके-सामायिकतिपयकः, प्राग्व्याख्यातः सामा यिकपदार्थः, अत्र सामायिकपदेन सम्याचसामायिक-चारित्रसामयिकयोग्रंदणं, तन वक्ष्यमाणरूपः शङ्कादिः सम्यक्त्वसामायिकातिचारविषयः, चारित्रसामायि कातिचारो भेदनयात्मक इति योधयितुमाह-'तिण्ह गुत्तीण' इति, तिष्णा गुप्तीना, निर्धारणे पष्ठी, तेन तिसृणा गुप्तीना म य इत्यर्थः, एवमग्रेऽपि, गुप्तिध मोक्षाभिलापुरुयोगनिरोधरूपा 'चउण्ड कसायाण' चतुणी कपायाणा-भवमहीरुहसेचकाना क्रोधमानादीनाम्, 'पचण्ड महब्बयाण' पञ्चाना महावतानाप्राणातिपातमृपावादाऽदत्ताऽऽदानानुपरतिस्वरूपाणा, 'छह जीवनिकायाण' पण्णा जीवनिकायाना-पृथिव्यप्तेजोगायुवनस्पतिसमकायिकानाम् , 'सत्तण्ड पिंडेसणाण' सप्ताना पिण्डैपणानामससृष्टामभृतीनाम् , ताश्च यथा-१ अससृष्टा २ ससृष्टा, ३ ससृष्टाऽससृष्टा, ४ अल्पलेपा, ५ अवगृहीता, ६ प्रगृहीता, ७ उज्झितर्मिका चेति, आसा प्रत्येक स्वरूपाण्याचारागमूत्रतो ज्ञेयानि । 'अटण्ह पवयणमाऊण' अष्टाना प्रवचनमातृणा-समितिपञ्चक-गुप्तित्रयरूपाणाम् । 'नवण्हं वभचेरगुत्तीण' नवाना ब्रह्मचर्यगुप्तीना वसतिकथादिरूपाणाम् । एत दन्ताना सर्वेषा 'योऽतिचार कृतः। इति पूर्वेणान्वयः। 'दमविहे' दशविध 'समणधम्मे' श्रमणधर्मे क्षान्त्यादिरूपे 'समणाण' श्रमणाना-श्रमणसम्बन्धिना हो, एव ज्ञानमे, दर्शनमें, चारित्रमें तथा विशेषरूप से श्रुतधर्म में, सम्यक्त्वरूप तथा चारित्ररूप सामायिकमें, तथा उसके भेदरूप योगनिरोधात्मक तीन गुप्तियों में, चार कपायो में, पाच महाव्रतों में, छह जीवनिकायों में, (१) असमृष्टा, (२) समृष्टा, (३) ससृष्टाऽससृष्टा, (४) अल्पलेपा, (५) अवगृहीता, (६) प्रगृहीता, तथा (७) उज्झित धर्मिका रूप सात पिंडैपणाओ मे, पाचसमिति तीन गुप्तिरूप आठ प्रवचनमाताओं में, ब्रह्मचर्य की नौ वाडो मे, दश प्रकार के श्रमणधर्म ધમમા, સમ્યકત્વરૂપ તથા ચારિત્રરૂપ સામાયિકમા તથા એના ભેદરૂપ યેગનિષેધાત્મક ત્રણ ગુપ્તિઓમા, ચાર કામ, પાચ મહાવ્રતમા, છ જવનિકામા, (૧) અસાસણા (२) सटा (3) साऽससटा (४) १८५३५ (५) अवता (6) प्रता (૭) ઉમિતધર્મિકારૂપ સાત પિંડેપશુઓમા, પાચસમિતિ ત્રણગુપ્તિરૂપ આઠ પ્રવચનમાતાઓમા, બ્રહ્મચર્યની નવ વાડમ, દશ પ્રકારના શ્રમણુધર્મની અદર Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका ८३ ' जोगाण' योगाना व्यापाराणा श्रद्धान- प्ररूपण - स्पर्शनस्वरूपाणा श्रमणसम्बन्धिव्यापारमध्ये इत्यर्थः, 'ज' यत् ' त्रिराहिय' विराधित=सर्वतोभावेन खण्डित = स्खलित, ' तस्स ' तस्य =वाचिकादिरूपस्य दैवसिकस्यातिचारस्य खण्डनस्य विराधनस्य च तत्सम्बन्धीत्यर्थ, (यतदोर्नित्यसम्बन्धेन ' तस्स ' इति तच्छब्देन प्रागुक्ताना यच्छन्दनिर्दिष्टाना सर्वेपा सग्रहात्, बहुपु पुस्तकेषु दृश्यमान विपरीत व्याख्यान सूत्राक्षराननुगुणत्नादुपेक्ष्यमेव, नचैकेन तच्छदेन 'जो मे देवसिओ ' ' ज खडिय ' ' ज विराहिय' इति यच्छन्दनयस्याऽऽकाङ्क्षा कथ पूर्येत ? प्रतियच्छन्द तच्छन्दोपादानस्याऽऽवश्यकत्वात्, अतएव ' य य कामयते काम त तमाप्नोति लीलया ' इत्यादी तच्छन्दद्वयोपादान सगच्छत इति वाच्यम्, बुद्धिविपयतावच्छेदकत्वोपलक्षितधर्मावच्छिन्ने तच्छन्दशने, प्रकृते च सर्वेषामेव यच्छन्दोपात्ताना तादृशधर्मावच्छिन्न (बुद्धिविषय) स्वात्, अतएव 'ययत्पाप प्रतिज हि जगन्नाथ १ नम्रस्य तन्मे ' इत्यादी ययदित्याभ्या यच्छदाभ्या येन केन चिद्रूपेण स्थित सर्वात्मक पापरूप वस्तु विवक्षित तथाभूतस्य तस्य तच्छद्वेन परामर्शस्तस्मान्नात्र साकाङ्क्षत्व दोष इत्युक्त काव्यप्रकाश - रसगङ्गाधरसादित्यदर्पणादिष्विति तत्रैव कणेहत्याऽवलोकनीयम् ।) 'दुकड' दुष्कृत = पापम् 'मि' मयि विषयसप्तमीय तेन मद्विषय इत्यर्थ. । 'मिच्छा' मिथ्या = निष्फलम् अभावरूपमिति यात्रत्, भवत्विति शेष । यत्तु ' मि' इत्यस्य 'मे' इतिच्छायया व्याख्यान तद्वयाकरणविरोधात्सूत्रतात्पर्यविरोधाच्च हेयमेव । के अन्दर श्रद्धाप्ररूपणा स्पर्शनारूप भ्रमणयोगों में से, जिस किसी की देशसे खण्डना या सर्वथा विराधना हुई हो उन सब पूर्वोक्त अतिचारों से मुझे लगा हुआ पाप निष्फल हो ॥ 'मि' इसकी 'मे' ऐसी छाया करके जो व्याख्यान किया गया है वह व्याकरण तथा सुत्रतात्पर्य से विरुद्ध होने के कारण सर्वधा त्याज्य है । શ્રદ્ધા-પ્રરૂપણા-સ્પર્શનારૂપ શ્રમણયેગામાથી જેની કાઈની દેશથી ખંડના અથવા સર્વથા વિરાધના થઈ હેાય તે સ પૂર્વે કહેલા અતિચારોથી મને લાગેલા પાપ નિષ્ફળ થાય નિ—એની મૈં એવી છાયા કરીને જે વ્યાખ્યાન કરેલુ છે તે વ્યાકરણુ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ आवश्यकमूत्रस्य माह-'सामाइए' इति, सामायिक सामायिकतिपयकः, प्राग्व्यारयाव सामा यिकपदार्थः, अत्र सामायिकपमेन सम्यक्त्रसामायिक चारित्रसामयिकयोर्ग्रहण, तत्र वक्ष्यमाणरूपः शङ्कादिः सम्यक्त्वसामायिकातिचारविषयः, चारित्रसामायि कातिचारो भेदत्रयात्मक इति बोधयितुमाह-'तिण्ह गुत्तीण' इति, विसणा गुप्तीना, निर्धारणे पष्ठी, तेन तिसृणा गुप्तीना म य इत्यर्थः, एवमग्रेऽपि, गुप्तिश्च मोक्षाभिलापुफयोगनिरोधरूपा 'चउण्ड कसायाण' चतुर्णी कपायाणा-भवमहीरुहसेचकाना क्रोधमानादीनाम्, 'पचण्ड महन्बयाण' पश्चाना महावतानाप्राणातिपातमृपावादाऽदत्ताऽऽदानानुपरतिस्वरूपाणा, 'छह जीवनिकायाण' पण्णा जीवनिकायाना-पृथिव्यप्तेजोगयुवनस्पतित्रमकायिकानाम्, 'सत्तण्ड पिंडेसणाण' सप्ताना पिण्डैपणानामससृष्टाप्रभृतीनाम् , ताश्च यथा-१ अससृष्टा २ सराटा, ३ ससृष्टाऽससृष्टा, ४ अल्पलेपा, ५ अवगृहीता, ६ प्रगृहीता, ७ उज्झितर्मिका चेति, आसा प्रत्येक स्वरूपाण्याचारागमूरतो ज्ञेयानि । 'अटण्ह पवयणमाऊण' अष्टाना प्रवचनमातृणा-समितिपञ्चक-गुप्तित्रयरूपाणाम् । 'नवण्ह वभचेरगुत्तीण' नवाना ब्रह्मचर्यगुप्तीना वसतिकथादिरूपाणाम् । एत दन्ताना सर्वेपा 'योऽतिचार' कृतः' इति पूर्वेणान्वयः । 'दमविहे' दशविधे 'समणधम्मे' श्रमण धर्म क्षान्त्यादिरूपे 'समणाण' श्रमणाना श्रमणसम्बन्धिना हो, एव ज्ञानमे, दर्शनमें, चारित्रमें तथा विशेषरूप से श्रुतधर्म में, सम्यक्त्वरूप तथा चारित्ररूप सामायिकमे, तथा उसके भेदरूप योगनिरोधात्मक तीन गुप्तियों में, चार कपायो मे, पाच महाव्रतों मे, छह जीवनिकायों में, (१) असमृष्टा, (२) समृष्टा, (३) समृष्टाऽससृष्टा, (४) अल्पलेपा, (५) अवगृहीता, (६) प्रगृहीता, तथा (७) उज्झित धर्मिका रूप सात पिंडैपणाओं में, पाचसमिति तीन गुप्तिरूप आठ प्रवचनमाताओं में, ब्रह्मचर्य की नौ वाडो मे, दश प्रकार के श्रमणधर्म ધર્મમા, સમ્યકત્વરૂપ તથા ચારિત્રરૂપ સામાયિકમા તથા એના ભેદરૂપ ગરિધાત્મક ત્રણ ગુપ્તિઓમા, ચાર કામા, પાચ મહાવતેમા, છ જવનિકામા, (૧) અસાસણા (२) ससा (3) ससससा (४) २५पा (५) अक्खीता (6) प्रीता ૭) ઉજિમતધમિકારૂપ સાત પિંડેપશુઓમા, પાચસમિતિ ત્રણતિરૂપ આઠ પ્રવચનમાતાઓમા, બ્રહ્મચર્યની નવ વાડમા, દશ પ્રકારના શ્રમણુધર્મની અદર Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मुनितोपणी टीका 'जोगाण' योगाना व्यापाराणा श्रद्धान-प्ररूपण-स्पर्शनस्वरूपाणा श्रमणसम्बन्धिव्यापारमध्ये इत्यर्थः, 'ज' यत् 'विराहिय' विराधित सर्वतोभावेन खण्डित-स्खलित, 'तस्स' तस्य-वाचिकादिरूपस्य देवसिकस्यातिचारस्य खण्डनस्य विराधनस्य च-तत्सम्बन्धीत्यर्थः, (यत्तदोनित्यसम्बन्धेन 'तस्स' इति तच्छब्देन प्रागुक्ताना यच्छन्दनिर्दिष्टाना सर्वेपा सग्रहात्, बहुपु पुस्तकेपु दृश्यमान विपरीतव्याख्यान मूनाक्षराननुगुणलादुपेक्ष्यमेव, नचैकेन तच्छन्देन 'जो मे देवसिओ' 'ज खडिय' 'ज विराहिय' इति यच्छन्दत्रयस्याऽऽकाङ्क्षा स्थ पूर्यंत ' प्रतियन्छब्द तच्छब्दोपादानस्याऽऽवश्यकत्वात् , अतएव ' य य कामयते काम त तमामोति लीलया' इत्यादौ तच्छन्नद्वयोपादान सगन्छत इति वाच्यम् , बुद्धिविपयतावच्छेदकत्वोपलक्षित वर्मावच्छिन्ने तच्छन्दशनः, प्रकृते च सर्वपामेव यच्छब्दोपात्ताना तादृशधर्मावच्छिन्न (बुद्धिविपय) त्वात् , अतएव 'यवत्पाप पतिनहि जगन्नाथ १ नम्रस्य तन्मे ' इत्यादौ यद्यदित्याभ्या यन्छन्दाभ्या येन केन चिद्रूपेण स्थित सर्वात्मक पापरूप वस्तु विवक्षित तथाभूतस्य तस्य तच्छद्रेन परामर्शस्तस्मान्नात्र साझाझव दोष इत्युक्त काव्यप्रकाश-रसगङ्गाधरसाहित्यदर्पणादिप्विति तत्रैव कणेहत्याऽवलोकनीयम् । ) 'दुक्ड' दुष्कृत-पापम्, 'मि' मयि विषयसप्तमीय तेन मद्विपय इत्यर्थः । मिच्छा' मिथ्या निष्फलम् अभावरूपमिति यावत् , भवत्विति शेष । यतु 'मि' इत्यस्य 'मे' इतिच्छायया व्याख्यान तद्वयाकरणविरोधात्सूत्रतात्पर्यविरोधाच हेयमेव । के अन्दर श्रद्धाप्ररूपणा स्पर्शनारूप श्रमणयोगो में से, जिस किसी की देशसे खण्डना या सर्वथा विराधना हुई हो उन सय पूर्वोक्त अतिचारो से मुझे लगा हुआ पाप निष्फल हो । 'मि' इसकी 'मे' ऐसी छाया करके जो व्याख्यान किया गया है वह व्याकरण तथा सूत्रतात्पर्य से विरुद्ध होने के कारण सर्वथा त्याज्य है। શ્રદ્ધા–પ્રરૂપણુ-સ્પર્શનારૂપ શ્રમણગમાથી જેની કેદની દેશથી ખડના અથવા સર્વથા વિરાધના થઈ હોય તે સર્વ પૂર્વે કહેલા અતિચારોથી મને લાગેલા પાપ નિષ્ફળ થાય મિ-એની છે એવી છાયા કરીને જે વ્યાખ્યાન કરેલું છે તે વ્યાકરણ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- - - - - - - - - - - - ८४ आवश्यकमूत्रस्य केचित् 'मिच्छामि' इति पद 'मि' 'छा' 'मि' इत्येव विभज्य प्रथमेन 'मि' इत्यनेन कायनम्रत्व च, 'न' इत्यनेनासयमयोगरूपदोपच्छादन, घरमेण 'मि' इत्यनेन 'चारित्ररूपमर्यादास्थितोऽह'-मित्येवरूप, तथा 'दुकडं इत्यत्र 'दुः' इत्यनेन दुगुछामि दुप्कृतर्मकारिणमात्मान निन्दामि' इत्येवरूप 'क' इति वर्णन 'कृत'-मिति, 'ड' इति वर्णेन 'उपशमेनातिकामामि' अर्थात् द्रव्यभावनम्रचारित्रमर्यादास्थितोऽह दुष्कृतमकारिणमात्मान निन्दामि, कृत च दुष्कृत कर्म उपशमेन परित्यजामीत्येमर्थ व्याचक्षते 'प्रत्येकानतिरिक्तः समुदायः' इति न्यायेन पदस्यार्थवत्वे वर्णानामप्यर्थवत्ताऽङ्गीकारादितरथा पद कई एक 'मिच्छामि' इस पदका 'मि' - 'छा' 'मि' ऐमा पदच्छेद करके "-'मि'कायिक और मानसिक अभिमानको छोडकर 'छा' असयमरूप दोष को ढक कर 'मि' चारित्र की मर्यादा में रहा हुआ मै, 'दु' 'क' 'ड, - 'दु'-सावद्यकारी आत्माकी निन्दा करता है, 'क' किये हुए सावद्यकर्म को 'ड'–उपशमद्वारा त्यागता हूँ, अर्थात् द्रव्य-भावसे नम्र तथा चारित्रमर्यादा में स्थित होकर मैं सावद्य क्रियाकारी आत्मा की निन्दा करता हूँ और किये हुए दुष्कृत (पाप) को उपशमभावसे हटाता हूँ" इस प्रकार अर्थ करत हैं । ऐसा अर्थ करना कोई असगत नही है, प्रत्युत सर्वथा उचित ही है, क्योंकि-'समुदाय प्रत्येक से भिन्न नहीं होता' इस न्याय से जब पद की सार्थकता स्वीकार की जाय तो प्रत्येक वर्ण की भी तथा सूचना तय थी पियुद्ध डावाने आ म त्याच्या "मिच्छामि" को पदमा “मि 'छा' मि" में प्रभारी १६२६ शने 'मि' यि भने भानसि मलिभानने छोड़ी "छा"सयम३५ होपनदान"मि" यास्तिनी महामाये हु'दु' 'क' 'ड' "दु'सावधारी मामानी निrat ४३ Y "क" ४२॥ પાપકર્મને “ર” ઉપશમઠાર ત્યાગ કરૂ છુ, અર્થાત દ્રવ્યભાવથી નમ્ર તથા ચારિત્રમર્યાદામાં સ્થિત થઈને હુ સાવધક્રિયાવાન આત્માની નિન્દા કરૂ છું અને કરેલા પાપને ઉપશમભાવથી હઠાવુ છુએ પ્રમાણે અર્થ કરે છે આ પ્રમાણે અર્થ કરે તે કંઈ પ્રકારે અસંગત નથી પરનું સર્વથા ઉચિત જ છે, કારણ કે સમુદાય પ્રત્યેકથી ભિન્ન નથી–આ ન્યાય પ્રમા Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - % 3D - - - - - - मुनितोपणी टीका स्यापि वर्णसमुदायात्मकत्वेनाऽऽनर्थक्याऽऽपत्तेः, तदुक्तम्-' अर्थवन्तो वर्णा' इति प्रतिज्ञाय 'सघातार्थवत्त्वाच्च' इति हेतुमदर्शकवाकिव्याख्याया पतञ्जलिना-'येपा समुदाया अर्थवन्तोऽवयवा अपि तेपामर्थवन्तः तपथा-एकश्वक्षुष्मान् दर्शने समर्थस्तत्समुदायश्च शतमपि समर्थम्, एकश्च तिलस्तैलदाने समर्थस्तत्ममुदायश्च शतमपि समर्थम् , येपा पुनरवयवा अनर्थकाः समुदाया अपि तेपामनर्थकाः, एका च सिकता तैलदानेऽसमर्था तत्समुदायश्च खारीशतमप्यसमर्थ-मिति'। सार्थकता स्वीकार करनी होती है, अन्यथा वर्णों के समुदायरूप पद और पदों के समुदायरूप वाक्य में यदि वर्गों को अनर्थक __ कहें तो उनके समुदायरूप शब्द तथा वाक्य भी अनर्थक हो जाय, जैसा कि पतञ्जलिने अपने अन्य व्याकरण-महाभाष्य में कहा है-"जिनके समुदाय अर्थवान् होते हैं उनके अवयव भी अर्थवान् ही रहा करते हैं, जैसे-नेत्रवाला एक व्यक्ति देख सकता है तो उसी तरह नेत्रवाला हजारों का समुदाय भी देख सकता है, तिलके एक दाने में तैल है तो अनेक दानो में भी है, और जिनके अवयव अनर्थक होते हैं उनके समुदाय भी अनर्थक ही हुआ करते हैं, बालूके एक कणसे तेल नहीं निकल सकता तो घालूकी ढेरीसे भी नहीं निकलता" इत्यादि । સ્વીકાર કરવામા આવે તે પ્રત્યેક વર્ણની પણ સાર્થકતા સ્વીકારવી જોઈએ અન્ય વર્ણોના સમુદાયરૂપ પદ અને પદના સમુદાયરૂપ વાક્યમાં જે વણેને અનર્થક કહીએ તે તેના સમુદાયરૂપ શબ્દ તથા વાકય પણ અનર્થક થઈ જાય જેવી રીતે કે પત જલિએ પિતાના પ્રથ વ્યાકરણ-મહાભાષ્યમાં કહ્યું છે જેને સમુદાય અર્થવાન હોય છે તેનું અવયવ પણ અર્થવાન જ રહે છે જેમ નેત્રવાળે એક માણસ દેખી શકે છે તે તે રીતે નેત્રવાળા હજારે માણસને સમુદાય પણ દેખી શકે છે તલના એક દાણમાં તેલ છે તે તેના અનેક દાણાઓમાં પણ છે અને જેનું અવયવ અનર્થક હોય છે તે તેના સમુદાય પણ અનર્થક હેય છે રેતીના એક કણમાથી તેલ નીકળતુ નથી તે રેતીના ઢગલામાથી પણ તેલ નીકળી શકતું નથી ઈત્યાદિ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यफमूत्रस्य - - - केचित् 'मिच्छामि' इति पद 'मि' 'छा' 'मि' इत्येव विभज्य प्रथमेन 'मि' इत्यनेन कायनम्रत्व च, 'जा' इत्यनेनासयमयोगरूपदोपच्छादन, चरमेण 'मि' इत्यनेन 'चारित्ररूपमर्यादास्थितोऽह'-मित्येवरूप, तथा 'दुकड इत्यत्र 'दु' इत्यनेन दुगुछामि='दुष्कृतर्मकारिणमात्मान निन्दामि' इत्येवरूप 'क' इति वर्णन 'कृत'-मिति, 'ड' इति वर्णेन 'उपशमेनातिक्रामामि' अर्थात् द्रव्यभावनम्रचारित्रमर्यादास्थितोऽह दुष्कृतकर्मकारिणमात्मान निन्दामि, कृत च दुष्कृत कर्म उपशमेन परित्यजामीत्येनमय व्याचक्षते 'प्रत्येकानतिरिक्त समुदायः' इति न्यायेन पदस्यार्थवत्त्वे वर्णानामप्यर्थवत्ताऽङ्गीकारादितरथा पद कई एक 'मिच्छामि' इस पदका 'मि' 'छा' "मि' ऐसा पदच्छेद करके "-'मि' कायिक और मानसिक अभिमानको छोडकर 'छ'-असयमरूप दोष को ढक कर 'मि' चारित्र की मर्यादा में रहा हुआ मै, 'दु' 'क' 'ड - 'दु'-सावद्यकारी आत्माकी निन्दा करता हूँ, 'क'=किये हुए सावद्यकर्म को 'ड'-उपशमद्वारा त्यागता है, अर्थात् द्रव्य-भावसे नम्र तथा चारित्रमर्यादा में स्थित होकर मै सावध क्रियाकारी आत्मा की निन्दा करता हूँ और किये हुए दुष्कृत (पाप) को उपशमभावसे हटाता हूँ" इस प्रकार अर्थ करते हैं। ऐसा अर्थ करना कोई असगत नही है, प्रत्युत सर्वथा उचित ही है, क्योंकि-'समुदाय प्रत्येक से भिन्न नही होता' इस न्याय से जब पद की सार्थकता स्वीकार की जाय तो प्रत्येक वर्ण की भी - तथा सूत्रना तात्पर्यथी वि डावाने र म त्यान्य छ उटमा "मिच्छामि" से पहभा " मि 'छा' मि" प्रभारी पहशर 'मि' यि भने मानसि અભિમાનને છેડી “છા=અસ યમરૂપ દોષને ઢાકીને “નિ” ચારિત્રની મર્યાદામાં રહેલે है 'दु' 'क' 'ड' "दु'सापारी मात्मानी निन् ४३ छु "क" ४२॥ પાપકર્મને “ર” ઉપશમ દ્વારા ત્યાગ કરૂ છુ, અર્થાત દ્રવ્યભાવથી નમ્ર તથા ચારિત્રમર્યાદામાં સ્થિત થઈને હું સાવઘક્રિયાવાન આત્માની નિન્દા કરૂ છું અને કરેલા પાપને ઉપશમભાવથી હઠાવુ છુ-એ પ્રમાણે અર્થ કરે છે આ પ્રમાણે અર્થ કરે તે કઈ પ્રકારે અસંગત નથી પરંતુ સર્વથા ઉચિત જ છે, કારણ કે સમુદાય પ્રત્યેકથી ભિન્ન નથી–આ ન્યાય પ્રમાણે જ્યારે પદની સાર્થકતા Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका यथामत्यूहनीयानि। एतच्च मिथ्यादुष्कृतमायश्चित्त समितिगुप्तिरूपसयममार्गणवृत्तस्य साधोः प्रमादादिवशात्स्खलनाया सत्यामनुष्ठित सत् प्रदीपस्तम इव दोपमपनयति, अकृत्यवासनावासितान्तरात्मना साधुना मिथ्यादुष्कृतदान पुनरकन्यसेवनाद्गुर्वादेरनुरञ्जनमात्रफलक भवति, तस्मात्तदर्थ नेद प्रायश्चित्त, नहि ज्ञात्वा भृशमपरायतोऽप्यज्ञानकृतापराधप्रायश्चित्तेनाऽऽत्ममोचन जातु दृष्टचरम् , 'बुद्ध्वा चेद् द्विगुणो दमः'-'मत्या तु द्विगुण चरेतु' इत्यादिनीतेर्यथाऽपराध राजादिशासनवद्धर्मआत्मा की अतिचार प्रवृत्तिरूप अप्रशस्त सत्ता (अशुद्ध अवस्था) को हटाता हूँ ॥ ऊपर कहा हुआ मिथ्यादुष्कृत प्रायश्चित्त समिति - गुप्तिरूप सयम मार्ग में प्रवृत्त साधु के प्रमाद आदि कारणसे लगे हुए दोपको उसी तरह हटा देता है जैसे दीपक अन्धेरे को, किन्तु जो साधु जान-बूझकर दोप सेवन किया करता हो उसका मिथ्यादुष्कृत केवल गुरु आदि के मनोरञ्जन के लिए ही है पापसे छुटकारे के लिए नहीं, क्यों कि भूल से होनेवाले अपराधों के लिए जो प्रायश्चित्त नियत है उससे जान-बूझकर अपराध करनेवाले का दोष दूर नहीं होसकता। जैसे अनजानमें किसीसे राजशासनके विरुद्ध कोई अपराध किया जाता है तो उसको जितनी साधारण सजा दीजाती है, तो जान-बूझकर अपराध करनेवाले को अपराध के મારામાં રહેલી આત્માના અતિચારપ્રવૃત્તિ રૂપ અપ્રશસ્ત સત્તા (અશુદ્ધ અવસ્થા) ને ત્યજુ ઉપર કહેલા મિથ્યાદુકૃત પ્રાયશ્ચિત્ત સમિતિ-ગુણિરૂપ સંયમ માર્ગમા પ્રવર્તેલા સાધુના પ્રમાદ આદિ કારણથી લાગેલા દેવને એવી રીતે હટાવી દે છે કે જેવી રીતે દી અ ધારને હટાવી દે છે પણ જે સાધુ જા જેઈને દેશનું સેવન કર્યા કરે છે તેના મિથ્યાદુષ્કૃત કેવળ ગુરૂ વિગેરેના મને રજન માટે જ છે પાપ માથી છુટવાને માટે નહિં કારણ કે ભૂલથી થયેલા અપરાધને માટે જે પ્રાયશ્ચિત નકકી છે, તેથી જાણી જોઈને અપરાધ કરવાવાળાના દોષ દૂર થઈ શક્તા નથી જેવી રીતે અજાણતા કેઈથી રાજ્યશાસન-વિરુદ્ધ કેઈ અપરાધ થઈ જાય તે તેને જેટલી સજા દેવાય છે, તે કરતા જાણ જેઈને અપરાધ કરવાવાળાને તે અપરાધથી Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य - - अथवा निरुक्तरीत्या 'मिच्छामि, दुषड' इत्यस्य 'मि' मयि विपयसप्तम्याश्रयणान्मद्विपयक छयतिन्नित्ति शिवमुखमिति छाः मिथ्या स्वादिस्ते नो पलक्षित, 'मि 'मिनोमि-पक्षिपामि, किम् ', इत्याह-दुक्ड' दुष्कृत-पापम् । एवच मद्विपयक मिथ्यात्वाापलक्षित दुप्कृत (पाप) प्रक्षिपामिदूरतः परिहारामीत्यर्थः । यद्वा 'मिच्छामि' इति पदवयव्याच्या पूर्ववद , 'दुक्ड इत्यत्र च 'दु'-रिति दुष्ट 'के' त्यात्मनि 'हे' ति सत्ताया, दुष्टत्व च सत्ताया विवक्षित, तथाच-'मि' मयि 'छा' मिथ्यात्वादिना हेतुभूतेन दुष्टानिन्दि तामात्मन. सत्तामतिचारपटनिलक्षणा 'मि' प्रक्षिपामीत्यर्थ । व्याख्यानान्तराणि ____ अथवा निरुक्त रीतिसे 'मिच्छामि दुक्कड' का अर्थ इस प्रकार भी होता हैं-'मि' 'छा' 'मि' "दुक्कड' ऐसा पदच्छेद करने से "मि' मुझ में रहे हुए 'छा=मिथ्यात्व अविरति कषाय प्रमाद अशुभयोगरूप 'दुक्कड'=पाप को 'मि' दूर करता हूँ। . अथवा 'मि' 'छा' 'मि' का व्याख्यान पहले की तरह जानना, 'दुक्कड' शब्द में 'दु' 'क' 'ड' इस प्रकार पटच्छेद करने से 'दु'दुष्ट (अप्रशस्त) 'क' आत्मा की 'ड' सत्ता को, अतएव समुदाय का यह अर्थ हुआ कि-उक्त मिथ्यात्वादिके कारण मुझमें रही हुई मा नित-शत-प्रमाणे " मिच्छामि दुक्कडम् " मर्थ मेवी गत पए, थाय छे “मि छा मि दुक्कड" सेवा परछे ४२वाथी 'मि' भाराभा २७सा 'छा' मिथ्यात्व मविरति पाय प्रभात शुलयोग३५ 'दुक्कड' पापने 'मि' र ४३ छ, अथवा 'मि' 'छा' 'मि' नु व्याज्यान पडेनानी मा युयु 'दुकड' शहमा "दु क ड" मेवी शत पहछे ४२वाथी ' दष्ट (प्रशस्त) 'क' मामानी 'ड%D સત્તાને, અએવ સમુદાયને આ અર્થ થાય છે કે ઉકત મિથ્યાત્વાદિને કારણે १- 'छा' 'छो छेदने' अस्माकर्तरि 'क्विप् । 'आदेच उपदेश०' इत्याकार। २- 'तेन' इत्यत्र- 'जटाभिस्तापस' इतिवत्तृतीया । ३- 'मिनोमि' 'डुमिन् प्रक्षेपणे' अस्मात्करि किप । 'मि' इत्यत्रार्पवा दीर्घाभाव । ४- 'दुक्ड' इत्यत्र कृयोगे पष्ठीमाप्तावपि आपवाद्वितीया । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका एवमादिकरागारैरभनोऽविराधितो भवतु मे कायोत्सर्गों यावदहता भगवता नमस्कारेण न पारयामितावत्काय स्थानेन मौनेन ध्यानेनाऽऽत्मान व्युत्सृजामि।।मू०३॥ ॥टीका ॥ 'तस्स' तस्य-प्रमादकृताऽशुभयोगसम्बन्धेन देशतः सर्वतो वा खण्डितस्य श्रमणयोगस्य सातिचारस्याऽऽत्मनो वा, तच्छन्देनात्रौचित्यात्तयोरेव ग्रहणात्, अतिचारस्य तु सम्भवेऽपि 'उत्तरीकरण-विशल्यीकरणाऽसम्भवादग्रहणम् , न च भागतिचारस्य 'जो मे देवसिओ अड्यारो' इत्यादौ यच्छन्दनिर्दिष्टतया यत्तदोश्च नित्यसम्बन्धेनाऽन 'तस्स' इत्यनेन ग्रहणमिति वाच्यम्, तत्र यच्छन्दनिर्दिष्टस्याऽतिवारस्य तत्रत्येनैव 'तस्स मिच्छा मि' इत्यनेन गतार्थ. सम्बन्धखात् , अत्रोकेन च 'तस्स' इति तच्छन्देन बुद्धिविपयतावच्छेदकलोपलक्षितधविच्छिन्नस्यैव श्रमणयोगस्याऽऽत्मनो वा ग्रहण न खतिचारस्येति सुधीभिर्विवक्तव्यम् । 'उत्तरीकरणेण'-उत्तरीकरणेन अनुत्तरस्योत्तरस्य कर ___ यहा पर 'तस्स' पसे देशखण्डित सर्वविराधितरूप श्रमणयोग अथवा सातिचार आत्मा का ग्रहण है। कोई कोई तस्स' इस पदसे अतिचार का ग्रहण करते हैं-वह उचित नहीं है, इसलिए उसका सम्बन्ध तस्स मिच्छामि दुकड' इस पदमे रहे हुए 'तस्म' शब्द के साथ पूर्ण हो चुका है। दूसरा कारण यह भी है कि यद्यपि प्रायश्चित्तकरण तथा 'पापविशुद्धि' कण्टकशुद्धि-पैर आदि में लगे हुए काटे को निकालने की तरह अतिचारो का विशुद्धीकरण मडिया 'तस्स' या देशस्ति भरे सविधित ३५ श्रभार योग मा सातिया२ मामार्नु अ 5s 'तस्स' मा પદથી અતિચારને ગ્રહણ કરે છે પરંતુ તે એગ્ય નથી તેથી તેને સંબધ "तस्स मिच्छामि दुक्कड" ! ५४मा रहेसा तस्स २०४ी साथ पूरी ५ो छ બીજુ કારણ એ પણ છે કે “પ્રાયશ્ચિત્તકરણ” તથા “પાપવિશુદ્ધિ” કટકશુદ્ધિ-પગ આદિમાં લાગેલા કાટને નિકાલવાની રીતે અતિચારોનું વિશુદ્ધીકરણ १-'राजा गौडेन्द्र कण्टक शोधयति' इत्यादिपु कण्टकविशुद्धिवदविचारविशुद्धिकरण सभवति तस्मादुक्तम्-'उत्तरीकरणे-ति, नहि-शल्य-मायादिरूपमविचारस्य समस्ति; अपि स्वात्मनस्तत्माधान्याच्छामण्ययोगस्य च । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकत्रस्य - शास्त्रमायश्चित्तस्याऽप्युत्तममध्यमाधमसाहसरूपत्वस्य सर्वजनीनत्वात् । अन्यथा कदाचित् कुम्भकारक्षुल्लकमिव्याप्दुकृतत्वापत्तेः ॥ मू० २ ॥ सम्पत्यतिचाराणा विशेपशुद्धयर्थ कायोत्सर्गः कर्तव्य इति सविधि कायोत्सर्गस्वरूपमाह-'तस्सुत्तरी'-त्यादि। ॥ मूलम् ॥ तस्सुत्तरीकरणेण पायच्छित्तकरणेण विसोहीकरणेण विसल्लीकरणेण पावाण कम्माण निग्घायणहाए काउस्सग्ग अनत्थ ऊससिएण नीससिएण खासिएणं छीएण जभाइएण उड्डुएण वायनिसम्गेण भमलिए पित्तमुच्छाए सुहमेहि अगसचालेहि सुहुमेहि खेलसचालेहि सुहमेहि दिहिसचालेहिं एवमाइएहि आगारेहि अभग्गो अविराहिओ हुन मे काउस्सग्गोजाव अरिहताण भगवताण नमुकारेण न पारेमि ताव काय ठाणेण मोणेण झाणेण अप्पाण वोसिरामि ॥ सू० ३॥ ॥छाया ॥ तस्योत्तरीकरणेन प्रायश्चित्तकरणेन विशुद्धि (विशोधी) करणेन विशल्यीकरणेन पापाना कर्मणा निर्धातनार्थ तिष्ठामि कायोत्सर्गम्, अन्यत्रोच्छ्वसितेन नि श्वसितेन कासितेन क्षुतेन जृम्भितेन उदारितेन वातनिसर्गेण भ्रमल्या पित्तमूर्छया सूक्ष्मैरङ्गसञ्चारै सूक्ष्मै श्लेष्मसञ्चारै मूक्ष्मदृष्टिसञ्चारैः, अनुसार उससे अधिक ही मजा दीजाती है। मिथ्यादुष्कृत के भरोसे पर जान बूझकर पाप करते रहनेवाले साधु की प्रायः वैसी ही दुर्दशा होती है जैसी कुम्भार के हाथसे मिथ्यादुष्कृत देनेवाले क्षुल्लक साधु की हुई थी। सू० २॥ ___अब अतिचारों की विशेष शुद्वि के लिए विधिपूर्वक कायो त्सर्ग का स्वरूप दिसलाते है-'तस्सुत्तरीकरणेण' इत्यादि। , અધિક સજા દેવાય છે, મિથ્યાદુષ્કૃતના ભરોસા ઉપર જણ જેઈને પાપ કરતા રહેનારા સાધુની ખાસ કરીને એવી દુર્દશા થાય છે કે જેવી રીતે કુંભારના હાથથી મિથ્યાદુકૃત દેવાવાળા શુ લક સાધુની થઈ હતી સૂ૦ ૨ હવે અતિચારેની વિશેષ શુદ્ધિ માટે વિધિપૂર્વક કાર્યોત્સર્ગનું સ્વરૂપ भाव 'तस्सुत्तरीकरणेण' इत्यादि Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका एवमादिकरागारैरभग्नोऽविराधितो भवतु मे कायोत्सर्गों यावदर्हता भगवता नमस्कारेण न पारयामि तावत्काय स्थानेन मौनेन ध्यानेनाऽऽत्मान व्युत्सृजामि।।मु० ३।। ॥ टीका ॥ 'तस्स' तस्य-प्रमादकृताऽशुभयोगसम्बन्धेन देशतः सर्वतो वा खण्डितस्य श्रमणयोगस्य सातिचारस्याऽऽत्मनो वा, तच्छन्देनात्रौचित्यात्तयोरेव ग्रहगाद, अतिचारस्य तु सम्भवेऽपि 'उत्तरीकरण-विशल्यीकरणाऽसम्भवादग्रहणम् , नच मागतिवारस्य 'जो मे देवसिओ अइयारो' इत्यादौ यच्छन्दनिर्दिष्टतया यत्तदोध नित्यसम्बन्धेनाऽत्र 'तस्स' इत्यनेन ग्रहणमिति वाच्यम् , तत्र यच्छन्दनिर्दिष्टस्याऽतिचारस्य तत्रत्येनैव 'तस्स मिच्छा मि' इत्यनेन गतार्थसम्बन्धलाद , अत्रोकेन च 'तस्स' इति तच्छब्देन बुद्धिविपयतावच्छेदकखोपलक्षितधर्मावच्छिन्नस्यैव श्रमणयोगस्याऽऽत्मनो वा ग्रहण न खतिचारस्येति सुपीभिर्विवेतव्यम् । 'उत्तरीकरणेण'-उत्तरीकरणेन अनुत्तरस्योत्तरस्य कर ____ यहां पर 'तस्स' पदसे देशखण्डित सर्वविराधितरूप श्रमणयोग अथवा सातिचार आत्मा का ग्रहण है। कोई-कोई 'तस्स इस पदसे अतिचार का ग्रहण करते हैं-वह उचित नहीं है, इसलिए उसका सम्बन्ध 'तस्स मिच्छा मि दुकड' इस पदमे रहे हुए 'तस्स' शब्द के साथ पूर्ण हो चुका है। दूसरा कारण यह भी है कि यद्यपि प्रायश्चित्तकरण तथा 'पापविशुद्धि' कण्टकशुद्धि-पैर आदि में लगे हुए काटे को निकालने की तरह अतिचारो का विशुद्धीकरण माया 'तस्स' पहथी देशमति भने मविशधित ३५ भान વેગ અથવા સાતિચાર આત્માનું ગ્રહણ કેઈ કઈ તરણ આ પદથી અતિચારને ગ્રહણ કરે છે પરંતુ તે યોગ્ય નથી તેથી તેને સ બ ધ "तस्स मिच्छा मि दुक्ड" मा ५६मा रहेमा तस्स शनी साथे पूरी थयो छ બીજુ કારણ એ પણ છે કે “પ્રાયશ્ચિત્તકરણ” તથા “પાપવિશુદ્ધિ” કટકશુદ્ધિ-પગ આદિમાં લાગેલા કાટાને નિકાલવાની રીતે અતિચારનું વિશુદ્ધીકરણ १- राजा गौडेन्द्र कण्टक शोधयति' इत्यादिपु कण्टकविशुद्धिवदतिचारविशुद्रिकरण सभवति तस्मादुक्तम्-' उत्तरीकरणे'-ति, नहि-शल्य-मायादिरूपमतिचारस्य समस्ति; अपि स्वात्मनस्तत्माधान्याच्यामण्ययोगस्य च । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ आवश्यक त्रस्य सर्वजनीनत्वात् । अन्यथा , शास्त्रमायश्चित्तस्याऽप्युत्तममध्यमाधमसाहसरूपत्वस्य कदाचित् कुम्भकारक्षुल्लक मिध्यादुकृतत्यापत्तेः ॥ मू० २ ॥ सम्पत्य तिचाराणा विशेषशुद्धयर्थं कायोत्सर्गः कर्त्तव्य इति सविधि कायोत्सर्गस्वरूपमाह - 'तस्सुत्तरी' - त्यादि । ॥ मूलम् ॥ तस्सुत्तरीकरणेण पायच्छित्तकरणेण विसोहीकरणेणं विसल्लीकरणेण पावाण कम्माण निग्घायणहाए काउस्सग्ग अनत्थ ऊससिएण नीससिएण खासिएणं छीएण जभाइएण उडुडुएण वायनिसग्गेण भमलिए पित्तमुच्छाए सुहमेहिं अगसचालेहि सुहुमेहि खेलसचालेहि सुमेहि दिसिचालेहिं एवमाइएहि आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो जात्र अरिहताण भगवताण नमुक्कारेण न पारेभि ताव काय ठाणेणं मोणेणं झाणेण अप्पाण वोसिरामि ॥ सू० ३॥ ॥ छाया ॥ तस्योत्तरीकरणेन प्रायश्चित्तकरणेन विशुद्धि (विशोधी ) करणेन विशल्पी करणेन पापामा कर्मणा निर्धातनार्थ तिष्ठामि कायोत्सर्गम्, अन्यत्रोच्छ्वसितेन निःश्वसितेन कासितेन क्षुतेन जृम्भितेन उद्द्घारितेन वात निसर्गेण भ्रमल्या पित्तमूर्च्छया सूक्ष्मैरङ्गसञ्चारे सूक्ष्मे, श्लेष्मसञ्चारे. मूक्ष्मष्टिसञ्चारे, के अनुसार उससे अधिक ही मजा दीजाती है । मिथ्यादुष्कृत भरोसे पर जान बूझकर पाप करते रहनेवाले साधु की प्राय वैसी ही दुर्दशा होती है जैसी कुम्भार के हाथसे मिथ्यादुष्कृत देनेवाले क्षुल्लक साधु की हुई थी । सू० २ ॥ अब अतिचारों की विशेष शुद्धि के लिए विधिपूर्वक कायो त्सर्ग का स्वरूप दिखलाते है- 'तस्सुत्तरीकरणेण' इत्यादि । અધિક સજા દેવાય છે, મિથ્યાદુષ્કૃતના ભાસા ઉપર જાણી જોઈને પાપ રહેનારા સાધુની ખાસ કરીને એવી દુશા થાય છે કે જેવી રીતે કુ ભાગના હાથથી મિથ્યાદુષ્કૃત દેવાવાળા ક્ષુલ્લક સાધુની થઈ હતી સૂ॰ ૨ કરતા હવે અતિચારેની વિશેષ શુદ્ધિ માટે વિધિપૂર્વક કાર્યોત્સર્ગનું સ્વરૂપ भावे छे 'तस्त्तरी करणेण' इत्यादि " Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपणी टीका निश्चयसयुना, प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ॥१॥' इत्युक्तविध, तस्य 'करणम् अनुठान, तेन। प्रायश्चिशाऽऽचरण च परिणामविशुद्धिमन्तरेण न सभवतीत्यत आह-'विसोहीकरणेण ' इति, विशोधन (विशिप्य शोधन) विशोधिः-सम्यक्शुद्धिः, तस्याः करण सम्पादनम्, यद्वा शोधन शोधः विशिष्टः शोधो यस्य खण्डित-विराधितरूपस्य श्रामण्ययोगस्य तत्सम्बद्धस्यात्मनो वेत्यर्थात् , स विशोधः, अविशोधस्य विशोधस्य करण विशोधीकरण तेन । विशोधीकरण पति भावशल्योद्धरणस्य कारणत्वात्तदाह-'विसलीकरणेण' इति, विनष्ट मायानिदानादित्रिकरूप शल्य यस्योक्तरूपस्य (श्रामण्ययोगस्य) स विशल्यः खण्डनाविराधनादितोऽविशल्यस्य विशल्यस्य करण विशल्यीकरण तेन । आह-कः शल्यशब्दार्थः? कतिविधश्च सः' उच्यते-शल्यतेधातूनामनेकार्थत्वाद् वाध्यते, यद्वा सत्रियते मुखमनेनेति शल्य, तच द्रव्यभावभेदाद्विविध, तत्र द्रव्यशल्य लोकमतीत कण्टकसूची-शूल-भल्लादिकम् । भावशल्य मायाप्रभृति, जीवता कठोरतमतीक्ष्णदशनैः श्वापदैरङ्ग स्फोरयित्वा स्वय वा निजा स्वच नि.सार्य स्वशरीरस्य लवणसर्जिकाभी परिणामों की शुद्धता के विना नहीं होसकता इस कारण अतिचार हटाकर आत्मपरिणामों को निर्मल करने के लिये, विशोधीकरण (आत्मपरिणामो का निर्मल करना) भी शल्य के दूर किये विना नहीं हो सकता, क्योंकि सिंह व्याघ्र आदि भयानक जीवजन्तुओं के तीखे नाखून दाँत आदिसे शरीर के अग अग को फडवा लेना, अपने आप सारे शरीर की खाल खीचकर उस पर માટે અતિચારોને દૂર કરી આત્મપરિણામોને શુદ્ધ કરવાને માટે વિશેધીકરણ (આત્મપરિણમેને શુદ્ધ કરવા) પણ શલ્યને દૂર કર્યા વિના નથી થઈ શકતે, કેમ કે સિંહ વાઘ વિગેરે ભયકર પ્રાણીઓના તીર્ણ નખ દાત વિગેરેથી શરી રના અગે અગને ફડાવવુ, પિતાના જ હાથે આખા શરીરની ચામડી ખેચીને તેના ઉપર મીઠું છાટી લેવું, રાજીખુશીથી પિતાનું માથું કાપીને ફેંકી દેવું, १- 'प्रायश्चित्तकरणम्'-सिद्धिनिरुक्तोक्तरीत्या पृषोदरादित्वात् । २- विशोधि:-'वि'+पूर्वकात् शुध् धातोर्ण्यन्तादौणादिक. स्त्रिया भावे 'इ' प्रत्ययः। ३- शोध:-भावे घन् ४-विशोधीकरणम्-अभूततद्भावे चिरीकारादेशश्च । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य णम् 'उत्तरीकरणम्, उत्तरशब्द उच्चतरार्थकः करणशब्दो भावसाधनस्तेन-मनु चतरस्य पुनः सस्कारद्वारोचतरस्य (उत्कृष्टस्य) करण-सम्पादन तेनेत्ययः । 'अ ययनेन वसति' इतिबद्धतौ तृतीया, यद्वाऽऽपत्वातादर्थ्यचतुर्व्यर्थे तृतीया तदा चोत्तरीकरणार्थमित्यर्थः । एवमग्रेऽपि वतीयान्तार्थों बोदव्यः । यथा कुपध्याहारविहारादिना समुत्पन्नस्य व्यायेरुपशमाय वैवकोक्तः प्रतीकारः क्रियते तद्वदिद मुत्तरीकरणम् । उत्तरी क्रिया च प्रायश्चित्ताचरणेनैव सभवतीत्यत आह-'पायच्छित्तकरणेण ' प्रायश्चित्तकरणेन-प्रायो बाहुल्येन प्रयतत्वाद्वा चितम्-उपचितमशुभ तनूकरोतीति, अशुभयोगाद्वा स्खलित चित्तम् आस्मान माति-तत्तदशुभयोगापनयनेन पूरयतीति, प्रापयति चित्तम् आत्मान मनो वा शुद्धिमिति, माया बाहुल्येन चेतयति= पुनरेव न कर्तव्य'-मिति प्रतिबोधयत्यात्मानमिति वा प्रायश्चित्तम् , यद्वा-'पाय' पोक तपस्यादि, चित्त निश्चय उच्यते । तच्च होसकता है तो भी यहा कहे गये 'उत्तरीकरणेण' और 'विसल्लीकरणेण' के साथ उसका सम्बन्ध नही बैठता, कारण 'यह है कि न तो अतिचारो को उत्कृष्ट बनाने के लिये कायोत्सर्ग किया जाता है और न उनमें मायादिशल्यों का सभव है, मायादिशल्य तो आत्मा के विभाव परिणाम हैं, अतएव सिद्ध हुआ कि उस खण्डित अथवा विराधित श्रमणयोग या उस योगसे युक्त आत्मा को उत्कृष्ट बनाने के लिये, और विना प्रायश्चित्तके आत्मा उत्कृष्ट नहीं बन सकतीइसलिये लगे हुए पापोंका प्रायश्चित्त करने के लिये, तथा प्रायश्चित्त यश छ त पाय मा लेख 'उत्तरीकरणेण' अथवा 'विसल्लीकरणेण' ની સાથે તેને સબધ નથી બેસતું કારણ એ છે કે ન તે અતિચારેને ઉત્કૃષ્ટ બનાવવા માટે કાર્યોત્સર્ગ કરવામાં આવે છે અને નથી તેમ માયાદિ શાન સભવ માયાદિશલ્ય તે આત્માને વિભાવપરિણામ છે એથી સિદ્ધ થયું કે એ ખડિત અથવા વિરાધિત શ્રમણગ અથવા એ એગથી યુક્ત આત્માને ઉત્કૃષ્ટ બનાવવા માટે અથવા પ્રાયશ્ચિત્ત વિના આત્મા ઉત્કૃષ્ટ થઈ શકતા નથી તેથી લાગેલા પાપના પ્રાયશ્ચિત કરવા માટે, તથા પ્રાયશ્ચિત્ત પણ પરિણામની શુદ્ધતા વિના થઈ શકતા નથી તે १-उत्तरीकरणम्-'अभूततावेऽर्थे 'कन्नस्तियोगे सपद्यकर्तरि चि' (५।४।५०) इति चि , 'अस्य जौ (७।४।३२) इवीकार । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका 'काउस्मग्ग' कायस्य-शरीरस्य उत्सर्गम् अतिचारविशुद्रये त्याग 'ठामि' 'तिष्ठामि स्थापयामीत्यर्थः यद्वा करोमीत्यर्थः । अथवा 'काउस्सग्ग' इत्य-त्राऽऽप॑त्वात्तृतीयार्थे द्वितीया, तेन कायोत्सर्गेणार्थात् कायोत्सर्ग कृत्वा तिष्ठामीत्यर्थः । ननु कथमेतावन्मामर्थ्य कायोत्सर्गस्य वर्णित ? मिति चेदुच्यते यत साक्षात्तीर्थकरैरेवाय मोक्षमार्ग मोक इति, एव च सति साविचारस्य धामण्ययोगस्याऽऽत्मनो बोचतरीकरण-मायश्चित्तकरण-विशोधीकरण-विशल्यीकरण-पापकर्मनिर्यातनान्यविचारनिवृत्तिस्वरूपाण्येवेत्यतिचारनिवृत्त्यर्थं कायोत्सर्ग करोमीति पर्यवसन्नोऽर्थः । न च सर्वथा, किं तर्हि ? तदाह-' अन्नत्य ' अन्यत्र विना 'ऊससिएण' ऊ श्वसनम् उच्चसित, नपुमके भावे क्तस्तेन उन्यास विने.त्यर्थ , एवमग्रिमापि उतीयान्तै. सहाऽन्यत्रेत्यस्य सम्बन्यो योज्यः । 'नीस सिएण' निश्वसितेन-निश्वसितम्घासमोक्षण तेन, कासिएण' -कासितेन कासेन। 'छीएण' क्षुतेन भुतं नासिकाऽभिघातजन्याऽऽकस्मिकसशब्दाऽनिलनिस्सरण 'दछि रिति, 'डिक्के ति च प्रसिद्ध ('हा छी' इति भापायाम् ) तेन । 'जभाइएण' जृम्भितेन=जृम्भा आलस्यजनितो मुखज्यादानपूर्वकतद्वाराऽऽन्तरपवनविनिर्गमस्तेन। 'उड्डएण' उद्घारितेन उड्ड्ड इत्यस्य देशिशब्दलादुद्गारितमर्थ ,उद्गारित चोद्गार:कण्ठगर्जनाऽपरपर्यायः, उद्वमनप्रभेदस्तेन । 'चायनिसग्गेण वातनिसर्गेण वातस्य= करने के लिये मैं कायोत्सर्ग करता है, किन्तु इसमे श्वास का लेना तथा निकालना, खाँसना, डीकना, जभाई लेना, डकारना, अपानवायु का निकलना, पित्तप्रकोप आदिसे चक्करका आना, मृ का आना, -વિગેરે પાપ (આઠ) કર્મોનો નાશ કરવા માટે હું કાત્સર્ગ કરૂ છુ પણ એમાં શ્વાસ લે તથા મૂક, ખાસી ખાવી, છીંક ખાવી, બગાસુ ખાવુ એડ કાર ખા, અપાનવાયુના સ્ત્રાવ થ, પિત્તપ્રકોપથી આ ધારા આવવા મૂરછ १- दृष्ट हि सर्मकस्यापि धातो. कचिदर्मकत्व यथा, काव्यप्रकाशे द्वितीयोल्लासे-'विपयविभागो न प्राप्नोती'-ति । अकर्मकस्यापि च सकर्मकत्व यथा-' यथा शत्रु जयति भार वहती'-त्यादि च । २- अन्तर्भावितण्यर्थत् स्था-धातोः स्थापयामीत्यर्थः ।। ३- 'कुर्द खुर्द गुर्द गुद क्रीडायामेव' इत्यवग्रहणेन 'परा भुवोऽवज्ञाने, इत्यत्राऽवज्ञानग्रहणेन च धातूनामनेकार्थत्वाल्पनात् करोमीत्ययः ।। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ आवश्यक्रमत्रस्य - - - - - क्षारादिना सेचन, लीलयेर छिचा स्वमस्तकस्यापि प्रक्षेपण, प्रज्वलदनलकराल कुण्डे निर्भयपतनमुत्तापोद्गलद्रयसीसकादिपान, भृगुमपातः, कालखण्डादिमर्मस्था नाना कुन्तादिना वेधन च कत्तुं मुशक, किन्तु मद्धयादिगौरपत्रग्भगमयाजा त्या राष्टविधमदाहा पामरैरमकाशिन घोरतपःप्रभृतिमुनिक्रियाकलापकोमल कल्पलताफर्तनकारीकल्पमनल्पदोपराशिनिदानम्नन्तचतुर्गतिससृतिभ्रामकमिद भावशल्य सर्वथा दुःसहमिति शल्यशब्देन प्रक्रते मायादिभावशल्यमेव गृह्यते प्रकरण स्याऽभिधानियामकत्वात् , 'पावाण कम्माण' पापाना कर्मणा पाशयन्ति-मरि नयन्ति नरकादौ पातयन्ति, आनन्दरस शोपयन्ति क्षपयन्ति वेति पापानि तद्रूपाणा कर्मणा ज्ञानावरणीयादीना' निग्धायणढाए' निर्घातनार्थ-समूलमुन्मूलनार्थम् नमक छिडकना, खुशीसे अपना मस्तक काटकर फेंक देना, उकलते सीसेको पी जाना, धधकते हुए अग्निकुण्डमे कूद पडना, पर्वत का चोटी पर चढकर धडाम से नीचे गिर पडना, कलेजेमे भाला भोंकना आदि द्रव्यशल्य सहन करना सहज है, परन्तु ऋद्वयादि तीन गौरवा ___(गारव) के नाश होने के डरसे, अथवा जाति आदि आठ प्रकार के मद के कारण अपने अन्दर ही छिपाये हुए-मुनियों के मुक्ति साधनं घोर तप आदि क्रियारूप कोमल कल्पलता के कतरने में कतरनी के समान तथा अनन्त दुर्गुणो से युक्त और चारगतिरूप अनन्त ससार में परिचमण करानेवाले-माया आदि-भावशल्या का : पामरोंसे सहन होना अत्यन्त कठिन है, अत. भावशल्यों को दूर करने के लिये, तथा ज्ञानावरणीय आदि पाप (आठ) कर्मों का नाश ગરમ કરેલુ સીસુ પી જવુ ધગધગતા અગ્નિકુંડમાં કુદી પડવુ પર્વતની ટેચ ઉપર ચઢીને ધડામથી ઝપલાવવુ, કલેજામા ભાલા ભકવા આદિ દ્રવ્યશલ્ય સહન કરવા સહજ છે પરંતુ શ્રદ્ધયાદિ ત્રણ ગોર (ગારવ)ને નાશ થવાના ડરથી અથવા જાતિ વિગેરે આઠ પ્રકારના મદને લીધે પિતાની અ દરજ છુપાએલ-મુનિઓના મુકિતસાધન ઉત્કૃષ્ટ તપ વિગેરે ક્રિયારૂપ કોમલ-કપલતાને કાતરવામા કાતર સમાન, તથા અનત દુર્ગેથી યુકત અને ચાર ગતિરૂપ અનત સ સારમાં પરિભ્રમણ કરાવનાર–માયા આદિ ભાવશ યેન પામથી સહન થવુ ઘણુ જ કઠણ છે તે માટે ભાવશલ્યાને દૂર કરવા, તથા જ્ઞાનાવરણીય Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका 'काउस्मग्ग' कायस्य शरीरस्य उत्सर्गम् अतिचारविशुद्धये त्याग 'ठामि' 'तिष्ठामि स्थापयामीत्यर्थः यद्वा फरोमीत्यर्थः । अथवा 'काउस्सग्ग' इत्य-त्राऽऽपत्वात्तृतीयार्थे द्वितीया, तेन कायोत्सर्गेणाऽर्थात् कायोत्सर्ग कृत्वा तिष्ठामीत्यर्थः । ननु कथमेतावत्मामर्थ्य कायोत्सर्गम्य वर्णित ? मिति चेदुच्यते यत साक्षात्तीर्थरैरेवाय मोलमार्गः प्रोक इति, एव च सति साविचारस्य श्रामण्ययोगस्याऽऽत्मनो वोच्चतरीकरण-प्रायश्चित्तकरण-विशोधीकरण-विशल्यीकरण-पापकर्मनिर्घातनान्यतिचारनिवृत्तिस्वरूपाण्येवेत्यतिचारनिवृत्त्यर्थ कायोत्सर्ग करोमीति पर्यवसन्नोऽर्थः । न च सर्वथा, किं तर्हि ? तदाह-' अन्नत्य ' अन्यत्र विना 'ऊससिएण' ऊ श्वसनम् उच्छ्वसित, नपुमके भावे क्तस्तेन उच्छ्वास विने• त्यर्थ., एवमग्रिमरपि तृतीयान्तै सहाऽन्यत्रेत्यस्य सम्बन्धो योज्य । 'नीससिएण' निश्वसितेन-नि श्वसित श्वासमोक्षण तेन, 'कासिएण'-कासितेन कासेन। • डीएण' क्षुनेन भुत-नासिकाऽभिघातजन्याऽऽकस्मिकसशब्दाऽनिलनिस्सरण 'हछि रिति, 'छिक्के ति च प्रसिद्ध ('हा छी' इति भापायाम् ) तेन । 'जभाइएण' जम्भितेन-जृम्भा आलस्यजनिती मुखव्यादानपूर्वकतद्द्वाराऽऽन्तरपवनविनिर्गमस्तेन। 'उड्डएण' उद्गारितेन उड्डु' इत्यस्य देशिशब्दसादुद्गारितमर्थ',उद्गारित चोद्गार:कण्ठगर्जनाऽपरपर्यायः, उद्वमनप्रभेदस्तेन । 'बायनिसग्गेण वातनिसर्गेण-वातस्य= करने के लिये मैं कायोत्सर्ग करता हूँ, किन्तु इसमे श्वास का लेना तथा निकालना, खाँसना, डीकना, जभाई लेना, डकारना, अपानवायु का निकलना, पित्तप्रकोप आदिसे चक्करका आना, मृर्छाका आना, વિગેરે પાપ (આઠ) કમેને નાશ કરવા માટે હુ કયેત્સર્ગ કરૂ છુ પણ એમાં શ્વાસ લે તથા મૂક, ખામી ખાવી, છીંક ખાવી, બગાસુ ખાવુ એડ કાર ખા, અપાનવાયુના સાવ થે, પિત્તપ્રકોપથી આ ધારા આવવા મૂરછ १- दृष्ट हि सर्मकस्यापि धानो कचिदकर्मकत्व यथा, काव्यप्रकाशे द्वितीयोल्लासे -' विषयविभागो न प्राप्नोती'-ति । अर्मकस्यापि च सकर्मकत्व यथा-' यथा शत्रु जयति भार वहती' त्यादि च । २- अन्तर्भावितण्यर्थत् स्था-धातो. स्थापयामीत्यर्थः । ३- 'कुर्द खुर्द गुर्द गुद-क्रीडायामेव' इत्यत्रैवग्रहणेन 'परी भुवोऽत्रज्ञाने, इस्यत्राऽवज्ञानग्रहणेन च धातूनामनेकार्थत्वकल्पनाच करोमीत्यर्थः ।। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । आवश्यकत्रस्य - - - पायुवायोनिसर्ग निस्सरण पातनिसर्गस्तेन । 'भमलीए' भ्रमल्या-भ्रमलीआकस्मिकशरीरभ्रमण-पित्तोदयेन यशाम्यन्महीदर्शन पूर्णदिदिग्भ्रान्तिश्च (चकर, घुर्मा, इत्यादि भापायाम्) तया। पित्तमुच्छाए' पित्तमृर्छया-पित्तमू - पित्तजन्या नटचेटता तया । 'मुगुमेहि अगसचाहिं' मूक्ष्म- रासचाले:रोमोद्गमादिरूपैरलक्षितपायैः, मक्ष्मः शरीरसञ्चाले स्वभाविकैरहस्फुरणादिभिवा, 'मुहुमेहि खेलसचालेहि'-मूक्ष्मै श्लेष्मसंचालैः-खेलेति देशभाषाया श्लेष्मणो नाम, श्लेष्मणा-फफाना सञ्चालैः गलरिलात्स्वभावतः श्लेष्मणामधो बहिर्वाऽवत रणैः । 'मुहुमेहिं दिहिसचालेहि-मक्ष्मदृष्टिसचालैः सूक्ष्मः स्वाभाविदृष्टिसञ्चालेपक्ष्मनिकोचनादिभिः । एमाइरहि आगारेहि' एरमादिराकार:- एउमादिभिरुक्तस्वरूपैरुच्छसितादिभिराकारै कायोत्सर्गप्रतिरोधकैः, अत्राऽऽदिशब्देनाऽग्न्युपद्रव जलोपद्रव-महासाहसिकोपद्रव राजोपद्रवेभ्यः, भित्तिच्छत्रादिपातसिंहसाएपद्रवेभ्यो मार्जारादिकृतभृशोपद्रव सङ्कटापनमूपिकादिप्राणिपरिरक्षणार्थ वा स्थानपरिवरान ग्राह्यम् , एपामुच्वसितादीनामागाराणा कायोत्सर्गप्रसङ्गे निरूपणमेतदपिकारिसहन नसामर्थ्यतात्पर्येण, 'अभग्गो' अभग्न =देशतोऽखण्डितः, 'अविराहिओ' अविराधित.. सर्वतोऽखण्डित', 'हुज' भवेत् 'मे' मम 'काउस्सग्गो' कायोत्सर्गः अर्थादुच्छ्वसितैरागार सद्भिरपि मम कायोत्सर्गोऽखण्डितोऽविराधितोऽस्तु । अत्रावधिमाह-'जाव' सूक्ष्मरूपसे अगों का हलना-चलना अथवा फडकना, कफ, यूक आदि का सचार होना, तथा दृष्टिका सचलन होना आदि आगार हैं, यहा आदि शब्द से अग्नि जल डाकू राजा सिंह सपे भीत (दीवार) तथा छत का गिरना आदि उपद्रवों से या बिल्ली आदि हिंसक प्राणियों से घिरे हुए चूहे आदि जीवों को दया भावस छुडाने के लिये स्थानपरिवर्तन करना आदि आगारों का ग्रहण करना चाहिये । ये उच्चसितादि आगार अधिकारियों (ध्यानस्थ આવવી, સક્ષમ પણે અગેનું હલન ચલા થવુ તથા ફરકવું, કફ થુક વિગેરેને સચાર છે, તેમજ દૃષ્ટિનું સંચાલન થવું વિગેરે આગાર છે અહિં આદિ શબ્દથી અગ્નિ જલ ડાકુ રાજા સિંહ સર્ષ દીવાવ તથા છતનું પડી જવું વિગેરે ઉપદ્રથી અથવા બિલાડી વિગેરે હિંસક પ્રાણિઓથી ઘેરાએલ ઉદર વિગેરે જેને દયા ભાવથી છોડાવવા માટે સ્થાનફેર કરવા વિગેરે આગેરેનું ગ્રહણ કરવું જોઈ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका ' " " इत्यादि, 'जाव' यावत् ' अरहताण भगवताण ' अर्हता भगवता तत्कर्मकेणेत्यर्थात् । ' नमोकारेण ' नमस्कारेण 'न पारेमि न पारयामि, कायोत्सर्गपरिसमाप्तौ हि ' नमोऽरहताण' इत्युच्चार्यैव विरमणीयमिति सम्प्रदायस्तस्मात् 'नमो Sरहताण' इत्युच्चार्य यावत्पार न यास्यामीति भावः, वर्त्तमानसामीप्ये वर्तमानचस्मत्ययः 'अयमागच्छामी' - ति यथा । ' तात्र ' तावत् 'काय' देह 'ठाणेण' स्थानेन=गतिनिवृत्त्या=कायव्यापारनिरोधेन 'मोणेण' मौनेन तूष्णीम्भावेन = वाग्व्यापार निरोधेन ' झाणेण' भ्यानेन = चित्तैकाग्रतया=मनोव्यापार निरोधेन कायिक-वाचिक मानसिकव्यापार परित्यागपूर्वकमिति यावत्, 'अप्पाण' आत्मानम्' अत्राssस्मशब्द आत्मीयार्थकः, स च 'काय' इत्यस्य विशेषण तेनाऽऽत्मीय कायमिति सम्बन्ध इति केचित् वस्तुतस्तु कायमात्मान चेत्यर्थः । चशब्दाऽभावेऽपि समुच्चयार्थस्य 'अहरहर्नयमानो गामश्च पुरुष पशु मित्यादौ दर्शनात्, अतएव सूत्रे 'काय' इत्युक्त्वाऽनन्तर 'ठाणेण' इति कायव्यापारनिरोधः, 'अप्पा' इत्यत्र च 'झाणेण ' इति मनोव्यापारनिरोधः प्रोक्त इति सूक्ष्मेक्षिकाऽवधार्यम् | कायोत्सर्गस्य प्रसिद्धिरप्येतनात्पार्यपरिकैव, नह्यात्मत्यागव्यतिरेकेण कायत्यागमात्रायथोक्त प्रायश्रित सभवति । किञ्च रूढे, प्रयोजनस्य तात्पर्याऽनुपपतेश्च हेतोरभावेन लक्षणाया असम्भवात्, आत्मीयार्थत्वकल्पनमण्यमूलकमेवेत्यास्ता विस्तरः । ' त्रोसिरामि' ब्युत्सृजामि = परित्यजामीत्यर्थ ॥ मू० ३|| व्यक्तियों) की न्यूनाधिक शक्तिकी अपेक्षासे कहे गये है । इन आगारों से मेरा कायोत्सर्ग खण्डित तथा विराधित नहीं हो, कबतक ? जबतक कि अरिहत भगवान को नमस्कार करके ध्यानको समाप्त न कर दूँ तब तक, एक स्थिति से काय को, मौनसे वचनको और चित्तकी एकाग्रतासे आत्मा को वोसराता हूँ ॥ सू० ३ ॥ ९५ ઉર્વાંસદ આગાર અધિકારિયા (ધ્યાનસ્થ વ્યકિતએ)ની ઓછી વધુ શકિતની અપેક્ષાધી કહ્યુ છે આ આગારેથી મારા કાયેટ્સ ખંડિત તથા વિરાધિત નહિં થાય, કયા સુધી ? કે જ્યા સુધી અરિહંત ભગવાનને નમસ્કાર કરીને ધ્યાન પૂરા ન કરી લઉ ત્યા સુધી, એક સ્થિતિથી કાયાને, મોનથી વચનને અને ચિત્તની એકાગ્રતાથી मात्माने वासरा (सू० 3) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावश्यकमुत्रस्य एव कायोत्सर्गमास्थाय तत्र भेदेन मकृताऽतिचारॉबिन्तयति ॥ मूलम् ॥ आगमे तिविहे पण्णत्ते तजहा-सुत्तागमे अत्थागमे तदुभयागमे । ज वाइद्ध, वच्चामेलिय, हीणक्खर,अञ्चक्खर, पयहीणं, विणयहोण, जोगहीण, घोसहीण, सुट्ठदिन्न सुझुपडिच्छिय, अकाले कओ सज्झाओ काले न कओ सज्झाओ, असज्झाए सज्झाइयं, सज्झाए न सज्झाइय, 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड ॥सू०४॥ ॥ छाया ॥ आगमस्त्रिविध' प्रज्ञप्तस्तधथा-सूत्रागमः अर्थागमः तदुभयागमः । (तत्र) यद् व्याविद्र, व्यत्यानेडित, हीनाक्षरम् , अत्यक्षर, पदरीन, योगहीन, घोपहीन, मुष्ठुदत्त, दुष्ठुमतीष्टम् , अकाले कृतः स्वाध्यायः, काले न कृतः स्वाध्यायः, अस्वा याये स्वाध्यायितं, स्वाध्याये न साध्यायित, तस्य मिथ्या मयि दुष्कृतम् ॥ मू० ४ ॥ ॥ टीका ॥ ___ 'आगमे' आ-समन्तात् गम्यन्ते-ज्ञायन्ते जीशजीवादिपदार्थी येनेति, आ-विनयादिमर्यादया गम्यते पाप्यते तीर्थकरगणधरादिभ्य इति, आ. स्मरणार्थमात्मस्वरूपस्येत्यर्थात्, गम्यते-रगृह्यते इति, आ-आभिमुख्यमों इस प्रकार कायोत्सर्ग का अवलम्बन करके उसमे अतिचारों का विशेषरूपसे चिन्तन करते हैं-'आगमे तिविहे' इत्यादि। . जिससे 'जीव, अजीव' आदि नौ तत्व अच्छी तरह जाने जाएँ या जो विनय आदि के आचरणद्वारा तीर्थङ्कर और गणधरों એવી રીતે કાર્યોત્સર્ગનું અવલ બન કરીને તેમા અતિચારનું વિશેષરૂપથી शिंतन २ छ 'आगमे तिविहे' इत्यादि नायी 'जीव' 'अजीव' विगेरे न त सरासर adel पाय અથવા જે વિનય આદિ આચરણદ્વારા નીર્થકર અથવા ગણધરેથી १- भणता गुणता विचारता ज्ञान और शानवत की आशातना की होतो 'वस्स मिच्छा मि दुकड'। २-धातूनामनेकार्यस्वादिति भागुक्तमेव । यदा' ये गत्यर्यास्ते मापयर्थाः' इति गतिः मासिम्रहण व मियोऽनन्तरमेव । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका ९७ न्मोक्षस्य साम्मुख्य गम्यते ज्ञायते येनेति, आगमयति = साकल्येन बोधयति जीवाजीवादितत्त्वार्यमिति, आ = सम्यग्ज्ञानादित्रयमोक्षमार्गरूपा मर्यादा गम्यते = ज्ञायते येनेति, आ=तीर्थकर मरूपितत्वेन सर्वथा निःशङ्कितवाद्विस्मयजनको गमो = ज्ञान यस्मिन्निति वा आगमः । यद्वा 'नामैकदेशे नामग्रहणात् 'आ' 'ग' 'म' इति पदत्रय परिकल्प्य 'आ' = आगतस्वीर्यकराव, 'ग' तो गणरमुखे, 'म ' = मतो भव्याना सर्वेषामित्यागमः, तथाच - ' आगतो वीतरागातु, गतो गणधराऽऽनने । मतः समस्तभव्याना, तस्मादागम उच्यते ॥ १ ॥ इति निर्गलितम् | व्याख्यानान्तर यथामत्यूहनीयम् । आगमः सिद्धान्तः प्रवचनमिति पर्यायाः । कतिविधः सः ? इत्याह- ' तिविहे पण्णत्ते ' इति । तिस्रो विधा:= मकारा यस्य स त्रिविधः प्रज्ञप्तः = प्रकर्षेण सदेवमनुजासुरसभाया समवसरणस्थैस्तीर्थनाथैज्ञप्तः ज्ञापित उक्त इति यावत् । ' त जहा ' तयथा - ( अत्र ' स यथे ' ति वक्तव्ये वदिति निर्देश आगमस्वरूप विशेपणा पेक्षयाऽऽर्पत्वाद्वा, यद्वाऽव्यय तच्छन्दमादाय तदेवाऽऽगमस्वरूप दर्शयामीत्यर्थः ) ' सुत्तागमे ' सूत्रागमः = सूत्ररूप आगम. । ' अत्थागमे ' अर्थागम: =अर्थरूप आगमः । ' तदुभयागमे ' तदुभयासे प्राप्त हो, अथवा जो आत्मस्वरूपके स्मरण के लिये प्राप्त किया जाय, या जिस से मोक्षमार्गका ज्ञान हो, अथवा जो तीर्थङ्कर भगवान के द्वारा उपदिष्ट होने के कारण शकारहित और अलौकिक होने से भव्य जीवों को चकित करदेने वाले ज्ञान को देने वाला हो, या जो अर्हन्त भगवान के मुख से निकल कर गणधर देवको 'प्राप्त हुआ और भन्य जीवोंने सम्यक् भावसे जिसकेा माना उसे आगम' कहते हैं । वह तीन प्रकारका - (१) सुत्तागम, (२) अत्थागम (३) तदुभयागम । " પ્રાપ્ત થાય અથવા જે આત્મસ્વરૂપના સ્મરણુને માટે પ્રાપ્ત કરવામા આવે, અથવા જેનાથી મેાક્ષમાર્ગનું જ્ઞાન થાય અથવા જે તીર્થંકર ભગવાન દ્વારા ઉપદિષ્ટ હાવાને કારણે શકારહિત અને અલોકિક હાવાથી ભવ્ય જીવને ચકિત કરવાવાળા જ્ઞાનને આપવાવાળા હોય, અથવા જે અરિહંત ભગવાનના મુખથી નીક હીને ગણધર દેવને મળ્યા તથા જેને ભવ્ય જીવાએ સમ્યક ભાવથી માન્યા તેને 6 'आगम' छे ते त्रयु प्रहारना है (1) सुत्तागम, (२) अथागम, (3) तदुभयागम. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकत्रस्य - गमा मूत्रार्थद्वयरूप आगमः । तत्र सूत्रपद व्याचष्टे-'मुत्त' इति प्राकृतशेल्या सूत्र मूक्त मुप्तमिति पदयस्य 'मुत्त' इति भवति, तस्मात् सूयन्ते सायन्ते बहवोऽर्था यस्मिन्निति, मूत्रयति गुम्फयति विविधानर्थान् सक्षेपेणेति, सूत्रयति= सूचयत्यल्पाक्षरैव्यपर्यायनयादिस्वरूप भृशमर्थमिति, दोपराहिन्येन 'मुष्ठूनापतिपादितमिति, अर्थज्ञानमन्तरेण सर्वे पदार्थाः समुप्तवस्मतिभान्स्यत्रेति वार्यः। यद्वा सूत्र-तन्तुस्तत्सादृश्याद्गोण्या लक्षणया भूत्रम् , यथा तन्तौ बहूनि वस्तून्य कत्र सपथ्यन्ते तथेहापि बहवोऽर्था इति । आहोस्वित् यथा तन्त्वपरपर्याय मूत्रमेव सुचतुरैः पटकरैः पटरूपता नीत सद् गोप्याङ्गान्यात्य शैत्यादिभ्यो रक्षन् धार कस्य शोभा मङ्गल च तनोति तथेदमपि मूत्रमाचार्यादिव्याख्यात सत् पटस्था जिसमें सक्षेप रूपसे बहुत अर्थों का संग्रह किया जाय, अथवा जो दोपरहित कहा हुआ हो, या जैसे सोये हुए ७२ कला के ज्ञाता पुरुष को जगाने पर कला का भेद-प्रभेद का ज्ञान हाता है उसी प्रकार अर्थ द्वारा सर्वतत्व जिससे जाने जाय अथवा जैस सूत्र (सत) मे मणि मोती आदि तरह तरह के पदार्थ गूंथे हुए रहते है, या जैसे सूत बहुत से इकट्ठे किये जाकर चतुर पुरुषों से तरह के (अपनी इच्छा के अनुसार) कपडे बनाये जाते हैं और जो गुप्त अगों को ढाकते हैं, सर्दी गर्मी से बचाते हैं तथा धारण करने वाले की शोभा को बढाते हैं. वैसे ही जो जीवादि नाना पदार्थों के स्वरूप से गुम्फित (ग्रथित) तथा आनार्य आदि स - જેમાં સક્ષેપ રૂપે ઘણુ અર્થોને સંગ્રહ કરવામાં આવે અથવા જે દેષ રહિત કહેલ હેય, અથવા જેમ સુતેલ ૭૨ કળાના જ્ઞાતા પુરૂષને જગાડયા પછી કળાના સૈદ પ્રભેદ જાણી શકાય તેવી રીતે અર્થ દ્વારા સઘળા તવ જેનાથી જાણી શકાય, અથવા જેમ દેરામા મણિ–મેતી વિગેરે ભાતભાતના પદાર્થ શું થાએલ રહે છે અથવા જેવી રીતે ઘણું સૂતરને ભેગા કરીને ડાહ્યા માણસો પિતાની ઈચ્છારૂપ ભાતભાતનુ કાપડ બનાવે છે તે કાપડ ગુપ્ત અગોને ઢાંકે છે, સદી અને તાપથી બચાવે છે અને પહેરનારની सामान पधारे छ तेवी शते रेपाना पहाना १३५थी गुम्फित (यित) १- 'मुष्टत' मुक्तमिति छायापक्षे । -- 'सुप्त'-मिति छायापक्षे । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ मुनितोपणी टीका नीयतामासाच पिधानीय कुमार्गमानृत्य शैत्यादिस्थानीयाऽष्टविधकर्म्मभ्यो रक्षन् धारकाणा भव्याना मुखशोभा परममङ्गल च तनोतीति । अथवा मूचयति=सीव्यति स्रवति वाऽर्थानिति निरुक्त परिपाव्या सूत्रम्, 'स्वल्पाक्षरमसन्दिग्ध, सारवद्विश्वतोमुखम् । अस्तोभमनवय च, सून सूत्रविदो विदुः ॥ १ ॥ ' इत्युक्तमन्यत्र । सूत्रस्यार्थापेक्षितयैवोपयोगित्वादाह - ' अत्थागमे ' इति, अर्थ्यते = याच्यते, अथवा व्यारयान आदि के द्वारा विस्तृत हो कर आस्रवों को ढकता है, अष्टविध कर्मों से बचाता है, धारण करने वाले की शोभा बढाता है, या जैसे सूई के द्वारा वस्त्रों के टुकडे सीये जाने पर तरहतरह के सुन्दर वस्त्र बनकर लोगों के उपकारक होते हैं, वैसे ही जो बहुत से फुटकर अर्थों से जोडा जाकर भव्यों के लिये अपूर्व लाभदायक होता है, अथवा जैसे किसी झरने से पानी झरता है उसी प्रकार जिसमें से उत्तमर अर्थ निकलता है उसे 'सूत्र' कहते है। कहा भी है is जिसमें अक्षर थोडे पर अर्थ सर्वव्यापक, सारगर्भित, सन्देहरहित, निर्दोष तथा विस्तृत हो उसे विद्वान लोग 'सूत्र' कहते हैं " ॥ १ ॥ तद्रूप (सूत्ररूप) आगम सूत्रागम कहलाता है 1 जो मुमुक्षुओं से प्रार्थित हो उसे अर्थागम कहते हैं । केवल सूत्रागम या अर्थागम से प्रयोजन सिद्ध नही हो सकता, इसलिये सूत्र और अर्थरूप ' तदुभयागम' कहा है। इनमें जो कुछ क्रमको તથા આચાય વિગેરેના વ્યાખ્યાનાદિ-ઢારા વિસ્તૃત થઇને આસ્રવેશને ઢાકે છે, અષ્ટ પ્રકારના કર્મોથી બચાવે છે, ધારણા કરવાવાળાની Àભા વધારે છે, અથવા જેવી રીતે સાય-દ્વારા કાપડના ટુકડા સીવાઈ ગયા પછી તરેહ તરેહના સુદર વજ્ર બનીને લેાકેા માટે ઉપકારી બને છે તેની રીને જે ઘણા પ્રકારના અર્ધાં થી સગૃહીત થઈ ને ભળ્યેને અપૂર્વ લાભદયક થાય છે, અથવા જેવી રીતે કાર્ય ઝરણામાથી પાણી ઝરે છે એવી રીતે જેમાથી ઉત્તમ અર્થ નિકળે છે, તેને સૂત્ર કહે છે पशु જેમા અક્ષર થાડા છતા પણુ અર્થ સવ્યાપક, સારગભિત, સદેહેરહિત નિર્દોષ તથા વિસ્તૃત હેય તેને વિદ્વાન માણસે સૂત્ર કહે છે वद्रूप ( सूत्र३५ ) भागम- सूत्रागम उपाय छे કેવળ સૂત્રાગમ જે મુમુક્ષુઓથી પ્રાર્થિત હોય તેને અર્ધાંગમ કહે છે અગર અર્ધાંગમથી પ્રયાજન સિદ્ધ નથી થઇ શકતુ, એટલા માટે સૂત્ર અને અર્થરૂપ તદુભયાગમ કહેલ છે એમા જે થાડુક ક્રમને છેડીને અર્થાત્ ક્રમ ક Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकत्रस्य -- -- - - - गमः मूत्रार्थद्वयरूप आगमः। तत्र सूत्रपद व्याचष्टे-'मुत्त' इति प्राकृतशेल्या सूत्र मूक्त मुप्तमिति पदत्रयस्य 'मुत्त' इति भवति, तस्मात् सूज्यन्ते-समृधन्ते वहयोऽर्था यस्मिन्निति, सूत्रयति गुम्फयति विविधानर्थान् सक्षेपेणेति, सूत्रयतिसूचयत्यल्पाक्षरै व्यपर्यायनयादिस्वरूप भृशमर्थमिति, दोपराहिन्येन 'मुनापतिपादितमिति, अर्थज्ञानमन्तरेण सर्वे पदार्थाः समुप्तवस्मतिभान्स्यत्रेति वार्थः। यद्वा सूत्र-तन्तुस्तत्सादृश्याद्गोण्या लक्षणया सूत्रम् , यथा तन्ती बहूनि वस्तून्य कत्र सनथ्यन्ते तथेहापि बहवोऽर्था इति । आहोस्वित् यथा तन्त्वपरपर्याय मूत्रमय सुचतुरैः पटकरैः पटरूपता नीत सद् गोप्याङ्गान्यात्य शैत्यादिभ्यो रक्षन् धार__ कस्य शोभा मङ्गल च तनोति तथेदमपि मूत्रमाचार्या दिव्याख्यात सत् पटस्था जिसमें सक्षेप रूपसे बहुत अर्थों का सग्रह किया जाय, अथवा जो दोपरहित कहा हुआ हो, या जैसे सोये हुए ७२ कला के ज्ञाता पुरुष को जगाने पर कला का भेद-प्रभेद का ज्ञान होता है उसी प्रकार अर्थ द्वारा सर्वतत्व जिससे जाने जाय अथवा जस सूत्र (सूत) मे मणि मोती आदि तरह तरह के पदार्थ गूंथे हुए रहते हैं, या जैसे सूत बहुत से इकट्ठे किये जाकर चतुर पुरुषों स तरह के (अपनी इच्छा के अनुसार) कपडे बनाये जाते हैं और जो गुप्त अगों को ढाकते हैं, सर्दी गर्मी से बचाते है तथा धारण करने वाले की शोभा को बढाते हैं, वैसे ही जो जीवादि नाना पदार्थों के स्वरूप से गुम्फित (ग्रथित) तथा आचार्य आदि से * જેમાં સક્ષેપ રૂપે ઘણુ અને સંગ્રહ કરવામાં આવે અથવા જે દોષ રહિત કહેલ હેય, અથવા જેમ સુતેલ ૭૨ કળાના જ્ઞાતા પુરૂષને જગાડયા પછી કળાના ભેદ પ્રભેદ જાણે શકાય તેવી રીતે અર્થ દ્વારા સઘળા તત્વ જેનાથી જાણી શકાય, અથવા જેમ દેરામાં મણિમેતી વિગેરે ભાતભાતના પદાર્થ ગુથાએલ રહે છે અથવા જેવી રીતે ઘણું સૂતરને ભેગા કરીને ડાહ્યા માણસે પિતાની ઈચ્છારૂપ ભાતભાતનું કાપડ બનાવે છે તે કાપડ ગુમ અગેને ઢાકે છે, સદી અને તાપથી બચાવે છે અને પહેરનારની सामान पधारे छे तेवी शतवाहनाना पार्थाना २१३५थी गुम्फित (अथित) १- 'मुष्ठत' मुक्तमिति छायापक्षे । २- 'सुप्त'-मिति छायापक्षे । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मुनितोपणी टीका नलः, अनुस्वारमानलोपे सत्यसारःससारोऽपि ससार. सजायते । अत्र बहन इत्थमाभणन्ति-राजगृहे समवस्तस्य भगवतो महावीरस्य धर्मदेशनाश्रवणानन्तर भग- वन्त वन्दित्वा परिपत् प्रतिगता, तदा किञ्चिदुत्पत्यावपतित पुनरत्पत्यावपतित विद्याधरविमानमालोक्य सन्दिहानेन सपुत्रेण राज्ञा श्रेणिकेन पृष्टो भगवानाह'विमानवाहोऽय विमानचारणमन्नस्यैकमक्षर विस्मृतवास्तेनेद विमान हतपक्षः पक्षीव मुहुर्मुहुरत्पत्योत्पत्य निपततीति । तच्छुत्वा श्रेणिकपुत्रोऽभयकुमारो निजया पदमात्रोपलब्धिपूर्वकाऽनेपदानुसन्धानशक्त्या त विमानचारणमन्त्र न्यूनाक्षरा(सारसहित) बन जाता है, तथा 'कमल' शब्दके 'क' को कम करदेने से 'मल' बन जाता है, इत्यादि, इस विषयमें विद्याधर और अभयकुमार का दृष्टान्त है ____ एक समय राजगृह नगरीमे पधारे हुए भगवान महावीर स्वामी की धर्मदेशना सुनकर तथा उनको वन्दना करके परिषद के चले जाने पर बार बार उडते-गिरते किसी विद्याधरके विमान को देख कर अपने पुत्र अभयकुमार के साथ राजा श्रेणिकने भगवान से पूछा, प्रभो ! यह विमान इस प्रकार उड कर क्यों गिरता है? तब भगवानने फरमाया कि यह विद्यावर अपनी विद्या का एक अक्षर भूल गया है जिससे यह विमान विगर पाख के पक्षी की तरह बार-बार उड-उड कर गिरता है। ऐसा सुन कर राजा 'ससार' (भारसडित) मत छ तयारम भण' शहना १२ढी નાખવાથી “મળ” શબ્દ બની જાય છે આ વિષયમાં એક વિદ્યાધર અને અભયકુમારનું દુછાત છે એક વખત રાજગૃહ નગરીમા પધારેલા ભગવાન મહાવીર સ્વામીની ધર્મદેશના સાભળી તથા ભગવાનને વન્દન કરી પરિષદ ચાલી ગયા પછી એક વિદ્યાધરના વિમાનને ઉડતા-પડતા જોઈને પિતાના પુત્ર અભયકુમારની સાથે શ્રેણિક રાજાએ ભગવાનને પૂછયું પ્ર આ વિમાન આવી રીતે ઉડીને પાછુ કેમ પડે છે? ત્યારે ભગવાને જણાવ્યું કે આ વિદ્યાધર પિતાની વિદ્યામાથી એક અક્ષર ભૂલી ગયે છે જેથી આ વિમાન પાખ વિનાના પક્ષીની જેમ વાર વાર ઉડી ઉડીને પડી જાય છે એવું સાભળીને રાજા શ્રેણિકના પુત્ર અભયકુમારે Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० मावश्यकत्रस्य - - - - - अर्यते गम्यतेऽर्थात्माप्यते बुभुत्मुभिरित्यर्थः । पृथरु पृथक् मूत्ररूपेणार्थरूपेण चाऽऽगमेन यथोचितोपयोगाभागादुभयमाह-'तदुमयागमे । इति, तञ्च सच ते तयोरुभय तदुभय तचासावागमथ तदुभयागमा मूत्रार्थो-भयरूप आगम इत्यर्थः । तर 'ज' यत् 'पाइन्द्र' व्याविद्ध-विपर्यस्तमणिमालावत्तदेव विषरीतोचारितम् , 'बच्चामेलिय'-व्यत्यानेडित व्यत्ययेन सूत्रान्तरस्याऽऽलापक सूत्रान्तरेण सयोज्याऽस्थाने विराम कृत्वा स्वकपोलकल्पितानि सूत्राभासानि विरचयर वा आमेडित-समुद्घष्टमर्थादुच्चारितम् । 'हीणक्खर' हीनासर-हीनमक्षर यस्मिंस्तत् , हीनाक्षरदोपो हि महान्तमनर्थ जनयति, अकारमात्रलोपे सत्यनलोऽपि छोडकर अर्थात् क्रमपूर्वक न पढा गया रो, जैसे 'नमो अरिहताण' इत्यादि की जगह 'अरिहताण नमो' इत्यादि पढा गया हो (१) । एक सूत्र का पाठ दूसरे सूत्र में मिलाकर या जहा विराम न लेना चाहिये वहा विराम लेकर, अथवा अपनी तरफ से कुछ शब्द जोडकर पढा गया हो (२)। अक्षरहीन पढा गया हो, जैसे 'अनल' शब्द का अकार कम कर दिया जाय तो 'नल' बन जाता है, 'ससार' शब्दका सिर्फ अनुस्वार निकाल दिया जाय तो 'ससार' नयायु छाय, रवी शत 'नमो अरिहताण' विगैरेनी यामे 'अरिहताण नमो' વિગેરે વિચાયુ હેય (૧) એક સૂત્રના પાઠ બીજા સત્રમાં મેળવીને અગર જ્યા શિકાર્ડ ન જોઈએ ત્યા રેકાઈને, અથવા પિતાના તરફથી પૅડા શબ્દ જોડીને વાગ્યું હોય, (૨) અક્ષરહીન વચાયુ હોય–જેવી રીતે અનલ' શબ્દને અકાર કાઢી નાખીએ તે “નીલ” બની જાય છે, “સંસાર” શબ્દમાં ખાલી અનુસ્વાર કાઢી નાખીએ તો १- अर्थ -अर्थ उपयाच्यायाम् अस्माद् बाहुलकेन कर्मण्यच्, पक्षे 'क गतौ' अस्मादौणादिक. कर्मणि थन् । २- 'आगमे विविहे' इत्यत आरभ्य ' तदुमयागमे, ' इत्यन्त यावत्एत मागधीशैल्या ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका १०१ नलः, अनुस्वारमात्रलोपे सत्यसारःससारोऽपि ससारः सजायते । अत्र वहव इत्यमाभणन्ति-राजगृहे समवसतस्य भगवतो महावीरस्य धर्मदेशनाश्रवणानन्तर भगवन्त वन्दित्वा परिपत् प्रतिगता, तदा किश्चिदुत्पत्यावपतित पुनरुत्पत्यावपतित विद्याधरविमानमालोक्य सन्दिहानेन सपुत्रेण राज्ञा श्रेणिकेन पृष्टो भगवानाह'विमानवाहोऽय विमानचारणमन्त्रस्यैकमक्षर विस्मृतवास्तेनेद विमान हतपक्षः पक्षीव मुहुर्मुहुरत्पत्योत्पत्य निपततीति । तच्छ्रुत्वा श्रेणिकपुत्रोऽभयकुमारो निजया पदमात्रोपलब्धिपूर्वकाऽनेपदानुसन्धानशतया त विमानचारणमन्त्र न्यूनाक्षरा(सारसहित) बन जाता है, तथा 'कमल' शब्दके 'क' को कम करदेने से 'मल' बन जाता है, इत्यादि, इस विषयमे विद्याधर __ और अभयकुमार का दृष्टान्त है ___एक समय राजगृह नगरीमे पधारे हुए भगवान महावीर स्वामी की धर्मदेशना सुनकर तथा उनको वन्दना करके परिपद के चले जाने पर घार पार उडते-गिरते किसी विद्या परके विमान को देख कर अपने पुत्र अभयकुमार के साथ राजा श्रेणिकने भगवान से पूछा, प्रभो ! यह विमान इस प्रकार उड कर क्यों गिरता है? तब भगवानने फरमाया कि यह विद्या पर अपनी विद्या का एक अक्षर भूल” गया है जिससे यह विमान विगर पाख के पक्षी की तरह वार-चार उड-उड कर गिरता है। ऐसा सुन कर राजा 'ससार' (सारसहित) मन छ तथा म भण' शहना नदी . નાખવાથી મળ’ શબ્દ બની જાય છે આ વિષયમાં એક વિદ્યાધર અને અભયકુમારનું છાત છે. એક વખત રાજs નગરીમાં પધારેલા ભગવાન મહાવીર સ્વામીની ધર્મદેશના સાભળી તથા ભગવાનને વન્દન કરી ૫રિષદ ચાલી ગયા પછી એક વિદ્યાધરના વિમાનને ઉડતા-પડતા જોઈને પિતાના પુત્ર અભયકુમારની સાથે શ્રેણિક રાજાએ ભગવાનને પૂછયું પ્રભે ! આ વિમાન આવી રીતે ઉડીને પાછું કેમ પડે છે? ત્યારે ભગવાને જણાવ્યું કે આ વિદ્યાધર પિતાની વિદ્યામાથી એક અક્ષર ભૂલી ગયા છે જેથી આ વિમાન પાખ વિનાના પક્ષીની જેમ વાર વાર ઉડી ઉડીને પડી જાય છે એવું સાંભળીને રાજા શ્રેણિકના પુત્ર અભયકુમારે Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आवश्यकमुत्रस्य । नुसन्धानेनाऽविकलीकृत्य फलितमनोरथात्मसन्नात्तस्माद्वियापरात द्विद्या सिद्धयुपाय मुपलब्धवानिति । 'अच्चक्खर ' अत्यक्षरम् - अति-आगमगाथासूत्रापेक्षयाऽधिक्रमक्षर यस्मिंस्तत्तथाभूतमर्थादेकद्वयादिक्रमेणाक्षरमधिकीकृत्यो च्चारितम् । 'पयहीण' पदहीन= पद न्यूनीकृत्योच्चारितम्, एतच्चोपलक्षणमधिकपदत्वस्यापि अधिकाक्षरत्वस्येवाधिक पदत्वस्याप्युपन्यासार्हत्वात् । ' विणयहीण ' विनयहीन - विनय विनोच्चारितम् | जोगहीण' योगहीन - योगो = मनोयोगस्तेन हीन मनोयोग दत्वा पठितमित्यर्थः । श्रेणिकका पुत्र अभयकुमारने अपनी पदानुसारिणी लब्धि- द्वारा उसके विमान चारण मन्त्र को पूरा करके उसके मनोरथ को सिद्ध किया और उस विद्याधर से आकाशगामिनी विद्याकी सिद्धि का उपाय सीख लिया । (३) अधिक अक्षर जोडकर पढा गया हो, जैसे एक राजा के वाचक 'नल' शब्द के पहले 'अ' जोड कर पढा जाय तो 'अनल' बन जाता है, जिसका अर्थ अग्नि हो जाता है (४) । पद को न्यून या अधिक करके बोला गया हो, जैसे "सप्त व्यसन सेवनीय नही है " यहा पर 'नही' पदको न्यून कर देने से तथा "हार" के साथ "प्र" आदि अधिक शब्द लगा देने से बहुत अर्थभेद हो जाता है (५) । विनयरहित पढा गया हो (६) । मनोयोग दिये चिना पढा गया हो, अथवा आयम्बिल आदि પેાતાની પદાનુસારિણી લબ્ધિ દ્વારા એના વિમાનચારણ ( વિમાન ચલાવનાર ) મત્રને પૂરી કરી તેના મનાથને સિદ્ધ કર્યું, અને તે વિદ્યાધર પાસેથી આકાશ ગામિની વિદ્યાની સિદ્ધિના ઉપાય શીખી લીધે (૩) રીતે એક રાજાના અનલ અની જાય ८ < , વધારે અક્ષર જેડીને વાચ્યુ હાય – જેવી વાચક નલ શબ્દ પહેલા એ' જોડી દેવાય તે અને જેતા અગ્નિ થઈ જાય છે (૪) પદ્મને થોડુ ખેલાયુ હોય જેવી રીતે સાત વ્યસન સેવવા छोडी हेवाधा, तथा 'हार' नी साथै ' ' विगेरे અર્થભેદ થઈ જાય છે (૫) વિનયરહિત વચાયું હાય (૬) મનેયાગ આપ્યા વિના વાગ્યુ હાય અથવા આયમ્મિલ વિગેરે શાઓકત તપ કર્યાં વિના વાયુ હૈય અગર વધારે કરીને ચેન્ગ્યુ નથી મહી નથી મને वधारे शब्द उभेरवाथी थे। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका यद्वा-आचामाम्लायनुष्ठानरूपयोगोद्वहनमन्तरेण पठितम् । 'घोसहीण' घोपहीनघोपा उदातानुदात्तस्वरितरूपस्त्ररत्रय तद्धीनमर्यादुदात्तादिस्वराणा यथोचितमुच्चारणमकृत्वैव पठितम् । 'सुष्ठुदिन्न' सुष्ठुदत्त-सुष्टु-गोभन यथास्यानथा मरहस्यमित्यर्थः, दत्त-पाठितम् , पात्रापात्रविवेकमकृत्वैव निकटोपस्थिताय यस्मै कस्मैचित्सम्यतया सूत्रार्थदानमित्यर्थः। पात्रविवेकमन्तरेण हि कदाचित्कुपात्रायाऽभ्यापित महान्तमनर्थ जनयति, यथा भुजङ्गस्य क्षीरपायन तद्विपवर्द्धनायैव, यथा वा ज्वरातस्य घृतपायन शीतलजलस्नपन वा तज्ज्वरवर्द्धनायैव, यद्वा यथा वहुमूल्या सुविशाला माला सनथ्य वानरगले समर्पण तन्मालायाः समुच्छेदायैव, अथवा यथोपरभूमावुप्तवीज न फलति प्रत्युत तत्रैव (भूमौ ) विलीयते तथैवाऽपात्राय विद्यादान, यतोऽसौ काकतालीयन्यायेन कदाचिल्लब्धविद्योऽपि स्वस्व. शास्त्रोक्त तप किये विना पढा गया हो (७)। उदात्त आदि स्वरों के उचित उच्चारण किये विना पढा गया हो (८)। पात्र कुपात्र का विचार किये विना रहस्य खोल कर पढाया गया हो, क्यों कि शिष्य की परीक्षा किये विना कदाचित् कुपात्र को पढाया जाय तो वह साप को दूध पिलाने तथा ज्वर वाले को घी पिलाने या ठण्ढे जल से नहलाने के बराबर अनर्थकारी होता है। अथवा जैसे सुन्दर रत्नों की माला घन्दर के गलेमे डाल दी जाय, या ऊसर भूमिमें बीज बोया जाय तो लाभ के पदले हानि ही होती है उसी प्रकार कुपात्र शिष्यको शास्त्र का ज्ञान पढाना अलाभकारी है। यदि किसी सयोग से वह विद्या प्राप्त भी कर (૭) ઉદાત્ત વિગેરેને શુદ્ધ ઉરચાર કર્યા વિના વાગ્યુ હોય (૮) પાત્ર-કુપાત્રના વિચાર કર્યા વિના રહસ્ય સમજાવીને ભણાવ્યું હોય કારણ કે શિષ્યની પરીક્ષા કર્યા વિના કેઈ વખત કુપાત્રને ભણાવાય તે તે સાપને દૂધ પીવરાવવા જેવું તથા તાવવાળાને ઘી ખવરાવવા જેવું અથવા તે ઠંડા પાણીથી સ્નાન કરાવવા જેવુ અનર્થકારી થાય છે, અથવા તે સુન્દર રત્નની માળા વાદરાના ગળે પહેરાવવી અગર ખારા વાળી જમીનમાં બીજ વાવી દેવામાં આવે તે લાભ થવાના બદલે હાનિ જ થાય છે એ પ્રમાણે કુપાત્ર શિષ્યને શાસ્ત્રનું જ્ઞાન આપવું અલાભકારી છે કદાચ કેઈ સગવશાત તે વિદ્યા પ્રાપ્ત પણ કરી લે તે પણ પિતાના કુટિલ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आवश्यकमूत्रस्य नुसन्धानेनाऽविकलीकृत्य फलितमनोरथात्मसन्नात्तस्माद्विद्याधरात्तद्विद्या सिद्धयुपाय मुपलब्धवानिति । 'अचक्खर ' अत्यक्षरम् - अति-आगमगायामूत्रापेक्षयाऽधिकमक्षर यस्मिंस्तत्तथाभूतमर्थादेकद्वयादिक्रमेणाक्षरमधिकीकृत्यो च्चारितम् | 'पयहीण' पदद्दीन= पद न्यूनीकृत्योच्चारितम्, एतच्चोपलक्षणमधिकपदस्वस्यापि अधिकाक्षरत्वस्येवाधिकपदत्वस्याप्युपन्यासार्हत्वात् । ' त्रिणयहीण ' विनयहीन = विनय विनोच्चारितम् । जोगहीण ' योगहीन - योगो = मनोयोगस्तेन हीन मनोयोग दत्वा पठितमित्यर्थः । श्रेणिकका पुत्र अभयकुमारने अपनी पदानुसारिणी लब्धि- द्वारा उसके विमान चारण मत्र को पूरा करके उसके मनोरथ को सिद्ध किया और उस विद्याधर से आकाशगामिनी विद्याकी सिद्धि का उपाय सीख लिया । (३) अधिक अक्षर जोडकर पढा गया हो, जैसे एक राजा के वाचक 'नल' शब्द के पहले 'अ' जोड कर पढ़ा जाय तो 'अनल' बन जाता है, जिसका अर्थ अग्नि हो जाता है (४) । पद को न्यून या अधिक करके बोला गया हो, जैसे "सप्त व्यसन सेवनीय नही है" यहा पर 'नही' पदको न्यून कर देने से तथा "हार" के साथ " प्र" आदि अधिक शब्द लगा देने से बहुत अर्थभेद हो जाता है (५) । विनयरहित पढा गया हो (६) । मनोयोग दिये विना पढा गया हो, अथवा आयम्बिल आदि પેાતાની પદાનુસારિણી લબ્ધિ દ્વારા એના વિમાનચારણુ ( વિમાન ચલાવનાર ) મત્રને પૂરા કરી તેના મનારથને સિદ્ધ ક્યું, અને તે વિદ્યાધર પાસેથી આકાશ ગામિની વિદ્યાની સિદ્ધિના ઉપાય શીખી લીધે (૩) વધારે અક્ષર જોડીને વાયુ હાય – જેવી રીતે એક રાજાના વાચક ' नस शण्छ पहेला 'म' लेडी हेवाय तो ' અનલ ૩ ખની જાય અને જેને અ અગ્નિ થઈ જાય છે (૪) પદ્મને થતુ અગર વધારે કરીને ખેલાયુ હાય જેવી રીતે સાત બ્યસન સેવવા યોગ્ય નથી અહી નથી પને छोडी देवाधी, तथा 'हार' नी साथै 'प्र' विगेरे बधारे शब्द उभेरवाथी ब અર્થભેદ થઈ જાય છે (૫) વિનયરહિત વચાયું હૈય (૬) મનાયેશ આપ્યા વિના વાયુ હાય અથવા આયમ્બિલ વિગેરે શાઓકત તપ કર્યાં વિના વાયુ હોય Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका १०५ " 'दसगमसगसमाणा, जलूगवेच्छुगसमा य जे होति । से फिर होति खलुका, तिक्खमिऊ चंडमद्दविया ॥ १ ॥ " जे फिर गुरूपडिणीया, सवला असमाहिकारगा पावा | कलहकरणस्स भावा, जिणवयणे ते फिर खलुका ॥ २ ॥ पिसुणा परोवयावी, भिन्नरहस्सा पर परिभवति । निव्विअणिज्जा य सदा, जिणत्रयणे ते फिर खलुका ॥ ३ ॥” इति । स्थानाने भगवताऽपि निदर्शितम् " जो डॉम, मच्छर, जाक बिच्छू के समान आचरण करने घाला, असहिष्णु, आलसी, क्रोधी, वार वार कहने पर भी गुरुकी आज्ञा को नहीं मानने वाला, गुरुका विरोधी, चारित्रमें शबलदोपयुक्त, गुरुको असमाधि पैदा करने वाला, झगडालू, चुगलखोर, पर को पीडा देने वाला, दूसरे को दवाने वाला, रहस्यमेद करने वाला, विरुद्ध आचरण करने वाला तथा शठ, पापात्मा, जिनवचनमें ग्वलुङ्क - कुशिष्य कहलाता है ॥ ३ ॥ स्थानाङ्ग सूत्रमे भगवान ने फरमाया है कि- 'अविनीत, रस "लेड, डास, भस्छर, विछीना भमान ચણુ કભાવાળા, અસહિષ્ણુ આળસુ, ક્રાધી, વાર વાર કહેવા છતાય ગુરુની માજ્ઞાનું પાલન નહિ કરનાર, ગુરુના વિધી, ચારિત્રમા ખલ દોષયુક્ત, ગુરુને અસમાધિ ઉત્પન્ન કરનાર, કજીયાખાર, ચાડીયાપણુ, પરને પીડા કરનાર, ખીન્નને દબાવનાર, ખાનગી વાતને જાહેર કરનાર, વિરુદ્ધ આચ! કરનાર તથા શઠે પાપાત્મા જિનવચનમાં શંકા ખા કરનાર કુશિષ્ય કહેવાય છે સ્થાનાગ સૂત્રમાં ભગવાને કહ્યુ છે કે-અવિનીત, રસલેલ્પ, મહાક્રોધી, १- दशकमशकसमाना जलूकावृचिकसमान ये भवन्ति । ते किल भवन्ति खलङ्कास्तीक्ष्णमृदुचण्डमाईविका ॥ १ ॥ ये फिल गुरप्रत्यनीका, शवला असमाधिकारकाः पापा' । कलहकरणस्वभावा जिनवचने ते किल खलङ्काः ॥२॥ पिशुना परोपतापिनो, भिन्नरहस्या पर परिभवन्ति । निर्वेदनीयाश्च शठा जिनवचने ते लि खलुका ॥ ३ ॥ इति संस्कृतच्छाया । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आवश्यकमूत्रस्य भावमपरित्यजन् 'दृष्टीदृष्टि पात्रभूतानपि शिष्यानपात्रस्व नयति, स्वल्पीयसाऽपि कारणेन महान्त क्रोधमादाय गवितोऽनाचरणीयमाचर्य निजया दुर्भावनया कुठा रधारयाधर्मकल्पवृक्षमेव चिच्छित्सति । ननु कोऽपात्रपदभाको इति-वेदुच्यते-यः परापवादशीलो, योऽसयतेन्द्रियो, योऽनृजुर्यः क्रोधी, यः पिशुनो, या क्रूरवार, यो बहुभोजनप्रियः, यो मनोवाग्देहेप्वसमत्तियश्चाविनयः। प्रोक्तमिदमुत्तराभ्यः यननियुक्तीलेवे तो अपने कुटिल स्वभाव को न छोडता हुआ सुपात्र शिष्यों को भी अपने समान बना डालता है। और जरा २ सी बातम क्रुद्ध होकर घमण्डपूर्वक दुर्भावनारूप कुल्हाड़ी से धर्मरूप कल्प वृक्ष को काटने के लिये उतारू होजाता है। ___ कुपात्र उसको कहते हैं- जो पराई निन्दा करे, इन्द्रियों का लोलुपी, हृदय का कुटिल, क्रोधी, चुगलखोर, कठोरभाषी, खानपीनेमें अधिक लोलुपी, मन वचन और कायामें विषम वृत्ति रखने वाला (मनमें कुछ, बोले कुछ, करे कुछ ऐसा) तथा उद्दण्ड हो। जैसा कि उत्तराध्ययननियुक्तिमें कहा हैસ્વભાવને તે છે તે નથી અને સુપાત્ર શિષ્યને પણ પિતાના જેવું બનાવે છે, અને સામાન્ય જેવી વાતમાં પણ ક્રોધાયમાન થઈને ઘમડ સાથે દુર્ભાવના રૂપ કુહાડી વડે ધર્મરૂપ કલ્પવૃક્ષને કાપી નાખવા તૈયાર થઈ જાય છે. : 1 કપાત્ર તેને કહે છે કે જે પારકી નિન્દા કરે ઇદિમા લેપ, કુટિલઆત કરણ હોય ક્રોધી, ચાડીયાપણ, કડવી વાણી બોલનાર, ખાન-પાનમાં લેલુપી, મન વચન અને કાયામાં વિષમવૃત્તિ (મનમા બીજુ, બોલવામાં બીજુ અને કરવામાં બીજી) રાખનાર, તથા ઉદ્ધત હોય જેમકે ઉત્તરાધ્યયનનિર્યુકિતમાં કહ્યું છે કે – १-दृष्टीदृष्टि' 'देखादेखी' इति भाषा, 'कर्णाकणि प्रथितमयशो बन्धु वगैरभाणि' इत्यादाविव प्रहरणविषयस्य कर्मव्यतिहारस्य चाभावेऽपि बहुव्रीहिसमासस्पेन्सत्ययस्य चेष्टत्वात् ।। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपणी टीका दुष्ठो प्रतीष्टं प्रतिगृहीतम्, 'मतीप्सित'- मितिच्छायायामप्ययमेवार्थः । केचिदनयोर्दोपयोरेकत्व व्याचक्षते, तदयुक्तम् ; परस्परमनपेक्षत्वात्, अत एवा. त्राऽतिचाराणामागेोपालवालहालिकमसिद्ध चतुर्दशत्वमप्युपपद्यतेऽन्यथा त्रयोदशस्वापत्तेः, एतेन 'सुष्टु दत्त गुरुणा, दुष्टु प्रतीच्छित कलुपितान्तरात्मने-'ति व्याख्यानमसदिति बुद्धिमद्भिरनुभाव्यम् । सुष्टु-दुष्टु-शब्दावव्ययौ त्रिलिङ्गौ च । 'अकाले कओ सज्झाओ' न कालोऽकालस्तस्मिन्नकाले-असमये, अर्थाद् यस्य कालिकादिश्रुतस्य योऽध्ययनसमयः प्रथमपहरादिस्तमतिक्रम्य कृतो-विहितः स्वाध्यायः। 'काले न को सज्झाओ' काले-स्वा-यायसमये प्रथमपहरादौ न कृतः स्वाध्याय इति निगदव्यारभातमिदम् । 'असज्झाये सज्झाइय' न स्वाध्यायो यस्मिन् सोऽस्वा यायस्तस्मिन् = स्वसमुत्थपरसमुत्थभेदभिन्ने रुधिरस्रावोल्कापात-दिग्दाहाऽकालवर्पणादिरूपे स्वाभ्यायित-स्वा यायः कृतः। है, अर्थात् 'सुद्बुदिन दुइठुपडिच्छिय' इन दोनो को मिलाकर एक अतिचार माना है सो उचित नहीं है, क्योकि इन दोनो का ऐसी कोई अपेक्षा नहीं है जिससे एक साथ सम्बन्ध किया जाय । दोनों को जुदा २ मानने से ही चौदह अतिचार होते है नहीं तो तेरह ही रह जायँगे (१०)। अकाल मे स्वाध्याय किया गया हो (११), काल दुपडिच्छिय" - पन्ने सवी मे मतियार मानेर छेते लयित नथी, भो આ બન્નેની કોઈ એવી અપેક્ષા નથી કે જેથી એક સાથે સબંધ કરવામાં આવે બનેને જૂદા જૂદા માનવાથી ચૌદ અતિચાર થાય છે નહિ તે તે જ થઈ જશે (૧૦) અકાલમે १-'पडिच्छिय ' इत्यस्य 'मतीच्छित'-मितिन्छायया प्रतिगृहीतार्थक्ल्पन तु व्याकरणाननुसन्धानेन गजनिमीलिव 'इपुगमियमा छः' (७।३ । ७७) इति शित्येव छादेशविधानात् । न च प्रतीच्छा सजाताऽस्येत्यर्थे तारकादित्वादितचि प्रतीच्छितमिति युक्तमेवेति सन्देग्यव्यम्, तथा सति प्रतीच्छापत एव बोधसम्भवेन 'प्रतिगृहीत'-मिति कर्मयोपकत्वानुपपत्तेरिति कृतमसारग्रन्यपर्यालीचनेन । २-'स्वा यायितम्'-'तत्करोति तदाचष्ट'-इति णिजन्तात् स्वा-याय. शब्दात् नपत्यये 'निछाया सेटि' (६।४।५२) इति णिलोपः। 'स्वाध्यायिकम्'इतिच्छायो कल्पयित्वा स्वा याय एव स्वा' यायिकम् इति व्यारयान तु न रुचिर, स्वाध्यायशब्दात् स्वार्थठकोऽसभवात् , निनगदेराकृतिगणत्वे प्रमाणाभावस्य मागुक्तपात् । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ । आवश्यकस्य " चत्तारि अनरायणिज्जा पन्ना, तजहा- अविणीए विगइपडिबद्धे अवि ओसरितपाहुढे माई " इति । यद्वा ' मुद्बुदिन्न' इत्यत्र माकृतत्वादकारलोप स्तेन 'सुप्ठ्वदत्त' - मितिच्छाया, तेन सृष्ठवे विनीताय अदत्त = न दत्तमित्यर्थः । विनीताय शिष्याय दत्त शास्त्रमनन्तगुणफलक भवति, यत इदमेव धर्मदानमिती त्युक्तमन्यत्र - } "पानेभ्यो दीयता विद्या नित्य चैत्रानपेक्षया । केवल वर्मबुद्धया य - दुर्मदान मचक्षते " ॥ १ ॥ इति । 'दुछुप डिच्छिय' दुष्ठु = अशोभनं यथा स्यात्तथा दुर्भावनया वा लोलुप, महाक्रोधी तथा मायाचारी शिष्य, ये चार वाचना देने योग्य नहीं है । ' 1 अथवा 'सुदिन्न' यहा पर प्राकृत के कारण अकार का लोप है इसलिये सुष्ठु -विनीत को अदत्त-न पढाया गया हो, क्योंकि विनीत शिष्य को पढानेसे अनन्त ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति होती है, इसको अन्यत्र धर्मदान भी कहा है - जैसे 'सुपात्र शिष्य को निर्लोभ होकर केवल परमार्थ बुद्धि से ज्ञान देने को 'धर्मदान' कहते हैं ॥ १ ॥ (९) दुष्ट भावसे ग्रहण किया हो, अथवा दुष्ट पुरुष से लिया गया हो। इस अतिचार को किसीने 'खुट्टदिन्न' से अलग नही माना તથા માયાચારી શિષ્ય, આ ચારને વાચના આપવી યોગ્ય નથી t अथवा 'सुट्टदिन' सलिमा आइत भाषाना र सारो सोच छे એટલા માટે સુઢુ-વિનીતને અદત્ત-નહિ ભણાવ્યે હાય કારણ કે વિનીત શિષ્યને અભ્યાસ કરાવવાથી અનન્ત જ્ઞાનાદિ ણાની પ્રાપ્તિ થાય છે એને ખીજે ઠેકાણે ધર્માદાન પણુ કહેલ છે જેવી રીતે સુપાત્ર શિષ્યને નિર્વાંભ થઈને કેવલ પરમાર્થબુદ્ધિથી જ્ઞાન આપવુ તેને ધર્માદાન” કહે છે” ॥ ૧ ॥ (૯) દુષ્ટભાવથી ગ્રહણ કર્યું હોય અથવા દુષ્ટ પુરૂષ પાસેથી લીધુ હાય આ अतिया ने "मुट्ठदिन्न" थी मसंग भान्यो नथी, अर्थात् "सुठुदिन १ - ' चत्वारोऽवाचनीयाः प्रज्ञप्तास्तयथा - अविनीतो विकृतिप्रतिबद्धोऽव्यशमितमाभृतो मायी" इति छाया ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका दुष्ठोळ प्रतीष्ठं अतिगृहीतम, 'प्रतीप्सित'- मितिच्छायायामप्ययमेवार्थ:। केचिदनयोर्दोपयोरेकत्व व्याचक्षते, तदयुक्तम् । परस्परमनपेक्षत्वात् , अत एवात्राऽतिचाराणामागोपालपालदालिकमसिद्ध चतुर्दशत्वमप्युपपद्यतेऽन्यथा त्रयोदशवापत्तेः, एतेन 'सुष्टु दत्त गुरुणा, दुष्टु प्रतीच्छित कलुपितान्तरात्मने-'ति व्याख्यानमसदिति बुद्धिमगिरनुभाव्यम् । सुष्टु-दुष्ठु-शब्दावव्ययौ त्रिलिङ्गौ च । 'अफाले कओ सज्माओ न कालोऽकालस्तस्मिन्नकाले-असमये, अर्थाद् यस्य कालिकादिश्रुतस्य योऽध्ययनसमयः प्रथममहरादिस्तमतिक्रम्य कृतो-विहितः स्वाध्याय.। 'काले न कओ सज्झाओ' काले-स्वान्यायसमये प्रथममहरादौ न कृत' स्वाध्याय इति निगदव्याख्यातमिदम् । 'असज्झाये सज्झाइय' न स्वाध्यायो यस्मिन् सोऽस्वा यायस्तस्मिन् = स्वसमुत्थपरसमुत्थभेदभिन्ने रुधिरनावोल्कापात-दिग्दाहाऽकालवर्पणादिरूपे स्वा यायित-स्वा यायः कृतः। है, अर्थात् 'सुठुदिन्न दुटुपडिच्छिय' इन दोनो को मिलाकर एक अतिचार माना है सो उचित नहीं है, क्योंकि इन दोनों का ऐसी कोई अपेक्षा नहीं है जिससे एक साय सम्बन्ध किया जाय । दोनों को जुदा २ मानने से ही चौदह अतिचार होते है नहीं तो तेरह ही रह जायँगे (१०)। अकाल में स्वाध्याय किया गया हो (११), काल दुछुपडिच्छिय" मा मन्नन की मे मतियार मानेत छेते लयित नथी, भो આ બન્નેની કોઈ એવી અપેક્ષા નથી કે જેથી એક સાથે સબંધ કરવામાં આવે અને જૂદા જૂદા માનવાથી ચૌદ અતિચાર થાય છે નહિ તે તે જ થઈ જશે (૧૦) અકાલમે १-'पडिच्छिय ' इत्यम्य 'मतीच्छित'-मितिच्छायया प्रतिगृहीतार्थकल्पन तु व्याकरणाननुसन्धानेन गजनिमीलिकैव 'इपुगमियमा छ:' (७ । ३ । ७७) इति शित्येव छादेशविधानात् । न च प्रतीच्छा सजाताऽस्येत्यर्थे तारकादित्वादितचि प्रतीच्छितमिति युक्तमेवेति सन्देग्धव्यम् , तथा सति प्रतीच्छावत एव बोधसम्भवेन 'प्रतिगृहीत'-मिति कर्मवोधकत्वानुपपत्तेरिति कृतमसारग्रन्थपर्यालोचनेन ।। २-'स्वा यायितम् -'उत्करोति तदाचष्ट' इति णिजन्तात् स्वाध्यायशब्दात् नपत्यये 'निष्ठाया सेटि' (६।४।५२) इति णिलोपः। 'स्वाध्यायिकम्'इतिच्छायो कल्पयित्वा स्वा याय एव स्वा-यायिकम्-दति व्याख्यान तु न रुचिर, स्वाध्यायशब्दात् स्वार्थठकोऽसभवात् , चिनगदेराकृतिगणत्वे प्रमाणाभावस्य मागुक्तत्वात् । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकसूत्रस्य सज्झाए न सज्झाइय' स्सा याये न स्वाध्यायः कृतः। 'तस्स' तस्योकमका रातिचारस्य 'मि' मयि मद्विपये 'दुक्ड' दुप्फत-पापम् ‘मिच्छा' मिथ्या निष्फल भवत्विति भाग्वत् ॥ ___अत्र दर्शनसम्यकत्व-समितिपञ्चक-गुप्तित्रय-रथावरपश्चक-विकलेन्द्रियत्रय 'पञ्चेन्द्रिय-पञ्चमहानत-रानिभोजन-पापस्थानाष्टादशकपट्टीसमुच्चारणपूर्वक 'मूलो त्तरगुणाना त्रयस्त्रिंशतो गुर्वाशातनाना च यो मयाऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्या मयि दुप्कृतमस्तु' इति 'इच्छामि ठामि०' इति सपूर्णी पट्टी च परिचिन्तयेत् किन्तु ध्यानवेलाया 'तस्स मिच्छामि दुक्ड' इत्यस्य स्थाने 'तस्स आलोएमि' इति चिन्तनीयम् । पर्यवसाने च नमस्कारपूर्वक कायोत्सर्गः समापनीयः । एताः सर्वा पट्टिका हिन्दीभापायामधस्ताद् विलोकनीयाः। इति श्रीविश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललित, कलापाऽऽलापक-प्रविशुद्धगयपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपित कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलाल-तिविचिताया थीश्रमणसूत्रस्य, मुनितोपण्याख्याया व्याख्याया प्रथम सामायिका ख्यमययन समाप्तम् ॥ १॥ में स्वाध्याय न किया गया हो (१२), अस्वाध्यायमे स्वाध्याय किया गया हो (१३)। स्वाध्यायसमय में स्वाध्याय नहीं किया गया ही (१४)। 'तस्स मिच्छामि दुक्कड' वह पाप मेरा निष्फल हो । ___ अस्वाध्याय के विषयमे आगे कोष्ठक दिया जाता है* સ્વાધ્યાય કર્યો હોય (૧૧) કાલમા -ધ્ય ય કર્યો ન હોય (૧૨) અસ્વાધ્યાયમાં વાધ્યાય કર્યો હોય (૧૩) સ્વાધ્યાયના સમયમાં સ્વાધ્યાય ન કર્યો હોય (૧૪) __ . "तस्स मिच्छामि दुक्कड" ते भा३ पा५ नि थामे અસ્વાધ્યાયના વિષયમાં આગળ કેઠક આપેલ છે - Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अस्वाध्याययन्त्रम् ॥ अस्वाध्याय 'द्रव्य क्षेत्र काल भाव मुनितोपणी टीका १ | उक्कावाय (उल्कापात) तारा टूटे जिस मण्डलमें एक पहर सुन न पढे । जब तक रहे एक पहर २ | दिसिदाह (दिग्दाह)| दिशा की लालिमा ३ | गजिय (गर्जित) | मेघ की गर्जना ४ / विजय (विद्युत) | विजली चमके ५ | निग्याय (निर्घात) वादल कडके याभूकम्प होवे एक पहर ८-१२-१६ पहर सर्वत्र एक पहर ६ / जूवय (यूपक) वालचन्द्र ११२।३ शुक्ल तिथि ७ | नखदित्ते (यक्षदीप्त)| आकाशमें यक्षादिका चित्र ।। जिस मण्डलमें जब तक दिखाई दे लाल या काली धूवर जर तक रहे धूमिया (धूमिका) महिया (महिका) सफेद चूंबर Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०८ भावश्यकमूत्रस्य सज्झाए न सज्झाइय' स्था"याये न स्वाध्यायः कृतः। 'तस्स' तस्योकमका रातिचारस्य 'मि' मयि मद्विपये 'दुषड' दुप्फत-पापम् ‘मिच्छा' मिथ्यानिष्फल भवत्विति भाग्वत् ।। ___अत्र दर्शनसम्यकत्व-समितिपञ्चक-गुप्तित्रय-स्थावरपश्चक-विकलेन्द्रियत्रय 'पञ्चेन्द्रिय-पञ्चमहारत-रात्रिभोजन-पापस्थानाष्टादशकपट्टीसमुच्चारणपूर्वक 'मूलोतरगुणाना त्रयस्त्रिंशतो गुर्वाशातनाना च यो मयाऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्या मयि दुप्कृतमस्तु' इति 'इच्छामि ठामि०' इति सपूणी पट्टी च परिचिन्तयेत् किन्तु ध्यानवेलाया 'तस्स मिच्छामि दुक्ड' इत्यस्य स्थाने 'तस्स आलोएमि' इति चिन्तनीयम् । पर्यवसाने च नमस्कारपूर्वक कायोत्सर्गः समापनीयः । एताः सर्वा पट्टिका हिन्दीभापायामधस्ताद् विलोकनीयाः। इति श्रीविश्वविख्यात-जगदलभ-मसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललित कलापाऽऽलापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपित कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलाल-तिविचिताया श्रीश्रमणसूत्रस्य मुनितोपण्याख्याया व्याख्याया प्रथम सामायिका ख्यमभ्ययन समाप्तम् ॥ १॥ में स्वाध्याय न किया गया हो (१२), अस्वाध्यायमे स्वाध्याय किया । गया हो (१३)। स्वाध्यायसमय में स्वाध्याय नहीं किया गया हा (१४)। 'तस्स मिच्छामि दुकड' वह पाप मेरा निष्फल हो ॥ । अस्वाध्याय के विषयमे आगे कोष्ठक दिया जाता है સ્વાધ્યાય કર્યો હોય (૧૧) કાલમાં -માધ્ય કર્યું ન હોય (૧૨) અસ્વાધ્યાયમાં સ્વાધ્યાય કર્યો હોય (૧૩) સ્વાધ્યાયના સમયમાં સ્વાધ્યાય ન કર્યો હોય (૧૪) "तस्स मिन्छामि दुकड" ते भा३ पा५ नि थामा અસ્વાધ્યાયના વિષયમાં આગળ કેઠક આપેલ છે Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका - - उस्सयससमतोओरालियशरीरे स्थानक के अदर पवेन्द्रियका जिस स्थानक में जब तकपडा रहे (उपाश्रयस्यान्तरौदारिफशरीरम् | कलेवर पडा हो | १ अपाढी २ भाद्रपदी २५ / महापुणिमा ५ (महापूर्णिमा)/३ आश्विनी ४ कात्तिकी | सब जगह । ८ पहर , ५ चैत्री श्रावण यदि १,आश्विन वदित ३. महापडिकए ५ (महाप्रतिपदः)| कात्तिक वाद १, मागशाप | सब जगह । ८ पहर बदि १,वैशाख वदि १ (५महा | पूर्णिमा केदूसरे रोज) १ मुहूर्त (आधा प्रभात १ दुपहर २ साझ३ ३४ मुहूर्त पहले का | दशवैकालि सब जगह सझा (सध्या) ४ अर्धरात्रि ४ आधा मुहूर्त | कादि न पदे पीछे का) । ॥ इति अस्वाध्याययन्त्रम् ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयउग्याय (रजउद्घात) सवासासामधूलका सूत्रन पढे छा जाना । १०० हाथ मनुष्य का । मनुष्य के हाड की अट्ठी (अस्थि) हाड मनुष्य तिर्यच का.. पच का ६०हाथ तिर्यंचका हाड होतो। अवधि १२ वर्षे । मस (मास) मास मनुष्य-तिर्यच का मनुष्य मनुष्य का १०० हाथ | का तिर्यच का ६० हाथ । ३ पहर नियंवर १०० हाथ २६० हाथ | १३ पहर लोहीमण्या १३ | सोणिय (शोणित) | सातघरों के अदर यदि | ३ कन्या प्रसव ८ अहोरात्र पुन प्रसव का तथा प्रसव' का बीचमें रस्ता न पडता हो ७ अहोरान १४ अमुइसामन्त (अशुचि सामन्त) अशुचि जहा दीखे, गध आवे. | जब तक रहे। सुसाणसामन्त चारों तरफ सौ सो । स्मशान (श्मशानसामन्त) (१००) हाथ सर्व काल , १६ | रायपडण (राजपतन) | राजाका अवसान | जहा तक उसका राज्य हो। नयाराजाबैठे तबतक - १७ | रायवुग्गह, (राजविग्रह) | राजाओं की लडाई | उपनगर नगर के समीप जब तक होवे - २८ चदोवराग (चद्रोपराग) | चन्द्रमा का ग्रहण सब जगहमें ४।८।१२ पहर आवश्यकमूत्रस्य - स्रोचराग (सूयॉपराग) | मूर्य का ग्रहण सब जगहम ।४।८।१६ पहर Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ मुनितोपणी टीका योल्यो होऊ, काल थकी पहर रात्रि गयो पीछे गाढे गाढे शब्द बोल्यो होऊ, भाव धकी रागद्वेष से बोल्यो होऊ, गुण यकी सवर गुण, दूसरी भापासमिति के विषय जो कोई पाप दोप लाग्यो होय तो देवसिय सवधी तेस्स मिच्छामि दुधड । तीसरी एपणासमिति के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोऊ, द्रव्य धकी सोले उदगमणका दोप, सोले उत्पातका दोप, दश एपणाका दोप इन बयालीश दोप सहित आहार पाणि लायो होऊ, क्षेत्र धकी दो कोश उपरात लेजाईने भोगव्यो होय काल यकी पहेला पहर को छेला पहर में भोगव्यो होऊ, भाव थकी पाच माडलाका दोप न टाल्या होय गुण यकी सवरगुण, तीसरी एपणा समिति के विषय जो कोई पाप दोप लाग्यो होऊ तो देवसिय सन्धी तस्स मिच्छामि दुक्कड ।। चोथी आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिति के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोऊ, द्रव्य यकी भाण्डोपकरण अजयणा से लीधा होय अजयणा से रख्या होय, क्षेत्र यकी गृहस्थके घर आगणे रख्या होय, काल यकी कालोकाल पडिलेणा न की होय, भाव यकी ममता मृी सरित भोगव्या होय, गुण यकी सवर गुण, चोथी समिति के विपय लो कोई पाप दोप लाग्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुक्कड ॥ ४ ॥ पाचवी उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल- सिंघाण-परिहावाणिया समिति के विपय जो कोई अतिचार लाग्यो होय ते आलोऊ, द्रव्य थकी ऊची नीची जगह परठव्यो होय, क्षेत्र यकी गृहस्थ के घर आंगणे परठव्यो होय, काल थकी दिनको विना देखे रातको विना पूजे परठव्यो होय, भावयकी जाता आवसही आवसही, न करी होय, परिठवते पहले शक्रेन्द्र महाराज की आज्ञा नहीं ली होय, थोडो पृजी ने घणो परिठव्यो होय, परठने के बाद तीनवार वोसिरे वोसिरे न किन्हो होय, आवता नि.सही निश्सही न करी होय, ठिकाणे आईने काउसग्ग न कर्यों होय, गुणथकी सवरगुण, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावश्यकभूषस्य - - -- दर्शनसम्यक्त्वादिपट्टिका दसणसमत्त परमत्यसथयो या सुदिपरमत्यसेवण वावि वावनकुदसणवजणा इयसमत्तसदहणा सम्मत्तस्स पच अडयारा पेयाला जाणियन्वा न समायरियन्या, तजहा-सका कखा विविगिच्छा परपासडपससा परपासडसयवो वा (ते म्हरा समफितरूप रत्नपदार्थ के विषय मिथ्यात्वरूप रजोमल लागो होय, तो) तस्स मिच्छामि दुक्ड । (टिप्पणी-दर्शनसम्यक्त्वम् । तत्र दर्शन जिनमताभिरोचनम् , तदेव सम्यक्त्वम् , परमार्थसस्तवो वा-परमार्थः जीवादिस्वरूपम् , तस्य सस्तवः परिचयो वोध इत्यर्थः, सुदृष्टपरमार्थ सेवना वापि, तत्र सुदृष्टैः अतीन्द्रियार्थदर्शिभिः सर्वज्ञरुपद्दिष्टः परमार्थ' जीवादिस्वरूप तस्य सेवना आसेवनम् ; व्यापनकुदर्शनवर्जना तत्र व्यापन्न-विनष्ट दर्शन-सम्यक्त्व येपा ते व्यापन्नदर्शनाः, कुदर्शनाः कुत्सित दर्शनमसद्भावनिरूपणादिरूप येपा ते कुदर्शना , तेषा वर्जना व्यापन्नकुदर्शनवर्जना, वान्तसम्यक्त्याना मिथ्यादृष्टीना च ससर्गवर्जनमित्यर्थः । इति सम्यक्त्वश्रद्धानम् । सम्यक्त्वस्य पञ्च अतिचाराः पेयाला. प्रधानानि ज्ञातव्या न समाचरितव्याः। 'पेयाल' इति प्रधानार्थको देशीय शब्दः । तद्यथा-शङ्का-जिनवचनेषु सदेहकरणम् । काक्षा-परदर्शनाभिलापरूपा। विचिकित्सा-तपासयमाराधनफल प्रति सशयः । परपापण्डप्रशसा-परधर्मप्रशसाकरणम् , परपापण्डसस्तो वा पर धर्मपरिचयकरणम् ॥) पहिली इरियासमिति के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोऊ, द्रव्य थकी छ काया का जीव जोइने न चाल्यों होऊ, क्षेत्र थकी साढातीन हाथ प्रमाणे जोइने न चाल्यो होऊ, काल थकी दिन को देखे विना रात को पूजे विना चाल्यो होऊ, भाव थकी उपयोग सहित जोईने न चाल्यो होऊ, गुण थकी सवरगुण, पहिली इरियासमिति के विषय जो कोई पाप दोष लाग्यो होय तो देवसिय सम्बन्धि तस्स मिच्छामि दुकड। दूसरी भाषासमिति के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोऊ, द्रव्य यकी-भाषा कर्कशकारी, कठोरकारी, निश्चय कारी, हिंसाकारी, छेदकारी, भेदकारी, परजीव को पीडाकारी, सावन्त. सव्वपापकारी कृडी मिश्रमापा पोल्यो होऊ, क्षेत्र धकी रस्ते चालता Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका ११३ बोल्यो होऊ, काल थकी पहर रात्रि गयाँ पीछे गाढे गाढे शब्द घोल्यो होऊ, भाव थकी रागद्वेप से बोल्यो होऊ, गुण थकी सवर गुण, दूसरी भाषा समिति के विषय जो कोई पाप दोष लाग्यो होय तो देवसिय सबधी तस्स मिच्छामि दुक्कड | तीसरी एपणासमिति के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोक, द्रव्य थकी सोले उद्गमणका दोष, सोले उत्पातका दोष, दश एपणाका दोप इन बयालीश दोप सहित आहार पाणि लायो होऊ, क्षेत्र थकी दो कोश उपरात लेजाईने भोगव्यो होय काल की पहेला पहर को छेला पहर में भोगव्यो होऊ, भाव थकी पांच माडलाका दोष न टाल्या होय गुण थकी सवरगुण, तीसरी एपणा समिति के विषय जो कोई पाप दोष लाग्यो होऊ तो देवसिय सबन्धी तस्स मिच्छामि दुक्कड | चोथी आयाण मंडमत्तनिक्खेवणासमिति के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोऊ, द्रव्य की भाण्डोपकरण अजयणा से लीधा होय अजयणा से रख्या होय, क्षेत्र की गृहस्थके घर आगणे रख्या होय, काल की कालोकाल पडिलेणा न की होय, भाव थकी ममता मृर्जा सहित भोगव्या होय, गुण थकी सवर गुण, चोथी समिति के विषय लो कोई पाप दोष लाग्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुक्कड ॥ ४ ॥ पाचवी उच्चार- पासवण खेल-जल- सिंघाण-परिद्वावाणिया समिति के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय ते आलोऊ, द्रव्य थकी ऊची नीची जगह परठच्यो होय, क्षेत्र की गृहस्थ के घर आगणे परठव्यो होय, काल थकी दिनको बिना देखे रातको बिना पूजे परठच्यो होय, भावयकी जाता आवसही आवसही, न करी होय, परिठवते पहले शक्रेन्द्र महाराज की आज्ञा नहीं ली होय, थोडो पूजी ने घणो परिठव्यो होय, परठनेके बाद तीनवार वोसिरे वोसिरे न किन्ही होय, आवता नि.सही निभ्सही न करी होय, ठिकाणे आईने काउसग्ग न कर्यो होय, गुणथकी सवरगुण, Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आवश्यक सूत्रस्य पाचवी समिति के विषय जो कोई पाप दोष लाग्यो होय तो देवसीय सम्वन्धि तस्य मिच्छामि दुक्कड ॥ ५ ॥ मनगुप्ति के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोऊ, वचन आरभ, सारभ, समारंभ, विषय, कषाय के विषय खोटो मन प्रवर्ताच्यो होय तो देवसिय सम्बन्धि तस्य मिच्छामि दुक्उ । १ । वचनगुप्ति के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोऊ, वचन आरभ, सारभ, समारंभ, राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा, भत्तकथा इन चार कथा में से कोई कथा की रोय तो देवसिय सम्बन्धि तस्स मिच्छामि दुक्कड । २ । कायागुति के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोऊ, काया आरंभ, सारभ, समारंभ, विना पूज्या अजयणापणे असावधानपणे हायपग पसारचा होय, सकोच्या होय, विना पूज्या मीतादिक को ओटींगणो (सहारो) लीधो होय तो देवसिय सम्बन्धि तस्स मिच्छामि दुवड | ३ | पृथ्वीकाय में मिट्टी, मरडो, खडी, गेरु, हिंगलू, हडताल, हडमचि, लूग, भोडल, पत्थर इत्यादि पृथ्वीकाय के जीवों की विराधना की होय तो देवसिय सम्बन्धि तस्स मिच्छामि दुक्कड ११ अकाय मे ठार को पाणी, ओस को पाणी, हीम को पाणी, घडा को पाणी, तलाव को पाणी, निवाण को पाणी, सकालको पाणी, मिश्र पाणी, वर्षाद को पाणी इत्यादि अप्पकाय के जीवों की विराधना की होय तो देवसिय सम्बन्धि तस्स मिच्छामि दुक्कड । २ । ते काय मे खीरा, अगीरा, भोभल, भडमाल, झाल, टूटती झाल, बिजली, उल्कापात इत्यादि ते काम के जीवों की विराधना की होय तो देवसिय सम्बन्धि तस्स मिच्छामि दुवड | ३ | वाकाय में उक्कलियावाय, मडलियावाय, घणवाय, घणगूजवाय, तणवाय, शुद्धवाय, सपटवाय, वींजणे करी, तालिकरी, Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका चमटीकरी, इत्यादि वाउकाय के जीवों की विराधना की होय नो देवसिय सम्बन्धि तस्स मिच्छामि दुक्कड । ४।। वनस्पति काय में हरी, तरकारी, बीज, अंकुरा, कण, कपास, गुम्मा, गुच्छा, लत्ता, लीलण, फूलण, इत्यादि वनस्पतिकाय के जीवों की विराधना की होय तो देवसिय सम्बन्धि तस्स मिच्छामि दुकड ।५। वेन्द्रिय में लट, गिंडोला, अलसिया, शख, सखोलिया, कोडी, जलोक, इत्यादि बेन्द्रिय जीवों की विराधना की होय तो देवसिय सम्बन्धि तस्स मिच्छामि दुक्ड । १।। तेन्द्रिय में कीडी, मकोडी, जू, लींख, चांचण, माकण, गजाई, खजूरीया, उधई, धनेरिया इत्यादि तेन्द्रिय जीवों की विराधना की होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुक्ड । २। । चतुरिन्द्रिय में तीड, पतगिया, मक्खी, मच्छर, भवरा, तिगोरी, कसारी, विच्छु इत्यादि चतुरिन्द्रिय जीवों की विराधना की होय तो देवसिय सम्बन्धि तस्स मिच्छामि दुक्कड । ३ । पचेन्द्रिय में जलचर, थलचर, खेचर, उरपर, भुजपर, सन्नी, असन्नी, गर्भज, समुच्छिम, पर्याप्ता, अपर्याप्ता, इत्यादि पचेन्द्रिय जीवों की विराधना की होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुक्कड ।४। पहिला महाव्रत के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोऊ, (१) इन्दथावरकाय (२) बम्भावरकाय (३) सिप्पथावरकाय (४) सम्मतीधावरकाय (५) पायावचथावरकाय (६) जगमकाय, द्रव्य से इनकी हिंसा की होय, क्षेत्र से समस्त लोक में, काल से जावजीवतक, भाव से तीन करण तीन योग से पहिला महावत के विषय जो कोई पाप दोष लाग्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुक्क्ड ॥१॥ दूसरा महाव्रत के चिपय जो कोई अतिचार लाग्यो रोय तो आलोऊ, कोहावा, लोहावा, भयावा, हासावा, क्रीडा, कुतुहलकारी, द्रव्य से झूठ बोल्यो होऊ, क्षेत्र से समस्त लोक में, काल से Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ শাবনুগয पाचवी समिति के विपय जो कोई पाप दोष लाग्यो होय तो देवसीय सम्बन्धि तस्य मिच्छामि दुधड ॥५॥ मनगुप्ति के विपय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोक, वचन आरम, सारभ, समारभ, विषय, कषाय के विषय खोटो मन प्रवर्ताव्यो होय तो देवसिय सम्बन्धि तस्य मिच्छामि दुक्छ ।१। वचनगुप्ति के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोऊ, वचन आरभ, सारभ, समारभ, राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा, भत्तकथा इन चार कथा में से कोई कथा की रोय तो देवसिय सम्बन्धि तस्स मिच्छामि दुक्कड ।२।। कायागुप्ति के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोऊ, काया आरभ, सारभ, समारभ, विना पूज्या अजयणापण असावधानपणे हाथपग पसारया होय, सकोच्या होय, विना पूज्या भीतादिक को ओटींगणो (सहारो) लीधो होय तो देवसिय सम्बन्धि तस्स मिच्छामि दुवड । ३। पृथ्वीकाय मे मिही, मरडो, खडी, गेरु, हिंगलू, हडताल, हडमचि, लूग, मोडल, पत्थर इत्यादि पृथ्वीकाय के जीवों का विराधना की होय तो देवसिय सम्बन्धि तस्स मिच्छामि दुकड ।। अप्काय में ठार को पाणी, ओस को पाणी, हीम को पाणी, घडा को पाणी, तलाव को पाणी, निवाण को पाणी, सकालका पाणी, मिश्र पाणी, वांद को पाणी इत्यादि अप्पकाय के जीवा की विराधना की होय तो देवसिय सम्बन्धि तस्स मिच्छामि दुकड ।२। तेउकाय में खीरा, अगीरा, भोभल, भडसाल, झाल, टूटती झाल, विजली, उल्कापात इत्यादि तेउकाय के जीवों की विराधना की होय तो देवसिय सम्बन्धि तस्स मिच्छामि दुक्ड । ३ । वाउकाय में उकलियावाय, मडलियावाय, घणवाय, घणगः जवाय, तणवाय, शुद्धवाय, सपटवाय, वीजणे करी, तालिकरी, Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका ११७ (२) लोभ (१०) राग (११) द्वेष (१२) कलह (१३) अभ्याख्यान (१४) पैशुन्य (१५) परपरिवाद (१६) रति अरति (१७) मायामोसो (१८) मिथ्यादनशल्य ये अट्ठारह पाप सेव्या होय, सेवाया होय, सेवता प्रत्ये भलो जाण्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुक्कड । * पाचमूलगुणमहावत के विषय जो कोई पाप दोप लाग्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिन्छामि दुधाड । इस उत्तरगुण पचक्खाण के विषय जो कोई पाप टोप लाग्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुकड । तेतीस आशातना में से गुरु की घडों की कोई भी आशातना हुई हो तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुक्ड। सूचना-इसके पीछे 'इच्छामि ठामि काउसग्ग' का पाठ योलना, इस प्रकार ये सभी पाठ मौन रहकर प्रथम अध्ययन (आवश्यक) के ध्यान में योलने का है, एवं तीसरा अध्ययन (आवश्यक) के बाद श्रमणसूत्र के पहले चौथे अध्ययन के आदि में खडे होकर स्पष्ट उच्चारणपूर्वक बोला जाता है। (इसी प्रकार प्रथम आवश्यक के व्यान मे और तीसरे आवश्यक के बाद चौथे आवश्यक के आदि में जो निन्यानवें अतिचार गृहस्थ बोलते हैं उन्हें आवश्यकसूत्र के अन्त के परिशिष्ट में देखें) इति प्रथम अध्ययन मम्पूर्ण Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _! आवश्पकमूत्रस्य जावजीव तक, भार से तीन करण तीन योग से दुसरा महाव्रत के विषय जो कोई पाप दोष लाग्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुफड ॥२॥ • तीसरा महावत के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोज, देव अदत्त, गुरु अदत्त, राजा अदत्त, गाथापति अदत्त, साधर्मि अदत्त, द्रव्य से इनकी चोरी की रोय, क्षेत्र से समस्त लोक में, काल से जावजीचतक, भाव से तीन करण तीन योगसे तीसरा महाव्रत के विषय जो कोई पाप दोप लाग्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुकड ॥ ३ ॥ - चौथा महाव्रत के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो रोय तो आलोऊ, कामराग, स्नेहराग, दृष्टिराग, देवता सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी, तिर्यच सम्बन्धी, द्रव्य से काम भोग सेव्या होय, क्षेत्र से समस्त लोक में, काल से जावजीवतक, भाव से तीन करण तीन योग से चौथा महाव्रत के विषय कोई पाप दोष लाग्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुक्कड ॥४॥ पाचा महावत के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोज, सचित्त परिग्रह, अचित्त परिग्रह, मिश्र परिग्रह, द्रव्य से छति वस्तु पर मूर्छा की होय, पर वस्तु की इच्छा की होय, सूई कुसग धातु-मात्र परिग्रह रारयो होय, क्षेत्र से सम त लोक में, काल से जावजीव तक, भाव से तीन करण तीन योग से पाचवा महाव्रत के विषय जो कोई पाप दोष लाग्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुक्डं ॥५॥ छट्ठा रात्रि भोजन के विषय जो कोई अतिचार लाग्यो होय तो आलोऊ, चार आहार असण, पाण, खाइन, साइम, सीत-मात्र, लेप मात्र, रातयासी राख्यो होय, रखायो होय, राखता प्रत्ये भलो जाण्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुबड ॥६॥ अठारह पाप (१) प्राणातिपात (२) मृपावाद (३) अदरसादान (१) मैथुन (५) परिग्रह (६) क्रोष (७) मान (८) माया Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका स्पभमजित च वन्दे, सम्भवमभिनन्दन च सुमतिं च । पद्मप्रभ सुपाच, जिन च चन्द्रप्रभ वन्दे ॥ २॥ मुविधि च पुष्पदन्त, शीतल-श्रेयास-वासुपूज्याश्च । विमलमनन्त च जिन, धर्म शान्ति च वन्दे ॥३॥ कुन्युमर च मलिं, वन्दे मुनिसुव्रत नमिजिन च । वन्देऽरिष्टनेमि पार्थ तया वर्दमान च ॥ ४ ॥ एव मयाऽमिष्टुता, विधूतरजोमलाः महीणजरामरणाः । चतुर्विंशतिरपि जिनवरा, -स्तीर्थक्रा मे प्रसीदन्तु ॥ ५ ॥ कीतित-चन्दित-महिता, य एते लोकस्योत्तमाः सिद्धाः। आरोग्यबोधिलाभ, समाश्विरमुत्तम ददतु ॥६॥ चन्द्रेभ्यो निर्मलतरा, आदित्येभ्योऽधिक प्रकाशकराः । सागरवरगम्भीराः, सिद्धाः सिद्धिं मम दिशन्तु ॥ ७ ॥ ॥ टीका ॥ लोकस्योद्घोतकरानईतचतुर्विशतिमपि केवलिनो जिनान् धर्मतीर्थकरान् कीर्तयिष्यामीति सम्बन्धः । लोक्यते-दृश्यते केवलज्ञानादित्येनेति, लोक्यते ___ इस प्रकार पहले अययन में सावद्ययोग की निवृत्तिरूप सामायिक का निरूपण करके अब चतुर्विशतिस्तव (चउवीसत्यव) रूप इस दूसरे अ ययनमें समस्त सावद्य योगों की निवृत्ति के उपदेश होनेसे समकित की विशुद्धि तथा जन्मान्तरमें भी बोधिलाम और सपूर्ण कर्मों के नाश के कारण होने से परम उपकारी तीर्थङ्करों का गुण कीर्तन करते हैं-'लोगस्स' इत्यादि ।। जो केवलज्ञानरूपी सूर्य से अथवा प्रमाण (ज्ञान) के द्वारा देखा जाय उसे लोक कहते हैं, उस पचास्तिकायरूप लोक को T એ પ્રમાણે પહેલા અધ્યયનમાં સાવદ્યાગની નિવૃત્તિ રૂપ સામાયિકનું नि३५ ४६शन वे चतुर्विशलिस्त (चउबीसत्यव) ३५ मा मीन अध्ययनमा સમસ્ત સાવદ્ય ગેની નિવૃત્તિને ઉપદેશ હેવાથી સમકિતની વિશુદ્ધિ તથા જન્માતમાં પણ ધિલાભ અને સંપૂર્ણ કર્મોના નાશક હેવાથી પરમ ઉપકારી ती शेना शु-जीतन ४३ छ " लोगस्स" त्या જે કેવળજ્ઞાનરૂપી સૂર્યથી અથવા પ્રમાણ (ન) વડે જોઈ શકાય તેને લેક” કહે છે, તે પચાસ્તિકાયરૂપ લેકને પ્રવચનરૂપી દીવા વડે પ્રકાશ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८ भावश्यकमुनस्य - - । अथ द्वितीयमध्ययनम् । ॥ इत्य प्रथमाध्ययने सावधयोगोपरमस्वरूप सामायिकमभिधाय सप्रति चतुर्विशतिस्तुतिरूपेऽस्मिन् द्वितीयेऽभ्ययने सर्वसाध्ययोगविरत्युपदेशस्य लब्ध वोधिपरिशुद्धे यो योध्युपलब्धेः प्रधानकर्मक्षयस्य च हेतुत्वेनाऽत्रसरसङ्गतेस्तीर्थकराणा गुणसङ्कीर्तनमधिक्रियते-'लोगस्से' त्यादि । लोगस्स उन्नोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे ।। अरिहते कित्तइस्स, चउवीसपि केवली ॥१॥ उसभमजिअ च वदे,सभवमभिणदण च सुमइंच। पउमप्पह सुपास, जिण च चदप्पहं वदे ॥२॥ .. सुविहि च पुप्फदत, सीयल सिजसवासुपुज च । विमलमणत च जिण, धम्म सति च वदामि॥३॥ कुथु अर चमलिं, वदे मुणिसुव्वय नमिजिण च । वदामि रिट्टनेमि, पास तह वद्धमाण च ॥४॥ एवमए अभिथुआ,विहयरयमल्ला पहीणजरमरणा। :चउवीसपि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयतु ॥५॥ कित्तिय-वदिय-महिया,जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। आरुग्गवोहिलाभ, समाहिवरमुत्तम दितु ॥६॥ चदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहिय पयासयरा । सागरवरगभीरा सिद्धा सिद्धि मम दिसतु ॥७॥ ॥ छाया ॥ लोकस्योद्योतकरान्, धर्मतीर्थकरान् जिनान् । अहंत. कीयिष्यामि, चतुर्विशतिमपि केवलिन ॥१॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका पभमजित च वन्दे, सम्भवमभिनन्दन च समति च । पद्मप्रभ सुपाच, जिन च चन्द्रप्रभ वन्दे ॥२॥ सुविधि च पुष्पदन्त, शीतल-श्रेयास-वामपूज्याश्च । विमलमनन्त च जिन, धर्म शान्ति च वन्दे ॥३॥ कुन्युमर च मलिं, वन्दे मुनिमुत्रत नमिजिन च । वन्देऽरिष्टनेमि पार्थ तथा बर्द्धमान च ॥ ४ ॥ एव मयाऽभिष्टुता, विधूतरजोमलाः प्रहीणजरामरणाः। चतुर्विंशतिरपि जिनवरा, -स्तीर्थक्रा मे प्रसीदन्तु ।। ५ ॥ कीर्तित-वन्दित-महिता, य एते लोकस्योत्तमाः सिद्धाः। आरोग्यवोधिलाभ, समाधिवरमुत्तम ददतु ॥ ६॥ चन्द्रेभ्यो निर्मलतरा, आदित्येभ्योऽधिक प्रकाशकराः । सागरवरगम्भीराः, सिद्धाः सिद्धिं मम दिशन्तु ॥ ७ ॥ ॥ टीका ॥ लोकस्योद्योतकरानईतश्चतुर्विंशतिमपि केवलिनो जिनान् धर्मतीर्थकरान् कीर्तयिष्यामीति सम्बन्ध । लोक्यते-दृश्यते केवलज्ञानादित्येनेति, लोक्यते= इस प्रकार पहले अययन में सावधयोग की निवृत्तिरूप सामायिक का निरूपण करके अब चतुर्विशतिस्तव (चउवीसत्यव) रूप इस दूसरे अ ययनमें समस्त सावद्य योगों की निवृत्ति के उपदेश होनेसे समकित की विशुद्वि तया जन्मातरमें भी बोधिलाभ और सपूर्ण कर्मों के नाश के कारण होने से परम उपकारी तीर्थङ्करों का गुण कीर्तन करते हैं- लोगस्स' इत्यादि।। जो केवलज्ञानरूपी सूर्य से अथवा प्रमाण (ज्ञान) के द्वारा देखा जाय उसे लोक कहते हैं, उस पचास्तिकायरूप लोक को એ પ્રમાણે પહેલા અધ્યયનમાં સાવધેગની નિવૃત્તિ રૂપ સામાયિકનું नि३५ ४शन ७२ व्यतुर्विशतिस्त (चउबीसत्यव) ३५ मा भी अध्ययनमा સમસ્ત સાવદ્ય ગેની નિવૃત્તિને ઉપદેશ હેવાથી સમકિતની વિશુદ્ધિ તથા જન્માતમા પણ ધિલાભ અને સંપૂર્ણ કર્મોના નાશક હેવાથી પરમ ઉપકારી तीर्थ शेना गु-जीतन रे छ " लोगस्स" त्या જે કેવળજ્ઞાનરૂપી સૂર્યથી અથવા પ્રમાણુ શાન) વડે જોઈ શકાય તેને લેક” કહે છે, તે પચાસ્તિકાયરૂપ લેકને પ્રવચનરૂપી દીવા વડે પ્રકાશ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावश्यकमूत्रस्य पतिवीक्ष्यते प्रमाणपले नेति वा लोक पञ्चास्तिकायविशिष्ट आकाशविशेषः । यदुक्त भगवत्याम्--- किमियं भते ? लोएत्ति पच्चइ ? गोयमा ? पचत्थिकाया एस ण पर. लिए लोएत्ति पचइ' इत्यादि । तस्य लोकस्य (कर्मणि पष्ठी) उद्योतनमुद्दयोतस्त कर्तुं शील येषां त उद्योतकरास्तान केवलाऽऽलोकेन प्रवचनप्रदीपेन चा निखिल्लोपकाशकानित्यर्थः। 'धर्म 'इति-दुर्गतिपतितमात्मानं धारयति-शुभस्थाने प्रापयतीति धर्म तीर्यते-पार नीयतेऽनेनेति तीर्थ-भवचनम् , धर्मप्रधान तीथे, धर्मतीर्थ, द्रव्यरूपस्य प्रवचनरूपी दीपक द्वारा उद्दयोत करनेवाले, प्राणियों को ससार के दु.खों से छुडाकर सुगति में धारण करनेवाले, धर्मरूप तीर्थ के स्थापक, रागादि कर्मशत्रुओं को जीतकर केवलज्ञान युक्त होकर विराजमान ऐसे चौबीसों श्री अरिहन्त भगवान की स्तुति करता है। यहा पर 'लोक' शब्द से पञ्चास्तिकाय का ग्रहण है और आकाश भी पचास्तिकाय का ही भेद है, तथा अलोक भी आकाश स्वरूप है अतएव 'लोक' पद से ही लोक और अलोक दोनों का ग्रहण होने से केवलज्ञान की अनन्ततामे कोई बाधा नही आसकती। કરવાવાળા, અને પ્રાણીઓને સંસારના દુખેથી છોડાવીને સુગતિમાં ધારણ કરવાવાળા, ધર્મરૂપી તીર્થના સ્થાપક, ગગ આદિ કર્મશત્રુઓને જીતી લઈને કેવલજ્ઞાનયુકત થઈને વિરાજમાન એવા ચોવીસ અરિહન્ત ભગવાનની સ્તુતિ કરૂ છું महिं “लोक" शपथी पयास्तिजयतु डर २९ छ भने माश પણ પચાસિનકાયને જ ભેદ છે તથા અલેક પણ આકાશસ્વરૂપ છે એ કારણે "लोक" पहथी सो मन मा गन्ननु भए छ, तेथी उपयशानना અનન્તતામાં કોઈ પ્રકારે હાનિ થઈ શકતી નથી १- 'लोक दर्शने' अस्मात् 'अरि च कारके सज्ञायाम् (३।३। १८) इति कणि घन् । २- कृलो हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु (३।२।२०) इति करि ट । ३- 'धुत्र धारणे' अस्मादोणादिको मन्मत्यस्तेन 'धर्मः' इति सिद्धम् । ४- 'तीर्थम्'-'तृप्लवनसन्तरणयो ' अस्मादौणादिषस्थन् 'ऋत इदावो. (७।१।१००) इतीत्वम्, 'इलि च' (८ । २। ७७) इत्युपधादीर्घ' । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका १२१ नयादेः शाक्यादिपणीतस्याधर्मप्रधानस्य च तीर्थस्य परिहारार्थ धर्मग्रहणम्, धर्मतीर्थ कर्तुं शील येपा ते धर्मतीर्थकरास्तान् । जयति अपनयति रागादिकर्मशत्रूनिति, जयति केवलज्ञानादियुक्ततया सर्वोत्कर्पण राजत इति वा 'जिनः, 'अरिहते' इति व्याख्यातोऽर्हच्छब्दार्थः, 'नमोऽरिहताण' इत्यत्र, 'चउवीस' इति स ख्यान्तरव्यवच्छेदाय, अपिशब्दोऽवधारणार्थों महाविदेहक्षेत्रस्थकेवलिभगवद्ग्रहणार्थश्च, लोकशब्देन पञ्चास्तिकायग्रहणादाकाशस्य च पञ्चास्तिकायान्तःपातिवादलोकस्याप्याकाशस्वरूपतया लोकपदेनैव लोकालोकयोहणमिति न केवलोद्योतस्यापरिमितत्वहानिः, लोकोद्दयोतकरत्वमवधिविभङ्गज्ञानिपु चन्द्रसूर्यादिप्वपि चास्त्यत उक्त 'धम्मतिन्थयरे' इति, धर्मार्थ निम्नेषु नयादिप्ववतरणाय ये तीर्थ (घट्ट-'घाट' इतिभाषापसिद्ध ) कुर्वन्ति तेष्वतिप्रसङ्गवारणाय 'लोगस्स उज्जोयगरे' इति, लोकोद्योतकरत्व धर्मतीर्थकरत्व च दर्शनान्तरमत कल्पितेष्वपि ज्ञानिपुलोक के उद्दयोतकर अवधिज्ञानी, विभङ्गजानी तथा चन्द्रसूर्यादिक भी होते हैं, अतएव उनकी निवृत्ति के लिये 'धम्मतित्थयर' पद दिया है। नदी तालाव आदि जलाशयों मे उतरने के लिये धर्मार्थ तीर्थघाट बनानेवाले भी धर्मतीर्थकर कहला सकते है, उनका यहा ग्रहण न हो इसलिये 'लोगस्स उज्जोयगरे' विशेषण दिया है, लोक के उद्दयोतकर तथा धर्मतीर्थकर अन्यमत के ज्ञानी भी हो सकते हैं, जैसा कि अन्य शास्त्रों में कहा गया है લેકમ પ્રકાશ કરનાર અવધિજ્ઞાની, વિભાગજ્ઞાની તથા ચદ્રસૂર્યાદિક પણ હેય छ । भाटे तेनी निवृत्ति ४२१. " यम्मतित्थयरे" ५६ माघेटु छे नही-तसा माह જલાશમાં ઉતરવા માટે ધર્માર્થ તીર્થ–ઘાટ બનાવવાવાળા પણ ધર્મતીર્થકર डेवाय छे तो स्वीt२ मडिंड था भाट "लोगस्स उज्जोयगरे" विशेष આપ્યું છે લેકના પ્રકાશક તથા ધર્મતીર્થકર અન્ય મતના જ્ઞાની પણ હેઈ શકે છે, જેવી રીતે અન્ય શાસ્ત્રોમાં કહ્યું છે કે १-'जिनः' 'नि अभिभवे' अस्मात् ‘नि जये' अस्माद्वा बाहुलकादौणादिको न प्रत्ययः । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० आवश्यक सूत्रस्य प्रतिवक्ष्यते प्रमाण लेनेति वा लोकः पञ्चास्तिकाय विशिष्ट आकाशविशेषः । यदुक्त भगवत्याम् किमिय भते ? लोएचि पवुचइ : गोयमा ? पचत्थिकाया एस ण पत्रतिए लोपति पवुचइ ' इत्यादि । तस्य लोकस्य ( कर्मणि षष्ठी) उद्योतनमुद्द्योतस्त कर्त्तुं शील येषां त उद्योतकरातान् केवलाऽऽलोकेन प्रवचनप्रदीपेन वा निखिललोकप्रकाशकानि त्यर्थः । ' धर्म 'इति-दुर्गतिपतितमात्मान धारयति = शुभस्थाने प्रापयतीति धर्मः तीर्यते=पार नीयतेऽनेनेति 'तीर्थमवचनम्, धर्मप्रधान तीथे, धर्मतीर्थ, द्रव्यरूपस्य प्रवचनरूपी दीपक द्वारा उद्दयोत करनेवाले, प्राणियों को ससार के दुःखो से छुडाकर सुगति में धारण करनेवाले, धर्मरूप तीर्थ के स्थापक, रागादि कर्मशत्रुओं को जीतकर केवलज्ञान युक्त होकर विराजमान ऐसे नौवीसों श्री अरिहन्त भगवान की स्तुति करता हूँ । यहा पर 'लोक' शब्द से पञ्चस्तिका का ग्रहण है और आकाश भी पचास्तिकाय का ही भेद है, तथा अलोक भी आकाश स्वरूप है अतएव 'लोक' पद से ही लोक और अलोक दोनों का ग्रहण होने से केवलज्ञान की अनन्ततामे कोई बाधा नहीं आसकती। કરવાવાળા, અને પ્રાણીને સસારના દુખાથી ડાવીને સુગતિમાં ધારણ કરવાવાળા, ધર્મારૂપી તીર્થના સ્થાપક, રાગ આદિ કશત્રુને જીતી લઈને કેવલજ્ઞાનયુકત થઇને વિરાજમાન એવા ચાવીસ અહિન્ત ભગવાનની સ્તુતિ કરૂ છુ अडि " लोक" शब्दथी चन्यास्तिअयनुं थड! अरे छे भने सामश પણ પચાસ્તિકાયને જ લે છે તથા અલેક પણ આકાશસ્વરૂપ છે એ કારણે "लोक" चहथी ०४ झोउ भने भो भन्नेनु अशु था शडे छे, तेथी ठेवत ज्ञाननी અન તતામા કઈ પ્રકારે હાનિ થઈ શકતી નથી १ - ' लोक दर्शने ' अस्मात् 'अकर्त्तरि च कारके सज्ञायाम् ( ३ | ३ | १८ ) इति कणि घञ् । " २- कृञो हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु ( ३ । २ । २० ) इति कर्त्तरि ट. | ३- 'धूञ धारणे' अस्मादीणादिको मन्प्रत्यस्तेन 'धर्म' इति सिद्धम् । ४- 'तीर्थम् ' ' नृ प्लवनसन्तरणयो' अस्मादौणादिक्स्थन् 'ऋत इद्धातो (७।१।१००) इतीत्वम्, 'हलि च' (८ । २ । ७७ ) इत्युपधादीर्घ' । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका १२१ नयादेः शाक्यादिप्रणीतस्याधर्मप्रधानस्य च तीर्थस्य परिहारार्थ धर्मग्रहणम् , धर्मतीर्थ कत्तुं शील येपा ते धर्मतीर्थकरास्तान् ।जयति अपनयति रागादिकर्मशत्रूनिति, जयति केवलज्ञानादियुक्ततया सर्वोत्कर्पण राजत इति वा 'जिनः, 'अरिहते' इति व्याख्यातोऽर्हच्छब्दार्थः, 'नमोऽरिहताण' इत्यत्र, 'चउवीस' इति सख्यान्तरव्यवच्छेदाय, अपिशब्दोऽवधारणार्थों महाविदेहक्षेत्रस्यकेचलिभगवद्ग्रहणार्थश्च, लोकशण्टेन पश्चास्तिकायग्रहणादाकाशस्य च पञ्चास्तिकायान्त:पातित्वादलोकस्याप्याकागस्वरूपतया लोकपदेनैव लोकालोकयोहणमिति न केवलोद्योतस्यापरिमितत्वहानिः, लोकोहयोतकरत्वमवपिविभङ्गज्ञानिपु चन्द्रसूर्यादिष्वपि चास्त्यत उक्त 'धम्मतिन्थयरे' इति, धर्मार्थ निम्नेषु नयादिप्ववतरणाय ये तीर्थ (घट्ट-'घाट' इतिभाषाप्रसिद्ध ) कुर्वन्ति तेष्वतिमसङ्गवारणाय 'लोगस्स उनोयगरे' इति, लोकोद्योतकरत्व धर्मतीर्थकरत्व च दर्शनान्तरमत कल्पितेष्वपि ज्ञानिपुलोक के उद्दयोतकर अवधिज्ञानी, विभङ्गज्ञानी तथा चन्द्रसूर्यादिक भी होते हैं, अतएव उनकी निवृत्ति के लिये 'धम्मतित्थयर' पद दिया है। नदी तालाव आदि जलाशयों में उतरने के लिये धर्मार्थ तीर्थघाट बनानेवाले भी धर्मतीर्थकर कला सकते हैं, उनका यहा ग्रहण न हो इसलिये 'लोगस्स उज्जोयगरे' विशेषण दिया है, लोक के उद्दयोतकर तथा धर्मतीर्थकर अन्यमत के ज्ञानी भी हो सकते हैं, जैसा कि अन्य शास्त्रों में कहा गया हैન લેકમ પ્રકાશ કરનાર અવધિજ્ઞાની, વિભાગજ્ઞાની તથા ચદ્રસૂર્યાદિક પણ હેય छ में भाट तनी निवृत्ति ४१. " यम्मतित्थयरे" ५६ मा छे नही-ताप माह જલાશમાં ઉતરવા માટે ધમર્થ તીર્થ–ઘાટ બનાવવાવાળા પણ ધર્મતીર્થંકર उपाय छ तेना स्वी२ महिनाड थवा भाट "लोगस्स उज्जोयगरे" विशेष આપ્યું છે લેકના પ્રકાશક તથા ધર્મતીર્થ કર અન્ય મતના જ્ઞાની પણ હેઈ શકે છે, જેવી રીતે અન્ય શાસ્ત્રોમાં કહ્યું છે કે १-'जिन.' 'जि अभिभवे' अस्मात् 'जि जये' अस्माद्वा पाहुलकादौणादिको नः प्रत्यय । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० आवश्यक सूत्रस्य प्रतिवक्ष्यते प्रमाण लेनेति वा लोकः पञ्चास्तिकाय विशिष्ट आकाशविशेषः । यदुक्त भगवत्याम् - किमिय भते ? लोएनि पचइ ? गोयमा ? पचत्थिकाया एस ण पत्रतिए लोपत्ति पबुचर ' इत्यादि । तस्य लोकस्य ( कर्मणि पष्ठी) उद्दयोतनमुद्द्योतस्त कर्त्तुं शील येषां त उद्योतक रास्तान् केवलाऽऽलोकेन प्रवचनप्रदीपेन या निखिललोकप्रकाशकानित्यर्थः। ‘धर्म 'इति-दुर्गतिपतितमात्मान धारयति शुभस्थाने प्रापयतीति धर्मः " तीर्यते = पार नीयतेऽनेनेति तीर्थ = प्रवचनम्, धर्मप्रधान तीर्थे, धर्मतीर्थ, द्रव्यरूपस्य प्रवचनरूपी दीपक द्वारा उद्दयोत करनेवाले, प्राणियों को ससार के दुःखों से छुडाकर सुगति में धारण करनेवाले, धर्मरूप तीर्थ के स्थापक, रागादि कर्मशत्रुओं को जीतकर केवलज्ञान युक्त होकर विराजमान ऐसे नौबीसों श्री अरिहन्त भगवान की स्तुति करता हूँ । यहा पर 'लोक' शब्द से पञ्चास्तिकाय का ग्रहण है और आकाश भी पचास्तिकाय का ही भेद है, तथा अलोक भी आकाशस्वरूप है अतएव 'लोक' पद से ही लोक और अलोक दोनों का ग्रहण होने से केवलज्ञान की अनन्ततामे कोई बाधा नहीं आसकती । કરવાવાળા, અને પ્રાણીને સસારના દુખેથી છેડાવીને સુગતિમા ધારણુ કરવાવાળા, ધર્મરૂપી તીર્થંના સ્થાપક, ગંગ આદિ કર્મ શત્રુને જીતી લઈને કેવલજ્ઞાનયુકત થઈને વિરાજમાન એવા ચેાવીસ અહિન્ત ભગવાનની સ્તુતિ કરૂ છુ महिं "लोक" शण्डथी पयास्तिअयनुं श्रद्धालु उरेसु छे भने माश પણ પચાસ્તિકાયના જ ભેદ છે તથા અલેક પણ આકાશસ્વરૂપ છે એ કારણે " लोक" पहथी ४ झोङ भने भो भन्नेनु श्रथ शडे छे, तेथी ठेव ज्ञाननी અન તતામા કોઈ પ્રકારે હાનિ થઈ શકતી નથી १ - ' लोक दर्शने ' अस्मात् 'अकर्त्तरि च कारके सज्ञायाम् ( ३ | ३ | १८ ) इति कणि घञ् । २- कृणो हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु ( ३ । २ । २० ) इति कर्त्तरि ट । ३- 'धृज् धारणे' अस्मादौणादिको मन्प्रत्यस्तेन 'धर्म ' इति सिद्धम् । ४- 'तीर्थम् ' - ' नृ प्लवनस तरणयो' अस्मादौणादिक्स्थन् 'ऋत इद्धातोः ( ७।१।१००) इतीत्वम्, 'हलि च' (८ । २ । ७७ ) इत्युपधादीर्घः । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ मुनितोषणी टीका जिनमनःपर्ययजिनच्छद्मस्थवीतरागाणा व्यवच्छेदाय। इत्यमुक्तगुणविशिष्टा अर्हन्त एव सभवन्ति नेतरे, पुनः 'अरिहते' इत्युक्तिविशेष्यत्वाभिमायेणेति केचित, वस्तुतस्त्विह तीर्थकरगुणोत्कीर्तनाध्ययने गुणोत्कीर्तनमेव लक्ष्य, तथा च तीर्थङ्कराणा ये ये गुणा येन येन शब्देन लक्ष्यन्ते तेन तेन तेपा गुणाना सकीर्चन क्रियते-इत्यष्टविधमहापातिहाहित्वगुणोत्कीर्तनाथमुकम् 'अरिहते' इति एतेनेव 'केवली' इत्यपि व्यारयात कैवल्यगुणवोधनाय तदुपादानात् , एव च पदान्तरलदहत्पदमपि गुणोत्कीर्तनायैव नतु विशेष्यत्वाय, विशेष्य तु 'धम्मतित्थयरे' इत्येव प्राप्तावसरत्वात् , तदपि यथोक्तगुणोत्कीर्तनपुरस्सरमेव, योगा-(व्युत्पत्य) 'श्रुतजिन, अवधिजिन, मन.पर्ययज्ञानजिन, तथा छद्मस्थ वीतरागो की निवृत्ति की गई है। ऊपर कहे हुए सर विशेषणों से युक्त अर्हन्त ही हो सकते हैं फिर 'अरिहते' पद जो कहा है वह विशेष्यवाचक है । अथवा इस अध्ययन में तीर्थंकरों का गुण वर्णन किया जाता है, इस अवस्था में जिन २ शब्दों से उनके जो जो गुण प्रकट हो सकते हैं उन २ शब्दों से उनका गुण वर्णन करना आवश्यक है अतएव तीर्थङ्कर अष्टमहाप्रातिहार्य के अर्ह-योग्य भी हैं, इस घातको समझाने के लिये 'अरिहते' पद् दिया है, अत• 'अर्हत्' पद भी गुण विशेषण-बाचक ही है, विशेष्यवाचक 'धम्मतित्थयरे' पद है, किन्तु उससे भी उपरोक्त कथन के अनुसार गुण का योध होता ही है, क्योंकि प्रकृति प्रत्यय के અવધિજિન, મન પર્યયજ્ઞાનજિન તથા છઘસ્થ વિતરાગની નિવૃત્તિ કહેવામાં આવી छ ६५२ डा स विशेषथा युद्धत मन्त ड के श "अरिहते" પદ જે કહેવામા આવ્યુ છે તે વિશેષ્યવાચક છે અથવા આ અધ્યયનમાં તીર્થ કરના ગુણ વર્ણન કરવામા આવે છે એ અવસ્થામાં જે જે શબ્દોથી તેમના જે જે ગુણે પ્રગટ થઈ શકે તે તે રાબ્દો વડે તેમનું વર્ણન કરવું જરૂરી છે, એ કારણથી તીર્થ४२ ममाप्रतिडायने म-यय पर छे से पातन समातवा भाटे "अरिहते" પદ આપેવુ છે અર્થાત “અત્ ” પદ પણ ગુણવિશેષણ-વાચક જ છે विष्यवाय 'धम्मतित्ययरे' ५६ छ ५२तु तनाथी पy, S५२न। ४यन अनुसारे ગુણને બંધ થાય જ છે કારણ કે પ્રકૃતિપ્રત્યયના બલથી થવાવાળા Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ आवश्यक सूत्रस्प " ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्त्तारः परम पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भर तीर्थनिकारतः ॥ १ ॥ " इति, तदुक्तरीत्या सम्भवति तद्वयात्तये 'जिणे ' इति, नहि ते जिना = रागादिशत्रुजेतारस्तदुक्त पुनरागमनादेव, यतो रागादिशत्रु जयमन्तरेण कर्मबीजा दाहादुद्भवत्येव भगाङ्कुर तदुक्तमितरत्रापि — 9 " अज्ञानपाशुपिहित, पुरातन कर्मनीजमविनाशि | उष्णजलाभिषिक्त, मुञ्चति जन्माङ्कुर जन्तो ॥ १ ॥ " इति । जिनानित्येव वाच्ये ' लोगस्स उज्जोयगरे' इत्याद्युक्तिः श्रुतजिनावधि 'धर्म तीर्थ के करने वाले ज्ञानी धर्म की हानि होते देख कर परम पद पर आरूढ होकर भी पुन समार में लौट आते हैं ॥१॥ ' उनका ग्रहण न हो इसलिये 'जिणे' विशेषण दिया है, क्यों कि रागादि शत्रु को जीते बिना कर्मबीज का नाश नहीं होता, और कर्मबीज का नाश हुए विना भवरूपी अकुर का नाश नहीं होता है, जैसा कि अन्यत्र भी कहा है ' अज्ञानरूपी मिट्टी के अन्दर पडा हुआ, प्राणी का पुराना कर्मघीज तृष्णारूप जलसे सीचा जाकर जन्मरूप अकुर को पैदा करता है ॥ १ ॥ , ' जिणे ' पद कह कर भी ' लोगस्स उज्जोयगरे ' कहने से ધર્મતીર્થના ફરવાવાળા જ્ઞાની ધર્માંની હાનિ થતી હાય તે જોઈને પરમ પદ પર આરૂઢ થઈને પણ ફરી સસારમા પાછા આવે છે ! ૧૫’ तेभनु ग्रहषु न थाय ते भाटे "जिणे" विशेषमासु छे अरब हे राजाधि શત્રુઓને જીત્યા વિના કર્માંબીજને નાશ થતા નથી, અને કબીજના નાશ થયા વિના ભવસ સારરૂપી અ કુરને નાશ થતુ નથી, જેવી રીતે ખીજા સ્થળે પશુ કહેવામા આવ્યુ છે કે “ અજ્ઞાનરૂપી માટીની અંદર પડેલા પ્રાણીના પુરાણા ક બીજ તૃખ્સા રૂપ જલથી સિંચન પામીને જન્મરૂપ આ કરને ઉત્પન્ન કરે છે. ૧૫ " जिणे" यह अद्धीने "लोगस्स उज्जोयगरे" अहेवाथी श्रुतनिन, Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ मुनितोपणी टीका जिनमनापर्ययजिनच्छद्मस्थवीतरागाणा व्यवच्छेदाय। इत्थमुक्तगुणविशिष्टा अर्हन्त एव सभवन्ति नेतरे, पुनः 'अरिहते' इत्युक्निविशेष्यत्वाभिमायेणेति केचित, वस्तुतस्त्विह तीर्थकरगुणोत्कीर्तना-ययने गुणोत्कीर्तनमेव लक्ष्य, तथा च तीर्थङ्कराणा ये ये गुणा येन येन शब्देन लक्ष्यन्ते तेन तेन तेपा गुणाना सकी न क्रियते-इस्पष्टविधमहापातितार्याहत्त्वगुणोत्कीर्तनाथमुकम् 'अरिहते' इति एतेनैव 'केवली' इत्यपि व्याख्यात कैवल्यगुणवोधनाय तदुपादानात् , एव च पदान्तरवदईत्पदमपि गुणोत्कीर्तनायैव नतु विशेष्यत्वाय, विशेष्य तु 'धम्मतित्ययरे' इत्येव प्राप्तावसरत्वात् , तदपि यथोक्तगुणोत्कीर्तनपुरस्सरमेव, योगा-(व्युत्पत्य) 'श्रुतजिन, अवधिजिन, मन पर्ययज्ञानजिन, तथा छमस्थ वीतरागों की निवृत्ति की गई है। ऊपर कहे हुए सब विशेषणों से युक्त अर्हन्त ही हो सकते हैं फिर 'अरिहते' पद जो कहा है वह विशेष्यवाचक है । अथवा इस अध्ययन में तीर्थकरों का गुण वर्णन किया जाता है, इस अवस्था में जिन २ शब्दों से उनके जो जो गुण प्रकट हो सकते हैं उन २ शब्दों से उनका गुण वर्णन करना आवश्यक है अतएव तीर्थङ्कर अष्टमहामातिहाय के अई-योग्य भी हैं, इस यातको समझाने के लिये 'अरिहते' पद दिया है, अत 'अहंत्' पद भी गुण विशेषण-बाचक ही है, विशेष्यवाचक 'धम्मतित्थयरे' पद है, किन्तु उससे भी उपरोक्त कथन के अनुसार गुण का बोध होता ही है, क्योंकि प्रकृति प्रत्यय के અવધિજિન, મને પર્યયજ્ઞાનજિન તથા છદ્મસ્થ વીતરાગની નિવૃત્તિ કહેવામાં આવી छ ०५२ ४ा सविशेषोथी युत मत छ । “अरिहते" પદ જે કહેવામાં આવ્યું છે તે વિશેષ્યવાચક છે અથવા આ અધ્યયનમાં તીર્થકરોના ગુણ વર્ણન કરવામા આવે છે એ અવસ્થામાં જે જે શબ્દોથી તેમના જે જે ગુણે પ્રગટ થઈ શકે તે તે શબ્દ વડે તેમનું વર્ણન કરવું જરૂરી છે, એ કારણથી તીર્થ ४२ समाप्रतिकार मह-याय पर छे से पातन समजा भाटे "अरिहते" પદ આપેલું છે અર્થાત “અત્ ” પદ પણ ગુણ-વિશેષણ-વાચક જ છે विशेभ्यपाय 'धम्मतित्यय' ५४ छ ५२तु तनाथी पy, 6परना ४थन अनुसारे ગુણને બોધ થાય જ છે કારણ કે પ્રકૃતિ પ્રત્યયના બલથી થવાવાળા Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२४ आवश्यकमूत्रस्य र्थपरित्यागे प्रमाणाभावात् । अस्तु पाऽहत एक विशेष्यत्व तीर्थकरपर्यायवाद , न वय तत्राऽऽनहिलाः, किन्तु पर्यायत्वेऽप्यईत्तीर्थकरकेवलिनामुपादान तत्तच्छन्दसामर्थ्यगम्यार्थप्रदर्शनार्थमेवेत्येव केवल ब्रूमः । अब केचित्-ननु सम्भाव्यभिचाराभ्या स्याद्विशेषणमर्थवत्-यथा नीलो घटः, कृष्णा गौरित्यादिपु, सम्भवव्यभिचाराभावे विशेषणमनर्थक-यथा शीतोऽनलः, श्यामो भ्रमर इत्यादिपु, ततधात्र केवलिन इति धर्मतीर्थकरविशेषणश्यामो घलसे होनेवाले अर्थका त्याग करना न्यायविरुद्ध है, 'केवली' पदके देनेका भी यही तात्पर्य समझना चाहिये। ___ यहां पर शका होती है कि-'विशेषण' सभव अथवा व्यभिचार होने पर दिया जाता है, जैसे-'नीले घडे को लाओ' यहा पर घडे का नीला होना सभव भी है, और यदि केवल 'घडेको लाओ' ऐसा कहते हैं तो काले पीले आदि घडों का व्यभिचार भी है, इसलिए यहा 'नीला' विशेषण देना उचित है। और जहा पर सभव नथा व्यभिचार न हो वहा विशेषण का देना व्यर्थ होता है, जैसे 'ठढी अग्नि' यहा अग्नि में ठढापन सभव नहीं है, ऐसे ही 'काला भौरा' यहा पर मारे में कालेपन के सिवाय दुसरे वर्ण का व्यभिचार नहीं है, मर्थना त्या ४५ त न्यायवि३५ छ, "केवली" ५६ भापपार्नु ४२ पy ઉપર પ્રમાણે સમજી લેવું જોઈએ અહિં એક શકા થવા સંભવ છે કે વિશેષણ. સભવ અથવા વ્યભિચાર થતે હેય તે સ્થળે આપવામાં આવે છે, જેવી રીતે કે “નીલા ઘડાને લાવે” અહિં ઘડાનું નીલા લેવા પશુ સભવિત છે, અને જે માત્ર “ઘડાને લાવે એ પ્રમાણે કહે તે કાળે, પળે આદિ ઘડાઓને વ્યભિચાર પણ છે એટલા માટે અહિં “નીલે” વિશેષણ આપ્યું તે ઉચિત છે અને જ્યાં આગળ રસ ભવ તથા વ્યભિચાર થતું નથી ત્યા વિશેષણ આપવું તે વ્યર્થ થાય છે જેવી રીતે કે “શીતલ અગ્નિ” અહિં અગ્નિમાં શીતલતાને સંભવ નથી, તેવી જ રીતે કાલા ભમરા” અહિં ભમરામા કાળાપણ વિના બીજા રગને વ્યભિ ચાર નથી એટલા માટે એવા વિશેષણે આપવા વ્યર્થ છે તે કારણથી Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ मुनितोपणी टीका भ्रमर इतिवदितरव्यावर्तकस्वाभावादपार्थम् , धर्मतीर्थकराणा केवलित्वाव्यभिचारादित्याशक्य-'केवलिन एव यथोक्तस्वरूपा वर्मतीर्थकरा नान्ये' इति नियमादर्थत्वेन स्वरूपज्ञानायेद विशेषणमित्याहुः । कीर्तयिष्यामि=अनुपद स्तोष्यामि, वस्तुतस्तु आपत्वादत्र लट्स्थानिको लूट, स्तौमीत्यर्थः । अपिः पूर्वापरसमुच्चया (सड्ग्रहा)-र्थः । 'उसभ' इति । ऋपभादीना सर्वेपा द्वितीयान्ताना वन्दनक्रिययाऽन्वय., 'उसम' इति ऋपभवृषभशब्दयोरुभयोरपि भवति, ततश्च गत्यर्थधातूना ज्ञानार्थत्वात् , ऋपति-जानाति लोकालोकस्वरूपमिति, पति-गच्छति परम पदमिति, शरणैपिभिर्भव्यजनैक्रप्यते-पाप्यते इति वा ऋपभः । पक्षे वर्षति पूरयति भव्यजनमनोरथानिति, इसलिये ऐसे विशेषणों का देना व्यर्थ है, अतएव धर्मतीर्थकर को 'केवली' विशेषण देना भौरे के काले विशेषण के समान व्यर्थ है, क्यों कि धर्मतीर्थकर केवली ही होते हैं । ___इसका उत्तर यह है कि-'केवली होने पर ही तीर्थङ्कर धर्मतीर्य के प्रवर्तक होते है छद्मस्थ अवस्था में नही, इस बात को स्पष्ट करने के लिये 'केवली' विशेषण दिया गया है ॥ १॥ इस प्रकार चौवीस तीर्थङ्करों की स्तुति करने की सामान्य रूपसे प्रतिज्ञा करके नामग्रहणपूर्वक विशेषरूप से स्तुति करते हैं, जो लोकालोक के स्वरूप को जाननेवाले, परम पदको प्राप्त होनेवाले भव्य जनों के आधारभूत तथा उनके मनोरथो को पूरा करધર્મતીર્થકરને કેવલી વિશેષણ આપવું તે ભમરને કાળાપણાનું વિશેષણ આપવા પ્રમાણે વ્યર્થ છે, કેમ કે ધર્મતીર્થકર કેવલી જ હોય છે આ શકાને ઉત્તર એ છે કે –“કેવલી થયા પછી જ તીર્થંકર ધર્મતીર્થના પ્રવર્તક હિઈ શકે છે, છસ્થ-અવસ્થામાં થઈ શકતા નથી, એ વાતને સ્પષ્ટ કરવા भाटे Bel" विशेष आयु छ ॥३॥ એ પ્રમાણે વીસ તીર્થ કરેની સ્તુતિ કરવાની સામાન્યરૂપની પ્રતિજ્ઞા કરીને નામગ્રહણપૂર્વક વિશેષરૂપથી સ્તુતિ કરે છે કે જે કાલેકના સ્વરૂપને જાણવા વાળા, પરમ પદને પ્રાપ્ત થવાવાળા ભવ્યજીને આધારભૂત તથા તેમના મનેરને પૂર્ણ કરવાવાળા, ધર્મરૂપી બગીચાને પ્રવચનરૂપ જલનું સીંચન Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२४ आवश्यकत्रस्य र्थपरित्यागे प्रमाणाभावात् । अस्तु पाहत एन विशेष्यत्र तीर्थकरपर्यायवाद , न वय तत्राऽऽग्रहिलाः, किन्तु पर्यायत्वेऽप्यईतीर्थकरकेवलिनामुपादान तत्तच्छन्द सामर्थ्यगम्यार्थप्रदर्शनार्थमेवेत्येव केवल व्रमः । अत्र केचित्-ननु सम्भवव्यभिचाराभ्या स्याद्विशेषणमर्थवत्-यथा नीलो घटः, कृष्णा गौरित्यादिपु, सम्भवव्यभिचाराभावे विशेषणमनर्थक-यथा शीतो ऽनलः, श्यामो भ्रमर इत्यादिपु, ततश्चात्र केवलिन इति धर्मतीर्थकरविशेषण श्यामो पलसे होनेवाले अर्थका त्याग करना न्यायविरुद्ध है, 'केवली' पदके देनेका भी यही तात्पर्य समझना चाहिये । ____ यहां पर शका होती है कि-'विशेषण' सभव अथवा व्यभिचार होने पर दिया जाता है, जैसे-'नीले घडे को लाओ' यहा पर घडे का नीला होना सभव भी है, और यदि केवल 'घडेको लाओ' ऐसा कहते हैं तो काले पीले आदि घडों का व्यभिचार भी है, इसलिए यहा 'नीला' विशेषण देना उचित है। और जहा पर सभव तथा व्यभिचार न हो वहा विशेषण का देना व्यर्थ होता है, जैसे 'ठढी अग्नि' या अग्नि में उढापन सभव नही है, ऐसे ही 'काला भौरा' यहा पर भौरे में कालेपन के सिवाय दुसरे वर्ण का व्यभिचार नहीं है, मर्थन। त्या ४ ते न्यायवि३८ छ, "केवली" ५६ मापातु ॥२६१ पY ઉપર પ્રમાણે સમજી લેવું જોઈએ અહિં એક શક થવા સંભવ છે કે વિશેષ, સભવ અથવા વ્યભિચાર થતું હોય તે સ્થળે આપવામાં આવે છે, જેવી રીતે કે –“નીલા ઘડાને લાવો’ અહિં ઘડાનુ નીલા હોવા પણ સંભવિત છે, અને જે માત્ર “ઘડાને લાવે એ પ્રમાણે કહે તે કાળે, પીળ આદિ ઘડાઓને વ્યભિચાર પણ છે એટલા માટે અહિં “નીલ” વિશેષણ આપ્યું તે ઉચિત છે અને જ્યાં આગળ રાસ તથા વ્યભિચાર થતું નથી ત્યા વિશેષણ આપવું તે વ્યર્થ થાય છે જેવી રીતે કે “શીતલ અગ્નિ” અહિં અગ્નિમાં શીતલતાને સંભવ નથી, તેવી જ રીતે કાલા ભમરા” અહિં ભમરામ કાળાપણુ વિના બીજા ૨ગને વ્યભિ ચાર નથી એટલા માટે એવા વિશેષણે આપવા વ્યર્થ છે તે કારણથી Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका १२५ भ्रमर इतिवदितरव्यावर्तकत्वाभावादपार्थम् , धर्मतीर्थकराणा केवलित्वाव्यभिचारादित्याशक्य-'केवलिन एव यथोकस्वरूपा धर्मतीर्थकरा नान्ये ' इति नियमादर्थत्वेन स्वरूपज्ञानायेद विशेषणमित्याहुः ।। कीर्तयिष्यामि अनुपद स्तोष्यामि, वस्तुतस्तु आर्पत्यादत्र लट्स्थानिको लूट, स्तौमीत्यर्थ । अपिः पूर्वापरसमुच्चया (सड्ग्रहा)-र्थः । 'उसम' इति । ऋपभादीना सर्वेपा द्वितीयान्ताना वन्दनक्रिययाऽन्वयः, 'उसभ' इति ऋपभवृपभशब्दयोरुभयोरपि भवति, ततश्च गत्यर्थधातूना ज्ञानार्थत्वात् , ऋपति=जानाति लोकालोकस्वरूपमिति, मपति-गच्छति परम पदमिति, शरणैपिभिर्भव्यजनै प्यते-पाप्यते इति वा ऋपभः । पक्षे वर्पति-पूरयति भव्यजनमनोरथानिति, इसलिये ऐसे विशेषणों का देना व्यर्थ है, अतएव धर्मतीर्थकर को 'केवली' विशेषण देना भौरे के काले विशेषण के समान व्यर्थ है, क्यो कि धर्मतीर्थकर केवली ही होते हैं। ___इसका उत्तर यह है कि-'केवली होने पर ही तीर्थडूर धर्मतीर्थ के प्रवर्तक होते हैं छद्मस्य अवस्था मे नहीं, इस बात को स्पष्ट करने के लिये 'केवली' विशेपण दिया गया है ॥१॥ इस प्रकार चौवीस तीर्थङ्करों की स्तुति करने की सामान्य रूपसे प्रतिज्ञा करके नामग्रहणपूर्वक विशेषरूप से स्तुति करते हैं, जो लोकालोक के स्वरूप को जाननेवाले, परम पदको प्राप्त होनेवाले भव्य जनों के आधारभूत तथा उनके मनोरथो को पूरा करધર્મતીર્થકરને કેવલી વિશેષણ આપવું તે ભમરાને કાળાપણાનું વિશેષણ આપવા પ્રમાણે વ્યર્થ છે, કેમ કે ધર્મતીર્થકર કેવલી જ હોય છે આ શકાને ઉત્તર એ છે કે –“કેવલી થયા પછી જ તીર્થકર ધર્મનીર્થના પ્રવર્તક હોઈ શકે છે, છવસ્થ-અવસ્થામાં થઈ શકતા નથી, એ વાતને સ્પષ્ટ કરવા भाटे पहा" विशेष माघेदु ॥३॥ એ પ્રમાણે ચોવીસ તીર્થ કરેની સ્તુતિ કરવાની સામાન્યરૂપની પ્રતિજ્ઞા કરીને નામગ્રહણપૂર્વક વિશેષરૂપથી સ્તુતિ કરે છે કે જે લેકાલકના સ્વરૂપને જાણવા વાળા, પરમ પદને પ્રાપ્ત થવાવાળા ભવ્યજીને આધારભૂત તથા તેમના મનેને પૂર્ણ કરવાવાળા, ધર્મરૂપી બગીચાને પ્રવચનરૂપ જલનું સીંચન Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ आवश्यक सूत्रस्य • 9 लस्य मभा पद्ममभा, पद्ममभेन मभा तत्तुल्यकोमलाङ्गत्वात् यस्य स", यद्वा पद्मपु = कमलेषु प्रभा यस्यासौ पद्मप्रभः = सूर्यस्तद्वद्विमलके ज्योतिषा भासमानत्वेन गौणलक्षणानखेन रूपकल्पनया, अथवा गर्भस्थस्यास्य मातु पद्मशग्यादोहदः सञ्जातो यो देवेन पूरितस्तदुत्तरमसौ माभवदिति पद्मप्रभस्तम् एण्वन्त्यव्याख्याने पद्मोत्तर = पद्मशग्या दोहदोत्तर मभवतीति व्युत्पत्तिः (६) । ' सुवास ' सुशोभनौ पार्श्वे यस्य सः, यद्वा गर्भस्थस्यास्य माता सुपार्श्व शोभनपार्श्ववती जाता तयोगात् सुपार्श्वस्तम् (७) । ' जिण जिनम् । व्याख्यातो जिनपदार्थः । सुमति के कारण जिनका 'सुमति' नाम रक्खा श्री सुमतिनाथ भगवान को । ५ । गया उन पद्म-कमल के समान प्रभा - कान्ति-वाले, अथवा पद्मों-कमलों में प्रभा - किरण है जिसकी वह हवा पद्मप्रभ अर्थात सूर्य, उसके समान कान्तिवाले, या जब भगवान गर्भ में थे तो इनकी माता को पद्मशय्या का दोहद (दोहला) हुआ, जिसको देवताने पूरा किया इस कारण पद्मप्रभ नामवाले भगवान को । ६ । देखने में सुडौल है पार्श्व (पसवाडे) जिनके, अथवा जब ये गर्भ में थे तो इनकी माता गर्भ के प्रभाव से सुन्दर पार्श्व ( पसवाडे) वाली हुई, इसलिये गुणनिष्पन्न नामवाले श्री सुपार्श्वनाथ को ॥ ७ ॥ સુમતિના કારણે જેનું ‘સુમતિ” નામ રાખવામાં આવ્યુ એવા શ્રી સુમતિનાથ ભગવાનને !! પ !! पद्म-उभस समान अला- अन्तिवाणा, अथवा पद्मो भयोभा प्रला-रिशु છે જેની તે થયે પદ્મપ્રભ અર્થાત્-સૂ, તેના સમાન કાન્તિવાળા, અથવા જ્યારે, ભગવાન ગર્ભમા હતા ત્યારે તેની માનાને પદ્મશાના દાહલેા થયેકા જે દેવતાએ પૂર્ણ કર્યાં તે કારણથી “પદ્મપ્રભ” નામવાળા ભગવાનને ૫૬ u જોવામા પાર્શ્વ (પડખાના ભાગ) સુડાળ– સરખા છે જેને અથવા જ્યારે તે ગમા હતા ત્યારે ગર્ભના પ્રભાવથી જેની માતા થયા એટલા માટે ગુણુ-નિષ્પન્ન નાવાળા શ્રી સુપાર્શ્વનાથ ને ॥ છ ॥ સુદર પાર્શ્વવાળા १- पद्मभ - 'सप्तम्युपमानपूर्वपदस्य बहुव्रीहिरुत्तरपदलोपश्च वक्तव्यः ' इति वचनात्समास उत्तरपदलोपश्च खरमुखोष्ट्मुखादिवत् । २- पद्मप्रभः --- ' शाकपार्थिवादित्वात् 'उत्तर' शब्दस्य लोपे पृषोदरादित्वात्सिद्धि ।। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनितोपणी टीका 'चदप्पह' चन्दते-आहादते इति चन्द्रस्तस्य प्रभा चन्द्रप्रभा, चन्द्रप्रमेव ममा विशुद्धलेश्यत्वाद् यस्यासौ, यद्वा गर्भावस्थायामस्य जनन्याचन्द्रप्रभापानदोहदोऽभवत्तत्सम्बन्धाचन्द्रप्रभस्तम् "वदामि वन्दे (८)। 'मुविहि'सुविधिमुशोभनो विधिरमुष्ठान यस्य स', यद्वा यदर्शनस्मरणादिना लोकाः सुविधयःमुभाग्या भवन्ति स', अथवा गर्भस्थस्यास्य जननी सर्वेषु अभयदान-सुपात्रदानम्रियमाणपाणिपरिमोचनादिविधिपु सातिशया शोभना कुशला जाताऽतस्तयोगात्सुविधिस्त, 'पुष्फदत' मुत्रियरेवेदमपर नाम विशिष्य परिचयार्थमुपनिवद्धम् , स्वच्छत्वान्मनोहरत्वाच पुष्पाणीव, यद्वा नामैकदेशेन नामग्रहणात् पुष्पपदेन तत्कुमलाग्रस्य ग्रहणात् पुष्पकुमलायाणीव दन्ता यस्यासौ पुष्पदन्तस्तम् (९)। 'सीयल तथा चन्द्रमा के समान कान्तिवाले, या जय ये गर्भ में थे तो इनकी माता को चन्द्रप्रभापान का दोहद हुआ, इस कारण गुणनिष्पन्न नाम वाले श्रीचन्द्रप्रभ भगवान को ॥ ८॥ अच्छे अनुष्ठान वाले, या जिनके दर्शन स्मरण आदि से प्राणी पूर्ण भाग्यवान होते है ऐसे, अथवा जर ये गर्भ में थे तो इनकी माता अभयदान, सुपात्रदान, मरते हुए प्राणियों को बचाना. आदि धर्म की सभी विधियों में विशेपतया निपुणा हुई, इस कारण सुविधिनाय और पुष्प के समान स्वन्उ दाँतों की छटावाले होने से पुष्पदन्त भी नाम है जिनका ऐसे भगवान को ॥९॥ તથા ચદ્રસમાન કાતવાળા અથવા જ્યારે તેઓ ગર્ભમાં હતા ત્યારે તેમની માતાને ચક્રપાન કરવાનું દેહલે થયેલ તે કારણથી ગુણ-નિષ્પન્ન નામ વાળા શ્રી ચંદ્રપ્રભ ભગવાનને કે ૮ સારા અનુષ્ઠાનવાળા, અથવા જેના દર્શને સ્મરણ આદિથી પ્રાણી પૂર્ણ ભાગ્યવાન થાય છે એવા, અથવા જયારે તેઓ ગર્ભમાં હતા ત્યારે તેમની માતા સર્વવિધિઓ–કચેમા વિશેષ નિપુણ થયા આ કારણથી “સુવિધિનાથ” અથવા પુષ્પસમાન સ્વરછ દાતની પતિવાળા હેવાથી “પુષ્પદન્ત” નામ પણ છે જેનું सेवा भावानन ॥६॥ १- 'पदामि' अत्र मानतत्वात्परस्मैपदम् । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावश्यकमूत्रस्य - - - - सिन्जस-पासपुज्ज'च' शीतलश्च श्रेयासच वासुपूज्यश्चेत्येतेपामितरेतरयोगद्वन्द्वे शीतल-श्रेयास-पासपूज्यास्तान् । तेषाधिव्यापिनसन्तापकलापनितान्तलान्त स्वान्तजन्तुजातकृते चन्द्रचन्दनादितोऽप्यपूर्षशीतलस्वात् , यद्वा शीतलशब्दस्य गुण वाचकलात् शीत-शैत्य कपायपशमनस्वरूप लाति-आदत्त इति, अथवाऽस्य भग वतः पितुरेकदाऽतितीतः पित्तवरदाहः सजातः स विविधैरुपवारै कृतैरपि न शान्ति प्राप्तः,-गर्भगते त्वस्मिन् भगवति देव्याः करकमलस्पर्शमात्रेणैवोपशान्त इति मातद्वारा पिज्वरदाहपशमनहेतुत्वात् शीतलस्तम् (१०)। सिज्जसश्रेयासम् सफलभुवनहिताधायकत्वादतिशयेन प्रशस्या-श्रेयान् , यद्वा श्रेयासाचसौ-स्कन्धौ यस्य सः, अथवैतत्पितू राज्ञः पिपरम्परामाप्ताया कस्याश्चिच्छय्याया आधि-व्याधि से होने वाले समस्त सन्तापों को मिटाकर प्राणियों को चन्द्रमा चन्दन आदि से भी अधिक शीतल शान्ति को, या कषाय के उपशमरूप शीतलता को देने वाले, अथवा जब ये गर्भ में थे तो इनकी माता के कर-कमल का स्पर्श होते ही पिता का असाध्य दाज्वर इनके प्रभाव से उपशान्त हुआ इस कारण 'शीतलनाथ' नाम वाले भगवान को ॥१०॥ • तीन लोक के हित करने वाले, अथवा इनके पिताके यहाँ पितृपरम्परासे प्राप्त एक शय्या देवाधिष्ठित थी, जिससे उस पर * આધિ-વ્યાધિથી થવાવાળા તમામ સતાપને નિવારણ કરીને પ્રાણીઓને ચન્દ્રમા ચદન વિગેરેથી અધિક શીતલ શાતિને અથવા તે કષાયની ઉપશમતા રૂપ શીતલતા આપવાવાળા અથવા જ્યારે તેઓશ્રી ગર્ભમાં હતા ત્યારે તેઓના પ્રભા વથી તેમની માતાના કર કમલને સ્પર્શ થતાજ તેઓના પિતાને અસાધ્ય દાહ વર ઉપશાત થયે એ કારણથી “શીતલનાથ” નામવાળા ભગવાનને # ૧૦ ll ત્રણ લેકનું હિત કરનારા, અથવા તેમના પિતાને ત્યાં પિતૃપરંપરાથી પ્રાપ્ત એક શખ્યા દેવાધિષ્ઠિત હતી, જેથી તે પાયા ઉપર બેસવાવાળાને ઉપસર્ગ થ હતા, । १-'सीयल वासुपुज्ज च' अत्र सूने आपत्तादेववचनम्, यहा समाहाराभिमायेण । २-- प्रशस्यशब्दादविशयेऽर्थे 'द्विवचनविभज्योपपदे तरवीयमुनौ' (५ । ३।५७) इवीयमुनि 'पशस्यस्य श्रा' (५।३।६०) इति प्रशस्यशब्दस्य श्रादेशः, श्रेयासेत्यदन्तत्व तु पृपोदरादित्वात् । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका १३१ देवाधिष्ठितत्वेन यः कथन पुरोपविशति तमुपसर्गों वावते स्म, गर्भस्थे त्वस्मिन् भगवति मातुस्तच्छग्योपवेशदोहदे जाते तदुपर्युपवेशमात्रेणैव देवोपद्रवो विनष्ट इतीदृशश्रेयो मूलत्वाच्छ्रयासम्तम् ' ( ११ ) । ' वासुपूज्य' वसवः = मुनयः - सानवस्त एव वासवस्तेपा पूज्यो वासुपूज्यः, यद्वा वसूनि रत्नानि तानि चात्र सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्राणि, तान्येव वानि, तत्प्रकाशकत्वात्पूज्यो वासुपूज्यः, अथवा गर्भस्थेऽस्मिन् भगवत्यस्य जननी वासवेन = देवेन्द्रेण भृश वन्दन- नमस्काराभ्या पूजिताऽभूत्तेन वासुपूज्यस्तम् (१२) । 'विमल' विगत=सर्वथा नष्ट मल= कमलं यस्य यद्वा विशेषेण मलते=चारयति दुर्गतिगर्त्ते पिपतिषून् भव्यान् यः बैठनेवाले को उपसर्ग होता था, किन्तु भगवान गर्भ में थे त उस शय्या पर उनकी माता के वैठते ही देवकृत उपसर्ग नष्ट हो गया, इस प्रकार श्रेय (कुशल) करने वाले श्री श्रेयासनाथ को ॥ ११ ॥ मुनियों के पूज्य, या रत्नत्रयरूप वसु-सम्पत्ति के प्रकाशक अथवा जन ये गर्भ मे थे तब इनकी माता इन्द्र के द्वारा वारवार सम्मानित हुई, ऐसे यथार्थ नामवाले श्री वासुपूज्य भगवान को ॥ १२ ॥ जिनका कर्ममल सर्वथा नष्ट हो चुका है, या जो दुर्गति में गिरते हुए प्राणियों को धारण करनेवाले, निर्मल स्वरूप वाले, પરન્તુ ભગવાન ગર્ભ મા હતા ત્યારે તે શય્યા પર તેમની માતા પાતે બેઠા કે તુરતજ દેવતૃત ઉપસાઁ નાશ થઇ ગયા, એ પ્રમાણે શ્રેય ( કુશળ ) કરવાવાળા " श्री श्रेयासनाथ " ू ॥ ११ ॥ મુનિના પૂજ્ય, અથવા રત્નત્રય રૂપ વસુ-સ પત્તિના પ્રકાશક, અથવા જ્યારે તેએ ગર્ભમાં હતા ત્યારે તેમની માતા ઈન્દ્ર વડે વારવા સન્માન પામી એવા યથાર્થ નામવાળા "L શ્રી વાસુપૂજ્ય " भगवानने ॥ १२ ॥ જેના કમલ સથા નષ્ટ થઈ ગયા, અથવા જે ક્રુતિમા પડતા પ્રાણીઓને ધારણ કરવાવાળા, નિમલ સ્વરૂપવાળા, અથવા ગર્ભમા માવવા १- 'श्रेयासः ' सिद्धिरुक्तैव निरुतवृत्या वा नोव्या । २ - ' मु. = साधुः' इति शब्दरत्नावलीति शब्दकल्पद्रुम । ३ - ' वासुपूज्य, ' -अस्मिन् व्युत्पत्तित्रयेऽपि नाशन्दसिद्धि पृपोदरादित्वात् ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - १३२ आवश्यकत्रस्य स विमलः, अथवा विमलस्वरूपत्वाद्विमला, अपि वा गर्भस्थस्यास्य जनन्यास्त नुमतिश्च विमला सञ्जाता तद्योगाद्विमरस्तम् (१३) । 'अणत' मोक्षाधिकर णकनिरवधिस्थितिकलात् अविद्यमानोऽन्तो नाशो यस्यासावनन्तः, या अनन्तानि ज्ञानदर्शनादीनि तहेतुखादनन्तः, कारणे कार्योपचाराद , अपि वाऽनन्त स्वरूपलादनन्तः । अथवा गर्भस्थस्यास्य भगवतो माता स्वप्नेऽनन्ताकारा मालामद्राक्षीतेनानन्तस्तम् (१४) । 'जिण' जिनम्, मागव्यारयातो जिनशब्दार्थः । 'धम्म' दुर्गतौ प्रपततो जन्तून् धारयतीति धर्मः, यद्वा कारणे कार्योपचाराच्छ्रुतचारित्रादिरूपस्य धर्मस्य मरूपतया धर्मस्वरूपत्वावा, अथवा गर्भस्थेऽस्मिन् भगवति जनन्या दानादिरूपे धर्मे दृढा मतिरुदिता तोगार्मस्तम् (१५)। अथवा गर्भ मे आने पर जिनकी माता की बुद्धि निर्मल हो गई, ऐसे यथानाम तथागुण वाले 'श्री विमलनाथ' को ॥१३॥ ___ अविनाशी पद (मोक्ष) को प्राप्त करनेवाले, अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन आदि आत्मिक गुणो के दाता, अथवा गर्भमें आन पर जिनकी माताने स्वममे अनन्त आकारवाली रत्नमाला को देखा अतएव यथार्थ नामवाले श्री अनन्तनाथ को ॥१४॥ दुर्गति में पड़ते हुए जीवों के उद्धारक, भुत-चारित्ररूप धर्म के उपदेशक, अथवा गर्भ मे आने पर जिनकीमाताकी बुद्धि दानादि धर्म में दृढ हुई, ऐसे सार्थक नाम वाले श्री धर्मनाथ को ॥१५॥ સાથેજ જેની માતાની બુદ્ધિ નિર્મલ થઈ ગઈ એવા યથાનામ તથાગુણવાળા “श्री विभसनाय "न ॥ १3 ! અવિનાશી પદ (મેક્ષ)ને પ્રાપ્ત કરવાવાળા, અનન્ત જ્ઞાન, અનન્ત દર્શન આદિ આમિક ગુણેના દાતા, અથવા ગર્ભમાં આવતા જ જેની માતાએ સ્વપ્નમાં અનન્ત આક રવાળી રત્નમાળા દેખી એટલા માટે યથાર્થ નામવાળ! શ્રી અનાનાથને ૧૪ દુર્ગતિમા પડતા જીના ઉદ્ધારક, શ્રત ચારિત્રરૂપ ધર્મને ઉપદેશક, અથવા ગર્ભમાં આવવાથી જેની માતાની બુદ્ધિ દાનાદિ ધમને વિષે દૃઢ થઈ, એવા સાર્થક નામવાળા “શ્રી ધર્મનાથ”ને ૧૫ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपणी टीका 'सति' शमयति-व्यपनयति कपायमिति 'शान्तिः, यद्वा कर्मसन्ततिसन्तापमालाऽऽकुलाना जनाना शान्तिकरणशीलत्वाच्छान्तिः, शान्तिस्वरूपवाडा शान्तिः, निरावाधमुक्तिरूपशान्तिहेतुत्वाद्वा, स्मरणेन भव्यजनाधिव्याविशान्तिहेतुत्वाद्वा, अथवा वहोः कालाजनपदे वर्तमानस्य दुर्भिक्षरोगोपद्रवादेरस्मिन् भगवति गर्भागते सति शान्तिर्जाता तयोगाच्छान्तिस्तम्, नामैकदेशेन नामग्रहणात्-'शान्तिनाय'-मित्यर्थ. (१६) । 'वदामि' वन्दे-स्तौमि । 'कुथु' कुन्थति-हिनस्ति कर्मशत्रुमिति, कुनाति-मोक्षश्रियमालिगतीति वा कुन्युः, यहा कु-पृथिवीम् उपलक्षणादवादिक च स्तभ्नाति पारयविरक्षतीति कुन्थुः पटकायरक्षकमुनिगणः, त मदोरकमुखवस्त्रिकापारिण भव्यजीवोपकारक मोक्षमार्गप्रचारक महत्त्यामनेक कपायो के नाश करनेवाले, कर्मरूपी सन्ताप से सतप्त प्राणियों को शान्ति प्रदान करने वाले, शान्तस्वरूपी, जिनके स्मरण मात्रसे आधिव्याधि मिट जाती है ऐसे, अथवा गर्भ मे आने पर दुर्भिक्ष तथा महामारी (मरकी) आदि की उपशान्ति हो गई, ऐसे अन्वर्थ नामवाले श्री शान्तिनाय जिनेन्द्र को मै वन्दना करता हूँ ॥१६॥ कर्म-शत्रुओं का नाश कर मोक्ष को प्राप्त करनेवाले, अथवा गर्भ में आने पर जिनकी माताने स्वप्न मे कुन्यु अर्थात् सदोरकमुखवस्त्रिकाधारी, भव्य जीवों के उपकारी, मोक्षमार्ग के प्रचारक - કાને નાશ કરવાવાળા, કર્મરૂપી સતાપથી તપી રહેલા પ્રાણીઓને શાતિ આપવાવાળા, શાન્તસ્વરૂપી જેના સ્મરણ માત્રથી આધિ-વ્યાધિ મટી જાય છે એવા, અથવા ગર્ભમા આવતા જ દુષ્કાલ તથા મરકી આદિ રેગ-ઉપ દ્રની ઉપશાતિ થઈ ગઈ એવા યવાર્થ નામવાળા શ્રી શાન્તિનાથ” જિનેન્દ્રને હુ વદન કરું છું ૧૬ કર્મશત્રુઓને નાશ કરીને મોક્ષને પામવાવાળા, અથવા ગર્ભમાં આવતા જ જેમની માતાએ સ્વપ્નમાં કુન્યુ એટલે દેરાસહિત મુખાસ્ત્રિકા બોધનાર, મેક્ષ માર્ગના પ્રચારક, અનેક દેવ મનુષ્યની વિશાળ પરિષદમાં વિચિત્ર ધર્મોપદેશ દેનાર १- 'शान्तिः अत्र वाहुलकारकरि किन् । २- 'कुन्थु.' भौवादिकादिसार्थकात् कुधि धातो. पक्षे नैयादिकात्सप्रलेपणार्थकात् कुन्यधातोरौणादिक उपत्ययः । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ আসুন - - - - - स विमलः, अथवा विमलस्वरूपत्वाद्विमलः, अपि वा गर्भस्थस्यास्य जनन्यास्त नुमतिश्च विमला सञ्जाता तदयोगाविमलस्तम् (१३) । 'अणत' मोक्षाधिकर णकनिरवधिस्थितिकलात् अविद्यमानोऽन्तो नाशो यस्यासावनन्तः, यहा अनन्तानि ज्ञानदर्शनादीनि तद्धेतुसादनन्त', कारणे कार्योपचाराद, अपि वाऽनन्त खरूपवादनन्तः । अथवा गर्भस्थस्यास्य भगातो माता स्वप्नेऽनन्ताकारा माला मद्राक्षीनानन्तस्तम् (१४) । 'जिण' जिनम्, प्रागव्याख्यातो जिनशब्दाः । 'धम्म' दुर्गतौ मपततो जन्तून् धारयतीति धर्मः, यद्वा कारणे कार्योपचारा च्छुतचारित्रादिरूपस्य धर्मस्य प्ररूपकतया धर्मस्वरूपत्वाद्वा, अथवा गर्भस्थेऽस्मिन् भगवति जनन्या दानादिरूपे धर्म दृढा मतिरुदिता तद्योगाद्धर्मस्तम् (१५)। अथवा गर्भ मे आने पर जिनकी माता की पद्वि निर्मल हो गई, ऐसे यथानाम तथागुण वाले 'श्री विमलनाथ' को ॥१३॥ अविनाशी पद (मोक्ष) को प्राप्त करनेवाले, अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन आदि आत्मिक गुणो के दाता, अथवा गर्भमें आन पर जिनकी माताने स्वममे अनन्त आकारवाली रत्नमाला को देखा अतएव यथार्थ नामवाले श्री अनन्तनाथ को ॥१४॥ दुर्गति में पडते हुए जीवों के उद्धारक, श्रुत-चारित्ररूप धर्म के उपदेशक, अथवा गर्भ मे आने पर जिनकीमाता की धुद्धि दानादि धर्म में दृढ हुई, ऐसे सार्थक नाम वाले श्री धर्मनाथ को ॥१६॥ સાથે જ જેની માતાની બુદ્ધિ નિર્મલ થઈ ગઈ એવા યથાનામ તથાગુણવાળા " श्री विमलनाथ ने ॥१३॥ અવિનાશી પદ (મેક્ષ)ને પ્રાપ્ત કરવાવાળા, અનન્ત જ્ઞાન, અનન્ત દર્શન આદિ આત્મિક ગુણોના દાતા, અથવા ગર્ભમા આવતા જ જેની માતાએ સ્વપ્નમાં અનન્ત આકરવાની રત્નમાળા દેખી એટલા માટે યથાર્થ નામવાળી "श्री अनन्तनाय" ॥ १४॥ હતિમ પડતા જીના ઉદ્ધારક, શ્રત ચાન્નિરૂપ ધર્મને ઉપદેશક, અથવા ગર્ભમા આવવાથી જેની માતાની બુદ્ધિ દાનાદિ ધર્મને વિષે દૃઢ થઈ, એવા સાર્થક નામવાળા “ શ્રી ધર્મનાથને છે ૧૫ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D मुनितोपणी टीका १३५ थासौ सुनतश्च मुनिसुत्रतः, यद्वाऽस्य शासनकाले मुनयो निरतिचारेण शोभनव्रतशालिनो जाता इति कालिकादिसम्बन्धेन, अथवा गर्भस्थेऽस्मिन् भगवत्येतज्जननी मुनिवत्सुनता जाता तयोगान्मुनिसुव्रतस्तम् (२०)। 'नमिजिण' नमयतितिरस्करोति कर्मशत्रूनिति नमिः, यद्वा गर्भमाप्तेऽस्मिन् भगवति, एतत्मभावैः सर्वे परनरपतयो नमितास्तद्योगान्नमिः, स चासौ जिनश्च नमिजिनस्तम् (२१)। 'वदामि' वन्दे 'रिद्वनेमि' अरिष्टम् अशुभमुपद्रव वा नमयति अधःकरोतीति, जातमात्रः सन्नरिष्ट-मूतीगृह तात्स्थ्यात्मृतीगृहस्थितजनान् अनमयत्-नतशिरमे निरतिचार चारित्र पालनेवाले बहुत मुनि हुए, अथवा जब ये गर्भ में आये तव उनकी माता मुनिके समान सुव्रता हुई इस कारण 'मुनिसुव्रतनाथ' नाम वाले भगवान को ॥२०॥ कर्म शत्रुओ को जीतने वाले, या जब ये गर्भमे थे तो अन्य सभी विमुख राजगण नम्र हो गये (झुक गये) अत एच यथार्थ नाम वाले श्री नमिजिन को मैं वन्दना करता हूँ ॥२१॥ अशुभ तथा उपद्रवों को दूर करनेवाले, अथवा जिनके जन्म लेते ही उस समय अरिष्ट-प्रसूतिगृह (सौर-सुवावड का घर) में स्थित समस्त मनुष्यों के सिर झुक गये, या जो सारे ससार ચારિત્ર પાલન કરનારા ઘણુજ મુનિ થયા, અથવા જ્યારે તે ગર્ભમા આવ્યા ત્યારે તેમની માતા મુનિને સમાન સુત્રતા થઈ એ કારણથી “મુનિસુવ્રતનાથ” નામ qा भगवानने ॥ २० ॥ કર્મ શત્રુઓને જીતવાવાળા, અથવા જ્યારે ગર્ભમા હતા ત્યારે સર્વ અણનમ રાજાગણે નગ્ન થઈ ગયા (ઝુકી ગયા) એ કારણથી યથાર્થ નામવાળા “શ્રી નેમિનાથ” ભગવાનને વદના કરૂ છુ ૨૧ અશુભ અથવા ઉપદ્રવને દૂર કરવાવાળા, અથવા જેને જન્મ થતા જ એટલે જન્મ સમયે અરિષ્ટ પ્રસુતિ ગૃહ (સુવાવડનું ઘર)માં રહેલા તમામ માણ સેના શિર-મસ્તક નમી પડયા (ઝુકી ગયા) અથવા જેઓ સકલ સંસારનું અરિષ્ટ १- 'अरिष्ट मूतिकागृह --मित्यमरः, 'अरिष्ट सूत्यागारेऽन्तचिके तने शुभेऽशुभे' इति हैम । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ आवश्यकमुत्रस्य देवमनुष्यपरिषदि विचित्र धर्ममुपदिशन्तमेतस्मिन् गर्भस्थेऽस्य जननी स्वप्ने दृष्टवती तद्योगात् कुन्थुस्तम् ( १७ ) | 'अर' अर्यते = प्राप्यते मोक्षो यस्मा - त्सोऽरः, यद्वाऽस्मिन् भगनति गर्भसमागतेऽस्य जननी स्वप्ने रत्नमयमर (चक्राङ्ग) दृष्टवती तद्योगादरस्तम् (१८) । 'मल्लि' मल्लते = धारयति दुःसकृपे पततः प्राणिन इति मलिः, यद्वा गर्भावस्थेऽस्मिर भगवत्येतज्जनन्याः सञ्जातो मल्लीकुसुमदामशय्यादोहदो देवेन पूरितस्तद्योगान्मलिस्तम्, नामैकदेशेन नाम्नो ग्रहणामल्लिस्वामिनमित्यर्थः, 'वदे' वन्दे (१९) । ' मुणिसुव्त्रय' मन्यते मनुते वा परलोकाचास्तिकतामिति मुनिः सुशोभनानि तानि यस्यासौ सुतः, मुनितथा अनेक देव मनुष्यो की विशाल परिषद में विचित्र धर्मोपदेश करते हुए पट्कायरक्षक मुनिवृन्द को देखा, ऐसे उन सगुण नामवाले श्री कुन्थुनाथ भगवान को ॥१७॥ मोक्ष प्राप्त कराने वाले, अथवा गर्भ में आने पर जिनकी माताने स्वप्रमें रत्नमय पहिये के आरे देखे, उन गुणयुक्त नाम वाले श्री अरनाथ भगवान को ॥ १८ ॥ दुःखरूप कुएँ में गिरते हुए प्राणियों की रक्षा करने वाले, अथवा गर्भ मे आने पर जिनकी माता के मल्ली - मालती फूलमाला की शय्या के दोहद (दोरले) को देवताने पूरा किया, ऐसे गुणसम्पन्न नाम वाले श्री मल्लीनाथ भगवान को ॥१९॥ श्रेष्ठ चारित्र को पालने वाले, अथवा जिनके शासन काल એવા છ કાયના રક્ષક મુનિવ્રુદને જોયુ, એવા સણુ " श्री थुनाथ " भगवानने ॥ १७ ॥ नाभवाजा મોક્ષ પ્રાપ્ત કરાવવાવાળા અથવા ગર્ભમા સ્વમમા રત્નમય પૈડાના આરો જોયે એવા ગુણુયુકત भगवानने ॥ १८ ॥ આવતા જ જેની માતાએ નામવાળા 'श्री स्मरनाथ' ૬ ખપ કુવામા પડતા પ્રાણીઓની રક્ષા કરવાવાળા, અથવા ગર્ભમા આવતા જ જેની માતાને મલ્ટી-માલતી ફૂલમાળાની શય્યાના દેહદ (દેહેલા) ને દેવતાએ પૂર્ણ કર્યાં એવા ગુલુસ પન્ન નામવાળા “ શ્રી મલ્લીનાથ” ભગવાનને ૧૯મા શ્રેષ્ઠ ચારિત્રનું પાલન કરવાવાળા, અથવા જેના શાસન કાલમા નિતિચાર Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका चासौ मुवतश्च मुनिसुवतः, यद्वाऽस्य शासनकाले मुनयो निरतिचारेण शोभनव्रतशालिनो जाता इति कालिकादिसम्बन्धेन, अथवा गर्भस्थेऽस्मिन् भगवत्येतजननी मुनिवत्सुव्रता जाता तयोगान्मुनिसुव्रतस्तम् (२०)। 'नमिजिण' नमयति तिरस्करोति कर्मशत्रूनिति नमिः, यहा गर्भप्राप्तेऽस्मिन् भगवति, एतत्मभावैः सर्वे परनरपतयो नमितास्तद्योगान्नमिः, स चासौ जिनश्च नमिजिनस्तम् (२१)। 'वदामि' चन्टे 'रिद्वनेमि' अरिष्टम् अशुभमुपद्रव वा नमयति अध:करोतीति, जातमात्रः सन्नरिष्ट-मृतीगृह तात्स्थ्यात्सतीगृहस्थितजनान् अनमयत्नतशिरमे निरतिचार चारित्र पालनेवाले बहुत मुनि हुए, अथवा जव ये गर्भ में आये तब उनकी माता मुनिके समान सुव्रता हुई इस कारण 'मुनिसुव्रतनाथ' नाम वाले भगवान को ॥२०॥ कर्म शत्रुओं को जीतने वाले, या जब ये गर्भमें थे तो अन्य सभी विमुख राजगण नम्र हो गये (झुक गये) अत एव यथार्थ नाम वाले श्री नमिजिन को मै वन्दना करता हूँ ॥२१॥ - अशुभ तथा उपद्रवों को दूर करनेवाले, अथवा जिनके जन्म लेते ही उस समय अरिष्ट-प्रसतिगृह (सौर-सुबावड का घर) में स्थित समस्त मनुष्यों के सिर झुक गये, या जो सारे ससार ચારિત્ર પાલન કરનારા ઘણાજ મુનિ થયા, અથવા જ્યારે તે ગર્ભમા આવ્યા ત્યારે તેમની માતા મુનિના સમાન સુત્રતા થઈ એ કારણથી “મુનિસુવ્રતનાથ” નામ पा मगवानने ॥ २० ॥ કર્મ શત્રુઓને જીતવાવાળા, અથવા જ્યારે ગર્ભમા હતા ત્યારે સર્વ અણનમ રાજાગણે નગ્ન થઈ ગયા (ઝુકી ગયા) એ કારણથી યથાર્થ નામવાળા “શ્રી નમિનાથ” ભગવાનને વદન કરૂ છુ ૨૧ અશુભ અથવા ઉપદ્રવને દૂર કરવાવાળા, અથવા જેને જન્મ થતા જ એટલે જન્મ સમયે અરિષ્ટ પ્રસૂતિ ગૃહ (સુવાવડનું ઘર)માં રહેલા તમામ માણ સેના શિર-મસ્તક નમી પડયા (કી ગયા) અથવા જેઓ સકલ સંસારનું અરિષ્ટ १- 'अरिष्ट मृतिकागृह'-मित्यमरः, 'अरिष्ट भूत्यागारेऽन्तचिह्न तके शुभेऽशुभे' इति है । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , भावश्यकसूत्रस्य - - - १३६ स्कानकरोत् स्वतेजसेति, अरिष्ट='शुभ (कल्याणम् ) अर्थाजगतो नयति मापयतीति निरुक्तवृत्त्या या अरिष्टनेमिः, यद्वाऽस्य गर्भस्थस्य माता स्वप्नेऽरिष्ट (रत्न) मयी नेमि-रथचक्रमान्तभाग दृष्टपती तद्योगादरिष्टनेमिस्तम् (२२)। 'पास' पश्यति लोकालोकस्वरूपमिति पार्थः, पृपोदरादित्वात् , भविजनविघ्नवलीसमुच्छेदार्थ पर्शसमूहतुल्यखात्पार्थः, यद्वाऽस्मिन् भगवति गर्भस्थे कदाचिद्रात्री निर्वाणे प्रदीपेऽस्य जननी राजपाथै सामायान्त सपै गर्भज्योतिःमभावेणाऽऽलोक्य राजान सचेतीकृतवती, राजा च मज्याल्य प्रदीप दृष्ट्वा च पार्थे समागत सर्प विस्मित्य गर्भप्रभार निश्चिकायेत्यन्धकारेऽपि निजमावर्तकपितृपार्थसमागतसर्पकर्मकदर्शनहेतुत्वात्पार्श्वस्तम् (२३) । 'तहा' 'तथा' बद्धमाण च' वर्द्धते ज्ञाना का अरिष्ट-कल्याण करने वाले, अथवा जव ये गर्भमें थे तो माताने स्वप्नमें पहिये की अरिष्ट-रत्नमयी-नेमि (पुठ) को देखा इस कारण जिनका नाम 'अरिष्टनेमि' पडा, ऐसे बाईसवें तीर्थङ्कर को ॥२२॥ लोकालोक के यथार्थ स्वरूपको जानने वाले, या भक्त जीवों की विघ्नलता को विनाश करने के लिए कुठार' के समान, अथवा जब ये गर्भ मे थे तब किसी रातमे दीपक के वुझ जाने पर इनकी माताने राजाके पार्श्व-पसवाडे के पास आते हुए सर्प को गर्भ के तेजसे देखकर राजाको सावधान किया, इस “प्रकार 'पाश्चे' पद के सम्बधसे 'श्री पार्श्वनाथ' नामवाले भगवान को ॥२३॥ ओर ज्ञानादि गुणों से वर्द्धमान (बढनेवाले) या अनन्त काल से કલ્યાણ કરવાવાળા અથવા જ્યારે તેઓ ગર્ભમાં હતા ત્યારે માતાએ સ્વપ્રમા પિડાની અરિષ્ટ-રત્નમયી નેમિ (પૂઠને) જોઈ એ કારણથી જેનું નામ “અરિષ્ટનેમિ,_ પડ્યું, એવા બાવીસમા તીર્થકરને ૨૨ કાલેકના યથાર્થ સ્વરૂપને જાણવાવાળ, અથવા ભવ્ય જીની વિM લતાને વિનાશ કરવા માટે કુઠાર જેવા, અથવા જ્યારે તેઓ ગર્ભમાં હતા ત્યારે કેઈ રાત્રિમા દીપક બુઝાઈ જતા તેમની માતાએ રાજાના પા—પસવાડાની નજદીક આવતા સર્ષને ગર્ભને તેથી જેઈને રાજાને સાવધાન કરી દીધા એ કારણથી પાર્શ્વ પદના unmun " बनाय" नामवाणा भवानन ॥२३॥ ૧ વદ્ધમાન (વધવાવાળા) અથવા અનત કાલથી સસાર સમ્ર अपमे' इत्यमर । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका १३७ दिनेति, यद्वा, वर्द्धते-भन्त वितण्यर्थत्वाद् यति भव्यानामनन्तकालतः पर्यटता ज्ञानादिगुणमिति, गर्भशग्यास्थितेऽस्मिन् भगवति ज्ञातकुल धनधान्यादिमिरवर्द्धतेति वा वर्द्धमानस्तम् (२४), चः अप्यर्थका, बर्द्धमानमपीत्यर्थः, पूर्वोकेन 'वढामि' इत्यनेनान्वय इत्युक्तमेव । अभिवन्योपसहरन्नाह-एव' इत्यादि, एवम्-उपकारेण, 'मए' मया 'अभियुया' अभिसर्वतो भावेन स्तुताः 'अभिष्टुताः नामनिर्देशपूर्वक यथाविधि स्तुतिविषयीकृता इत्यर्थः, 'विहयरयमल्ला' विशेषेण प्रते विधृते, रजश्च मल च रजोमले, विधूते रजोमले यैस्ते विधूतरजोमला , तर रजःवयमान ज्ञानावरणीयादिरूपमीर्यापथरूप वा कर्म, मल=पूर्ववदनिकाचित-साम्परायिकरूपम्, यद्वा रज इवाऽऽवारकत्वाद्रज =ज्ञानावरणीयादिकर्म तदेव मल रजोमल, विवृत=क्षालित रजोमल यैस्ते विधृतरनोमलाः । 'पहीणजरमरणा' - जीर्यन्ति-शिथिलीभवन्त्युत्थानादीनि ससार समुद्रमें गोते खाते हुए प्राणियों के ज्ञानादि आत्मिक गुणों को बढानेवाले, अथवा जब ये गर्भमें आये तव जातकुल धन धान्य हिरण्य सुवर्णादिसे परिपूर्ण हुआ अतएव गुणनिष्पन्न नामवाले 'श्री वर्द्वमानस्वामी' को मैं वन्दना करता हूँ ॥२४ ।। गुणोत्कीर्तन करके उपसहार करते हैं इस प्रकार मुझसे अलग नामनिर्देशपूर्वक स्तुति किये गये, जो ज्ञानावरणीयादि वध्यमान कर्मोंका तथा निकाचित-साम्परायिकरूप पूर्वयद्ध कर्ममल का नाश करने वाले और चेष्टाविशेष रूप उत्थान, દ્રમાં ગોથા ખાતા પ્રાણીઓના જ્ઞાનાદિક આત્મિક ગુણને વધારનારા, અથવા ત્યારે તેઓ ગર્ભમાં આવ્યા ત્યારે જ્ઞાતકુલ ધન ધાન્ય હિરણ્યસુવર્ણાદિકથી પરિપૂર્ણ થયું એ કારણથી ગુણ-નિષ્પન્ન-નામવાળા શ્રી વદ્ધમાન સ્વામીને હું વદના કરું છું કે ૨૪ . ગુણકીર્તન કરીને ઉપમહાર કરે છે આ પ્રમાણે મારાથી જૂદા જુદા નામનિર્દાપૂર્વકતુતિ કરવામા આવેલ, જેઓ જ્ઞાનાવરણીયાદિ બાધેલા કર્મોને તથા નિકાચિત-સામ રાયિક રૂપ પૂર્વબદ્ધ કર્મમલને १- अभिष्टुता.'-'उपसर्गात्मनोती'ति पत्वे 'ष्टुना टु' -रिति टुत्वम् । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ भावश्यरसूत्रस्म स्कानकरोत् स्वतेजसेति, अरिष्ट'शुभ (ग्ल्याणम्) अर्थाजगतो नयति-भापयतीति निरुक्तवृत्या वा अरिष्टनेमिः, यद्वाऽस्य गर्भस्थस्य माता स्वप्नेऽरिष्ट (रत्न) मयी नेमि रथचक्रमान्तभाग दृष्टपती तद्योगादरिष्टनेमिस्तम् (२२)। 'पास' पश्यति लोकालोकस्वरूपमिति पार्थः, पृपोदरादित्वात् , भविजनविघ्नवल्लीसमुच्छे. दार्थ पशुसमूहतुल्यखात्पार्ध, यद्वाऽस्मिन् भगवति गर्भस्थे कदाचिद्रात्री निर्वाणे प्रदीपेऽस्य जननी राजपाथै सामायान्त सर्प गर्भज्योतिःप्रभावेणाऽऽलोक्य राजान सचेतीकृतवती, राजा च मवाल्य प्रदीप दृष्ट्वा च पार्श्व समागत सप विस्मित्य गर्भप्रभाव निश्चिकायेत्यन्धकारेऽपि निजमावककपितृपाश्र्वसमागतसपकर्मकदर्शनहेतुत्वात्पार्श्वस्तम् (२३)। 'तहा' 'तथा' वद्धमाण च' वर्तते ज्ञाना का अरिष्ट-कल्याण करने वाले, अथवा जब ये गर्भमें थे तो माताने स्वममें पहिये की अरिष्ट-रत्नमयी-नेमि (पुठ) को देखा इस कारण जिनका नाम 'अरिष्टनेमि' पडा, ऐसे घाईसवें तीर्थङ्कर को ॥२२॥ लोकालोक के यथार्थ स्वरूपको जानने वाले, या भक्त जीवों की विघ्नलता को विनाश करने के लिए कुठार के समान, अथवा जब ये गर्भ मे थे तय किसी रातमे दीपक के वुझ जाने पर इनकी माताने राजाके पार्श्व-पसवाडे के पास आते हुए सर्प को गर्भ के तेजसे देखकर राजाको सावधान किया, इस प्रकार 'पाश्च' पद के सम्बधसे 'श्री पार्श्वनाथ' नामवाले भगवान को ॥२३॥ और झानादि गुणों से वर्द्धमान (बढनेवाले) या अनन्त काल से કલ્યાણ કરવાવાળા અથવા જ્યારે તેઓ ગમા હતા ત્યારે માતાએ સ્વપ્રમા પેડાની અરિષ્ટ-રત્નમયી નેમિ (પૂઠને) જોઈ એ કારણથી જેનું નામ “અરિષ્ટનેમિ, પડ્યું, એવા બાવીસમા તીર્થકરને ૨૨ કાલેકને યથાર્થ સ્વરૂપને જાણવાવાળ, અથવા ભવ્ય જીવોની વિન લતાને વિનાશ કરવા માટે કુઠાર જેવા, અથવા જ્યારે તેઓ ગમા હતા ત્યારે કેઈ રાત્રિમાં દીપક બુઝાઈ જતા તેમની માતાએ રાજાના પાર્શ્વ–પસવાડાની નજદીક આવતા સને ગર્ભના તેજથી જેઈને રાજાને સાવધાન કરી દીધા એ કારણથી પાર્શ્વ પદના સબ ધથી “ શ્રી પાર્શ્વનાથ” નામવાળા ભગવાનને ૨૩ જ્ઞાનાદિ ગુણેથી વદ્ધમાન (વધવાવાળા) અથવા અનત કાલથી સસાર સમુ १- 'अरिष्ठ तु शुभाशुभे' इत्यमर । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका १३७ दिनेति, यद्वा, वर्द्धते अन्तर्भावितण्यर्थत्वाद् पयति भव्यानामनन्तकालतः पर्यटता ज्ञानादिगुणमिति, गर्भशग्यास्थितेऽस्मिन् भगवति ज्ञातकुल धनधान्यादिभिरवर्द्धतेति वा वर्द्वमानस्तम् (२४), चा अप्यर्थकः, वर्द्धमानमपीत्यर्थः, पूर्वोकेन 'वदामि' इत्यनेनान्वय इत्युक्तमेव । अभिवन्योपसहरन्नाह-'एव' इत्यादि, एवम् उकपकारेण, 'मए' मया 'अभिथुया' अभि=सर्वतो भावेन स्तुताः अभिष्टुताः नामनिर्देशपूर्वक यथाविधि स्तुतिविपयीकृता इत्यर्थः, 'विहूयस्यमल्ला' विशेषेण प्रते विधृते, रजश्व मल च रजोमले, विधूते रजोमले यैस्ते विधृतरजोमला', तत्र रजा व यमान ज्ञानावरणीयादिरूपमीर्यापथरूप वा कर्म, मल-पूर्वपद्धनिकाचित-साम्परायिकरूपम्, यद्वा रज इवाऽऽवारकत्वाद्रज =ज्ञानावरणीयादिकर्म तदेव मल रजोमल, विवृत=क्षालित रजोमल यैस्ते विधूतरजोमलाः । 'पहीणजरमरणा' - जीर्यन्ति शिथिलीभवन्त्युत्थानादीनि ससार समुद्र में गोते खाते हुए प्राणियों के ज्ञानादि आत्मिक गुणो को बढानेवाले, अथवा जब ये गर्भमें आये तब ज्ञातकुल धन धान्य नण्य सुवर्णादिसे परिपूर्ण हुआ अतएव गुणनिष्पन्न नामवाले ' ' को मै वन्दना करता हूँ ॥ २४ ॥ 1. करके उपसहार करते हैं अलग नामनिर्देशपूर्वक स्तुति किये गये, जो . कर्मोंका तथा निकाचित-साम्परायिकरूप • वाले और चेष्टाविशेष रूप उत्थान, આત્મિક ગુણોને વધારનારા, અથવા જ્ઞાનકુલ ધન ધાન્ય હિરણયકારણથી ગુણ-નિપન્ન-નામવાળા | ૨૪ | તિ કરવામા આવેલ, જેઓ પૂર્વબદ્ધ કર્મમલને । प्टु' -रिति टुत्वम् । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - भावश्यकसूत्रस्थ स्कानकरोत् स्वतेजसेति, अरिष्ट= शुभ (कल्याणम्) अर्थानगतो नयति आपय तीति निरक्तवृत्त्या या अरिष्टनेमिः, यद्वाऽस्य गर्भस्थम्य माता स्वप्नेऽरिष्ट (रत्न) मयी नेमि-रथचक्रमान्तभाग दृष्टपती तद्योगादरिष्टनेमिस्तम् (२२)। 'पास' पश्यति लोकालोकस्वरूपमिति पार्थ, पोदरादित्वात् , भविजनपिनवल्लीसमुच्छे. दार्थ प समूहतुल्यखात्पार्थः, यद्वाऽस्मिन् भगति गर्भस्थे कदाचिद्रात्रौ निर्वाणे मदीपेऽस्य जननी राजपाथै सामायान्त- सपै गर्भज्योतिःप्रभावेणाऽऽलोक्य राजान सचेतीकृतवती, राजा च मज्जाल्य मदीप दृष्ट्वा च पार्थे समागत सप विस्मित्य गर्भमभार निश्चिकायेत्यन्धकारेऽपि निजमातकर्तपितृपार्श्वसमागतसर्पकर्मकदर्शनहेतुत्वात्पार्श्वस्तम् (२३) । 'तहा' 'तथा' बद्धमाण च' पद्धते ज्ञाना का अरिष्ट-कल्याण करने वाले, अथवा जय ये गर्भमें थे तो माताने स्वममें पहिये की अरिष्ट-रत्नमयी-नेमि (पुठ) को देखा इस कारण जिनका नाम 'अरिष्टनेमि' पडा, ऐसे बाईसवें तीर्थङ्कर को ॥२२॥ लोकालोक के यथार्थ स्वरूपको जानने वाले, या भक्त जीवों की विघ्नलता को विनाश करने के लिए कुठार के समान, अथवा जय ये गर्भ मे थे तब किसी रातमे दीपक के घुझ जाने पर इनको माताने राजाके पार्श्व-पसवाडे के पास आते हुए सर्प को गर्भ के तेजसे देखकर राजाको सावधान किया, इस प्रकार 'पाचे' पद के सम्बधसे 'श्री पार्श्वनाथ' नामवाले भगवान को ॥२३॥ और ज्ञानादि गुणों से बर्द्धमान (बढनेवाले) या अनन्त काल से કયાણ કરવાવાળા અથવા જ્યારે તેઓ ગર્ભમાં હતા ત્યારે માતાએ સ્વમમાં પેડાની અરિષ્ટ-નમયી નેમિ (પૂઠને) જેઈ એ કારણથી જેનું નામ “અરિષ્ટનેમિ, પડયુ, એવા બાવીસમાં તીર્થકરને જ ૨૨ ! લોકાલોકના યથાર્થ સ્વરૂપને જાણવાવાળા, અથવા ભવ્ય જીની વિM લતાને વિનાશ કરવા માટે કુઠાર જેવા, અથવા જ્યારે તે ગર્ભમાં હતા ત્યારે કંઈ રાત્રિમાં દીપક બુઝાઈ જતા તેમની માતાએ રાજાને પાર્શ્વ–પસવાડાની નજદીક આવતા સને ગર્ભના તેજથી જોઈને રાજાને સાવધાન કરી દીધા એ કારણથી પાર્શ્વ પદના સબ ધથી “શ્રી પાર્શ્વનાથ” નામવાળા ભગવાનને ૨૩ જ્ઞાનાદિ ગુણેથી વર્તમાન (વધવાવાળા) અથવા અનત કાલથી સસાર સમુ. १- 'अरिए तु शुभाश्मे' इत्यमरः । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D मुनितोपणी टीका स्तवकरणात्सम्यक्स्तुताः, महितामहद्भिर्ज्ञानादिगुणैः कृत्वा सर्वैराहताः, यद्वा महिता' पुजिताः-सादर प्रशसिता इन्द्रादिभिरित्यर्थ , कीर्तिताः मनसा गुणचिन्तनरूपेण, वन्दिता: वचसा स्तुताः-वदिधातोः स्तुतिपरत्वात् , महिता कायेन इन्द्रादिभिः शरीरावनमनकरणेन नमस्कृताः इति हृदयम् , 'पुष्पादिभिः पूजिताः' इति केपाश्चिव्याख्यानमशोभनम् सावधपूजाया हिंसाप्रधानत्वेन वीतरागाणा तदसभवात्तस्याः सूत्रेऽनभिधानाच, 'मह पूजायाम्' इत्यत्र पूजायामित्यविशिष्यवोक्तमस्ति, ततश्च महितः पूजित इत्यायाति, नैतावता प्राणियों से सम्मानित, अथवा इन्द्रादिकों से सादर प्रशसित जो ये रागद्धेप आदि कलङ्क से रहित होने के कारण तीनों लोक में उत्तम सिद्ध अर्थात् कृतकृत्य हैं वे मुझे आरोग्य-सिद्वस्वरूप की प्राप्ति के लिये जिनधर्मकी रुचिरूप योधिका लाभ और उत्तमोत्तम समाधि देवे। किसीने यहा 'कित्तिय-वदिय-महिया 'इस पदमें रहे हुए 'महित' का अर्थ 'पुष्प आदि से पूजित' किया है कि तु वह सर्वथा असगत है, क्यों कि पुष्पादि सावद्य द्रव्यों से की हुई पूजा हिंसामधान होने के कारण ऐसी पूजा वीतरागों की नहीं हो सकती और शास्त्रमे कहीं ऐसा उल्लेख भी नहीं है । 'मह पूजायाम्'इस धातु से 'महित' बनता है जिसका अर्थ सामान्यत. 'पूजित' यही हो सकता है, उससे 'पुष्पादिपूजित' अर्थ करना केवल સન્માનિત, અથવા ઈન્દ્રાદિકથી સાદર પ્રશસા પામેલા જે એ બાગ-દ્વેષ આદિ કલાકથી રહિત હેવાના કારણે ત્રણેય લેકમાં ઉત્તમ સિદ્ધ અર્થાત્ કૃતકૃત્ય છે તે મને આરોગ્ય – સિદ્ધસ્વરૂપની પ્રાપ્તિ માટે જિનધર્મની ચિ-રૂપ બેધિને લાભ અને ઉત્તમોત્તમ સમાધિ આપે? 2 मा स्यने 'फित्तिय-वदिय-महिया' मा ५६॥ २सा 'महित' ને અર્થ “પુષ્પ આદિથી પૂજિત કરે છે, પરંતુ એ અથ સર્વથા અસગત છે કારણ કે પુષ્પાદિ સાવધ દ્રવ્યથી કરેલી પૂજા હિંસાપ્રધાન હોવાથી તે પૂજા વીતરાગેની હેઈ શકે નહિ તેમજ શાસ્ત્રોમાં એ ઉલ્લેખ પણ મળતું નથી, 'मह पूजाया' मा पातुथी 'महित' मने छ रेनो अर्थ सामान्यत 'ylard' य શકે છે, તેનાથી “પુષ્પાદિપૂજિત અર્થે કરવો તે કેવલ ક૫નામ છે, Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - १३८ आवश्यकमूत्रस्य (अत्राऽऽदिपदेन कर्म-चल-वीर्य-पुरुपकार-पराक्रमा गृह्यन्ते, तत्र उत्थानचेष्टाविशेषः, कर्मभ्रमणादिक्रिया, पल शरीरसामर्थ्यम्, वीर्य-जीवप्रभव, पुरुपकारः = अभिमानविशेपः, पराक्रमः = साभीष्टकर्मसाधनशनिविशेषः) यया सा, यद्वा जरणबयोहानिर्जरा, मरण-माणविनिर्गमापरपर्याय आयुष्यनाशः, जरा च मरण च जरामरणे, महीणे-प्रणष्टे जरामरणे येषा ते तथाभूताः, 'चउवीसपि' चतुर्विंशतिरपि, अपिशब्दः पूर्ववदवधारणार्थों महाविदेहस्थ भगवद्गहणार्थश्च । 'जिणवरा' जिनेषु अवधिज्ञान्यादिषु वरा:-श्रेष्ठाः। सामा न्यकेवलिनोऽपि जिनवराः सभवन्ति तद्वारणायाह-'तित्थयरा' तीर्थकराः। 'मे' मम उपरीत्यस्याभ्याहारः। 'पसीयतु' प्रसीदन्तु-प्रसन्ना भवन्तु ॥५॥ 'कित्तिय-वदिय-महिया' कीर्तिताश्च वन्दिताश्च महिताथेति द्वन्द्वः तत्र कीर्तिताः तत्तन्नामनिर्देशेनैस्कश' कथिताः, वन्दिता बाअन काययोगगुणस भ्रमणादिरूप कर्म, शरीरसामर्थ्यरूप बल, जीव सम्बन्धी वीर्य, 'में इस कार्य को सिद्ध करूँगा' इस प्रकार अभिमान विशेषरूप पुरुषाकार, तथा अभीष्ट सिद्ध करने का शक्तिविशेषरूप पराक्रम, इन सबका नाश करनेवाली वृद्धावस्थारूप जरा और मरण का विनाश करनेवाले, केवलियों में श्रेष्ठ उपर्युक्त चौवीस तीर्थकर है वे, तथा अपि शब्द से महाविदेह क्षेत्रमें रहे हुए तीर्थकर मुझ पर प्रसन्न हों। कित्तिय' पृथक २ नाम से कीर्तित, 'वदिय-मन वचन काय से स्तुत, 'महिय'-ज्ञानातिशय आदि गुणों के कारण सब નાશ કરવાવાળા અને ચેષ્ટાવિશેષરૂપ ઉત્થાન, ભ્રમણાદિ રૂપ કર્મ, રીર સામ રૂપ બલ, જીવ સમ્બન્ધી વીર્ય, “હું આ કાર્યને સિદ્ધ કરીશ” એ પ્રમાણે અભિમાન વિશેષરૂપ પુરૂષાકાર, તથા અભીષ્ટ સિદ્ધ કરવાની શક્તિવિશેષરૂપ પરાક્રમ, એ સર્વને નાશ કરવાવાલી વૃદ્ધાવસ્થારૂપ જરા અને મરણને નાશ કરવાવાળા, કેવલીઓમાં શ્રેષ્ઠ ઉપર કહેલા ચોવીસ તીર્થકર છે તે, તથા જ શબ્દથી મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં રહેલા તીર્થ કરે મારા ઉપર પ્રસન્ન થાઓ? 'फित्तिय' t-rel नामयी तित, 'वदिय' भन, पयन अने याथी स्तुति रामेसा, 'महिय' ज्ञानातिशय मा शुशाना २२ सर्व प्राणीमाथी Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका १४१ बुद्धा' 'महाणुभावेसु महापरकमेस' (मू. कृ. २ अ. २) 'सविकारात्मपानात्तु महत्तत्त्व प्रजायते । महानिति यतः ख्यातिलॊकाना जायते सहा ॥१॥ अहङ्कारश्च महतो जायते मानवर्द्धनः।।' (म. पु.)। 'प्रकृतमहान् महतोऽहड्कारोऽहकारात्पञ्चतन्मात्राणि' (साख्यमूत्र)। 'प्रकृतेमहाँस्ततोऽहङ्कारस्तस्माद्णश्च पोडशफः (साख्यतत्वकौमुदी)। 'द्रव्यप्रत्यक्षे महत्व समवायसम्बन्येन कारणम्' (न्या सि मु.) इति दर्शनान्तराणि । 'शद्र स्यात्पादजो दासो ग्रामकूटो महत्तरः।' (त्रि शे.), 'रणपण्डितोऽत्र्यवियु पारिपुरे कलह स राममहित कृतवान् ।' (भट्टिका० १० स ), 'विशङ्कट पृथु बृहद्विशाल पृथुल महत्' (अ को.), इत्यादीनि च न सङ्गछन्ते । 'जे ए' ये एते, 'लोगस्स' श्लोकस्य, निर्धारणे पष्ठी तेन लोकत्रयस्य मय इत्यर्थः । 'उत्तमा' उत्तमाः= रागद्वेपकर्मपङ्ककलङ्कसवन्यराहित्यात् श्रेष्ठाः । 'सिद्धा' सिद्धाः कृतकृत्यत्वादग्धभववीजावरत्वाच । 'आरुग्गवोहिलाभ' रजति-पीडयतीति रोगो जन्मजरामरणादिरूपोऽत्र, अविद्यमानो रोगो येपा ते-अरोगाः सिद्धास्तेपा भाव आरोग्य-सिद्धत्वम् बोधि निखिलभवन्धनप्रतिकला परमार्थावबोधहेतुभूता जिनमणीतप्रवचनरुचिम्तस्या लामो वोधिलाभः, आरोग्याय-सिद्धस्वरूपाय बोधिलाभ: आरोग्यवोधिलाभस्तम्, यद्वा-आरोग्य-निरपद्रवम् = उपद्रनाभावस्तेन बोधिलाभस्तम् । 'आरोग्याय' इत्यत्र च फलेभ्यो यातीत्यादिवत् 'क्रियाओंपपदस्य च कर्मणि स्थानिन ' (२।३।१४) इति चतुर्थी, तेन सिद्धत्व प्राप्त बोधिलाभ इति निष्कपः । अय च वोधिलाभोऽनिदानात्मक एव मोक्षप्राप्तिहेतुर्न तु आता है 'पुष्पादिसे पूजन' रूप अर्थ कहीं नहीं लिखा है, अतएव यह निर्विवाद सिद्ध हुआ कि 'महित' अर्थात् ज्ञानातिशय आदि गुणों से सम्मानित अथवा इन्द्रादि से मादर प्रशसित । _ 'निदान (नियाणा) रहित ही योधिलाभ मोक्ष का कारण ત્યા “પુષ્પાદિથી પૂજન રૂપ અર્થે કરેલે નથી એટલા માટે નિર્વિવાદ સિદ્ધ च्यु 8 'महित' अर्थात् सानातिशय मा शुशेधी सन्मानित मया न्या સાદર પ્રશમા પામેલા 'निदान' (निय ५) २खित पिसम भाक्षनु ए मे पात सम १-'जे ए'-(ये एते) अनाऽऽर्पलादेकारलोपः। २- लोकस्य-आर्पवाटेश्यचनम् 'अचोऽन्त्यादि टी'-त्यादिवत् । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आवश्यकमूत्रस्य पुष्पादिभिरेव पूजनमिति शक्यते वक्तु तथा सति महच्छदस्यापि तथात्वापत्तेः । न चास्तु का नो हानिरिति वाच्यम्, ए सति 'महाबाहुर्महाशयः' इत्यादा वपि 'पुष्पादिपूजितवाहुमान्' 'पुष्पादिपूजिताऽऽशयवान्' इत्यसङ्गतार्था पत्तेः, पूजार्थ+महधातु निप्पन्नमहच्छब्दस्य तत्र तत्रापि सत्त्वात् न च विनिगमनाविरहात्पुष्पादिपूजनमध्यर्थः स्यादित्युङ्कनीय, वीतरागाणा सावत्र पूजाऽनौचित्यरूपाया विनिगमनाया अनुपदमुक्तत्वात् निश्चैव भवदाग्रहे 'महामोह पकुब्बई ' ( दशा० स्क) 'महावा व पायते ' ( दशबै०) 'महामिण पासिताण पडकल्पनामात्र है, क्यों कि ऐसा माननेसे जो जो शब्द मह धातु से बनते है उन सब जगहों में पूर्वपक्षी के कथनानुसार 'पुष्पादि से पूजन' रूप अर्ध मान लेने पर 'महाबाहु, महाशय' आदि शब्दों के भी 'पुष्पादि से पूजित भुजावाले' 'पुष्पादि से पूजित आशयवाले' आदि अनिष्ट अर्थ होने लगेंगे। यदि कहें कि - 'किसी अर्थ विशेष का निश्चय न रहने के कारण 'मह' धातु' के 'विशाल' 'उदार' आदि अर्थ की तरह' पुष्पादिपूजनरूप' भी अर्थ ले सकते हैं तो इसका उत्तर पहले ही दे चुके हैं कि - ' वीतरागों के सावध पूजन का न होना ही पुष्पादिपूजनरूप अर्थके न होने मे नियामक है, और ऊपर लिखी हुई संस्कृत टीका में दिखलाये हुए महामोर आदि स्थलों में तथा अन्यत्र भी जहा कही 'मह' धातु का प्रयोग કેમકે એ પ્રમાણે માનવાથી જે શબ્દ માઁ ધાતુથી બને છે તે સર્વ સ્થળે પૂર્વ પક્ષીના કહેવા પ્રમાણે ‘પુષ્પાદિથી પૂજન’ રૂપ અર્થ માની લેવાથી ‘મહામારું, મહાશય' આદિ શબ્દોના પણ ‘ પુષ્પાદિ પૂજિત ભુજાવાળા, ’ ‘પુષ્પાદિથી પૂજિત આશયવાળા' વગેરે અનિષ્ટ અ થવા મડશે જે કહેશે કે કાઈ અથ વિશેષને निश्चय नहि रहेवाना और 'मह' धातुनो 'विशाल, उधार' माहि अर्थ प्रभा 'पुष्पाहि પૂજનરૂપ પણ અર્થ લઈ શકાય છે તે તેના ઉત્તર પ્રથમજ આપી ચૂકયા છીએ કે વીતરાગ તે સાવધ પૂજન ન થવુજ પુષ્પાદિપૂજનરૂપ અ નહિ हो! शम्वा भाटे नियामक छे भने उपर सभेसी सस्कृत टीममा गत वेस 'महामोह' આદિ સ્થળેમા તથા ખીજા સ્થળે પણ જે ઠેકાણે મ” ધાતુને પ્રયાગ આવે છે १ - एक्तरपक्षपातिनी युक्तिर्विनिगमना तस्या विरोऽभावस्तस्मात् । , Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका बुद्धा' 'महाणुभावेसु महापरकमेसु' (सू. कृ. २ अ. २) 'सविकारात्मधानासु महत्तव प्रजायते । महानिति यतः ख्यानिर्लोकाना जायते सदा ॥१॥ अहङ्कारथ महतो जायते मानवर्द्धनः।। ' ( म. पु.) । ' प्रकृतेर्महान् महतोऽहङ्कारोऽहङ्कारात्पञ्चतन्मात्राणि ' ( साख्यसूत्र ) । 'प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहङ्कारस्तस्माद्गfe पोडशः (साख्यतत्त्वकौमुदी ) । ' द्रव्यमत्यक्षे महत्व समवायसम्बन्धेन कारणम्' (न्या सि मु ) इति दर्शनान्तराणि । 'शुद्र. स्यात्पादजो दासो ग्रामकूटो महत्तरः । ' ( नि शे), 'रणपण्डितोऽय्यविबुधारिपुरे कलह स राममहित कृतवान् ।' ( भट्टिका० १० स ), 'विशङ्कट पृथु वृहद्विशाल पृथुल महत् ' ( अ को ), इत्यादीनि च न सङ्गच्छन्ते । ' 'जे ए' ये एते, 'लोगस्स ' लोकस्य, निर्द्धारणे षष्ठी तेन लोकत्रयस्य मभ्य इत्यर्थः । 'उत्तमा' उत्तमाः= रागद्वेष कर्म पङ्क कलङ्क सवन्पराहित्यात् श्रेष्ठाः । 'सिद्धा' सिद्धा' कृतकृत्यत्याद्दग्धभववीजाङ्कुरत्वाच्च । 'आरुग्गवो हिलाभ' रुजति = पीडयतीति रोगो = जन्मजरामरणादिरूपोऽत्र, अविद्यमानो रोगो येषा ते अरोगा . = सिद्वास्तेपा भाव आरोग्य= सिद्धत्वम् बोधि = निखिलभवबन्धनपतिकूला परमार्थापोधहेतुभूता जिनमगीतप्रवचनरुचिस्तस्या लाभो वोधिलाभः, आरोग्याय = सिद्धस्वरूपाय वोधिलाभः =आरोग्यवोधिलाभस्तम्, यद्वा-आरोग्य = निरुपद्रवम् = उपद्रवाभावस्तेन वोधिलाभस्तम् । 'आरोग्याय' इत्यत्र च फलेभ्यो यातीत्यादिवत् 'क्रियार्थीपपदस्य च कर्मणि स्थानिन ' (२ । ३ । १४) इति चतुर्थी, तेन सिद्धत्व प्राप्तु वोधिलाभ इति निप्पपैः । जय च बोधिलाभोऽनिदानात्मक एवं मोक्षप्राप्तिहेतुर्न तु १४१ आता है 'पुष्पादिसे पूजन' रूप अर्थ कही नहीं लिखा है, अतएव यह निर्विवाद सिद्ध हुआ कि 'महित' अर्थात् ज्ञानातिशय आदि गुणों से सम्मानित अथवा इन्द्रादि से सादर प्रशसित | 'निदान ( नियाणा) रहित ही बोधिलाभ मोक्ष का कारण ત્યા ‘પુષ્પાદિથી પૂજન' રૂપ અર્ચ કરેલેા નથી એટલા માટે નિર્વિવાદ સિદ્ધ थ्यु 'महित' अर्थात् ज्ञानातिशय हि गुलोथी भन्मानित અથવા ઇન્દ્રાદિથી સાદર પ્રશંસા પામેલા 'निदान' (निय था) रहित मोधियाल भोक्षनु र छे मे बात सभ १ - 'जे ए' - (ये एते ) अनात्वादेकारलोपः । २- लोकस्य - आपत्वादेकवचनम् 'अवोऽन्त्यादि टी' - त्यादिवत् । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आवश्यकमूत्रस्य पुष्पादिभिरेव पूजनमिति शक्यते वक्तु तथा सति महच्दस्यापि तथास्त्रापत्तेः । न चास्तु का नो हानिरिति वाच्यम्, एत्र सति 'महाबाहुर्महाशयः' इत्यादा वपि 'पुष्पादि पूजितवाहुमान्' 'पुष्पादिपूजिताऽऽशयवान्' इत्यसङ्गतार्था पत्तेः, पूजार्थकमद्दधातुनिप्पन्नमहन्छब्दस्य तंत्र तत्रापि सच्चात् न च विनिगमनाविरहात्पुष्पादिपूजनमप्यर्थः स्यादित्युङ्कनीय, जीतरागाणा सावत्र पूजाऽनौचित्य रूपाया विनिगमनाया अनुपदमुक्तत्वाद, रिचैव भवदाग्रहे 'महामोह पकुब्बई ' (दशा० स्क) 'महात्राएं व पायते ' ( दर्शयै ० ) 'महामिण पासिताण पड कल्पनामात्र है, क्यों कि ऐसा माननेसे जो जो शब्द मह धातु से बनते हैं उन सब जगहों में पूर्वपक्षी के कथनानुसार 'पुष्पादि से पूजन' रूप अर्थ मान लेने पर 'महाबाहु, महाशय' आदि शब्दों के भी 'पुष्पादि से पूजित भुजावाले' 'पुष्पादि से पूजित आशय वाले' आदि अनिष्ट अर्थ होने लगेंगे। यदि कहें कि किसी अर्थ विशेष का निश्चय न रहने के कारण 'मह धातु' के 'विशाल' 'उदार' आदि अर्थ की तरह' पुष्पादिपूजनरूप' भी अर्थ ले सकते हैं तो इसका उत्तर पहले ही दे चुके हैं कि- ' वीतरागों के सावध पूजन का न होना ही पुप्पादिपूजनरूप अर्थके न होने में नियामक है, और ऊपर लिखी हुई संस्कृत टीका में दिखलाये हुए महामोर० ' आदि स्थलों में तथा अन्यत्र भी जहा कही 'मह' धातु का प्रयोग કેમકે એ પ્રમાણે માનવાથી જે શબ્દ માઁ ધાતુથી બને છે તે સર્વ સ્થળે પૂર્વ પક્ષીના કહેવા પ્રમાણે ‘પુષ્પાદિથી પૂજન’ રૂપ અમાની લેવાથી ‘મહાખાહુ, મહાશય’ આદિ શબ્દોના પણ ‘પુષ્પાદિયાં પૂજિત ભુજાવાળા,’ ‘પુષ્પાદિથી પૂજિત આશયવાળા વગેરે અનિષ્ટ અર્થ થવા મટશે જો કહેશે કે કાઈ અથ વિશેષને નિશ્ચય નહિ રહેવાના કારણે ‘મ” ધાતુને ‘વિશાલ, ઉદ્યાન' આદિ અથ પ્રમાણે ‘પુષ્પાદિ પૂજનરૂપ પણુ અર્થ લઈ શકાય છે તે તેને ઉત્તર પ્રથમજ આપી ચૂકયા છીએ કે વીતરાગ તે સાવધ પૂજન ન થવુંજ પુષ્પાદિપૂજનરૂપ અ નહિ हो! शम्वा भाटे नियाम हे याने उपर समेसी सस्कृत टीअभा गत वेस 'महामोह' આદિ સ્થળમાં તથા ખીન્ન સ્થળે પણ જે ટંકાણે મ” ધાતુના પ્રયેશ આવે છે १ - एकतरपक्षपातिनी युक्तिर्विनिगमना तस्या विरोऽभावस्तस्मात् । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ मुनितोपणी टीश . बुद्धा' 'महाणुभावेस महापरकमेस' (मृ. कृ. २ अ. २) 'मविकागया नात्तु महत्तत्त्व प्रजायते । महानिति यतः यानि काना मारते मना ॥१॥ अहङ्कारच महतो जायते मानबर्द्धनः।' (म पु.)। 'प्रतिमान् महनोऽवारोऽहकारात्पञ्चतन्मात्राणि' (सारयमृत्र)। 'प्रकृतेमहॉस्तनोऽद्यारम्नम्माहणश्च पोडशकः (साख्यतत्वकौमुदी)। 'द्रव्यप्रत्यक्षे महत्व समवायसम्बन्चेन कारणम्' (न्या सि मु.) इति ढगनान्तराणि । 'हाम्यात्पाटनी दामो प्रामकटो महत्तरः।' (नि शे.), 'रणपण्डितोऽत्र्यविद्यारिपुरे करहम गममहित कृतवान् ।' (भट्टिका० १० स ), 'विशङ्कट पशु वृद्विवाट पृयुट महत्' (अ को.), इत्यादीनि च न सङ्गन्छन्ते । 'जे ' ये पते, 'टोगम' 'लोकस्य, निर्धारणे पष्ठी तेन लोकनयस्य मय इत्ययः । 'उत्तमा' उनमा रागद्वेपकर्मपङ्ककलङ्कसायराहित्यात् श्रेष्ठाः । 'सिद्धा' सिद्धाः कृतकन्यवादया भववीजाकुरत्वाच । 'आरुग्गोहिलाभ' रुजति पीडयतीति रोगी जन्मनामरणादिरूपोऽत्र, अविद्यमानो रोगो येपा ते-अरोगाः सिद्धान्तेषा मात्र मागे. ग्य-सिद्धत्वम् बोधि-निखिलभवपन्धनपतिकूला परमार्थावरदेनुमना दिनमणीतप्रवचनरूचिस्तस्या लामो बोधिलाभः, आरोग्याय-सिदम्बम्पाय योषिलाभा-आरोग्यगोधिलाभस्तम् , यद्वा-आरोग्य-निरपदयम् MATमानेन बोधिलाभस्तम् । 'आरोग्याय' इत्यत्र च फलेभ्यो यानीन्यादिगन प्रियायापपदस्य च कर्मणि स्थानिनः । (२।३।१४) इति चतुर्थी; गेन पिय प्राण बोधिलाभ इति निकपः । अय च बौधिलामोऽनिदानात्मक र मानमानिने म, आता है 'पुष्पादिसे पूजन' रूप अर्थ कहीं न सिमा यह निर्विवाद सिद्ध हुआ कि 'महित' मान भानानिmale गुणों से सम्मानित अथवा इन्द्रादि से मादर प्रविन । 'निदान (नियाणा) रहित ही योपियाम पास का काम त्या पाEिथी पूरन' ३५ सय ४३ नया N थय 'महित' अर्थात् ज्ञानातिशय Engine - P ulat night-20 સાદર પ્રશસા પામેલા 'निदान' (निय ) हित र ANAarus मे पात , १-'जे ए'-(ये एते) अगऽऽपत्यादिकारलीप ।.. २- लोकस्य-आषत्वादेवचनम अयोऽन्त्यादि टी-त्यादिवत । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य पुष्पादिभिरेव पूजनमिति शक्यते वक्तु, तथा सति महच्छन्दस्यापि तथास्वापतेः। न चास्तु का नो हानिरिति वाच्यम्, एर सति 'महाबाहुमहाशयः' इत्यादा वपि 'पुप्पादिपूजितवाहुमान्' 'पुष्पादिपूजिताऽऽशयवान्' इत्यसातार्थी पत्तेः, पूजार्थस्महधातुनिष्पन्नमहन्छन्दस्य तंत्र तत्रापि सत्त्वाद, न च 'विनिगमनाविरहात्पुष्पादिपूजनमप्यर्थः स्यादित्युदनीय, वीतरागाणा सावधपूजाऽनौचित्य रूपाया विनिगमनाया अनुपदमुक्तत्वात्, स्त्रैिव भवदाग्रहे 'महामोह पकुवई' (दशा० स्क) 'महावाए व पायते' (दशौ०) 'महासमिण पासित्ताण पडिकल्पनामात्र है, क्यों कि ऐसा माननेसे जो जो शब्द मह धातु से धनते हैं उन सब जगहों में पूर्वपक्षी के कथनानुसार 'पुष्पादि से पूजन' रूप अर्थ मान लेने पर 'महायाहु, महाशय' आदि शब्दा के भी 'पुष्पादि से पूजित भुजावाले' 'पुष्पादि से पूजित आशय चाले' आदि अनिष्ट अर्थ होने लगेंगे। यदि कहें कि-'किसी अर्थ विशेप का निश्चय न रहने के कारण 'मह धातु' के 'विशाल' 'उदार' आदि अर्थ की तरह' पुष्पादिपूजनरूप' भी अर्थ ले सकते हैं तो इसका उत्तर पहले ही दे चुके हैं कि-'वीतरागों के सावध पूजन का न होना ही पुप्पादिपूजनरूप अर्थके न होने मे नियामक है, और ऊपर लिखी हुई सस्कृत टीका में दिखलाये हुए महामोह' आदि स्थलों में तथा अन्यत्र भी जहा कही 'मह' धातु का प्रयोग કેમકે એ પ્રમાણે માનવાથી જે શબ્દ મદ ધાતુથી બને છે તે સર્વ સ્થળે પૂર્વ પક્ષીના કહેવા પ્રમાણે “પુષ્પાદિથી પૂજન” રૂપ અર્થ માની લેવાથી “મહાબાહ, મહાશય આદિ શબ્દોને પણ “પુષ્પાદિથી પૂજિત ભુજાવાળા,” “પુષ્પાદિથી પૂજિત આશયવાળા વગેરે અનિષ્ટ અર્થ થવા મડશે જે કહેશે કે “કઈ અર્થ વિશેષને निश्चय नहि रवाना र 'मह' धातुनो 'विशG माह मय प्रमाणे 'yone પૂજનરૂપ પણ અર્થ લઈ શકાય છે તે તેને ઉત્તર પ્રથમજ આપી ચૂકયા છીએ કે “વીતરાગ ને સાવધ પૂજન ન થવુજ પુષ્પાદિપૂજનરૂપ અર્થ નહિ 38 ५५41 भाट नियाम छ मन पर समेसी सतहमा मतस 'महामोह' આદિ સ્થળમા તથા બીજા સ્થળે પણ જે ઠેકાણે "મ ધાતુને પ્રયોગ આવે છે १-एकतरपक्षपातिनी युक्तिविनिगमना तस्या विरहोऽभावस्तस्मात् । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका १४३ पयासयरा 'उत्तम' उत्तम = सर्वोत्कृष्टम्, एतेन जघन्यमध्यमयोर्व्यवच्छेदः | 'दिंतु ' ददतु = वितरन्त्वित्यर्थः । ' उपदेसु निम्मलयरा' क्षालिताखिलकर्म मलत्वाच्चन्द्रेभ्यो निर्मलतमाः= चन्द्रापेक्षयाऽप्यतिशयितनैर्मन्यभाज इति भावः । ' आच्चे अहिय मिथ्यात्वादितिमिरनिनाशकात्युत्कृष्टके वलाऽऽलोकेनाखिललोकालोकप्रकाशकत्वेनाऽऽदित्येभ्योऽप्यधिक मकाशकरा' । 'सागरवरगभीरा ' सागराः समुद्रास्तेषु वर'=श्रेष्ठ' सागरवरः=स्वयम्भूरमणसमुद्रस्तद्वद्गम्भीराः परीपहादिसहनशीलत्वात्प्रशान्तवमाः, 'सिद्धा' सिद्धाः = साधिताखिला भीप्सिताः, 'सिद्धिं ' सिद्धिं नित्तिपटोपलब्धि 'मम' मद्य 'दिसतु' दिशन्तु ददत्वित्यर्थः । " यपि सिद्धाना वीतरागत्वेनाऽऽरोग्यबोधिलाभादिदायकस्व न सघटते तथापि याचन्या भाषया भत्तचुद्रेकादेवमुच्यते इति न काऽपि क्षतिः । से जघन्य और मध्यम को हटाने के लिये 'उत्तम' पद दिया है ॥ सकल कर्ममलों के हट जाने के कारण चन्द्रमासे भी अत्यन्त निर्मल, केवलज्ञानरूपी आलोक (प्रकाश) से सपूर्ण लोकालोक के प्रकाशक होने के कारण सूर्य से भी अधिक तेजवाले, तथा अनेक अनुकूल प्रतिकूल परीपर - उपसर्ग के सहनेवाले होने से स्वयम्भूरमण समुद्र के समान सुगम्भीर सिद्ध भगवान मुझे सिद्धि (मोक्ष) देवें ॥ ७ ॥ सिद्ध भगवान वीतराग है अतएव यद्यपि किसीको आरोग्य बोधिलाभ आदि दे नही सकते तो भी भव्यों की उत्कृष्ट श्रद्वा छे, तेभाथी धन्य भने मध्यभने हावा भरे 'उत्तम' यह मासु छे મકલ કÇમલ દૂર થઈ જવાના કારણે ચન્દ્રથી પણ અત્યન્ત નિર્મૂલ, કેવલજ્ઞાનરૂપી આવેક-(પ્રકાશ)થી સ પૂ લેાકાલેાકના પ્રકાશક હાવાના કારણે સૂર્યથી પણ અધિક તેજવાળા, તથા અનેક અનુકૂળ પ્રતિકૂળ પરીષūા ઉપસર્ગાના સહુન કરવાવાળા હાવાથી સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રા સમાન સુગભીરસિદ્ધ ભગવાન મને સિદ્ધિ (મેક્ષ) આપે છ મિદ્ધ ભગવાન વીત્તરાગ છે એ કારણથી ને કે કેઈન આરગ્ય મેાધિલાભ આદિ આપી શકતા નથી તે પણ ભવ્ય છવાની ઉત્કૃષ્ટ શ્રદ્ધાથી આ પ્રકારની ३- 'चदेसु' 'आइचेसु' अत्राऽऽर्पत्वात्पञ्चम्यर्थे सप्तमी । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धेवरच भामाश्चतिर विग्रहः, याबस्तयोव्यसमाधिव्याहत्य १४२ भावश्यकमूत्रस्य सनिदानात्मकोऽत आह-'समाडिवर' इति, समाधान 'समाधिः रत्नत्रयोप लब्धिः। अय च समाधिव्यभावभेदाद्विविधस्तत्र ' द्रव्यसमाधिः-शरीरादि सौख्यावाप्तिः, भावसमाधिस्तु रत्नत्रयोपलब्धिस्तयोव्यसमाधिव्याहत्यर्थं वर पदमाह-चरश्वासी समाधिश्चेतिर विग्रहः, यद्वा समा योर्वर समाधिवरस्तम् । समाधिवरश्च भासमाधिरेव, स च सम्यग्ज्ञानादिरस्नत्रयमाप्तिस्वरूप इति तदा नीमनिदानवोधिलाभस्योदयात् सनिदानयोधिलाभव्यवच्छेद', सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रयमाप्तिर्हि मोक्षसाक्षात्कारणमतस्तस्या वेलाया सनिदानवोधिलाभोपक्षयादनि दानवोधिलाभो जायते । समाधिवरोऽपि जघन्यादिभेदैरनेकविधस्तस्मादाह है। इस बात को समझाने के लिए 'समाहिवर' कहा है, समाधि भी द्रव्य-भाव भेदसे दो प्रकारकी है, उनमें से शरीरादि सुख की प्राप्ति रूप द्रव्यसमाधि को हटा कर केवल रत्नत्रय प्राप्तिरूप भावसमाधि का ग्रहण करने के लिए 'वर' पद दिया है अत एव सनिदान बोधिलाभ का निवारण हो गया, क्योंकि ज्ञानादि रत्नत्रय की प्राप्ति मोक्ष का साक्षात् कारण है, इसीलिए इस अवस्था में केवल अनिदान (निधाणारहित) बोधिलाभ रहता है। भावसमाधि भी जघन्य आदि भेदों से अनेक प्रकार की है उनमें ant भोट 'समाहिवर' द छ, समाथि ५ द्रव्य-मा यी २ છે તેમાથી શરીરાદિ સુખની પ્રાપ્તિ રૂપ દ્રવ્યસમાધિને હઠાવીને કેવવ રત્નત્રયીની પ્રાપ્તિરૂપ ભાવસમાધિનું ગ્રહણ કરવા માટે “વર' પદ આપેલું છે એટલા માટે સનદાન બધિલાભનું નિવારણ થઈ ગયું, કારણ કે જ્ઞાનાદિ- નત્રયીની પ્રાપ્તિ માટેનું સાક્ષાત કારણ છે આ માટે એ અવસ્થામાં કેવલ અનિદાન (નિયાણરહિત) બધિલાભ રહે છે ભાવસમાધિ પણ જઘન્ય આદિ ભેદથી અનેક પ્રકારની १- समाधि., सम्+आइपूर्वकात् धा' धातोः 'उपसगे घो कि.' (पा ३।३। ८२ ) इति भावे कि प्रत्यय', आतो लोप इटी'-न्याकारलोप! २- 'वरसमाधि ' पूर्वनिपातमकरणस्य 'समुद्राभ्राद्ध' (पा ४।४।११८) इत्यादिनिर्देशवलेनाऽनित्यत्वावरशब्दस्य पश्चात्मयोग । अत्रत्यादिना 'लक्षणहेत्वो क्रियायाः' (३ । २ । १२६) इत्यादीना ग्रहणम् । ३-'समायोर्वर' अर सप्तमीतत्पुरुष पष्ठीतत्पुरुषस्तु 'न निरणे' (पा २।२।१०) इति प्रतिषेधानात्र भवति । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपणी टीका, सामायिका ययनम्-२ १४५ ग्यबोधिलाभादिसिद्धौ तपश्चरणादिक्लेशोऽकिञ्चित्कर इति तु नागकनीयम् , तपःसयमायनुष्ठानेन दृढस्य श्रद्धानस्योत्पत्तौ भक्तिदाढर्थ तेन कर्मक्षयस्ततो मोक्ष इति भक्तिदाढय प्रति तप सयमाघनुष्ठानस्य हेतुत्वात् ॥१-७॥ इति श्रीविश्वविरयात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकरितललितकलापाऽऽलापक-प्रविशुद्धगयपयनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य'-पदभूपित कोल्हापुरराजगुरु-पालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवार-पूज्यश्रीघामीलाल-प्रतिविरचिताया धीश्रमणमत्रस्य मुनितोपण्याख्याया व्याख्याया चतुर्विंशति स्तवाव्य द्वितीयमभ्ययन समाप्तम् ॥ २॥ कोई कहे कि-भगवान की भक्ति से ही मोक्ष प्राप्ति तक की सिद्धि हो तो तप सयम आदि के कष्ट उठाने का क्या प्रयोजन है ? इसके लिये यही उत्तर है कि-तप सयम आदि के आराधन करने से 'श्रद्धान' दृढ हो कर भक्ति प्रवल होती है और भक्ति की दृढता से कर्मों की निर्जरा होकर क्रमसे मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥१-७॥ ॥ इति द्वितीय अध्ययन सपूर्ण ॥ 1 કઈ કહેશે કે ભગવાનની ભકિતથી જ એક્ષપ્રાપ્તિ સુધીની સિદ્ધિ થાય છે તે તપ સયમ આદિ કષ્ટ ઉઠાવવાનું શુ પ્રજન છે? ઉત્તર એ છે કે તપ સયમ આદિની આરાધના કરવાથી શ્રદ્ધા દઢ થઈને ભક્તિ પ્રબલ થાય છે અને ભક્તિની દૃઢતાથી કર્મોની નિર્જરા થઈને કમથી મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે (૧૭) ઇતિ દ્વિતીય અધ્યયન સપૂર્ણ : ૨ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ आवश्यकसूत्रस्य ननु तारताऽपि याश्चामल आपधेत इति चेम, भक्तिमहिम्ना स्वत एवं 'याचितार्थोपलव्यः,परिपकमक्तेस्तथास्वाभाव्यात् । न चैतस्या प्रार्थनायासनिदानल (सकामत्व) प्रसज्जत इति वाच्य, मार्थनाया मोक्षमाप्तित्रिपयकत्वात् । आह-जिनवर्यदातव्य पोधिलाभादिहेतुभूत तहत्तमेव रत्नत्रयोपदेशरूप मिति किमतः परमवशिष्ट दातव्य यत्मार्थ्यते? इति, उच्यते यद्यपि सर्व तैरुपदे शेन दत्तमेवास्ति तथाप्युत्कटभावभक्तिभरितस्येत्थमुक्ती सञ्चिताना ज्ञानावरणी यादीना कर्मणा पक्षयो भाति, तत्प्रक्षयाच मोक्षोपलब्धिरिति । जिनभक्त्यैवाऽऽरोसे इस प्रकार की प्रार्थना उचित ही है, क्योंकि सिद्ध भगवान् कुछ भी न देखें पर भक्तिमान् भव्यों की अपनी अटल भक्ति के प्रभाव से प्रार्थना के अनुसार फल हो जाता है। यह प्रार्थना मोक्षप्राप्ति के लिये है अतः इसे निदानसहित नहीं कह सकते। यहा प्रश्न उठता है कि सिद्ध भगवान् जो कुछ देसकते थे वह मोक्ष मार्ग का उपदेश अरिहत अवस्थामें दे ही चुके हैं फिर क्या शेष रह गया जिसके लिये प्रार्थना की जाती है । इसका समाधान यह है कि इस प्रकार भक्तिमान् भव्यों की उत्कृष्ट भावना से की हुई प्रार्थना के द्वारा पूर्वसञ्चित ज्ञानावरणीय आदि कोका क्षय होकर मोक्षप्राप्ति होती है। પ્રાર્થના ઉચિત જ છે, કારણ કે સિદ્ધ ભગવાન કાઈ પણ આપતા નથી તે પણ ભકિતમાન ભવ્ય જીની પિતાની અટલ ભકિતના પ્રભાવથી પ્રાર્થના અનુસાર ફળ થઈ જાય છેઆ પ્રાર્થના મોક્ષ પ્રાપ્તિ માટે છે, માટે તેને નિતનસહિત કહી શકાય નહિ અહિં એક પ્રશ્ન થાય છે કે, સિદ્ધ ભગવાન જે કાઈ આપી શકે છે તે મોક્ષમાર્ગને ઉપદેશ અરિહત અવસ્થામાં આપી ચુકયા છે પછી શુ બાકી રહી ગયું છે કે જેના માટે પ્રાર્થના કરવામા આવે? આ પ્રશ્નનું સમાધાન એ છે કે આ પ્રમાણે ભકિતમાન ભવ્ય જીની ઉત્કૃષ્ટ ભાવનાથી કરવામાં આવેલી પ્રાર્થના દ્વારા પૂર્વ સચિત જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોને ક્ષય થઈને મોક્ષ પ્રાપ્તિ થાય છે Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, सामायिका ययनम्-२ १४५ ग्यवोधिताभादिसिद्वौ तपश्चरणादिक्लेशोऽकिञ्चित्कर इति तु नाशङ्कनीयम् , तपःसयमापनुष्ठानेन दृढस्य श्रद्धानस्योत्पत्तौ भक्तिढाढर्य तेन कर्मक्षयस्ततो मोक्ष इति भक्तिदाढय प्रति तप'सयमाघनुष्ठानस्य हेतुत्वात् ॥१-७॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगद्वलम-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकरितललितकलापाऽऽलापक-प्रविशुद्धगयपयनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त 'जैनशास्त्राचार्य'-पदभूपित कोल्हापुरराजगुर-पालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवार-पूज्यश्रीघामीलाल-तिविरचिताया धीश्रमणमूत्रस्य मुनितोपण्याख्याया व्याख्याया चतुर्विंशति स्तवाख्य द्वितीयमभ्ययन समाप्तम् ॥ २॥ कोई कहे कि-भगवान की भक्ति से ही मोक्ष प्राप्ति तक की सिद्धि हो तो तप सयम आदि के कष्ट उठाने का क्या प्रयोजन है? इसके लिये यही उत्तर है कि-तप सयम आदि के आराधन करने से 'श्रद्धान' दृढ हो कर भक्ति प्रपल होती है और भक्ति की दृढता से कर्मों की निर्जरा होकर क्रमसे मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥१-७॥ ॥ इति द्वितीय अध्ययन सपूर्ण ॥ કઈ કહેશે કે ભગવાનની ભકિતથી જ એક્ષપ્રાપ્તિ સુધીની સિદ્ધિ થાય છે તે તપ મયમ આદિ કષ્ટ ઉઠાવવાનું શુ પ્રજન છે? ઉત્તર એ છે કે તપ સયમ આદિની આરાધના કરવાથી શ્રદ્ધા દઢ થઈને ભક્તિ પ્રબલ થાય છે અને ભક્તિની દૃઢતાથી કર્મોની નિર્જરા થઈને ક્રમથી મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે (૧૭) | ઇતિ દ્રિતીય અધ્યયન સપૂર્ણ : ૨ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावश्यकमूत्रस्य । अथ तृतीयमध्ययनम् । द्वितीयेऽ-ययने माणातिपातादिसामन्यापारनिवृत्तिलक्षणसामायिकवतो पदेष्टणामर्हता गुणोत्कीर्जन कृतम्, अधुनाईदुपदिष्टस्यापि सामायिकता देगुरुकृपयैवोपलब्धेर्गुरुवन्दनोतरमेव प्रतिक्रमणानुष्ठानस्य शिष्टाचारपरिगृहीत वाचाऽवसरसगता गुरुवन्दना कर्तुं चन्दनाग्य वतीयम-ययनमाह---'इच्छामि' इत्यादि, ॥ मूलम् ॥ इच्छामि खमासमणो। बदिउ जावणिजाए निसीहियाए, अणुजाणह मे मिउग्गह, निसीहि अहोकाय कायसफास, खमणिज्जो मे किलामो, अप्पकिलताण बहुसुभेण भे दिवसोवइक्कतो? जत्ता भे? जवणिज्ज च भे? खामेमि खमासमणो। देवसिअ वइकम, आवस्सियाए पडिकमामि खमासमणाण देवसिआए आसायणाए तेत्तीसन्नयराए जंकि चिमिच्छाए मगदुकडाए ॥अथ तीसरा अ ययन प्रारभ ॥ दूसरे अध्ययनमे प्राणातिपात आदि सावध योगकी निवृत्तिरूप सामायिक व्रतके उपदेशक तीर्थकरों का गुणोत्कीर्तन किया गया है। तीर्थकरों से उपदिष्ट वह सामायिक व्रत गुरु महाराज का कृपासे ही प्राप्त हो सकता है इस कारण, तथा गुरुवन्दनापूर्वक हा प्रतिक्रमण करने का शिष्टाचार होने से गुरुवन्दना करना आवश्यक है अतएव अब वन्दना ययन नामक तीसरा अध्ययन प्रारभ करत हैं-'इच्छामि' इत्यादि । અથ શ્રીજુ અધ્યયન પ્રારંભ બીજા અધ્યયનમાં પ્રાણાતિપાત વગેરે સાવધ ગની નિવૃત્તિ-રૂપ સામા યિક વ્રતના ઉપદેશક તીર્થકરોનું ગુણકીર્તન કરવામાં આવ્યું છે તીર્થ કરે એ ઉપદેશેલ સામાયિક વ્રત ગુરુ મહારાજની કૃપાથી જ પ્રાપ્ત થાય છે, એટલા માટે, તથા ગુરૂવ દતાપૂર્વક જ પ્રતિક્રમણ કરવાને શિષ્ટાચાર હોવાથી ગુરુવન્દના કરવી તે આવશ્યક છે, એ માટે હવે વદન ધ્યાન નામનું ત્રીજુ અધ્યયન भा२३ ४२ छ-" इच्छामि " त्या Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, वन्दनाध्ययनम्-३ १४७९ ॥ छाया "नीयया नेपायो भनि यापन वयदुकडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए लोहाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए सव्वधम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे देवसिओ अडयारो कओ तस्स खमासमणो। पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाण वोसिरामि ॥ सू० १ ॥ ॥ छाया ॥ इच्छामि क्षमाश्रमण ! चन्दितु यापनीयया नैषेधिक्या, अनुजानीत मे - मितावग्रहम् । निपिध्य अध.काय कायसस्पर्शम् । क्षमणीयो भवद्भिः क्लमः। अल्पक्लान्ताना वहुशुभेन भवता दिवसो व्यतिक्रान्तः ', यात्रा भवताम् ' यापनीय च भवताम् ? क्षमयामि क्षमाश्रमण ! देवसिक व्यतिक्रमम् । आवश्यक्या अतिक्रमामि क्षमाश्रमणाना देवसिक्या आशातनया त्रयस्त्रिंशदन्यतरया यत्किञ्चिमिथ्याभूतया मनोदुष्कृतण वचोदुष्कृतया कायदुष्कृतया क्रोधया मानया मायया लोभया सर्वकाल्विया सर्वमिथ्योपचारया सर्वधर्मातिक्रमणया आशातनया यो मया देवसिकोऽतिचारः कृतस्तस्य क्षमाश्रमण ! प्रतिक्रमामि निन्दामि गहें, आत्मान व्युत्सृजामि ॥ मू० २॥ ॥ टीका ॥ _ 'खमासमणो' क्षमण-परीपहादीना सहन क्षमा,' 'श्रमणो, शमन., समना , समण.' इत्येपा प्राकृते 'समणो' इति भवति, तत्र श्राम्यति-तपस्यतीति, भवभ्रमणहेतुभूतविपयेषु खिद्यतीति, यद्वाऽन्तर्भावितण्यर्थत्वात् श्राम्यति-दमनेन 'श्रमणः, शमनः, समना , समणः' इन चारो का प्राकृतमें 'समणो' ऐसा स्प बनता है अतः सस्कृत छाया के अनुसार इन चारों का अलग २ अर्थ कहते है यारह प्रकार की तपस्या में श्रम (परिश्रम) करनेवाले, "श्रमण , शमन', समनाः, समण , मा याश्य पार्नु प्राकृत भाषामा "समणो" मेयु ३५ मन छ, मेसे सस्कृत छा अनुसार ये व्यारेय पहाना det-JEE मर्य ४७ छ २ ५२नी तपस्यामा श्रम (परिश्रम) ४२पापाणा, मया, धन्द्रिय, १-क्षमा-'क्षमूप सहने' अस्मात् 'पिद्भिदादिभ्योऽ' (३।३। १०४) इति मूत्रेण स्त्रियाममत्ययस्ततष्टाप् । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - १४८ भावश्यकमूत्रस्व श्रमयतीन्द्रियनोइन्द्रियाणीति श्रिमणः । शमयति शान्ति नयति कपायनोकषा यरूपानलमिति, शाम्यति=विशालभनाटवीपर्यटदोगानलज्वालामालारालताप फलापतः पृथग्भवतीति चा शमनः । समान स्वपरजनेषु तुल्य मनो यस्येति, कुशलमयेन मनसा सह पर्तते इति पा समनाः । सम् सम्यक् 'अणति-प्रवचन ब्रूत इति, सम्यरु अन्यते-संयमपलेन फपाय जित्वा जीवतीति वा समण' । क्षमाप्रधानः श्रमणः, शमनः, समना', समणो वा क्षमाश्रमणादिस्तत्सबुद्धी । अथवा इन्द्रिय नोइन्द्रिय (मन) का दमन करनेवाले को 'श्रमण' कहते हैं। कपाय-नोकपायरूप अग्नि को शान्त करनेवाले. या ससाररूप अटवीमें फैली हुई कामभोगरूप अग्नि की प्रचण्ड ज्वालाओं के भयङ्कर ताप से आत्मा को अलग करनेवाले को 'शमन' कहते हैं २। शत्रुमित्र मे एकसा मन रखनेवाले, अथवा विशुद्ध मनवाल को 'समना करते हैं । अच्छी तरह प्रवचन का उपदेश देनेवाला अथवा सयम के बल से कपाय को जीतकर रहने वाले को 'समण' करते हैं ४। परन्तु यहा पर प्रसिद्धि के कारण 'श्रमण' शब्द को लेकर ही व्याख्या करते हैं-क्षमा है प्रधान जिनमें नन्दिय (मन)नु मन ४२पावागाने "श्रमण" हे छ (१) ४५१५, नोपाय રય અગ્નિને શાંત કરવાવાળા અથવા સ સારરૂપી અટવીમાં ફેલાયેલી કામ ભેગરૂપી અગ્નિની પ્રચંડ જવાલાઓના જ ભયકર તાપથી આત્માને અલગ-જુદી ४२वावागाने 'समन' ४ छ (२) शत्रु-भित्रमा सरभु मन रामवावाणा अया विशुद्ध मनपाणार 'समना' हे छ (3) राम२ सारी शेते प्रपयनना ઉપદેશ આપવાવાળા, અથવા સ યમના બળથી કષાને જીતીને રહેવાવાળાને 'समण' हे छ (४) ५२न्तु माडं प्रसिद्धिना ) 'श्रमण' शहने छन । વ્યાખ્યા કરે છે, જેની અંદર ક્ષમાગુણ મુખ્ય છે તેને ક્ષમાશ્રમણ કહે છે १- 'श्रम तपसि खेदे च ' अस्मान्नन्यादिवाकर्तरि ल्यु । २- शमन -'शमु उपशमे' अस्माण्ण्यन्ताच्छुद्राद्वा ल्यु पूर्ववत् । ३- समना -पूर्वत्र व्युत्पत्तौ रामानस्यच्छन्दसी'-त्यत्र 'समानस्ये 'वि योगविभागात् समानस्य स , उत्तरन 'वोपसर्जनस्य' (६।३१८३) इति सहस्य सः। ४- 'अगति' भौरादिकात्परस्मपदिन' शब्दार्थकात् 'अण' धातोरिदम् । ५-- 'अण्यते देादिकस्य आत्मनेपदिन 'अण माणने । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, बन्दनाध्ययनम्-३ 'जावणिज्जाए' यापनीयया शक्त्यनुकूलया 'निसीहियाए' निषेधन निषेधः= प्राणातिपातादिसावयव्यापारविरतिः सा पयोजन यस्या सा नैपेधिकी , तया नैषेधिक्या तन्वेति शेप , शक्त्यनुकलेन प्राणातिपातादिनिवृत्तरूपेण शरीरेणेत्यर्थः, 'यदिउ' वन्दितुम् अभिवादयितुम् 'इच्छामि' अभिलपामीत्यर्थः । अतः 'मे' मम 'मिउग्गह' अवगृह्यत इत्यवग्रहः क्षेत्रम् , यद्वा-अवग्रहणमवग्रहा क्षेत्रपरिग्रहः, मितश्चासाववग्रहश्य मितावग्रह', अथवा मितायाः अर्थात्परिमित भूमेरवग्रहः ग्रहण मितावग्रहः उपविष्टस्य गुरोरभिमुख वर्तमानायाः स्वदेहपरिमिताया भूमेग्रहण, तम् 'अणुजाणह' अनुजानीत=मितावग्रहमवेशायानुशा दत्त, अस्मिन्नवसरे गुरु' 'अनुजानामि' इति भणति, ततोऽनुज्ञातः शिष्यः 'निसीहि निपिध्य सावधव्यापारान् परित्यज्य 'अहोकाय' कायस्य शरीरस्याऽधः अपाकाय., यद्वा अधः अधस्तनः कायः अप.कायस्त चरणस्वरूप पत्तीति शेप. । पष्ठयर्थे वा द्वितीयाऽऽप॑त्वात् । 'कायसफास' कायेन=स्वशिरोउनको 'क्षमाश्रमण' कहते हैं । यहा शिष्य सम्बोधन करके कहता है कि "हे क्षमाश्रमण ! मैं अपनी शक्ति के अनुसार प्राणातिपात आदि सावद्य व्यापारों से रहित काय से चन्दना करना चाहता हूँ, अतएव मुझे आप मितावग्रह (जहा गुरु महाराज विराजित हों उनके चारों ओर की साढे तीन २ हाथ भूमि) में प्रवेश करने की आज्ञा दीजिये। उस समय गुरु शिष्यं को 'अनुजानामि' कह कर प्रवेशकी आज्ञा देवें, तय आज्ञा पाकर शिष्य योले-'हे गुरु महाराज ! मैं सावध व्यापारों को रोक कर मस्तक और हस्त से અહિં શિષ્ય સ બેધન કરીને કહે છે કે હે ક્ષમાશ્રમણ ! હુ મારી શકિત અનુસાર પ્રાણાતિપાત આદિ ચાવવા (પાપકરી) વ્યાપારથી રહિત શરીર વડે વદના કરવા ઈછા કરૂ છુ, એટલા માટે મને આપ મિતાવગ્રહ (જ્યા ગુરુ મહારાજ બિરાજિત હેય તેમની ચારે બાજુ સાડા ત્રણ સાડા ત્રણ હાથ ભૂમિ)માં પ્રવેશ કરવાની આજ્ઞા આપે તે સમયે गुरु शिष्यने 'अनुजानामि' हीन प्रवेशवानी भाशा माघे त्यारे माता भजपीन શિષ્ય કહે કે – હે ગુરુ મહારાજ ! હું સાવદ્ય વ્યાપારને રોકીને શિર તથા १- 'नैपेधिकी तदस्येत्यधिकारे 'प्रयोजनम्' (५॥ १।१०८) इति उफ, ठगन्तलान्छीप् । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० आवश्यक सूत्ररप हस्तलक्षणेन सस्पर्श: सम्यक् स्पर्शस्तम् । 'अणुजाणह' इत्यनेन पूर्वोक्तेन सम्बन्धः, करोमीत्यस्य शेपो ना 'किलामो लमः शरीरग्लानिकृत् मस्कृतोऽ पराधः निजकठोरकर शिरसा भवदीय कोमलचरणकमलस्पर्शेनेत्यर्थात्, यद्वा मदी येनाऽनेन नमस्कारव्यापारेण भवतो मानस एव कवन श्रमः सञ्जातः स्यात्स 'भे' भवद्भिः यद्वा भवता' 'खमणिज्जो' क्षमणीयः = सोढव्यः, तथा 'अप्पकिल ताण' अल्पशब्दोऽनाऽभाववाची, "लान्त=क्लान्तिः, अल्प= विगत क्रान्त= शरीर ग्लानिरूपःश्रमो येषा तेऽल्पक्लान्तास्तेपामल्पक्लान्तानाम् अल्प वेदनात्रतामित्यर्थ., 'भे' भवता गुरुवर्याणा 'दिवस' दिवस' 'बहुसुभेण ' बहु च तच्छुभ च बहुशुभ तेन प्रभूतशान्तिपूर्वकमित्यर्थः ' वइकतो' व्यविक्रान्त =गत' किम् ? ' जत्ता' यात्रा = तपोनियमादिस्वरूपा सयमयाना 'भे' भवता निराबावे ? वि शेषः, च = किञ्च 'भे' भवता शरीरमिति गम्यते ' जवणिज्ज' यापनीयम् इन्द्रि यनोइन्द्रियबाधारहित वर्त्तते ? इति शेष एव सयमयात्रादिकुशलमापृच्छय शिष्य' पुनरप्याह - ' खमासमणी' हे क्षणश्रमण ! 'खामेमि' क्षमापयामि आपके चरण का स्पर्श करता हूँ इस तरह वन्दना करनेमें मुझसे जो आपको किसी प्रकार का क्लम (कष्ट) पहुंचा हो आप उसकी क्षमा करे । हे गुरु महाराज ! आपका दिन बहुत सुखशान्ति से व्यतीत हुआ न ?, आपकी सयमयात्रा निराबाध है न ?, और आपका शरीर, इन्द्रिय, नोइन्द्रिय की बाधा से रहित है न ? | इस प्रकार सयमयात्रा और शरीर के सम्बन्ध में कुशल पूछ कर फिर से शिष्य कहता है - है क्षमाश्रमण ! मुझसे जो दिवस - सम्बन्धी હાથથી આપના ચરણના સ્પર્ધા કરૂ છુ આ પ્રમાણે વદના કરવાથી મારા વડે આપને જે કોઇ પ્રકારથી કષ્ટ થયુ હોય તે આપ મને ક્ષમા કરો હૈ ગુરુ મહારાજ આપના દિવસ ખૂબ શાતિથી પસાર થયે છે કે કેમ ? આપની સચમયાત્રા નિરાળાધ છે કે કેમ ? અને આપનું શરીર, ઇન્દ્રિય, નેઇન્દ્રિયની ઉપાધિથી રહિત છે કે કેમ ? આ પ્રમાણે સયમયાત્રા અને શરીરના સબંધમા કુશળતા પૂછીને શિષ્ય ફરીથી કહે છે કે- હું ક્ષમાશ્રમy । મારાથી १ - ' निजकठोरकरशिरसा ' अन प्राण्यङ्गत्वादेकवद्भाव - । २ - ' भवताम् ' अत्र 'कृत्याना कर्त्तरि वा' (२।३७१) इति कर्तरि पष्ठी । , ३ 'क्लान्त' भाषेच 1 ך Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, चन्दनाध्ययनम्-३ १५१ 'देवसिय' दिवसे भवो देवसिकस्त, दिवसशब्दोऽत्र रात्ररप्युपलक्षणस्तेनाऽहोरात्रकृतमित्यर्थः, 'बइक्कम' व्यतिक्रमोऽपराधस्तम् 'आवस्सियाए' आवश्यक्याअवश्य कर्त्तव्यैश्चरणकरणयोगनिवत्ता आवश्यकी अवश्यकर्त्तव्यगुरुशुश्रूपादिरूपा तया हेतुभूतया यत्किञ्चिद्विपरीतमाचरित स्यात् तत् 'पडिकमामि' मतिकामामि-परित्यजामि, यद्वा तस्मात् प्रतिकामामि-त्रिनिवत्ते, इत्येव केचिद्वयाचवते, वस्तुतस्तु 'खामेमि खमासमणो देवसिय वइक्म आवस्सियाए पडिकमामि' इत्यस्य हे क्षमाश्रमण ! सञ्जात देवसिकमपराध क्षमापयामि भविष्यन्त च तमवश्यकर्तव्यया भवदीयाऽऽज्ञाराधनया परित्यजामीत्येवार्थ इति वयम् । प्रोक्तमेवार्थ विशेषतः स्फोरयति-खमा०' इति । 'खमासमणाण' क्षमाश्रमणाना पूर्वोक्ताना 'देवसियाए' देवसिक्या, दिवसपदस्य रात्रेरप्युपलक्षणत्वादहोरात्रसअपराध हुआ हो उसकी क्षमा चाहता हूँ आप क्षमा करे, आवश्यक क्रिया करते समय भूल से जो कुछ विपरीत आचरण किया गया उससे निवृत्त होता हूँ' इस प्रकार कोई २ व्याख्या करते हैं। वास्तव में 'खामेमि खमासमणो! देवसिय वइकम आवस्सियाए पडिकमामि' का तात्पर्य यह है-'हे क्षमाश्रमण! दिवस सन्धी जो कुछ अपराध हो चुका हो उसके लिये क्षमा चाहता है और भविष्यमें आपकी आज्ञाकी आराधना रूप आवश्यक क्रिया के द्वारा अपराध से अलग रहूंगा, अर्थात् अपराध नहीं होने देनेका प्रयत्न करूँगा'। इसी यात को शिष्य विस्तारसे करता है-हे गुरु महाराज ! आप क्षमाश्रमणों की, दिवस-सम्बन्धी तैतीस દિવસ સબ ધી જે કાઈ અપરાધ થયે હોય તેની ક્ષમા માગુ છુ આપ ક્ષમા કરે, આવશ્યક ક્રિયા કરવા વખતે ભૂવથી મારા વડે જે કાઈ વિપરીત આચરણ થયુ હેય તેનાથી નિવૃત્ત થાઉં છું -ઈ કેઈ આવી રીતે વ્યાખ્યા કરે છે पास्तqिs शत 'खामेमि खमासमणो देवसिय वरकम आवस्सियाए पडिकमामि आनी तात्पर्य छ ४७ क्षमाश्रम ! सिधीरे ७ અપરાધ થયે હેય તેના માટે ક્ષમા માગુ છું, અને ભવિષ્યમાં આપની આજ્ઞાની આરાધનારૂપ આવશ્યક ક્રિયા વડે અપરાધથી દૂર રહીશ અર્થત અપરાધ ન થવા પામે તે પ્રયત્ન કરીશ આ વાતને શિષ્ય વિસ્તારથી કહે છે - ગુરૂ મહારાજ ! આપ ક્ષમામમણની દિવસસ બધી તેત્રીશ આશા Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० भावश्यकभूषण हस्तलक्षणेन सस्पर्शः सम्यक स्पर्शस्तम् । 'अणुजाणह' इत्यनेन पूर्वोक्तेन सम्बन्धः, करोमीत्यस्य शेपो पा । 'किलामो' लमा शरीरग्लानिकृत् मस्कृतोऽ पराधः निजकठोरकरशिरसा' भवदीयकोमलचरणस्मलस्पर्शेनेत्यर्थात् , यहा मदीयेनाऽनेन नमस्कारव्यापारेण भरतो मानस एवं कश्चन श्रमः मञ्जातः स्यात्स 'मे' भवद्भिः, यद्वा भवता 'खमणिज्जो' क्षमणीया सोढव्यः, तथा 'अप्पकिलताण अल्पशब्दोऽनाऽभाववाची, लान्त-कान्ति., अल्प-विगत क्लान्त-गरीर ग्लानिरूप:श्रमो येपा तेऽल्पक्लान्तास्तेपामल्पलान्तानाम्-अल्पवेदनावतामित्यर्थ , 'भे' भवता गुरुवर्याणा 'दिवसो' दिवसः 'बहुसुमेण' बहु च तच्छुम च बहुशुभ तेन प्रभूतशान्तिपूर्वकमित्यर्थः 'वइकतो' व्यतिक्रान्त' गत' किम् । 'जत्ता' यात्रा तपोनियमादिस्वरूपा सयमयात्रा 'मे' भवता निराबाधे? ति शेषः, च-किञ्च 'भे' भवता शरीरमिति गम्यते 'जवणिज' यापनीयम्-इन्द्रि यनोइन्द्रियवाधारहित वर्त्तते ? इतिः शेप , एव सयमयात्रादिकुशलमापृच्छय शिष्प. पुनरप्याह-खमासमणो' हे क्षणश्रमण ! 'खामेमि' क्षमापयामि आपके चरण का स्पर्श करता हूँ' इस तरह वन्दना करने में मुझसे जो आपको किसी प्रकार का क्लम (कष्ट) पहचा हो आप उसकी क्षमा करे। हे गुरु महाराज ! आपका दिन बहुत सुखशान्ति से व्यतीत हुआ-न?, आपकी सयमयात्रा निरायाध है न ?, और आपका शरीर, इन्द्रिय, नोइन्द्रिय की बाधा से रहित है न। इस प्रकार सयमयात्रा और शरीर के सम्बन्ध में कुशल पूछ कर फिर से शिष्य कहता है-हे क्षमाश्रमण ! मुझसे जो दिवस-सम्बन्धी હાથથી આપના ચરણને સ્પર્શ કરૂ છુ આ પ્રમાણે વદના કરવાથી મારા વડે આપને જે કઈ પ્રકારથી કષ્ટ થયું છે તે આપ મને ક્ષમા કરે હે ગુરુ મહારાજ ! આપને દિવસ ખૂબ શાતિથી પસાર થયું છે કે કેમ ? આપની સયમયાત્રા નિરાબાધ છે કે કેમ ? અને આપણું શરીર, ઈન્દ્રિય, નેઈન્દ્રિયની ઉપાધિથી રહિત છે કે કેમ ? આ પ્રમાણે સયમયાત્રા અને શરીરના સબ ધમાં કુશળતા પૂછીને શિષ્ય ફરીથી કહે છે કે - હે ક્ષમાશ્રમણ ! મારાથી १- 'निनकठोरकरशिरसा' अत्र प्राण्यङ्गत्वादेकवद्भाव । २- 'भवताम् ' अत्र 'कृत्याना परि वा' (२२३७१) इति कर्रारि पष्ठी । ३- 'कान्त' भारे छ । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनितोषणी टीका, बन्दनाध्ययनम्-३ ' देवसिय' दिवसे भवो देवसिकस्त, दिवसशब्दोऽत्र रात्रेरप्युपलक्षणस्तेनाऽहोरात्रकृतमित्यर्थः, 'चइकम' व्यतिक्रमोऽपरापस्तम् 'आवस्सियाए' आवश्यक्या= अवश्य कर्त्तव्यैश्चरणकरणयोगैर्निर्वृत्ता आवश्यकी = अवश्यकर्त्तव्यगुरुशुश्रूपादिरूपा तया हेतुभूता यत्किञ्चिद्विपरीतमाचरित स्यात् तत् 'पडिकमामि' प्रतिक्रामामि = परित्यजामि यद्वा तस्मात् प्रतिक्रामामि विनिवर्त्ते, इत्येव केचिद्वयाचक्षते, वस्तुतस्तु 'खामेमि खमासमणो देवसिय वइकम आवस्सियाए पडिक मामि' इत्यस्य हे क्षमाश्रमण ' सञ्जात दैवसिकमपराध क्षमापयामि भविष्यन्त च तमवश्य कर्त्तव्यया भवदीयाऽऽज्ञाराधनया परित्यजामीत्येवार्थ इति वयम् । प्रोक्तमेवार्थी विशेषतः स्फोरयति - 'खमा ०' इति । ' खमासमणाण' क्षमाश्रमणाना पूर्वोक्ताना 'देवसियाए ' दैवसिक्या दिवसपदस्य रात्रेरप्युपलक्षणत्वादहोरात्रसअपराध हुआ हो उसकी क्षमा चाहता हूँ आप क्षमा करे, आवश्यक क्रिया करते समय भूल से जो कुछ विपरीत आचरण किया गया उससे निवृत्त होता हूँ' इस प्रकार कोई २ व्याख्या करते हैं । 1 - १५१ वास्तव मे 'खामेमि खमासमणो ! देवसिय वइक्कम आवस्तियाए पडिकामामि' का तात्पर्य यह है- 'हे क्षमाश्रमण ! दिवस सबन्धी जो कुछ अपराध हो चुका हो उसके लिये क्षमा चाहता हूँ और भविष्य में आपकी आज्ञाकी आराधना रूप आवश्यक क्रिया के द्वारा अपराध से अलग रहूँगा, अर्थात् अपराध नहीं होने देनेका प्रयत्न करूँगा' । इसी बात को शिष्य विस्तारसे कहता है - 'हे गुरु महाराज ! आप क्षमाश्रमणों की, दिवस-सम्बन्धी तैतीस દિવસ સ બધી જે કાઈ અપરાધ થયે હાય તેની ક્ષમા માગુ છુ આપ ક્ષમા કશું, આવશ્યક ક્રિયા કરવા વખતે ભૂલથી મારા વડે જે કાઈ વિપરીત આચરણ થયુ હાય તેનાથી નિવૃત્ત થાઉં છુ --કાઈ કાઇ આવી રીતે વ્યાખ્યા કરે છે वास्तविक रीते ते! 'खामेमि खमासमणो देवसिय वरकम आवस्सियाए पडिकमामि' मानो तात्पर्य से हे } ' हे क्षमाश्रमयु ! हिवससमधी ने भाई અપરાધ થયે હાય તેના માટે ક્ષમા માગુ છુ, અને ભવિષ્યમા આપની આજ્ઞાની આરાધનારૂપ આવશ્યક ક્રિયા વડે અપરાધથી દૂર રહીશ અર્થાત અપરાધ ન થવા પામે તેવા પ્રયત્ન કરીશ. આ વાતને શિષ્ય વિસ્તારથી કહે છે - હ ગુરૂ મહારાજ । પશ્નમાશ્રમણુની દિવસસ બધી તેત્રીશ આશા Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ बावश्यपत्रस्प - मन्धिन्येत्यर्थः, 'तेत्तीसन्नयराए' जयस्त्रिंशदन्यतरया प्रयस्त्रिंशदाशातनास्वन्यत स्या कयाचिदेकया 'आसायणाए' आशातनया मा समन्ताद शात्यन्तेखण्डयन्ते ज्ञानादयो गुणा यया, यद्वा आ-समन्तात् गातयति-अवरुणदि मोक्षमुख या सा- आशातना तया, तथा 'जकिंचिमिच्छाप' यस्किश्चिन्मि ध्यया मिथ्याऽस्त्यस्या इति मिथ्या, या काचिन्मि या यत्किञ्चिन्मिध्या चया, यया कयाचिन्मिथ्यायुक्तयेत्यर्थः, असम्यग्भावसपन्नयेति यावत्, 'मणदुक्कडाए' मनोदुष्कृतया दुर्भावेन कृता दुष्कृता, मनसा, ज्ञानपूर्वक मित्यर्थात् दुष्कृता-मनोदुष्कृता तया अशुभपरिणामरूपयेति भावः । 'वयदुक्क डाए' पचोदुप्कृतया (समास माग्वत, एवमग्रेऽपि) त्वङ्कारादिरूपयेत्यर्थः । 'फायदुक्कडाए' कायदप्कृतया उपगमनाचस्थानादिनिमित्तया कोहाए'क्रोधयाफ्रोधोऽस्यामस्तीति क्रोधा तया क्रोधयुक्तयेत्यर्थः, एव 'माणाए' मानयान्मानयुक्तया, 'मायाए' मायया-मायायुकया, 'लोहाए' लोभया लोभयुनाया (३३) आशातनाओमे से किसी भी आशातना द्वारा, तथा मिथ्या: भाव के कारण अशुभ परिणाम से, तुकारा आदि दुर्वचनों स आर अत्यन्त निकट चलना, अभ्युत्थानका न करना आदि शरीर की दुष्ट चेष्टा से, क्रोध, मान, माया और लोभ से की गई, तथा भृत भविष्य वर्तमान रूप तीनों कालों में की गई, सर्वथा मिथ्या पचारसे की गई, क्षान्त्यादि सकल-धर्मों का उल्लघन करने वाला आशातना के कारण जो मुझसे दिवससम्बन्धी अतिचार किया તના પિકી કઈ પણ આશાનના વડ તથા મિથ્યા ભાવનાને કારણે અશુભ પરિણામથી, તુકાર વગેરે ખરાબ વચનથી અને અત્યંત નજીક ચાલવું, અભ્યસ્થાન ન કરવું વગેરે શરીરની દુષ્ટ ચેષ્ટાથો, ક્રોધ, માન, માયા, અને લોભથી કરેલી તથા ભૂત, ભવિષ્ય, વર્તમાન રૂપે ત્રણે કાળમાં સર્વથા મિથ્યા ઉપચારથી કરેલ, ક્ષાત્યાદિ સકલ ધર્મોનું ઉલઘન કરવાવાળી આશાતનાના કારણે મારાથી દિવસ १-'जर्मिचिमिच्छाए' इत्यारभ्य 'लोहाए' इत्यन्त यावत् सर्वत्र अर्शआदेराकृतिगणवान्मत्वर्थीयोऽचमत्यय । आकृत्या पठितगणविषयकशास्त्रविहिततत्तद्गणान्तर्गतत्वप्रयुक्नकार्यवत्तया गण्यते प्रत्याकृतिगणस्तस्य भावस्तस्न वस्मात् आकृतिगणवादिति । २-मयूरग्यसकादिश्वात्ममाम । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनितोपणी टीका, वन्दनाध्ययनम्-३ 'आसयणाए' इत्यस्य विशेपणानीमानि। एवमहोरात्रसम्वन्धिनीराशातना उक्त्वा सम्भत्यहिकजान्मान्तरिकाऽतीताऽनागतकालिकादिपरिग्रहायोच्यते-- 'सच' इत्यादि । _ 'सबकालियाए' सर्वः कालो यस्याः सा सर्वकालिका तया, यद्वा सर्वश्चासौ काल. सर्वकालस्तत्र भवा सर्वकालिकी तया-वर्तमानाऽतीतादिकालअयसञ्जातयेत्यर्थः। 'सचमिच्छोवयाराए' सर्वमिथ्योपचारया सर्वांगतो मि. योपचारयुक्तया, सर्वो मिथ्योपचारो यस्यामिति बहुप्रीहेः । 'सव्वधम्माइक्कमणाए' सर्वे च ते धर्मा अनुष्ठानरूपाः क्षान्त्यादयः सर्वधर्मास्तेपामतिक्रमणम् उलइन यस्या सा, अथवा सर्वे धर्माः प्रवचनमातरस्तासामतिक्रमण यस्या सा, सर्वधर्मातिक्रमणा तया । 'आसायणाए' आशातनया, (व्याख्यात आशातनापदार्थः) 'जो मे' यो मया 'देवसिओ' देवसिफः 'अइयारो' अतिचारः 'कओ' कृत. 'तस्स' तस्य 'तमित्यर्थः, 'पडिकमामि' विनिवर्ते, 'निंदामि गरिहामि अप्पाण वोसिरामि' इति पूर्ववत् । एत्र क्षमयित्वा 'इच्छामि खमासमणो' इत्यादिपाठ पुनरप्युनोन विधिना भणेत् । बन्दनाविधिश्च प्रसङ्गतोऽत्र स्फुटमतिपत्तये निरूप्यते स यथा वन्दनावेलायाम् 'इच्छामि खमासमणो वदिउ जावणिज्जाए निसीहियाए' इत्युच्चार्याऽवग्रहप्रवेशायाऽऽज्ञा ग्रहीतु गुरुसमक्ष कृताञ्जलिः शिरो नमयेत् (इय गया हो उससे मैं निवृत्त होता है, उसकी निन्दा और गहीं करता हूँ, तथा सावधकारी आत्माको वोसरता (त्यागता) हैं। इस प्रकार खमाकर फिर भी उक्त विधि से क्षमाश्रमण (पाठ) पढ़े। यहां पर प्रसग से वन्दना की विधि करते हैं वह इम तरह-वन्दना के समय 'इच्छामि खमाममणो वदिउ जावणिज्जा निसीहियाए' इतना योलकर अवग्रहमे प्रवेश करनेकी आज्ञा के लिये अपग्रह से बाहर સબ ધી જે અતિચાર લા હોય તેમાથી ૭ નિવૃત્ત થાઉં છું અને તેની નિંદા તથા ગ૭ કરૂ છુ તથા સાવધકારી આત્માને ત્યાગ કરૂ છુ આ પ્રમાણે ક્ષમા માગીને કરી પ, કહેલી વિધિથી ક્ષમાશ્રમણ (પાઠ) બેલે અહિં પ્રસગથી વદનાની વિધિ કહે છે તે આ પ્રમાણે છે વદના કરવા मते "इच्छामि खमासमणो चदिउ जाणिज्जाए निसीहियाए" मा प्रभाव બેલીને અવઝમાં પ્રવેશ કરવાની આજ્ઞા માટે અવગ્રહથી બહાર ઉભા રહીને બન્ને १- तस्य-तमित्यर्थ , अत्र द्वितीयार्थे सम्बन्धविवभयाऽऽपत्याढा पष्ठी । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आवश्यक सूत्रस्थ 6 म्वन्धिन्येत्यर्थ', 'तेचीसन्नपराए' त्रयत्रिंशदन्यतरया त्रयस्त्रिंशदाशातनास्त्रन्यत रया = कयाचिदेकया 'आसायणाए' आशातनया आ = समन्तात् शात्यन्ते = खण्डयन्ते ज्ञानादयो गुणा यया, यद्वा आ= समन्तात् शातयति = अवरुणद्धि मोक्षसुख या सा- आशातना तथा तथा 'जर्किचिमिच्छार' यत्किञ्चिन्मि ध्यया = मिथ्याऽस्त्यस्या इति मिथ्या, या काचिन्मिन्या=पत्त्रिश्चिन्मिथ्या तया यया कयाचिन्मिथ्यायुक्तयेत्यर्थः, असम्यग्भावसपन्नयेति यावत्, मणदुकडाए' मनेादुष्कृतया दुर्भावेन कृता=दुष्कृता, मनसा, ज्ञानपूर्वकमित्यर्थात् दुष्कृता = मनोदुष्कृता तया=अशुभपरिणामरूपयेति भावः । ' वयदुकडाए' बचोदुष्कृतया (समासः माग्वत्, एवमग्रेऽपि ) स्वङ्कारादिरूपयेत्यर्थ. । ‘फायदुक्कडाए' कायदुष्कृतया = उपगमनाऽवस्थानादिनिमित्तया' कोहाए 'क्रोधया= क्रोधोऽस्यामस्तीति क्रोधा तया क्रोधयुक्तयेत्यर्थः एव ' माणाए' मानया = मान युक्तया, 'मायाए' मायया = मायायुकया, 'लोहाए' लोभया = लोभयुक्तया (३३) आशातनाओमे से किसी भी आशातना द्वारा, तथा मिथ्याभाव के कारण अशुभ परिणाम से, तुकारा आदि दुर्वचनों से और अत्यन्त निकट चलना, अभ्युत्थानका न करना आदि शरीर की दुष्ट वेष्टा से, क्रोध, मान, माया और लोभ से की गई, तथा भूत भविष्य वर्तमान रूप तीनों कालो मे की गई, सर्वथा मिथ्योपारसे की गई, क्षान्त्यादि सकल- धर्मों का उल्लघन करने वाली आशातना के कारण जो मुझसे दिवससम्बन्धी 'अतिचार किया તના પૈકી કઈ પણ આશાનના વડે તથા મિથ્યા ભાવનાને કારણે અશુભ પરિણામથી, તુકારા વગેરે ખરાબ વચનથી અને અત્યંત નજીક ચાલવુ, અભ્યુત્થાન ન કરવુ वगेरे शरीरनी हुष्ट येष्टाथ, होध, मान, माया, भने बोलथी पुरेसी तथा लून, ભવિષ્ય, વમાન રૂપે ત્રણે કાળમા સર્વથા મિથ્યા ઉપચારથી કરેલી, ક્ષાન્ત્યાદિ સકલ ધર્માંનુ ઉલ ધન કરવાવાળી આશાતનાના કારણે મારાથી દિવસ १ - 'जर्मिचिमिच्छाए' इत्यारभ्य 'लोहाए' इत्यन्त यावत् सर्वत्र अर्शआदेराकृतिगणत्वान्मत्वर्थीयोऽच प्रत्यय | आकृत्या = पठितगण विषयकशास्त्र त्रिहितगणान्तर्गतत्वप्रयुक्त कार्यवत्तया गण्यते इत्याकृतिगणस्तस्य भावस्तस्व तस्मात्= भाकृतिगणत्वादिति । २- मयूरग्यसकादिस्वारसमाम । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, वन्दनाध्ययनम्-३ मुमेण भे दिवसो वडक्तो ?' इति वाक्येनाऽपराधक्षमापणपूर्वक देवसिक सुखशातादिक पृष्ट्वा 'जता भे' इत्युचार्य चतुर्थ 'जवणिज' इत्युच्चार्य पञ्चम 'च भे' इत्युच्चार्य पष्ठ चाऽऽवर्तन कृत्वा शिरो नमयित्वा 'ग्वामेमि खमासमणो देवसिय वइक्कम' इति वदेत्, तत. 'आवम्सियाए' इत्युक्त्या, अवग्रहादहिनिःसृत्य क्षमाश्रमणस्य पूर्णा पट्टिकामुच्चारयेत् । एवमेकाऽननतिः, एक यथाजात, तिस्रो गुप्तय , एका प्रवेशः, एक निष्क्रमण, शिरोहय-क्षमापणकाले शिष्यम्यावनत शिर. प्रथम शिर', गुरुणा वन्दनस्वीकृतये यच्चालित स्वशिरस्तद् द्वितीय शिर., इति शिरोद्वयम्, पडावर्तनानि च सम्पद्यन्ते । ततः 'इच्छामि खमासमणो चदिउ जावणिज्जाए निसीहियाए' इत्युच्चार्य पुनरवग्रह प्रवेष्टु गुरुपुरतो नतमे किलामो अप्पकिलताण बहुसुभेण भे दिवमो वइक्कतो ?' इस वाक्य से अपराध की क्षमाप्रार्थनापूर्वक दिवससम्बन्धी सुखशाता पूछ कर 'जत्ता मे' से चौथा 'जवणिज्ज' से पाचयाँ और 'च भे' से छठा आवर्तन ममाप्त कर के सिर झुकावे, अनन्तर 'खामेमि खमासमणो! देवसिय घडकम' यह पाठ बोले, फिर 'आवम्सियाए' कह कर अवग्रह से बाहर आकर क्षमाश्रमण की पूरी पाटीको पढे। इस प्रकार एक अवनति १, एक यथाजात २, तीन गुप्तियाँ ५, एक प्रवेश ६, एक निष्क्रमण ७, दो मस्तक ८, (क्षमापण काल में शिष्य गुरु के सामने मस्तक झुकावे, वह एक मस्तक हुआ, गुरु की तरफ से स्वीकृतिसूचक मम्तक का हिलाना दुमरा मस्तक हुआ, इस प्रकार दो मस्तक हुए) और छह आवर्तन १५, होते है। या खमणिजी मे किलामो अप्पक्रिताण बहसुभेण भे दिवसो वइक्कतो આ વાકયથી અપરાધની પ્રાર્થનાપૂર્વક ક્ષમા માગવી તે પછી દિવસમબધી સુખ शाति पूछी "जता भे" थी याथु जबणिज्ज थी पायभु ने च में थी ७४ माप न पूर्ण री माथु नभायु पछी "खामेमि खमाममणो देवसिय वइक्कम" આ પાઠ બેલવે અને ફરીથી માવરિયા બેલીને અવગ્રહથી બહાર આવીને ક્ષમાશ્રમણની પૂરી પાટી બોલવી, આ રીતે એક અવનતિ ૧, એક યથાજાત ૨, ત્રણ ગુપ્તિપ, એક પ્રવેશ ૬, એક નિષ્ક્રમણ ૭, બે મસ્તક ૮(ક્ષમાપણ સમયે શિષ્ય ગુરૂસમીપે મસ્તક નમાવે તે એક મસ્તક કહેવાય અને ગુરુ તરફથી પીડા- સુચક મસ્તકને હલાવવું તે બીજે મસ્તક કહેવાય એ પ્રમાણે બે મસ્તક થયા અને છ આવર્તન ૧૫ થાય છે ५७. "इच्छामि खमासमणो वदिउ जावणिजाए निसीहियाए" नामीन Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ भावश्यकमुपस्प गयमाऽचनतिः); आज्ञाल युत्तर दीक्षाग्रहणसमये परिश्रतचोलपट्टक-भावरण सदोरकमुग्वत्रविकारजोहरणप्रमाणिको बदाञ्जलिपुटबासीद, तामवस्थामाश्रिन्य चन्दनकरण यथाजातचन्दनम्, तत्पूर्वक' सन् गुप्तित्रयभूपितोऽवग्रह पविश्य 'अ' इत्युचार्याञ्जलिपुट दक्षिणभागक्रमेण परिभ्राम्य पामभागमानीय शिरसा सयो ज्य 'हो' इति पदेव, इत्थ प्रथममार्जन समाप्य 'का' 'य' इत्युक्त्वा द्वितीय, 'काय' इत्यभिधाय उतीय चावर्तन पूर्ववत् कृत्वा 'सफास' इति वदन् शिरा नमयित्वा गुरुचरणौ स्पृशेत, मविशन्नेव 'खमणिनो भे फिलामो अप्पक्रिताण बहु ही खडा हुआ दोनों हाथ ललाट प्रदेश पर रख कर गुरु के सामने शिर झुकावे (यह प्रथम अवनति)। आज्ञा प्राप्त हो जाने पर यथाजातवन्दन (दीक्षा ग्रहण के समय धारण किये हुए चद्दर चोलपट्टक के सहित एव मुह पर मुहपत्ती बान्धे हुए रजोहरण प्रमार्जिका के सहित अजली (दोनों हाथ जोडे हुए मुनि की वन्दन विधि को यथाजातवन्दन कहते है)-पूर्वक तीन गुप्तियों के सहित अवग्रहमे प्रवेश करके 'अ' ऐसा बोल कर अजलि को दाए हाथका तर्फसे घुमा कर बायें हाथकी तरफ लावे और बादमे मस्तक पर लगाता हुआ 'हो' ऐसा बोले। इस प्रकार-प्रथम आवर्तन समाप्त करके 'का' और 'य' से दूसरा आवर्तन पूरा करे । फिर 'काय' से तीसरा आवर्तन करके 'सफास' बोलता हुआ सिर झुका कर चरण स्पर्श करे। बादमें वही बैठा हुआ 'खमणिजी હાથ કપાલના ભાગ ઉપર રાખીને ગુરુની સામે માથું નમાવવુ (આ પ્રથમ અવનતિ) આજ્ઞા પ્રાપ્ત થયા પછી યથાજાતવન્દન-(દીક્ષા ગ્રહણ સમયે ધારણ કરેલ, ચાદર ચલપટ્ટક સહિત તથા મેઢા ઉપર મુહપત્તિ બાબેન, જેહરણ ગેરછા સહિત અ જલિ (બને હાથ) જોડેલ મુનિની વન્દનવિધિને યથાજાતવન્દન કહે છે) પૂર્વક ત્રણ ગુપ્તિ સહિત અવગ્રહમાં પ્રવેશ કરીને જ શબ્દને ઉચ્ચારણ કરીને અજલિ (બે હાથ જોડી) જમણા હાથ તરફથી ઘુમાવીને ડાબા હાથ તરફ લાવ અને પછીથી માથા ઉપર લગાવીને તે એમ બેલે એ પ્રમાણે પ્રથમ આવર્તન બહાથ જોડીને વલ જમણી બાજુથી ડાબી બાજુ સુધી ફેરવવું) પૂર્ણ કરીને જા અને જ શબ્દથી બીજી આવન પૂરું કરીને ફરી ય થી ત્રીજી આવર્તન કરીને "सफास" माता 31 माथु नमापाने २९ प ४३ पछी त २५ २ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, वन्दनाभ्ययनम् - ३ १५५ सुभेण मे दिवसो तो " इति वावयेनाऽपराधक्षमापणपूर्वक दैवसिक सुखशावादिक पृष्ट्वा ' जत्ता मे' इत्युच्चार्य चतुर्थ 'जवणिज्ज' इत्युच्चार्य पञ्चम 'च भे' इत्युच्चार्य पष्ठ चाssवर्तन कृत्वा शिरो नमयित्वा 'खामेमि खमासमणो देवसिय वइकम' इति वदेत्, तत' 'आवसियाए' इत्युक्त्वा, अवग्रहाद्वहिर्निःसृत्य क्षमाश्रमणस्य पूर्णो पट्टिकामुच्चारयेत् । एवमेकाऽननति, एक यथाजात, तिस्रो गुप्तय., एकः प्रवेशः, एक निष्क्रमण, शिरोदय - क्षमापणकाले शिष्यस्यावनत शिर. प्रथम शिरः, गुरुणा वन्दनस्वीकृतये यच्चालित स्वशिरस्तद् द्वितीय शिर., इति शिरोद्वयम्, पडावर्तनानि च सम्पयन्ते । ततः 'इच्छामि खमासम्मणो दिउ जावणिज्जाए निसीहियाए' इत्युच्चार्य पुनरवग्रह प्रवेष्टु गुरुपुरतो नत 6 कलामो अकिलनाण बहुसुभेण मे दिवसो वडक्कनो ?' इस वाक्प से अपराध की क्षमाप्रार्थनापूर्वक दिवससम्बन्धी सुखशाता पूछ कर ' जत्ता भे' से चौथा ' जवणिज्ज' से पाचवाँ और 'च भे' से छठा आवर्तन समाप्त कर के सिर झुकावे, अनन्तर 'खामेमि खमासमणो ! देवसिय वक्कम ' यह पाठ बोले, फिर 'आवस्सियाए' कह कर - अवग्रह से बाहर आकर क्षमाश्रमण की पूरी पाटीको पढे । इस प्रकार एक अवनति १, एक यथाजात २, तीन गुप्तियाँ ५, एक प्रवेश ६, एक निष्क्रमण ७, दो मस्तक ८, (क्षमापण काल में शिष्य गुरु के सामने मस्तक झुकावे, वह एक मस्तक हुआ, गुरु की तरफ से स्वीकृतिसूचक मस्तक का हिलाना दुसरा मस्तक हुआ, इस प्रकार दो मस्तक हुए) और छह आवर्त्तनं १५, होते हैं । हा खमणिज्जो भे किलामो अप्पकिस्तान सुभेण भे दिवसो वकतो આ વાકયથી અપરાધની પ્રાર્થનાપૂર્ણાંક ક્ષમા માગવી તે પછી દિવસસ બધી સુખ शांति पूछीने "जत्ता भे” थी थोथु जवणिज्ज थी पायभु ने च भे थी छहु भाव तन यूगु मेरी भाथु नभाववु पछी "खामेमि खमाममणो देवसिय वइक्कम" આ પાઠ બાલવેા અને ક્રીથી આસિયાપ ખેલીને અવગ્રહથી બહાર આવીને ક્ષમાશ્રમણુની પૂરી પાડી મેલવી, આ રીતે એક અવનતિ ૧, એક યથાજાત ૨, ત્રણ ગુપ્તિ, એક પ્રવેશ ૬, એક નિષ્ક્રમણુ ૭, એ મસ્તક૮(ક્ષમાપણ સમયે શિષ્ય ગુરુસમીપે મસ્તક નમાવે તે એક મસ્તક કહેવાય અને ગુરુ તરફથી સ્વીકાર સૂચક મમ્તકને હલાવવું તે બીજે મસ્તક કહેવાય એ પ્રમાણે બે મસ્તક થયા) અને છ આવન ૧૫ થાય છે पछी "इच्छामि खमासमणो वदिउ जारणिजाए निसीडियाए" मोझीने Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ मावश्यकमनस्य मस्तक' मार्थयेत्, (इय द्वितीयाऽनतिः), गुज्ञिया यथाविध्यवग्रह पविश्य पूर्ववद्वन्दमानस्तत्रयाऽग्रहे 'खमासमण'-पहिका समापयेत् , म निष्क्रमण नास्ति, अत्रैकाऽवनतिरेक प्रवेश पडावर्तनानि गिरोद्वयमिति पूर्वापरसकलनया पञ्चविंशतिविधय । उक्तञ्च भगरता समवायारे ''दो ओणय अहाजाय, किडसम्मगारसावय । चउस्सिर तिगुन च, दुपवेस एगनिक्खमण ॥१॥' इति ॥मू० १॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पश्चदशभाषाकलितललित कलापाऽऽलापक-प्रविशुद्धगयपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त जैनशास्त्राचार्य-पदभूपित कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलाल-तिविरचिताया धीश्रमणमूत्रस्य मुनितोपण्यारयाया व्याख्याया वन्दनाख्य ततीयमभ्ययन समाप्तम् ।। ३ ।। __ अनन्तर 'इच्छामि खमासमणो वदिउ जावणिजाए निसीहियाए' बोल कर फिरसे अवग्रहमे प्रवेश करने के लिये गुरु के सामन सिर झुकावे (यह दूसरी अवनति हुई)। गुरु की आज्ञा मिलने पर विधिपूर्वक अवग्रहमे प्रवेश करके पहले की भाँति वन्दना करता हुआ ,अवग्रहमें ही 'खमासमण' की पाटी पूरी बोले। यहा पर निष्क्रमण नही होता है, अत एक अवनति १६, एक प्रवेश १७, छह आवत्तेन २३, और दो मस्तक २५ होते हैं। इस प्रकार पूर्वापर की सख्या जोडने से वन्दना की पचीस विधिया होती हैं ॥सू०१॥ इति तृतीय अध्ययन सपूर्ण ॥३॥ ફરીથી અવગ્રહમાં પ્રવેશ કરવાને માટે ગુરુની સામે માથુ નમાવવુ (આ બીજી અવનનિ થઈ) ગુરુની આજ્ઞા મેળવી વિધિપૂર્વક અવગ્રહમાં પ્રવેશ કરીને પ્રથમ प्रभारी पहना ४२॥ याममा "खमासमण" नी पारी ५ मालवी भाड નિષ્ક્રમણ થતું નથી એ માટે એક અવનતિ, એક પ્રવેશ, છ આવર્તન, અને બે માથા થાય છેઆ રીતે પૂર્વાપરની સંખ્યા જોડવાથી વદનાની પચીસ વિધિઓ થાય છે (સૂ૦ ૧) ઈતિ તૃતીય અધ્યયન સ પૂર્ણ १ छाया-'यवनत यथाजात, कृतिकर्म द्वादशावतम् । । चतु भिरत्रिगुप्त च द्विमवेशमेकनिष्क्रमणम् ॥१॥ इति । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिदोषणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ अथ प्रतिक्रमणनामक चतुर्थमध्ययनम् पूर्वाध्ययने वन्दनापूर्वक गुरुसमीपे 'पडिकमामि' इत्यनेन प्रतिक्रमणप्रतिज्ञा प्रदर्शिता, सम्पति चतुर्था ययने तदेव प्रतिक्रमणमाह-अथवा पूर्वाभ्ययनेऽईत्मणीतसामायिकानुष्ठातभिर्गुरोर्वन्दनादिरूपा प्रतिपत्तिः कर्तव्येत्युक्तम्, अत्र चतुर्था ययने तस्या प्रतिपत्तेरकरणेन प्रस्ग्वलितस्यात्मनो निन्दा प्ररूप्यते, सूत्रे 'खलियम्स निंदणा' इत्युक्तखात्, यद्वा वन्दना ययने वन्दनादिरूपया मुनिभक्त्या कर्मक्षयो दर्शित , इह तु मिथ्यावाऽपिरत्यादिपरित्यागेन कर्ममूल प्रतिपि । चौथा अ ययन । - . तीसरे अध्ययनमे वन्दनापूर्वक गुरु महाराजके समीप प्रतिक्रमण की प्रतिज्ञा करने की विधि दिखलाई गई है। अब इस चौथे अध्ययन में उसी प्रतिक्रमण को दिग्बलाते हैं । अथवा तीसरे अध्ययनमें 'अर्हन्त भगवान से उपदिष्ट सामायिक करनेवाले भन्यो को गुरुकी वदनारूप प्रतिपत्ति (सेवा) करनी चाहिये' ऐसा कहा है, अब इस चौथे अ ययन मे चन्दना आदि न करने के कारण स्खलित आत्मा की निन्दा की जाती है, अथवा वन्दना ययन में यह दिखलाया गया है कि 'चन्दनादिरूप मुनिभक्ति से कर्मक्षय होता है और इस अध्ययनमें मिथ्यात्व अविरति आदिका त्याग याथु अध्ययन બ્રિીજા અધ્યયનમા વદનાપૂર્વક ગુરુ મહા જિની સમીપ પ્રતિક્રમણ કરવા માટે પ્રતિજ્ઞા કરવાની વિધિ બતાવવામાં આવી છેહવે આ ચેથા અધ્યયનમા તે જ પ્રતિક્રમણને બતાવે છે અથવા ત્રીજા અધ્યયનમાં “અહઃ ભગવાનથી ઉપદેશ કરાએલી, સામાયિક કરનારા અન્ય જીને ગુરુની વદનારય પ્રતિપત્તિ મેવા) કરવી જોઈએ એમ કહેલ છે, હવે આ ચોથા અધ્યયનમા ના વિગેર ન કરવાના કારણે ખલિત આમાની નિંદા કરવામાં આવે છે. અથવા વદના અધ્યયનમાં આ બતાવવામાં આવ્યું છે કે “વદનાદિરૂપ સતિભકિતથી કર્મને ક્ષય થાય છે અને આ અધ્યયનમાં મિથ્યાત્વ અવિનતિ વિગેરેને Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ मावश्यामप्रस्थ यते । पतिशब्दोऽत्र प्रातिकूल्ये तेन प्रतिकूल क्रमण परावस्य गमन-अतिक्रमण, पूर्व शुभयोगेभ्यो विनिष्क्रम्याऽशुभयोगसमाप्तस्यात्मनः पुनस्तेष्वेव शुभयोगेषु सक्रमणमित्यर्थः । तथा चोक्तम् " स्वस्थानदिपरस्थाने, प्रमादात्संगतस्य यत् । तत्रैव क्रमण भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ॥” इति, "गतस्यौदयिक भावं क्षायोपशमिकारपुन' । सायोपशमिकाऽऽवेश भतिक्रमणमुग्यते ॥” इति । या प्रतिशब्द आभिमुख्यार्थका लक्षणेनामिप्रती आमिमुख्ये' इत्यादी करने से कर्मनिदान का प्रतिषेध दिखलाया जाता है। शुभ योग से शुभयोगमें पहुंची हुई आत्माको फिर से शुभयोगमें लेजानेका माम प्रतिक्रमण है । जैसा कि कहा है-- 'प्रमाद वश अपने स्वरूपसे अशुभ योगमें प्रवृत्त आत्माका जो फिरसे अपने स्वरूपमें आना उसे प्रतिक्रमण करते हैं ॥१॥" 'मायोपशमिक भावसे औदयिक भाव को प्राप्त आत्मा के फिरसे क्षायोपशमिक भावमें प्रवेश करने को प्रतिक्रमण करते अथवा जिससे मोक्ष के सन्मुख जाया जाय, या शुभ ત્યાગ કરવાથી કમનિદાનને પ્રતિધિ બતાવવામા આવે છે શુગથી અશુ ભાગમાં પહેલ આત્માને ફરીથી શુભાગમાં લઈ જવાનું નામ પ્રતિક્રમણ છે म घुछ પ્રમાદવશ પિતામાં વરૂપથી અશુભ યોગમાં પ્રવૃત્ત આત્માનું ફરીથી પિતાના અવરૂપમાં આવવું તેને પ્રતિક્રમણ કહે છે કે ૧ તથા ક્ષાપશમિક ભાવથી ઓદયિક ભાવને પામેલ આત્માને ફરીથી સાપશમિક ભાવમાં પ્રવેશ કરવામે પ્રતિક્રમણ કહે છે (૧) અથવા જેનાથી મોક્ષની સન્મુખ જવાય અથવા શુભગમ વાર વાર १-प्रतिक्रमणशब्दच प्रति+पूर्वकात् 'क्रम पादविक्षेपे' इत्यस्मात् Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ तथादर्शनात् , क्रमुधातुश्च गमनार्थकस्तेन पति मोक्षाभिमुख क्रम्यते-गम्यतेऽनेनेति, अथवा प्रतिशब्दस्य भृशार्थकत्वाच्छुभयोगेषु वार वारं क्रमण प्रतिक्रमणम् । तत्र (पतिक्रमणे) ध्यानविपयीकृतम्-'आगमे तिविहे' इति पट्टिकाया आरभ्य 'इच्छामि ठामि' इति पर्यन्त सर्व प्रस्फुट वनव्य, तदनु 'तिक्खुत्तो' इत्यस्य पाठेन सविधि वन्दना विधाय श्रमणभूत्रस्याज्ञा ग्रहीतन्या, ततो नमस्कारमन्त्रोच्चारणपूर्वक 'करेमि भते' इत्युचार्य माङ्गलिकमुच्चारणीयमिति । सम्प्रति माङ्गलिकसत्रमाह-'त्तारि' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ चत्तारि मंगल-अरिहता मगल, सिद्धा मगल, साहू मगल, केवलिपन्नत्तो धम्मो मगल । चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साह लोगुत्तमा, केवलिपन्नत्तो धम्मोलोयुत्तमो । चत्तारिसरण पवजामि,-अरिहते सरण पवजामि, सिद्धे सरण पवजामि, साहू सरण पवजामि, केवलिपण्णत्त धम्म सरण पवजामि ॥ सू० १॥ योगों में चार चार जो सक्रमण (जाना) उसको प्रतिक्रमण कहते हैं । इसमें 'आगमे तिविहे' से लेकर 'इच्छामि ठामि' तक व्यानमें चिन्तित सब पाटियों (पाठों) को प्रगट रूपसे योले, बादमें 'तिक्खुत्तो' के पाठसे विधिपूर्वक वन्दना करके श्रमणसूत्र की आज्ञा लेवें तय नमस्कार मन्त्र के उच्चारणपूर्वक 'करेमि मते' की पाटी पोल कर भागलिक बोले, ऐसा नियम है, इस कारण यहा मागलिक कहते हैं-'चत्तारि' इत्यादि। सभy (v) २ प्रतिभा ४ छ, मेमा "मागमे तिविहे" थी ने 'इच्छामि अमि' सुधी याना वितित मी पाटिमा (418)a २ ३१ से ५७. 'तिक्खुत्तो' ना ५४२ विधि- पना न भएर सूत्रनी माझा सा नमा२ मनना य२२१ ५६४ (करेमि भते) नी पारी मान માગલિક બલવું એ નિયમ છે એટલા માટે અાિ માગલિક કહે છે 'चनारि' इत्यादि Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावश्यकमनव - यते । पतिशब्दोऽत्र मातिहल्ये तेन प्रतिकल मणम्पराटस्य गमन-प्रतिक्रमण, पूर्व शुभयोगेभ्यो विनिष्क्रम्याऽशुभयोगसमाप्तस्यात्मनः पुनस्तेष्वेव शुभयोगेषु सक्रमणमित्यर्थः । तथा चोक्तम् " स्वस्थानादपरस्थाने, प्रमादासंगतस्य यत् । तत्रैव क्रमण भूया अतिक्रमणमुच्यते ॥” इति, " गतस्यौवयिक भाव क्षायोपशमिकारपुनः । क्षायोपशमिकाऽऽवेश प्रतिक्रमणमुश्यते ॥” इति च । या प्रतिशब्द आभिमुख्यार्थका लक्षणेनामिप्रती आभिमुख्ये' इत्यादी करने से कर्मनिदान का प्रतिषेध दिखलाया जाता है। शुभ योग से अशुभयोगमें पहुंची हुई आत्माको फिर से शुभयोगमें लेजानेका माम प्रतिक्रमण है । जैसा कि कहा है-- 'प्रमाद वश अपने स्वरूपसे अशुभ योगमें प्रवृत्त आत्माका जो फिरसे अपने स्वरूपमें आना उसे प्रतिक्रमण करते हैं ॥१॥' तधा क्षायोपशमिक भावसे औदायिक भाव को प्राप्त आत्मा के फिरसे क्षायोपशामिक भावमें प्रवेश करने को प्रतिक्रमण कहते ___ अथवा जिससे मोक्ष के सम्मुख जाया जाय, या शुभ ત્યાગ કરવાથી કમનિદાન પ્રવિધ બતાવવામા આવે છે ભગથી અશુ ગમાં પહેલ આત્માને ફરીથી શુભગમાં લઈ જવાનું નામ પ્રતિક્રમણ છે જેમ કહ્યું છે કે પ્રમાદવશ પિતાને વરૂપથી અશુભ ગમા પ્રવૃત્ત આત્માનું ફરીથી લિમ વરૂપમાં આવવું તેને પ્રતિક્રમણ કહે છે કે ૧ તથા શાપથમિક ભાવથી દયિક ભાવને પામેલ આત્માને ફરીથી સાપશમિક ભાવમાં પ્રવેશ કરવા પ્રતિક્રમણ કહે છે (૧) અથવા જેનાથી મિક્ષની સન્મુખ જવાય અથવા શુભમ વાર વાર १-प्रतिक्रमणशब्दच प्रति+पूर्वकात् 'क्रम पादविक्षेपे' इत्यस्मात् ल्युटें प्रत्यये सिद्ध । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम् -४ १५९ तथादर्शनाद, क्रमुधातुश्च गमनार्थकस्तेन प्रति = मोक्षाभिमुख क्रम्यते गम्यतेऽनेनेति, अथवा प्रतिशब्दस्य भृशार्थकत्वाच्छुभयोगेषु वार वार क्रमण प्रतिक्रमणम् । तत्र ( प्रतिक्रमणे ) ध्यानविपयीकृतम्- 'आगमे तिविहे' इति पट्टिकाया आरभ्य ' इच्छामि ठामि' इति पर्यन्त सर्वे प्रस्फुटं वक्तव्य, तदनु ' तिक्खुत्तो ' इत्यस्य पाठेन सविधि वन्दना विधाय श्रमणसूत्रस्याज्ञा ग्रहीतव्या, ततो नमस्कारमन्त्रोच्चारणपूर्वक 'करेमि भते' इत्युच्चार्य माङ्गलिकमुच्चारणीयमिति । सम्प्रति माङ्गलिकसूत्रमाह-- ' चत्तारि ' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ चत्तारि मंगल - अरिहता मगल, सिद्धा मंगल, साहू मगल, केवलिपन्नत्तो धम्मो मगल । चत्तारि लोगुत्तमा - अरिहता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो । वत्तारि सरण पवज्जामि, - अरिहते सरण पवज्जामि, सिद्धे सरण पवज्जामि, साहू सरण पवज्जामि, केवलिपण्णत्त धम्मं सरण पवज्जामि ॥ सू० १ ॥ योगों में वार वार जो सक्रमण (जाना) उसको प्रतिक्रमण कहते हैं। इसमें 'आगमे तिविहे' से लेकर 'इच्छामि ठामि' तक व्यानमें चिन्तित सब पाटियों (पाठों) को प्रगट रूपसे बोले, बादमें 'तिक्खुत्तो' के पाठ से विधिपूर्वक वन्दना करके भ्रमणसूत्र की आज्ञा लेवें तर नमस्कार मन्त्र के उच्चारणपूर्वक 'करेमि भते' की पाटी बोल कर मागलिक बोले, ऐसा नियम है, इस कारण यहा मागलिक कहते हैं - 'चत्तारि' इत्यादि । सहभाग (लघु) तेने प्रतिभछे, येभा "आगमे तिविदे" थी साने 'इच्छामि ठामि' सुधी ध्यानमा चिंतित अधी पाटियो (चाड)ने लडेर ३ये मोसे पछी 'तिक्खुत्तो' ना पाथी विधि-पूर्व वहना उरीने श्रम सूत्रनी आज्ञा सह नमस्कार भनना (भ्यारण्य पूर्व४ (करेमि भते ) नी पाटी मोसीने માલિક માલવુ એવેલ નિયમ છે એટલા માટે 'चार' इत्यादि અક્રિયા માગલિક કહે છે 1 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावश्यकसमय यते । मतिशब्दोऽत्र प्रातिकल्ये तेन प्रतिकल क्रमण परास्त्य गमन-प्रतिक्रमण, पूर्व शुभयोगेभ्यो विनिष्क्रम्याऽशुभयोगसमाप्तम्यात्मनः पुनस्तेष्वेव शुभयोगेषु सक्रमणमित्यर्थः । नया चोक्तम् " स्वस्थानादपरस्थाने, प्रमादास्संगतस्य यत् । तत्रैव क्रमण भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ।।" इति, “गतस्यौदायिक भावं क्षायोपशमिकारपुनः । सायोपशमिकाऽऽवेश प्रतिक्रमणमुस्यते ।।" इति । या मंतिशब्द आभिमुख्यार्थक: लसणेनामिमती आभिमुख्ये' इत्यादी करने से कर्मनिदान का प्रतिषेध दिखलाया जाता है। शुभ योग से अभियोगमें पहुंची हुई आत्माको फिर से शुभयोगमें लेजानेका माम प्रतिक्रमण है । जैसा कि कहा है-- 'प्रमाद वश अपने स्वरूपसे अशुभ योगमें प्रवृत्त आत्माका जो फिरसे अपने स्वरूपमें आना उसे प्रतिक्रमण करते हैं ॥१॥' _क्षायोपशमिक भावसे औदयिक भाव को प्राप्त आत्मा के फिरसे क्षायोपशमिक भावमें प्रवेश करने को प्रतिक्रमण कहते अथवा जिससे मोक्ष के सन्मुख जाया जाय, या शुभ યાગ કરવાથી કમનિદાન પ્રતિષેધ બતાવવામાં આવે છે શુભગથી અજી બાગમાં પહોંચેલ આત્માને ફરીથી શુભયોગમાં લઈ જવાનું નામ પ્રતિક્રમણ છે. પ્રમાદવશ પિતાના સ્વરૂપથી અશુભ યોગમાં પ્રવૃત્ત આમાનું ફરીથી પિતાના અવરૂપમાં આવવું તેને પ્રતિક્રમણ કહે છે ૧ તથા લાપશમિક ભાવથી ઓદયિક ભાવને પામેલ આત્માને ફરીથી કાપશમિક ભાવમાં પ્રવેશ કરવાને પ્રતિક્રમણ કહે છે (૧) અથવા જેનાથી મોક્ષની સન્મુખ જવાય અથવા શુભ ગેમા વાર વાર -पतिक्रमणशब्दश्च प्रति+पूर्वकाल 'मु पादविक्षेपे' इत्यस्मात् स्यु: प्रत्यये सिद्ध । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ १५९ तथादर्शनात् , मुधातुश्च गमनार्थकस्तेन प्रति-मोक्षाभिमुख क्रम्यते-गम्यतेऽनेनेति, अथरा प्रतिशब्दस्य भृशार्थकत्वाच्छुभयोगेपु चार वार क्रमण प्रतिक्रमणम् । तत्र (पतिक्रमणे) व्यानविपयीकृतम्-'आगमे तिविहे' इति पट्टिकाया आरभ्य 'इच्छामि ठामि' इति पर्यन्त सर्व प्रस्फुटं वक्तव्य, तदनु ‘तिक्खुत्तो' इत्यस्य पाठेन सविधि वन्दना विधाय श्रमणभूत्रस्याज्ञा ग्रहीतव्या, ततो नमस्कारमन्त्रोच्चारणपूर्वक करेमि भते' इत्युचार्य माङ्गलिकमुचारणीयमिति । सम्पति माङ्गलिकपत्रमाह-चत्तारि' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ चत्तारि मंगल-अरिहता मगल, सिद्धा मगल, साहू मगल, केवलिपन्नत्तो धम्मो मगल । चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुनमो । चत्तारिसरण पवजामि,-अरिहते सरण पवजामि, सिद्ध सरण पवजामि, साह सरण पवजामि, केवलिपणत्त धम्म सरण पवजामि ॥ सू० १॥ योगो में चार बार जो सक्रमण (जाना) उसको अतिक्रमण कहते हैं। इसमें 'आगमे तिविहे' से लेकर 'इच्छामि ठामि' तक व्यानमें चिन्तित सब पाटियों (पाठों) को प्रगट रूपसे घोले, बादमें 'तिक्खुत्तों के पाठसे विधिपूर्वक चन्दना करके श्रमणसूत्र की आज्ञा लेवे तर नमस्कार मन्त्र के उच्चारणपूर्वक 'करेमि भते' की पाटी गोल कर मागलिक बोले, ऐसा नियम है, हम कारण यहा मागलिक कहते हैं-'चत्तारि' इत्यादि। स भए (४) तेने प्रतिभा ४९ छ, मेमा "आगमे तिविहे" थी धन 'इन्छामि ठामि' सुधी भ्यानमा वितित थी पारिमा (8)२ २ ३३ माले पछी 'तिकखुत्तो ना ४ विधि-पूर्व पना शत श्रम सूचना भासा नभ-२ भत्रना क्या२१ ५ (करेमि मते) नी पारी मान માગલિક બલવું એ નિયમ છે એટલા માટે અહિંયા માંગલિક કહે છે 'चनारि स्यादि Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य - || छाया ॥ चत्वारो मङ्गलम्-अर्हन्तो मङ्गल, सिद्धा महल, साधनो माल, केलि. मासो धर्मों मङ्गलम् । चत्वारो लोकोत्तमाः-अर्हन्तो लोकोत्तमाः, सिदा लोको तमाः, साधयो लोकोत्तमाः, केलिमज्ञप्तो धर्मों लोकोत्तमः । चतुरः शरण प्रपयेअर्हतः शरण प्रपये, सिद्धान् शरण प्रपरे, साधून शरण अपये, केवभिशाप्त धम शरण प्रपये ॥ मू० १.॥ ॥ टीका ॥ 'चत्तारि' चत्वारः, 'गल' -मगलम् मनः श्रुतचारित्रादिरूपी धर्मस्त लाति-आदत्त इति मङ्गलम् , यद्वा. मां गालयति-भवादपनयतीति, मङ्कन मङ्कः भूपण-ज्ञानदर्शनादि त लाति आदत्त इति वा मङ्गलम्, अथवा मझ्यतेमाप्यते हितमनेनेति मङ्गलम् । अत्रैकवचन तु अदादिचतुष्टयनिष्ठस्य मङ्गलत स्यैकत्वेन 'सूत्राणिप्रमाणम्' इत्यादिवत्, तत्र हि प्रमितिकरणतावच्छेदक मूत्रत्वा वच्छिन्नयावत्मत्रनिष्ठमेकमेवेत्यवच्छेदकैकत्वमादायैकवचनप्रयोग, स्पष्टमिदम न्यत्र विस्तरेण । 'चत्तारि' इत्युक, सम्प्रति चतुःपदार्थानाह-'अरिहता' चार मगलस्वरूप हैं, मगल उसको करते हैं जो श्रुत चारित्र रूप धर्म को देनेवाला हो, अथवा मुझ (नमस्कार करनेवाले) को ससारसे पार करने वाला' हो, या मक-जान दर्शन आदि भूषण को धारण करनेवाला' हो, अथवा जिसके द्वारा हितका प्राप्ति हो। इस प्रकार सामान्यतया मगलका निरूपण करके अब चार शब्दसे जो लिए जाते हैं उन का निरूपण करते हैं-अहंत ચાર મગળ સ્વરૂપ છે, મગળ તેને કહે છે કે જે શ્રત ચારિત્રરૂપ ધર્મને દેવાવાળે છે અથવા “મને (નમસ્કાર કરવાવાળાને) સ સારથી પાર કરનારા ય અથવા મડું જ્ઞાન દર્શન વિગેરે ભૂષણને ધારણ કરવાવાળા હોય અથવા જેના દ્વારા હિતની પ્રાપ્તિ થાય, આવી રીતે સામાન્ય પ્રકારે મગળનું નિરૂપણ કરીને હવે ચારથી જે લેવાય તેનું નિરૂપણ કરે છે અતિ-સમસ્ત વિના, १- 'आतोऽनुपसर्गे क ' (३।२।३) इति कमत्यये 'आतो लोप इटी' त्यालोपः। २-मक.-'मकि मण्डने' भौवादिक आत्मनेपदी, सिद्धि प्रपोदरादिपाठाद । ३- 'मङ्गलम्'-गत्यर्थकात् 'मगि' धातोरौणादिकोऽल्च् प्रत्ययः । ५- अन्यत्र व्युत्पत्तिवादादिषु । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ पईन्तः 'मगल' मद्गलम्-सफलविनविनाशकत्वान्मङ्गलस्वरूपत्वेन सामानाधिकरण्यमुभयोः, मगलत्वस्य जातेः सर्वेष्वर्हत्स्वेकत्वेनैकवचन मिति मागुक्त न विस्मतव्यम् । 'सिद्धा मगल' निगदस्पष्टमिदम् । 'साहू मगल' मापवो मद्गलम् , साधुपदेनाऽऽचार्यों पायाया अपि लक्ष्यन्ते तेपामपि साधुताऽवच्छेदकधर्मवत्त्वाद, अहंदादिपदव्यारया च नमस्कारमन्त्रे गता । 'केवलिपण्णत्तो धम्मो' केवल केवलज्ञानमस्त्येपामिति केवलिनस्तैः प्रज्ञप्तामरूपितः केवल्पिज्ञप्त', धर्म -श्रुतचारित्रलक्षणः 'मगल' मगलस्वरूपः। 'चत्तारि' चखार' 'लोगुत्तमा' लोकेन्द्रव्यभावरूपेपु उत्तमा' श्रेष्ठा लोकोत्तमाः। 'लोकस्योत्तमाः' इति व्यार यान तु न सम्यक्, निर्दारणपठ्यामेकवचनान्तलस्यासङ्गतेः, 'न निर्दारणे' (२।२।१०) इति समासप्रतिषेपाच । 'अरिहता लोगुत्तमा' अर्हन्तो लोकोत्तमाः । 'सिद्धा लोगुत्तमा' सिद्धा लोकोत्तमाः। 'साहू लोकोत्तमा' साधनो लोकोत्तमा• 'केवलिपण्णनो धम्मो लोगुत्तमो' केवल्पिज्ञप्तो धर्मों लोकोत्तमः । 'चत्तारि' चतुरः, 'सरण' शरणम् 'पवजामि' प्रपये मानोमि चतुर्गतिभ्रमणभयपरित्राणायेत्यर्थात् । 'अरिहते सरण पवनामि' अर्हतः शरण प्रपद्ये । 'सिद्धे सरण पवनामि' सिद्धान् शरण प्रपद्ये । 'केवलिपण्णत्त धम्म सरण पवजामि' केवलिपज्ञप्तधर्मं शरण प्रपये, निगदव्याख्यातमिद सर्वम् |मू० १॥ समस्त विघ्नों के विनाशक होने से मगलस्वरूप है १। वैसे ही सिद्ध मगलस्वरूप हैं २। साधु पदसे यहा पर साबु, आचार्य, उपाध्याय, तीनों का ग्रहण है अत एच अर्थ हुआ कि-साधु, आचार्य तथा उपा याय मगलस्वरूप हैं । केवली प्ररूपित धर्म मगलस्वरूप है ४। ये ही चार लोकमें उत्तम हैं अत एव इन्हीं चारो की शरण को मैं प्राप्त होता हूँ, क्यों कि चतुर्गति-भ्रमण के भय को हटाने वाले ये ही चार हैं ॥ सू० १॥ નાશ કરવાવાળા હેવાથી મગલસ્વરૂપ છે (૧) તેવી જ રીતે સિદ્ધ મગલસ્વરૂપ છે (૨) સાધુ પદથી અહિંયા સાધુ, આચાર્ય, ઉપાધ્યાય, ત્રણેનું ગ્રહણ છે એટલા માટે અર્થ કે સાધુ, આચાર્ય તવા ઉપાધ્યાય મગલસ્વરૂપ છે (૩) કેવળિપ્રરૂપિત ધર્મ મગળસ્વરૂપ છે (૪) એ જ ચાર લેકમાં ઉત્તમ છે એટલે એ ચારેના શરણને હુ પ્રાપ્ત થાઉં છું કારણ કે ચતુર્ગતિ-ભ્રમણના ભયને હટાવવાવાળા એ જ ચાર છે Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमनस्व । ॥ छाया ॥ चत्वारो मङ्गलम्-अर्हन्तो मगल, सिद्धा महल, साधको मालं, केबलिमासो धर्मों मङ्गलम् । चत्वारो लोकोत्तमाः-अर्हन्तो लोकोतमाः, सिदा लोको समाः, साधयो लोकोत्तमाः, केलिपज्ञप्ती धर्मों लोकोत्तमः । चतुरः शरण प्रपोअईतः शरण प्रपये, सिद्धान् शरण प्रपरे, साधून शरण प्रपये, केवरिभशप्त धर्म शरण प्रपत्र ॥ मू०.१॥ ॥ टीका ॥ __ 'चत्तारि' चत्वार', 'गल' -मङ्गलम्-मद्ग' श्रुतचारित्रादिरूपो धर्मस्त लाति-आदत्त इति 'मङ्गलम् , यहा मा गालयतिम्भपादपनयतीति, मङ्कन मङ्कः भूपण ज्ञानदर्शनादि त लाति आदत्त इति वा मद्गलम् , अथवा मश्यतेपाप्यते हितमनेनेति मगलम् । अत्रैकवचन तु अईदादिचतुष्टयनिष्ठस्य मङ्गलत्व स्यैकत्वेन 'सूत्राणि प्रमाणम्' इत्यादिवत्, तत्र हिममितिकरणतावच्छेदक सूत्रत्वा वच्छिन्नयावत्सूत्रनिष्ठमेकमेवेत्यवच्छेदकत्वमादायैकवचनप्रयोगः, स्पष्टमिदम न्यत्र विस्तरेण । 'चत्तारि' इत्युक, सम्प्रति चतु पदार्थानाह-'अरिहता चार मगलस्वरूप हैं, मगल उसको करते हैं जो श्रुत चारित्र रूप धर्म को देनेवाला हो, अथवा मुझ (नमस्कार करनेवाले) को ससारसे पार करने वालों हो; यो मङ्क-ज्ञान दर्शन आदि भूषण को धारण करनेवाला हो, अथवा जिसके द्वारा हितका प्राप्ति हो। इस प्रकार सामान्यतया मगलका निरूपण करके अब चार शब्दसे जो लिए जाते हैं उन का निरूपण करते हैं-अहन्त ચાર મગળ સ્વરૂપ છે, આગળ તેને કહે છે કે જે અને ચારિત્રરૂપ ધર્મને દેવાવાળા છેષ અથવા મને (નમસ્કાર કરવાવાળાને) સ સારથી પાર કરનારા હોય અથવા મ જ્ઞાન દર્શન વિગેરે ભૂષણને ધારણ કરવાવાળા હોય અથવા જેના દ્વારા હિતની પ્રાપ્તિ થાય, આવી રીતે સામાન્ય પ્રકારે મગળનું નિરૂપણ કરીને હવે ચારથી જે લેવાય તેનું નિરૂપણ કરે છે અહત-સમસ્ત વિના १- 'आतोऽनुपसर्गे क ' (३।२।३) इति कमत्यये 'आतो लोप इटी'-त्यालोपः। २-मक.-'मकि मण्डने' भौवादिक आत्मनेपदी, सिद्धि. प्रपोदरादिपाठाद । ३- 'मङ्गलम्'-गन्यर्थकात् 'मगि' धानोरोणादिकोऽल्च् प्रत्यय । ५- अन्यत्रव्युत्पत्तिवादादिए । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ पहन्तः 'मगल' मङ्गलम्-सकलविनविनाशकत्वान्मङ्गलस्वरूपत्वेन सामानाधिकरण्यमुभयोः, मगलत्वस्य जातेः सर्वेप्वईत्स्वेकत्वेनैकवचन मिति मागुक्त न विस्मतव्यम् । 'सिद्धा मगल' निगदस्पष्टमिदम् । 'साहू मगल' माधवो मङ्गलम् , साधुपदेनाऽऽचार्योपाध्याया अपि लक्ष्यन्ते तेपामपि साधुताऽवच्छेदकधर्मवत्वात् , अहंदादिपदव्यारया च नमस्कारमन्ने गता । 'केवलिपण्णत्तो धम्मो केवल केवलज्ञानमस्त्येपामिति केवलिनस्तैः प्रज्ञप्तःप्ररूपितः केवलिपज्ञप्त', धर्म =श्रुतचारित्रलक्षणः 'मगल' मङ्गलस्वरूपः। 'चत्तारि' चखारः 'लोगुत्तमा' लोकेपु-द्रव्यभावरूपेषु उत्तमा =श्रेष्ठा लोकोत्तमाः। 'लोकस्योत्तमाः' इति व्यार यान तु न सम्यक, निर्धारणपष्ठयामेकवचनान्तवस्यासगतेः, 'न निर्दारणे' (२।२।१०) इति समासप्रतिषेपाच । 'अरिहता लोगुत्तमा' अर्हन्तो लोकोत्तमाः। 'सिद्धा लोगुत्तमा' सिद्वा लोकोत्तमाः। 'साहू लोकोत्तमा' साधनो लोकोत्तमाः 'केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो' केवलिप्रज्ञप्तो वर्मों लोमोत्तमः । 'चत्तारि' चतुरः, 'सरण' शरणम् 'पवज्जामि' प्रपये मामोमि चतुर्गतिभ्रमणभयपरित्राणायेत्यर्थात् । 'अरिहते सरण पवजामि' अहंतः शरण अपधे । 'सिद्धे सरण पवजामि' सिद्धान् शरण प्रपद्ये । 'केवलिपण्णत्त यम्म सरण पवज्जामि' केवलिपज्ञप्तधमै शरण प्रपद्ये, निगदव्याख्यातमिद सर्वम् ॥५० १॥ समस्त विघ्नों के विनाशक होने से मगलस्वरूप है १। वैसे ही सिद्ध मगलस्वरूप है २। साधु पदसे यहा पर साबु, आचार्य, उपाध्याय, तीनों का ग्रहण है अत एव अर्थ हुआ कि-साधु, आचार्य तथा उपायाय मगलस्वरूप है ३। केवली प्ररूपित धर्म मगलस्वरूप है ४। ये ही चार लोकमें उत्तम है अत एव इन्हीं चारों की शरण को मैं प्राप्त होता है, क्यों कि चतुर्गति-भ्रमण के भय को हटाने वाले ये ही चार हैं ॥ सू० १॥ નાશ કરવાવાળા હેવાથી મગલસ્વરૂપ છે (૧) તેવી જ રીતે સિદ્ધ મગલ સ્વરૂપ છે (૨) સાધુ પદથી અહિંયા સાધુ, આચાર્ય, ઉપાધ્યાય, ત્રણેનું ગ્રહણ એટલા માટે અર્થ થયો કે સાધુ, આચાર્ય તથા ઉપાધ્યાય મગલસ્વરૂપ છે (૩) કેવળિપ્રરૂપિત ધર્મ મગળસ્વરૂપ છે (૪) એ જ ચાર લેકમાં ઉત્તમ છે એટલે એ ચારેના શરણુને હું પ્રાપ્ત થાઉં છું કારણ કે ચતુર્ગતિ-ભ્રમણના ભયને હરાવવાવાળા એ જ ચાર છે Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकत्रस्य अथ 'इच्छामि ठामि काउस्सग्ग' इति सम्पूणी पट्टिका पठित्वा 'इच्छामि पडिकमिउ' इति सर्या पट्टी पठेत्, सैपा-'इच्छामि० इरियावहि याए' इत्यादि । इच्छामि पडिक्कमिउ इरियावहियाए विराहणाए गमणा गमणे, पाणकमणे, वीयकमणे, हरियक्रमणे ओसा-उत्तिंग-पणगदग-मट्टी-मकडा-सताणा-सकमणे जे मे जीवा विराहियाएगिदिया, वेइदिया, तेइदिया, चउरिदिया, पंचिंदिया,अभिहया, वत्तिया, लेसिया, सघाइया, सघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया ठाणाओ ठाण सकामिया, जीवियाओ ववरोविया तस्स मिच्छा मि दुकड ॥सू०२॥ ॥ छाया ॥ इच्छामि प्रतिक्रमितुमैर्यापथिक्या (क्या) विराधनाया. (या), गमना गमने भाणातिक्रमणे, बीजाक्रमणे, हरिताक्रमणे, अवश्यायोतिङ्गपनकोदकमृत्तिकामर्कटसन्तानसक्रमणे ये मया जीवा विराधिता--एकेन्द्रिया., द्वीन्द्रिया, त्रीन्द्रिया', चतुरिन्द्रियाः, पञ्चेन्द्रियाः, अभिहताः, वत्तिताः, लेपिताः, सघा तिता., संघट्टिता., परितापिताः, क्लमिता., अबदाचिता., स्थानात्स्थान सक्रामिताः, जीविताद्वयपरोपितास्तस्य मिथ्या मयि दुष्कृतम् ॥ ॥ टीका ॥ 'इरियावहियाए' ऐपिथिक्याः ईरणमीयो-सयमिना गमनम्, पथि भवा पन्यान गच्छति प्रामोतीति वा पथिकी, ईर्याप्रधाना पथिकी ईर्यापथिकी, इसके बाद 'इच्छामि ठामि काउस्सग' की पाटी पढ़कर 'इच्छामि पडिकमिउ' की पूरी पाटी पढे, वह इस प्रकार-'इच्छामि० इरियावहियाए' इत्यादि। हे गुरुमहाराज ! मै ईर्यापथसम्बन्धी विराधना से निवृत्त तपछी 'इच्छामि ठामि काउस्सग' - Beीन इच्छामि पडिक्कमिउ' नाश पारी मोती, तमा २-'इच्छामि० इरियावहियाए' इत्यादि। હે ગુરુમહારાજ ! હુ ઈર્યાપથસ ધી વિરાધનાથી નિવૃત્ત થવા ઈચ્છે છે १-पथिकी-'पथ:कन्' (६।१।७५) इति ष्कन् प्रत्ययः पित्वान्दीप । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम् -४ यद्वा ईर्याप्रधानः पन्था = ईर्ष्या पथस्तत्र भवा = ऐर्या पथिकी = ईर्यापथसम्बन्धिनी विराधनेति यावत् तस्याः । 'पडिकमिउ' प्रतिक्रमितु = निवर्त्तितुम् ' इच्छामि' स्पष्टमिदम् । अथ विराधनाविषयान् दर्शयति १६३ 'गमणागमणे' गमन चाऽऽगमन च गमनागमनं, तस्मिन् गमनागमने तत्र गमन = स्वाध्यायादिनिमित्तमुपाश्रयाद्वहिः प्रस्थानम्, आगमन = कार्यसमाप्तौ परावृत्य पुनरुपाश्रय एव समागमनम् । अतिचारोत्पत्तो निदानमाह-'पाणक्कमणे' इत्यादि, माणाः सन्त्येपामिति प्राणाः द्वीन्द्रियादयः प्राणिनस्तेषाम् आक्रमण = पादादिना पीडन प्राणाक्रमणं तस्मिन् । 'वीयकमणे' वीजानि प्रसिद्धानि तेषामाक्रमण बीजाक्रमणं तस्मिन् । 'हरियकमणे ' हरितस्य वनस्पतिमात्रस्याssक्रमण हरिताक्रमण तस्मिन् । 'ओसाउसिंगपणगदगमट्टीमकडासताणासक्रमणे' अवश्यायश्वोत्थि पनकच दरु च मृचिका च मर्कटकसन्तानवेत्येतेषा द्वन्द्वे अव इयायोचितपनक दक-मृत्तिका मर्कटकसन्तानास्तेपा सक्रमण = आक्रमणम् तस्मिन, तत्राऽवश्यायः = मेघमन्तरेण रात्रौ पतितः सूक्ष्मतुपाररूपोऽष्कायविशेषः 'ओस' इति भाषामसिद्रः, उत्तिगा. = भूमौ पर्तुलविवरकारिणो गर्दभमुखाकृतय. कीटविशेपा की टिकानगरादयो वा, पनक' = अङ्कुरितोऽनङ्कुरितो वा पञ्चवर्णानन्तकाय विशेषः, जलसम्बन्धेन जायमानः पिच्छिलाकार 'काई' इति लोकप्रसिद्धः, " दकम् = उदकमष्काय, मृत्तिका = सचिव पृथ्वीकाय, मर्कटकसन्तान = लूताजालम् । होना चाहता हूँ । स्वाध्याय आदि के लिये उपाश्रय से बाहर जाने में और लौटकर फिर उपाश्रय आने में पैर आदि से प्राणियों के दब जानेमें, यीजों के दर जाने में, वनस्पति के दय जानेमें, ओस, उत्तिंग (कीट विशेष ), पचवर्ण पनक ( फूलन), पानी, मिट्टी, मकडेके जाल आदि के कुचल जानेमे, जो एक સ્વાધ્યાયાદિ નિમિત્ત ઉપાશ્રયમાંથી બહાર જવામા અને પાછા કરી ઉપાશ્રયે આવવામા, પગ વિગેરેથી પ્રાણીગ્માના દખાઇ જવામા, ખીજ વગેરે દખાઇ જવામા, વનસ્પતિના દેખાઈ જવામા, એસ, ઉત્તિગ (એક પ્રકારનું જીવડું), પંચવણું पन (सा), पाली, भाटी, भडोडीनी नस विगेरेना अपराध वाभा ने मे४ १ - ' गमनागमनम् ' अत्र द्वन्द्वेनैकवचनान्तता । २ - माणाः - 'अर्श आदिभ्योऽच्' इत्यचप्रत्यय । ३ - कलम् -' मोक्त माज्ञैर्भुवनममृत जीवनीय दकं च' इति हलायुधः । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ mmentM आवश्यकसूत्रस्य अथ 'इच्छामि ठामि फाउस्सग्ग' इति सम्पूर्णी पट्टिका पठित्वा 'इच्छामि पडिकमिउ' इति सई पट्टी पठेव, सैपा-'इच्छामि० इरियावहि याए' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ इच्छामि पडिक्कमिउ इरियावहियाए विराहणाए गमणागमणे, पाणकमणे, वीयकमणे, हरियकमणे ओसा-उत्तिंग-पणगदग-मट्टी-मकडा-सताणा-सकमणे जे मे जीवा विराहियाएगिदिया, वेइदिया, तेइंदिया, चउरिदिया, पंचिंदिया, अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघटिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया ठाणाओ ठाण सकामिया, जीवियाओ ववरोविया तस्स मिच्छा मि दुक्कड ॥सू०२॥ ॥ छाया ॥ इच्छामि अतिक्रमितुमैर्यापथिक्याः (क्या) विराधनायाः (या), गमना गमने भाणातिक्रमणे, वीजाक्रमणे, हरिताक्रमणे, अवश्यायोतिङ्गपनकोदकमृति फामर्कटसन्तानसक्रमणे ये मया जीवा विराधिता.-एकेन्द्रिया , द्वीन्द्रिया', त्रीन्द्रियाः, चतुरिन्द्रियाः, पञ्चेन्द्रिया., अभिहता , पतिताः, लेपिता', सघा तिताः, सघट्टिता', परितापिता', क्लमिता, अवद्राविता , स्थानात्स्थान सका मिताः, जीविताद्वयपरोपितास्तस्य मिथ्या मयि दुष्कृतम् ॥ ॥ टीका ॥ 'इरियावहियाए' ऐपिथिक्या. ईरणमीर्या सयमिना गमनम्, पाथभवा पन्थान गच्छति प्राप्नोतीति वा पथिकी, ईप्रिधाना पथिकी ईर्यापथिकी, ____ इसके बाद 'इच्छामि ठामि काउस्सग' की पाटी पढ़कर 'इच्छामि पडिक्कमिउ' की पूरी पाटी पढे, वह इस प्रकार-'इच्छामि इरियावदियाए' इत्यादि । हे गुरुमहाराज ! मैं ईर्यापथसम्बन्धी विराधना से निवृत्त ते पछी 'इच्छामि ठामि काउस्सग' नी utalela इच्छामि पडिक्कमिउ' नाश पाटी मावी, ते मा प्ररे-'इच्छामि० इरियावहियाए' इत्यादि ગુરુમહારાજ ! હુ ઈયપથસબ ધી વિરાધનાથી નિવૃત્ત થવા ઈચ્છું છું. १-पथिकी-'पथ:कन्' (५।१।७५) इति प्कन् प्रत्यय पित्वान्डी । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, पतिक्रमणा ययनम्-४ १६५ पतिक्रमणमुच्यते-'इच्छामि० पगाममिज्जाए' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ इच्छामि पडिकमिउ पगामसिजाए निगामसिज्जाए सथाराउव्वट्टणाए परियट्टणाए आउटणाए पसारणाए छप्पईसघट्टणाए कूइए कक्कराइए छिइए जभाइए आमोसे ससरक्खामोसे आउलमाउलाए सोवणवत्तिआए इत्थीविप्परिआसिआए दिडिविप्परिआसिआए मणविप्परिआसिआए पाणभोयणविप्परिआसिआए जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कड ॥सू०३॥ ॥ छाया ॥ इच्छामि प्रतिक्रमितु प्रकामशय्यया निकामशग्यया सस्तारकोद्वर्तनया परिवर्तनय आकुञ्चनया प्रसारणया पट्पदीसपट्टनया कृजिते कर्करायिते क्षुते जृम्भिते आमर्श सरजस्कामर्श आकुलाकुलया स्वमप्रत्ययया स्त्रीवैपर्यासिक्या दृष्टिवैपर्यासिक्या मनोवैपर्यासिक्या पानभोजनवैपर्यामिक्या यो मया दैवसिकोऽतिचार कृतस्तस्य मिथ्या मयि दुष्कृतम् ।। ॥ टीका ।। __ 'पडिकमिउ' प्रतिक्रमितु-निवतितम् , 'इच्छामि' अभिलपामि, 'पगामसिज्जाए' शयन-शग्या, पकाम शग्याप्रकामशग्या तया, रात्रिआदि में करवट बदलने आदि से होनेवाले अतिचारो की निवृत्ति कहते है-'इच्छामि पगामसिज्जाए' इत्यादि । हे भगवन् ! मैं दिन-रात सम्बन्धी शयन आदि अतिचारों से निवृत्त होना मा६३२१पामा या अतियारानी निवृत्तिछे इच्छामि पगामसिज्जाए' इत्यादि। હે ભગવાન ! હું દિવસ-રાત્રિ સબ પી શયન વિગેરે અતિચારોથી નિવૃત્ત થવાને ચાહું છું તે અતિચાર અગર અધિક સુવાથી અથવા વિના કારણે સુવાથી અથવા १ शय्या'-शीद स्वप्ने' अस्मात् 'सज्ञाया समज-निपद-निपत-मन-विदपुन-शीद्-भृत्रिण' (३ । ३ । ८८) इति भावे क्यप् । किन्तु 'कृत्यल्युटो बहुलम्' इति वचनाद् 'य' प्रत्ययः 'इत्युक्तिस्तु व्याकरणानववोधमूलैवेत्यलमितराक्षेपेण । २ 'मकामशग्या'-अत्र सुप्मुपेति ममास । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ आवश्यकत्रस्य एमन्येऽपि 'जे' ये 'एगिदिया' एक म्पर्शरूपमिन्द्रिय येगा त एकेन्द्रियाःपृथिव्यादयः, 'इदिया' दीन्द्रिया: कमिप्रभृतयः, 'तेइदिया' त्रीन्द्रिया: पिपीलिकाघाः, 'चउरिदिया चतुरिन्द्रिया:-दशमशाभ्रमराधा., 'पचिदिया' पञ्चेन्द्रिया गृहगोधिकाधा' 'मे' मया 'रािहिया' पिराधिता =दुःखीकृताः, 'अभिहया' अभि-साम्मुख्येन हता'चरणादिस्पर्शन परिपीडिताः, 'वत्तिया' वर्तिता' धूल्यादिपु विलोठिता धूल्यादिभिराहता वा, यद्वा परिवर्तिताम्यया वस्थानाद्वैपरीत्य नीता इत्यर्थः, 'लेसिया' लेपिता' सम्मर्दिताः, 'सघाइया' सघातिता मिथ. सयोजिता', 'सघट्टिया' सघट्टिताईपत्स्पृष्टाः, 'परिया विया' परि सर्वतोभावेन तापिता' पीडिता', 'स्लिामिया' क्लामिता - ग्लानिमानीताः, 'उद्दविया' अपद्राषिताः उपद्राविता वा बासिता इत्यथ , 'ठाणाओ ठाण सकामिया' स्थानात एकस्मात् स्थानात् स्थान-स्थानावर सक्रामिता मापिता., 'जीवियाओ ववरोविया' जीवित जीवन तस्माद् व्यरोपिता मोचिता , 'तस्स' तस्य-तत्सम्बन्धिनोऽतिचारस्य 'मि' माय स्थितमिति शेष , 'दुक्कड' 'दुष्कृत-पाप 'मिच्छर' मिथ्या निष्फल मस्त्वितिशेष ॥२॥ ___ एवं गमनागमनातिचारमुक्त्वा सम्पति त्वग्वर्तनस्थानातिचारइन्द्रियवाले, दो इन्द्रियवाले, तीन इन्द्रियवाले, चार इन्द्रियवाले, पाच इन्द्रियवाले जीव मुझसे विराधित (दुखी) हुए हों, कुचले गये हो, धूल आदिमे लुढकाये या ढके गये हों, किसी प्रकार मसले गये हो, इकट्ठे किये हों, छूये गये हों, सताये गये हों, थकाये गये हो, अथवा जीवसे रहित किये गये हों तो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड' इस प्रकार गमन-आगमन सम्बन्धी अतिचार करकर शयन ઈદ્રિયવાળા, બે ઈદ્રિયવાળા, ત્રણ ઈદ્રિયવાળા, ચાર ઈદ્રિયવાળા, પાચ ઇન્દ્રિયવાળા જીવ મારાથી વિરાષિત (દુ ખી) થઇ હોય, કચરાઈ ગયા હોય, ધૂળ વિગેરેમાં ઢકાઈ ગયા હોય, કોઈ પ્રકારે મરડાઈ ગયા હોય, ભેગા કરાયા હૈય, સ્પર્શ થઈ ગયે હય, સતાવ્યા હોય, થકાવ્યા હોય અથવા જીવથી રહિત કર્યા હોય તે 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड' આવી રીતે ગમન આગમન સબધી અતિચાર કહીને શયન આદિમાં પડખુ HTHHETHER Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ १६७ रायिते कर्करायित हा विपमेय परुषेय शय्या, तदुपरि कथ मया शयितव्यमित्यादि शग्यादोपकथन तस्मिन् सति, 'लिइए' क्षुते-च्किादौ 'जभाइए' जृम्भित जम्मा तस्मिन् ; एतद्वय चाविधिपूर्वकमेव कृत सदतिचारोत्पादकमित्यवगन्तव्यम् 'आमोसे' आमर्श: स्पर्शस्तस्मिन्-अममाज्य हस्तादिना कण्डूयनस्वरूपे । 'ससरक्खामोसे' सह रजसा वर्त्तते सरजस्कः स चासावामर्शश्च सरजस्कामर्शस्तस्मिन् सचित्तरजोयुक्तवस्तुस्पर्श इत्यर्थः । इत्थ जाग्रतोऽतिचारमुक्त्वा सम्पति मृप्तस्य तमाह-'आउलमाउलाए' इति, आकुलाकुला-निद्रा प्रमादायभिभूतस्य मूलोत्तरगुणसम्बन्धिविविधोपरोधक्रियास्वरूपा, युद्ध-विवाह-राज्यपाप्तिपभृतिसावयक्रियास्वरूपा वा तया। 'सोअणवत्तिआए' स्वमा शयन प्रत्यया हेतुर्यस्याः सा स्वप्नपत्यया' तया स्वमवशात्सञ्जातयेत्यर्थः, विराधनयेत्यर्थाद्गम्यते, स्वप्नवशात्सञ्जातया मूलोत्तरगुणसम्बन्धिविवियोपरोधक्रियास्वरूपया, युद्ध-विवाह-राज्यमाप्तिपमुखसावधक्रियास्वरूपया वा विराधनयेत्यर्थः। इमामेव पविभज्य प्रदर्शयति-' इत्थीविपरिआसिभाए' स्त्रिया स्त्रीभिर्वा सह विपर्यामः स्वप्ने ब्रह्मचर्यस्खलनरूपो व्यत्यासस्तन भवेति, यद्वा विपर्यासे भवा चैपासिकी स्त्रिया वैपर्यासिकी स्त्रीवैपर्यासिकी तया, 'दिहिविप्परिआसिआए' स्वप्ने अनुरागवशात्स्यवलोकन दृष्टिविपर्यासस्तत्र भवा दृष्टिवैपर्यासिकी तया, 'मणविपरिआसिआए' स्वप्ने मनसा जभाई लेने से, विना पूजे खुजलाने से या सचित्त रजयुक्त वस्त्रादिके स्पर्श से जो अतिचार किया गया हो, ये सय जाग्रत अतिचार हुए, अब सुप्त अतिचार कहते हैं-एव स्वप्न-अवस्थासम्बन्धी, मूलोत्तर गुणको पित करनेवाली, अथवा युद्ध, विवाह, राज्यप्राप्ति आदि सावध क्रिया अर्थात् स्वममें स्त्री के साथ कुशील सेवन, अनुराग पूर्वक स्त्री का अवलोकन, मनके विकार, तथा ખાવાથી, પૂજ્યા વિના જેલવાથી અથવા સચિત્ત જયુકત વસ્ત્રાદિકના સ્પર્શથી જે અતિચાર થયા હોય એ બધા જાગ્રત અતિચાર થયા, હવે સુપ્ત અતિચાર કહે છે - એવ સ્વપ્ન અવસ્થા રાબ ધી, મૂત્તર ગુણને દૂષિત કરવાવાળી અથવા યુદ્ધ, વિવાહ, રાજ્યપ્રાપ્તિ વિગેરે સાવદ્ય ક્રિયા અર્થાત્ સ્વપ્નમાં સ્ત્રીની १-प्रत्ययोऽधीनशपथज्ञान विश्वासहेतुपु ॥ इत्यमरः ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ आवश्यकसूत्रस्य मभ्ययामद्वयापिकशयनेन निफारण दिवशयनेन वा, यद्वा-बहालस्यादिजनिफया मृदुतमया स्थूलशग्यरीत्यर्थः । मध्ययामद्वयाधिकशयनस्य वा यायप्रति रोधकत्वेन मतिपेशाद । 'निगामसिनाए' प्रकामशग्यैव नित्यमासेव्यमाना 'निकामशरये'-त्युच्यते । 'सयारा' इति लुप्तसप्तम्यन्तं पृथक्पद, समासे तु सति 'सथारा' इत्यस्य 'परियणाए' इत्यनेन विवक्षितः सम्बन्धो न स्यात् ‘पदार्थः पदार्थेनान्वेति ननु पदार्थकदेशेन ' इतिसिद्धान्तात् , समासे च विशिष्ट एव शक्तिस्वीकारेण तदेकदेशस्य पदार्थवाभावादिति अपश्चितमन्यत्र, सस्तीयेते ऽस्मिन्निति सस्तरण वा सस्तार आस्वरण तस्मिन् , 'उन्नट्टणाए' उद्ववत्तनमुद्वर्तना-मार्जनमन्तरेण दक्षिणपाऽऽवर्तन तया, 'परियट्टणाए' परिवत्तन परिवर्तना=बामपाविर्तन तया, 'आउटणाए' आकुश्चनमाकुश्चना-शरीर सङ्कोचस्तया, 'पसारणाए' प्रसारण प्रसारणा शरीरसञ्चारण तया, एतत्पयन्त 'प्रमार्जनमन्तरेणे'-त्यस्य शेपो वोद्धव्य । 'छप्पईसघट्टणाए' पट्पयो यूका स्तासा सघट्टनम् अयथावत्स्पर्शः पट्पदीसघटना तया, 'कूइए' कूजित कूजन-श्लेष्मादिवशेनाऽयथावन्कासन, तस्मिन् सतीत्यर्थ । 'ककराईए' कर चाहता है। वे अतिचार चाहे अधिक सोनेसे या बिना कारण सोने से, अथवा अत्यन्त कोमल मोटी (जाडी) शय्या पर सोने से तथा ऐसी शय्या का नित्य सेवन करने से, बिछौने (सथारे) पर शरीर के दिन पूजे करवट लेने से, यिन पूजे अंगोपाग के सकोनन और पसारने से, जूं आदि के अविधिपूर्वक स्पर्श से, अविधि से खासी आदि के करने से, अयतना पूर्वक छींकने तथा અત્યત કમલ મેટી શા ઉપર સુવાથી તથા એવી પથારીને નિત્ય ઉપયોગ કરવાથી, પથારી (સથારા) ઉપર શરીરને પૂજ્યા વિના કરવટ લેવાથી, પૂજ્યા વિના અગ-ઉપાગને સંકોચવા–પસારવાથી, જૂ આદિના અવિધિપૂર્વક સ્પર્શથી, અવિધિએ ઉધરસ વિગેરે ખાવાથી, અયતનાપૂર્વક છી કવાથી તથા બગાસું १ अन्यत्र-'वैयाकरणपभूण-लघुमञ्जूपादिषु' । २ भावे का। ३ 'यस्य च भावेने ति सप्तमी, एवमग्रेऽपि । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ १६७ रायिते-करायित हा विपमेय परुषेय शय्या, तदुपरि कथ मया शयितव्यमित्यादि शग्यादोपकथन तस्मिन् सति, 'छिइए' भुते-बिादौ 'जभाइए' जृम्भित जम्मा तस्मिन् ; एतद्द्य चाविधिपूर्वकमेव कृत सदतिचारोत्पादकमित्यवगन्तव्यम् 'आमोसे' आमर्शः-स्पर्शस्तस्मिन्-अप्रमाय॑ दस्तादिना कण्डयनस्वरूपे । 'ससरक्खामोसे' सह रजसा वर्तते सरजस्कः स चासावामर्शश्च सरजस्कामर्शस्तस्मिन् सचित्तरजोयुक्तवस्तुस्पर्श इत्यर्थः । इत्थ जाग्रतोऽतिचारमुक्त्वा सम्पति मुप्तस्य तमाह-'आउलमाउलाए' इति, आकुलाकुला=निद्रा ममादायभिभूतस्य मूलोत्तरगुणसम्बन्धिविवियोपरोधक्रियास्वरूपा, युद्ध-विवाह-राज्यमाप्तिपभृतिसावधक्रियास्वरूपा वा तया। 'सोअणवत्तिआए' स्वमा शयन प्रत्यया हेतुर्यस्याः सा स्वप्नपत्यया' तया स्वमवशात्सजातयेत्यर्थः, विराधनयेत्यर्थाद्गम्यते, स्वप्नवशात्सञ्जातया मूलोत्तरगुणसम्बन्विविविधोपरोपक्रियास्वरूपया, युद्ध-विवाह-राज्यप्राप्तिपमुखसावधक्रियास्वरूपया वा विराधनयेत्यर्थः। इमामेव पविभज्य प्रदर्शयति-' इत्थीविप्परिआसिआए' स्त्रिया स्त्रीभिर्वा सह विपर्याम' स्वप्ने ब्रह्मचर्यस्सलनरूपो व्यत्यासस्तन भवेति, यद्वा विपर्यासे भवा-वैपासिकी स्त्रिया चैपर्यासिकी स्त्रीवैपर्यासिकी तया, 'दिहिविप्परिआसिआए' स्वप्ने अनुरागवशास्त्र्यवलोकन दृष्टिविपर्यासस्तत्र भवा दृष्टिचैपर्यासिकी तया, 'मणविपरिआसिआए' स्वप्ने मनसा जभाई लेने से, विना पूँजे खुजलाने से या सचित्त रजयुक्त वस्त्रादिके स्पर्श से जो अतिचार किया गया हो,-ये सर जाग्रत अतिचार हुए, अब सुप्त अतिचार कहते है-एव स्वप्न-अवस्थासम्बन्धी, मूलोत्तर गुणको दृपित करनेवाली, अथवा युद्ध, विवाह, राज्यप्राप्ति आदि सावध क्रिया अर्थात् स्वममें स्त्री के साथ कुशील सेवन, अनुराग पूर्वक स्त्री का अवलोकन, मनके विकार, तथा ખાવાથી, પૂજ્યા વિના જેલવાથી અથવા સચિત્ત રજયુક્ત વસ્ત્રાદિકના સ્પર્શથી જે અતિચાર થયા હોય એ બધા જાગ્રત અતિચાર થયા, હવે સુપ્ત અતિચાર કહે છે – એવા સ્વપન અવસ્થા રાબ ધી, મૂત્તર ગુણને દૂષિત કરવાવાળી અથવા યુદ્ધ, વિવાહ, રાજ્યપ્રાપ્તિ વિગેરે સાવદ્ય ક્રિયા અર્થાત્ સ્વપ્નમાં સ્ત્રીની १-प्रत्ययोऽधीनशपथज्ञानविश्वासहेतृषु ॥ इत्यमरः ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ भावश्यकम्त्रस्य विपर्यासो मनोविपर्यासस्तत्र भगा मनोवैपर्यासिकी तया, 'पाणमोअणविपरि आसिआए' स्वप्ने पानश्च भोजनश्च पानभोजने तयोविपर्यासा=पानभोजनादिसेवन तत्र भरा पानभोजनौपर्यासिकी तया हेतुभूतया निराधनया, 'जो' य. 'मे' मया, 'देवसिओ' देवसिकः 'अइयारो' अतिचारः, 'कओ' कृता सम्पादितः 'तस्स' इत्यादि भाग्वत् । नन्वयमतिचारो न माप्नोति पतिपिद्धत्वाधिवास्वापस्येति ? अत्रोच्यते यद्यपि प्रतिपिद्धो दिवास्वापस्तथाप्येतद्वचनसामर्थ्यादध्वश्रान्तादीना नासो पतिपिद्ध इति गम्यते ॥ इतित्वग्वर्तनातिचारमतिक्रमणम् ॥ मू० ३ ॥ ____ गत त्वग्वर्तनाऽतिचारमतिक्रमण सम्पति गोचराविचारमतिक्रमणममि धीयते-'पडिकमामि गोयर०' इत्यादि । आहार पानीके सेवन रूप विराधना के कारण मुझ से जो अतिचार किया गया हो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड' । यद्यपि साधुओं के लिये दिनमें शयन का निषेध है तो भी यहां पर शयन सम्बन्धी दैवसिक अतिचार बताने से यह सिद्ध होता है कि विहार आदि से अधिक थकावट आजाने पर या अन्य अनिवार्य कारणों से यदि दिन में सोया जाय तो ऐसा अवस्था के लिये उक्त दैवसिक अतिचार बताये है ॥ सू० ३ ॥ इस प्रकार शयन सम्बन्धी अतिचारों का प्रतिक्रमण कह कर अब गोचरी के अतिचार सम्बन्धी प्रतिक्रमण कहते हैं--- 'पडिक्कमामि गोयर० इत्यादि । સાથે સમાગમ, પ્રેમપૂર્વક સ્ત્રીનું જેવુ, મનને વિકાર, તથા આહાર-પાણીના सेवन३था विराधनाना भाराथा २ मतियार थया लाय 'तस्स मिच्छा मि दुकड' યદ્યપિ સાધુઓને માટે દિવસમાં સુવાનું નિષેધ છે તે પણ શયન સબ ધી દેવસિક અતિચાર બતાવવાથી એ સિદ્ધ થાય છે કે વિહાર આદિથી ખૂબ થાકી જવાના કારણે અથવા બીજા અાવાર્ય કારણથી દિવસે સુવુ પડે તે આવી અવસ્થાને માટે ઉપર કહેલુ દેવસિક અતિચાર બતાવેલ છે. (સૂ૦ ૩). આવી રીતે શયન સાધી અતિચારાના પ્રતિકમણુ કહીને હવે ગોચરીના भतियार सभी प्रतिभy 3 - 'पडिकमामि गोयर० 'इत्यादि Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % % 3D मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणा-ययनम्-४ ॥ मूलम् ॥ पडिकमामि गोयरचरियाए भिक्खायरियाए उग्घाडकवाडउग्घाडणाए साणावच्छदारासंघट्टणाए मडीपाहुडिआए वलिपाहुडिआए ठवणापाहुडिआए सकिए सहसागारिए अणेसणाए पाणेसणाए पाणभोयणाए वीयभोयणाए हरियभोयणाए पच्छाकम्मियाए पुरेकम्मियाए अदिहडाए दगससहहडाए रयससट्टहडाए पारिसाडणियाए पारिठावणियाए ओहासणभिक्खाए ज उग्गमेण उप्पायणेसणाए अपरिसुद्ध पडिगाहिय परिभुत्त वा ज न परिठविअ तस्स मिच्छा मि दुक्कड ॥ सू० ४॥ ॥ छाया ॥ प्रतिक्रामामि गोचरचर्याया भिक्षाचर्यायामुद्घाटकपाटोद्घाटनया सवत्सदारकसघट्टनया मण्डीपाभूतिकया बलिपाभृतिकया स्थापनामाभृतिकया शङ्किते सहसाकारिकेऽनेपणया पानैपणया प्राणभोजनया बीजभोजनया हरितभोज नया पश्चात मिकया पुर कर्मिकयाऽदृष्टाहतया उदकसमृष्टाऽऽहृतया रजःसमपाहतया पारिशाटनिक्या (पारिशातनिक्या) परिष्ठापनिक्या ओहासनभिक्षया यद् उद्गमेन उत्पादनैपणयाऽपरिशुद्ध प्रतिगृहीत परिमुक वा यन्न परिष्ठापित तस्य मिथ्या मयि दुष्कृतम्' ॥ मृ० ४ ॥ ॥ टीका ॥ 'गोयरचरियाए' चरण चर गाश्चरो गोचर., चर्या चरणमित्यपर्यायान्तरम् , गोचर इत्र चर्याधुत्तिर्गोचरचर्या तस्या तद्रूपायामिति भावः। 'भिक्खायरिआए' भिक्षायै चर्या भिक्षाचर्या तस्या कुलेपूत्तममध्यमाधमेषु वस्तुषु चेष्टानिष्टेषु रागादिराहित्येन लाभादिनरपेक्ष्येण च समचेतसा मुनिना भिक्षार्थमटनीय' तादृश्या भिक्षाचर्याया गायके समान जगह जगह से थोडा थोडा आहार लेने के लिये भ्रमण करने का नाम गोचरचर्या है, तत्स्वरूप जो भिक्षाचर्या (अर्थात् उत्तम मध्यम और नीच (साधारण) कुलों में तथा इष्टગાયની જેમ ઠેકાણે ઠેકાણેથી ઘેડે અષાર લેવા માટે ફરવુ તે કામને ગોચરચય કહે છે તસ્વરૂપ જે ભિક્ષાચય (અર્થાત ઉત્તમ મધ્યમ અને નીચ १-भिक्षायामीविधन्वमुपदर्शयितुमेवोक मूले-गोचरचर्ययेति । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ भावश्यकसूत्रस्य - - - - - - - विपर्यासो मनोविपर्यासस्तत्र मा मनोवे पर्यासिकी तया, 'पाणमोअणविपरि आसिआए' स्वप्ने पानश्च भोजनच पानभोजने तयोविपर्यासापान भोजनादिसेन तन भवा पानमोजनौपर्यासिकी तया हेतुभूतया विराधनया, 'जो' यः 'मे' मया, 'देवसियो' देवसिका 'अइयारो' __ अतिचारः, 'फओ' कृता-सम्पादितः 'वस्स' इत्यादि भाग्वत् । नन्वयमतिचारो न प्राप्नोति पतिपिद्धत्वादिवास्वापस्येति ? अत्रोच्यते यद्यपि पतिपिद्धो दिवास्वापस्तथाप्येतद्वचनसामादध्वश्रान्तादीना नासो पतिपिद्ध इति गम्यते ॥ इतित्वग्वनाविचारमतिक्रमणम् ॥ मू० ३ ॥ गत त्वग्वर्तनाऽतिचारमतिक्रमण सम्मति गोचराविचारमतिक्रमणममि धीयते-'पडिकमामि गोयर०' इत्यादि । आहार पानीके सेवन रूप विराधना के कारण मुझ से जो अतिचार किया गया हो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड' । यद्यपि साधुओं के लिये दिनमें शयन का निषेध है तो भी यहा पर शयन सम्बन्धी दैवसिक अतिचार बताने से यह सिद्ध होता है कि विहार आदि से अधिक थकावट आजाने पर या अन्य अनिवार्य कारणों से यदि दिन में सोया जाय तो ऐसी अवस्था के लिये उक्त देवसिक अतिचार बताये हैं ॥ सू० ३ ॥ इस प्रकार शयन सम्बन्धी अतिचारों का प्रतिक्रमण कह कर अब गोचरी के अतिचार सम्बन्धी प्रतिक्रमण कहते हैं-- 'पडिकमामि गोयर० इत्यादि। સાથે સમાગમ, પ્રેમપૂર્વક સ્ત્રીનું જેવુ, મનને વિકાર, તથા આહાર-પાણીના सेवनका विराधना २0 भाराथा २ मतियार या डाय 'तस्स मिच्छा मि दुकड' યદ્યપિ સાધુઓને માટે દિવસમાં સુવાનું નિષેધ છે તે પણ શયન સબ ધી દેવસિક અતિચાર બતાવવાથી એ સિદ્ધ થાય છે કે વિહાર -આદિથી ખૂબ થાકી જવાના કારણે અથવા બીજા અનિવાર્ય કારણથી દિવસે સુવુ પડે તે આવી અવસ્થાને માટે ઉપર કહેલ દેવસિક અતિચાર બતાવેલ છે (સૂ૦ ૩) આવી રીતે શયન સંબધી અતિચારના પ્રતિક્રમણ કહીને હવે ગોચરીના मतियार समधी प्रतिभा डे - 'पडिकमामि गोयर० 'इत्यादि' Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपणी टीका, पतिक्रमणा-ययनम्-४ ॥ मूलम् ॥ पडिकमामि गोयरचरियाए भिक्खायरियाए उग्घाडकवाडउग्घाडणाए साणावच्छदारासंघटणाए मडीपाहुडिआए वलिपाहुडिआए ठवणापाहडिआए सकिए सहसागारिए असणाए पाणेसणाए पाणभोयणाए वीयभोयणाए हरियभोयणाए पच्छाकम्मियाए पुरेकम्मियाए अदिहडाए दगससट्टहडाए रयससट्टहडाए पारिसाडणियाए पारिठावणियाए ओहासणभिक्खाए ज उग्गमेण उप्पायणेसणाए अपरिसुद्ध पडिगाहिय परिभुत्त वा ज न परिठविअ तस्स मिच्छा मि दुक्कड ॥ सू० ४॥ ॥ छाया ॥ पतिक्रामामि गोचरचर्याया भिक्षाचर्यायामुद्घाटपाटोद्घाटनया श्वत्सदारकसघट्टनया मण्डीप्राभृतिकया वलिपाभृतिकया स्थापनामाभृतिफया शकि. ते सहसाकारिकेऽनेपणया पानपणया प्राणभोजनया वीजभोजनया हरितभोज नया पश्चात्यमिकया पुर कमियाऽदृष्टाहतया उदकसमृष्टाऽऽहृतया रजःसमशाहृतया पारिशाटनिक्या (पारिशातनिक्या) परिष्ठापनिक्या ओहासनभिक्षया यद् उद्गमेन उत्पादनैपणयाऽपरिशुद्ध प्रतिगृहीत परिभुक वा यन्न परिष्ठापित तस्य मिथ्या मयि दुष्कृतम्' ॥ मू० ४ ॥ ॥ टीका ॥ 'गोयरचरियाए' चरण चर गोश्वरो गोचर , चर्या चरणमित्यपर्यायान्तरम् , गोचर इव चर्यावृत्तिर्गोचरचर्या तस्या तद्रूपायामिति भाव । 'भिक्खायरिआए' भिक्षायै चर्या भिक्षाचर्या तस्या कुलेपूतमम यमाधमेषु वस्तुपु चेष्टानिष्टेपु रागादिराहित्येन लाभादिनरपेक्ष्येण च समचेतसा मुनिना भिक्षार्थमटनीय तादृश्या भिक्षाचर्याया __ गायके समान जगह जगह से थोडा थोडा आहार लेने के लिये भ्रमण करने का नाम गोचरचर्या है, तत्स्वरूप जो भिक्षाचयों (अर्थात् उत्तम म यम और नीच (साधारण) कुलों में तथा इष्टગાયની જેમ ઠેકાણે ઠેકાણેથી ઘેડ ડે અscર લેવા માટે ફરવુ તે કામને ગોચરચય કહે છે તસ્વરૂપ જે ભિક્ષાચાં (અર્થાત ઉત્તમ મધ્યમ અને નીચ १-भिक्षायामीग्विधन्वमुपदर्शयितुमेवोक मूळे-गोचरचर्ययेति । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आवश्यकमत्रस्य मित्यर्थः। अस्याग्रे सम्पन्धः। अत्र यथाऽतिचारस्त सममेदमाह-'उग्वाडकवाड उग्धाडपाए' उद्घाटयत इति, यद्वा उद्गतो घाटा घटन-परस्परसयोजन यस्य तदुद्धाट किश्चित्स्थगितमदनविप्फम्भक वा तच तत्कपाट च उद्घाटकपाट तस्यो द्वाटना माननमन्तरेण स्वामिनिदेशमन्तरेण वा मोचनमुद्धाटकपाटोदाटना तया। 'साणावच्छदारासघटणाए' वा कुपार , वत्स पापत्यरूपो वत्सतरः, दारक' वालक', श्वा च वत्सश्च दारकश्चेत्येतेपामितरेतरयोगद्वन्द्वे ववत्सदारकास्तेषा सघटना=गात्रैः सहतीकरण वात्सदारकसघटना तया, उपलक्षणमिद गवादीनामाप। 'मडीपाहुडियाए' मण्डी अग्रकर. (अग्रभक्त ) तस्याः प्राभृतिका माभूत मुपढौफन मिति यावत्, यद्वा प्रमाण आ-मर्यादया भृता साबथै सरक्षिता भाभृता, सैव प्रामृतिका तया । 'वलिपाहुडिआए' बलिदेवभूताशुद्देशेन देयमन्नादि तस्य प्राभृतिका तया। 'ठवणापाहुडिआए' स्थाप्यत इति स्थापना कृपणवनीपकादिभ्य स्थापितमन्नादि तस्याः प्राभूतिकेति प्राग्वत्तया, 'सकिए' अनिष्ट वस्तुओमें रागादिरहित हो कर लाभालाभमे समानभाव से आहारादि ग्रहण करना) उसमें विना साकलके ढके हुए या अध ढके हुए किवाडों को विना पूँजे अथवा विना स्वामी की आज्ञाक खोलने से, कुत्ते, बछडे, बालक आदिको ढकेलकर या लापकर जाने से, कुत्ते आदिके लिये निकाले हुए अग्रपिण्डके लेने से, देवता भूत आदिकी बलि के लिये तथा याचक-कृपण आदिक (સાધારણ) કુળમાં તથા ઈષ્ટ અનિષ્ટ વસ્તુઓમાં રાગાદિ રહિત થઈને લાભાલામાં સમાન ભાવથી આહાર આદિ ગ્રહણ કરવું) તેમાં સાકળ વિના બધ કરેલ અગર અર્ધા વસેલા કમાડને પૂજા વિના અથવા ધણીની આજ્ઞા વિના બોલવાથી, કુતરા, વાછરડા, બાલક આદિને ધકેલીને અથવા ઓળગીને જવાથી, કુતરા વિગેરે માટે કહે અગ્રપિંડ લેવાથી, દેવતા, ભૂત વિગેરેના બલિના માટે તથા યાચક પણ १-इन्तकारादिस्वरूप 'हन्दा' इत्यादिना पश्चापादिप्रदेशेषु प्रसिद्ध, यद्वा कुक्कुरादिकृते रक्षितम् , 'मण्डूकडी' इति राजस्थानादौ प्रतीतम् । २-इद हि कस्मैचिदिप्टाय पूजनीयाय वा स्नेहात्सबहुमान देयमिष्ट वस्तु, तत्सादृश्यात्साधुभ्यो देय भिक्षावपि । ३-वाहुलकास्वमणि ‘ण्यासश्रन्यो युच्' (३।३।१०७) इति युच् । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणा ययनम्-४ १७१ शङ्का सञ्जाता यस्मिस्तच्छङ्कित तस्मिन् , आधाकर्मादिदोपदुष्टेऽन्नादावित्यर्थात् , सनिसप्तमीयम्, ठतीयान्तानामिव सप्तम्यन्तानामपि सर्वेपा परस्पर निरपेक्षतया 'ज उग्गमेण' इत्यादिनाग्रेतनेनेवान्वय., 'सहसागारिए' सहसा करण सहसाकारस्तत्र भव. सहसाकारिका आकस्मिक आहारस्तस्मिन् , 'अणेसणाए' न एपणा= ग्राह्यमिदमग्राह्य वेत्यायन्वेपणाभावो यस्या भिक्षाचर्याया सा अनेपणा तया, 'अण्णेसणाए' इतिपाठे अन्नस्य-भक्तादेः एपणा=परीक्षण यस्या सा अन्नैपणा तयेति गोयम् , हेतौ वतीया, 'पाणेसणाए' पीयत इति पान-जलादि तस्यैपणा अन्वेषण यस्या सा पानेपणा तया, पानपणाया वैपम्येणेति भावः, पाणभोयणाए' पाणाः सन्त्येपामिति माणा द्वीन्द्रियावास्तन्मिथिता भोजना प्राणभोजना तया, भवति हि कदाचिद्द यादिप्रदानवेलाया दातुर्ग्रहीतुर्वाऽपराधेन द्वीन्द्रियादीना नीवाना सम्मिश्रणेन सघट्टनेन वा व्यापादनम् , अयमेव चात्रातिचारो बोदव्यः। 'बीयभोयणाए' वीजाना भोजना, यद्वा वीजानि भोजने यस्या क्रियाया सा-बीजभोजना तया, 'हरियभोयणाए' हरितभोजनया, 'पच्छाकम्मियाए' पश्चात् भिक्षापदानोनर कम-भाजन पावनादि यस्यासा पश्चात्कमिका तया, 'पुरेकम्मियाए' लिये स्थापित (रक्खे हुए), ण्व आधाकर्म आदिकी शकासे युक्त, तथा विना सोचे विचारे आहारादि के लेनेसे, अनेषणीय किसी वस्तुके लेनेसे, पानी आदि पीने योग्य वस्तुको एपणामें किसी प्रकारकी त्रुटि होनेसे, हीन्द्रियादिप्राणिमिश्रित, बीजयुक्त, तथा हरितकाययुक्त आहारादि के लेने से, पश्चात्कर्मिक (जिसमें आहारादि ग्रहण करने के बाद राथ बरतन आदि धोया जाय) આદિને અર્થે રાખવામાં આવેલ, અથવા આધાક આદિની શકાથી યુકત, તથા જાણ્યા વિચાર્યા વિના આહાર વિગેરે લેવાથી, અષણીય કેઈપણ વસ્તુને લેવાથી, પાણી વિગેરે પીવા ગ્ય વસ્તુની એષણામાં કઈ પણ પ્રકારની ખામી રહેવાથી, કીન્દ્રિયદિ-પ્રાણિ-મિશ્રિત, બીજયુકત, તવા હરિતકાયયુકત આહાર આદિ લેવાથી, પશ્ચાત્યકિ (જેમ આહાર આદિ ગ્રહણ કરી લીધા પછી હાથ-વાસણ વિગેરે १ 'माणा'-अन-अर्श आदित्वादच । २-माणभोजना-शाफपार्थिवादित्वादुत्तरपदलोप । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आवश्यकत्रय सुपौकन मालाए' मण्डी अग्रकर सपना तया, उपल, मित्यर्थः, अस्याग्रे सम्बन्धः। अत्र यथाऽतिचारस्त सममेदमाह-'उग्याडकवाड उग्घाडणाए' उद्घाटयत इति, यद्वा उद्गतो घाटा घटन-परस्परसयोजन यस्य तदुद्धाट किश्चित्स्थगितमदनविष्कम्भक चा तब तकपाट च उद्घाटकपाट तस्यो द्वाटना-प्रमार्जनमन्तरेण स्वामिनिदेशमन्तरेण वा मोचनमुद्घाटकपाटोद्घाटना तया। 'साणावच्च्दारासघट्टणाए' वा कुकुर, वत्स नागापत्यरूपो वत्सतरा, दारक = पालक, श्वा च वत्सश्च दारकथेत्येतेपामितरेतरयोगद्वन्द्वे श्ववत्सदारकास्तेषा सघटना गात्रैः सहतीकरण श्ववत्सदारसिघटना तया, उपलक्षणमिद गवादीनामाप। 'मडीपाहुडियाए' मण्डी अग्रकर. (अग्रभक्त' ) तस्याः प्राभृतिका मामृत मुपढौकन मिति यावत्, यद्वा ममर्पण आ-मर्यादया भृता सा वय सरसिता भाभृता, सैव प्रामृतिका तया । 'बलिपाहुडिआए' बलि' देवभूतायुद्देशेन देयमन्नादितस्य प्राभूतिका तया। 'ठवणापाइडिआए' स्थाप्यत इति स्थापना कृपणवनीपकादिभ्य स्थापितमन्नादि तस्याः प्राभृतिकेति माग्वत्तया, 'सकिए' अनिष्ट वस्तुओमें रागादिरहित हो कर लाभालाभमे समानभाव से आहारादि ग्रहण करना) उसमें विना साकलके ढके हुए था अध ढके हुए किवाडों को विना पूजे अथवा विना स्वामी की आज्ञाके खोलने से, कुत्ते, बछडे, बालक आदिको ढकेलकर या लाकर जाने से, कुत्ते आदिके लिये निकाले हुए अग्रपिण्डके लेने स; देवता भूत आदिकी बलि के लिये तथा याचक-कृपण आदिक (સાધારણ) કુળ મા તથા ઈષ્ટ અનિષ્ટ વસ્તુઓમા રાગાદિ રહિત થઈને લાભાલાભમાં સમાન ભાવથી આહાર આદિ ગ્રહણ કરવું) તેમાં સાકળ વિના બધ કરેલ અગર અર્ધા વસેલા કમાડને પૂજા વિના અથવા ધણીની આજ્ઞા વિના ખેલવાથી, કુતરા, વાછરડા, બાલક દિને ધકેલીને અથવા ઓળગીને જવાથી, કુતરા વિગેરે માટે કહે અગ્રપિંડ લેવાથી, દેવતા, ભૂત વિગેરેના બલિના માટે તથા યાચક–પણ १-हन्तकारादिस्वरूप 'हन्दा' इत्यादिना पश्चापादिप्रदेशेषु प्रसिद्ध, यद्वा कुक्कुरादिकृते रक्षितम् , 'मण्डूकडी' इति राजस्थानादौ प्रतीतम् । २-इद हि स्मैचिदिप्टाय पूजनीयाय वा स्नेहात्सबहुमान देयमिष्ट वस्तु, तत्सादृश्यात्साधुभ्यो देय भिक्षावपि । ३-बाहुलकावर्मणि ‘ण्यासभन्यो युच्' (३।३।१०७) इति युन् । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणा ययनम्-४ शङ्का सजाता यस्मिस्तच्छङ्कित तस्मिन् , आधारुर्मादिदोपदुष्टेऽन्नादावित्यर्थात् , सनिसप्तमीयम्, ठतीयान्तानामिव सप्तम्यन्तानामपि सर्वेपा परस्पर निरपेक्षतया 'ज उग्गमेण' इत्यादिनाऽग्रेतनेनैवान्वय., 'सहसागारिए' सहसा करण सहसाकारस्तत्र भव. सहसामारिका आकस्मिक आहारस्तस्मिन् , 'अणेसणाए' न एपणा= ग्राह्यमिदमग्राह्य वेत्यायन्वेपणाभावो यस्या भिक्षाचर्याया सा अनेपणा तया, 'अण्णेसणाए' इतिपाठे अन्नस्य भक्तादे. एपणा-परीक्षण यस्या सा अन्नैपणा तयेति चो-यम् , हेतौ ठतीया, 'पाणेसणाए' पीयत इति पान=जलादि तस्यैपणाअन्वेपण यस्या सा पानैपणा तया, पानपणाया वैपम्येणेति भावः, पाणभोयणाए' प्राणाः सन्त्येषामिति माणा. द्वीन्द्रियावास्तन्मिश्रिता भोजना' प्राणभोजना तया, भवति हि कदाचिद्द-यादिमदानवेलाया दातुर्ग्रहीतुर्वाऽपराधेन द्वीन्द्रियादीना नीवाना सम्मिश्रणेन सघट्टनेन वा व्यापादनम् , अयमेव चात्रातिचारो वोद्धव्यः। 'बीयभोयणाए' वीजाना भोजना, यद्वा वीजानि भोजने यस्या क्रियाया साबीजभोजना तया, 'हरियभोयणाए' हरितभोजनया, 'पच्छाकम्मियाए' पश्चात् भिक्षाप्रदानोनर कम-भाजन पावनादि यस्यासा=पश्चात्कमिका तया, पुरेकम्मियाए' लिये स्थापित (रक्खे हुए), एव आधाकर्म आदिकी शकासे युक्त, तथा विना सोचे विचारे आहारादि के लेनेसे, अनेपणीय किसी वस्तुके लेनेसे, पानी आदि पीने योग्य वस्तुकी एपणामें किसी प्रकारकी त्रुटि होनेसे, हीन्द्रियादिप्राणिमिश्रित, वीजयुक्त, तथा हरितकाययुक्त आहारादि के लेने से, पश्चात्कर्मिक (जिसमें आहारादि ग्रहण करने के बाद हाथ बरतन आदि धोया जाय) આદિને અર્થે રાખવામા આવેલ, અથવા આધાક આદિની શકાથી યુકત, તથા જાણ્યા વિચાર્યા વિના આહાર વિગેરે લેવાથી, અનેષણય કઈ પણ વસ્તુને લેવાથી, પાણી વિગેરે પીવા ગ્ય વસ્તુની એષણામાં કઈ પણ પ્રકારની ખામી હેવાથી, દ્વીન્દ્રિયાદિ-પ્રાણિ-મિશ્રિત, બીજયુક્ત, તવા હરિતકાયયુક્ત આહાર આદિ લેવાથી, પશ્ચાત્યમિક (જેમાં આહાર આદિ ગ્રહણ કરી લીધા પછી હાથ-વાસ વિગેરે १ 'माणा '-अत्र-अर्श आदित्वादच । २-माणभोजना-शाफपार्थिवादित्वादुत्तरपदलोपः । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आवश्यकमत्रस्य मित्यर्थः; अस्याग्रे सम्बन्धः। अत्र ययाऽतिचारस्त समभेदमाह-'उग्वाडकबाड उग्घाडणाए' उद्घाटयत इति, यहा उद्गतो घाटा घटन-परस्परसयोजन यस्य तदुद्धाट किश्चित्स्थगितमदन रिफम्भक वा तच तत्कपाट च उद्घाटकपाट तस्यो द्धाटना=पमानमन्तरेण स्वामिनिदेशमन्तरेण वा मोचनमुहाटकपाटोबाटना तया। 'साणावदारासघट्टणाए' वा कुपुर , उत्सबारापत्यरूपो वत्सतरः, दारकाचालकः, श्वा च वत्सव दारकश्वेत्येतेपामितरेतरयोगद्वन्द्वे वात्सदारकास्तेषा सघट्ना गात्रैः सहतीकरण वात्सदारसघटना तया, उपलक्षणमिद गवादीनामपि। 'मडीपाइडियाए' मण्डी अग्रकूरः (अग्रभक्त' ) तस्या' प्राभृतिका-याभूत मुपढौकन मिति यावत् , यद्वा अर्पण आ-मर्यादया भृता साथै सरक्षिता भाभृता, सैव मामृतिका तया। 'वलिपाइडिआए' बलि:-देवभूतायुदेशन देयमन्नादितस्य माभूतिका तया। 'ठवणापाहुडिआए' स्थाप्यत इति स्थापनाकृपणवनीपकादिभ्य स्थापितमन्नादि तस्याः माभूतिकेति भाग्वत्तया, 'सकिए' अनिष्ट वस्तुओंमें रागादिरहित हो कर लाभालाभमे समानभाव से आहारादि ग्रहण करना) उसमें विना सांकलके ढके हुए या अप ढके हुए किवाडों को विना पूजे अथवा विना स्वामी की आज्ञाक खोलने से, कुत्ते, बरडे, बालक आदिको ढकेलकर या लापकर जाने से, कुत्ते आदिके लिये निकाले हुए अग्रपिण्डके लेने से देवता भूत आदिकी बलि के लिये तथा याचक-कृपण आदिक (સાધારણ) કુળ મા તથા ઈષ્ટ અનિષ્ટ વસ્તુઓમાં રાગાદિ હિત થઈને લાભાલાભમાં સમાન ભાવથી આહાર આદિ ગ્રહણ કરવું) તેમાં સાકળ વિના બધ કરેલ અગર અધ વાસેલા કમાડને પૂજા વિના અથવા ધણીની આજ્ઞા વિના ખેલવાથી, કુત, વાછરડા, બાલક અદિને ધકેલીને અથવા ઓળગીને જવાથી, કુતરા વિગેરે માટે કાઢે અગ્રપિંડ લેવાથી, દેવતા, ભૂત વિગેરેના બલિના માટે તથા વાચક–પૃપણ. १-हन्तकारादिस्वरूप 'इन्दा' इत्यादिना पश्चापादिप्रदेशेषु प्रसिद्ध, यद्वा 'कुक्कुरादिकृते रक्षितम् , 'मण्डूकडी' इति राजस्थानादौ प्रतीतम् । २-इद हि कस्मैचिदिप्टाय पूजनीयाय वा स्नेहात्सबहुमान देयमिप्टवस्तु, तत्सादृश्यात्साधुभ्यो देय भिक्षावपि । ३-वाहुलकारकर्मणि ‘ण्यासश्रन्यो युच्' (३।३।१०७) इति युन् । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणा ययनम्-४ शङ्का सञ्जाता यरिंमस्तच्छङ्कित तस्मिन्, आधाकर्मादिदोपदुष्टेऽन्नादावित्यर्थात्, सतिसप्तमीयम्, तृतीयान्तानामित्र सप्तम्यन्तानामपि सर्वेपा परस्पर निरपेक्षतया 'ज उग्गमेण' इत्यादिनाऽग्रेतनेनैवान्वय', 'सहसागारिए' सहसा करण सहसाकारस्तत्र भव. सहशाकारिकः = आकस्मिक आहारस्तस्मिन्, 'अणेसणाए' न एपणा= ग्राह्यमिदमग्राद्य वेत्याश्रन्वेपणाभावो यस्या भिक्षाचर्याया सा अनेपणा तया, 'अण्णेसणाए' इतिपाठे अन्नस्य = भक्तादे एपणा = परीक्षण यस्या सा अन्नपणा तयेति वा यम्, हेतौ वतीया, 'पाणेसणाए' पीयत इति पान =जलादि तस्यैषणा= अन्वेषण यस्या सापानेपणा तया, पानैषणाया वैपम्येणेति भात्र, 'पाणभोयणाए ' माणा. सन्त्येपामिति माणा " द्वीन्द्रियायास्तन्मिश्रिता भोजना प्राणभोजना तया, भवति हि कदाचिद्दभ्यादिपदानवेलाया दातुर्ग्रहीतुर्वाऽपराधेन द्वीन्द्रियादीना जीवाना सम्मिश्रणेन सपनेन चा व्यापादनम्, अयमेव चानातिचारो बोद्धव्यः | 'नीयभोयणाए' वीजाना भोजना, यद्वा वीजानि भोजने यस्या क्रियाया सा बीजभोजना तया, 'हरियभोयणाए' हरितभोजनया, 'पच्छाकम्मियाए' पश्चात् = भिक्षाप्रदानोनर कम=भाजन नावनादि यस्यासा=पश्चात्कर्मिका तया, 'पुरेकम्मियाए' लिये स्थापित ( रक्खे हुए), एव आधाकर्म आदिकी शकासे युक्त, तथा विना सोचे विचारे आहारादि के लेनेसे, अनेषणीय किसी वस्तुके लेनेसे, पानी आदि पीने योग्य वस्तुकी एपणामें किसी प्रकारकी त्रुटि होने से, दीन्द्रियादिप्राणिमिश्रित, बीजयुक्त, तथा हरितकापयुक्त आहारादि के लेने से, पश्चात्कर्मिक (जिसमें आहारादि ग्रहण करने के बाद हाथ रतन आदि धोया जाय) આદિને અર્થે રાખવામા આવેલ, અથવા આધાકમાં આદિની શાથી યુક્ત, તથા જાણ્યા વિચાર્યા વિના આહાર વિગેરે લેવાથી, અનેષણીય કૈઇપણ વસ્તુને લેવાથી, પાણી વિગેરે પીવા ચેગ્ય વસ્તુના એષણામા કાઈ પણ પ્રકારની ખામી હૈાવાથી, द्वीन्द्रियाहि-प्राणि- भिश्रित, श्रील्युक्त, तथा हरितप्राययुक्त आहार माहि सेवाथी, પશ્ચાત્કમિડ (જેમા આહાર આદિ ગ્રહણ કરી લીધા પછી હાથ-વાસણૢ વગેરે १ ' माणा - अन अर्श आदित्वादच । २- प्राणभोजना - शाकपार्थिवादित्वादुत्तरपदलोप. | १७१ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आवश्यकमत्रस्य मित्यर्थः अस्याग्रे सम्पन्धः। अत्र यथाऽतिचारस्त सममेदमाह-'उग्वाडकवाड उग्घाडणाए' उद्घाटयत इति, यद्वा उद्गतो घाटा घटन-परस्परसयोजन यस्य तदुवाट किश्चित्स्थगितमदतपिफम्भक वा तब तकपाट च उद्घाटकपाट तस्यो द्वाटना-ममानमन्तरेण स्वामिनिदेशमन्तरेण वा मोचनमुद्धाटकपाटोद्धाटना तया। 'साणावच्छदारासघट्टणाए' वाकुपार, वत्सभापत्यरूपो वत्सतरः, दारकाचालकः, श्वा च वत्सश्च दारफश्वेत्येतेपामितरेतरयोगद्वन्द्वे श्ववत्सदारकास्तषा सघना गानैः सहतीकरण वात्सदारफसघट्टना तया, उपलक्षणमिद गवादीनामापा 'मडीपाहुडियाए' मण्डी अग्रकर. (अग्रभक्त' ) तस्या माभूतिकामामृत मुपढौफन मिति यावत् , यद्वा अर्पण आ-मर्यादया भृता साथै सरक्षिता प्राभृता, सैव माभूतिका तया । 'पलिपाहुडिआए' बलि: देवभूताशुदेशन देयमन्नादितस्य माभूतिका तया। 'ठवणापाहुडिआए' स्थाप्यत इति स्थापना कृपणवनीपकादिभ्यः स्थापितमन्नादि तस्याः माभूतिकेति प्राग्वत्तया, 'सविए' अनिष्ट वस्तुओमें रागादिरहित हो कर लाभालाभमें समानभाव से आहारादि ग्रहण करना) उसमें विना सांकलके ढके हुए या अध ढके हुए किवाडों को विना पूंजे अथवा विना स्वामी की आज्ञाक खोलने से, कुत्ते, बछडे, बालक आदिको ढकेलकर या लापकर जाने से, कुत्ते आदिके लिये निकाले हुए अग्रपिण्डके लेने से देवता भूत आदिकी बलि के लिये तथा याचक-कृपण आदिके (સાધારણ) કુળમાં તથા ઈષ્ટ અનિષ્ટ વસ્તુઓમા રાગાદિ સહિત થઈને લાભાલાભમાં સમાન ભાવથી આહાર આદિ ગ્રહણ કરવું) તેમાં સાકળ વિના બધ કરેલ અગર અધ વાસેલા કમાડને પૂજા વિના અથવા ધણુની આજ્ઞા વિના ખેલવાથી, કુતરા, વાછરડા, બાલક આદિને ધકેલીને અથવા એળગીને જવાથી, કુતરા વિગેરે માટે કહેવે અગ્રપિંડ લેવાથી, દેવતા, ભૂત વિગેરેના બલિના માટે તથા યાચક-પણું १-हन्तकारादिस्वरूप 'हन्दा' इत्यादिना पश्चापादिप्रदेशेषु मसिद्ध, यद्वा 'कुक्कुरादिकृते रक्षितम् , 'मण्डूकडी' इति राजस्थानादौ प्रतीतम् । २-इद हि कस्मैचिदिप्टाय पूजनीयाय वा स्नेहात्सबहुमान देयमिष्ट वस्तु, तत्सादृश्यात्साधुभ्यो देय भिक्षावपि । ३-बाहुलकावर्मणि 'ज्यासश्रन्यो युच्' (३1३।१०७) इति युन् । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणा ययनम्-४ शङ्का सञ्जाता यस्मिस्तच्छङ्कित तस्मिन् , आधाकर्मादिदोपदुप्टेऽन्नादावित्यर्थात् , सनिसप्तमीयम्, तृतीयान्तानामिव सप्तम्यन्तानामपि सर्वेपा परस्पर निरपेक्षतया 'ज उग्गमेण' इत्यादिनाऽग्रेतनेनैवान्वयः, 'सहसागारिए' सहसा करण सहसाकारस्तत्र भव. सहसाकारिका आकस्मिक आहारस्तस्मिन् , 'अणेसणाए' न एपणा ग्राह्यमिदमग्राद्य वेत्यायन्वेपणाभावो यस्या भिक्षाचर्याया सा अनेपणा तया, 'अण्णेसणाए' इतिपाठे अन्नस्य भक्तादे. एपणा-परीक्षण यस्या सा अन्नैपणा तयेनि वो यम् , हेतौ ठतीया, 'पाणेसणाए' पीयत इति पान जलादि तस्यैपणा= अन्वेषण यस्या सा पानपणा तया, पानपणाया वैपम्येणेति भावः, पाणभोयणाए' प्राणाः सन्त्येपामिति पाणा: द्वीन्द्रियायास्तन्मिश्रिता भोजना' प्राणभोजना तया, भवति हि कदाचिद्द-यादिप्रदानवेलाया दातुर्ग्रहीतुर्वाऽपराधेन द्वीन्द्रियादीना जीवाना सम्मिश्रणेन सबट्टनेन वा व्यापादनम् , अयमेव चात्रातिचारो वोदव्यः। 'पीयभोयणाए' वीजाना भोजना, यद्वा वीजानि भोजने यस्या क्रियाया सा-बीजभोजना तया, 'हरियभोयणाए' हरितभोजनया, 'पच्छाकम्मियाए' पश्चात भिक्षापदानोत्तर कम-भाजन पावनादि यस्यासा=पश्चात्कमिका तया, 'पुरेकम्मियाए' लिये स्थापित (रक्खे हुए), एव आधाकर्म आदिकी शकासे युक्त, तथा विना सोचे विचारे आहारादि के लेनेसे, अनेपणीय किसी वस्तुके लेनेसे, पानी आदि पीने योग्य वस्तुकी एपणामे किसी प्रकारकी त्रुटि होनेसे, द्वीन्द्रियादिप्राणिमिश्रित, वीजयुक्त, तथा हरितकाययुक्त आहारादि के लेने से, पश्चात्कर्मिक (जिसमें आहारादि ग्रहण करने के बाद हाथ बरतन आदि धोया जाय) આદિને અથે રાખવામાં આવેલ, અથવા આધાકર્મ આદિનો શિકાથી યુક્ત, તથા જાણ્યા વિચાર્યા વિના આહાર વિગેરે લેવાથી, અનેષણય કઈ પણ વસ્તુને લેવાથી, પાણી વિગેરે પીવા ગ્ય વસ્તુની એષણામાં કઈ પણ પ્રકારની ખામી હેવાથી, શ્રીન્દ્રિયાદિ-પ્રાણિ-મિશ્રિત, બીજયુક્ત, તવા હરિતકાયયુકત આહાર આદિ લેવાથી, પશ્ચાત્યકિ (જેમા આહાર આદિ ગ્રહણ કરી લીધા પછી હાથ-વાસણ વિગેરે १ 'माणा '-अत्र-अर्श आदित्वादच । २-माणभोजना-शाकपाथियादित्वादुत्तरपदलोपः । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुपुर , उत्साबायोगद्वन्द्रे सवादीनामपि १७० आवश्यकत्रम्य मित्यर्थः; अस्याग्ने सम्बन्धः। अत्र यथाऽतिचारस्त समभेदमाह-'उग्पाडकवाड उग्घाडणाए' उद्घाटयत इति, यद्वा उद्गवो घाटा घटन-परस्परसयोजन यस्य तदुद्घाट रिश्चित्स्थगितमदनविष्फम्भक वा तच तकपाट च उद्घाटकपाट तस्यों द्धाटना-मार्जनमन्तरेण स्वामिनिदेशमन्तरेण वा मोचनमुद्धाटकपाटोदाटना तया। 'साणावच्दारासघट्टणाए' चाकुपार , रत्सम्यागपत्यरूपो वत्सतरः, दारकार चालकः, श्वा च वत्सश्च दारकवेत्येतेपामितरेतरयोगद्वन्द्वे श्ववत्सदारकास्तेषा सघटनागात्रैः सहतीकरण श्वात्सदारससघटना तया, उपलक्षणमिद गवादीनामाप। 'मडीपाहुडियाए' मण्डी अग्रकर (अग्रभक्त' ) तस्याः माभूतिका मामृत मुपढौकनरमिति यावत्, यद्वा प्र-प्रकण आ मर्यादया भृता सा वर्थ सरक्षिता माभृता, सैव मामृतिका तया । 'लिपाइडियाए' बलि: देवभूतायुद्देशेन देयमन्नादितस्य भाभृतिका तया। 'ठवणापाहुडिआए' स्थाप्यत इति स्थापना कृपणवनीपकादिभ्य स्थापितमन्नादि तस्याः प्राभूतिकेति भाग्वत्तया, ‘सकिए' अनिष्ट वस्तुओमें रागादिरहित हो कर लाभालाभमें समानभाव से आहारादि ग्रहण करना) उसमें विना साकलके ढके हुए या अध ढके हुए किवाडों को विना पूँजे अथवा विना स्वामी की आज्ञाक खोलने से, कुत्ते, बछडे, बालक आदिको ढकेलकर या लायकर जाने से, कुत्ते आदिके लिये निकाले हुए अग्रपिण्डके लेने से देवता भृत आदिकी बलि के लिये तथा याचक-कृपण आदिक (સાધારણ) કુળ મા તથા ઈષ્ટ અનિષ્ટ વસ્તુઓમાં રાગાદિ અહિત થઈને લાભાલાભમાં સમાન ભાવથી આહાર આદિ ગ્રહણ કરવું) તેમાં સાકળ વિના બધ કરેલ અગર અર્ધા વસેલા કમાડને પૂજા વિના અથવા ધણીની આજ્ઞા વિના ખેલવાથી, કુત, વાછરડા, બાલક અદિને ધકેલીને અથવા ઓળગીને જવાથી, કુતરા વિગેરે માટે કાઢે અગ્રપિંડ લેવાથી, દેવતા, ભૂત વિગેરેના બલિના માટે તથા યાચક-કૃપણ. १-इन्तकारादिस्वरूप 'हन्दा' इत्यादिना पश्चापादिनदेशेषु प्रसिद्ध, यद्वा कुक्कुरादिकृते रक्षितम् , 'मण्डूकडी' इति राजस्थानादौ प्रतीतम् । २-इद हि कस्मैचिदिप्टाय पूजनीयाय चा स्नेहात्सवहुमान देयमिष्ट वस्तु, तत्सादृश्यात्साधुभ्यो देय भिक्षावपि । ३-बाहुलकावर्मणि ‘ण्यासश्रन्यो युच्' (३।३।१०७) इति युन् । Page #299 --------------------------------------------------------------------------  Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ आवश्यकसूत्रस्य 141 पुर:=भिक्षामदानात्पूर्व कर्म-हस्तधापनादि यस्या सा-पुरस्कमिका तया, 'अदिट्ठ हडाए' अष्टम् अनालोक्तिम् आवत-गृहीत यस्या (मिक्षायां) सा, यद्वा अहटात् स्थानादाहता आनीता अदृष्टाहता तया, गृहीतादृष्टवस्तुकप त्यर्थः अत्र हि जीवसम्मिश्रणमर्दनादिनातिचारसम्भवः, 'दगससट्टहडाए' दकमुद्रक, तेन समष्ट-सम्मिश्रित दकसमष्ट तत आइत-गृहीत यस्या सान्दकस सृष्टाहता तया सचित्तजलमिश्रिवान्नादिग्रहणिकया इस्तसलग्नजलसयुतया वेत्यर्थः, 'रयससट्टहडाए' रजा-सचित्तधुलिकादि, तेन ससृष्ट-युक्त रज.ससृष्ट, तत आहत यस्या सारज ससृष्टाहता तया, 'पारिसाडणियाए' परिशाटन-देय वस्तुनो घृतादेविन्द्वादीना भूमौ पातन, तेन निना पारिशाटनिकी तया, 'पारिहावणियाए' परिसरतोभावेन स्थापन परिष्ठापन-गृहस्थेन अकल्पनीय वस्तु प्रदानपात्रानिःसार्य तत्रैव पात्रे देयवस्तुस्थापन, तेन निर्वृत्ता भिक्षापारिष्ठाप निकी तया', 'ओहासणभिक्खाए' 'ओहासण' इति प्रवचनपरिमापया तथा पुरस्कर्मिक (जिसमें आहारादि देनेके पहिले हाथ बरतन आदि धोया जाय) आहारके लेने से, अदृष्ट स्थान से लाई हुई वस्तु के लेने से, सचित्त पानी के द्वारा गीले हाथ से आहारादिके ग्रहण करने से, सचित्त रजयुक्त आहारादि के लेने से, दाता द्वारा इधर उधर गिराते हुए आहारादि के लेने से, किसी पात्रमें अकल्पनीय वस्तु रक्खी हुई हो उसे निकाल कर उसी पात्र से दिये हुए आहारादि के लेने से, अथवा बिना कारण आहारादि के परिठवने से और ધોવાય) તથા પુર મિક (જેમાં આહારાદિ દેતા પહેલા હાથ, વાસણ આદિ દેવાય) આહાર આદિ લેવાથી, અદષ્ટ જગ્યાએથી લાવવામાં આવેલી વસ્તુને લેવાથી, સચિત્ત પાણીથી ભીંજાયેલા હાથે આહાર આદિ ગ્રહણ કરવાથી, સચિત્ત રજયુક્ત આહાર આદિ લેવાથી, દાતાર દ્વારા આમતેમ ઢોળાતા આહાર આદિ લેવાથી, કેઈ પાત્રમાં અકલ્પનીય વસ્તુ પડેલી હોય તેને ખાલી કરી તેજ પાત્રથી દેવામાં આવેલ આહાર આદિ લેવાથી અથવા વિના કારણે આહાર આદિ પરિડવાથી १-उपसर्गात्मुनोतीति पत्व, यदि त्वत्र परिर्भागार्थकोऽनर्थको या तदा 'परी'-त्यस्य कर्मप्रवचनीयसञ्जयोपसर्गसज्ञाया अभावासत' परस्यसस्य पत्वाभाव एवाऽतएव कचित् 'पारिस्थापनिकी' ति पकाररहितोऽपि प्रयोगो दृश्यते। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ विशिष्टद्रव्ययाचन गृह्यते, तत्पधाना भिक्षा ओहासनभिक्षा तया, हेतु विनैव विशिष्टस्य वस्तुनो नामोपादाय 'अमुक मे देहि नामुक-मित्येवरूपया याचनयेत्यर्थः। भेदस्य वहुत्वात्सक्षिपति - 'ज' यत्, 'उग्गमेण' उद्गमेन आधाफर्मादिदोपस्वरूपेण, 'उप्पायणेसणाए' उत्पादना धान्यादिदोप., एपणा-शङ्कितादिस्वरूपा ताभ्याम् 'अपरिसुद्ध' अपरिशुद्ध पित, 'पडिग्गहिय' प्रतिगृहीतस्वीकृतम्, 'परिभुत्त' परिभुक्तम् आसेवितम् , स पामेव उतीयान्ताना सप्तम्यन्ताना च अपरिशुद्धादिभिः क्तान्तैरेव सम्बन्ध इति विभावनीयम्, 'ज' यत्, 'न परिदृविय' न परिष्ठापित=न परित्यना, 'तस्स' तस्य सर्वस्योक्तरूपस्यातिचारस्य 'मिच्छा मि दुक्कड' इति व्याख्यातपूर्वम् ॥ मू० ४॥ ___ एव गोचरातिचारॉश्चिन्तयित्वा सम्मति स्वाध्यायातिचाराचिन्तयति'पडिकमामि चाउकाल०' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ पडिकमामि चाउकाल सज्झायस्स अकरणयाए उभओकाल भडोवगरणस्स अप्पडिलेहणाए दुप्पडिलेहणाए अपमजणाए दुप्पमजणाए अइकमे वइक्कमे अईयारे अणायारे जो मे देवसिओ अईयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कड ॥ सू० ५॥ ॥ छाया ॥ प्रतिक्रामामि चतुप्काल स्वाध्यायस्याकरणतया, उभयकाल भाण्डोपकरणस्याऽपतिलेखनया दुप्पतिलेखनया अपमार्जनया दुष्पमार्जनग, अतिक्रमे बिना कारण मागकर विशिष्ट वस्तु के लेने से जो कोई अतिचार लगा हो, तथा आधाकर्म आदि उद्गमदोप, धात्री आदि उत्पादनादोप, एव शङ्कित आदि एपणादोष से दक्षित आहार आदि लिया गया हो, उपभोगमें लाया गया हो और जो परिष्ठापित न किया गया हो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड' ॥ सू० ४ ॥ અને વિના કારણે વિશિષ્ટ વસ્તુની યાચના કરી લેવાથી જે કાઈ અતિચાર લાગ્યા હોય, તથા આધાકર્મ આદિ ઉદગમય, ધાત્રી આદિ ઉત્પાદન દેષ, અને શક્તિ આદિ એષણ દેવથી દૂષિત આહાર આદિ લેવાઈ ગયા હોય, ઉપલેગમા લીધા खाय अथवा रे परिचित न र्या डाय "तस्स मिच्छा मि दुकड" (सू० ४) Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ आवश्यकत्रस्य पुरः-मिक्षामदानात्पूर्व कर्महस्तधापनादि यस्या सा=पुरस्कमिका तया, 'अदिट्ट हडाए' अष्टम् अनालोक्तिम् आवत-गृहीत यस्या (भिक्षायां) सा, यद्वा अष्टात् स्थानादाहना=मानीता अष्टाहता तया, गृहीतादृष्टवस्तुकये त्यर्थः अत्र हि जीवसम्मिश्रणमर्दनादिनातिचारसम्भवः, 'दगससटडाए' दकमुक, तेन समय-सम्मिश्रित दकसमष्ट तत आइत-गृहीत यस्या सान्दकस मुष्टाहता तया सचित्तजलमिश्रितान्नादिग्रडणिकया हस्तसलग्नजलसयुतया वेत्यर्थ', 'रयससहहडाए' रज =सचित्तधलिकादि, तेन ससृष्ट-युक्त रजःससृष्ट, तत आहत यस्या सारज ससृष्टाहता तया, 'पारिसाडणियाए' परिशाटनदेय वस्तुनो घृतादेविन्द्वादीना भूमौ पातन, तेन निवृत्ता पारिशाटनिकी तया, 'पारिहावणियाए' परि सर्वतोभावेन स्थापन परिष्ठापन-गृहस्थेन अकल्पनीय वस्तु मदानपात्रानि सार्य तत्रैव पात्रे देयवस्तुस्थापन, तेन निवत्ता भिक्षापारिठाप निकी तया', 'ओहासणमिक्खाए' 'ओहासण' इति प्रवचनपरिमापया तथा पुरस्कर्मिक (जिसमें आहारादि देनेके पहिले हाथ बरतन आदि धोया जाय) आहारके लेने से, अदृष्ट स्थान से लाई हुई वस्तु के लेने से, सचित्त पानी के द्वारा गीले हाथ से आहारादिके ग्रहण करने से, सचित्त रजयुक्त आहारादि के लेने से, दाता द्वारा इधर उधर गिराते हुए आहारादि के लेने से, किसी पात्रमें अकल्पनीय वस्तु रक्खी हुई हो उसे निकाल कर उसी पात्र से दिये हुए आहारादि के लेने से, अथवा बिना कारण आहारादि के परिठवने से और દેવાય) તથા પુર નર્મક (જેમા આહારાદિ દેતા પહેલા હાથ, વાસણ આદિ ધાવાય) આહાર આદિ લેવાથી, અદષ્ટ જગ્યાએથી લાવવામાં આવેલી વસ્તુને લેવાથી, સચિત્ત પાણીથી ભીંજાયેલા હાથે આહાર આદિ ગ્રહણ કરવાથી, સચિત્ત મજયુક્ત આહાર આદિ લેવાથી, દાતાર દ્વારા આમતેમ ઢોળાતા આહાર આદિ લેવાથી, કેઈ પાત્રમાં અકલ્પનીય વસ્તુ પડેલી હોય તેને ખાલી કરી તેજ પાત્રથી દેવામાં આવેલ આહાર આદિ લેવાથી અથવા વિના કારણે આહાર આદિ પરિઠવાથી १-उपसर्गात्मुनोतीति षत्व, यदि त्वत्र परिर्भागार्थकोऽनर्थको था तदा 'परी'-त्यस्य कर्मप्रवचनीयसञ्जयोपसर्गसझाया अभावात्तत' परस्यसस्य पत्लाभाव एवाऽत्तएव कचित् 'पारिस्थापनिकी' ति पकाररहितोऽपि प्रयोगो दृश्यते । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम् - ४ १७५ भण्ड 'तदेव भाण्ड = पात्रादि, उपक्रियते = दृढीक्रियते सयमादि येन तदुपकरण= सदोरकमुखवस्त्रिकावस्त्ररजोहरणादि, भाण्ड चोपकरण चेत्यनयोः समाहारः, भाण्डोपकरण तस्य, ‘अप्पडिलेहणाए ' अमत्युपेक्षणया = सर्वथैवा निरीक्षणेन,'दुप्पडिलेडणाए' दुष्प्रतिलेखनया=असम्यग् निरीक्षणेन, 'अप्पमज्जणाए ' अपमार्जनया अम्मार्जना=रजोहरणादिना सर्वतोभावेनाऽशोधन तया, 'दप्पमज्जगाए' दुष्प्रमार्जनया दुप्पमार्जना = तेनैव रजोहरणादिनाऽसम्यक् परिशोधन तया, ' ' अडकुमे' अतिक्रमे अतिक्रमः = अकृत्य सेवनस्य सङ्कल्पस्तस्मिन् 'सयमसम्बन्धिनि' इति शेष', एवमग्रेऽपि सप्तम्यन्तेषु, सति सप्तमीयम् । एवमग्रेऽपि । 'इक्मे' व्यतिक्रमे व्यतिक्रम = अकृत्यसेवनाय सामग्रीसयोजन तस्मिन्, 'अईयारे' अतिचारे - अतिचारः = अकृत्य से बनाय प्रवर्त्तन तस्मिन्, 'अणायारे' अनाचारे- अनाचारः = अकृत्य सेवन तस्मिन्, 'जो' व्य‘'मे' मया ‘देवसिओ' दैवसिकः = दिवस व्याप्य भवः, ' अईयारो' अतिचारः, 'कओ' कृत', 'तस्स मिच्छामि दुक्ड' इति व्याख्यातपूर्वम् ॥ ०५ ॥ का सर्वथा सम्यक् प्रकार से प्रतिलेखन न करना, तथा पात्र उपाश्रय आदिका सर्वथा या यतनापूर्वक न पूँजना आदि कारणों से सयमसम्बन्धी अतिक्रम ( अकृत्य सेवनका भाव ), व्यतिक्रम (अकृत्य सेवन की सामग्री मिलाना), अतिचार (अकृत्य सेवनमें गमनादिरूप प्रवृत्ति करना) तथा अनाचार (अकृत्य का सेवन करना) हो जाने पर जो मुझसे अतिचार किया गया हो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड' || सू० ५ ॥ અથવા સમ્યક્ પ્રકારે પ્રતિલેખન ન કર્યું હોય, તથા પાત્ર, ઉપાશ્રય આદિને સČથા અથવા યંતનાપૂર્વક પૂજવાનું કાર્ય ન કર્યુ હેય આદિ કારણેાથી સયમ સબધી અતિક્રમ (અકૃત્ય સેવનને ભાવ), વ્યતિક્રમ ( અકૃત્ય સેવનની સામગ્રી મેળવવી ), અતિચાર (અકૃત્ય સેવનમા ગમનાદિરૂપ પ્રવૃત્તિ કરવી) તથા અનાચાર (અકૃત્યનું સેવન કરવું) થઇ જવાને કારણે મારાથી જે અતિચાર થયા હોય " तस्स मिच्छामि दुक्कड " ( सू० ५ ) १- शब्दार्थकाद् 'भण्' धातोरौणादिको ड प्रत्यय । प्रज्ञादिपाठादण् । २- एषु सर्वत्र देवी उतीया, हेतुत्व चातिक्रमाद्यपेक्षया । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - - - - - - - १७४ बावश्यकमूत्रस्य व्यतिक्रमेऽतिचारेऽनाचारे यो मया दैसिकोऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्या मयि दुष्कृतम् ॥ ०५॥ ॥दीका ॥ 'पडिकमामि' पतिकामामि - विनिवर्ते, यहा स्वात्मान विनिवर्तयामि अतिचारादिति शेपः । अतिचारस्वरूपमाह----'चाउकाल' चत्वारः दिवसरात्रि-प्रथमान्तिमप्रहरस्वरूपाः काला: समया यस्य तद्यथा स्यात्तथेति क्रियाविशेपणमिदम्, यद्वा चतुणां कालाना समाहारवतु'काल' 'सज्झायस्य' मु-मुष्ठ आ-मर्यादया अध्याय' अ ययन स्वाध्यायः निर्दिष्टकालानतिक्रमेण यथाविधि प्रवचनपठन, तस्य, 'अफरणयार' अवि धमान करणम् अनुष्ठान यस्मिन् सोऽकरण:-अस्वाध्यायः, तस्य भावोऽकरणता तया अकरणेनेत्यर्थ । अत्र 'स्वाध्यायकरणादिभिर्हेतुभिरतिक्रमे व्यतिक्रमेऽति चारेऽनाचारे (जाते) सति यो मयाऽतिचार कृतस्तस्य मिथ्या मयि दुष्कृत'मित्यादिरीत्या सम्बन्ध इति भूक्ष्मेक्षिकयाऽवधारणीयम् । 'उभओमाल' दिवसस्य उभयत. प्रथमान्तिमपहररूपी कालौ यस्मि स्तदुभयतःकालम् , तयथा स्यात्तथा 'भडोवगरणस्स' भणति-शब्दायते इति मै आगे कहे हुए इन अतिचारों से निवृत्त होता हूँ, दिन तथा रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहररूप चार कालों में मर्यादा पूर्वक प्रवचनके मूलपठनरूप स्वाध्यायको न करना, दोनो कालों (दिनके प्रथम और अन्तिम प्रहर) में पात्र रजोहरण आदि भड उपकरण આગળ કહેવામાં આવેલા અતિચારથી હુ નિવૃત્ત થાઉ છુ દિવસ તથા રાત્રીના પ્રથમ અને કેટલા પ્રહરરૂપ ચાર કાળમાં મર્યાદા પૂર્વક પ્રવચનના મૂળપઠન રૂપ સ્વાધ્યાય ન કરવુ, બને સમય (દિવસના પહેલા અને પાછલા પ્રહર) મા પાત્ર જેહરણ આદિ ભડ ઉપકરણનું સર્વથા १-समाहारद्विगुत्वानपुसकता, ततोऽत्यन्तसयोगे 'व्याप्य' इति क्रिया ध्याहारेण वा द्वितीया, न चैव सति 'अकारान्तोत्तरपदो द्विगु स्त्रियामिष्ट. इति वातिकवलेन स्त्रीत्वे 'त्रिलोकी' इत्यादिवत् द्विगो.' (४।१।२१) इति डीप स्यादिति वाच्यम्, पात्रायन्तर्गणेऽस्य पाठकल्पनात् । कालस्य वस्तुत एकत्वेऽप्यौपचारिकत्वादिह चातुर्विध्य चोध्यम् । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ १७५ भण्ड 'तदेव भाण्ड=पात्रादि, उपक्रियते ढीक्रियते सयमादि येन तदुपकरण= सदोरकमुखवत्रिकावस्वरजोहरणादि, भाण्ड चोपकरण चेत्यनयोः समाहार',भाण्डोपकरण तस्य, 'थप्पडिलेहणाए' अप्रत्युपेक्षणया सर्वथैवानिरीक्षणेन,'दुप्पडिलेडणाए' दुप्पतिलेखनया असम्यग् निरीक्षणेन, 'अप्पमज्जणाए ' अपमार्जनया अप्रमाजना=रजोहरणादिना सर्वतोभावेनाऽशोधन तया, 'दप्पमनणाए' दुष्णमार्जनया दुष्पमार्जना तेनैव रजोहरणादिनाऽसम्यक् परिशोधन तया, 'अइक्कमे अतिक्रमे अतिक्रमः- अकृत्य सेवनस्य सङ्कल्पस्तस्मिन् 'सयमसम्बन्धिनि' इति शेप',एवमग्रेऽपि सप्तम्यन्तेषु, सति सप्तमीयम् । एवमग्रेऽपि। 'वइक्मे' व्यतिक्रमे व्यतित्रमा अकृत्यसेवनाय सामग्रीसयोजन तस्मिन् , 'अईयारे' अतिचारे-अतिचारः अकृत्यसेवनाय प्रवर्तन तस्मिन् , 'अणायारे' अनाचारे-अनाचार' अकृत्यसेवन तस्मिन्, 'जो' या 'मे' मया 'देवसिओ' देवसिका-दिवस व्याप्य भवः, 'अईयारो' अतिचारः, 'फओ' कृत', 'तस्स मिच्छा मि दुक्ड' इति व्याख्यातपूर्वम् ।। मृ० ५ ॥ का मर्वथा सम्यक प्रकार से प्रतिलेखन न करना, तथा पात्र उपाश्रय आदिका सर्वथा या यतनापूर्वक न पूँजना आदि कारणों से सयमसम्बन्धी अतिक्रम (अकृत्यसेवनका भाव), व्यतिक्रम (अकृत्य सेवन की सामग्री मिलाना), अतिचार (अकृत्य सेवनमें गमनादिरूप प्रवृत्ति करना) तथा अनाचार (अकृत्य का सेवन करना) हो जाने पर जो मुझसे अतिचार किया गया हो 'तस्स मिच्छा मि दुकड' ।। सू०५॥ અથવા સમ્યફ પ્રકારે પ્રતિલેખન ન કર્યું હોય, તથા પાત્ર, ઉપાશ્રય આદિને સર્વથા અથવા યતનાપૂર્વક પૂજવાનું કાર્ય ન કર્યું હેય આદિ કારણથી સંયમ સબ ધી અતિક્રમ (અકૃત્ય સેવનને ભાવ), વ્યતિક્રમ (અકૃત્ય સેવનની સામગ્રી મેળવવી), અતિચાર (અકૃત્ય સેવનમાં ગમનાદિરૂપ પ્રવૃત્તિ કરવી) તથા અનાચાર (અકૃત્યનું સેવન કરવું) થઈ જવાને કારણે મારાથી જે અતિચાર થયા હોય "तस्स मिच्छा मि दुक्कड" (२० ५) १- शब्दार्थकाद् ‘भण्' धातोरोणादिको डः प्रत्यय. । प्रज्ञादिपाठादण् । २- एपु सर्वत्र हेतौ वतीया, हेतुत्व चातिक्रमाधपेक्षया । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ आवश्यकमूत्रस्य D - - - व्यतिक्रमेऽतिचारेऽनाचारे यो मया देसिकोऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्या मयि दुष्कतम् ॥ ०५॥ ॥ टीका ।। 'पडिकमामि' पतिकामामि = मिनिपर्ने, यहा स्वात्मान विनिवर्तयामि अतिचारादिति शेपः । अतिचारस्वरूपमाह----चाउकाल' चत्वार.-दिवसरात्रि-प्रथमान्तिमप्रहरस्वरूपाः काला=समया यस्य तद्यथा स्या त्तयेति क्रियाविशेषणमिदम्, यद्वा चतुर्णा कालाना समाहारश्वत:काल' 'सज्झायस्य' सु-मुष्ठ आ-मर्यादया अभ्याय =अध्ययन स्वाध्यायः निर्दिष्टकालानतिक्रमेण यथाविधि प्रवचनपठन, तस्य, 'अकरणयाए' अवि धमान करणम् अनुष्ठान यस्मिन् सोऽकरण:-अस्वाध्याय , तस्य भावोऽकरणता तया अकरणेनेत्यर्थ । अत्र 'स्वाध्यायकरणादिभिहेतुभिरतिक्रमे व्यतिक्रमेऽति चारेऽनाचारे (जाते) सति यो मयाऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्या मयि दुष्कृत'-- मित्यादिरीत्या सम्बन्ध इति सूक्ष्मेक्षिकयाऽवधारणीयम् ।। 'उभओकाल' दिवसस्य उभयता प्रथमान्तिमप्रहररूपी कालौ यस्मि स्तदुभयतःकालम् , तद्यथा स्यात्तथा 'भडोवगरणस्स' भणति-शब्दायते इति मै आगे कहे हुए इन अतिचारों से निवृत्त होता है, दिन तथा रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहररूप चार कालों में मर्यादा पूर्वक प्रवचनके मूलपठनरूप स्वाध्यायको न करना, दोनो कालों (दिनके प्रथम और अन्तिम प्रहर) में पात्र रजोहरण आदि भड उपकरण આગળ કહેવામાં આવેલા અતિચારોથી હુ નિવૃત્ત થાઉ છુ દિવસ તથા રાત્રીના પ્રથમ અને છેલ્લા પ્રહરરૂપ ચાર કાળમાં મર્યાદા પૂર્વક પ્રવચનના મૂળપઠન રૂપ સ્વાધ્યાય ન કરવુ, બને સમય (દિવસના પહેલા અને પાછલા પ્રકર) મા પાત્ર રહણ આદિ ભડ ઉપકરણનું સર્વથા १-समाहारद्विगुत्वान्नपुसकता, ततोऽत्यन्तसयोगे 'व्याप्य' इति क्रिया ध्याहारेण वा द्वितीया, न चैव सति 'अकारान्तोत्तरपदो द्विगु. स्त्रियामिष्ट इति पातिकवलेन स्त्रीत्वे 'त्रिलोको' इत्यादिवत् द्विगो" (४।१।२१) इति डीप स्यादिति वाच्यम्, पात्रावन्तर्गणेऽस्य पाठकल्पनात् । कालस्य वस्तुत एकत्वेऽप्यौपचारिकत्वादिह चातुर्विष्य बोध्यम् । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम् -४ १७७ विरतिस्तस्मिन्, अर्थादेकविधेऽसयमे जाते सति निषिद्धाऽऽचरणादिना यो मयाऽतिचारः कृतस्तस्य दुष्कृत मयि मिथ्याऽस्त्विति सारार्थः । एवमन्यत्रापि बोध्यम् । उक्तोऽसमरूप एकविधोऽतिचारः, सम्मति नानाविध त दर्शयन्नाह - 'पडिकमामि दोहिं वधणेहिं' इति 'दोहिं' द्वाभ्या, बध्यते=बन्धविपयी क्रियते जीवो याभ्या= राग-द्वेषाभ्या ते बन्धने ताभ्या, हेतौ तृतीया, अत्र 'योऽतिचारः कृतस्त, तस्मात् इति वा 'प्रतिक्रामामि' - ति सम्बन्धः कार्यः, के ते बन्धने ? इत्यपेक्षायामाह - ' रागवधणेण ' रज्यते येनेति रागः, स च तद्भन्धन च तेन, 'दोधणे' प्राकृते द्वेप-दोष - शब्दयोः समानरूपत्वात् द्वेपबन्धनेन दोपबन्धनेन वा इति च्छाया, द्वेष्टि, = जीवानामप्रीतिमुत्पादयतीति, द्विष्यते = अप्रीतिरुत्पाद्यते येन यस्माद्वा स द्वेषः, स च तद्बन्धन च द्वपवन्धन, तेन' यद्वा दुष्यन्ति = विकृता भवन्ति क्षान्त्यायात्मगुणा येन यस्माद्वेति दोपः = मिथ्यात्वाविरति प्रमादकपायाशुभयोगलक्षणः स च तद्बन्धन च दोषबन्धन तेन, 'पडिक्मामि' प्रतिक्रामामि, 'तिर्हि ' त्रिभिः, 'दडेहिं' दण्डे, दण्डयते रत्नत्रयैश्वर्या पहरणादसारीक्रियते आत्मा यैरिति, दण्डयन्ते= व्यापायन्ते माणिनो यैरिति वा दण्डास्तैः, दण्डो द्रव्यादिभेदादनेकविधोऽप्यत्र भावदण्ड एवाधिकृतो वोध्यः, दण्डवैविध्यमाह-'मणदढेण' मन्यते = ज्ञायते पदार्थसार्थोऽनेनेति मनस्तेन दण्डो (असद्वद्यापारात्मक ) मनोदण्डस्तेन, 'वयदडेण उच्यते इति वचस्तेन दण्डो वचोदण्डस्तेन, 'कायदडेण' चीयतेऽस्मिन्नस्थ्यादिकमिति काय. 3 कायेन दण्डः = कायदण्डहो तो, एव राग (अनुराग) द्वेष (अप्रीति) रूप दो बन्धनों के कारण, सम्यग्ज्ञानादिरूप रत्नत्रयका नाश करके आत्माको असार करनेवाले, अथवा प्राणियो की हिंसामें निमित्तभूत मानसिक, वाचिक, कायिक, इन तीन दण्डों के कारण, विहित का अनुष्ठान २ પ્રમાણે રાગદ્વેષ રૂપ કે અન્યનેાના કારણે સમ્યક્—જ્ઞાનાદિ રૂપ રત્નત્રયના નાશ કરીને આત્માને અસાર કરવાવાળા, અથવા પ્રાણીઓની હિંસામા નિમિત્તભૂત માનસિક, વાચિક અને કાયિક એ ત્રણ દડાના કારણે વિહિતનું અનુ १ - 'द्विप अप्रीतौ' अस्माद्वाहुलकात्करणेऽपादाने वा छन् । २ - 'दुप बैकृत्ये' अस्मात्पूर्ववदन् । ३ - 'निवासचितीत्यधिकरणे घञ् चस्य कुत्व च' । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ আসুগম सम्पत्यतिचारैकानेकमेदगर्भ प्रतिक्रमणमाह-'पडिमामि एगविहे' इत्यादि । पडिकमामि एगविहे असजमे । पडिकमामि दोहिं बधणेहि-रागवधणेण दोसवणेण । पडिकमामि तिहिं दडेहिमणदडेण वयदडेण कायदडेण । पडिकमामि तिहिं गुत्तीहि मणगुत्तीए वयगुत्तीए कायगुत्तीए । पडिकमामि तिहि सल्लेहि- मायासल्लेणं नियाणसल्लेण मिच्छादसणसल्लेण। पडिकमामि तिहि गारवेहि-इड्ढीगारवेण रसगारवेण सायागारवेण । पडिक्कमामि तिहि विराहणाहि-नाणविराहणाए दसणविराहणाए चरित्तविराहणाए ॥ सू० ६ ॥ ॥ छाया ।।। पतिक्रामामि एकविधेऽसयमे पतिक्रामामि द्वाभ्या बन्धनाभ्या-गगबन्धनेन द्वेपवन्धनेन । प्रतिक्रामामि त्रिभिर्दण्डै:-मनोदण्डेन बचोदण्डेन कायदण्डेन । प्रतिक्रामामि तिसृभिर्गुप्तिभि -मनोगुप्त्या बचोगुप्त्या कायगुप्या। प्रतिक्रामामि त्रिभि. शल्यै -मायाशल्येन निदानशल्येन मिथ्यादर्शनशल्येन। प्रतिक्रामामि त्रिभि ौरः-ऋद्धिगौरवेण रसगौरवेण - शातगौरवेण । प्रतिक्रामामि तिसृभिविरा धनाभि -ज्ञानविराधनया दर्शनविराधनया चारित्रविराधनया ॥ मृ० ६ ॥ ॥ टीका ॥ -- 'पडिकमामि' गताऽस्थ व्याख्या, एगविहे' एका विधा-पकारी (भेदो) यस्य स एफविधस्तस्मिन् , 'असजमेन सयम =अमयम =पापाचारा यह अतिचार सक्षेप से एक प्रकारका, विस्तार से दो तीन आदि आत्माभ्यवसायसे सख्यात असख्यात यावत् अनन्त प्रकार का है, उनमें से एक आदि भेद करते हैं-'पडिकमामि एगविहे.'' इत्यादि । एक प्रकारका असयम होने पर जो मुझसे अतिधार हुआ આ અતિચાર સક્ષેપથી એક પ્રકારના છે, અને વિસ્તારથી બે-ત્રણ આદિ આત્માધ્યવસાયથી સખ્યાત અસખ્યાત ચાવત્ અનન્ત પ્રકારના છે, તેમાથી એક વગેરેને २०४-"पडिकमामि एगरिहे" त्या એક પ્રકારને અસયમ થવાથી મને જે અતિચાર લાગ્યું હોય એ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपगी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ १७९ मुखलालसारूपनिशितधारकुठारेण तन्निदानातच तच्छल्य निदानशल्य तेन,'मिच्छादसणसल्लेण' मिथ्या विपरीत मोहर्मोदयजनित दर्शनम् अभिप्रायो मिथ्यादर्शन तदेव शल्य तेन, 'पडिक्कमामि' प्रतिक्रामामि, 'तिहिं' त्रिभिः, 'गारवेहि' गुरोः कर्म भावो वा गरिव, तद्विविधै द्रव्यगत भावगत च, द्रव्यगत वनादे', भावगतमहड्तारलोभादिजन्यमात्मनोऽशुभभावरूपच गतिससारचक्रभ्रमणनिदान - कर्मकारणम् , अब त्वेतदेव विवक्षित प्रकरणात्, तैः, तद्वारेति भावः 'यो मयाऽतिचारः कृतः' इत्यादिसम्बन्ध. माग्वत् । तदेव गौरवनयमाह-'इड्ढी०' इति, 'इडढीगारवेण' ऋद्धिः राजैश्चर्यादिलक्षणा, आचार्यादिपदसम्माप्तिलक्षणा वा तया तस्या वा गौरवमृदिगौरवम् आत्मोत्कर्पस्तेन, 'रसगारवेण' रस =रसनेन्द्रियार्थों मधुरादिः, तस्य गौरव-तदवा त्यभिमानस्तेन, 'सायागारवेण' शातशरीरादिमुख तेन तस्य वा गौरव शातगौरव, तेन-'अहो अहमस्मि शरीरादिमुखसम्पन्न. 'इत्यभिमानेनेति यावत् 'साया' इत्यत्र माकृतखादीः, 'पडिकमामि' समान, आत्मरूप भूमिमें उत्पन्न समकित रूप अङ्कुर से युक्त निर्मल - भावनारूप जलसे सींचे हुए, तप सयम आदि फूलों से हरे भरे और मोक्षरूप फलसे विभूपित कुशलकर्मरूप कल्पवृक्ष को काटनेवाला निदान (नियाणा) और मोहकर्म के उदय से होनेवाला अभिप्रायरूप मिथ्यादर्शन, इन तीन शल्यों से और राजा आदि या आचार्य आदि की पदप्राप्तिरूप ऋद्धिगौरव, मधुर आदि रसकी प्राप्ति का अभिमानरूप रसगौरव, तथा शरीर आदि की सुख प्राप्ति से होनेवाला अभिमानरूप शासगौरव के कारण, एव ज्ञानकी (जिसके ધારથી યુક્ત કુઠાર સમાન, આમરૂપ ભૂમિમાં ઉત્પન્ન સમકિતરૂપ અકુરથી યુકત નિર્મલ ભાવનારૂપ જલથી સી ચેલ, તપસ યમ આદિ કુલેથી ભરેલા મેક્ષરૂપ કલથી વિભૂષિત કુશલ કર્મ રૂપ કાપવૃક્ષને કાપવાવાળા નિદાન (નિયાણું) અને મોહકર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન થનારા અભિપ્રાય રૂપ મિથ્યાદર્શન, આ ત્રણ શલ્યથી, રાજા અથવા આચાર્ય આદિ પદની પ્રાપ્તિ રૂપ અદ્ધિગૌરવ, મધુર આદિ રસની પ્રાપ્તિના અભિમાન રૂપ રસગોરવ તથા શરીર આદિના સુખની પ્રાપ્તિથી થવાવાળા અભિમાનરૂપ શાતગોરવ, એ પ્રમાણે જ્ઞાનની (જેના વડે १-निपूर्वकात् 'दो अवखण्डने' अस्मात् करणे ल्युट् । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ आवश्यक मूत्रस्य स्तेन, 'तिहिं' तिसृभिः, 'गुत्तीहिं' गोपनमर्याद्रक्षण गुप्तिः आगन्तुककर्मकच वरनिरोधो योगनिरोधो या ताभिर्योऽविचारः कृतस्तस्मात् 'पडिक मामि' प्रति कामामि, गुप्तित्रयमाह 'मण' इति 'मणगुतीए' मनोगुप्या 'वयगुत्तीए' वचोगुप्या, 'कायगुत्तीए' कायगुप्त्या, अर्थः मस्फुट:, आह-कथ गुप्तीनामति- चार प्रति करणत्व ? मिति, उच्यते निहिताननुष्ठान - निषिद्धाऽऽचरण-श्रद्धान मस्खलनादिना व्युत्क्रमेण सेविता मनोगुप्त्यादयोऽविचार हेतवः सम्पयन्त इति । 'तिहि' त्रिभिः, 'सलेद्दि' शल्यते = हिश्यते जीवो यैस्तानि शल्यानि, द्रव्य भावभेदेन शल्यस्य द्वैविध्येऽप्यत्र प्रकरणाद्भावशल्यस्यैव ग्रहण बोध्यम्, अन्वय इहापि मायदेव, शल्यत्रयमाह - 'माया०' इति - 'मायासलेण' मीयते प्रतार्यते प्रक्षिप्यते वा नरकादौ लोकोऽनयेति, यद्वा, माय्यते = अशुभ कर्मरूपे गर्ते पात्यते लोकोऽनयेति, गन्ति सर्वे दुर्गुणा यस्यामिति वा माया, तद्रूप शल्य मायाशल्य = मनसा वाचा कायेन वा परञ्चनस्वरूप तेन, 'नियाण सलेण' नितरा दीयते = छिपते आत्मभूमिजात - सम्यक्त्वाऽङ्कुरित- विविधविमलभावना सल्ल्सिवर्द्धितध्यानक्रियापल्लविताऽखण्ड तप सयमाद्यनुष्ठान पुष्पित - मोक्षफलसुभूषित - कुशल कर्मकल्परक्षो येन - ऐहिकच वय दिपारलौकिकदेवद्वर्यादिपदप्राप्तिजन्य विषयन करने, निषिद्ध का सेवन करने, तथा अश्रद्धानादिसे सम्पक् असेवित योगनिरोधरूप मनोगुप्ति वचनगुप्ति कायगुप्सि, इन तीन गुतियों के कारण, अशुभ कर्मों के गट्टेमे या नरकमें गिरानेवाली अथवा विषयोंमें प्राणियों को लुभानेवाली माया, ऐहिक चक्रवर्ती आदि, परलोकसम्बन्धी देवऋद्धि आदिके पदों की प्राप्ति से होनेवाली विषयसुखलालसारूप तीक्ष्णधारा से युक्त कुठार के *ાન ન કર્યું હોય અને નિષિદ્ધનું સેવન કર્યું હાય, તથા અશ્રદ્ધાથી સમ્યક્ અસેવિત ચેનિરધરૂપ મને ગુપ્તિ, વચનગુપ્તિ, કાયગુપ્તિ, આ ત્રણ ગુપ્તિસ્માના કારણે અશુભ કર્મોના ખાડામાં અથવા નરકમાં નાખનારી, અથવા વિષયામા પ્રાણીઓને લેાભાવનારી માયા, અહિક-ચક્રવર્તી આદિ, પરલેાક સખ ધી દૈવ ઋદ્ધિ આદિ પદ્માની પ્રાપ્તિથી થનારી વિષયસુખની લાલસારૂપ તીક્યુ १- 'डमिन प्रक्षेपणे' इत्यस्येदम् । · २ - ' मय गती' इत्यस्य ण्यन्तस्येदम् । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ १७९ मुखलालसारूपनिशितधारकुठारेण तन्निदानातच तच्छल्य निदानशल्य तेन, मिच्छादसणसल्लेण' मिथ्या विपरीत मोहकर्मोदयजनित दर्शनम् अभिप्रायो मिथ्यादर्शन तदेव शल्य तेन, 'पडिकमामि' प्रतिक्रामामि, 'तिर्हि' त्रिभिः, 'गारवेहि' गुरोः कर्म भावो वा गौरव, तद्विविधं द्रव्यगत भावगत च, द्रव्यगत वज्रादे, भावगतमहङ्कारलोभादिजन्यमात्मनोऽशुभभावरूपचर्तुगतिससारचक्रभ्रमणनिदान - कर्मकारणम् , अत्र त्वेतदेव विवक्षित प्रकरणात्, तैः, तद्वारेति भावः 'यो मयाऽतिचारः कृतः' इत्यादिसम्बन्यः प्राग्वत् । तदेव गौरवत्रयमाह-'इड्ढी०' इति, 'इड्ढीगारवेण' ऋद्धि- राजेश्वर्यादिलक्षणा, आचार्यादिपदसम्माप्तिलक्षणा वा तया तस्या वा गौरवमृदिगौरवम् आत्मोत्कर्षस्तेन, 'रसगारवेण' रस =रसनेन्द्रियार्थों मधुरादिः, तस्य गौरत्र-तदवाप्त्यभिमानस्तेन, 'सायागारवेण' शात= शरीरादिमुख तेन तस्य वा गौरव शातगौरव, तेन-'अहो अहमस्मि शरीरादिमुखसम्पन्न. 'इत्यभिमानेनेति यावत् 'साया' इत्यत्र प्राकृतबादीर्घः, 'पडिकमामि' समान, आत्मरूप भूमिमें उत्पन्न समकित रूप अङ्कुर से युक्त निर्मल - भावनारूप जलसे सींचे हुए, तप सयम-आदि फूलों से हरे भरे - और मोक्षरूप फलसे विभूषित कुशलकर्मरूप कल्पवृक्ष को काटनेवाला निदान (नियाणा) और मोहकर्म के उद्य से होनेवाला अभिप्रायरूप मिथ्यादर्शन, इन तीन शल्यों से और राजा आदि या आचार्य आदि की पप्राप्तिरूप ऋद्धिगौरव, मधुर आदि रसकी प्राप्ति का अभिमानरूप रसगौरव, तथा शरीर आदि की सुख प्राप्ति से होनेवाला अभिमानरूप शातगौरव के कारण, एव ज्ञानकी (जिसके ધારથી યુકત કુઠાર સમાન, આત્મરૂપ ભૂમિમાં ઉત્પન્ન સમકિતરૂપ અકુરથી યુકત નિર્મલ ભાવનારૂપ જલથી સી ચેલ, તપસ યમ આદિ કુલેથી ભરેલા મેક્ષરૂપ ફલથી વિભૂષિત કુશલ કર્મ રૂપ કલ્પવૃક્ષને કાપવાવાળા નિદાન (નિયાણું) અને મેહકર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન થનારા અભિપ્રાય રૂપ મિથ્યાદર્શન, આ ત્રણ શબેથી, રાજા અથવા આચાર્ય આદિ પદની પ્રાપ્તિ રૂપ ઋદ્ધિગૌરવ, મધુર આદિ રસની પ્રાપ્તિના અભિમાન રૂપ રસગૌરવ તથા શરીર આદિન સુખની પ્રાપ્તિથી થવાવાળા અભિમાનરૂપ શાતગૌરવ, એ પ્રમાણે જ્ઞાનની (જેના વડે १-निपूर्वकात् 'दो अवखण्डने' अस्मात् करणे ल्युट् । - - - - Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ आवश्यकमूत्रस्य स्तेन, 'तिहिं तिसृभिः, 'गुत्तीहि गोपनमर्याद्रक्षण गुप्तिः आगन्तुककर्मकचवरनिरोधो योगनिरोधो वा ताभिर्योऽतिचारः कृतस्तस्मात् 'पडिकमामि' पतिफ्रामामि, गुप्तित्रयमाह 'मण' इति 'मणगुत्तीए' मनोगुप्या 'वयगुत्तीए' वचोगुप्त्या, 'कायगुत्तीए' कायगुप्त्या, अर्थः प्रस्फुटः, आह-कथ गुप्तीनामति- चार प्रति करणत्व ? मिति, उन्यते-पिहिताननुष्ठान-निपिद्धाऽऽचरण-श्रद्धानमस्खलनादिना व्युत्क्रमेण सेविता मनोगुप्त्यादयोऽतिचारहेतवः सम्पयन्त इति । 'तिहि' त्रिभिः, 'सल्लेहि' शल्यते-हिश्यते जीरो यैस्तानि शल्यानि, द्रव्य भावभेदेन शल्यस्य द्वैवि येऽप्यत्र प्रकरणाद्भावशल्यस्यैव ग्रहण बोध्यम्, अन्वय इहापि माग्नदेव, शल्यत्रयमाह-'माया' इति-'मायासल्लेण' मीयतेम्प्रतायेते पक्षिप्यते वा नरकादौ लोकोऽनयेति, यद्वा, २माग्यते अशुभमरूपे गर्ने पात्यते लोकोऽनयेति, गन्ति सर्वे दुर्गुणा यस्यामिति वा माया, तद्रूप शल्य मायाशल्यमनसा वाचा कायेन वा परवञ्चनस्वरूप तेन, 'नियाणसल्लेण' नितरा दीयतेछिद्यते आत्मभूमिजात-सम्यक्त्वाऽङ्कुरित-विविधविमलभावनासलिलसद्धितध्यानक्रियापल्लविताऽखण्डतप सयमापनुष्ठानपुष्पित - मोक्षफलसुभूषित - कुशलकर्मकल्पवृक्षो येन-ऐहिकचनवादिपारलौक्किदेवदर्यादिपदमाप्तिजन्यविषय न करने, निषिद्ध का सेवन करने, तथा अश्रद्धानादिसे सम्यक् असेवित योगनिरोधरूप मनोगुप्ति वचनगुप्ति कायगुप्ति, इन तीन गुप्तियों के कारण, अशुभ कर्मों के गड्डेमे या नरकमें गिरानेवाली अथवा विपयों में प्राणियों को लुभानेवाली माया, ऐहिक चक्रवत्ती आदि, परलोकसम्बन्धी देवऋद्धि आदिके पदों की प्राप्ति से होनेवाली विषयसुखलालसारूप तीक्ष्णधारा से युक्त कुठार के - હઠાન ન કર્યું હોય અને નિષિદ્ધનું સેવન કર્યું હોય, તથા અશ્રદ્ધાથી સમ્યફ અસેવિત યુગનિરોધરૂપ મને ગુપ્તિ, વચનગુપ્તિ, કાવ્યગુપ્તિ, આ ત્રણ ગુપ્તિઓના કારણે અશુભ કર્મોના ખાડામાં અથવા નરકમાં નાખનારી, અથવા વિશ્વમાં પ્રાણીઓને લેભાવનારી માયા, અહિક-ચકવી આદિ, પરલેક સબધી દેવ અદ્ધિ આદિ પદની પ્રાપ્તિથી થનારી વિષયસુખની લાલસારૂપ તીક્ષણ १-'डुमिन् प्रक्षेपणे' इत्यस्येदम् । । २-'मय गता' इत्यस्य ण्यन्तस्येदम् । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम् -४ १८१ हसण्णाए । पडिक्कमामि चऊहिं विकहाहि - इत्थिकहाए, भत्तकहाए, देसकहाए, रायकहाए । पडिक्कमामि चऊहि झाणेहि- अहेण झाणेणं, रुद्देण झाणेणं, धम्मेणं झाणेणं, सुकेणं झाणेणं ॥ सू० ७ ॥ ॥ छाया ॥ प्रतिक्रामामि चतुर्भिः कपायै - क्रोधकपायेण, मानकपायेण, मायाकपायेण, लोभकपायेण । प्रतिक्रामामि चतसृभिः सज्ञाभि - आहारसज्ञया, भयसज्ञया, मैथुनसया, प्रतिग्रहसतया । प्रतिक्रामामि चतसृभिर्विस्याभिः - स्त्रीकथया, भक्तकथया, देशकथया, राजकथया । प्रतिक्रामामि चतुर्भिर्ध्यान:- आर्त्तेन ध्यानेन, रौद्रेण ध्यानेन, धर्मेण ध्यानेन, शुक्रेन ध्यानेन ॥ मु० ७ ॥ ॥ टीका ॥ " ' पडिकमामि' प्रतिक्रामामि, 'चऊहिं' चतुर्भि, 'कसाएहिं ' ,कष्यते = ससारे समाकृष्यत आत्मा यैस्ते रुपायाः यद्वा कपति = हिनस्ति विपयकरवालेन प्राणिन इति कपः ससारस्तस्य आय . = लाभो यैरिति, कष्यन्ते मनाSSगमनादिकण्टकेषु घृष्यन्ते प्राणिनो यैरिति, कृप्यते = मुखदुःखादिसस्यफलयोग्या क्रियते कर्मभूमिर्यैरिति, क्ल्पयन्ति = मलिनयन्ति स्वभावमपि जीवमिति निरुकवृत्त्या वा कपायास्तैः, तद्वारेत्यर्थ 'यो मये' - त्यादिसम्बन्ध प्राग्वत्, तदेव कपायचतुष्टयमाह- 'कोह०' इति - 'कोडकसाएण' क्रुभ्यति = विकृतो स्यात्माऽनेनेति क्रोध' स चासौ कपायश्च क्रोधकपायस्तेन, 'माणकसाएण' मानन= स्वमपेक्ष्याऽऽन्यस्य हीनतया परिच्छेदन, यद्वा मीयते = परिच्छियतेऽनेनेति मानः स चासौ कपायश्च मानकपायस्तेन, 'मायाकसाएण' मायाशब्दव्यारया भव आत्मा को इस ससारमें परिभ्रमण करानेवाले, या गमनागमनरूप कण्टकों में प्राणियों को घसीटने वाले, अथवा आत्मा को मलिन करनेवाले जीवपरिणाम को कपाय कहते हैं, इस कपाय अर्थात् क्रोध - मान-माया - और लोभ के कारण, जिससे जीव या આત્માને સસારમાં પરિભ્રમણુ કરાવનાર અથવા જવુ આવવું વગેરે ક્રિયારૂપ કે ટફામાં પ્રાણીઓને ખેચી भवानाणा, અથવા આત્માને મલિન કરવાવાળા જીવના પરિણામાને કષાય કહે છે मा प्रषाय अर्थात् ङोध, भान, १- ' ' धातोरौणादिक 'आय' प्रत्यय. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० आवश्यक सूत्रस्य प्रतिक्रामामि, 'तिहिं' तिसृभि', 'निराहणादि' विगवान्याराधनानि, यद्वा वि= विशेषेण राधनानि विराधनाः खण्डनास्ताभिरर्थात्तद्वारा यो मयाऽतिवारः कृतः इत्यादिसम्बन्धः प्रागुक्तपकारः । विराधनाभेदानाह - ' नाण०' इति 'नाणत्रि राहणाए' ज्ञायन्ते-अत्रयुध्यन्ते पदार्था येन यस्माद्वा तज्ज्ञानम् = पदार्थ परिबोधस्वस्य विराधना = ज्ञानविराधना-तया, 'दसण विराहणाए ' दृश्यन्ते = धातूनामनेकार्थत्वात् श्रद्धीयन्ते पदार्था अनेनेति दर्शन सम्यग्रूप तस्य विरा धना तया, 'चारितनिराहणाए ' चर्यते = समाराध्यते मुमुक्षुभिरिति चर्यते = कर्मणा रिक्तीमियते आत्माऽनेनेति वा चरित्र तदेव चारित्र त्रस - स्थावरादि गाणातिपाताद्युपरमरूपाऽऽत्म परिणामरूप, सर्वसावययोगपरित्यागपुरस्सर निरवद्ययोगानुष्ठानरूप सामायिकादि, तस्य विराधना = चारित्र निराधना तया || सू० ६ ॥ ॥ मूलम् ॥ पडिक्कमामि चऊहिं कसाएहिं - कोहकसाएणं, माणकसाएण, मायाकसाएण, लोहकसाएण । पडिक्कमामि चऊहि सण्णाहि-आहारसपणाए, भयसण्णाए, मेहुणसण्णाए, परिग्ग 1 द्वारा जीवादि पदार्थ जाना जाय वह ज्ञान, उसकी ) विराधना, दर्शनकी (जिस के द्वारा जीवादि पदार्थों का श्रद्धान किया जाय वह दर्शन, उसको) विराधना, चारित्रकी (मोक्षार्थियों से सेवन करने योग्य, अथवा आत्मा को कर्म रहित करने वाला चारित्र, उसकी ) विराधना, इन तीन विराधनाओं ( आराधना के अभाव अथवा खण्डनारूप ) के कारण जो मुझ से अतिचार किया गया हो तो उससे मैं निवृत्त होता ॥ सृ० ६ ॥ Au Mpaper UP 4 છવાદિ પદાર્થ જાણી શકાય તે જ્ઞાન, તેની ) વિરાધના, દર્શનની ( જેના વડે જીવાદિ પદાર્થોની શ્રદ્ધા કરવામાં આવે, પ્રવચનમા રુચી થાય તે દર્શન, તેની) d વિરાધના, ચારિત્રની ( મેક્ષાથી જીવેને સેવન કરવા ચૈગ્ય, અથવા આત્માને કમरहित श्वाषाणो शास्त्रि, तेनी, ) विराधना, मा ત્રણ વિરાધનાએના કારણે ( આરાધનાને અભાવ અથવા ખડનારૂપ) કારણે મને જે અતિચાર લાગ્યે હાય તે તેમાથી ♦ નિવૃત્ત થાઉ છુ (સ્૦ ૬) १- मज्ञादित्वात्स्वार्थिकोऽण् प्रत्यय. । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म, लोभापायेणाम चतुभिः कारणाया ॥ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ हसण्णाए। पडिकमामि चऊहिं विकहाहि-इत्थिकहाए, भत्तकहाए, देसकहाए,रायकहाए। पडिकमामि चऊहि झाणेहि-अणं झाणेणं, रुदेण झाणेण, धम्मेणं झाणेणं, सुकेणं झाणेणं । सू०७॥ ॥छाया ॥" प्रतिक्रामामि चतुर्भिः कपाय -क्रोधकपायेण, मानरुपायेण, मायाकपायेण, लोभापायेण । प्रतिक्रामामि चतसृभि. सज्ञाभिः-आहारसज्ञया, भयसनया, मैथुनसज्ञया, प्रतिग्रहसज्ञया। प्रतिक्रामामि चतसृभिर्विकथाभिः-स्त्रीकथया, भक्तकथया, देशकथया, राजकथया। प्रतिक्रामामि चतुर्भिान. आतैन ध्यानेन, रौद्रेण ध्यानेन, धर्मेण ध्यानेन, शुक्लन ध्यानेन ॥ ० ७ ॥ ॥ टीका ॥ _ 'पडिकमामि' पतिक्रामामि, 'चऊहिं' चतुर्भिः, 'कसाएहि । कप्यते-ससारे समाकृष्यत आत्मा यैस्ते कपाया , यद्वा कपति-हिनस्ति विषयकरवालेन पाणिन इति कपः-ससारस्तस्य आय. लाभो यैरिति, कप्यन्नेबामनाऽऽगमनादिकण्टकेपु घृष्यन्ते पाणिनो यैरिति, कृप्यते-मुखदु खादिसस्यफलयोग्या क्रियते कर्म भूमिरिति, क्लुपयन्ति मल्नियन्ति स्वभावमपि जीवमिति निरुकवृत्या वा कपायास्तै, तद्वारेत्यर्थः 'यो मये'-त्यादिसम्बन्ध भाग्वत् , तदेव कपायचतुष्टयमाह-'कोह०' इति-'कोहफसाएण' ऋष्यति-विकृतो भवत्यात्माऽनेनेति क्रोधः स चासौ कपायश्च क्रोधकपायस्तेन, 'माणफसाएण' मानन स्वमपेक्ष्याऽऽन्यस्य हीनतया परिच्छेदन, यद्वा मीयते-परिच्छियतेऽनेनेति मान' स चासौ कपायश्च मानपायस्तेन, 'मायाकसाएण' मायाशब्दव्याख्या आत्मा को इस ससारमें परिभ्रमण करानेवाले, या गमनागमनरूप कण्टकों में प्राणियों को घसीटने चाले, अथवा आत्मा को मलिन करनेवाले जीवपरिणाम को कपाय करते हैं, इस कपाय अर्थात् क्रोध -मान-माया और लोभ के कारण, जिससे जीव या આત્માને સંસારમાં પરિભ્રમણ કરાવનાર અથવા જવુ આવવું વગેરે ક્રિયારૂપ કટકમાં પ્રાણીઓને ખેચી જવાવાળા, અથવા આત્માને મલિન કરવાવાળા જીવના પરિણામને કષાય કહે છે આ કષાય અર્થાત્ ક્રોધ, માન, १- 'क' धातोरोणादिय 'आय' मत्यय. - - Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ आवश्यकसुत्रस्य - - - - - त्वनुपदमेवोक्ता, 'लोहफसाएण' लोमोऽभिकाक्षा, अथवा ' लुभ्यते व्याकुलीक्रियत आत्माऽनेनेति लोभा, स चासौ कपायच लोमकपायस्तेन, 'पडिकमामि' प्रतिक्रामामि, काभिः १ 'चऊहिंचतसमिः, 'सण्णार्हि' सज्ञानानि-सना, सज्ञायते जीवस्तचेष्टाविशेपो वा याभिरिति सज्ञा अमिलापविशेषरूपास्ता भिराचद्वारा 'योऽतिचारः कृत' इत्यादिसम्बन्धः माग्मत् । तद्भेदानाह'आहार' इति 'आहारसणाए' आहारणमाहारस्तद्विपया सज्ञाऽऽहारसनाः क्षुद्वेदनीयोदयेन कवलापभिलापस्वरूपाऽऽत्मपरिणतिविशेपस्तया, 'भय सण्णाए' भय भीतिस्तद्विपया सज्ञा भयसज्ञा तया 'मेहुणसण्णाए' मिथुन स्त्रीपुसौ तत्कर्म मेथुन तद्विपया सज्ञा मैथुनसा च्यादिवेदोदयरूपा तया, 'परिग्गहसण्णाए' परि-समन्ताद् गृह्यते स्वीक्रियत इति परिग्रह., यद्वा परिग्रहण परिग्रहस्तद्विपया सज्ञा परिग्रहसज्ञा लोभजन्याऽऽत्मपरिणतिविशेपस्तया । 'पडिकमामि' प्रतिक्रामामि, 'चर्हि' चतसृभिः, 'विवहाहि' विविरुद्धाः सयमविराधस्त्वेन कथा वचनरचनावल्यः विकथास्ताभिस्तद्वारेत्यर्थ 'यो मये' त्यादिसम्बन्धः माग्वदेव । तदेव विकथाचतुष्टयमाह-'इथि०' इति। 'इत्यिकहाए' स्त्रीणा कथा स्त्रीकथा तया, इय च स्त्रीकथा जाति-कुल-रूप-नेपथ्य-भेदा चतुर्दा, तत्र जात्या स्त्रीकथा, यथा-- 'मृते पत्यौ दुःखदग्धा, धिगस्तु ब्राह्मणी सदा। धन्या शूदैव याऽऽप्नोति, अजीवकी चेष्टा जानी जाय ऐसी आहार-भय-मैथुन-तथा परिग्रहरूप सज्ञा के कारण और स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा तथा राजकथा स्प चार विकथाओं के कारण जो कुछ अतिचार किया गया हो तो उससे मै निवृत्त होता हूँ। इनमें 'स्त्रीकथा' जाति कुल रूप और नेपथ्य के भेदसे માયા અને તેમના કારણે, જેના વડે જીવ અને અજીવની ચેષ્ટા જાણવામાં આવે એવી આહાર, ભય, મૈથુન તથા પરિગ્રહ રૂપ સત્તાના કારણે, અને સ્ત્રીકથા, ભકતકથા, દેશથા, તથા રાજકથા રૂપ ચાર વિકથાઓ કરવાના કારણે જે કઈ અતિચાર થયા હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉં છું એમાં સ્ત્રીકથા જાતિ કુલ રૂપ અને નેપચ્ચેના ભેદથી ચાર પ્રકારની છે, १- 'लुभ विमोहने' 'विमोहनमाकुलीकरण'-मिति सिद्धान्तकौमुदी । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D मुनितोषणी टीका, प्रतिक्रमणाभ्ययनम्-४ धवे प्रेते पर परम्" ॥१॥ इत्यादि रीत्या ब्राह्मण्यादीना विनिन्दनादिः। कुलेन यथा-'अहो प्रशस्ततमोग्रकुलसभूतेय वाले'-त्येवमादिः । रूपेण यथा-'कटाक्षवाणा मैथिल्य आन्ध्यः शशधरानना' इत्येवमादिः, नेपथ्येन यथा-'चैनाः पर्वतीयाश्च चिपिटनासिका निःसीमवस्त्राभरणादिभारा दुर्भाषिताच, आन्ध्रीगुर्जरी-मैथिली-पाञ्चाल्यो यथोचितवस्त्राभरणादिसुवेपपरिच्छिन्नाः' इत्यादि, स्त्रीकथाया स्वपरोदीरणोड्डाहब्रह्मचर्यागुप्त्यादिदोपसम्भवेनाऽतिचारहेतुत्वमवसेयम् । 'भत्तफहाए' भक्तस्य ओदनादेः कथा, भक्तकथा तण, इयमपि चतुर्दाआगप-निर्वापा-ऽऽरम्भ-निष्ठनिभेदात् , तत्राऽऽवापेन भक्तकथा यथाचार प्रकारकी है, उनमें जातिकथा जैसे-"पति के मर जाने पर दुःख से दिन बितानेवाली ब्राह्मणी को धिक्कार है, शुद्रा ही धन्य है जो एक पति मर जाने पर भी दूसरे पति के द्वारा सुखसे जीवन बिताती है' इत्यादि । कुलकथा जैसे-'यह कन्या उग्रकुलकी है इसलिये अच्छी है' इत्यादि । रूपकथा जैसे-'पहाडी स्त्रिया वस्त्र और आभूषण यहुत रखती है, मैथिली और पजाबी स्त्रियाँ आव. श्यकतासे अधिक वस्त्र तथा आभूपण नहीं पहनती है' इत्यादि । ऐसी कथाओंसे ब्रह्मचर्य आदि व्रतों में दोप लगने की सभावना रहती है इसलिये इमको अतिचार का हेतु माना गया है ।। 'भक्तकथा' आवाप, निर्वाप, आरम्भ और निष्ठान भेदसे चार प्रकारकी है। उनमें आयाप भक्तकथा जैसे इस रसोई में તેમા જાતિકથા જેવી રીતે કે પતિ મરણ પામ્યા પછી દુખથી દિવસ વિતાવનારી બ્રાહ્મણને ધિકકાર છે, શૂદ્રાણીને જ ધન્ય છે કે જેને એક પતિ મરણ પામી જતા બીજા પતિ દ્વારા સુખથી જીવન ગુજારે છે ઈત્યાદિ કુલકથા–આ કન્યા ઉકુલની છે, એટલા માટે સારી છે ઈત્યાદિ રૂપકથા જેમપહાડી સ્ત્રીઓ વસ્ત્રો અને આભૂષણ બહજ રાખે છે, મૈથિલી અને પજાબી સ્ત્રીઓ જરૂરત કરતા વધારે વર તથા આભૂષણ પહેરતી નથી, ઈત્યાદિ આવી કથાઓથી બ્રહ્મચર્ય આદિ તેમા દેપ લાગવાની સંભાવના રહેવાથી તેને અતિચારને હેતુ માનવામાં આવેલ છે ભકતકથા-આવાપ-નિવપ-આર અને નિષ્ઠાન બેથી ચાર પ્રકારની છે. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ narrearer " aayara, 'लोकसारण' लोभोऽभिकाङ्क्षा, अथवा ' लभ्यते व्याकुलीक्रियत आत्माऽनेनेति लोभः स चासौ कपाय लोभरुपायस्तेन, 'परिकमामि' प्रतिक्रामामि, काभिः ? 'चऊहिं' चतसृभिः, 'सण्णाहि' सज्ञानानि = सज्ञाः, सज्ञायते जीवस्तचेष्टाविशेषो वा याभिरिति सज्ञाः-अभिलापविशेषरूपास्ता भिरर्थानद्वारा ' योऽतिचारः कृत इत्यादिसम्बन्धः मारयत् । तद्भेदानाह— 'आहार०' इति 'आहारसष्णाए' आहारणमाहारस्तद्विपया सज्ञाऽऽहारसङ्गा= क्षुद्वेदनीयोदयेन कलाभिलापस्वरूपाऽऽत्मपरिणतिविशेषस्तया, 'भय सण्णाए ' भय= भीतिस्तद्विपया सज्ञा भयसज्ञा तया 'मेहुणसण्णा' मिथुन स्त्रीपुसौ तत्कर्म मैथुन तद्विपया संज्ञा मैथुनसज्ञा = स्त्र्यादिवेदोदयरूपा तया, 'परिग्गहसण्णाए ' परि= समन्ताद् गृह्यते = स्वीक्रियत इति परिग्रह, यद्वा परि ग्रहण = परिग्रहस्तद्विपया सज्ञा परिग्रहसज्ञा = लोभजन्याऽऽत्मपरिणतिविशेषस्तया । 'पंडिकमामि' प्रतिक्रामामि, 'चऊहिं' चतसृभिः, 'विकहाहिं ' बि= विरुद्धाः सयमविराधकत्वेन कथाः=वचन रचनावल्यः विकथास्ताभिस्तद्द्वारेत्यर्थः 'यो मये' त्यादिसम्बन्ध. भाग्यदेव । तदेव विकथाचतुष्टयमाह - ' इत्थि०' इति । इत्थि - कहाए' स्त्रीणा कथा स्त्रीकथा तया, इय च स्त्रीकथा जाति-कुल- रूप- नेपथ्य-भेदा चतुर्द्धा, तत्र जात्या स्त्रीकथा, यथा A ! 'मृते पत्यौ दुखदग्धा, धिगस्तु ब्राह्मणी सदा । धन्या शूद्वैव याऽऽमीति, अजीव की चेष्टा जानी जाय ऐसी आहार-भय-मैथुन - तथा परिग्रहरूप सज्ञा के कारण और स्त्रीकथा, - भक्तकथा, देशकथा तथा राजकथा रूप चार विकथाओं के कारण जो कुछ अतिचार किया गया हो तो उससे मैं निवृत्त होता है । इनमे 'स्त्रीकथा' जाति कुल रूप और नेपथ्य के भेदसे માયા અને લાભના કારણે, જેના વડે જીવ અને અજીવની ચેષ્ટા જાણુવામા આવે એવી आहार, भय, मैथुन तथा परिथड ३५ सज्ञाना अरो, भने श्री था, भउतउथा, દેશથા, તથા રાજકથા રૂપ ચાર વિકથાએા કરવાના કારણે જે કાઇ અતિચાર થયા હાય તા તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉં છુ એમા ઔકથા જાતિ કુલ રૂપ અને નેપથ્યના ભેદથી ચાર પ્રકારની છે, १- 'लभ त्रिमोहने ' ' त्रिमोहनमाकुलीकरण - मिति सिद्धान्तकौमुदी | Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणा-ययनम्-४ धवे घेते परं परम्" ॥१॥ इत्यादि रीत्या ब्राह्मण्यादीना विनिन्दनादिः। कुलेन यथा-'अहो प्रशस्ततमोग्रकुलसभूतेय पाले'-त्येवमादिः । रूपेण यथा-'कटासवाणा मैथिल्य आन्धयः शशधरानना' इत्येवमादिः, नेपथ्येन यथा-'चैनाः पर्वतीयाश्च चिपिटनासिका निःसीमवस्त्राभरणादिभारा दुर्भापिताश्च, आन्ध्रीगुर्जरी-मैथिली-पाश्चाल्यो यथोचितवस्त्राभरणादिमुवेपपरिच्छिन्नाः' इत्यादि, स्वीकथाया स्वपरोदीरणोड्डाहब्रह्मचर्यागुप्त्यादिदोपसम्भवेनाऽतिचारहेतुत्वमवसेयम् । 'भत्तकहाए' भक्तस्य ओदनादेः कथा, भक्तकथा तया, इयमपि चतुर्दाआगप-निर्वापा-ऽऽरम्भ-निष्टानभेदात् , तत्राऽऽवापेन भक्तकथा यथाचार प्रकारकी है, उनमें जातिकथा जैसे-"पति के मर जाने पर दुःख से दिन बितानेवाली ब्राह्मणी को धिक्कार है, शुद्रा ही धन्य है जो एक पति मर जाने पर भी दूसरे पति के द्वारा सुखसे जीवन यिताती है' इत्यादि । कुलकथा जैसे-'यह कन्या उग्रकुलकी है इसलिये अच्छी है' इत्यादि । रूपकथा जैसे-'पहाडी स्त्रिया वस्त्र और आभूषण बहुत रखती है, मैथिली और पजाबी स्त्रियाँ आवश्यकतासे अधिक वस्त्र तथा आभूपण नही पहनती है' इत्यादि । ऐसी कथाओंसे ब्रह्मचर्य आदि व्रतों में दोप लगने की सभावना रहती है इसलिये इसको अतिचार का हेतु माना गया है । 'भक्तकथा' आवाप, निर्वाप, आरम्भ और निष्ठान भेदसे चार प्रकारकी है। उनमें आयाप भक्तकथा जैसे-इस रसोई में તેમા જાતિકથા જેવી રીતે કે પતિ મરણ પામ્યા પછી દુ ખથી દિવસો વિતાવનારી બ્રાહ્મણીને ધિકકાર છે, શુક્રાણીને જ ધન્ય છે કે જેને એક પતિ મરણ પામી જતા બીજા પતિ દ્વારા સુખથી જીવન ગુજારે છે ઈત્યાદિ કુલકથા–આ કન્યા ઉગ્રકુલની છે, એટલા માટે સારી છે ઈત્યાદિ રૂપકથા જેમ–પહાડી સ્ત્રીઓ વસ્ત્રો અને આભૂષણ બહુજ રાખે છે, મેથિલી અને પંજાબી સ્ત્રીઓ જરૂરત કરતા વધારે વસ્ત્ર તથા આભૂષણ પહેરતી નથી, ઈત્યાદિ આવી કથાઓથી બ્રહ્મચર્ય આદિ વ્રતમાં દેવ લાગવાની સંભાવના રહેવાથી તેને અતિચારને હેતુ માનવામાં આવેલ છે ભકતકથા-આવાપ-નિવપ-આર અને નિષ્ઠાન બેથી ચાર પ્રકારની છે Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ आवश्यकमूत्रस्य 'एतावदत्र महानसे धृतमेतारन्छाकायेतावद्वेसयारादि युक स्यादित्येव मकथनम् । निर्वापेण यथा-'एतापन्ति पकान्येतावन्त्यपकान्यन्नान्येतारद्वयञ्जन'-मित्याक्तिः । आरम्भेण यथा 'अस्मिन् महानसे भारुफलादीनि एतावन्ति उपयोक्ष्यन्त' इत्युक्तिः। निष्ठानेन यथा-'अस्मिन् महानसे शत रूप्यकाणि 'वियन्ति' इत्यादि द्रव्यसकथनम्, अत्र चाजितेन्द्रियत्वादरिकत्वादयो दोपा भवन्ति । 'देसकहाए' देश:-मगधराजस्थानपश्चालादिरूपो जनपदस्तस्य कथा देशकथा तया, इयमपिच्छन्द-विधि-विकल्प-नेपथ्य-भेदाच्चतुर्विधा-तत्र छन्देन देशस्था यथा-- इतना घी इतना शाक और इतना मसाला ठीक होगा' इत्यादि । निर्वाप भक्तकथा जैसे-इतने पकवान थे इतना शाक था और इतना मधुर या' इस प्रकार देखे हुए भोज्य पदार्थों की कथा करना। आरम्भ भक्तकथा जैसे-'इस रसोई में इतने शाक और फल आदिका जरूरत रहेगी' इत्यादि । निष्ठान भक्तकथा जैसे-अमुक भोज्य पदार्थों में इतने रूपये लगेंगे' इस प्रकार द्रव्य की मुख्यता से कथा करना। भक्तकथा से अजितेन्द्रियत्व आदि दोप होनेके कारण अतिचार होता है। मगध आदि देशोंकी कथा करने को 'देशकथा' कहते हैं । वह भी चार प्रकारकी है-(१) छन्द (२) विधि (३) विकल्प (४) नेपथ्य તેમા આવાય ભકતકથા-જેવી રીતે કે આ સેઈમા-અમુક પ્રમાણમાં ઘી-શાક અને મશાલ હશે તે સારી સેઈ થશે, ઈત્યાદિ નિર્વાપ ભકતકથા-આટલા પકવાન હતા, આટલા શાક હતા અને સ્વાદમાં મધુર હતા એ પ્રમાણે જોયેલા પદાર્થોની કથા કરવી તે આર ભ ભકતકથા–જેમકે “આ રસોઈમાં આટલા શાક અને ફળેની જરૂરત રહેશે, ઈત્યાદિ નિષ્ઠાન ભક્તકથા–જેમકે અમુક ભજન કરવાના પદાર્થોમાં આટલા રૂપિઆ થશે આ પ્રમાણે દ્રવ્યની મુખ્યતાથી કથા કરવી તે ભકતકથાથી અજિતેન્દ્રિયવ આદિ દેવ થવાના કારણે અતિચાર લાગે છે મગધ આદિ દેશની કથા વગેરેને દેશ કથા કહે છે તે પણ ચાર પ્રકા _नी छ (१) ४६, (२) विधि, (७) वि४६५, (४) नेपथ्य १-व्ययितानि भवन्तीत्यर्थः । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणा-ययनम्-४ १८५ 'दक्षिणे मातुली कन्या परिणेया प्रयत्नतः' इति लाटादिदेशेषु मातुलकन्या गम्या तदितरत्र-'मातुलस्य सुतामूदवा मागोवा तथैव च । समान प्रवरा चैव भुक्त्वा चान्द्रायण चरेत्' इति सैवागम्येत्यादिमकथनम् । विधिःभोजनादिसम्पादन तेन देशकथा यथा--मगऽन्नदुग्यादीना भोज्यानामेव प्राचुर्य भवति, कोसलदेशे भवनादीन्येव निर्मीयन्ते, सध्ने चैव व्यापारपरायणा धनिनः, इत्येवमादि, विकल्प क्षेत्र-वापी-कूप-तडागादि निर्माण, सस्यादिसम्पनिश्च, तेन देशकथेत्यतिरोहितम्, नेपथ्य-स्त्रीपुरुपकर्तृकमणिभूपणादिधारण (१) छद-देशकथा जैसे-दक्षिण देशमे मामाकी कन्या के साथ विवाह किया जाता है। अन्य देशों में दोप माना जाता है, जैसा लिखा है कि-'मामाकी कन्या से माता के गोत्रमे उत्पन्न किसी और भी कन्या से अथवा एक प्रवर (मूल) की कन्या से यदि कोई विवाह करे तो वह विवाह अयोग्य समझा जाता है और विवाह करनेवाले को चान्द्रायणव्रत करना पडता है' इत्यादि । (२) विधि-देशकथा जैसे-'मगध देशमे चावल, दूध, आम वगैरह इस प्रकार उत्पन्न होते हैं, कोसल (अवध) देशमे मकान इस प्रकार बनाये जाते हैं, तथा सुघ्न (आगरा प्रान्त) के धनी लोग इस प्रकार व्यापार किया करते हैं। इत्यादि । (३) विकल्प-देशकथा जैसे-खेत, पावडी, कृप, तालाब, आदि के खुदवाने तथा शालि आदि के रोपने आदि की कथा करना । (४) नेपथ्य-देशकया 'मणि-भूपण (૧) છન્દ દશકથા-જેમકે, દક્ષિણ દેશમાં મામાની પુત્રી સાથે લગ્ન કરી શકાય છે અને બીજા દેશોમાં તે પ્રમાણે કરવામા દેવ માનવામાં આવ્યું છે જેવી રીતે અન્ય ગ્રમ લખેલું છે કે – મામાની પુત્રીથી, માતાના ગેત્રમાં ઉત્પન્ન કે બીજી કન્યાથી આ વા એક પ્રવર (મૂલ) ની કન્યા સાથે કે વિવાહ કરે તે તે વિવાહ-લગ્ન અગ્ય સમજવામાં આવે છે અને લગ્ન કરનારને ચાદ્રાયણ વ્રત ४२ पडे छे छत्यादि (२) विधि देशया-भ, मगध देशमा यार-(यामा)-इधઆખા વગેરે આ પ્રમાણે ઉત્પન્ન થાય છે કેશલ (અવધ) દેશમાં મકાન આ પ્રમાણે બનાવવામાં આવે છે તથા આગરા પ્રાન્તમાં ધનવાન માણ. આ પ્રમાણે વ્યાપાર ४२ छ त्याह () विषयी देशया-भडे, ती, , -dara पगेरे દાવવાની તથા શાલી આદિ ધાન્ય પવાની કથા કરવી તે (૪) નેપચ્ચ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकस्त्रस्य तेन-देशकथा यथा-'अहो देहीना केशपाशविन्याशो वासोधारणभावीण्य च, अहो गौरीणामल्पीयसाऽपि भूपामयोगेण रूपसौन्दर्यम् , अहो पाश्चाली नामधरीयचैलचमत्कार' इत्यादिः, इह च रागद्वेपोदयपक्षपातादयो दोषा वोद्धव्या । 'रायकहाए' रामः नृपतेः कया राजकथा तया, इयमपि अतियाननिर्याण-पलवाहन-कोशकोष्ठागारमेदाचतुविधा, तत्रातियान-नगरादिमवेशन तेन राजकथा यथा---'शशिममच्छत्रनिगारितातप', सदन्तिवाजी सितचामरद्वयः। असौ नृपो मागधवन्दिवन्दितो, रथेन सम्प्राप्स्यति राजधानिकाम्' वस्त्र आदि के धारण करने की कथा करना, जैसे-विदेह देशकी स्त्रियों के केशपाश आदि की सुन्दरता अच्छी है, गुजराती स्त्रियाँ की थोडे आभूषण से भी रूपसुन्दरता और पञ्चायी स्त्रियों के अधरीय वस्त्रोंका चमत्कार प्रशसनीय है' इत्यादि रूप से कथन करना। देशकथा में राग-द्वेष-पक्षपात आदि दोषों की सभावना से अतिचार लगता है। राजकथा भी चार प्रकार की है-(१) अतियान (२) निर्याण (३) बलवाहन (४) कोष-कोष्ठागार, उनमें (१) अतियान (नगरादि प्रवेश) से राजकथा-जैसे 'चन्द्रमा के समान स्वच्छ छन्त्र और चामरा से सुशोभित, हाथी घोडों से युक्त, रथ पर चढा हुवा यह राजा मागध, बन्दी आदि याचक जनों की जयध्वनि के साथ राजधानी દેશ કથા-મણિ ભૂષણ વસ્ત્ર આદિ ધારણ કરવાની કથા કરવી તે જેમકે વિદેહ દેશની સ્ત્રીઓના કેશ–પાશ વગેરેની સુંદરતા સારી છે ગુજરાતી સ્ત્રીઓ છેડા આભૂષણ પહેરે તે પણ સુંદર દેખાય છે, ૫ જાબી સ્ત્રીઓના વસ્ત્રોના ચમત્કાર પ્રશ સા કરવા યોગ્ય છે ઈત્યાદિ રૂપથી વાત કરવી તે દેશકથામાં રાગ-દ્વેષ–પક્ષપાત વગર દે થવાને સભવ છે તેથી અતિચાર લાગે છે २०४४या पY यार आनी छे (1) मतियान, (२) निर्मा, (3) मस पालन, (४) tष-38२ मा (१) अतियान (नरामप्रवेश) थी ४२t - જેમકે-ચન્દ્રમાં પ્રમાણે સ્વચ્છ છત્ર અને બે ચામરોથી સુશોભિત, હાથી ઘોડાથી યુક્ત, રથ ઉપર બેઠેલા આ રાજા માગધ-વાદી આદિ યાચક જનેની જયઘોષણા સાથે રાજધાનીમાં પ્રવેશ કરશે-ઈત્યાદિ (૨) નિયણ–નગરાદિથી બહાર નીકલવાની Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपगी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ १८७ इति । निर्याण-पुरावहिर्गमन, तेन यथा 'तत्रैव 'पुरावहिर्गन्छति सैन्यसत्तः' इति चतुर्थचरणव्यत्यासेनोदीरणम् । वल सैन्य, वाहन-गजादि, ताभ्या यथा_ 'अमी खुरक्षुण्णधरास्तुरङ्गमाः, रथा महान्तश्च गजा मदोद्धताः। पदातयो वैरिनिवईणक्षमाः, क्षमापतेः कस्य चकासतीदृशाः ॥ इति, कोश:=भाण्डागार, कोष्ठागार-धान्यादिगृह ताभ्या यथा--- __'रत्नादिपूर्णकोशः, कोट्टपदातिमकोपदलितारि। सभृतकोष्ठागार., मुख स्वपित्येप नरनाथः' इत्यादि । अत्र राजरहस्यभेदनादयो दोपाः प्रतीता में प्रवेश करेगा' इत्यादि । (२) निर्याण (नगरादि से बाहर निकलने) से राजकथा-जैसे-'उक्तशोभाके साथ राजा राजधानी से बाहर निकलेगा' इत्यादि । (३) बल (सेना) वाहन (हाथी घोडे आदि) से राजकथा-जैसे-'अहा! ऐसे पडे २ चचल घोडे, मदोन्मत्त हाथी और शत्रुओं के छक्के छुडानेवाले शूरवीर किस राजाके हैं !' इत्यादि । ४ कोप (खजाने) और कोष्ठागार (कोठार) से राजकथा-जैसे-'जिसके रत्नादि से खजाना, और धान्य आदि से कोठार भरे हुए हैं तथा जिसका किला अभेद्य एव योद्धागण शत्रओं का दमन करनेवाले हैं, ऐसा यह राजा सुख से समय बिताता है' इत्यादि । इस प्रकार राजकथा करने से राजरहस्यभेदन आदि अनेक दोपों की उत्पत्ति होने के कारण अतिचार लगता है। કથા-જેમકે –ઉપર કહેલી શોભા સાથે રાજા-રાજધાનીથી બહાર નિકલશે ઈત્યાદિ (3) स-(सेना) पान (डार्थी घास) सहित ४४था-रे-मड ? मावा મેટા-મોટા ચચલ ઘેડા, મહેન્મત્ત હાથી અને શત્રુઓના માન ઉતારી નાખે તેવા शुरवी२ च्या सतना छ ? Vत्यादि (४) अष (मलना) सन २०४॥२ ( २)नी રાજકથા-જેમકે-જેને રત્નાદિકથી ખજાના અને ધાન્યાદિકથી કે ઠાર ભરેલા છે તથા જેના રાજના કિલા અભેદ્ય છે અને દ્ધાઓ શત્રુઓનું દમન કરવાવાળા છે એવા આ રાજા સુખથી સમય ગુજારે છે ઈત્યાદિ આ પ્રમાણે રાજકથા કહે. વાથી રાજાની ગુપ્ત વાત ભેદન વગેરે અનેક દેની ઉત્પત્તિ થવાના કારણે અતિચાર લાગે છે. १-तत्रैव-भोक्तश्लोकः एव । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ , आवश्यकमूत्रस्य - - एव । 'पडिफमामि' मतिकामामि, 'चहि' चतुभिः, 'माणेडिं' ध्याति:ध्यान निर्यातस्थानस्थितनिधरमदीपशिखावत् स्थिरतर-धारावाहिकानविच्छेदक विषयान्तरसञ्चारानन्तरितकमात्रार्थचिन्तनरूपचित्तेकाग्रतास्वरूप, यदुक्तम् 'अतोमुहुत्तमित्त, पित्तावत्याणमेगवत्युम्मि । छउमस्थाण झाण, जोगणिरोहो जिणाण ति' इति । तैः, तद्वारा यो मयाऽतिचारः कृतः, इत्याघन्वयः प्राग्वत् । क्रमेण भेदचतुष्टयमेवाह-'अट्टेण झाणेण' आर्तेन ध्यानेन, अति: मनोव्यथा, तस्या तया सह वा भवमिति, अथवा 'ऋतिः अशुभ तया सह भवमा तेन ध्यानेन मनोज्ञामनोज्ञवस्तुसयोगपियोगजनिचित्तोद्रकलक्षणेनेत्यर्थः, तदुक्तमितरत्रापि-- पवन रहित स्थानमें रखे हुए निश्चल दीपकी शिखाके समान अत्यत स्थिर-धारावाही ज्ञानका विच्छेद करनेवाले अन्य पदार्थों के सबन्ध से रहित एक मात्र वस्तु के न्तन को ध्यान कहते है, जैसा कि कहा है-'छद्मस्थों के एक वस्तु में अन्तर्मुहूर्त मात्र मनका अवस्थान 'ध्यान' कहलाता है। किन्तु जिन भगवान के मन का अभाव होने के कारण योगनिरोध ही होता है, अवस्थान नहीं। वह ध्यान आर्त (१) रौद्र (२) धर्म्य (३) और शुक्ल (४) भेद से चार प्रकार का है, उनमें से (१) आध्यान उस कहते हैं जो अत्ति-मन की व्यथा के साथ, अथवा ऋति-अशुभ के साथ होने वाला हो, अर्थात् इष्ट शब्दादि के सयोग और अनिष्ट के वियोग का चिन्तन करना । जैसा कि लिखा है जिसमें નિવૃત (જ્યા પવન આવી શકે નહિ તેવા) સ્થળે રાખેલા નિશ્ચલ દીપક–દીવાની શિખા સમાન અત્યત સ્થિર ધારાવાહી જ્ઞાનને વિરછેદ કરવાવાળા અન્ય પદાર્થોને સ બ ધથી રહિત એક માત્ર વરતુના ચિન્તનને “ધ્યાન” કહે છે કહ્યું છે કે “છસ્થને એક વસ્તુમાં અન્તર્મહત્ત માત્ર મનનું અવસ્થાન २७ छ तेन ध्यान ४ छे ते ध्यान (१) भात, (२) शैद्र,(8) धन्य, (४) शुsa ભેદ થી ચાર પ્રકારનું છે તેમા (૧) આ ધ્યાન તેને કહે છે કે –જે અતિ–મનની પીડાની સાથે અથવા ઋતિ-અશુભની સાથે થનારૂ હોય, અર્થાત ઈષ્ટ શબ્દાદિને १-ऋतिः-अशुममिति शब्दकल्पद्रुमः । - Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम् - ४ राज्योपभोगशयनाऽऽसनवाहनेपु, स्त्रीगन्धमाल्यमणिरत्नविभूषणेषु । यत्राभिलापमतिमात्रमुपैति मोहाद् ध्यान तदार्त्तमिति समवदन्ति तज्ज्ञाः ॥ १ ॥ ' इति १८९ 'रुद्देण झाणेण' रौद्रेण ध्यानेन, रोदयति = अन्तर्भावितण्यर्थत्वात् सहमोपघातादिपरिणामयुक्तो जीवो व्यथयति पराननेनेति रुद्रः, यद्वा रुद्र इव चण्डाद्रुद्रस्तस्य कर्म रौद्र, तेन ध्यानेन हिंसायतिक्रौर्य भावोपहतेनेत्यर्थः, एतच्चोकम् - ' सछेदनैर्दद्दन - भञ्जन - मारणैश्च, बन्ध-महार-दमनै विनिकृन्तनैश्च रागोदयो भवति येन न चानुकम्पा, ध्यान तु रौद्रमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ||२||' इति । मोहवश राज्य के उपभोग, शय्या, आसन, हाथी, घोडे आदि वाहन, स्त्री, गन्ध, माला, मणि, रत्न, भूषण आदि की इच्छा उत्पन्न हो उसे और इससे विपरीत सयोगों की अनिच्छा करना 'आर्त्तध्यान है' | (२) उपघात आदि परिणामों से जो जीव को रुलाये अर्थात् दुखी करे, अथवा अत्यन्त क्रूर आत्माका जो कर्म (आत्मपरिणामरूप क्रियाविशेष) उसको 'रौद्रध्यान' कहते हैं, जैसे कहा हे- ' जिससे छेदन-भेदन- दहन - मारण- बन्धन-प्रहरण- दमन-कर्तन સચેગ અને અનિષ્ટના વિયેાગનું ચિન્તન કરવુ, જેમકે-જેમા મેહવશ રાજ્યના ઉપલાગ शय्या, भासन, हाथी, घोड़ा आहि वाहुन, स्त्री, गन्ध, भाषा, भधि, रत्न, भूषयु વગેરેની ઈચ્છા ઉત્પન્ન થાય તે અને એસથી વિપરીત સયેગાની અનિચ્છા કરવી તે અત્ત ધ્યાન કહેવાય છે (२) उपधान-वगेरे परिणामोथी लवने रडावे अर्थात्-हु भी हरे, अथवा અત્યંત ક્રૂર આત્માનું જે ક ( આત્મપરિણામરૂપ ક્રિયાવિશેષ ) તેને 'रौद्रध्यान' अड्डे हे नेमके हे नेना द्वारा छेहन, लेहन, हडन, भार, घन, प्रहर], हमन, उर्तन (अध्वु) वगेरेना अशब्थी राग-द्वेषना उध्य थाय भने दया Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ आवश्यकमूत्रस्य एव । 'पडिकमामि' पतिक्रामामि, 'चऊहिं' चतुभिः, 'शाणेहिं' ध्यातिः= ध्यान निर्यातस्थानस्थित निथलमदीपशिखावत स्थिरतर- धारावाहिज्ञानविच्छेदकविषयान्तरसञ्चारानन्तरितकमात्रार्थचिन्तन रूप चित्तैकाग्रतास्वरूप, यदुक्तम् - ' अतोमुहुतमित, वित्तावत्थाणमेगवत्युम्मि | छउमभाण झाण, जोगणिरोहो जिणाण ति' इति । तैः, तद्द्वारा यो मयाऽतिचारः कृतः, इत्याद्यन्वयः प्राग्वत् । क्रमेण भेद चतुष्टयमेवाद - 'अट्टेण झाणेण' आर्सेन ध्यानेन, अत्तिः = मनोव्यथा, तस्या तया सह वा भवमिति, अथवा 'ऋतिः =अशुभ तया सह भवमार्च तेन ध्यानेन मनोज्ञामनोज्ञवस्तुस योगधियोगजनितचित्तोद्रकलक्षणेनेत्यर्थः, तदुक्तमितरत्रापि --- पवन रहित स्थानमें रखे हुए निश्चल दीपकी शिखाके समान अत्यत स्थिर - धारावारी ज्ञानका विच्छेद करनेवाले अन्य पदार्थों के सबन्ध से रहित एक मात्र वस्तु के न्तन को ध्यान कहते हैं, जैसा कि कहा है- 'छद्मस्थों के एक वस्तु में अन्तर्मुहूर्त मात्र मनका अवस्थान 'ध्यान' कहलाता है, किन्तु जिन भगवान के मन का अभाव होने के कारण योगनिरोध ही होता है, अवस्थान नहीं' । वह ध्यान आर्त्त (१) रौद्र (२) धर्म्य ( ३ ) और शुक्ल (४) भेद से चार प्रकार का है, उनमें से (१) आर्तध्यान उसे कहते हैं जो अति-मन की व्यथा के साथ, अथवा ऋति-अशुभ के साथ होने वाला हो, अर्थात् इष्ट शब्दादि के सयोग और अनिष्ट के वियोग का चिन्तन करना । जैसा कि लिखा है 'जिसमें નિર્વાંત ( જ્યા પવન આવી શકે નહિ તેવા ) સ્થળે રાખેલા નિશ્ચલ દ્વીપકીવાની શિખા સમાન અત્યત સ્થિર ધારાવાહી જ્ઞાનને વિચ્છેદ કરવાવાળા અન્ય પદાર્થાંના સબ ધથી રહિત એક માત્ર વસ્તુના ચિન્તનને ધ્યાન ’ કહે છે સ્થને ' એક વસ્તુમા અન્તર્મુહૂ માત્ર મનનું અવસ્થાન હ્યુ છે કે ‘ र छेतेने ध्यान हे छे ते ध्यान (१) भात, (२) रौद्र, (3) धर्म्य, (४) शुस ભેદ થી ચાર પ્રકારનું છે તેમા (૧) આર્ત્તધ્યાન તેને કહે છે કે—જે અત્તિ—મનની પીડાની સાથે અથવા ઋતિ—અશુભની સાથે થનારૂ હાય, અર્થાત્ ઈષ્ટ શબ્દાદિ १ - ऋतिः -- अशुभमिति शब्दकल्पद्रुम । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मुनितोषणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ 'राज्योपभोगशयनाऽऽसनवाहनेपु, स्त्रीगन्धमाल्यमणिरत्नविभूपणेषु । यत्राभिलापमतिमात्रमुपैति मोहाद् ध्यान तदातमिति समवदन्ति तज्ज्ञाः ॥१॥' इति ____ 'रुदेण झाणेण' रौद्रेण ध्यानेन, रोदयति अन्तर्भावितण्यर्थत्वात् सहमोपघातादिपरिणामयुक्तो जीवो व्यथयति पराननेनेति रुद्रः, यद्वा रुद्र इव चण्डस्वादुद्रस्तस्य कर्म रौद्र, तेन ध्यानेन हिंसाबतिक्रौर्यभावोपहतेनेत्यर्थः, एतचोक्तम्-- 'सछेदनैर्दहन-भजन-मारणश्च, वन्ध-महार-दमनैविनिकृन्तनश्च रागोदयो भवति येन न चानुकम्पा, ध्यान तु रौद्रमिति तत्मवदन्ति तज्ज्ञा. ॥२॥ इति । मोहवश राज्य के उपभोग, शय्या, आसन, हाथी, घोडे आदि वाहन, स्त्री, गन्ध, माला, मणि, रत्न, भूषण आदि की इच्छा उत्पन्न हो उसे और इससे विपरीत सयोगों की अनिच्छा करना 'आतध्यान है। (२) उपघात आदि परिणामों से जो जीव को रुलाये अर्थात् दुखी करे, अथवा अत्यन्त क्रूर आत्माका जो कर्म (आत्मपरिणामरूप क्रियाविशेष) उसको 'रौद्रध्यान' कहते हैं, जैसे कहा है- जिससे छेदन-भेदन-दहन-मारण-बन्धन-प्रहरण-दमन-कर्तन સગ અને અનિષ્ટના વિયેગનું ચિન્તન કરવું, જેમકે-જેમા મેહવશ રાજ્યના ઉપભોગ शय्या, भासन, साथी, घास माह 81, सी, गन्ध, भात, भय, २न, भूषष्य વગેરેની ઈરછા ઉત્પન્ન થાય છે અને એ સર્વથી વિપરીત સવેગની અનિચ્છા કરવી તે આ ધ્યાન કહેવાય છે. (૨) ઉપઘાત–વગેરે પરિણામોથી જીવને રડાવે અર્થાત-દુ ખી કરે, અથવા અત્યત દૂર આત્માનું જે કર્મ (આત્મપરિણામરૂપ ક્રિયાવિશેષ) તેને રોકધ્યાન' કહે છે જેમ કહ્યુ છે કે જેના દ્વારા છેદન, ભેદન, દહન, મારણ, બ ધન, પ્રહરણ, દમન, કર્તન (કાપવું) વગેરેના કારણથી રાગ-દ્વેષને ઉદય થાય અને દયા Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमनस्य ___ 'धम्मेण झाणेण' धर्येण ध्यानेन धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणस्तस्मादन पेत-तगुरु 'धम्य, तेन ध्यानेन वीतरागाऽऽज्ञाऽनुचिन्तनेनेत्ययः । एतदप्युक्तम् 'मूत्रार्थसाधनमहारतधारणेपु, ___ बन्धनमोक्षगमनागमहेनुचिन्ता । पञ्चेन्द्रियव्युपरमश्च दया च भूते, ___ ध्यान तु धर्म्यमिति समरदन्ति तज्ज्ञाः ॥३॥' इति । 'सुकेण झाणेण' शुक्लेन ध्यानेन, शुक्लम आरौद्रोक्तदोपराहित्येन निकलङ्कतया स्वच्छम् , यद्वा शुशुच-ज्ञानावरणीयादिकर्ममल क्लबलमयतिअपनयतीति शुक्ल तेन ध्यानेन, दोपमलापगमाच्छुचिस्वरूपेणेत्यर्थः । इदमप्युक्तम् 'यस्येन्द्रियाणि विपयेषु पराङ्मुखानि, सकल्पकल्पनविकल्पविकारदोपः। (काटना) आदि के कारण रागदेषका उदय हो और दया न होऐसे आत्मपरिणाम को 'रौद्रध्यान' कहते हैं। (३) वीतराग की आज्ञारूप धर्म से युक्त ध्यान को 'धम्येध्यान' करते हैं, कहाभी है-'आगम के पठन, व्रतधारण, पन्धमोक्षादि के चिंतन, इन्द्रियदमन तथा प्राणियों पर दया करने को 'धम्र्यध्यान' करते हैं। . (४) शुक्ल अर्थात् सकल दोषों से रहित होने के कारण निर्मल, अथवा शु-ज्ञानावरणीयादि कर्ममल को क्ल-दर रनेवाल ध्यान को 'शुक्ल यान' कहते हैं, जैसा कि कहा है 'जिसकी ન થાય આવા આત્મપરિણામને રોદ્રધ્યાન કહે છે (૩) વીતરાગની આજ્ઞા રૂપ ધર્મયુક્ત ધ્યાનને ધસ્ય ધ્યાન કહે છે કહ્યું છે કે –આગમને સ્વાધ્યાય, વ્રતધારણ, બધ–મોક્ષાદિનું ચિન્તન, ઇદ્રિયદમન તથા પ્રાણીઓ પર દયા કરવી તેને ધમ્મધ્યાન કહે છે (૪) શુકલ આ સકલ થિી રહિત હોવાના કારણે નિર્મલ અથવા શજ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મમલને કલ-દૂર કરનાર ધ્યાનને શુકલધ્યાન કહે છે જેમ કહ્યું છે કે જેની ઇન્દ્રિય વિષયવાસનારહિત હોય, સકપ-વિકલ્પ-દેવ १- 'धर्म्यम्'-'धर्मपध्यर्थन्यायादनपेते' (४।४।९२) इति यत् । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - मुनितोपणी टीका, पतिक्रमणाध्ययनम्-४ योगैस्तथा त्रिभिरहो ? निभृतान्तरात्मा, __ ध्यान तु शुक्लमिदमस्य समादिशन्ति ॥४॥' इति। -- सक्षिप्यपा स्वरूपाण्युक्तानि यथा 'कामाणुरजिय अट्ट, रोद्द हिंसाणुरजिय । धम्माणुरजिय धम्म, मुक्कझाण निरजण ॥१॥' इति ॥ सू० ७॥ ॥ मूलम् ॥ पडिकमामि पंचहि किरियाहि-काइयाए, अहिगरणियाए, पाउसियाए, परितावणियाए, पाणाड़वायकिरियाए । पडिक्कमामि पचहि कामगुणेहि-सद्देण, रूवेणं, गधेण,रसेण, फासेणापडिकमामि पंचहि महव्वएहि-सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमण, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमण, सव्वाओअदिन्नादाणाओ वेरमण, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमण, सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमण। पडिकमामि पचहि समिईहि-इरियासमिईए, भासासमिईए, एसणासमिईए, आयाणभडमत्तनिक्खेवणासमिईए, उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाइन्द्रियाँ विषयवासना रहित हो, सकल्परिकल्पादिदोषयुक्त जो तीन योग उनसे रहित उस महापुरुष के भ्यान को 'शुक्ल यान' कहते है । सक्षेप से चारों का स्वरूप इस प्रकार है-'किसी वस्तुकी कामना से युक्तको आर्त, हिंसादि से युक्त को रौद्र, धर्म से युक्त को धम्य और सब प्रकार के दोषों से रहित को शुक्लध्यान कहते हैं ' ॥ इन चार ध्यानों के निमित्त से जो अतिचार लगा हो उससे मैं निवृत्त होता है। सू०७॥ યુકત જે ત્રણ ચોગ તેનાથી રહિત એવા મહાપુરુષના સ્થાનને શુકલધ્યાન કહે છે સક્ષેપથી ચારે ધ્યાનનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે કેઈ વસ્તુની કામનાથી યુક્તને આર્તા, હિંસાદિથી યુકતને રોદ્ર, ધર્મથી યુક્તને ધર્મો અને સર્વ પ્રકારના દેવ રહિતને શુકલધ્યાન કહે છે આ ચાર ધ્યાને નિમિત્તથી જે કાઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેનાથી હુ નિવૃત્ત થાઉં છું (સ. ૭) १- कामानुरञ्जितमा रौद्र हिंसातुरञ्जितम् । धर्मानुरञ्जित धये, शुल्कभ्यान निररुजनम् ।। १ ।। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकममस्य 'धम्मेण झाणेण' धर्येण ध्यानेन धर्मः श्रुवचारित्ररक्षणस्तस्मादनपेत-तगुक 'धये, तेन ध्यानेन वीतरागाऽज्ञाऽनुचिन्तनेनेत्यर्थः । एतदप्युक्तम् 'मूत्रार्थसाधनमहारतधारणेपु, बन्धममोक्षगमनागमहेतुचिन्ता । पश्चेन्द्रियव्युपरमश्च दया च भूते, ___ ध्यान तु धर्म्यमिति समबदन्ति तज्ज्ञाः ॥३॥' इति । 'मुक्केण झाणेण' शुक्लेन ध्यानेन, शुरुम् आर्चरौद्रोक्तदोपराहित्येन निष्कलङ्कतया स्वच्छम् , यद्वा शु-शुचम्झानावरणीयादिकर्ममल क्लम्चलमयतिअपनयतीति शुक्ल तेन ध्यानेन, दोपमलापगमाच्छुचिस्वरूपेणेत्यर्थः । इदमप्युक्तम् 'यस्येन्द्रियाणि विपयेषु पराङ्मुखानि, __सकल्पकल्पनविकल्पविकारदोपः। (काटना) आदि के कारण रागद्वेषका उदय हो और दया न होऐसे आत्मपरिणाम को 'रौद्रध्यान' कहते हैं। (३) वीतराग की आज्ञारूप धर्म से युक्त ध्यान को 'धम्यध्यान' कहते हैं, कहाभी है-'आगम के पठन, व्रतधारण, बन्धमोक्षादि के चिंतन, इन्द्रियदमन तथा माणियों पर दया करने को 'धम्यध्यान' करते हैं। (४) शुक्ल अर्थात् सकल दोपों से रहित होने के कारण निर्मल, अथवा शु-ज्ञानावरणीयादि कर्ममल को क्ल-दर रनेवाले ध्यान को 'शुक्ल यान' कहते हैं, जैसा कि कहा है 'जिसकी ન થાય આવા આત્મપરિણામને “રીદ્રધાને કહે છે (૩) વીતરાગની આજ્ઞા રૂપ ધર્મયુક્ત ધ્યાનને ધમ્ય ધ્યાન કહે છે કહ્યું છે કે –આગમને સ્વાધ્યાય, વ્રતધારણ, બધ-મેક્ષાદિનું ચિન્તન, ઈદ્રિયદમન તથા પ્રાણીઓ પર દયા કરવી તેને ધયાન કહે છે () શુકલ આ સકલ દેથી રહિત રહેવાના કારણે. નિર્મલ અથવા શ-જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મમલને કલ-દૂર કરનાર યાનને શુકલધ્યાન કહે છે જેમ કહ્યું છે કે જેની ઇન્દ્રિય વિષયવાસનારહિત હોય, સક-૫-વિક-૫-દેશ १- 'धर्म्यम्'-'धर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते' (४।४।९२) इति यत् । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ व्यापार', इय त्रिविधा-अविरतकायिकी, दुप्पणिहितकायिकी, उपरतकायिकी चेति, तत्राविरतानातरहिताना सम्यग्दृष्टीना मिथ्यादृष्टीना च कर्मवन्धनहेतुभूता उत्क्षेपादिस्वरूपा प्रथमा, द्वितीया द्विविधा-इन्द्रियदुप्पणिहितकायिकी नोइन्द्रियदुष्पणिहितकायिकी च, इय द्विविधाऽपि प्रमत्तसयताना क्रियोच्यते, तत्र इन्द्रियैः चक्षुःश्रोत्रादिभिः दुष्पणिहितस्य इष्टानिष्टविपयसमाप्तौ किश्चिन्मोक्षमार्ग प्रति दुर्व्यवस्थितस्य कायेन नित्ताऽऽया, नोइन्द्रियेण मनसा दुप्पणिहितस्याऽशुभसरल्पेन दुर्व्यवस्थितस्य कायेन निर्वृत्ताऽपरा । उपरतस्य प्रायः सावधयोगनिवृत्तस्याऽप्रमत्तसयतस्य कायेन निवृत्ता-उपरतिकायिकी तृतीया, तया (२) दुष्प्रणिहितकायिकी (3) उपरतकायिकी। मिथ्यादृष्टियों और अविरतसम्यग्दृष्टियों की कर्मयन्धन के हेतुभूत क्रिया को _ 'अविरतकायिकी' कहते हैं। दुष्प्रणिहितकायिकी क्रिया दो प्रकारकी है-(१) इन्द्रियदुष्प्रणिहितकायिकी, (२) नोइन्द्रियदुष्प्रणिहितकायिकी, ये दोनों क्रियाए प्रमत्त साबुओं की हैं। उनमे चक्षु आदि इन्द्रियों की चपलता के कारण मोक्षमार्ग के प्रति अव्यवस्थित (अस्थिर) के काय से होनेवाली क्रिया को 'इन्द्रियदुष्प्रणिहितकायिकी' कहते हैं, ऐसे ही नोइन्द्रिय (मन) के अशुभ सकल्प के द्वारा अव्यवस्थित के काय से होनेवाली क्रिया को नोडन्द्रियदुष्प्रणिहितकायिकी' कहते हैं। प्रायः सावध योग से निवृत्त अप्रमत्त सयत के काया से होनेवाली क्रिया को 'उपरतकायिकी' कहते है। (१) छ (१) मपिरतxf481, (५) दुअपिहितायी, (3) S५istrial भिथ्याદૃષ્ટિઓ અને અવિરતસમ્યગ્દષ્ટિઓની કર્મબન્ધનની હેતુભૂત ક્રિયાઓને “અવિરતકાયિકી” કહે છે દુપ્રણિહિતગાયિકી ક્રિયા બે પ્રકારની છે (૧) ઈન્દ્રિયદુપ્રણિહિતકાયિકી, (૨) નેઈદ્રિયદુપ્રણિતિકાયિકી, આ બન્ને ક્રિયાઓ પ્રમત્ત સાધુઓની છે તેમાં ચબુ આદિ ઈન્દ્રિઓની ચપલતાને કારણે મેક્ષમાર્ગમાં અસ્થિર કાયાવી થવા વાળી ક્રિયાઓ ઈન્દ્રિયદુપ્પણિહિતકાયિકી કહેવાય છે એ પ્રમાણે નેઈન્દ્રિય (મન) ના અશુભ સ ક ૫ દ્વારા અસ્થિર કાયાથી થવાવાળી ક્રિયાઓને નેઈન્દ્રિયદુપ્રણિહિતકાયિકી ક્રિયા કહે છે પ્રાય-ઘણુ કરીને સાવધ રેગથી નિવૃત્ત અપ્રમત્ત સયતીની કથા વડે વવાવાળી ક્રિયાઓને ઉપરત કાયિકી ક્રિયા કહે છે કે ૧u Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य णपारिठावणियासमिईए। पडिकमामि छहिं जीवनिकाएहिपुढविकाएणं, आउकाएण, तेउकाएण, वाउकाएण, वणस्सइकारणं, तसकाएण। पडिकमामि छहिं लेसाहि-किण्हलेसाए, नीललेसाए, काउलेसाए, तेउलेसाए, पउमलेसाए, सुकलेसाए ॥सू०८॥ ॥छाया ॥ प्रतिक्रामामि पञ्चभिः क्रियाभिः-कायिक्या, आधिकरणिक्या, प्राद्वेपिक्या, पारितापनिक्या, माणातिपातक्रियया। प्रतिक्रामामि पञ्चमिः कामगुणैः-शब्देन, रूपेण, गन्धेन, रसेन, स्पर्शेन । प्रतिक्रामामि पञ्चभिमहावतःमाणातिपाताद्विरमणेन, मृपावादाद्विरमणेन, अदत्तादानाद्विरमणेन, मैथुनाद्विरमणेन, परिग्रहाद्विरमणेन । प्रतिक्रामामि पञ्चभिः समितिभिः-ईर्यासमित्या, भापासमित्या, एपणासमित्या, भाण्डमात्रादाननिक्षेपणासमित्या, उच्चारणभरवणखेलजल्लसिंघाणपारिष्ठापनिकासमित्या । प्रतिक्रामामि पभिर्जीवनिकाय:पृथ्वीकायेन, अप्कायेन, तेजस्कायेन, वायुकायेन, वनस्पतिकायेन, उसकायेन । प्रतिक्रामामि पद्भिर्लेश्याभिः-कृष्णलेश्यया, नीललेश्यया, कापोतलेश्यया, तेजोलेश्यया, पालेश्यया, शुक्ललेश्यया ॥ सू० ८ ॥ ॥ टीका ॥ 'पडिकमामि' प्रतिक्रामामि, 'पचहि' पञ्चभिः, 'किरियाहि' क्रिया करण व्यापारस्तेन तद्द्वारेत्यर्थः, बहुवचन, 'यो मयाऽतिचारः कृत इत्यादिसम्बन्ध माग्वत् , क्रियापञ्चकमेवाह--'काइ०' इति 'काइयाए' चीयन्ते एकत्रीभवन्ति अस्मिन्नस्थ्यादय इति काय: शरीर तेन निवृत्ता क्रिया कायिकी-शरीर क्रिया पाच प्रकारकी है-(१) कायिकी (२) आधिकरणिकी, (३) प्रादेषिकी, (४) पारितापनिकी (५) प्राणातिपातकी । जिसमें अस्थि आदि हो उसे काय करते हैं। उससे होनेवाली क्रिया को 'कायिकी' कहते हैं, वह तीन प्रकारकी है-(१) अविरतकायिकी, या पाय मानी छ (१) यिडी, (२) माविकी (3) पावडी, (૪) પારિતાપનિકી, (૫) પ્રાણાતિપાતિક જેમાં અસ્થિ-હાડકા વગેરે હોય તેને કાય પર છે અને તેના વડે થવા વાળી ક્રિયાને “કાયિકી કહે છે તે ત્રણ પ્રકારની Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ व्यापारः, इय त्रिविया-अविरतकायिकी, दुप्पणिहितकायिकी, उपरतकायिकी चेति, तत्राविरतानातरहिताना सम्यग्दृष्टीना मिथ्यादृष्टीना च कर्मवन्धनहेतुभूता उत्क्षेपादिस्वरूपा प्रथमा, द्वितीया द्विविधा-इन्द्रियदुप्पणिहितकायिकी नोइन्द्रियदुप्पणिहितकायिकी च, इय द्विविधाऽपि प्रमत्तसयताना क्रियोन्यते, तत्र इन्द्रियैः चक्षुःश्रोत्रादिभिः दुष्पणिहितस्य-रष्टानिष्टविषयसमाप्तौ किश्चिन्मोक्षमार्ग पति दुर्व्यवस्थितस्य कायेन नित्ताऽऽया, नोइन्द्रियेण मनसा दुप्पणिहितस्याऽशुभसकल्पेन दुर्व्यवस्थितस्य कायेन निर्वृत्ताऽपरा । उपरतस्य मायः सावद्ययोगनिवृत्तस्याऽपमत्तसयतस्य कायेन निवृत्ता-उपरतिकायिकी तृतीया, तया (२) दुष्प्रणिहितकायिकी (3) उपरतकायिकी। मिथ्यादृष्टियों और अविरतसम्यग्दृष्टियो की कर्मचन्धन के हेतुभूत क्रिया को 'अविरतकायिकी' कहते हैं। दुष्प्रणिहितकायिकी क्रिया दो प्रकारकी है-(१) इन्द्रियदुष्प्रणिहितकायिकी, (२) नोइन्द्रियदुष्प्रणिहितकायिकी, ये दोनों क्रियाए प्रमत्त साधुओं की हैं। उनमे चक्षु आदि इन्द्रियों की चपलता के कारण मोक्षमार्ग के प्रति अव्यवस्थित (अस्थिर) के काय से होनेवाली क्रिया को 'इन्द्रियदुष्प्रणिहितकायिकी' कहते हैं, ऐसे ही नोइन्द्रिय (मन) के अशुभ सकल्प के द्वारा अव्यवस्थित के काय से होनेवाली क्रिया को नोइन्द्रियदुष्प्रणिहितकायिकी' कहते हैं। प्राय. सावध योग से निवृत्त अप्रमत्त सयत के कापा से होनेवाली क्रिया को 'उपरतकायिकी' करते है। (१) , छ (१) भवितयि31, (५) प्रणितियी , (3) Systयिही मिथ्याદૃષ્ટિઓ અને અવિરતસમ્યગષ્ટિઓની કર્મબન્ધનની હેતુભૂત ક્રિયાઓને “અવિરતકાયિકી” કહે છે દુપ્રણિહિતકાયિકી ક્રિયા બે પ્રકારની છે (૧) ઈન્દ્રિયદુપ્રણિહિતકાયિકી, (૨) નેઈન્દ્રિયદુપ્રણિહિતકાયિકી, આ બન્ને ક્રિયાઓ પ્રમત્ત સાધુઓની છે તેમાં ચક્ષુ આદિ ઈન્દ્રિઓની ચપલતાને કારણે મેક્ષમાર્ગમાં અસ્થિર કાયાથી થવા વાળી ક્રિયાઓ ઈન્દ્રિયદુપ્રણિહિતકાયિકી કહેવાય છે. એ પ્રમાણે નેઈન્દ્રિય (મન) ના અશુભ સંકલ્પ દ્વારા અસ્થિર કાયાથી થવાવાળી કિયાઓને ઈન્દ્રિયદુપ્પણિહિતાયિકી ક્રિયા કહે છે પ્રાય-ઘણુ કરીને સાવદ્ય વેગથી નિવૃત્ત અપ્રમત્ત સનીની કયા વડે થવાવાળી ક્રિયાઓને ઉપરત કાયિકી ક્રિયા કહે છે ૧ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ आवश्यक सूत्रस्य त्रिविधस्वरूपया, ' अहिगरणियाए' अधिक्रियते = समाधीयते = प्राप्यते नरकादि फुगतो जीवोऽनेनेत्यधिकरण= खड्गादि, तत्र भवाऽऽधिकरणिकी, इय द्विविधा-सयोजनाधिकरणिकी निर्वर्त्तनाधिकरणिकी चेति, यस्या खङ्गतत्कोपादिकयोः सयोजन क्रियते सा सयोजनाधिकरणिकी, यस्या च खङ्गतोमरादीनामादितो निर्वर्त्तननिष्पादन सा निर्वर्तनाधिकरणिकी तया, 'पाउसियाए ' मद्वेषः = मत्सरस्तत्र भवा माद्वेषिकी तया, एपा द्विविधा - जीवमाद्वेपिकी अजीवमाद्वेषिकी च, तत्राऽऽथाजीवमद्वेषेण निर्वृत्ता, द्वितीया चाऽजीवमद्वेषेण = पापाणादिस्खलनादिना यो द्वेष जिसके द्वारा आत्मा नरकादि कुगति में जावे, ऐसे खड्गादि से होनेवाली क्रियाको 'आधिकरणिकी' किया कहते हैं । वह दो प्रकार की है- (१) सयोजनाधिकरणिकी और (२) निर्वर्त्तनाधिकरणिकी, जिसमें खड्ग आदि का कोष ( म्यान) आदि के साथ सयोग किया जाय वह 'सयोजनाधिकरणिकी' है, और जिस (क्रिया) में खड्ग आदि बनाये जायँ उसे 'निर्वर्त्तनाधिकरणिकी' क्रिया कहते है ॥ २ ॥ द्वेष से युक्त क्रिया को 'प्रादेषिकी' क्रिया कहते हैं, वह दो प्रकार की है- (१) जीवप्रादेपिकी और (२) अजीवप्राद्वेषिकी । जीव पर द्वेष करने से होनेवाली क्रिया को 'जीवप्राद्वेषिकी' और अजीव पाषाणादि की ठोकर आदि लगने के कारण उस पर द्वेष करने से होनेवाली क्रिया को 'अजीवप्रादेषिकी' क्रिया कहते हैं ॥ ३ ॥ જેના વડે આત્મા નકાદિ કુગતિમા જાય, એવી તલવાર આદિ શસ્ત્રથી થવાવાળી ક્રિયાઓને ‘આધિકરણિકી' ક્રિયા કહે છે, તે એ પ્રકારની છે (૧) સવૈ જનાધિકરણુકી (૨) અને નિવત્તનાધિકરણિકી' જેમા તલવાર આદિના કોષ (મ્યાન) આદિ સાથે સ ચેગ કરવામા આવે તે ‘સયેાજનાધિકર્તણુકી' છે અને જે ક્રિયામા તલવાર આદિ બનાવવામા આવે તેને નિવત્તનાધિકરણિકી' કહે છે દ્વેષયુક્ત ક્રિયાને પ્રા ષિક્રી' ક્રિયા કહે છે તે બે પ્રકારની છે (૧) જીવ પ્રાદેષિકી અને (૨) અજીવપ્ર વેષિકી, જીવઉપર અપ કરવાથી થવા વાળી ક્રિયાને જીવપ્રાદ્રેષિકી' ક્રિયા કહે છે અને અજીવ–પાષાણુ આદિની ઠાકર લાગવાના કારણે તેના ઉપર દ્વેષ કરવાથી થવા વાળી ચાને અજીવપ્રાદેશિકી” ક્રિયા કહે છે. ૩ા Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ १९५ - स्तेन निर्वृत्ता, 'पारितावणियाए' परितापन= दुःख तेन निर्वृत्ता तत्र भवा वा पारितापनिकी-खड्गाद्याघातेन पीडाकरण तया,इयमपिद्विविधा स्वहस्तपारितापनिकी परहस्तपारितापनिकी च, स्वहस्तेन स्वपरदेहस्य दुःखमुत्पादयतः प्रथमा, परहस्तेन तथा कारयतो द्वितीया, 'पाणाइवायकिरियाए' प्राणाः सन्त्येपामिति प्राणा: प्राणिनातेपामतिपातो-नाशः भाणातिपातः स एव क्रिया माणातिपातक्रिया तया, एपापि द्विविधा-स्वहस्तपाणातिपातक्रिया परहस्तपाणातिपातप्रिया च, इहापि पाणपदेन प्राणिनो ग्रहण प्राग्वत् , तत्र स्वहस्तेन माणातिपात कुर्वतः खड्ग आदि के द्वारा पीडा पहुँचाने को 'पारितापनिकी' क्रिया कहते हैं, उसके दो भेद है-(१) स्वहस्तपारितापनिकी, और (२) परहस्तपारितापनिकी । अपने हाथ से परको दुःख पहुँचाने वाली क्रिया को 'स्वहस्तपारितापनिकी और अन्य द्वारा दूसरे को दुख पहुँचाने वाली क्रिया को 'परहस्तपारितापनिकी' क्रिया कहते हैं ॥४॥ प्राणियों का नाश करने को 'प्राणातिपात' क्रिया कहते हैं। यह भी दो प्रकार की है-(१) स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया, और (२) परहस्तप्राणातिपातक्रिया। अपने हाथ से प्राणियों का नाश करने को 'स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया,' और पराये हाथ से प्राणियों का नाश करने को 'परहस्तप्राणातिपातक्रिया' कहते हैं ॥५॥ તલવાર આદિ હથિઆર વડે પીડા પહચાડવી તેને “પારિતાપનિકી ક્રિયા” કહે છે, તેના બે ભેદ છે (૧) “સ્વહસ્તપરિતાપનિકી અને (૨) “પરહસ્ત પરિતાપનિકી પિતાના હાથ વડે પરને દુખ પહોચાડવા વાળી ક્રિયાને “સ્વહરત પરિતાપનકી ક્રિયા કહે છે અને અન્ય દ્વારા બીજાને દુ ખ પહોચાડવું તે ક્રિયાને “પરહસ્તપરિતાપનિકી” ક્રિયા કહે છે જો પ્રાણીઓના નાશને “પ્રાણાતિપાત ક્રિયા કહે છે તેના પણ બે ભેદ છે, (૧) સ્વહસ્તપ્રાણાતિપાતક્રિયા અને (૨) પરહસ્તપ્રાણાતિપાતક્રિયા, પિતાના હાથ વડે પ્રાણીઓને નાશ કરે તેને “સ્વહસ્તપ્રાણુતિપાતક્રિયા કહે છે અને બીજાના હાથથી પ્રાણુઓને નાશ થાય તેવી ક્રિયાને પરહસ્તપ્રાણાતિપાત ક્રિયા કહે છે ૫ १- प्राणा'-अर्श आदित्वान्मत्वर्थीयोऽच् । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकत्रस्य - - - त्रिविधस्वरूपया, 'अहिगरणियाए' अधिक्रियते समाधीयते पाप्यते नरकादि फुगतो जीवोऽनेनेत्यधिकरण-खड्गादि, तत्र भवाऽऽधिकरणिकी, इय द्विविधा-सयोजनाधिकरणिकी निर्वर्तनाधिकरणिकी चेति, यस्या खड्गतकोपादिकयोः सयोजन क्रियते सा सयोजनाधिकरणिकी, यस्या च खातोमरादीनामादितो निर्वतन-- निष्पादन सा निवर्तनाधिकरणिकी तया, 'पाउसियाए' प्रद्वेपा-मत्सरस्तत्र भवा प्रापिकी तया, एपा द्विविधा-जीवमापिकी अनीवमाद्वेपिकी च, तत्राऽऽयाजीवपद्वेषेण निवृत्ता, द्वितीया चाऽजीवपद्वेपेण-पापाणादिस्खलनादिना यो द्वेष जिसके द्वारा आत्मा नरकादि कुगति में जावे, ऐसे खड्गादि से होनेवाली क्रियाको 'आधिकरणिकी' क्रिया करते हैं। वह दो प्रकार की है-(१) सयोजनाधिकरणिकी और (२) निर्वर्तनाधिकरणिकी, जिसमें खड्ग आदि का कोष (म्यान) आदि के साथ सयोग किया जाय वह 'सयोजनाधिकरणिकी' है, और जिस (क्रिया) में खड्ग भादि बनाये जाय उसे 'निर्वर्तनाधिकरणिको' क्रिया कहते है ॥२॥ द्वेष से युक्त क्रिया को 'प्रादेषिकी क्रिया कहते हैं, वर दो प्रकारकी है-(१) जीवप्रादेषिकी और (२) अजीवप्रादेषिकी। जीव पर द्वेष करने से होनेवाली क्रिया को 'जीवप्रादेषिकी' और अजीव पाषाणादि की ठोकर आदि लगने के कारण उस पर वेष करने से होनेवाली क्रिया को 'अजीवप्रादेषिकी' क्रिया कहते हैं ॥३॥ જેના વડે આત્મા નરકાદિ કુગતિમાં જાય, એવી તલવાર આદિ શસ્ત્રથી થવાવાળી શિયાઓને “અધિકરણિકી' ક્રિયા કહે છે, તે બે પ્રકારની છે (૧) સર્ચ જનાધિકરણિકી (૨) અને “નિર્વત્તાધિકરણિકી જેમાં તલવાર આદિને કેલ (મ્યાન) આદિ સાથે સોગ કરવામાં આવે તે “સજનાધિકરણિકી છે અને જે ક્રિયામાં તલવાર આદિ બનાવવામાં આવે તેને “નિવર્સનાધિકરણિકી” કહે છે છેષયુક્ત ક્રિયાને “પ્રા પિકી ક્રિયા કહે છે તે બે પ્રકારની છે (૧) જીવ પ્રાદેશિકી અને (૨) અજીવ, વિકી, જીવઉપર બંધ કરવાથી થવા વાળી ક્રિયાને જીવપ્રાષિી ' દિયા કહે છે અને અજીવ-પાષાણ આદિની ઠોકર લાગવાના કારણે તેના ઉપર લેપ કરવાથી થવા વાળી દયાને “અજીવપ્રહેલિકી” ક્રિયા કહે છે ૩ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम् -४ १९५ स्तेन निर्वृत्ता, 'पारितावणियाए' परितापन = दुःख तेन निर्वृत्ता तत्र भवा वा पारिवापनिकी = खड्गाद्याघातेन पीडाकरण तथा, इयमपि द्विविधा स्वहस्तपारितापनिकी परहस्तपारितापनिकी च, स्वहस्तेन स्वपरदेहस्य दुःखमुत्पादयतः प्रथमा, परहस्तेन तथा कारयतो द्वितीया, 'पाणाइवायकिरियाए ' प्राणाः सन्त्येपामिति 'वाणाः = प्राणिनः तेपामतिपातो = नाशः प्राणातिपातः स एव क्रिया माणातिपातक्रिया तया, एपापि द्विविधा - स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया परहस्तमाणातिपातक्रिया च, इहापि प्राणपदेन प्राणिनो ग्रहण प्राग्वत्, तत्र स्वहस्तेन माणातिपात कुर्वतः खड्ग आदि के द्वारा पीडा पहुँचाने को 'पारितानिकी ' क्रिया कहते हैं, उसके दो भेद है - (१) स्वहस्तपारितापनिकी, और (२) परहस्तपारितापनिकी । अपने हाथ से परको दुःख पहुँचाने वाली क्रिया को 'स्वहस्तपारितापनिकी' और अन्य द्वारा दूसरे को दुख पहुँचाने वाली क्रिया को 'परहस्तपारितापनिकी' क्रिया कहते हैं ॥४॥ प्राणियों का नाश करने को 'प्राणातिपात' क्रिया कहते हैं । यह भी दो प्रकार की है- (१) स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया, और (२) परहस्तप्राणातिपातक्रिया । अपने हाथ से प्राणियों का नाश करने को 'स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया' और पराये हाथ से प्राणियों का नाश करने को 'परहस्तप्राणातिपातक्रिया' कहते हैं ॥५॥ તલવાર આદિ થિાર વડે પીડા પહેાચાડવી તેને પારિતાપનિકી ક્રિયા” કહે છે, તેના એ ભેદ છે (૧) ‘સ્વહસ્તપારિતાપનિકી' અને (૨) ‘પરહસ્ત પારિતાપનિકી' પેાતાના હાથ વડે પરને ક્રુ ખ પહાચાડવા વાળી ક્રિયાને વહરત પારિતાપનિકી ક્રિયા કહે છે અને અન્ય દ્વારા ખીજાને દુખ પહાચાડવું તે ક્રિયાને પરહસ્તપારિતાપનિકી' ક્રિયા કહે છે ૫ ૪ ના પ્રાણીઓના નાશને ‘પ્રાણાતિપાત’ ક્રિયા કહે છે તેના પણ એ એક छे, ( 1 ) स्वहस्तप्राशातिपातडिया अने (२) परहस्तप्रायातिपातठिया, पोताना હાથ વડે પ્રાણીઓને નાશ કરવે તેને સ્વહસ્તમાાતિપાક્રિયા' કહે છે અને ખીજાના હાથથી પ્રાણીઓના નાથ થાય તેવી ક્રિયાને ઃ પરહસ્તપ્રાણાતિપાત किया ! हे ॥ ५॥ १- प्राणाः - अर्श आदित्वान्मत्वर्थीयोऽच् । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ आवश्यक सूत्रम्य क्रिया प्रथमा, परहस्तेन सा द्वितीया । 'पडिक्मामि, प्रतिक्रामामि 'पचहिं' पञ्चभिः, 'कामगुणेहिं' काम्यन्ते= भोगार्थिभिरभिलप्यन्ते इति कामाः शब्दा धास्ते च ते कामवृद्धिकारणत्वात् गुणा (पुद्गलधर्मा ) व कामगुणाः, यद्वा कामस्य=कन्दर्पस्याऽभिलापमात्रस्य वा सम्पादका गुणाः कामगुणास्तैर्निषिद्धा चरणद्वारेत्यर्थः ' यो मयाऽतिचारः कृत इत्यादिसम्बन्धो भूतपूर्वः, 'काम गुणपञ्चकमेवाsse - 'सदेण' इति 'सदेण' शादयते उच्चार्यत इति शब्दः = कर्णेन्द्रिय ग्राह्यनियतक्रमवर्णस्वरूपस्तेन, 'रूत्रेण' रूप्यते = विलोक्यते इति रूप = चक्षुर्विषय नीलपीतादिलक्षण तेन, 'गधेण' गन्ध्यते = आघायत इति मन्यः प्राणेन्द्रिय विपयश्चन्दनकर्पूरादिस्तेन, 'रसेण' रस्यते= आस्वायत इति रस रसनेन्द्रियविपयो मधुरादिस्तेन, 'फासेण' स्पृश्यते = छुप्यत इति स्पर्शः = त्वगिन्द्रियविषयः इन क्रियाओं के द्वारा मुझ से जो अतिचार किया गया हो उसकी मे निवृत्ति करता हूँ । शब्द- जो घोला जाय उस को शब्द कहते है, वह कर्णेन्द्रियग्राह्य मनोज्ञ-अमनोज्ञ वर्णमालास्वरूप है । रूप जो देखा जाय उसको रूप करते है, वह चक्षु इन्द्रिय का विषय नील - पीतादि है । गन्ध-जो सूघा जाय उसको गन्ध कहते है, वह घ्राणेन्द्रिय का विषय चन्दन कपूर आदि है । रस- जो चक्खा जाय उसको रस कहते हैं वह रसना इन्द्रिय का विषय मधुर आदिक है । स्पर्श-जो स्पर्श किया जाय ( छुआ जाय उस को स्पर्श कहते है, वह स्पर्श इन्द्रिय का विषय આ ક્રિયા વડે કરી મને જે અતિચાર લાગ્યા હાય તા તેનાથી હું નિવૃત્ત થાઉં છુ શબ્દ જે બેલવામા આવે છે તેને શબ્દ કહે છે, તે કોઈન્દ્રિય ગ્રાહ્ય અને મનેજ્ઞ અમનેાન્ત વર્ણમાલા સ્વરૂપ છે. રૂપ-જે જોવામા આવે તેને રૂપ કહે છે, તે ચક્ષુ ઇન્દ્રિયના વિષય લીલા પીળા આદિ છે ગન્ધ—જે સુઘવામા આવે તેને ગન્ધ કહે છે, તે ઘ્રાણેન્દ્રિયના વિષય સૂખડ કપૂર આદિ છે રસ-જે ચાખવામાં આવે તેને રસ કહે છે, તે રસના ઈન્દ્રિયના વિષય મધુર આદિક છે સ્પ—જેના સ્પર્શ કરવામા આવે તેને સ્પર્શી કહે છે તે સ્પર્શેન્દ્રિયના વિષય માલા, સૂખડે, टि० १ - 'छुप स्परों' तुदादिरनिट् परस्मैपदी । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - मुनितोपणी टीका, मतिक्रमणाध्ययनम्-४ स्रक्चन्दनागनादिस्तेन । 'पडिकमामि' प्रतिक्रामामि 'पचहि' । पञ्चभिः, 'महन्नएहि व्रत शास्त्रमर्यादानुसरण, महान्ति विशालानि च तानि ब्रतानि महाव्रतानि नै, महत्त्व चैपा म्हहिस्तीर्थकरगणधरादिभिराचरितत्वेन महापुरुषाऽऽचर्यमाणत्वेन सर्वव्यापकत्वेन श्रावकरतापेक्षया च योन्य, तैस्तत्महकृत इति तात्पर्य 'यो मयाऽतिचार• कृतः' इत्यादिसम्बन्यो यथापूर्वम्, महारतपञ्चकमेवाद-~'सव्वा०' इति । 'सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमण' सर्वस्मात् निखिलात्-स्थूलसूक्ष्मादियावद्भेदविशिष्टात् कृत-कारिता-ऽनुमोदितस्वरूपाच, प्राणा: उच्छ्वासनिःश्वासादयस्तेषामतिपातो-वियोजन=हिंसनमिति यावत्, उनच-पत्रेन्द्रियाणि त्रिविध वल च, उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्विरुक्ता, स्तेपा वियोगीकरण तु हिंसा' इति, तस्माद्विरमण माला, चन्दन, अगना आदि है। ये पाच काम (विपय भोग के अमिलाप) गुण (वर्द्धक) हैं, अर्थात् ये आत्मा के स्वभाविक गुणों का नाश करने वाले हैं, इन कामगुणों द्वारा मुझसे जो अतिचार किया गया हो उसकी मैं निवृत्ति करता है। __ शास्त्रकी मर्यादामें चलने का नाम 'व्रत' है, इन्हें तीर्थकर गणधर आदि महापुरुषोंने स्वीकार किये अथवा ये महापुरुषों के ही आचरण करने योग्य होने से और श्रावक के व्रतों की अपेक्षा पडे होने के कारण 'महाव्रत' कहलाते हैं, वे पाच हैं-(१) कृत-कारित-अनुमोदित रूप सब प्रकार से स्थूल-सूक्ष्म आदि समस्त जीवो के प्राणों (पाच इन्द्रिया, तीन पल, श्वासोच्छ्वास અગન આદિ છે આ પાચ કામ વિષયભેગની અભિલાષા) ગુણ (વર્ધક) છે અર્થાત્ તે આત્માના સ્વાભાવિક ગુણેના નાશ કરવાવાળા છે તે કામ ગુણેથી મારાથી અતિચાર થયા હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉં છું શાસ્ત્રોની મર્યાદામા ચાલવાનું નામ “વ્રત છે આ વ્રત તીર્થકર અને ગણધર આદિ મહાપુરૂએ સ્વીકાર કરેલ છે, અથવા એ મહાપુરૂને જ આચરણ કરવા એગ્ય હોવાથી અને શ્રાવકેના વ્રતની અપેક્ષા મેટા હોવાથી “મહાવ્રત કહેવાય છે, તે પાચ પ્રકારના છે-(૧) કરવું, કરાવવું અને કરતા હોય તેને અનુ મદન રૂપ સર્વ પ્રકારથી સ્થલ-સૂમ આદિ તમામ જીના પ્રાણ (પાચ ઈન્દ્રિ, Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ आवश्यकमूत्रम्य क्रिया प्रथमा, परहस्तेन सा द्वितीया । 'पडिकमामि, प्रतिक्रामामि ‘पचर्डि' पञ्चभिः, 'कामगुणेहि' काम्यन्ते मोगाधिमिरभिलप्यन्ते इति कामा:-शब्दाघास्ते च ते कामादिकारणत्वात् गुणा (पुद्गलधर्मा) व कामगुणाः, यद्वा कामस्य-कन्दर्पस्याऽभिलापमात्रस्य वा सम्पादका गुणाः कामगुणास्तेनिषिद्धा घरणद्वारेत्यर्थः 'यो मयाऽतिचारः कृत' इत्यादिसम्बन्धो भूतपूर्वः, 'काम गुणपञ्चकमेवाऽऽह-'सद्देण' इति 'सदेण' शन्दयते-उच्चार्यत इति शब्दा-कर्णन्द्रिय ग्राह्यनियतक्रमवर्णस्वरूपस्तेन, 'रूवेण' रूप्यते-विलोक्यते इति रूप-चक्षुविषय नीलपीतादिलक्षण तेन, 'गण' गन्ध्यते आघायत इति गन्धः घाणेन्द्रिय विपयश्चन्दनकर्पूरादिस्तेन, 'रसेण' रस्यते-आस्वायत इति रस-रसनेद्रिय विपयो मधुरादिस्तेन, 'फासेण' स्पृश्यते छुप्यत' इति स्पर्शः त्वगिन्द्रियविषयः __इन क्रियाओं के द्वारा मुझ से जो अतिचार किया गया हो उसकी मैं निवृत्ति करता हूँ। शब्द-जो बोला जाय उस को शब्द कहते हैं, वह कर्णेन्द्रियग्राह्य मनोज्ञ-अमनोज्ञ वर्णमालास्वरूप है। रूप-जो देखा जाय उसको रूप कहते हैं, वह चक्षु इन्द्रिय का विषय नील-पीतादि है। गन्ध-जो सूघा जाय उसको गन्ध कहते हैं, वह घ्राणेन्द्रिय का विषय चन्दन कपूर आदि है । रस-जो चक्खा जाय उसको रस कहते है वह रसना इन्द्रिय का विषय मधुर आदिक है । स्पर्श-जो स्पर्श किया जाय (छुआ जाय) उस को स्पर्श कहते है, वह स्पर्श इन्द्रिय का विषय આ ક્રિયાઓ વડે કરી મને જે અતિચાર લાગ્યા છે તે તેનાથી હું નિવૃત્ત થાઉં છું શબ્દ-જે બોલવામાં આવે છે તેને શબ્દ કહે છે, તે કણેન્દ્રિય ગ્રાહ્યા અને મનેઝ અમને વર્ણમાલા સ્વરૂપ છે રૂપ-જે જોવામાં આવે તેને રૂપ કહે છે, તે ચક્ષુ ઈન્દ્રિયને વિષય લીલા પીળા આદિ છે ગન્ધ–જે સુઘવામા આવે તેને ગબ્ધ કહે છે, તે ધ્રાણેન્દ્રિયના વિષય સુખડ કપૂર આદિ છે રસ-જે ચાખવામાં આવે તેને રસ કહે છે, તે રસના ઈન્દ્રિયના વિષય મધુર આદિક છે સ્પર્શ—જેને સ્પર્શ કરવામાં આવે તેને સ્પર્શ કહે છે તે સ્પર્શેન્દ્રિયના વિષય માલા, સુખ,_ टि० १- 'छुप स्पर्शे' तुदादिरनिट् परस्मैपदी । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ सहाऽनयेति लेश्या, सा च कपायोदयलब्धशक्तिविशेषा योगप्रवृत्तिः, लेश्या द्रव्य-भावभेदाद्विविधा, तत्र द्रव्यलेश्या-पुद्गलविशेषरूपा, साऽपि द्विधानोकर्मद्रव्यलेश्या कर्मद्रव्यलेश्या च, तत्र नोकर्मद्रव्यलेश्या वर्णविशेषात्मिका, कर्मद्रव्यलेश्या तु भावलेश्याजनककपायमोहनीयकर्म=नामकर्मद्रव्याणि । यच्च परैः कर्मनिष्यन्द-(वध्यमानकर्ममवाह)-रूपत्व कर्मद्रव्यलेश्याया उक्त, तन्न युक्तम्, तथाहि-स कर्मणा निष्यन्दः साररूपोऽसाररूपो वा ? साररूपश्चेत् ज्ञानावरणीयादिष्वन्यतमस्य सारः सर्वेपा वा ? विकल्पद्वयमप्यागमविरुद्धम् , को लेश्या करते है, वह द्रव्य, भाव भेद से दो प्रकार की है। उनमें द्रव्यलेश्या पुलस्वरूप है, वह भी नोकर्मलेश्या, कर्मलेश्या के भेद से दो प्रकार की है। उस में नोकर्मद्रव्यलेश्या वर्णविशेषरूप मानी गई है और कर्मद्रव्यलेश्या भावलेश्या के उत्पादक कषायमोहनीयकर्म और नामकर्म द्रव्यस्वरूप है। जो कोई इस कर्मद्रव्यलेश्या को कर्मनिष्यन्द (बध्यमान कर्मप्रवाह) रूप मानते हैं वह ठीक नहीं, क्यो कि यदि ऐसा लक्षण मान लिया जाय तो यहा दो प्रश्न उपस्थित होते हैं कि-वह कर्मनिष्यन्द साररूप है या असाररूप ! यदि सार रूप माने तो ज्ञानावरणीयादि आठ कमों में से किसी एक कर्म का सार है या सब काका', मगर ये दोनों विकल्प आगमविरुद्ध है, क्यों कि પ્રાપ્ત થયેલી શકિતવિશેષવાલી યુગપ્રવૃત્તિને વેશ્યા કહે છે તે દ્રવ્ય અને ભાવ ના ભેદથી બે પ્રકારની છે તેમાં દ્રવ્યલેશ્યા પુદ્ગલસ્વરૂપ છે તે પણ કમલેશ્યા અને કર્મલેશ્યાના ભેદથી બે પ્રકારની છે તેમાં કર્મવ્યસ્થા વર્ણવિશેષરૂપ માનવામાં આવી છે અને કર્મવ્યલેસ્યા ભાવલેશ્યાની ઉત્પાદક કષાયમહનીયકર્મ અને નામકર્મ દ્રવ્યસ્વરૂપ છે કે કેટલાક માણસ આ કર્મદિવ્યલેશ્યાને કર્મનિધ્યદ (બધ્યમાન કર્મ પ્રવાહ) રૂપ માને છે પણ તે માન્યતા ઠીક નથી કારણ કે જે એવા લક્ષણ માનવામાં આવે તે આ સ્થળે બે પ્રશ્ન ઉભા થાય છે કે –તે કર્મનિષ્પદ સારરૂપ છે કે અસાર રૂપ છે ? જે સાર રૂપ છે એમ માનશે તે જ્ઞાનાવરણ યાદિ આઠ કર્મોમાથી કઈ એક કર્મને સાર છે, અથવા સર્વ કમેને ? પણ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० आवश्यकसूत्रस्य निक्खेवणासमिईए' भाण्डमात्रे=उपकरणमात्रे, आदाननिक्षेपण-ग्रहणस्थापन तद्विपया समितिस्तया । 'उचारपासाणखेलजलसिंवाणपरिठावणियासमि ईए' उचार:=पुरीप, प्रस्रवण-मूत्र, खेला-श्लेप्मा, जल्लादेहमल, सिंघाणनासामल, तेपा परिठापनिका व्युत्सर्जन तद्विपया समितिस्तया । 'पडिकमामि' प्रतिक्रामामि, 'छर्हि' पद्भिः, 'जीवनिकाएहिं जीगाना निकायाराशय' जीवनिकायापृथिव्यप्तेनोवायुवनस्पतिनसस्वरूपास्तैस्तद्वारेत्यर्थः 'यो मया ऽतिचारः कृत' इत्यादि-सम्बन्धः प्राग्वदेव । 'पडिकमामि' प्रतिक्रामामि, 'छर्हि' पइभिः, 'लेस्साहिए लिश्यते-श्लिप्यते सम्पध्यते आत्मा कर्मभि' (४) 'आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति'-वन-पात्र आदि उपकरणों का यत्नापूर्वक लेना और रखना। __ तथा (५) 'उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिद्धाण-पारिठापनिकासमिति'-उच्चार आदि का यत्नापूर्वक दश घोल वर्ज (दाल) के परिष्ठापन करना, इनसे एव पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति और प्रसरूप छह जीव निकायों से, तथा कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल, इन छह लेश्याओं के सम्बन्ध से जो अतिचार किया गया हो तो उससे मै निवृत्त होता है'। अब लेश्या का स्वरूप कहते हैं जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लेपायमान हो उसको अर्थात् कषायों के उदय से प्राप्त शक्तिविशेपवाली योगप्रवृत्ति (४) 'महान-मा-भात-निपाए!-समिति'-१२, पात्र मा ४२ ને યત્નાપૂર્વક લેવુ મૂકવું तया (५) 'भ्यार-प्रसव-रेस-ca-सिंधा-यापिनिक-समिति-न्यार આદિને યત્ના પૂર્વક દશ-બેલ ત્યજીને પરિષ્ઠાપન કરવું એનાથી એવ પૃથ્વી, પાણી, તેજ વાયુ, વનસ્પતિ અને ત્રાસરૂપ છે જીવ નિકાયાથી, તથા કુષ્ણુ, નીલ, કાતિ, તેજ, પદ્ધ અને શુકલ આ છ લેશ્વાઓના સમ્બન્ધથી જે કઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉ છુ, હવે લેસ્યાનું સ્વરૂપ કહે છેજેના દ્વારા આત્મા કર્મોથી લેપાયમાન થાય તેને અર્થાત્ કથાના ઉદયથી Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २०१ सहाऽनयेति लेश्या, सा च कपायोदयलब्धशक्तिविशेषा योगपत्तिः, लेश्या द्रव्य-भावभेदाद्विविधा, तत्र द्रव्यलेश्या-पुद्गलविशेषरूपा, साऽपि द्विधानोर्मद्रव्यलेश्या कर्मद्रव्यलेश्या च, तत्र नोकर्मद्रव्यलेश्या वर्णविशेषात्मिका, वर्मद्रव्यलेश्या तु भावलेश्याजनककपायमोहनीयकर्म-नामकर्मद्रव्याणि । यच्च परैः कर्मनिष्यन्द-(वध्यमानकर्मप्रवाह)-रूपत्व कर्मद्रव्यलेश्याया उक्त, तन्न युक्तम्, तथाहि-स कर्मणा निष्यन्द' साररूपोऽसाररूपो वा? साररूपश्वेत् ज्ञानावरणीयादिष्वन्यतमस्य सारः सर्वेपा वा ? रिकल्पद्वयमप्यागविरुद्धम् , को लेश्या कहते है, वह द्रव्य, भाव भेद से दो प्रकार की है। उनमें द्रव्यलेख्या पुगलस्वरूप है, वह भी नोकर्मलेश्या, कर्मलेश्या के भेद से दो प्रकार की है। उस में नोकर्मद्रव्यलेश्या वर्णविशेषरूप मानी गई है और कर्मद्रव्यलेश्या भावलेश्या के उत्पादक कपायमोहनीयकर्म और नामकर्म द्रव्यस्वरूप है। जो कोई इस कर्मद्रव्यलेश्या को कर्मनिष्यन्द (यध्यमान कर्मप्रवाह) रूप मानते हैं वह ठीक नहीं, क्यों कि यदि ऐसा लक्षण मान लिया जाय तो यहाँ दो प्रश्न उपस्थित होते हैं कि वह कर्मनिष्यन्द साररूप है या असाररूप' । यदि सार रूप मानें तो ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों में से किसी एक कर्म का सार है या सय कमांका, मगर ये दोनों विकल्प आगमविरुद्ध हैं, क्यों कि પ્રાપ્ત થયેલી શકિતવિશેષવાલી એગપ્રવૃત્તિને લેસ્યા કહે છે તે દ્રવ્ય અને ભાવ ના ભેદથી બે પ્રકારની છે તેમા દ્રવ્યલેશ્યા પુગલસ્વરૂપ છે તે પણ નેકલેશ્યા અને કમલેસ્યાના ભેદથી બે પ્રકારની છે તેમાં કર્મવ્યસ્યા વણું વિશેષરૂપ માનવામાં આવી છે અને કદ્રવ્યલેશ્યા ભાવલેશ્યાની ઉત્પાદક કષાયમેહનીયકર્મ અને નામકર્મ દ્રવ્યસ્વરૂપ છે જો કે કેટલાક માણસ આ કર્મચૅલેશ્યાને કર્મનિધ્યદ (બધ્યમાન કર્મ પ્રવાહ) રૂપ માને છે પણ તે માન્યતા ઠીક નથી કારણ કે જે એવા લક્ષણ માનવામા આવે તે આ સ્થળે બે પ્રશ્ન ઉભા થાય છે કે તે કર્મનિખ્યદ ચારરૂપ છે કે અસાર રૂપ છે ? જો સાર રૂપ છે એમ માનશે તે જ્ઞાનાવરણ યાદિ આઠ કર્મોમાથી કઈ એક કર્મને સાર છે, અથવા સર્વ કર્મોને ? પણ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '२०० आवश्यक सूत्रस्य निक्खेवणास मिईए' भाण्डमात्रे = उपकरणमात्रे, आदान निक्षेपण = ग्रहणस्थापन तद्विषया समितिस्तया । 'उच्चारपासनणखेलजलसिंघाणपरिठावणियासमि ईए' उच्चार: पुरीप, मसाण = मूत्र, खेल: लेप्मा, जल्लः = देहमल, सिंघाण = नासामल, तेपा परिष्ठापनिका = व्युत्सर्जन तद्विपया समितिस्तया । 'पडिकमामि' प्रतिक्रामामि, 'छहिं' पभिः, 'जीवनिकाएद्दि' जीवाना निकाया: =राशयः जीवनिकाया:= पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पवित्रसस्वरूपास्तैस्तद्वारेत्यर्थः ' यो मया ऽतिचारः कृत ' इत्यादि - सम्बन्धः माग्वदेव । ' पडिक मामि' प्रतिक्रामामि, 'छहिं' पभिः, 'लेस्साहि' लिश्यते श्लिष्यते = सम्मध्यते आत्मा कर्मभिः (४) ' आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति - वस्त्र- पात्र आदि उपकरणों का यत्नापूर्वक लेना और रखना । तथा (५) 'उच्चार - प्रस्रवण- खेल - जल-सिद्धाण-पारिष्ठापनिकासमिति' - उच्चार आदि का यत्नापूर्वक दश बोल वर्ज (टाल) के परिष्ठापन करना, इनसे एव पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति और सरूप छह जीव निकायों से, तथा कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल, इन छह लेश्याओं के सम्बन्ध से जो अतिचार किया गया हो तो उससे मे निवृत्त होता है ' । अब लेश्या का स्वरूप कहते हैं- जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लेपायमान हो उसको अर्थात् कषायों के उदय से प्राप्त शक्तिविशेषवाली योगप्रवृत्ति (४) 'माहान - लार्ड - भात्र- निक्षेपणा - समिति' - वस्त्र, પાત્ર આદિ ઉપકર @ાના યત્નાપૂર્વક લેવુ મૂકવુ तथा (4) ‘सुश्यार-अस्त्रवण्य- मेस - दस - सिंघाणु - पारिष्ठापनिा-समिति' - अभ्यार આદિના યત્ના પૂર્ણાંક દશ-બાલ ત્યજીને પરિષ્ઠાપન કરવુ એનાથી એવ પૃથ્વી, પાણી, તેજ વાયુ, વનસ્પતિ અને ત્રસરૂપ છ लव निष्प्रयोथी, तथा पुण्य, नीस, કાપાત, તેજ, પદ્મ અને શુકલ આ છ લેશ્યાઓના સમ્બન્ધથી જે કાઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તેા તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉં છુ, હવે લેસ્યાનું સ્વરૂપ કહે છે જેના દ્વારા આત્મા મેાંથી લેપાયમાન થાય તેને અર્થાત, કષાયેાના ઉદયથી Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २०३ पादान च कर्मवर्गणान्तर्गतत्वसाधक, ततश्थ, 'तदन्तर्भावाभावात्' इत्यय हेतुर्वाधितविषयः । उक्ता द्रव्यलेश्या सम्पति भावलेश्यामाह-सा च कपायोदयलब्धशक्तिविशेषयोगमवृत्त्यात्मिका प्रोक्तैव ।। अत्राशङ्कते कश्चित्-ननु भावलेश्याया उक्तलक्षणस्वीकारे उपशान्त-क्षीणकपाय सयोगिकेवलि गुणस्थानेषु तदभावः प्रसज्यते, तत्र कपायाभावात्-योगमवृत्तेरतिशयान्तरमुपनीतेरसभवात् , इति चेन्न, तत्र भावलेश्याया उपचारतोऽङ्गीऐसा प्रश्न करना ठीक नहीं, क्यों कि आगमों से विरोध आता है। अर्थात् किसीभी आगम में लेश्या को कार्यकारणरूप नहीं माना है। लेश्या को अलग नहीं बताने का कारण यह है कि वे कर्मवर्गणा के अन्तर्गत साधकस्वरूप है। यह हुई द्रव्यलेश्या, अय भावलेश्या कहते हैं ___भावलेश्या कपायोदयलब्धशक्तिविशेषयोगप्रवृत्तिरूप पहले कह चुके हैं। यहाँ पर यह प्रश्न होता है कि भावलेश्या का पूर्वोक्त लक्षण मानने से उपशान्तकपाय, क्षीणकपाय और सयोगिकेवली गुणस्थानो में उस (लेश्या) का अभाव मानना पडेगा, क्यों कि वहाँ कपाय नही है! ઠીક નથી, કારણ કે આગને તેમાં વિરોધ આવે છે અર્થાત કેઈપણ આગમમા સ્થાને કાર્યકારણ રૂપ માનવામાં આવેલ નથી લેસ્યાને જૂરી બતાવવાનું કારણ એ છે કે કર્મવર્ગણાની અંદર સાધક સ્વરૂપ છે, આ વાત દ્રવ્યલેશ્યાની થઈ હવે ભાવલેશ્યા કહે છે ભાવસ્થા કષાદથલબ્ધશકિતવિશેષગપ્રવૃત્તિરૂપ છે એમ પ્રથમ કહેવાયું છે અહિં આ એક પ્રશ્ન થાય છે કે-ભાવસ્થાનું પૂર્વોકત લક્ષણ માનવાથી ઉપશાન્તકષાય, ક્ષીણકષાય અને સગિકેવળી ગુણસ્થાનેમા તે લેસ્થાને અભાવ માનવે પડશે, કારણકે ત્યા કપાય નથી Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ आवश्यम्भूत्रस्य - - - - - - - - तत्र (भागमे ) तासा फर्मफलत्वेनाऽमतिपादनाद, कर्मसारेण स्वपश्य फलवता भवितव्यम् । यगुत्तरपक्षः कक्षीक्रियते तर्हि असारस्वरूपस्य तस्य नोत्कृष्टानुमाग प्रति हेतुत्व सिध्यति । ननु यथा कार्मणशरीरस्य कर्मवर्गणामिः कार्यकारणभेदोऽभ्युपगतः शास्त्रे तथैव लेण्याद्रव्याण्यपि कर्मवर्गणामिभिन्नान्यभ्युपगन्तव्यानि, तासा तदन्ती वाऽभावादिति, तदप्यमामाणिकमेव, यथा कार्मणशरीरस्य कर्मवर्गणाभिभिन्नद्रव्य त्वमागमे प्रतिपादित तथा लेश्याद्रव्यस्य पृथक्त्वेनाऽनुपादानात, पृथक्त्वेनाऽनु आगमों मे लेश्या कर्मफलस्वरूप नहीं बताई गई है और कर्मों का सार तो अवश्य फलवाला होना ही चाहिये, इसलिये उसको कमों का साररूप नहीं कह सकते, यदि असाररूप मानें तो वह उत्कृष्ट अनुभाग का हेतु नहीं हो सकता। अतः लेश्या को कर्मनिष्यन्दरूप नही मानना चाहिये । इसलिये जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त हो ऐसी शुभाशुभ आत्मपरिणति को ही लेश्या मानना शास्त्र समत है। यही एक ऐसा प्रश्न होता है कि जैसे कार्मण शरीर को कर्मवर्गणा के साथ कार्यकारणरूप माना है वैसे ही लेश्याद्रव्य को भी कर्मवर्गणा के साथ का कारणरूप मानने मे क्या आपत्ति है। क्यो कि उन लेश्याओंका कर्म के अन्दर समावेश नहीं होता है। એ બને વિકc૫ આગમથી વિરુદ્ધ છે કેમકે આગમા લેશ્યાને કર્મના કુલ સ્વરૂપ કહેવામાં આવી નથી અને કર્મોના સારરૂપ તે જરૂર ફળવાળુ હેજ જોઈએ, એટલા માટે તેને કર્મોના સારરૂપ કહી શકાશે નહિ હવે જે અસારરૂપ માનીએ તે તે ઉત્કૃષ્ટ અનુભાગને હેતુ થઈ શકર્તા નથી તે કારણથી લેફ્સાને કર્મનિષ્પન્દરૂપ નહિ માનવું જોઈએ એટલા માટે જેના દ્વારા આત્મા કર્મોથી લેપાય એવી શુભ-અશુભ આત્મપરિસ્થતિને જ વેશ્યા માનવી, તે શાસ્ત્ર મત છે અહિં એક એ પ્રશ્ન થાય છે કે –જેવી રીતે કાર્મણ શરીરને કમવર્ગ Jાની સાથે કાર્યકારણરૂપ માનવામાં આવે છે તેવીજ રીતે લેહ્યાદ્રિવ્યને પણ કર્મવર્ગની સાથે કાર્યકારણરૂપ માનવામાં શુ આપત્તિ છે? કારણ કે તે લેશ્યાઓને કર્મની અંદર સમાવેશ થતું નથી એ પ્રમાણે પ્રશ્ન કરે તે Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, पतिक्रमणाध्ययनम्-४ २०५ शास्त्राऽभिप्राय औपचारिक एवेत्यवसीयते । वास्तविकलेश्यास्वीकारे तत्र स्थित्यनुभागवन्यपसङ्गः स्यात् , न च तत्र तत्सद्भावः, तथाहि-'जोगा पयडिपएस ठिइ अणुभाग कसायी कुणई' इति वचनात्, प्रकृतिप्रदेशौ योगजन्यौ स्थित्यनुभागौ च पायजन्यौ स्तः। सयोगिकेवल्यादिगुणस्थानेषु योगनिमित्तकप्रकृतिपदेशवन्यसद्भावेऽपि कपायाभावात् स्थित्यनुभागसमवेन कुडचपतितशुप्फलोष्टवस्थितिमकुर्वन्नेव कर्म त्वरित प्रत्यावर्त्तते, तदुक्त श्री यदि वहाँ वास्तविक लेश्या मानी जाय तो उससे स्थितिचन्ध और अनुभागन्ध का भी प्रसग होगा, परन्तु वहाँ उन दोनों बन्धों का अभाव है, कहा भी है कि-" प्रकृति और प्रदेश का यन्ध योग से होता है तथा स्थिति और अनुभाग बन्ध कपाय से होता है।" ___ इस वचन से प्रकृति और प्रदेश-पन्ध योगजनित है, स्थिति और अनुभागबन्ध कपायजनित है। सयोगिकेवलि आदि गुणस्थानो में योगनिमित्तक प्रकृतिवन्ध और प्रदेशबन्ध का सद्भाव होने पर भी तथा कपाय के अभाव से स्थिति और अनुभाग का सभव होते हुए भी भीत पर फेंके हुवे सूखे ढेले की तरह वहाँ स्थिति नहीं करता। हुआही कर्म तुरन्त वापस हट जाता है, यही श्री सूयगडाग सूत्रमें भगवानने फरमाया है किસ્થિતિબધ અથવા અનુભાગબધને પણ પ્રસગ થશે, પરંતુ ત્યા તે બને ને અભાવ છે, કહ્યું પણ છે કે “પ્રકૃતિ અને પ્રદેશને બધયેગથી થાય છે તથા સ્થિતિ અને અનુભાગને બધ કષાયથી થાય છે” આ વચનથી પ્રકૃતિ અને પ્રદેશળધગજનિત છે સ્થિતિ અને અનુભાગ બધ કષાયજનિત છે સગિકેવળી વિગેરે ગુણસ્થાનમાં ગનિમિત્તક પ્રકૃતિબધ અને પ્રદેશ ધને સદ્ભાવ થયા પછી પણ તથા કષાયના અભાવથી સ્થિતિ અને અનું ભાગને સભવ થયા પછી પણ ભીંત ઉપર ફેંકેલ સુકા ઢફાની માફક ત્યા સ્થિતિ નથી કરતે તુરત થએલુ કર્મ પાછુ હટી જાય છે આ વિષય શ્રી સૂયગડાગ સવમાં ભગવાને ફરમાવેલ છે – Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ आवश्यकसूत्रस्य कारात् । 'मुख्याभावे सति प्रयोगने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते' इति न्यायादव योगप्रवृत्तिसत्यौपचारिफलेश्यासचे हेतुः । इदमदम्पर्यम्-या हि योगप्रवृत्तिः मुक्ष्मसम्परायगुणस्थानपर्यन्त कमायोदयलब्धशक्तिविशेपाऽऽसीत् सेवोपशान्त कपायादिप्वस्ति, अत एवं भूतपूर्वनयाऽपेक्षया.तत्र लेश्यासझावः गाने पगीयते। यथा लोके भगिन्या मृतायामपि तत्पतिर्मगिनीपतित्वेन व्यवडियव एव । नवागमे सामान्येन सयोगिकेलिपर्यन्त लेश्यासझावाऽऽवेदक यह प्रश्न करना ठीक नही, क्यों कि वहाँ भावलेल्या उपचारमात्र से मानी गई है। "मुख्य का अभाव होने , पर निमित्त मे उपचार किया जाता है" इस न्याय से योगप्रवृत्ति की सत्ता ही औपचारिक लेश्या के सद्भाव में हेतु माना गया है। यहाँ तात्पर्य यह है कि जो योगप्रवृत्ति सूक्ष्मसपराय गुणस्थान तक कषायोदयलब्धशक्तिविशेषस्वरूप. थी वही योगप्रवृत्ति उपशान्तकषायादिक मे है इसलिये भूतपूर्वनयकी अपेक्षा से वहाँ (उपशान्त क्षीणकषायादि गुणस्थानों मे).लेश्या का सद्भाव शास्त्रों में कहा है। लोक मे भी यह उक्ति प्रसिद्ध है कि भगिनी (बहिन) के मर जाने पर भी उसके पतिको भगिनीपति (बहनोई) कहते है । 1 - बात यह है कि सामान्यतया-, सयोगिकेवली गुणस्थान पर्यन्ता उपचार से-ही लेश्या का सद्भाव सिद्ध होता है। આ પ્રશ્ન કર ઠીક નથી, કેમ કે ત્યાં ભાવલેશ્યા ઉપચાર માત્રથી માનવામાં આવી છેમુખ્યને અભાવ હોવાથી નિમિત્તમાં ઉપચાર કરાય છે આ ન્યાયથી ગપ્રવૃત્તિની સત્તાજ ઓપચારિક લેસ્થાના સદ્ભાવમા હેતુ માનવામાં આવેલ છે, અહિં તાત્પર્ય એ છે કે જે ગપ્રવૃત્તિ સૂમસ પરાય ગુણસ્થાન સુધી કષાયેદલબ્ધશકિતવિશેષ રૂપે હતી એજ યુગપ્રવૃત્તિ ઉપશાતકષાયાદિકમાં છે, એટલા માટે ભૂતપૂર્વનયની અપેક્ષાથી ત્યા (ઉપશાતક્ષણિકષાયાદિ ગુણસ્થાનમાં લેસ્યાને સદ્દભાવ શાસ્ત્રોમાં કહેલ છે લેકમાં પણ આ ઉકિત પ્રસિદ્ધ છે કે બેન મરી જવા પછી પણ તેના પતિને બનેવી કહે છે ( વાત એ છે કે સામાન્ય રીતે સગિકેવળીગુણસ્થાન સુધી ઉપચારથી જ લેસ્થાને સદભાવ સિદ્ધ થાય છે જો ત્યા વાસ્તવિક વેશ્યા માનીએ તે તેનાથી Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, पतिक्रमणाध्ययनम्-४ __ लेश्यापट्कमेवाह-(१) 'किण्हलेसाए' कृष्णद्रव्यात्मिका कृष्णद्रव्योपरागजनिता वा लेश्या कृष्णलेश्या-कृष्णद्रव्योपाधिकात्मपरिणामविशेष:, येन जीवस्य हिंसाद्यास्रवेपु प्रवृत्तिः, मनोवाकायानामसयमः, स्वभावे क्षुद्रता, गुणदोपावविमृश्यैव कार्येषु प्रवृत्तिः क्रूरत्व च सजायते तया । (२) 'नीललेसाए' नीलद्रव्यात्मिका नीलद्रव्योपरागजनिता वा लेश्या नीललेश्या अशोकतरुसमाननीलवर्णद्रव्योपाधिकाऽऽत्मपरिणामविशेषः, येन जीवः ईर्ष्यालुः असहिष्णुः, मायावी, नित्रपः, प्रदीप्तविषयाभिलाषः, रसलोलुपः, सदा पौद्गलिकमुखगवेपकश्च भवति, तया । (३) 'काउलेसाए कपोतस्यायकापोत:=पारावतवर्णस्तत्तुल्यद्रव्यरूपा तत्तु (१) कृष्णलेश्या- कृष्णद्रव्यस्वरूप तथा कृष्णद्रव्योपरागजनित आत्मपरिणाम स्वरूप है, जिससे हिंसा आदि आश्रवों में आत्माकी प्रवृत्ति होती है, मन-वचन-कायाका असयम, स्वभावमें क्षुद्रता, गुण दोपो के विना विचारे कार्यमे प्रवृत्ति करना और क्रूर भाव का आना होता है। (२) नीललेश्या- नीलद्रव्यात्मक तथा नीलद्रव्यउपरागजनित अर्थात् अशोक वृक्ष के समान नीलवर्णवाले आत्मपरिणामस्वरूप है। इससे आत्मा ईर्ष्यालु, असहिष्णु, मायावी, निर्लज, विषयलोलुपी, रसलोलुपी और पौगलिक सुखोंका अन्वेषक होता है । (३) कापोतलेश्या--कबूतर के तुल्य वर्णवाली तथा उसके (૧) કૃષ્ણલેયા-કૃષ્ણદવ્યસ્વરૂપ તથા કૃણદ્રવ્ય પરાગજનિત આત્મપરિ ણામ સ્વરૂપ છે, જેનાથી હિંસા આદિ આશ્રમ આત્માની પ્રવૃત્તિ થાય છે મન વચન અને કાયાને અસયમ, સ્વભાવમા ક્ષુદ્રતા, ગુણોને વિચાર્યા વિના કાર્યમાં પ્રવૃત્તિ કરવી અને ક્રૂરભાવનું આવવુ થાય છે (ર) નીલલેશ્યા–નીલદ્રાવ્યાત્મક તથા નલદ્રવ્યઉપરાગજનિત અર્થાત અશોક વૃક્ષની જેમ નીલવર્ણવાળા આત્મપરિણામ સ્વરૂપ છે, એથી આત્મા ઇMલ, અસહિષ્ણુ માયાવી નિર્લજ, વિષયપ્રેમી, રસપ્રેમી અને પૌગલિક સુખના અન્વેષક હોય છે (૩) કાપેલેસ્ય-કબુતરની સમાન વર્ણવાળી તથા તેની જેમ પરાગ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ New - २०६ आवश्यकमत्रस्य सूत्रकृतारे-'त पढमसमए पद्धं, वीयसमए वेइय, वतियसमये निजिष्ण' इति, अतस्तद्वन्ध ईर्यापथवन्ध उच्यते । अयमेराऽऽगमस्तत्रौपचारिकलेश्यासचाऽऽवेदकः, इत्युक्तलक्षणलक्षितैव भावलेश्येति सिद्धम् ।। अन्न च भावलेश्यैत्र मतिक्रमणविषयस्तस्या एवाधिकृतस्त्रात्, भावलेश्याम कृष्णादिशब्दव्यवहारस्तदुत्पादकलेश्यापुद्गलनिमित्तका परिणामसादृश्यमूलक चेति ध्येय, ताभिः । "प्रथम समयमें बन्ध होता है, दूसरे समयमें वेदा जाता है और तीसरे समयमें निर्जर जाता है अर्थात् दूर हो जाता है ॥" इसी कारण से उस बन्धको ईर्यापधयन्ध कहा है। यही आगमवाक्य वहा औपचारिक लेश्या के सद्भावको बतानेवाला है, अतः पूर्वोक्त लक्षणवाली ही भावलेश्या है। __ यहा प्रतिक्रमणमें भावलेश्या का अधिकार है, उनमें कृष्णादि शब्दों का जो व्यवहार होता है वह सिर्फ उनके उत्पादक लेश्या के पुद्गलों के निमित्त से तथा परिणाम भी वैसे हो जाने के कारण से माना जाता है। वह लेश्या छह प्रकारकी है जैसे (१) कृष्णलेश्या । (२) नीललेश्या। (३) कापोतलेश्या । (४) तेजोलेश्या । (५) पद्मलेश्या । (६) शुक्ललेश्या। પ્રથમ સમયમાં બધ થાય છે, બીજા સમયમાં અનુભવ થાય છે, અને ત્રીજા સમયમાં નિર્જરી જાય છે અર્થાત દૂર થઈ જાય છે ? આ કારણથી તે બધાને ઈર્યાપથ બધ કહેલ છે આ શાસ્ત્રવાકય ત્યા ઔપચારિક લશ્યાના સભાવને બતાવવા વાળે છે, એટલે પૂર્વોકત લક્ષણવાનીજ ભાવલેશ્યા છે અહિં પ્રતિક્રમણમા ભાવલેસ્થાને અધિકાર છે, એમા કૃષ્ણાદિ શબ્દને જે વ્યવહાર થાય છે તે માત્ર તેની ઉત્પાદક લેસ્યાના પુદગલના નિમિત્તથી તથા પરિણામ પણ તેવાજ થઈ જવાના કારણથી મનાય છે તે લેા છ પ્રકારની છે, જેવી शत (१) वेश्या, (२) नासवेश्या, (३) तश्या, (४) तेश्या (प) पाश्या, (6) शुसवेश्या Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरूप है, जिसमायाको असयम, मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २०७ लेश्यापट्कमेवाह-(१) 'किण्हलेसाए' कृष्णद्रव्यात्मिका कृष्णद्रव्योपरागजनिता वा लेश्या कृष्णलेश्या कृष्णद्रव्योपाधिकात्मपरिणामविशेषः, येन जीवस्य हिंसायास्रवेपु प्रवृत्तिः, मनोवाकायानामसयमः, स्वभावे क्षुद्रता, गुणदोषावविमृश्यैव कार्येषु प्रवृत्तिः क्रूरत्व च सजायते तया । (२) 'नीललेसाए' नीलद्रव्यात्मिका नीलद्रव्योपरागजनिता वा लेश्या नीललेश्या अशोकतरुसमाननीलवर्णद्रव्योपाधिकाऽऽत्मपरिणामविशेषः, येन जीवः ईर्ष्यालुः असहिष्णुः, मायावी, निवपः, प्रदीप्तविपयाभिलापः, रसलोलुपः, सदा पौद्गलिकमुखगवेपश्च भवति, तया । (३) 'काउलेसाए कपोतस्याय कापोता-पारावतवर्णस्तत्तुल्यद्रव्यरूपा तत्तु__ (१) कृष्णलेश्या-कृष्णद्रव्यस्वरूप तथा कृष्णद्रव्योपरागजनित आत्मपरिणाम स्वरूप है, जिससे हिंसा आदि आश्रवों मे आत्माकी प्रवृत्ति होती है, मन-वचन-कायाका असयम, स्वभावमें क्षुद्रता, गुण दोषों के विना विचारे कार्य में प्रवृत्ति करना और क्रूर भाव का आना होता है। (२) नीललेश्या- नीलद्रव्यात्मक तथा नीलद्रव्यउपरागजनित अर्थात अशोक वृक्ष के समान नीलवर्णवाले आत्मपरिणामस्वरूप है। इससे आत्मा ईर्ष्याल, असहिष्णु, मायावी, निर्लन, विपयलोलुपी, रसलोलुपी और पौद्गलिक सुखोंका अन्वेषक होता है। __ (३) कापोतलेश्या- कबूतर के तुल्य वर्णवाली तथा उसके (૧) કૃષ્ણલેશ્યા-કૃષ્ણદ્રવ્યસ્વરૂપ તથા કૃણદ્રપરાગજનિત આત્મપરિ ણામ સ્વરૂપ છે, જેનાથી હિંસા આદિ આશ્રમ આત્માની પ્રવૃત્તિ થાય છે. મન વચન અને કાયાને અસયમ, સ્વભાવમા ક્ષુદ્રતા, ગુણને વિચાર્યા વિના કાર્યમાં પ્રવૃત્તિ કરવી અને ક્રૂરભાવનું આવવું થાય છે (9) નીલલેશ્યા–નીલદ્રાવ્યાત્મક તથા નીલદ્રવ્યઉપરાગજનિત અર્થાત, અશોક વૃક્ષની જેમ નીલવર્ણવાળા આત્મપરિણામ સ્વરૂપ છે, એથી આત્મા ઈષ્ય, અસહિષ્ણુ માયાવી નિર્લજ, વિષયપ્રેમી, રસપ્રેમી અને પગલિક સુખના અન્વેષક હોય છે (૩) કાતિલેસ્યા-કબુતરની સમાન વળી તથા તેની જેમ કોપરાગ और क्रूर - Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ आवश्यकमत्रस्य ल्यद्रव्योपरागमनिता चा लेश्या कापोतलेश्या तरुणपारावतकण्ठतुल्यकृष्ण लोहित (धूपछाया) वर्णद्रव्योपाधिकात्मपरिणामः, येन जीवस्य वचसि कर्तव्ये विचारणाया च सर्वत्र पक्रतैव जायते, कस्मिन्नपि विषये सारल्य न भवति, नास्तिकत्व परदुःखजनकभापणशीलत्व च सजायते तया । (४) 'तेउलेसाए' तेनः अग्निज्वाला तत्तुल्यलोहितवर्णद्रव्यात्मिका तादृशद्रव्योपरागजनिता वा लेश्या तेजोलेश्या-शुरुतुण्डवद्रक्तवर्णद्रव्योपाधिकात्म परिणामरिशेपः, यद्वशात् जीवे नम्रत्व पदमादधाति शाठय चापल्य च मुद्रम पसरति, धर्मेऽमिरुचिर्दाढय सर्वजनहितपित्व च जञ्जन्यते तया । तुल्य द्रव्योपरागजनित अर्थात् तरुण कबूतर के कठसदृश कृष्ण और नील वर्णवाले द्रव्यात्मक आत्मपरिणाम स्वरूप है, जिससे आत्मा मन वचन कर्तव्य और विचारमें सर्वथा वक्र भावको धारण करता है, किन्तु किसी विषयमें सरलता नही रखता है, और उसम पुण्य पाप आदिकी नास्तिकता तथा परदुःखजनक भाषा बोलनेका स्वभाव होता है। (४) तेजोलेश्या- अग्निज्वाला के समान लालवर्णद्रव्यस्वरूप तथा तादृश (वैसे) द्रव्योपरागजनितस्वरूप है, अर्थात् तोते का चोंचके समान लाल वर्णवाले द्रव्य के सदृश आत्मपरिणामरूप है, इससे आत्मा नम्र बनता है, शठता और चपलता रहित होता है, धर्म के अन्दर दृढ, प्राणीमात्र का हितैषी होता है। જનિત અર્થાત તરુણ કબુતરના કઠના જેવા કાળા અને નીલવર્ણવાળા-દ્રવ્યાત્મક આત્મપરિણામરૂપ છે, જેથી આત્મા, મન, વચન, કર્તવ્ય અને વિચારમાં હમેશા વકભાવને ધારણ કરે છે પરંતુ કેઈ વિષયમાં સરળતા નથી રાખતે, અને તેમાં પુણ્ય પાપ વિગેરેની નાતિકતા તથા પરદુ ખજનક ભાષા બેલવાને સ્વભાવ થાય છે () તેજસ્થા–અગ્નિની જ્વાળાની પેઠે લાલવાણું દ્રવ્યસ્વરૂપ તથા એજ પરાગજનિત સ્વરૂપ છે, અર્થાત્ પિપટની ચાચની જેમ લાલવણવાળા દ્રવ્યની જેમ આત્મપરિણામરૂપ છે, એથી આત્મા નમ્ર બને છે, લુચ્ચાઈ તથા ચપલતાથી રહિત થાય છે, ધર્મની અદર ૬૮, પ્રાણીમાત્રને હિતેવી થાય છે Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ (५) 'पउमलेसाए' अत्र पद्मशब्देनोपचारात्पद्मगर्भग्रहणम् स च पीतो भवत्यतः पद्मगर्भवत्पीनद्रव्यात्मिका पीतद्रव्योपाधिजन्या वा लेश्या पद्मलेश्या हरिद्रावत्पीतद्रव्योपाधिकाऽऽत्मपरिणामविशेषः, यद्वारा जीवस्य क्रोधमानादि कपायाणा बहुतराशेपु मान्य, स्वान्ते शान्तिः, आत्मसयमधारणक्षमत्वम् , मितभापित्वम् , जितेन्द्रियत्व च सपवते, तया । 'मुक्कलेसाए' शुक्ल शुक्लद्रव्य तदात्मिका तदुपरागजनिता वा लेश्या शुक्ललेश्या शववच्छ्वेतवर्णद्रव्योपाधिकात्मपरिणामः, यद्वशतो जीवस्याऽऽतरौद्रध्यानाऽवरोधपूर्वक धर्म-शुक्रध्यानद्वयमुपसपयते, मनोवाक्कायसयमनशक्तिः, कपायोपशान्तिः, वीतरागभावसम्पादनाऽऽनुकूल्य च जायते, तया (६) (६) पद्मलेश्या--पद्म-कमल के गर्भ के समान पीतद्रव्यस्वरूप तथा हलदी के समान पीले द्रव्यवाले आत्मपरिणामविशेषस्वरूप है, जिससे आत्मा के क्रोध मान माया आदि कपाय मद अर्थात् पतले हो जाते हैं, और आत्मामें मन की शान्ति, आत्मसयम का सामर्थ्य, मर्यादित बोलना और जितेन्द्रियता आदि गुण आजाते हैं। (६) शुक्ललेश्या-शुक्लद्रव्यस्वरूप याने शखके तलेके समान श्वेत द्रव्यवाले आत्मपरिणामविशेषरूप है, जिससे आत्मा आतरौद्र ध्यान को छोडकर धर्म तथा शुक्लध्यानधारी होता है, मन वचन काया के सयमन का सामर्थ्य, कपायों की उपशान्ति, वीत (૫) પલેશ્યા-પઘ=કમળના ગર્ભ સમાન પીળા દ્રવ્ય સ્વરૂપ તથા હળદરની જેમ પીળા દ્રવ્યવાળા આત્મપરિણામવિશેષસ્વરૂપ છે જેનાથી આત્માને, ક્રોધ, માન, માયા આદિ કષાયે મદ અર્થાત્ પતલા થઈ જાય છે, અને આત્મામા મનની શાતિ, આત્મસ યમનું સામર્થ્ય, મર્યાદિત બોલવું અને જીતેદ્રિયપણુ આદિ ગુણ આવી જાય છે (૬) શુકલેશ્યા–શુકદ્રવ્ય સ્વરૂપ અર્થાત્ શખના તલીયાની સમાન સફેદ દ્રવ્યવાળા આત્મપરિણામવિશેષરૂપ છે જેથી આત્મા આર્તા રોદ્ર ધ્યાનને છેડીને ધર્મ તથા શુકલ ધ્યાન ધારી થાય છે મન વચન કાયાના સયમનું સામર્થ, કથાની ઉપશાતિ, વીતરાગભાવને પ્રાપ્ત કરવાની અનુકૂળતા વિગેરે Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ आवश्यक सूत्रस्य यद्रव्यों परागजनिता वा लेश्या कापोतलेश्या तरुणपारावतकण्ठतुल्यकृष्ण लोहित (धूपछाया ) वर्णद्रव्योपाधिकात्मपरिणामः येन जीवस्य वचसि कर्तव्ये विचारणाया च सर्वत्र वक्रतैव जायते, कस्मिन्नपि त्रिषये सारल्य न भवति, नास्तिकत्व परदुखजनकभाषणशीलत्य च सजायते तया । (४) ' तेउलेसाए' तेज'=अग्निज्वाला तत्तुल्यलोहितवर्णद्रव्यात्मिका तादृशद्रव्यो परागजनिता वा लेश्या तेजोलेश्या शुतुण्डनद्रक्तवर्णद्रव्योपाधिकात्म परिणामविशेषः, यद्वशात् जीवे नम्रत्व पदमादधाति शाठ्य चापल्य च सुदुरम पसरति, धर्मेऽमिरुचिर्दादये सर्वजन हितैषित्व च जञ्जन्यते तथा । तुल्य द्रव्योपरागजनित अर्थात् तरुण कबूतर के कठसदृश कृष्ण और नील वर्णवाले द्रव्यात्मक आत्मपरिणाम स्वरूप है, जिससे आत्मा मन वचन कर्तव्य और विचारमें सर्वथा वक्र भावको धारण करता है, किन्तु किसी विषयमें सरलता नही रखता है, और उसमें पुण्य पाप आदिकी नास्तिकता तथा परदुःखजनक भाषा बोलनेका स्वभाव होता है। (४) तेजोलेश्या - अग्निज्वाला के समान लाल वर्णद्रव्यस्वरूप तथा तादृश (वैसे) द्रव्योपरागजनितस्वरूप है, अर्थात् तोते की चोंच के समान लाल वर्णवाले द्रव्य के सदृश आत्मपरिणामरूप है, इससे आत्मा नम्र बनता है, शठता और चपलता रहित होता है, धर्म के अन्दर दृढ, प्राणीमात्र का हितैषी होता है નિત અર્થાત્ તરુણુ કભુતના કઠના જેવા કાળા અને નીલવવાળા દ્રવ્યાત્મક આત્મપરિણામરૂપ છે, જેથી આત્મા, મન, વચન, કન્ય અને વિચારમા હમેશા વજ્રભાવને ધારણ કરે છે પરંતુ કેઈ વિષયમાં સરળતા નથી રાખતા, અને તેમા પુણ્ય પાપ વિગેરેની નાસ્તિકતા તથા ૫૨૬ મુજનક થાય છે ભાષા માલવાના સ્વભાવ (૪) તેોલેશ્યાઅગ્નિની જ્વાળાની પેઠે લાલ દ્રવ્યે પરાગજનિત સ્વરૂપ છે, અર્થાત્ ાપટની દ્રવ્યની જેમ આત્મરણામરૂપ છે, એથી આત્મા નમ્ર બને છે, લુચ્ચાઈ તથા ચપલતાથી રહિત થાય છે, ધર્માંની અંદર દૃઢ, દ્રવ્યસ્વરૂપ તથા એવુજ ચાંચની જેમ લાલવણુ વાળા પ્રાણીમાત્રને હિતેષી થાય છે Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, पतिक्रमणाध्ययनम्-४ २१३ तथोक नीती-'राजा मित्र केन दृष्ट श्रुत वा,' 'राजसेवा मनुष्याणामसिधारावलेहनम् । पञ्चाननपरिष्वङ्गो, व्यालीवदनचुम्बनम्' इत्यादि । अस्मात् बाह्यनिमित्तमन्तरेणैव सादिबुद्धया रज्ज्वादिभ्यो भय, सहसैवार्तनादादिश्रवणाद्वा भयम् । आजीवः जीविका तस्मातदर्थ वा भयम्-'निर्धनोऽह दुर्भिक्षादौ कथ प्राणान् धारयिष्यामि' इति, 'कथ वा मम जीविका सुदृढा भविष्यतीति । मरण-माणवियोगस्तस्माद्भयम् । श्लोक = यश:-'पद्ये यशसि च श्लोक'-इत्यमरः, न श्लोकः अश्लोका-अपयशस्तस्माद्भयम् । तदेवमुनाविधैः सप्तभिर्भयस्थानों मयाऽतिचारः कृतस्तस्मात्त वा प्रतिक्रामामि-विनिवर्त्त-परित्यजामि वेति समन्वयः। अत्रोक्तस्य 'पडिक्कमामि' इत्यस्येत आरभ्य त्रयस्त्रिंशदाशातना यावत् सम्बन्धो बोद्धव्यः। 'अहि' अष्टभिः, 'मयहाणेहिं' मदोऽहकारस्तस्य स्थानानि जातिकुठ-चल-रूप-तपः-श्रुत-लाभै-श्वर्यरूपाणि तेः, सम्बन्ध प्राग्वत् । ___ 'नवर्हि' नवभि , 'वभचेरगुत्तीहि' ब्रह्मचर्य-मैयुनविरतिव्रत तस्य गुप्तयः रक्षाप्रकाराः ब्रह्मचर्यगुप्तया मैथुनविरतिपरिरक्षणोपायास्ताभिः, सम्बन्धः पूर्ववत् । ताश्च ब्रह्मचर्यगुप्तय -(१) वसति-(२) कथा-(३-४) निपयेन्द्रिय-(५) कुडचान्तर-(६) पूर्वक्रीडा-(७-८) प्रणीताऽतिमात्राहार-(९)विभूपणपरिहाररूपाः, तत्र वसति. स्त्रीपशुपण्डकाऽऽश्रितस्थानसेवन तत्परिहार प्रथमा गुप्तिः (१)। अकस्माद्भय- विनाकारण ही अचानक डर जाना, (५) आजीविका भय-मेरा निर्वाह कैसे होगा! दुष्काल आदि में प्राण कैसे रखूगा! इत्यादि रूप भय, (६) प्राणवियोग का भय, और (७) अश्लोक (अपयश) होने का भय, इन सात भयों से, जाति, कुल, चल, रूप, तप, श्रुत, लाभ, और ऐश्वर्य-मद, इन आठ मदों से, तथा (१) वसतिस्त्री, पशु, पण्डक सहित स्थान का त्याग, (२) कथा-स्त्री सम्बन्धी રેથી ધન આદિ છીનવીને લઈ જવાને ભય, (૪) અકસ્માતૃભય-વિના કારણેજ અચાનક બી જવુ, (૫) આજીવિકાભય-મારે નિર્વાહ કેમ થાશે? દુષ્કાળ આદિમાં પ્રાણ કઈ રીતે રાખીશ? ઈત્યાદિ રૂપ ભય, (૬) પ્રાણ વિયોગને ભય, અને (૭ અકલેક (५४स) पाना भय, मा सात याथी ति, ण, स, ३५, त५, श्रुत सस भने मेश्वर्य-म मा माठे भोथी तथा (1) पसति-श्री, पशु, ५७४ સહિત સ્થાનને ત્યાગ, (૨) કથા-સ્ત્રી સબધી વાર્તાને ત્યાગ, (૩) નિષદ્યા-જ્યા Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ आवश्यकसूत्रस्य ॥ मूलम् ॥ __पडिकमामि सत्तहिं भयहाणेहिं । अहिं मयट्टाणेहिं । नवहिं वभचेरगुत्तीहि । दसविहे समणधम्मे ॥ सू० ९॥ ॥ लाया ॥ प्रतिक्रामामि सप्तभिर्भयस्थानः। अष्टभिर्मदस्थानः। नवमित्रह्मचर्ययप्तिभिः । दशविधे श्रमणधर्मे ॥ ० ९ ॥ ॥ टीका ॥ 'पडिकमामि' इत्यादि।भयभीतिस्तस्य स्थानानि पर्यायभेदाः-भयस्थानानि तैः, सप्त भयस्थानान्युक्तानि यथा-'इहपरलोयादाणमझम्हा आजीवमरणमसिलोए' इति । अस्य 'इहपरलोकादानमकस्मादाजीवमरणमश्लोकः-इतिच्छाया। तत्र लोकशब्दस्य द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणखादिहेत्यनेनाप्यन्वयः, इहलोका-सजातीयलोकस्त स्माद्भय यथा मनुष्येभ्यो मनुष्याणा, तिर्यग्भ्यस्तिरथा भयम् । परलोक विजा तीयलोकस्तस्माद्भय, यथा सिंहादिभ्यो मनुष्यादीना भयम्, आदीयते-गृह्यत इत्यादान धन, तहेतुक चौरा-ऽग्नि-राजादिभ्यो भयम्, यद्वा आदान-राजादि वितीर्णपदवीग्रामादिस्वीकरण, तदर्थ भयमर्थाद्राजादिभ्य एव, राजानो हि चार चक्षुष्ट्वात् क्षणे तुष्टा क्षणे रुष्टा दत्तमपि सर्वस्त्र कदाचिदपराधलवेनाऽप्यपहरन्ति, से फिर यह भविष्य मे ऐसा अनर्थ न करके अच्छे रास्ते चले और सुखी बने ॥ ६॥ । इसी प्रकार दुसरा आम्रफल के खानेवाले छह पुरुषों का दृष्टान्त प्रसिद्ध ही है ॥ स०८॥ (१) इहलोकभय-मनुष्य को मनुष्य से और तिर्यश्च को तियश्च से भय, (२) परलोकभय -मनुष्य आदि को सिंह आदि से भय, (३) आदानभय-चोर राजा आदि से धन आदि छीने जाने का भय, (४) કરવું જોઈએ જેથી એ ફરીથી ભવિષ્યમાં આવે અનર્થ ન કરીને ઉત્તમ માર્ગે જાય અને સુખી થાય (૬) આવી રીતે બીજુ આમ્રફળ ખાનારા છ પુરૂષનું टात प्रसिद्ध छ (सू०८) (૧) ઈકશ્ય- મનુષ્યને મનુષ્યથી અને તિર્થ અને તિર્યચથી ભય, (૨) પર લોકભય-મનુષ્ય આદિને સિંહ વિગેરેથી ભય, (૩) આદાન-ભય-ચેર ગજ વિગે Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम् - ४ तथोक नीतौ - ' राजा मित्र केन दृष्ट श्रुत वा, ' 'राजसेवा मनुष्याणामसिधारावलेहनम् । पञ्चाननपरिष्वद्गो, व्यालीबदनचुम्वनम्' इत्यादि । अकस्मात् = वाद्यनिमित्तमन्तरेणैव सर्पादिबुद्धया रज्ज्वादिभ्यो भय, सहसैवार्त्तनादादिश्रवणाद्वा भयम् । आजीवः=जीविका तस्मात्तदर्थं वा भयम्- 'निर्धनोऽह दुर्भिश्रादौ कथ प्राणान् धारयिष्यामि' इति, 'कथ वा मम जीविका सुद्धा भविष्यतीति । मरणप्राणवियोगस्तस्माद्भयम् । श्लोक = यशः - 'पद्ये यशसि च श्लोक - इत्यमरः, न श्लोकः अश्लोकः =अपयशस्तस्माद्भयम् । तदेवमुकविधैः सप्तभिर्भयस्थानैयों मयाऽविचारः कृतस्तस्मात वा मतिक्रामामि= विनिवर्त्ते - परित्यजामि वेति समन्वयः । अत्रोक्तस्य 'पडिकमामि' इत्यस्येत आरभ्य त्रयस्त्रिँशदाशातना यावत् सम्बन्धो नरोद्धव्यः । ' अहिं ' अष्टभि, 'मयहाणेहिं ' मदोऽहङ्कारस्तस्य स्थानानि = जातिकुल-चल-रूप-तपः-श्रुत-लाभ - श्वर्यरूपाणि तैः सम्बन्धः प्राग्वत् । " २१३ 'नवहिं' नवभि', 'बभचेरगुत्तीहिं' ब्रह्मचर्य = मैथुनविरतिप्रत तस्य गुप्तयः=रक्षामकाराः ब्रह्मचर्यगुप्तयः =मैथुनविरतिपरिरक्षणोपायास्ताभिः, सम्बन्धः पूर्ववत् । ताथ ब्रह्मचर्यगुप्तय - ( १ ) वसति - (२) कथा - ( ३ - ४) निषयेन्द्रिय- (५) कुडचान्तर- (६) पूर्वक्रीडा - (७-८) प्रणीताऽतिमात्राहार - (९) विभूषणपरिहाररूपा., तत्र वसतिः = स्त्रीपशुपण्डकाऽऽश्रितस्थान सेवन तत्परिहारः भथमा गुप्तिः (१) । अकस्माद्भय- विनाकारण ही अचानक डर जाना, (५) आजीविका भय - मेरा निर्वाह कैसे होगा ! दुष्काल आदि में प्राण कैसे रखूँगा ! इत्यादि रूप भय, (६) प्राणवियोग का भय, और (७) अश्लोक (अपयश ) होने का भय, इन सात भयों से, जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ, और ऐश्वर्य-मद, इन आठ मदों से, तथा (१) वसति - स्त्री, पशु, पण्डक सहित स्थान - का त्याग, (२) कथा - स्त्री सम्बन्धी રેથી ધન આદિ છીનવીને લઈ જવાના ભય, (૪) અકસ્માતૃભય-—વિના કારણેજ અચાનક ખી જવુ, (૫) ખાવિકાભય-મારે નિર્વાહ કેમ થાશે? દુષ્કાળ સ્માદિમા आयु ४४ रीते राणीश ? त्याहि ३५ काय, (९) प्राथ वियोजना लय, भने (७ असे! (पास) थवान! लय, मा सात भयोथी नति, भु, जल, ३५, तथ, श्रुत सभ मने मैश्वर्य-मह भा आहे महोथी तथा (1) वसति-स्त्री, पशु, પડક सहित स्थाननो त्याग, (२) ४था - स्त्री समधी वार्तानी त्याग, (3) निषद्या-त्या Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २१४ । आवश्यकत्रस्य कथा-वीसम्बन्धिनी, स्त्रिया सहकान्ते वा वार्ता, तत्परिहारो द्वितीया (२)। निपधा=पूर्वमुपविष्टाना पश्चादुत्थिताना स्त्रीणामासने तदुत्यानोत्तर होराद्वयाभ्यन्तरे समुपवेशस्तत्परिहारः (३)। इन्द्रियम् इन्द्रियारलोकन-त्रीणामङ्गोपाङ्गनिरीक्षण, तत्परिहारः (४)। "कुड्यान्तर=भित्यादिव्यवहिताना स्त्रीणा सम्मोहकमपुर ध्वन्याधाकर्णन तत्परिहारः (५)। 'पूर्वक्रीडा' दीक्षाग्रहणात्पूर्व ससारावस्थाया स्त्रिया सह कृतस्य क्रीडादेः स्मरण, तत्परिहारः (६), प्रणीन-निष्यन्दमान घृतादिपिन्दु, ततोऽन्यदपि वा धातूपवृहक भोज्यवस्तु तत्परिहार. (७), अतिमात्राऽऽहारः परिमाणाधिकभोजन, तत्परिहारः (८), विभूपण-स्नानादिना शरीरसस्कारस्तत्परिहारः (९)। 'दसविहे' दश विधा:-कारा यस्य स तथा तस्मिन् 'समणधम्मे' श्रमणधर्म, 'यो मयाऽतिचारः कृत'-इत्यादिसम्बधी घार्ता का त्याग, (३) निपद्या-जहाँ पहले स्त्री बैठी हो उस स्थान पर स्त्री के उठ जाने पर दो घडी के भीतर उस स्थान पर उपवेशन (बैठने) आदि का त्याग, (४) इन्द्रिय-स्त्री के अगोपाग के निरीक्षण का त्याग, (५) कुड्यान्तर-दीवार आदि की ओटमे स्त्री पुरुष के विषयोत्तेजक शब्द श्रवण का त्याग, (६) पूर्वक्रीडा-स्त्री के साथ पहले की हुई क्रीडा आदि के स्मरण का त्याग, (७) प्रणीत-प्रतिदिन सरस भोजन का त्याग, (८) अतिमात्राहार-प्रमाण से अधिक भोजन का त्याग, (९) विभूषा-शरीर की शुश्रूषा का त्याग, इन नौ ब्रह्मचर्यगुप्तियों (याडों) द्वारा और क्षान्ति, मुक्ति (लोभ परित्याग), आर्जव (मायापरित्याग), मार्दव (मानपरित्याग), लाघव પહેલા સ્ત્રી બેઠી હોય તે સ્થાન ઉપર સ્ત્રી ઉઠી ગયા બાદ બે ઘડીની અંદર તે જગ્યા ઉપર બેસવા વિગેરેને ત્યાગ, (૪) ઈન્દ્રિય-સ્ત્રીના અગ-ઉપાગ જેવાને ત્યાગ, (૫) કુષાન્તર-દીવાલ આદિની ઓટમાં સ્ત્રીપુરુષના વિષયને ઉત્તેજન કરે એવા શબ્દ સાંભળવાને ત્યાગ, (૬) પૂર્વકીડા-સ્ત્રીની સાથે પ્રથમ કરેલી કીડા विगैरेना भरथना त्याग, (७) महात-प्रतिदिन सरस सोननी त्याग, (८) અતિમન્નાહાર-પ્રમાણુથી વધારે ખેરાક ખાવાને ત્યાગ (૯) વિભૂષા-શરીરની શુશ્રષાને ત્યાગ, આ નવ બ્રહ્મચર્ય શુતિઓ (વાડ) દ્વારા અને ક્ષાન્તિ, મુક્તિ १ कुड्यस्य अन्तर व्यवधान कुडपान्तरम् , एतस्योपलक्षणत्वादुक्तोऽर्थः । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ भूतपूर्व एव, तत्र दश श्रमणधर्मा यथा-क्षान्ति-मुक्ति-रार्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, सयम-स्तप-स्त्यागो, ब्रह्मचर्यवासश्चेति ॥ सू० ९॥ ॥ मूलम् ॥ एगारसहि उवासगपडिमाहिं ॥ सू० १०॥ ॥ छाया ॥ एकादशभिरुपासम्पतिमाभिः ॥ सू० १०॥ ॥ टीका ॥ 'एगारसहि' इत्यादि । उपासते अमणानित्युपासका श्रावकास्तेपा प्रतिमा अभिग्रहा (प्रतिज्ञाविशेषाः) उपासकमतिमास्ताभिः प्ररूपणादौ यो मयाऽतिचारः कृत इत्या-िसम्बन्धो यथापूर्वम् । आसा प्रतिमानामाया प्रथमा (१) मासिकी सम्यक्त्व (दर्शन)-प्रतिमा, शङ्कादिदोपरहितस्य सम्यक्त्वस्य पालनम् । द्वितीया (२) द्वैमासिकी व्रतप्रतिमा, तत्र नैमल्येन (द्रव्यभावसे लघुता), सत्य, सयम, तप, त्याग (साम्भोगिक साधुओं को आहारादि लाकर देना) और ब्रह्मचर्यवास (ब्रह्मचर्यपालन) इस दश प्रकार के यतिधर्म मे जो कोई अतिचार किया गया हो तो उससे मैं निवृत्त होता हूँ ॥ सू० ९॥ ___उपासकों (श्रावकों) की प्रतिमाएँ (प्रतिज्ञाविशेष) ग्यारह होती हैं, उनमें पहली 'दर्शनप्रतिमा' एक मास की, इसमें एक मास एकान्तर उपवास और शङ्कादि दोषों से रहित निर्मल समकित का पालन किया जाता है (१)। दूसरी 'व्रतप्रतिमा' दो मास की होती है, इसमें पूर्वक्रिया सहित दो महीने तक दो दो उपवास (बामना त्या) मा (मायाना त्या) भाईव (भानना त्याग) साप (दव्य माथी पापा), सत्य, सयम, त५, त्याग (साnिs साधुमान આહાર વિગેરે લાવી દે), અને બ્રહ્મચર્યવાસ (બ્રહ્મચર્યપાલન) આ દશ પ્રકા રના યતિધર્મમાં જે કઈ અતિચાર કર્યો હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉ છુ (સ. ૯) ___SH (श्राप ) नी प्रतिभायो (प्रतिज्ञाविशेष) भगिया२ डाय छ એમાં પહેલી દર્શનપ્રતિમા એક માસની, એમા એક માસ એકાતર ઉપવાસ અને શકાદિ દેથી રહિત નિમલ સમકિતનું પાલન કરાય છે (૧) બીજી “વ્રત પ્રતિમા બે માસની હોય છે એમાં પૂર્વ ક્રિયા સહિત બે મહિના સુધી બબ્બે ઉપવાસના પારણાપૂર્વક વ્રત પ્રત્યાખ્યાન નિર્મળ પાળવામાં આવે છે (૨) ત્રીજી Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ । आवश्यकत्रस्य - कथा-वीसम्बन्धिनी, स्त्रिया सहकान्ते या वार्ता, तत्परिहारो द्वितीया (२)। निपधा-पूर्वमुपविष्टाना पश्चादुत्थिताना स्त्रीणामासने तदुस्यानोत्तर होराद्वयाभ्यन्तरे समुपवेशस्तत्परिहारः (३)। इन्द्रियम् इन्द्रियावलोकन स्त्रीणामहोपानिरीक्षण, तत्परिहारः (४)। 'कुड्यान्तर=मित्यादिव्यवहिताना स्त्रीणा सम्मोहक्मधुर धन्याधाकर्णन तत्परिहारः (५)। पूर्वक्रीडा' दीक्षाग्रहणात्पूर्व ससारावस्थाया स्त्रिया सह कृतस्य क्रीडादेः स्मरण, तत्परिहारः (६), प्रणीत-निष्यन्दमान धृतादिरिन्दु, ततोऽन्यदपि वा धातूपबृहक भोज्यवस्तु तत्परिहार. (७), अतिमात्राऽऽहारः परिमाणाधिकभोजन, वत्परिहारः (८), विभूपण-स्नानादिना शरीरसस्कारस्तत्परिहारः (९)। 'दसविहे' दश विधामकारा यस्य स तथा तस्मिन् 'समणधम्मे' श्रमणधर्मे, 'यो मयाऽतिचारः कृत'-इत्यादिसम्बधी वार्ता का त्याग, (३) निपद्या-जहाँ पहले स्त्री बैठी हो उस स्थान पर स्त्री के उठ जाने पर दो घडी के भीतर उस स्थान पर उपवेशन (बैठने) आदि का त्याग, (४) इन्द्रिय-स्त्री के अगोपाग के निरीक्षण का त्याग, (५) कुड्यान्तर-दीवार आदि की ओटमें स्त्री पुरुष के विषयोत्तेजक शब्द श्रवण का त्याग, (६) पूर्वक्रीडा-स्त्री के साथ पहले की हुई क्रीडा आदि के स्मरण का त्याग, (७) प्रणीत-प्रतिदिन सरस भोजन का त्याग, (८) अतिमात्राहार-प्रमाण से अधिक भोजन का त्याग, (९) विभूषा-शरीर की शुश्रूषा का त्याग, इन नौ ब्रह्मचर्य गुप्तियों (याडों) द्वारा और क्षान्ति, मुक्ति (लोभ परित्याग), आर्जव (मायापरित्याग), मार्दव (मानपरित्याग), लाघव પહેલા સ્ત્રી બેઠી હોય તે સ્થાન ઉપર સ્ત્રી ઉઠી ગયા બાદ બે ઘડીની અંદર તે જગ્યા ઉપર બેસવા વિગેરેને ત્યાગ, (૪) ઈન્દ્રિય–સ્ત્રીના અગ-ઉપાગ જેવાને ત્યાગ, (૫) કુડયાન્તર-દીવાલ આદિની એટમાં સ્ત્રીપુરુષના વિષયને ઉત્તેજન કરે એવા શબ્દ સાભળવાને ત્યાગ, (૬) પૂર્વક્રીડા-સ્ત્રીની સાથે પ્રથમ કરેલી કીડા વિગેરેના સમરણને ત્યાગ, (૭) પ્રણત-પ્રતિદિન સરસ ભેજનને ત્યાગ, (૮) અતિમાત્રાહાર-પ્રમાણથી વધારે ખેરાક ખાવાને ત્યાગ (૯) વિભૂષા-શરીરની શુષને હવાગ, આ નવ બ્રહ્મચર્ય ગુપ્તિએ (વાડે) દ્વારા અને ક્ષાન્તિ, મુક્તિ १ कुड्यस्य अन्तर व्यवधान कुडपान्तरम् , एतस्योपलक्षणत्वादुक्तोऽर्थः। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपणी टीका, पतिक्रमणाध्ययनम्-४ २१७ “कच्छत्व च । -सप्तमी (७) “सप्तमासिकी-सचित्तपरित्यागप्रतिमा, तत्र सर्वथा सचित्तवस्तुपरित्यागः। अष्टमी (८) अष्टमासिकी आरम्भपरित्यागप्रतिमा, तत्र स्वहस्तेनारम्भपरित्यागः । नवमी (९) ननमासिकी-प्रेप्यारम्भपरित्यागमतिमा, तत्र अन्यद्वाराप्यारम्भपरित्यागः। दशमी (१०) दशम्गसिकी उद्दिष्टभक्तपरित्यागप्रतिमा, तत्र स्वोद्दिष्टभक्तपरित्यागः । अत्र स्थित्तेन श्रावकेण क्षुरमुण्डितमुण्डेनाs छह छह उपवास का पारणापूर्वक अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन किया जाता है तथा दोनों लागे खुली रखी जाती हैं (६)। सातवी 'सचित्तपरित्यागप्रतिमा' सात मास की, इसमे सात मास तक सात सात उपवास का पारणा, और सर्वथा सचित्त वस्तु का त्याग किया जाता है (७) । आठवीं 'आरम्भपरित्यागप्रतिमा' आठ मास की, इसमे आठ मास तक आठ आठ उपवास का पारणा तथा स्वय आरम करने कात्याग कियाजाता है (८)। नववीं 'प्रेष्यारम्भपरित्यागप्रतिमा नौ मास की, इसमे नौ मास तक नौ २ उपवास का पारणा और दूसरे से भी आरभ कराने का परित्याग किया जाता है (९)। दसवी "उद्देश्यप्रतिमा' दस मास की, इसमें दस मास तक दस दस उपवास का पारणा तथा अपने उद्देश्य से बनाये गये आहारादि का परित्याग किया जाता है, इसमें स्थित श्रावक क्षुरमुण्डित अथवा अमुपिडत रह कर गृहसम्बन्धी किसी बात के पूछे जाने પારણા પૂર્વક અખંડ બ્રહાચર્યનું પાલન કરાય છે તથા ને લાગે ખુલી રાખ વામાં આવે છે (૬) સાતમી “સચિત્તપરિત્યાગપ્રતિમા સાત માસની, એમાં સાત માસ સુધી સાત સાત ઉપવાસના પારણા અને સર્વથા સચિત્ત વસ્તુને ત્યાગ કરાય છે (૮) આઠમી “આર ભપરિત્યાગપ્રતિમા આઠ માસની, એમાં આઠ માસ સુધી આઠ આઠ ઉપવાસના પારણા અને પિતાના હાથે આરામ કરવાને યગ કરાય છે (૯) નવમી “પ્રેગ્યાર પરિત્યાગપ્રતિમા' નવ માસની, એમાં નવ માસ સધી નવ નવ ઉપવાસના પારણા અને બીજાથી પણ આર ભ કરાવવાને પરિત્યાગ કરાય છે (૧૦) દશમી “ઉદેશ્યપ્રતિમા” દશ માસની, એમાં દશ માસ સુધી દશ દશ ઉપવાસના પારણું અને પોતાના ઉદેશથી બનાવાએલા આહારદિકને પરિત્યાગ કરાય છે, એમાં રહેલ શ્રાવક મુરમુકિત અથવા અમુડિત રહીને ઘર Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ आवश्यकसत्रस्य व्रत-पत्याख्यानयोः पालनम् । तृतीया (३) त्रैमासिकी सामायिकप्रतिमा, तत्र अतिचारवर्जनपूर्वकमुभयोः फालयोः सामायिकाऽऽचरणम् । चतुर्थों (४) चातुर्मासिकी पौपधपतिमा, तत्र अष्टमी-चतुर्दशी-पूर्णिमादिपर्वतिथि पूपवासः । पञ्चमी (५) पश्चमासिकी मतिमा, तन स्नान-रात्रिभोजनवर्जन-कच्छे कमोचन-दिवाब्रह्मचर्यपालन - नक्तन्तत्परिमाणकरणरूपपञ्चविधमर्यादापालनम् । __ पष्ठी (६) 'पाण्मासिकी ब्रह्मपतिमा, तत्र सर्वथा ब्रह्मचर्यपालनम्-अवद्धपरिधान का पारणापूर्वक व्रतप्रत्याख्यान निर्मल पाला जाता है (२) । तीसरी 'सामायिकप्रतिमा' तीन मास की, इसमें तीन मास तक तीन तीन उपवास का पारणा किया जाता है, दोनों काल अतिचार रहित सामायिक की जाती है (३)। चौथी 'पौषधप्रतिमा' चार मास की, इस में चार मास तक चार चार उपवास का पारणापूर्वक अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा आदि पर्व तिथियों में पौषध किया जाता है (४)। पाचवी 'प्रतिमा' नामकी प्रतिमा पांच मास की, इसमें पांच मास तक पाच पाच उपवास का पारणापूर्वक पाच बोलों की मर्यादा की जाती है। वे पाच बोल इस प्रकार हैं-(१) स्नान न करना, (२) रात्रिभोजन न करना, (३) एक लॉग खुली रखना, (४) दिन में मैथुन का सर्वथा त्याग करना, और (६) रात्रि में उसका परिमाण करना, परन्तु पौषध-अवस्था मे सर्वथा त्याग ही करना (५)। छठी 'ब्रह्मप्रतिमा' छह मास की, इसमे छह महीने तक “સામાયિકપ્રતિમા” ત્રણ માસની એમા ત્રણ માસ સુધી ત્રણ ત્રણ ઉપવાસના પારણુ કરાય છે અને વખત અતિચારરહિત સામાયિક કરાય છે (૩), ચેથી “પોષધ પ્રતિમ” ચાર માસની, એમાં ચાર માસ સુધી ચાર ચાર ઉપ વાસના પારણુ અને આઠમ, ચોદશ, પૂનમ, આદિ પર્વ તિથિમાં પૌષધ કરાય छ (४) पायभी प्रतिभा' नामनी प्रतिभा पाय भासनी, सभा (पाय मास સુધી પાચ પાચ ઉપવાસના પારણાપૂવક નિમ્ન પાચ બોલેની મર્યાદા કરાય છે તે પાચ બેલ આ પ્રકારે છે–(૧) સ્નાન ન કરવું (૨) રાત્રિ ભોજન ન કરવું (૩) એક લાગ ખુલી રાખવી (૪) દિવસે મિથુનને સર્વથા ત્યાગ કરે અને (૫) રાત્રિમાં એને પરિમાણુ કરવુ, પરતુ પોષધ અવસ્થામાં સર્વથા ત્યાગજ કરવા (૨) છઠી “બ્રહ્મપ્રતિમા' છ માસની, એમાં (છ માસ સુધી છ છ ઉપવાસના Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D मुनितोषणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २१७ कच्छत्व च ।-सप्तमी (७) सप्तमासिकी-सचित्तपरित्यागप्रतिमा, तत्र सर्वथा सचित्तवस्तुपरित्यागः । अष्टमी (८) अष्टमासिकी आरम्भपरित्यागप्रतिमा, तत्र स्वहस्तेनारम्भपरित्यागः । नवमी (९) नवमासिकी-प्रेप्यारम्भपरित्यागमतिमा, तत्र अन्यद्वाराप्यारम्मपरित्यागः। दशमी (१०) दशम्गसिकी उद्दिष्टभनापरित्यागप्रतिमा, तत्र स्वोदिष्टभापरित्यागः । अत्र स्थितेन श्रावकेण सुरमुण्डितमुण्डेनाs छह ह उपवास का पारणापूर्वक अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन किया जाता है तथा दोनो लागे खुली रखी जाती हैं (६)। सातवीं 'सचित्तपरित्यागप्रतिमा' सात मास की, इसमें मात मास तक सात मात उपवास का पारणा, और सर्वथा सचित्त वस्तु का त्याग "किया जाता है (७)। आठवीं 'आरम्भपरित्यागप्रतिमा' आठ मास की, इसमें आठ मास तक आठ आठ उपवास का पारणा तथा स्वय आरभ करने का त्याग कियाजाता है (८)। नववीं 'प्रेष्यारम्भपरित्यागप्रतिमा' नौ मास की, इसमे नौ मास तक नौ २ उपवास का पारणा और दूसरे से भी आरभ कराने का परित्याग किया जाता है (९)। दसवीं "उद्देश्यप्रतिमा' दस मास की, इसमें दस मास तक दस दम उपवास का पारणा तथा अपने उद्देश्य से बनाये गये आहारादि का परित्याग किया जाता है, इसमें स्थित श्रावक क्षुरमुण्डित अथवा अमुण्डित रह कर गृहसम्बन्धी किसी बात के पूछे जाने પાણપૂર્વક અખંડ બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરાય છે તથા બને લાગે ખુલી રાખ વામાં આવે છે (૬) સાતમી સચિરપરિત્યાગપ્રતિમા’ સાત માસની, એમાં સાત માસ સુધી સાત સાત ઉપવાસના પારણા અને સર્વથા સચિત્ત વસ્તુને ત્યાગ કરાય છે (૮) આઠમી “આરબપરિત્યાગપ્રતિમા આઠ માસની, એમાં આઠ માસ સુધી આઠ આઠ ઉપવાસના પારણુ અને પિતાના હાથે આરામ કરવાને ત્યાગ કરાય છે (૯) નવમી “પ્રેગ્ગાર પરિત્યાગપ્રતિમા' નવ માસની, એમ નવ માસ સુધી નવ નવ ઉપવાસના પારણુ અને બીજાથી પણ આર ભ કરાવવાને પરિત્યાગ કરાય છે (૧૦) દશમી “ઉદેશ્યપ્રતિમા” દશ માસની, એમાં દશ માસ સુધી દશ દશ ઉપવાસના પારણા અને પિતાના ઉદ્દેશથી બનાવાએલા આહારાદિકને પરિત્યાગ કરાય છે, એમાં રહેલ શ્રાવક મુરમુડિત અથવા અમુડિત ગહીને ઘર Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २१६ आवश्यकसूत्रस्य व्रत-प्रत्याख्यानयोः पालनम् । तृतीया (३) त्रैमासिकी सामायिक मतिमा, तत्र अतिचारवर्जनपूर्वकमुमयोः कालयोः सामायिकाऽऽचरणम् । चतुर्थों (४) चातुर्मासिकी पौषधमतिमा, तत्र भष्टमी-चतुर्दशी-पूर्णिमादिपर्वतिथि पूपवासः । पञ्चमी (५) पञ्चमासिकी मतिमा, तर स्नान-रात्रिभोजनवर्जन-वच्छ कमोचन-दिवाब्रह्मचर्यपालन - नक्तन्तत्परिमाणकरणरूपपञ्चविधमर्यादापालनम् । पष्ठी (६) 'पाण्मासिकी ब्रह्मप्रतिमा, तत्र सर्वथा ब्रह्मचर्यपालनम्-अवद्धपरिधान का पारणापूर्वक व्रतप्रत्याख्यान निर्मल पाला जाता है (२)। तीसरी 'सामायिकप्रतिमा' तीन मास की, इसमें तीन मास तक तीन तीन उपवास का पारणा किया जाता है, दोनी काल अतिचार रहित सामायिक की जाती है (३)। चौथी 'पोपधप्रतिमा' चार मास की, इस में चार मास तक चार चार उपवास का पारणापूर्वक अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा आदि पर्व तिथियों में पौपध किया जाता है (४)। पाचवी 'प्रतिमा' नामकी प्रतिमा पाच मास की, इसमें पाच मास तक पाच पाच उपवास का पारणापूर्वक पाच बोलों की मर्यादा की जाती है। वे पाच बोल इस प्रकार हैं-(१) स्नान न करना, (२) रात्रिभोजन न करना, (३) एक लँाग खुली रखना, (४) दिन में मैथुन का सर्वथा त्याग करना, और (५) रात्रि में उसका परिमाण करना, परन्तु पौषध-अवस्था में सर्वथा त्याग ही करना (५)। छठी 'ब्रह्मप्रतिमा' छह मास की, इसमें छह महीने तक સામાયિકપ્રતિમા ત્રણ માસની એમાં ત્રણ માસ સુધી ત્રણ ત્રણ ઉપવાસના પારણુ કરાય છે અને વખત અતિચારરહિત સામાયિક કરાય છે (૩), એથી “પષધ પ્રતિમ” ચાર માસની, એમા ચાર માસ સુધી ચાર ચાર ઉપ વાસના પારણા અને આઠમ, ચોદશ, પૂનમ, આદિ પર્વ તિથિમા પોધ કરાય છે (૪) પાચમી પ્રતિમા નામની પ્રતિમા પાચ માસની, એમા (પાચ માસ સુધી પાચ પાચ ઉપવાસના પારણાપૂવર્ક નિમ્ન પાચ બેલેની મર્યાદા કરાય છે તે પાચ બેલ આ પ્રકારે છે-(૧) સ્નાન ન કરવું (૨) રાત્રિ ભેજન ન કરવું (૩) એક લાગ ખુલી રાખવી (૪) દિવસે મિથુનને સર્વથા ત્યાગ કરો અને (૫) રાત્રિમાં એનો પરિમાણ કરવું, પરંતુ પૌષધ અવસ્થામાં સવ થા ત્યાગજ કરવા (૨) છઠી બ્રહ્મપ્રતિમા” છ માસની, એમા (છ માસ સુધી છ છ ઉપવાસના Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २१७ - कच्छव च । सप्तमी (७) सप्तमासिकी सचित्तपरित्यागमतिमा, तत्र सर्वथा सचित्तवस्तुपरित्यागः । अष्टमी (८) अष्टमासिकी आरम्भपरित्यागमतिमा, तत्र स्वहस्तेनारम्भपरित्यागः । नवमी ( ९ ) नवमासिकी - मेष्यारम्भपरित्यागमतिमा, - तत्र अन्यद्वाराप्यारम्भपरित्यागः । दशमी (१०) दशमासिकी उद्दिष्टभक्तपरित्यागप्रतिमा, तत्र स्वोद्दिष्टभकपरित्यागः । अत्र स्थितेन श्रावण सुरमुण्डितमुण्डेनाऽ छह छह उपवास का पारणापूर्वक अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन किया जाता है तथा दोनों लागे खुली रखी जाती हैं (६) । सातवीं 'सचित्तपरित्यागप्रतिमा' सात मास की, इसमें सात मास तक सात सात उपवास का पारणा, और सर्वथा सचित्त वस्तु का त्याग किया जाता है (9) । आठवीं 'आरम्भपरित्यागप्रतिमा' आठ मास की, इसमें आठ मास तक आठ आठ उपवास का पारणा तथा स्वयं आरभ करने का त्याग किया जाता है (८)। नववी 'प्रेप्यारम्भपरित्यागप्रतिमा' नौ मास की, इसमें नौ मास तक नौ २ उपवास का पारणा और दूसरे से भी आरभ कराने का परित्याग किया जाता है (९) । दसवी 'उद्देश्यप्रतिमा' दस मास की, इसमें दस मास तक दस दम उपवास का पारणा तथा अपने उद्देश्य से बनाये गये आहारादि का परित्याग किया जाता है, इसमें स्थित श्रावक क्षुरमुण्डित अथवा अमुण्डित रह कर गृहसम्बन्धी किसी बात के पूछे जाने પારણાપૂર્વક અખંડ બ્રહ્મચર્યંનુ પાલન કરાય છે તથા અને લાગે ખુલી રાખ વામા આવે છે (६) सातभी 'सवित्तपरित्यागप्रतिमा' सात भासनी, मेभा સાત માસ સુધી સાત સાત ઉપવાસના પારણા અને સથા સચિત્ત વસ્તુને त्याग पुराय छे (८) माभी 'आर अपरित्यागप्रतिमा' आहे भासनी, भेभा આઠે માસ સુધી આઠ આઠ ઉપવાસના પારણા અને પેાતાના હાથે આરબ કરવાને ત્યાગ કરાય છે (૯) નવમી ‘પ્રેષ્કાર ભપરિત્યાગપ્રતિમા ' નવ માસની, એમા નવ માસ સુધી નવ નવ ઉપવાસના પારણા અને ખીજાથી પશુ આર ભકવવાના પરિત્યાગ કરાય છે (૧૦) દશમી ‘ ઉદ્દેશ્યપ્રતિમા ’ દશ માસની, એમા દશ માસ સુધી દશ ઉપવાસના પારણા અને પેાતાના ઉદ્દેશથી ખનાવાએલા આહારાદિકના પરિત્યાગ કરાય છે, એમા રહેલ શ્રાવક ક્ષુરસુતિ અથવા અમુક્તિ ઝ્હીને ઘર Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3- - --- २१६ आवश्यकसूत्रस्य व्रत-पत्याख्यानयोः पालनम् । तृतीया (३) त्रैमासिकी सामायिक प्रतिमा, तत्र अतिचारवर्जनपूर्वकमुभयोः कालयोः सामायिकाऽऽचरणम् । चतुर्थी (४) चातुर्मासिकी पौपधमतिमा, तत्र अष्टमी-चतुर्दशी-पूर्णिमादिपर्वतिथि पूपवासः । पञ्चमी (५) पञ्चमासिकी मतिमा, तर स्नान-रात्रिभोजनवर्जन-वच्छे कमोचन-दिवाब्रह्मचर्यपालन - नक्तन्तत्परिमाणकरणरूपपञ्चविधमर्यादापालनम् । पष्ठी (६) 'पाण्मासिकी ब्रह्मपतिमा, तत्र सर्वथा ब्रह्मचर्यपालनम्-अबद्धपरिधान का पारणापूर्वक व्रतप्रत्याख्यान निर्मल पाला जाता है (२) । तीसरी 'सामायिकप्रतिमा' तीन मास की, इसमें तीन मास तक तीन तीन उपवास का पारणा किया जाता है, दोनों काल अतिचार रहित सामायिक की जाती है (३)। चौथी 'पौषधप्रतिमा' चार मास की, इस में चार मास तक चार चार उपवास का पारणापूर्वक अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा आदि पर्व तिधियों मे पौषध किया जाता है (४)। पाचवी 'प्रतिमा' नामकी प्रतिमा पांच मास की, इसमें पाच मास तक पाच पाच उपवास का पारणापूर्वक पांच बोलों का मर्यादा की जाती है। वे पाच बोल इस प्रकार हैं-(१) स्नान न करना, (२) रात्रिभोजन न करना, (३) एक लॅॉग खुली रखना, (४) दिन में मैथुन का सर्वथा त्याग करना, और (६) रात्रि में उसका परिमाण करना, परन्तु पौषध-अवस्था मे सर्वथा त्याग ही करना (५)। छठी 'ब्रह्मप्रतिमा' छह मास की, इसमे छह महीने तक સામાયિકપ્રતિમા” ત્રણ માસની એમ ત્રણ માસ સુધી ત્રણ ત્રણ ઉપવાસના પારણા કરાય છે અને વખત અતિચારરહિત સામાયિક કરાય છે (૩) ચેથી “પષધ પ્રતિમા ” ચાર માસની, એમા ચાર માસ સુધી ચાર ચાર ઉપ વાસના પારણું અને આઠમ, ચૌદશ, પૂનમ, આદિ પર્વ તિથિમ પૌષધ કરાય छ (४) पायभी 'प्रतिभा' नामनी प्रतिभा पाय भासनी, सभा (पाय भास સુધી પાચ પાચ ઉપવાસના પારણાપૂવર્ક નિગ્ન પાચ બેલેની મર્યાદા કરાય છે તે પાચ બોલ આ પ્રકારે છે–(૧) સ્નાન ન કરવું (૨) રાત્રિ ભેજન ન કરવું (૩) એક લાગ ખુલી રાખવી (૪) દિવસે મિથુનને સર્વથા ત્યાગ કર અને (૫) રાત્રિમાં એને પરમાણુ કરવું, પરંતુ પૌષધ અવસ્થામા સર્વથા ત્યાગજ કર (૨) છઠી “બ્રહ્મપ્રતિમા” છ માસની, એમા (છ માસ સુધી છ છ ઉપવાસના Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्--४ ॥ मूलम् ॥ वारसहि भिक्खुपडिमाहि ॥ सू० ११ ॥ ॥छाया ॥ द्वादशभिभिक्षुपतिमाभिः ॥ सु० ११ ॥ ॥ टीका ॥ द्वादशभिभिक्षुपतिमाभिः-भिक्षुणा प्रतिमाः भिक्षुपतिमास्ताभिर्योऽतिचारः कृत इत्यादिसम्बन्ध' माग्वदेव । तत्र प्रथमा मासिकी भिक्षोः प्रतिमा, तस्यामन्नस्य जलस्य चैकैका दत्तिर्ग्राह्या, दत्तिश्च हस्तपात्रादितो निरवच्छिन्नधारारूपेण पतिता भिक्षा गृह्यते, धाराविच्छेदेन तु मिस्थमात्रपातेऽपि दत्तिभेदः। एव द्वैमासिकी-त्रैमासिकी-चातुर्मासिकी-पाश्चमासिकी-पाण्मासिकी-सप्तमासिकीपु क्रमेणाऽन्न-जलयोर्दत्तिद्वय-य-चतुष्टय-पश्चतय-पट्क-सप्तकानि गृह्यन्त इति स्वयमूहनीयम् । अष्टमी प्रतिमा सप्ताहोरात्रिकी, तत्र चतुर्विधाऽऽप्रतिमा के गुण उत्तर उत्तर प्रतिमामें समझने चाहिये। इनमें प्ररूपणा आदि द्वारा जो कोई अतिचार लगा हो तो उससे मैं निवृत्त होता हैं ॥१० १०॥ भिक्षु (साधु) की बारह प्रतिमाएँ (प्रतिज्ञाविशेष) होती है । पहली एक मासकी, यावत् सातवीं सातमासकी भिक्षुप्रतिमा । पहली प्रतिमामे निर्लेप एक दत्ति अन्नकी एक दत्ति पानी की ली जाती है। अखण्डित एक धारा से एक बार जितना आहारपानी पात्र मे गिरे उतना ही उपभोग में ले १। इसी प्रकार क्रमसे सातधी प्रतिमामे सात दत्ति अन्न और सात दत्ति पानी की ली મામા સમજવા જોઈએ એમ પ્રરૂપણા આદિ દ્વારા જે કોઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉં છું (સૂ૦ ૧૦) લિમ્ (સાધુ) ની બાર પ્રતિમાઓ (પ્રતિજ્ઞાવિશેષ) (ય છે પહેલી એક માસની, બીજી બે માસની, યવત સાતમી સાત માસની ભિક્ષુપ્રતિમા પહેલી પ્રતિમામાં નિલેપ એક દત્તિ અન્નની એક દત્તિ પાણીની લેવાય છે અખડિત એકધારાથી એક વખત જેટલે આહાર પાણી પાત્રમાં પડે તેટલેજ Qualiann11 - .. ... .."1भी प्रतिभामा सात ति मननी भने Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न ग्यारहवीं २१८ 1 आवश्यकत्रस्य मुण्डितेन पा गृहसम्पन्चे कैबित्किञ्चित्पृष्टे सति तझाने 'वेगी'-ति तदझाने 'न वेग्रीति च निगदता भाज्यम् । एकादशी (११) एकादशमासिकी-श्रमणभूत प्रतिमा, तर तेन शिखान कृतलचनेन झुरमुण्डितेन वा साधुवेपधारिणा ईर्या समित्यादिकमखिल साधुधर्ममनुपालयता धृतनिर्वस्त्ररजोहरणदण्डेन स्वजाति मात्रत एव पालितभिक्षाग्रहणतेन भिक्षायै गृहप्रवेशवेलाया 'श्रमणोपासकाय प्रतिपन्नाय भिक्षा देया'-इति भापितव्यम्, 'कस्त्व'-मिति केनापि पृष्टे सति 'श्रमणोपासकोऽहम्, इति त्रुपता भरितव्यम् । आस्वेकादशसु प्रतिमाह यथोत्तर पूर्वपूर्वपतिमागतगुणसम्बन्धी गोभ्यः ॥ ० १० ॥ पर जानता हो तो कहे कि 'जानता हूँ और नही जानता हो तो ऐसा कहे 'नहीं जानता है (१०)। ग्यारहवीं 'श्रमणभूत (साधु समान) प्रतिमा' ग्यारह मास की, इस में ग्यारह महीने तक ग्यारह २ उपवास का पारणा किया जाता है. इस में स्थित श्रावक शक्ति हो तो लोच करे, नहीं तो मुण्डन करे, शिखा रक्ख, ईर्यासमिति आदि समस्त साधुधर्मों का पालन करता हुआ उघाडी (खुली हुई) दाडी का रजोहरण लिये हुए केवल अपनी जाति मे गोचरी करे और गोचरी के लिये किसी के घरमें प्रवेश करते समय बोले कि-'प्रतिमाधारी श्रमणोपासक को भिक्षा दो।' यदि कोई पूछे कि-'तुम कौन हो?' तो कहे कि 'मै प्रतिमाधारी श्रावक हूँ साधु नहीं' (१)। इन ग्यारह प्रतिमाओं मे पहली पहली સબધી કઈ વાત પૂછવામાં આવે તે જાણતા હોય તે કહે કે હું જાણું છું, નહિ જાણતા હોય તે કહે કે નથી જાણતે, (૧૧) અગિયારમી “શ્રમણભૂત(સાધુસમાન) પ્રતિમા' અગિયાર માસની, એમાં અગિયાર માસ સુધી અગિયાર અગિયાર ઉપ વાસના પારણા કરાય છે એમા સ્થિત શ્રાવક શકિત હોય તે લેચ કરે, નહિ તે મુંડન કરે, એટલી રાખે, ઈસમિતિ આદિ સર્વ સાધુધર્મોનું પાલન કરતા થકા ઉઘાડી દાડીનું જેહરણ લઈને કેવળ પિતાની જાતિમાજ ગોચરી કરે અને નેચરી માટે કેઈના ઘરમાં પ્રવેશ કરતી વખતે બેલે કે “પ્રતિમાપારી શ્રમણોપાસકને શિક્ષા આપે ને કઈ પૂછે કે તમે કેણ છે?” તે કહેવું કે “હ પ્રતિમાપારી શ્રાવક છે, સાધુ નથી” આ અગિયાર પ્રતિમાઓમાં પહેલી પહેલી પ્રતિમાના ગુણ ઉત્તાર ઉત્તર પ્રતિ धारह २ उपवा ग्यारह मास Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितीषणी टीका, पतिक्रमणाध्ययनम्-४ २१९ - -- ॥ मूलम् ॥ वारसहि भिक्खुपडिमाहि ॥ सू० ११ ॥ ॥ या ॥ द्वादशभिभिक्षुपतिमाभिः ।। मू० ११ ॥ ॥ टीका ॥ द्वादशभिभिक्षुपतिमाभिः-भिक्षुणा प्रतिमा. भिक्षुपतिमास्ताभिर्योऽतिचारः कृत इत्यादिसम्बन्ध' प्राग्वदेव । तर प्रथमा मासिकी भिक्षोः प्रतिमा, तस्यामन्नस्य जलस्य चैकैका दत्तिाद्या, दत्तिश्च हस्तपात्रादितो निरवच्छिन्नधारारूपेण पतिता भिक्षा गृह्यते, धाराविच्छेदेन तु मिक्थमात्रपातेऽपि दत्तिभेदः। एव द्वैमासिकी त्रैमासिकी-चातुर्मासिकी-पाश्चमासिकी-पाण्मासिकी-सप्तमासिकीपु क्रमेणाऽन्न-जलयोर्दत्तिद्वय-य-चतुष्टय-पञ्चतय-पा-सप्तकानि गृह्यन्त इति स्वयमूहनीयम् । अष्टमी प्रतिमा सप्ताहोरानिकी, तत्र चतुर्विधाऽऽप्रतिमा के गुण उत्तर उत्तर प्रतिमा समझने चाहिये। इनमें प्ररूपणा आदि द्वारा जो कोई अतिचार लगा हो तो उससे मैं निवृत्त होता हैं |सू० १०॥ भिक्षु (साधु) की बारह प्रतिमाएँ (प्रतिज्ञाविशेष) होती हैं। पहली एक मासकी, यावत् सातवीं सातमासकी भिक्षुप्रतिमा । पहली प्रतिमामे निर्लेप एक दत्ति अन्नकी एक दत्ति पानी की ली जाती है। अखण्डित एक धारा से एक बार जितना आहारपानी पात्र में गिरे उतना ही उपभोग में ले १। इसी प्रकार क्रमसे सातवी प्रतिमामें सात दत्ति अन्न और सात दत्ति पानी की ली મામા સમજવા જોઈએ એમા પ્રરૂપણ આદિ દ્વારા જે કોઈ અતિચાર લાગ્યા હિય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉ છુ (સૂ૦ ૧૦) ભિમુ (સાધુ) ની બાર પ્રતિમાઓ (પ્રતિજ્ઞાવિશેષ) હોય છે પહેલી એક માસની, બીજી બે માસની, યવત સાતમી સાત માસની ક્ષિપ્રતિમા પહેલી પ્રતિમામાં નિર્લેપ એક દત્તિ અન્નની એક દત્તિ પાણીની લેવાય છે અખડિત એકધારાથી એક વખત જેટલે આહાર પાણે પાત્રમા પડે તેટલેજ ઉપભોગમાં લે (૧) એજ પ્રકારે કમાવી સાતમી પ્રતિમામાં સાત દક્તિ અન્નની અને Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ आवश्यक सूत्रस्य मुण्डितेन या गृहसम्पन्वे फैथिस्किञ्चित्पृष्टे सति तद्ज्ञाने 'वेद्मी' - ति तदज्ञाने 'न वेति च निगदता भाव्यम् । एकादशी ( ११ ) एकादशमासिकी - श्रमण भूत प्रतिमा, तत्र तेन शिखापर्न कृतश्चनेन सुरमुण्डितेन वा साधुवेपधारिणा ईय समित्यादिकमखिल साधुधर्ममनुपालयता धृतनिर्वस्त्ररजोहरणदण्डेन स्वजाति मानत एव पालित भिक्षाग्रहणवतेन भिक्षायै गृहप्रवेशवेलाया 'श्रमणोपासकाय प्रतिपन्नाय भिक्षा देया' - इति भाषितव्यम्, 'कस्त्व' - मिति केनापि पृष्टे सति 'श्रमणोपासकोऽहम् - इति ता भक्तिव्यम् । आस्वेकादशसु प्रतिमासु यथोत्तर पूर्वपूर्वमतिमागतगुणसम्बन्धो नोभ्यः ॥ मू० १० ॥ ★ पर जानता हो तो कहे कि 'जानता हूँ' और नहीं जानता हो तो ऐसा कहे 'नही जानता हूँ (१०) । ग्यारहवीं 'श्रमणभूत ( साधु समान ) प्रतिमा' ग्यारह मास की, इस में ग्यारह महीने तक ग्यारह २ उपवास का पारणा किया जाता है, इस में स्थित श्रावक शक्ति हो तो लोच करे, नहीं तो मुण्डन करे, शिखा रक्खे, ईर्यासमिति आदि समस्त साधुधर्मों का पालन करता हुआ उघाडी (खुली हुई) दाडी का - रजोहरण लिये हुए केवल अपनी जाति में गोचरी करे और गोचरी के लिये किसी के घरमें प्रवेश करते समय बोले कि - ' प्रतिमाधारी श्रमणोपासक को भिक्षा दो । ' यदि कोई पूछे कि - 'तुम कौन हो ?' तो कहे कि 'मै प्रतिमाधारी श्रावक हूँ साधु नही' (१) । इन ग्यारह प्रतिमाओं में पहली पहली સમ ધી કોઇ વાત પૂછવામા આવે તેા જાણતા હાય તા કહે કે હું જાણુ છુ, નહિ જાણુતા होय तो उसे नथी लागतो, (११) अगियारभी 'श्रमभूत - ( साधुसभान ) પ્રતિમા’ અગિયાર માસની, એમા અગિયાર માસ સુધી અગિયાર અગિયાર ઉપ વાસના પારણા કરાય છે એમા સ્થિત શ્રાવક શકિત હાય તેા લેાચ કરે, નહિ તેા મુ ડન કરે, ચેાટલી રાખે, ઇર્માંસમિતિ આદિ સર્વ સાધુધર્માંનું પાલન કરતા થકા ઉઘાડી દાડીનું રોહરણુ લઈને કેવળ પૈતાની જાતિમાજ ગોચરી કરે અને ગેચરી માટે કાઇના ઘરમા પ્રવેશ કરતી વખતે મેલે કે પ્રતિમાધારી શ્રમÌપાસકને ભિક્ષા આપે કોઈ પૂછે કે- તમે ફાણુ છે ? ' તે કહેવુ કે હુ પ્રતિમાધારી શ્રાવક છુ, સાધુ નથી આ અગિયાર પ્રતિમાઓમા પહેલી પહેલી પ્રતિમાના ગુરુ ઉત્તર ઉત્તર પ્રતિ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम् -४ 'वीरासन' - निरालम्नेऽपि सिंहासनोपविष्टत्रद्धन्यस्तचरण मुक्तजानुकमुपवेशनम्, 'गोटोहिकासन'- गोदोहिकावत् = गोदोहनवदासनमर्थात् - यथा गोदोहो गोदोहन वेलायामास्ते तद्वत्पादाग्रतलाभ्यामवस्थानम्, 'आम्रकुञ्जकासनम् ' - आम्रवत्कुब्जमासनम् । आस्वष्टम्यादिदशम्यन्तप्रतिमासु प्रतिप्रतिममुक्तानामासनानामन्यतमाऽवलम्वनेनासितव्यमिति तात्पर्यम् । एकादशी प्रतिमा त्वेकाहोरात्रसाध्या, तस्या चतुर्विधाऽऽहारपरित्यागपूर्वक दिनद्वयोपवासो ग्रामाद्वहिर्गत्वा कायोत्सर्गश्च कर्तव्यः । २२१ अथैकदिनमात्र साध्या द्वादशी प्रतिमा, तस्या चतुर्विधाऽऽहारपरित्यागपूर्वक दिनत्रयमुपोप्य तृतीयस्मिन् दिने ग्रामाद्वहिः श्मशानस्थान गवा पुद्गलस्यैकस्योपरि दृष्टिदानेन कायोत्सर्गः कर्तव्यः, तदानी च तत्र देव-मनुष्यबिना सहारे स्थिर रहना), गोदोहासन (गोदोहन की तरह पैरो के अग्रभाग और तल भाग के सहारे बैठना ) और आम्रकुब्जकासन ( आम्रफलकी तरह कूबडा हो कर स्थिर रहना), इनमें कोई भी एक आसन किया जाता है १० । की ग्यारहवी प्रतिमा केवल एक दिन की होती है, इसमें चउविहार वेला किया जाता है और गाम के बाहर काउसग किया जाना है ११ | बाहरवी प्रतिमा एक दिन होती है, इसमें चविहार तेला किया जाता है, तेला के दिन गाम से बाहर श्मशान भूमिमे जा कर किसी एक पुल पर दृष्टि स्थिर करके कायोत्सर्ग किया जाता है । उस समय होने वाले देव-मनुष्य और વિના સ્થિર રહેવુ, ગેદોહાસન—ગાય દેતા હૈાઇએ તેવી રીતે પગના ભાગ અને તલ ભાગના આશ્રયે બેસવુ, અને આમ્રકુઞ્જકાસન (આમ્રફળની જેમ કૂખડા થઈને સ્થિર રહેવુ) આમાથી કોઇ પણ એક આસન કરાય છે (૧૦) આગલા અગિયારમી પ્રતિમા ફ્કત એક દિવસની હાય છે એમા ચેવિહાર છઠ્ઠું કરાય છે અને ગામની બહાર કાઉસગ્ગ કરાય છે (૧૧) ખારમી પ્રતિમા એક વિમની હાય છે એમા ચેવિહાર અઠ્ઠમ કરાય છે અઠ્ઠમના દિવસે મશાન ભૂમિમાં જઈને કાઇ એક પુદ્દગલ ઉપર દૃષ્ટિ સ્થિર કરાય છે એ વખતે થવાવાળા દેવ મનુષ્ય અને તિર્યંચ સમધી જો સહન ગામની બહાર કરીને કાર્યોત્સર્ગ ઉત્કૃષ્ટ ઉસ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. आवश्यकसूत्रस्य हारपरित्यागपूर्वकैकान्तरोपपाससेवन ग्रामादहिः कायोत्सगै च कुर्याद, उत्तान एकपार्क वा शयीत, पल्यवाऽऽसनेन पाऽऽसीत। एव नवमी दशम्यावपि प्रतिमे सप्तसप्ताहोरानसा-ये, तयोस्तपवरणमष्टमीपदेव केवलमासनभेद', तत्र नवम्या दण्डासन-लगण्डासनो-कुटुकामनरूपाणि वीण्यासनानि, तेषु दण्डा सनं नाम-पादाग्रादिप्रसारणेन दण्डवत्पतनरूपम् । लगण्ड-चक्रकाष्ठ, तद्वत् अर्थान्मस्तकपाादिभागाना भूमिसम्मन्येन पृष्ठस्य च तदसम्मन्येन यदा सन तल्लगण्डासनम् । उत्कुटुकासन नाम-पुतस्य (श्रोणिभागस्य) अलगन नोपवेशनम् । दशम्या वीरासन-गोदोहिकामना-ऽऽम्रकुन्जकासनानि, तत्र जाती है ! आठवी प्रतिमा सात अहोरात्र की है, इसमें एकान्तर चविहार उपवास और गाम से बाहर कायोत्सर्ग किया जाता है। तथा उत्तानासन (चित्त सोना), एकपाश्र्वासन (एक पसबाडे स सोना) और पर्यकासन, इन तीन आसनोंमे से कोई भी एक आसन किया जाता है। इसी प्रकार नवमी और दशवी प्रतिमाए आठवी के समान हैं, किन्तु नववी मे दण्डासन (दडके पडने का तरह पग पसार कर सोना), लगण्डासन (मस्तक और एडियों का भूमि पर लगा कर पीठ को अधर रखना), उत्कुटुकासन-पूतिभागबैठकको जमीन पर नही लगा कर ऊक. बैठना यानी दो पैरा के ऊपर ही बैठना । तथा दसवीं में वीरासन (पृथ्वी पर पैर रख कर सिंहासन पर बैठे हुए के समान, घुटने अलग २ रख कर સાત દક્તિ પાણીને લેવાય છે. આઠમી પ્રતિમા સાત અહેરાત્રિના છે એમાં એકાતર ચેવિહાર ઉપવાસ, અને ગામથી બહાર કાત્સર્ગ કરાય છે, તથા ઉત્તા નાસન (ચિત્તા સૂવું), એકપાશ્વસન (એક પડખે સુવુ), અને પર્યકાસન આ ત્રણ આસનેમાથી કઈ પણ એક આસન કરાય છે એવી રીતે નવમી અને દશમી પ્રતિમા આઠમીના સમાન છે પરંતુ નવમીમા દડાસન (દડ-લાકડી પડેલ હોય તેમ પગ પસારીને સુવું), લગડાસન (માથુ અને એડીઓને ભૂમિ ઉપર લગાવો પીઠને અધર રાખવી), ઉત્કટુકાસન-પૂતિભાગ-બેઠકને જમીન પર ન લગાવીને ઉભડક બેસવું, અથત બે પગ ઉપર જ બેસવુ તથા દશમીમા વીરાસન-પૃથ્વી પર પગ રાખીને સિંહાસન ઉપર બે હેય એવી રીતે ઘુટણ જુદા જુદા રાખીને આધાર Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, पतिक्रमणाध्ययनम्-४ २२१ 'वीरासन'-निरालम्बेऽपि सिंहासनोपविष्टवद्धन्यस्तचरण मुक्तजानुकमुपवेशनम् , 'गोटोहिकासन'-गोदोहिकावत् = गोदोहनवदासनमर्थात्-यथा गोदोहका गोदोहनवेलायामास्ते तद्वत्पादाग्रतलाभ्यामवस्थानम् , 'आम्रकुन्जकासनम्'-आम्रवत्कुब्जमासनम् । आस्वष्टम्यादिदशम्यन्तप्रतिमासु प्रतिप्रतिममुक्तानामासनानामन्यतमाऽवलम्बनेनासितव्यमिति तात्पर्यम् । एकादशी प्रतिमा त्वेकाहोरात्रसाध्या, तस्या चतुर्विधाऽऽहारपरित्यागपूर्वक दिनद्वयोपवासो ग्रामावहिर्गत्वा कायोत्सर्गश्च कर्तव्यः । अथैकदिनमात्रसाध्या द्वादशी प्रतिमा, तस्या चतुर्विधाऽऽहारपरित्यागपूर्वक दिनत्रयमुपोप्य ततीयस्मिन् दिने ग्रामाद्वहि. श्मशानस्थान गत्वा __ पुद्गलस्यैकस्योपरि दृष्टिदानेन कायोत्सर्गः कर्तव्यः, तदानी च तत्र देव-मनुष्यविना सहारे स्थिर रहना), गोदोहासन (गोदोहनकी तरह पैरो के अग्रभाग और तल भाग के सहारे चैठना) और आम्रकुन्जकासन (आम्रफलकी तरह कृवडा हो कर स्थिर रहना), इनमें कोई भी एक आसन किया जाता है १०। ग्यारहवी प्रतिमा केवल एक दिन की होती है, इसमें चउविहार वेला किया जाता है और गाम के बाहर काउसग किया जाता है ११ । घाहरवी प्रतिमा एक दिन की होती है, इसमें चउविहार तेला किया जाता है, तेला के दिन गाम से बाहर श्मशान भूमिमें जा कर किसी एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर करके कायोत्सर्ग किया जाता है। उस समय होने वाले देव-मनुष्य और વિના સ્થિર રહેવુ, ગેહાસન-ગાય દેતા હોઈએ તેવી રીતે પગના આગલા ભાગ અને તલ ભાગના આશ્રયે બેસવું, અને આમ્રકુંજકાસન (આમ્રફળની જેમ કૂબડા થઈને સ્થિર રહેવુ) આમાથી કેઈ પણ એક આસન કરાય છે (૧૦) અગિયારમી પ્રતિમા ફક્ત એક દિવસની હોય છે એમાં વિહાર છઠ્ઠ કાય છે અને ગામની બહાર કાઉસગ્ગ કરાય છે (૧૧) બારમી પ્રતિમા એક વિમની હોય છે એમા ચેવિહાર અઠ્ઠમ કરાય છે અઠ્ઠમના દિવસે ગામની બહાર સ્મશાન ભૂમિમાં જઈને કોઈ એક પુદગલ ઉપર દૃષ્ટિ સ્થિર કરીને કાર્યોત્સર્ગ કરાય છે એ વખતે થવાવાળા દેવ મનુષ્ય અને તિર્થં ચ સબધી ઉત્કૃષ્ટ ઉપસર્ગ જે સહન Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आवश्यकमूत्रस्य तिर्यकृते घोर उपसर्गे सोढेऽधि-मनापर्यय-केवलज्ञानामन्यतमस्यैकस्य कस्य चिज्ज्ञानस्योदयो जायते, अन्यथा तून्मादादिदुष्टरोगसक्रमेण श्रमणस्य केवलिमरूपितवर्माद्भवति परिभ्रशनम् ।। मृ० ११ ।। ॥ मूलम् ॥ तेरसहि किरियाठाणेहि ॥ सू०१२॥ ॥ छाया ॥ योदशभिः क्रियास्थान ॥ मृ० १२ ।। ॥ टीका ॥ त्रयोदशभिः क्रियास्थानों मयाऽविचारः कृतः इत्यादिसम्वन्धो यथोक्तः । तत्र क्रियास्थानान्युक्तानि, यथा-"(१) अट्टादडे, (२) अणहादडे, (३) हिंसादडे, (४) अझम्हादडे, (५) दिहिविपरियासियादडे, (६) मोसबत्तिए, (७) अदिन्नादाणत्तिए, (८) अज्झत्थवत्तिए, (९) माणवत्तिए, (१०) मित्तदोस वत्तिए, (११) मायावत्तिए, (१२) लोभवत्तिए, (१३) इरियावहिए" इति । तत्राऽर्थाय स्वपयोजनाय दण्डोऽर्थदण्डः (१) अनर्थ प्रयोजनमन्तरेण दण्डो तिर्यच सम्बन्धी घोर उपसर्ग यदि सहन करले तो अवधि, मनापर्यय, और केवलज्ञान मे से किसी एक की उत्पत्ति होती है, नहीं तो उन्मत्त (पागल), दीर्घकालिक दाहज्वरादि रोगों से पीडित और केवलिप्रसपित धर्म से च्युत हो जाता है। इन बारह भिक्षुप्रतिमाओं में न्यूनाधिक श्रद्धा-प्ररूपणा आदि द्वारा जो अतिचार किया हो तो उस से मैं निवृत्त होता है ॥सू० ११॥ क्रियास्थान तेरह है-(१) अर्थदण्ड (स्वप्रयोजन के लिये કરી લે તે અવધિ, મન પર્યય અને કેવળ જ્ઞાનમાથી કઈ એકની ઉત્પત્તિ થાય છે, નહિ તે ઉન્મત્ત (પાગલ), દીર્ઘકાલિક દાહવરાદિક રોગોથી પીડિત અને કેલિપ્રરૂપિત ધર્મથી પતિત થાય છે આ બાર ભિક્ષપ્રતિમાઓમાં ઓછી વધતી શ્રદ્ધા પ્રરૂપણા વિગેરે દ્વારા જે કઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત था छु (१० ११) यास्यान तेर-(१) अर्थ (पाताना प्रयोल भाट हिया ४२वी) (२) मन (PY विना लिया ४२वी), (3) डिसा, (४) मभात १ उपसर्गभीरुत्वे Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाभ्ययनम्-४ ०२३ ऽनर्थदण्ड. सावयक्रियाऽनुष्ठानम् (२) हिंसैव दण्डा=हिंसादण्डः प्राणातिपातस्वरूप. (३) । अकस्मात् अन्यक्रिययाऽन्यदीयव्यापादनरूपो दण्डः अफस्माद्दण्ड. (४)। दृष्टेः नेत्रस्य विपर्यास -दर्शनविभ्रान्ति =रज्ज्वादिषु सर्पादिबुद्धि'-दृष्टिविपर्यास', स चासौ दण्डश्च दृष्टिविपर्यासदण्ड'-वाणादिना लोष्टादिभ्रान्त्या तिचिरिचटकादीना विहिंसनम् (५)। सद्भूतनिहवपूर्वका-ऽसद्भूतसमारोपणनिमिनो मृपावादप्रात्ययिका, 'मोसवत्तिए' इति पुम्त्व तु दण्डविशेपणत्वाभिप्रायेण, एवमेवाग्रेऽपि (६)। अदत्तम्य-स्वाम्यादिभिरवितीर्णस्य परकीयस्येति यावत् आदान ग्रहणमदत्तादान चौर्यमकारस्तन्निमित्तः (७)। आत्मनीत्यध्यात्म, तत्पात्ययिकोऽध्यात्मपात्ययिका स्वात्मनिमित्तको दण्डः, यतो दुःखभावो जनो नितुकमेव क्षतसम्ल्पश्चिन्तासन्तानसमानान्तस्त्रान्तो नितान्त 'नान्तस्तिष्ठति (८)। जाति-कुल-पलरूपादिमदस्थानाष्टकाऽऽवेष्टितहृदयस्य परनीचत्वावलोफिनो योऽभिमानमूलको दण्ड स मानपात्ययिक. (९)। मित्रकर्मफसन्तापजो दोपो मित्रदोपो मात-पिठप्रभृतीनामल्पीयसायपराधेनोग्रतमस्वरूपधारणया महाऽऽधिजनक्चेप्टाविशेपरूपस्तन्निमित्तको दण्डो मित्रदोपप्रात्ययिका (१०)। माया परप्रतारणोपायक्रिया करना), (२) अनर्थदण्ड (विना प्रयोजन क्रिया करना), (३) हिंसादण्ड, (४) अकस्माद्दण्ड (एकको मारते बीचमें दूसरे का मारा जाना), (५) दृष्टिविपर्यासदण्ड (पत्थर समझकर तीतर, चटका आदि का मारा जाना), (६) मृपाप्रात्ययिक (असत्य से लगने वाला पाप), (७) अदत्तादानप्रात्ययिक, (८) अध्यात्मप्रात्ययिक (जिससे मनुष्य स्वय निष्कारण चिन्ता करे), (२) मानप्रात्ययिक, (१०) (सने भारती क्यमा मीना (डंसा वी), (५) विपर्यास (पत्थर સમજીને તેતર ચકલી આદિની હિંસા થવી), (૬) મૃગાકાત્યયિક (અસત્યથી લાગવાવાળું પાપ), (૭) અદત્તાદાનપ્રાત્યયિક, (૮) અધ્યાત્મપ્રાયયિક (જેથી भासपात नाभी चिता ४२), (6) भानप्रात्यधि, (१०) भित्रोपमात्यायि માતા પિતા આદિને અલ્પ અપરાધને ભારે દડ દેવ), (૧૧) માયામાત્ય १-'अन्त' शब्दो रेफान्तोऽन्त करणपर्यायोऽव्ययः । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आवश्यकमूत्रस्य तिर्यकृते घोर उपसर्गे सोढेऽधि-मनःपर्यय-केरलशानामन्यतमस्यैकस्य कस्य चिज्ज्ञानस्योदयो जायते, अन्यथा नून्मादादिदुप्टरोगसक्रमेण श्रमणस्य केवलिमरपितधर्माद्भवति परिभ्रशनम् ॥ मृ० ११ ॥ ॥ मूलम् ॥ तेरसहि किरियाठाणेहि ॥सू०१२॥ ॥ छाया ॥ रयोदशभिः क्रियास्थान. ॥ मृ० १२ ॥ ॥ टीका ॥ त्रयोदशमि क्रियास्थानों मयाऽतिचार. कृतः इत्यादिसम्बन्यो यथोक्तः। तत्र क्रियास्थानान्युक्तानि, यथा-"(१) अट्ठादडे, (२) अणहादडे, (३) हिंसादडे, (४) अफम्हादडे, (५) दिहिविपरियासियादडे, (६) मोसबत्तिए, (७) अदिन्नादाणवत्तिए, (८) अज्झत्थवत्तिए, (९) माणवत्तिए, (१०) मित्तदास वत्तिए, (११) मायावत्तिए, (१२) लोभवत्तिए, (१३) इरियावहिए" इति । तत्राऽर्थाय स्वपयोजनाय दण्डोऽर्थदण्डः (१) अनर्थ-प्रयोजनमन्तरेण दण्डा तिर्थच सम्बन्धी घोर उपसर्ग यदि सहन करले तो अवधि, मनःपर्यय, और केवलज्ञान में से किसी एक की उत्पत्ति होती है, नहीं तो उन्मत्त (पागल), दीर्घकालिक दाज्वरादि रोगो से पीडित और केवलिमसपित धर्म से च्युत हो जाता है। इन बारह भिक्षुप्रतिमाओं में न्यूनाधिक श्रद्धा-प्ररूपणा आदि द्वारा जो अतिचार किया हो तो उस से मैं निवृत्त होता हूँ ॥सू० ११॥ क्रियास्थान तेरह है-(१) अर्थदण्ड (स्वप्रयोजन के लिये કરી લે તે અવધિ, મન પર્યય અને કેવળ જ્ઞાનમાથી કઈ એકની ઉત્પત્તિ થાય છે, નહિ તે ઉન્મત્ત (પગલ), દીર્ઘકાલિક દાહન્વરાદિક રેગોથી પીડિત અને કેવલિપ્રરૂપિત ધર્મથી પતિત થાય છે આ બાર ભિક્ષપ્રતિમાઓમા ઓછી વધતી શ્રદ્ધા પ્રરૂપ વિગેરે દ્વારા જે કોઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉ છુ (સૂ૦ ૧૧) ફિયાસ્થાન તેર છે-(૧) અર્થદડ (પિતાના પ્રયજન માટે ક્રિયા કરવી) (૨) અનર્થદડ (કાણુ વિના ક્રિયા કરવી), (૩) હિંસાદડ, (૪) અકસ્માતદડ , उपसर्गभीरुत्थे Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम् -४ " " F २२३ ऽनर्थदण्डः=सावयक्रियाऽनुष्ठानम् (२) हिंसेच दण्डः = हिंसादण्डः = प्राणातिपातस्वरूप. (३) । अकस्मात् = अन्य क्रिययाऽन्यदीयव्यापादनरूपो दण्डः = अफस्माद्दण्डः (४)। दृष्टेः=नेत्रस्य विपर्यास - दर्शनविभ्रान्तिः = रज्ज्वादिषु सर्पादिबुद्धि - दृष्टिविपर्यास, स चासौ दण्डश्व दृष्टिविपर्यासदण्डः - वाणादिना लोष्टादिभ्रान्त्या तित्तिरिचटकादीना विहिंसनम् ( ५ ) | सद्भूतनिहत्रपूर्वका - ऽसद्भूतसमारोपणनिमिनो मृपावादमात्ययिकः, 'मोसवत्तिए' इति पुस्त्व तु दण्डविशेषणत्वाभिप्रायेण, एवमेवाग्रेऽपि ( ६ ) । अदत्तम्य= स्वाम्यादिभिरवितीर्णस्य परकीयस्येति यावत् आदान=ग्रहणमदत्तादान=चौर्यमकारस्तन्निमित्त: (७) । आत्मनीत्यभ्यात्म, तत्प्रात्ययिकोऽध्यात्मप्रात्ययिक. = स्वात्मनिमित्तको दण्ड यतो दुखभावो जनो निर्हेतुकमेव क्षत सकल्पचिन्तासन्तानसमाक्रान्तस्वान्तो नितान्त दूनान्तस्तिष्ठति ( ८ ) । - जाति - कुल - जलरूपादिमदस्थानाष्टकाऽऽवेष्टितहृदयस्य परनीचत्वावलोकनो योऽभिमानमूलको दण्ड ' समानमात्ययिक ( ९ ) । मित्रकर्मक सन्तापजो दोपो मित्रदोपो मात-पित प्रभृतीनामपीयसाऽप्यपराधेनोग्रतमस्वरूपधारणया महाऽऽधिजनकचेप्टाविशेषरूपस्तन्निमित्तको दण्डो मित्रदोपमात्ययिकः (१०) । माया = परप्रतारणोपायक्रिया करना), (२) अनर्थदण्ड (विना प्रयोजन क्रिया करना), (३) हिंसादण्ड, (४) अकस्माद्दण्ड (एकको मारते वीचमें दूसरे का मारा जाना), (५) दृष्टिविपर्यासदण्ड (पत्थर समझकर तीतर, चटका आदि का मारा जाना), (६) मृपाप्रात्ययिक (असत्य से लगने वाला पाप), (७) अदन्तादानप्रात्ययिक, (८) अध्यात्मप्रात्ययिक ( जिससे मनुष्य स्वय निष्कारण चिन्ता करे ), ( ९ ) मानप्रात्ययिक, (१०) ( એકને મારતા. વચમા બીજાની હિંસા થવી ), (૫) દૃષ્ટિવિપર્યાસદડ ( પત્થર સમજીને તૈતર ચકલી આદિની હિંસા થવી ), (૬) મૃષાપ્રાયિક (અસત્યથી सागवावाणु पाय), (७) महत्ताहानप्रात्ययि, (८) अध्यात्मप्रात्ययि (मेथी માણુમ પાતે નકામી ચિંતા કરે), (૯) માનપ્રાત્યયિક, (૧૦) મિત્રદેષમાત્યયિક (માતા, પિતા આદિને અલ્પ અપરાધને ભારે દંડ દેવે), (૧૧) માયાપ્રાત્ય १ - 'अन्त' शब्दो रेफान्तोऽत करणपर्यायोऽव्यय । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आवश्यक सूत्रस्प तिर्यकृते घोर उपसर्गे सोढेऽधि - मनः पर्यय के ज्ञानामन्यतमस्यैकस्य कस्य अन्यथा तून्मादादिदुष्टरोगसक्रमेण श्रमणस्य चिज्ज्ञानस्योदयो जायते, केवलिमर पित्तधर्माद्भाति परिभ्रशनम् ॥ ० ११ ॥ ॥ मूलम् ॥ तेरसहि किरियाठाणेहिं ॥ सू० १२ ॥ ॥ छाया ॥ त्रयोदशभिः क्रियास्थानैः ॥ भृ० १२ ॥ ॥ टीका ॥ , त्रयोदशभिः क्रियास्थानैर्यो मयाऽविचार. कृतः इत्यादिसम्बन्धो यथोक्तः । तत्र क्रियास्थानान्युक्तानि यथा - " ( १ ) अट्ठादडे, (२) अणद्वादडे, (३) हिंसादडे, (४) अम्हादडे, (५) दिडिविपरिया सियादडे, (६) मोसवत्तिए, (७) अदिन्नादाणात्तिए, (८) अज्झत्थवत्तिए, (९) माणवत्तिए, (१०) मित्तदोस वत्तिए, (११) मायात्तिए, (१२) लोभवत्तिए, (१३) इरियावहिए " इति । तत्राऽर्थाय=स्वप्रयोजनाय दण्डोऽर्थदण्डः (१) अनर्थ = प्रयोजनमन्तरेण दण्डो तिर्यच सम्बन्धी घोर उपसर्ग यदि सहन करले तो अवधि, मन:पर्यय, और केवलज्ञान मे से किसी एक की उत्पत्ति होती है, नहीं तो उन्मत्त (पागल), दीर्घकालिक दाहज्वरादि रोगो से पीडित और केवलप्ररूपित धर्म से च्युत हो जाता है । इन बारह भिक्षु - प्रतिमाओं में न्यूनाधिक श्रद्धा-प्ररूपणा आदि द्वारा जो अतिचार किया हो तो उस से मैं निवृत्त होता हूँ ॥ ० ११॥ क्रियास्थान तेरह हैं- (१) अर्थदण्ड (स्वप्रयोजन के लिये જ્ઞાનમાથી કાઇ એકની ઉત્પત્તિ થાય દાવરાદિક રાગોથી પીડિત અને ખાર ભિક્ષુપ્રતિમાઓમા ઓછી વધતી શ્રદ્ધા પ્રરૂપણા વિગેરે દ્વારા જે કાઈ અતિચાર લાગ્યા હાય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત थाउ छु (सू० ११ ) કરી લે તે અવિધ, મન પય અને કેવળ છે, નહિ તે ઉન્મત્ત (પાગલ), દીર્ઘકાલિક કેલિપ્રરૂપિત ધર્મથી પતિત થાય છે આ ક્રિયાસ્થાન તેર છે (૧) અદડ ( પેાતાના (२) मनर्थ' (अर विना दिया रवी ), (3) १ उपसर्गभीरुत्वे પ્રત્યેાજન માટે ક્રિયા કરવી ) डिसाह 3, (४) अस्मातह Ad Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २२३ ऽनर्थदण्डः सावधक्रियाऽनुष्ठानम् (२) हिंसैव” दण्डः हिंसादण्डःमाणातिपातस्वरूप. (३) । अझस्मात् अन्यक्रिययाऽन्यदीयव्यापादनरूपो दण्डः अफस्माइण्ड (४)। दृष्टेः नेत्रस्य विपर्यास -दर्शनविभ्रान्तिः रज्ज्वादिषु सर्पादिबुद्धि.-दृष्टिविपर्यासः, स चासौ दण्डश्च दृष्टिविपर्यासदण्ड'-वाणादिना लोष्टादिभ्रान्त्या तितिरिचटकादीना विहिंसनम् (५)। सद्भूतनिहत्रपूर्वका-ऽसद्भूतसमारोपणनिमिनो मृपावादमात्ययिकः, 'मोसवत्तिए' इति पुस्त्व तु दण्डविशेपणत्वाभिप्रायेण, एवमेवाग्रेऽपि (६)। अदत्तस्य स्वाम्यादिभिरवितीर्णस्य परकीयस्येति यावत् आदान-ग्रहणामदत्तादान चौर्यमकारस्तन्निमित्तः (७)। भात्मनीत्य यात्म, तत्मात्ययिकोऽध्यात्मप्रात्ययिका स्वात्मनिमित्तको दण्ड , यतो दुखभावो जनो निर्हेतुकमेव क्षतसकल्पश्चिन्तासन्तानसमानान्तस्त्रान्तो नितान्त 'दूनान्तस्तिष्ठति (८)। जाति-कुल-पलरूपादिमदस्थानाप्टकाऽऽवेष्टितहृदयस्य परनीचत्वावलोकिनो योऽभिमानमूलको दण्ड' स मानप्रात्ययिक (९)। मित्रकर्मकसन्तापजो दोपो मित्रदोपो मात-पिठप्रभृतीनामल्पीयसाऽप्यपराधेनोग्रतमस्वरूपधारणया महाऽऽधिजनकचेप्टाविशेषरूपस्तन्निमित्तको दण्डो मित्रदीपप्रात्ययिका (१०)। माया परप्रतारणोपायक्रिया करना), (२) अनर्थदण्ड (विना प्रयोजन क्रिया करना), (३) हिंसादण्ड, (४) अकस्माद्दण्ड (एकको मारते बीच में दूसरे का मारा जाना), (५) दृष्टिविपर्यासदण्ड (पत्थर समझकर तीतर, चटका आदि का मारा जाना), (६) मृपाप्रात्ययिक (असत्य से लगने वाला पाप), (७) अदत्तादानप्रात्ययिक, (८) अध्यात्मप्रात्ययिक (जिससे मनुष्य स्वय निष्कारण चिन्ता करे), (९) मानप्रात्ययिक, (१०) (એકને માતા વચમાં બીજાની હિંસા થવી), (૫) દષ્ટિવિપર્યાસદડ (પત્થર સમજીને તેતર ચકલી આદિની હિંસા થવી), (૬) મૃષામાત્યયિક (અસત્યથી सागवावाणु ५), (७) महत्तहानप्रात्ययि, (८) अध्यात्मप्रात्ययि: (रथा માણમાં પિતે નકામી ચિંતા કરે), (૯) માનપ્રાત્યયિક, (૧૦) મિત્રદેવપ્રાયિક (માતા, પિતા આદિને અલ્પ અપરાધને ભારે દડ દે), (૧૧) માયાપ્રત્ય १-'अन्त' शब्दो रेफान्तोऽन्त करणपर्यायोऽव्यय । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ आवश्यकमूत्रस्य AN1 स्तनिमित्तको दण्डो मायामात्ययिकः (११)। लोमनिमित्तको दण्डो लोभ मात्ययिका (१२)। ईर्यानिमित्तको दण्ड र्यामात्ययिकः (१३)। व्यपेत कपायस्य सर्वत्रोपयुक्तसमिविगुप्तिमतो भगरतो योगेनेर्याप्रात्ययिको जायते । एषु च सर्वत्र प्रात्ययिकपदार्थस्य 'फर्मरन्ध' इति विशेष्यः स्वयमूहनीय । अत्र 'प्रात्ययिक' पदस्थाने 'प्रत्ययक' शब्देन व्याख्यायामौचित्य प्रतिभाति, मृपा प्रत्ययो यस्येत्यादिरीत्या पहुनीही शेषाद्विभापति वैकल्पिककनुत्पत्त', तथा सति विवक्षितोऽर्थों विस्पष्ट प्रतीयते । 'प्रत्यय' शन्दश्वात्र हेतुपर्यायः- 'प्रत्ययो ऽधीनशपथज्ञानविश्वासहेतुपु' । इत्यमरः। 'मारययिका' इति पाठे भवायथे ठक, 'प्रत्ययिक.' इति पाठस्तुयथा न रोचते तथा प्रेक्षावन्त एव प्रमाणम् ॥ मू० १२ ।। ॥ मूलम् ॥ चउद्दसंहिं भूयग्गामेहि। पन्नरसहि परमाहम्मिएहि । सोलसहि गाहासोलसएहि । सत्तरसविहे असजमे ।अट्ठारसविहे अवभे । एगूणवीसाए नायज्झयणेहिं । वीसाए असमाहिट्टाणेहि ॥सू० १३॥ ॥-छाया ॥ - चतुर्दशभिर्भूतग्रामैः । पञ्चदशभि परमाधार्मिकैः। पोडशभिर्गाथाषोड शकैः । सप्तदशविधेऽसयमे । - अष्टादशविधेऽब्रह्मणि । एकोनविंशत्या ज्ञाताध्य यनै । विंशत्याऽसमाधिस्थान ॥ सू० १३ ॥ मित्रदोषप्रात्ययिक (माता, पिता आदि को अल्प अपराध का मारा दण्ड देना), (११) मायाप्रात्ययिक, । (१२) लोभप्रात्ययिक (१३) ई-प्रात्ययिक (कपायरहित, उपयोगसहित, समिति-गुप्ति । के धारक भगवान को योग से लगने वाला सामान्य कर्मबन्ध), इन तेरह क्रियास्थानों द्वारा जो अतिचार लगा हो तो उससे में निवृत्त होता हूँ ॥ सू० १२ ॥ યિક, (૧૨) લેભપ્રાયિક, (૧૩) ઈર્યાપ્રાયિક (કષાયરહિત ઉપયોગસહિત સમિતિગુણિને ધારણ કરવાવાળા ભગવાનને વેગથી લાગવાવાળા સામાન્ય કર્મ ન ) આ તેર કિયાસ્થાને દ્વારા જે કઈ અતિચાર લાગેલ હોય તે તેમાથી निवृत्त या ४ (५० १२) . Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणा-ययनम्-४ ॥ टीका ॥ 'चउद्दसहि' चतुर्दशभिः, 'भूयग्गामेडिं' भूतानि-जीवास्तेपा ग्रामा' समुदायास्तैः, ग्रामैरिति बहुवचनेन मृत्मैकेन्द्रियग्राम-वादरैकेन्द्रियग्राम-द्वीन्द्रियग्राम-चीन्द्रियग्राम-सज्ञिपञ्चेन्द्रियग्रामा-ऽसज्ञिपञ्चेन्द्रियग्रामाणा पर्याप्तकाऽपर्याप्तकभेदेन चतुर्दगाना ग्रहणमभिप्रेतम् । एतत्सूत्रस्थाना सर्वेपामेव पदाना 'यो मयाऽतिचार' कृत ' इत्यादिभि पूर्वोक्त सम्बन्धः। पनरसहि' पञ्चदशमि , 'परमाहम्मिएहि' धर्म चरन्तीति धार्मिका न धार्मिका: अधार्मिका परमाश्च ते अधार्मिका -परमाधार्मिकाः अतिकलुपितहृदयपरिणामा यम-लोकपालसेवा असुरकुमारदेवविशेपास्तैस्तकृतपापाऽनुमोदनादिभिरित्यर्थः । तन्नामानि पोक्तानि यथा (१) नवे, (२) अवस्मिी , (३) सामे, (४) सबले, (५) रुदे, (६) उवरुदे, (७) काले, (८) महाकाले, (९) असिपत्ते, (१०) धणू, (११) कुभे, (१२) वाल, (१३) वेयरणी, (१४) खरस्सरे, (१५) महाघोसे। 'तत्र 'अम्म' अम्बनामा परमापार्मिको, यो हि नारकान् गगनतल __(१) सूक्ष्म एकेन्द्रिय, (२) बादर एकेन्द्रिय, (३) द्वीन्द्रिय, (४) श्रीन्द्रिय, (५) चतुरिन्द्रिय, (६) अमजि पञ्चेन्द्रिय (७) सजि पञ्चन्द्रिय, इन सातों के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चौदह भूतग्राम (जीवसमृह) होते हैं, इनकी विराधना आदि से जो अतिचार लगा हो तो उससे मै निवृत्त होता है। अत्यन्त कलुपित परिणाम वाले होने से परमाधार्मिक कहलाने वाले देव (१५) पन्द्रह प्रकार के हैं - (१) अप-नारकी जीवों को आकाश में ले जाकर नीचे (१) भूक्ष्म उदय, (२) २ दिय (3) बान्द्रय, (४) श्रीन्द्रिय, (५) यतुरिन्द्रिय, (6) मसति ५येन्द्रिय, (७) सति पन्द्रिय, मा सातना पर्याप्त અને અપર્યાપ્તના ભેદથી ચૌદ ભૂતગ્રામ (જીવસમૂડ) હોય છે એની વિરાધના આદિથી જે અતિચાર લાગ્યા હોય છે તેથી હું નિવૃત્ત થાઉ છુ અત્યત કલુષિત પરિમવાળા હેવાથી પરમધાર્મિક કહેવાતા દેવ ૫દર प्रारना छ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - and - line २२४ आवश्यक मूत्रस्य स्तनिमित्तको दण्डो मायामात्ययिकः (११)। लोमनिमित्तको दण्डो लोभ मात्ययिका (१२) । र्यानिमिचको दण्ड र्याप्रात्ययिकः (१३)। व्यपेत कपायस्य सर्वत्रोपयुक्तसमिविगुप्तिमतो भगवतो योगेनेर्यामात्ययिको जायते । एषु च सर्वत्र मात्ययिकपदार्थस्य 'फर्मरन्ध' इति विशेष्यः स्वयमूहनीय । अत्र 'प्रात्ययिक' पदस्थाने 'प्रत्ययक' शब्देन व्याख्यायामौचित्य प्रतिभाति, मृपा प्रत्ययो यस्येत्यादिरीत्या पहुनीही शेषाद्विभाषेति वैकल्पिककनुत्पत्तः, तथा सति विवक्षितोऽर्थों विस्पष्ट मतीयते । 'प्रत्यय' शब्दयात्र हेतुपर्याय:- 'प्रत्यया ऽधीनशपथज्ञान विश्वासहेतुपु''इत्यमरः। 'प्रात्ययिकः' इति पाठे भवायर्थ ठक, 'मत्ययिका' इति पाठस्तु यथा न रोचते तथा प्रेक्षावन्त एव प्रमाणम् ।। मू० १२ ॥ ॥ मूलम् ॥ चउद्दसहिं भूयग्गामेहि। पन्नरसहिं परमाहम्मिएहि । सोलसहि गाहासोलसएहिं । सत्तरसविहे असजमे ।अट्ठारसविहे अवभे । एगृणवीसाए नायज्झयणेहि । वीसाए असमाहिट्टाणेहि ।।सू० १३॥ ॥-छाया ॥ . चतुर्दशभिर्भूतग्रामैः। पञ्चदशभिः परमाधार्मिकैः। पोडशभिर्गाथाषोड शकैः । सप्तदशविधेऽसयमे । अष्टादशविधेऽब्रह्मणि । एकोनविंशत्या ज्ञाताय यनैः । विंशत्याऽसमाधिस्थानै ॥ सू० १३ ॥ - । मित्रदोषप्रात्ययिक (माता, पिता आदि को अल्प अपराध का भारी दण्ड देना), (११) मायाप्रात्ययिक, ' (१२) लोभप्रात्ययिक (१३) ईर्याप्रात्ययिक (कपायरहित, उपयोगसहित, समिति-गुप्ति के धारक भगवान को योग से लगने वाला सामान्य कर्मबन्ध), इन तेरह क्रियास्थानों द्वारा जो अनिचार लगा हो तो उससे म निवृत्त होता हूँ॥ सू० १२॥ યિક, (૧૨) લેભપ્રાયયિક, (૧૩) ઈયમાત્યયિક (કષાયરહિત ઉપયોગસહિત સમિતિગુપ્તિને ધારણ કરવાવાળા ભગવાનને વેગથી લાગવાવાળા સામાન્ય કર્મ બધ) આ તેર ક્રિયાસ્થાને દ્વારા જે કઈ અતિચાર લાગેલ હોય તે તેમાથી निवृत्त या ४ (५० १२) . Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुनितोपणी टीका, पतिक्रमणाभ्ययनम्-४ ॥ टीका ॥ 'चउद्दसहि' चतुर्दशभिः, 'मृयग्गामेडिं' भूतानि जीवास्तेपा ग्रामाः समुदायास्तै, ग्रामैरिति वहुवचनेन मैकेन्द्रियग्राम-वादरैकेन्द्रियग्राम-द्वीन्द्रियग्राम-नीन्द्रियग्राम-सज्ञिपञ्चेन्द्रियग्रामा-ऽसज्ञिपञ्चेन्द्रियग्रामाणा पर्याप्तकाऽपर्याप्तकभेदेन चतुर्दशाना ग्रहणमभिप्रेतम् । एतत्सूत्रस्थाना सर्वेषामेव पदाना 'यो मयाऽतिचार' कृत ' इत्यादिभि पूर्वोः सम्बन्धः । पन्नरसहि' पञ्चदशभि', 'परमाइम्मिएहि' धर्म चरन्तीति धार्मिका न धार्मिका: अधार्मिका परमाश्च ते अधार्मिका =परमाधामिकाः अतिकलपित हृदयपरिणामा यम-लोकपालसेवका असुरकुमारदेव विशेषास्तैस्तकृतपापाऽनुमोदनादिभिरित्यर्थ । तन्नामानि मोक्तानि यथा (१) अने, (२) अपरिमी, (३) सामे, (४) सवले, (५) रुद्दे, (६) उवरुदे, (७) काले, (८) महाकाले, (९) असिपत्ते, (१०) धणू, (११) कुभे, (१२) वाल्, (१३) वेयरणी, (१४) खरस्सरे, (१५) महाघोसे। तत्र 'अम्बः'अम्बनामा परमापार्मिको, यो हि नारकान् गगनतल __ (१) सूक्ष्म एकेन्द्रिय, (२) चादर एकेन्द्रिय, (३) द्वीन्द्रिय, (४) त्रीन्द्रिय, (५) चतुरिन्द्रिय, (६) अमजि पञ्चेन्द्रिय (७) सजि पञ्चन्द्रिय, इन सातों के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चौदह भृतग्राम (जीवसमूह) होते हैं, इनकी विराधना आदि से जो अतिचार लगा हो तो उमसे मे निवृत्त होता है अत्यन्त कलुपित परिणाम वाले होने से परमाधार्मिक कहलाने वाले देव (१५) पन्द्रह प्रकार के हैं - (१) अप-नारकी जीवों को आकाश में ले जाकर नीचे (१) सक्षम दय, (२) १९६२ मेद्रिय (3) alन्द्रिय, (४) श्रीन्द्रिय, (५) यतुरिन्द्रिय, (6) मसज्ञि पन्द्रिय, (७) सति पयन्द्रिय, मा सातना पर्याप्त અને અપર્યાપ્તના ભેદથી ચૌદ ભૂતનામ (જીવસમૂહુ) હોય છે એઓની વિરાધના આદિથી જે અતિચાર લાગ્યા હેય “તે તેથી હુ નિવૃત્ત થાઉ છું” અત્યત કલુષિત પરિણામવાળા હોવાથી પરમાધાર્મિક કહેવાતા દેવ પદર २ना छ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dec २२६ आवश्यक्रसूत्रस्य नीत्वा ऽधस्ताद्विमुञ्चति, दचा च गलहस्त गर्ने पातयति, अधोमुखमम्बरतले समुत्क्षिप्य पुनः पुनः पतन्तं शूलादिना वियति, पाप सस्मार्य सस्मार्य चानेकधा भूयः कदर्थयति । १। 'अम्बरीपो' नारकान् मुद्रादिना फुयित्या प्रचादिभिः खण्डशः कृत्वा भ्राष्ट्रादो पचति, हताऽऽहततया मृन्छिताँच तान् पदलीस्तम्भवच्च मणामेकक पुटमुत्पाट्योत्पाटय कदर्थयति ।२।। 'श्याम:' कशाघातादिना शातयति, हस्तपादाढीन् दुर्दर्शतया छिनत्ति, शूल-सूच्यादिना विध्यति, उपरितो पशिलाया पातयति, तथा रज्ज्वादिना पटकने वाले, गर्दनिया देकर (गर्दन पकड कर) गढ्ढे में गिराने वाले, उलटे मुंह आकाश में उछाल कर गिरते समय चर्चा आदि भोंकने वाले, और पाप का वारम्वार स्मरण कराकर अनेक प्रकार से पीडा पहुँचाने वाले। (२) अबरीप-नेरइयों को मुद्गर आदि से कृट कर कराँत, कैची आदि से टुकडे २ कर भाड भूजने वाले तथा अधमरे कर के कदली स्तम्भ के समान एक एक चर्मपुट को खीच कर दुःखी करने वाले। (३) श्याम कशा (कोडा) आदि से पीटने वाले, हाथ पैर आदि अवयवो को बुरी तरह काटनेवाले, शल सुई आदि स बीधनेवाले, ऊपर से वज्रशिला पर पटकने वाले, और रस्सा (૧) અબ-નારકી ને આકાશમાં લઈ જઈને નીચે પછાડવાવાળા, ગરદન પકડીને ખાડામાં ફેકવાવાળા અવળા મેહે આકાશમાં ઉછાળીને પડતી વખતે પછી વિગેરે ભેકવાવાળા, અને પાપનુ વાર વાર સ્મરણ કરાવીને અનેક પ્રકારથી પીડા પહાચાડવાવાળા (૨) અબરીષ-રઈને મુગદર આદિથી કૂટીને કરાત, ઉંચી (કાતર) આદિથી ટુકડા ટુકડા કરીને ભઠીમા શેકવાવાળા તથા અધમુવા કરીને કેળના થાભલાની જેમ એકેક ચર્મપુટને ખેચીખેચીને દુખી કરવાવાળા (૩) શ્યામ-કશા (કેવડા) આદિથી મારવાવાળા, હાથ પગ આદિ અ ને બુરી રીતે કાપવાવાળા, શૂળ સેય આદિથી વી ધવાવાળા, ઉપરથી વજી શિલા ઉપર Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २२७ दृढ बद्ध्या लतादिप्रहारपुरस्सर भीषणयातना नयति, अस्य श्यामाङ्गत्वाच्छयामनाम । ३। शवलावर्णेन कर्तुरः, अय मुद्रादिना नारकिणामस्थिसन्धि चूर्णयति, अन्त्ररसादीनिष्कासयति च । ४ । 'रौद्रो' रुद्रकर्मरत्वात् , यतोऽय नारकान् भ्रामयित्वा २ व्योम्नि सुदूरमुक्षिप्य निपततस्तान् शक्त्यसितोमरादिपु पोतयति । ५।। उपरौद्रः रौद्रकल्प', एप च करचरणायगोपाङ्गानि भनक्ति । ६। 'काल' स यो नारकान् नानाविधेषु कुम्भ्यादिपात्रेषु पचति, अय च वर्णतोऽपि काल एव । ७। ___महाकाल:-पूर्वस्मिन् जन्मनि मासाहारिणो नारकॉम्तदीयोकर्तित पृष्ठादिस्थ मास कदर्थनया भक्षयति, अय च वर्णेन महाश्यामत्वान्महाकाल उच्यते ।। आदि से मजबून वाध कर लता (वेत) आदि के प्रहार से चमडा उधेडने वाले । (४) शबल-मुद्गर आदि द्वारा नारकियों की हड्डी के जोडो को चूर चूर करने वाले, तथा आत और चरबी को निकालने वाले। (६) रौद्र-नरकस्थ जीवों को खूब ऊँचे उछाल कर गिरते समय, शक्ति, तलवार, भाले आदि मे पिरोनेवाले। (६) उपरौद्रनारकीय जीवों के हाथ पैर तोडने वाले। (७) काल-कुभी आदिमें पचानेवाले। (८) महाकाल-पूर्वजन्म के मासाहारी जीवों को उन्ही की पीठ आदिका मास काट काट कर खिलाने वाले। (२) પછાડવાવાળા અને દેરડા આદિથી બાધીને લતા નેતર) વિગેરેથી મારીને ચામડું ઉડનાર (૪) શબલ-મુગદર આદિ દ્વારા નાક્કીઓના હાડકાઓના ચૂરેચૂરા કરવાવાળા તથા આતરડા અને ચરબીને કાઢવાવાળા (૫) રૌદ્ર-નરકમાં રહેલા જીને ખૂબ ઉચે ઉછાળીને પડતી વખતે શકિત, તલવાર, ભાલા વિગેરેમાં પરોવવાવાળા (૬) ઉપરોકનારકીય જીના હાથ પગ તેડવાવાળા (૭) કાલ-ભી આદિમાં પકાવવાવાળા (૮) મહાકાલ પૂર્વજન્મના માસાહારી ને તેમની જ પઠનું માસ કાપી કાપીને ખવરાવવાવાળા. (૯) અસિપત્ર-તલવાર જેવા તી પાદડાવાળા Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ andkasaamananeo २२६ आवश्यकम्त्रस्य नीस्वा ऽधस्ताद्विमुश्चति, दचा च गलहस्त गर्ने पातयति, अधोमुखमम्बरतले समुत्क्षिप्य पुनः पुनः पतन्त गूलादिना वि यति, पाप सस्मार्य सस्मार्य चानेकधा भूयः कदर्थयति । १ । 'अम्परीपो' नारकान् मुद्गरादिना पुयित्या क्रश्चादिभिः खण्डशः कृत्वा भ्राष्ट्रादौ पचति, इताऽऽहततया मुन्छितांश्च तान क्दलीस्तम्भवच मणामेकैक पुटमुत्पाट्योत्पाटय कदर्थयति ।२। _ 'श्यामः' कशाघातादिना शावयति, हस्तपादादीन् दुर्दर्शतया छिनत्ति, शूल-मूच्यादिना विध्यति, उपरितो वज्रशिलाया पातयति, तथा रज्ज्वादिना पटकने वाले, गर्दनिया देकर (गर्दन पकड कर) गड्ढे में गिराने वाले, उलटे मुंह आकाश में उछाल कर गिरते समय बर्थी आद भोंकने वाले, और पाप का वारम्वार स्मरण कराकर अनेक प्रकार से पीडा पहुँचाने वाले। (२) अयरीप-नेरइयों को मुद्गर आदि से कृट कर करोत, कैची आदि से टुकडे २ कर भाड भूजने वाले तथा अधमरे कर के कदली स्तम्भ के समान एक एक चर्मपुट को खीच कर दुःखी करने वाले। (३) श्याम कशा (कोडा) आदि से पीटने वाले, हाथ पर आदि अवयवों को बुरी तरह काटनेवाले, शूल सुई आदि स पीधनेवाले, ऊपर से वज्रशिला पर पटकने वाले, और रस्सा (૧) આ બનનારકી જીવેને આકાશમાં લઈ જઈને નીચે પછાડવાવાળા, ગરદન પકડીને ખાડામાં ફેકવાવાળા અવળા મેઢે આકાશમાં ઉછાળીને પડતી વખતે બરછી વિગેરે ભેકવાવાળા, અને પાપનુ વાર વાર સ્મરણ કરાવીને અનેક પ્રકારથી પીડા પહારગાડવાવાળા (૨) અબરીષનેરને મુગદર આદિથી કૂટીને કરાત, ઉંચી (કાત૨) આદિથી ટુકડા ટુકડા કરીને ભઠીમાં શેકવાવાળા તથા અધમુવા કરીને કેળના થાભલાની જેમ એકેક ચર્મપુટને ચીખેચીને દુખી કરવાવાળા (3) श्याम-शा (Brust) माहिया भारपाया, हाय ५५ माहि अवयोवान બુરી રીતે કાપવાવાળા, શળ સેય આદિથી વીધવાવાળા, ઉપરથી વજી શિલા ઉપર Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम् -४ २२९ यिता क्षारोष्णजलभृता भयानका विकृतदर्शना नहीं विकृत्य नारकान् लिश्नाति । १३ । खरस्त्ररः-सचीत्कारमुच्चैराक्रोशतो नारकान् तीक्ष्णवकण्टकाssकीर्णेषु शाल्मन्यादिप्राशुवृक्षेषु' समारोप्याऽऽकर्पति, शिरस्सु च क्रकच निधाय विदारयति, परशुभिर्वा खण्डयति । १४ । 'महाघोष: ' - अय परमपीडोत्पत्तिभीतान् मृगानिवेतस्ततः पलायमानान् नारकान् घोरगर्जना कुर्वन् वाटक ( वज) पशुवि नरकाऽऽवास - मत्ररुणद्धि | १५ | 'सोलसहि' पोडशभि', 'गाहासोलसएहि ' गाथानामक पोडशमध्यनरकके जीवों को डाल कर अनेक प्रकार से पीडित करनेवाले । (१४) खरस्वर - तीखे वज्रमय काटेवाले ऊँचे २ शाल्मली (सेमल) वृक्षों पर चढाकर चिल्लाते हुए नारकी जीवों को खींचनेवाले, मस्तक पर करोंत रखकर चीरनेवाले, तथा फरसा से खड२ करनेवाले । (१५) महाघोष - अत्यन्त वेदना के डर से मृगोंकी तरह इधर-उधर भागते हुए नारकी जीवों को चाडेमे पशुओंकी तरह घोर गर्जना करके रोकनेवाले । इनके द्वारा होनेवाले पापकी अनुमोदना आदि से जो अतिचार लगा हो 'तो मैं उससे निवृत्त होता हूँ । सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन इस નરકના જીવાને નાખીને અનેક પ્રકારવી દુખ દેવાવાળા (૧૪) ખરસ્વર-તીખા વજ્રા જેવા કાટાવાળા ઉચા ઉંચા થેમળના ઝાડ ઉપર ચઢાવીને બુમેા પાડતા નારકી જીવાને ખેચવાવાળા, માથા ઉપર કરવત રાખીને ચીરવાવાળા તથા ફ્સીથી ટુકડા ટુકડા કરવાવાળા (૧૫) મહાધે પ- અત્યં ત વેદનાના ડરથી હરાની જેમ જયા ત્યા ભાગતા નારકી જીવાને વાડામા પશુઓની માફક ધાર ગર્જના કરીને રાવાવાળા એ પરમાધામિઁક દેવાથી થતા પાપની અનુમેદના આદિથી જે અતિચાર લાગ્યા હૈાય તે તેમાથી હું નિવૃત્ત થાઉ છુ સૂત્રકૃતાગના પ્રથમ શ્રુતસ્કંધના સેળ અધ્યયન આ પ્રકારે છે १ - 'माशुरुच्च " इत्यर्थः । २- रुपेर्द्विकर्मकत्वादिदम कथित कर्म 'जमवरुणद्धि गाम्' इत्यादिवत् । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - २२८ आवश्यकसूत्रस्य 'असिपत्रः' स देशो योऽसितुल्यपत्राणा वन विरचय तच्छायाऽभिलापेण समागतानारकिणो हितगातान्दोलनपूर्वयमसिपत्रपातनेन खण्डश छिनत्ति । ९। धनु:-स यो धनुपो सिनिर्मुकरदचन्द्राकारणिः कर्णाटनासादीनवयवा भारकिणा छिनत्ति । १० । कुम्भः-विविधाष्ट्रिका याकारामु कुम्भीपु नारक्णिो भृश पचति इन्ति च । ११ । 'वाल''-भ्राष्ट्रस्थतप्तवज्रवालुकासु नारफान् सतडत्कार चणकाद भजयति । १२ । वैतरणी नरकस्थनदी, तदधिष्ठावत्वेन तद्देवोऽपि तात्स्थ्यात् गृहा दारा इतिवत् , स चातिपूतिगन्धिपूयरुधिरप्रवाहपरिपूरिता तप्तनपुताम्रादिकलकला. असिपत्र-तलवार जैसे तीखे पत्तों के वनकी विकुर्वणा करके उस वनमें छायाकी इच्छा से आये हुए नारकी जीवों को वैक्रिय वायद्वारा पत्ते गिराकर छिन्नभिन्न करनेवाले। (१०) धनु-धनुष स छोडे हुए अर्द्धचन्द्राकार बाणों से आँख नाक आदि अवयवों का छेदनेवाले। (११) कुभ-ऊँटनी आदि के आकारवाली कुम्भियाँ म पचानेवाले । (१२) वालू-वज्रमय तप्तवालुफा मे चनों के समान तडतडाट करते हुए नारकी जीवों को भूननेवाले । (१३) वैतरणी-अत्यन्त दुर्गन्धवाली राध लोहू से भरी हुई, एव तपे हुए जस्त और कथीर की उकलती हुई, अत्यन्त क्षार से युक्त उष्ण पानी से भरी हुई वैतरणी नदी की विकुर्वणा करके उसमें વનની વિકૃર્વણ કરીને તે વનમા છાયાની ઈચ્છાથી આવેલા નાનકી ને વૈક્રિય વાયુ દ્વારા પાદડાઓને ખેરવીને છિન્નભિન્ન કરવાવાળા (૧૦) ધન-ધનુષ્યથી છેડેલ અર્ધચંદ્રાકાર ગણેથી આખ નાક અદિ અવને દવાવાળા (૧૧) કુભ ઉટની (સાદી) આદિના આકારવાળી કુભિમા પકાવવાવાળા (૧૨) વાલુ-વજીમય તપેલી રતીમાં ચણાની સમાન તડતડાત કરતા નારી જીને શેકવાવાળા (૧૩) વેતરણી ખૂબ દુધવાલી રાધ લેહીથી ભરેલી, તપેલા જસત અને કથીરથી ઉકળતી, અત્યત ક્ષાર યુક્ત ઉના પાણીની ભરેલી વૈતરણ નદીની વિદુર્વણુ કરીને એમાં १- 'असिपत्र' इत्यत्राऽर्श आदित्वादन् । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २२९ यिता क्षारोष्णजलभृता भयानका विकृतदर्शना नहीं विकृत्य नारकान् क्लिश्नाति । १३ । खरस्वरः- सचीत्कारमुच्चैराक्रोशतो नारकान् तीक्ष्णवज्रकण्टकाssकीर्णे शाल्मन्यादिभाक्षेषु समारोप्याssकर्षति, शिरस्सु च क्रकच निधाय विदारयति, परशुभिर्वा खण्डयति । १४ । 'महाघोषः ' - अय परमपीडोत्पत्तिभीतान मृगानिवेतस्ततः पलायमानान् नारकान् घोरगर्जना कुर्वन् वाटक ( व्रज) पशुनित्र नरकाऽऽवासमरुणद्धि | १५ | 'सोलसहि' पोडशभि', 'गाहासोल्सएहि गाथानामक पोडशमध्यनरकके जीवों को डाल कर अनेक प्रकार से पीडित करनेवाले । (१४) खरस्वर - तीखे वज्रमय काटेवाले ऊँचे २ शाल्मली (सेमल) वृक्षों पर चढ़ाकर चिल्लाते हुए नारकी जीवों को खींचनेवाले, मस्तक पर करौंत रखकर चीरनेवाले, तथा फरसा से खड२ करनेवाले । 5 (१५) महाघोष - अत्यन्त वेदना के डर से मृगोंकी तरह इधर-उधर भागते हुए नारकी जीवों को वाडेमे पशुओंकी तरह घोर गर्जना करके रोकनेवाले । इनके द्वारा होनेवाले पापकी अनुमोदना आदि से जो अतिचार लगा हो 'तो मैं उससे निवृत्त होता हूँ । सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन इस નરકના જીવાને નાખીને અનેક પ્રકારથી દુખ દેવાવાળા (૧૪) ખરસ્વર-તીખા વજ્રા જેવા કાટાવાળા ઉંચા ઉંચા Àમળના ઝાડ ઉપર ચઢાવીને બુમે! પાડતા નારકી છાને ખેચવાવાળા, માથા ઉપર કરવત રાખીને ચીરવાવાળા તથા ક્રસીથી ટુકડા ટુકડા કરવાવાળા (૧૫) મહુ ઘે ષ- અત્યત વેદનાના ડરથી હરણેાની જેમ જ્યાં ત્યા ભાગતા નારકી જીવાને વાડામા પશુઆની માફક ઘેર ગના કરીને રોકવાવાળા એ પરમાધાર્મિક દેવાથી થતા પાપની અનુમેદના આદિથી જે અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેમાથી હું નિવૃત્ત થાઉ છુ સૂત્રકૃતાગના પ્રથમ શ્રુતસ્કંધના સેળ અધ્યયન આ પ્રકારે છે १ - ' प्राशुरुच्च ः ' इत्यर्थः । २ - रुपेर्द्विकर्मकत्वादिदमकथित कर्म 'जमवरणद्धि गाम्' इत्यादिवत् । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - २२८ आवश्यकसूत्रस्य 'असिपत्रः' स देको योऽसितल्यपत्राणा पन विरचग्य तच्छायाऽमिलाषेण समागतानारकिणी कितमातान्दोलनपूरमसिपत्रपातनेन खण्डन छिनत्ति ।९। धनुः-स यो धनुपो चिनिर्मुकरर्द्धचन्द्रामाणिः कर्णाटनासाठीनवयवा भारकिणा छिनत्ति । १० । कुम्भः-विविधाष्ट्रिकाशाकारामु कुम्भीपु नारक्णिो भृश पति हन्ति च । ११ । 'वालुः-भ्राप्टस्थतमवज्रवालुकामु नारफान् सतडत्कार चणकादानव भर्जयति । १२ । चैतरणी नरकस्थनदी, तदधिष्ठातृत्वेन तद्देवोऽपि तात्स्थ्यात् गृहा दारा इतिवत् , स चातिपूतिगन्धिपूयरुधिरप्रवाहपरिपूरिता तप्तनपुताम्रादिकलकला असिपत्र-तलवार जैसे तीखे पत्तों के घनकी विकुर्वणा करक उस वनमें छायाकी इच्छा से आये हुए नारकी जीवों को वैक्रिय वायुद्वारा पत्ते गिराकर छिन्नभिन्न करनेवाले। (१०) धनु-धनुष २ छोडे हुए अर्द्धचन्द्राकार बाणों से आँख नाक आदि अवयवों का छेदनेवाले। (११) कुभ-ऊँटनी आदि के आकारवाली कुम्भिया में पचानेवाले । (१२) वाल-वज्रमय तप्तवालुका मे चनों के समान तडतडाट करते हुए नारकी जीवों को भूननेवाले । (१२) वैतरणी अत्यन्त दुर्गन्धवाली राध लोह से भरी हुई, एव तप हुए जस्त और कथीर की उकलती हुई, अत्यन्त क्षार से युक्त उष्ण पानी से भरी हुई वैतरणी नदी की विकुर्वणा करके उसम વનની વિમુર્વણા કરીને તે વનમા છાયાની ઈચ્છાથી આવેલા નારકી અને વૈક્રિય વાયુ દ્વારા પાદડાઓને પેરવીને છિન્નભિન્ન કરવાવાળા (૧૦) ધન-ધનુષ્યથી છેડેલ અર્ધચંદ્રાકાર બે થી આખ નાક અદિ અવયને દવાવાળા (૧૧) કુભ ઉટની (સાયણ) આદિના આકારવાળી કુમિમાં પકાવવાવાળા (૧૨) વાલુ-વજય તપેલી રેતીમાં ચણુની સમાન તડતડાત કરતા નારકી અને શેકવાવાળા (૧૩) વૈતરણખૂબ દુધવાલી રાધ લોહીથી ભરેલી, તપેલા જસત અને કથીરથી ઉકળતી, અત્યત ક્ષાર યુકત ઉના પાણીની ભરેલી વૈતરણ નદીની વિદુર્વણા કરીને એમાં १- 'असिपत्र' इत्यत्राऽर्श आदित्वादच् । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २३३ चतुर्थ कूर्मज्ञाताभ्ययनम् । पञ्चम शैलकराजर्पिज्ञाताध्ययनम् । पष्ठ तुम्बज्ञातम् । सप्तम रोहिणीज्ञातम् । अष्टमम् मल्लीज्ञातम् । नवम माकन्दीपुत्रज्ञातम् । दशम चन्द्रज्ञातम् । एकादश समुद्रनीरस्थदावववृक्षचरित्रयुक्तत्वाधाबद्दज्ञाताध्ययनम् । द्वादशमुदकज्ञाता ययनम् , अन नगरपरिखाजलवर्णनम् । त्रयोदश मण्डूकज्ञाताध्ययनम् । अत्र नन्दनमणिकारष्ठिजीववृत्तान्तवर्णनम् । चतुर्दशें तेतलीप्रधानज्ञाताध्ययनम् । पञ्चदश नन्दिवृक्षाख्यतरुफलवृत्तान्तसम्बन्धान्नन्दिफलज्ञाताध्ययनम् । पोडशममरकड्काज्ञातम् , अमरकका नाम धातकीखण्ड-भरतक्षेत्रराजधानी तत्सम्बन्धात् । सप्तदशमाकीर्णज्ञातम्-आकीर्णा: आकीर्णजातीयाः समुद्रमध्यवर्तिनोऽश्वविशेपास्तत्सम्बन्धात् । अष्टादश सुसुमाज्ञात नाम । एकोनविंशतितम पुण्डरीकज्ञात नामाभ्ययनम् ॥ 'वीसाए' विंशत्या 'असमाहिटाणेहि समाधिश्चित्तैकाग्रता-मोक्षमार्गेस्थान, न समाधिरसमाधि , यत्सेवनेन स्वपरोभयमोक्षसुखविच्छेदो जायते (५) शैलकराजर्षि, (६) तुम्बलेप, (७) रोहिणी, (८) मल्लिनाथ, (९) माकन्दी, (१०) चन्द्र, (११) दावववृक्ष, (१२) उदकनाम, (१३) मण्डूक, (१४) तेतलीप्रधान, (१५) नन्दीफल, (१६) अमरकका, (१७) आकीर्णजातीय अश्व, (१८) सुसमा, (१९) पुण्डरीक, इन उन्नीस ज्ञाताध्ययनों की श्रद्वा-प्ररूपणादि में न्यूनाधिकता होने से जो कोई अतिचार किया गया हो तो उससे मैं निवृत्त होता है। चित्तकी एकाग्रतापूर्वक मोक्षमार्ग में स्थित होने को समाधि कहते है, और इससे विपरीत को असमाधि कहते हैं, उसके बीस स्थान (ज्ञानादिरहित अप्रशस्तभाव वाले स्थान) हैंशर्षि (६) तुमने५, (७) शडी, (८) मारवनाथ, (६) भादी, (१०) य, (११) वृक्ष, (१२) नाम, (13) भ५, (१४) तेतीप्रधान, (१५) नन्दा५७, (१६) अभ२४ ४1, (१७) माहीतीय अश्व, (१८) सुसुभा, (१८) पुरी આ ઓગણીસ અધ્યયનેની શ્રદ્ધા–પ્રરૂપણાદિમાં જૂનાધિકતા થવાના કારણે જે કઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉ છું” ચિત્તની એકાગ્રતાપૂર્વક મોક્ષમાર્ગમાં સ્થિત થવું તેને સમાધિ કહે છે, અને તેનાથી વિપરીત સ્થિતિને અસમાધિ કહે છે તેના વીસ સ્થાનકા Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ आवश्यक सूत्रस्य कुशल मनुष्ठान ब्रह्म, न ब्रह्म = अनह्म = अर्थान्मैथुन, तस्मिन् अनह्मणि, एतद्धि औदारिक वैकचिकशरीराभ्या करणकारणाऽनुमोदनै मनःकायतोऽष्टादशविध भवति, अर्थादौदारिक मनसा वाचा कायेन च स्वय न करोतीति त्रिविम्, मनसा वाचा कायेन चान्यद्वारा न कारयतीति निविधमिति पविधम् । मनसा वाचा कायेन च कुर्वन्तमप्यन्य न समनुजानातीति च विविधमिति सर्वसङ्कलनयौदारिक शरीरसम्वन्धिनो नव भेदाः । एवमेव वैक्रयिकशरीरसम्वन्धिनोऽपीति मिलि वाऽष्टादशविधत्वम् । 1 एगूणवीसाए' एकोनविंशत्या 'नायज्झयणेहिं ज्ञातानि=उदाहर णानि, तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि = ज्ञाताभ्ययनानि तै, एषु यत्र परमेण वारु ण्येनाऽऽत्यन्तिककष्टसहनपूर्वक मेघकुमारकर्तृक हस्तिभवाधिकरणक पादैकोत्क्षेपणरूप वृत्तमुपनिद्ध तदुत्क्षिप्तज्ञात नाम प्रथममध्ययनम् । अस्य चैत्र ज्ञातत्वम्दयादिगुणशालिनो दवदाहादिस्ट सहन्ते समुत्क्षितैरुचरण - मेघकुमार - जीव हस्तिवदिति १ । यत्र श्रेष्ठि- तस्करयोरेकत्र बन्धनवृत्तान्त उपनिनद्धस्तत् 'सघाटज्ञात' नाम द्वितीयमध्ययनम् । तृतीय 'मयूराण्डज्ञाताध्ययनम् अनुमोदना की हो, इसी प्रकार (१० - १८) वैक्रिय शरीर से मैथुन मन, वचन और काय से सेवन किया हो, कराया हो और अनुमोदन की हो। इस अठारह प्रकार के अब्रह्मचर्य द्वारा जो अतिचार किया गया हो तो उससे मैं निवृत्त होता हूँ । ין ज्ञाताधर्मकथा के उन्नीस अध्ययन - (१) मेघकुमार ( उत्क्षिप्त), (२) धन्ना सार्थवाह (सघाट), (३) मयूराण्ड, (४) कूर्म (कच्छप) મન વચન અને કાયાથી સેવન કર્યું હાય, કરાયુ આપ્યુ હાય, આ પ્રકાર (૧૦-૧૮) વૈક્રિય શરીરથી મૈથુન કાયાથી સેવન કર્યુ. હાય, કરાયુ હાય અને અનુમેદન અઢાર પ્રકારના અબ્રહ્મચ દ્વારા જે અતિચાર લાગ્યા હાય નિવૃત્ત થાઉં છુ હોય અને અનુમા ન મન વચન અને આપ્યુ હાય આ તે। તેમાથી હું એગણીસ અધ્યયન (१) મેઘકુમાર ( उत्क्षिप्त ), (२) धन्ना मार्थवाडु (सघाट), (3) मयूराड, (४) धर्म ( ४च्छप ), (4) शैय જ્ઞાતાધકથાના १ - ज्ञाताभ्ययनेषु | Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २३३ चतुर्थ कूर्मज्ञाताध्ययनम् । पञ्चम भैलकराजर्पिज्ञाता ययनम् । षष्ठ तुम्बज्ञातम् । सप्तम रोहिणीज्ञातम् । अष्टमम् मल्लीज्ञातम् । नवम माकन्दीपुत्रज्ञातम् । दशम चन्द्रज्ञातम् । एकादश समुद्रनीरस्थदाबद्दववृक्षचरित्रयुक्तत्वाधावद्दवज्ञाताध्ययनम् । द्वादशमुदकज्ञाता ययनम् , अत्र नगरपरिखाजलवर्णनम् । त्रयोदश मण्डूकज्ञाताध्ययनम् । अत्र नन्दनमणिकारश्रेप्ठिजीववृत्तान्तवर्णनम् । चतुर्दर्श तेतलीप्रधानज्ञाताध्ययनम् । पञ्चदश नन्दिवृक्षाख्यतरुफलवृत्तान्तसम्बन्धानन्दिफलज्ञाताध्ययनम् । पोडशममरकङ्काज्ञातम् , अमरकका नाम धातकीखण्ड-भरतक्षेत्रराजधानी तत्सम्बन्धात् । सप्तदशमाकीर्णज्ञातम्-आकीर्णा:-आकीर्णजातीयाः समुद्रमध्यवत्तिनोऽश्वविशेषास्तत्सम्बन्धाद । अष्टादश सुसुमाज्ञात नाम । एकोनविंशतितम पुण्डरीकज्ञात नामाभ्ययनम् ॥ 'वीसाए' विंशत्या 'असमाहिहाणेहि' समाधिचित्तैकाग्रता-मोक्षमार्गेप्रस्थान, न समाधिरसमाधिः, यत्सेवनेन स्वपरोभयमोशमुखविच्छेदो जायते (५) शैलकराजर्षि, (६) तुम्बलेप, (७) रोहिणी, (८) मल्लिनाथ, (२) माकन्दी, (१०) चन्द्र, (११) दावद्दववृक्ष, (१२) उदकनाम, (१३) मण्डूक, (१४) तेतलीप्रधान, (१५) नन्दीफल, (१६) अमरकका, (१७) आकीर्णजातीय अश्व, (१८) सुसुमा, (१९) पुण्डरीक, इन उन्नीस ज्ञाताध्ययनों की श्रद्धा-प्ररूपणादि में न्यूनाधिकता होने से जो कोई अतिचार किया गया हो तो उससे मैं निवृत्त होता है। चित्तकी एकाग्रतापूर्वक मोक्षमार्ग में स्थित होने को समाधि कहते हैं, और इससे विपरीत को असमाधि कहते हैं, उसके वीस स्थान (ज्ञानादिरहित अप्रशस्तभाव वाले स्थान) हैंरा (६) तुम्मवे५, (७) al, ८) भाcanाय, (E) भा ही, (१०) यद्र, (११) पपवृक्ष, (१२) 6 नाम, (13) भ(१४) तीप्रधान, (१५) नन्ही५०, (११) अभ२४ ७, (१७) माही नतीय अश्व, (१८) सुसुभा, (१८) पुरी આ ઓગણસ અધ્યયનેની શ્રદ્ધા-પ્રરૂપણુદિમાં જૂનાધિતા થવાના કારણે જે કઈ અતિચાર લાગ્યા હેય “તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉ છું” ચિત્તની એકાગ્રતાપૂર્વક મોક્ષમાર્ગમાં સ્થિત થવું તેને સમાધિ કહે છે, અને તેનાથી વિપરીત સ્થિતિને અસમાધિ કહે છે તેના વીસ સ્થાનકે Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ आवश्यकमूत्रस्य सः, तस्य स्थानानि पदान्यसमाधिस्थानानि-ज्ञानादिरहिताऽप्रशस्तभाव सम्पन्नानि स्थानानीत्यर्थस्तैः । तानि क्रमेण यथा-प्रथम दूतद्वतचरण-सयमविरा धनामात्मविराधना चानपेक्ष्य गमनम् । द्वितीयमममाजितचरणम् अप्रमार्जिते= रजोहरणेनाऽविशुद्धीकृते मार्गादौ गमनम् । तृतीय दुप्पमार्जितचरणम् असम्यक् भमार्जिते गमनम् । चतुर्थ मर्यादातिरिक्तशय्यापीठफल कादिसेवनम् । पञ्चम रत्नाधिकपरिभव =गुर्वाचार्यादीना पराभवकरणम् । पष्ठ स्थविराणा घातचिन्तनम् । सप्तम भूतानामुपघातचिन्तनम् । अष्टम मतिक्षण क्रोधकरणम् । नवम पृष्ठतोऽवर्णवाद. परोक्ष आक्षेपवचनम् । दशम शङ्कितेऽर्थे पुनः पुनर्निश्चितभाषणम्। एकादशमनुत्पन्ननूतनकलहकरणम् । द्वादश पुरातनोपर्शमितकलहोदीरणम् । (१) दवदव-जल्दी जल्दी चलना (२) विना पूँजे चलना, (३) सम्यक् प्रकार पूँजे विना चलना (पूँजना कही चलना कही), (४) मर्यादा से अधिक पाट पाटला आदि का उपभोग करना, (५) गुरु आदि के साथ अविनयपूर्वक बोलना तथा उनका पराभव करना, (६) स्थविर (अपने से बडे) की घात चिन्तन करना, (७) भूतों (जीवों) की घात चितन करना, (८) क्षण क्षण में क्रोध करना, (९) परोक्ष मे ,अवर्णवाद करना, (१०) शङ्कित विषय मे बार बार निश्चयपूर्वक बोलना, (११) नवीन क्लेश उत्पन्न करना, (१२) उपशान्त क्लेश की उदीरणा करना, (१३) જ્ઞાનાદિ રહિત અપ્રશસ્ત ભાવવાળા સ્થાન છે (૧) દવદવ (જલદી જલદી) ચાલવું (૨) પૂજ્યા વિના ચાલવું, (૩) સમ્યક પ્રકારે પૂજ્યા વિના ચાલવું (પૂ જવું ક્યાય અને ચાલવુ કયાય), (૪) મર્યાદાથી વધારે પ્રમાણમાં પાટ પાટલા વગેરેને ઉપલેગ કર, (૫) ગુરુ વગેરેની સાથે અવિનયપૂર્વક બોલવું તથા તેમને પરાભવ કર, () સ્થવિર (પિતાનાથી મોટ)ની ઘાત કરવાનું ચિત્તવન ४२७, (७) भूतो (पानी) धात पार्नु ,यितन ४२७, ८) क्षक्षमा प કરવો, (૯) પક્ષમાં અવર્ણવાદ બલવું, (૧૦) શકા હોય તેવા વિષયમાં વારવાર નિશ્ચયપૂર્વક બોલવુ, (૧૧) નવો કલેશ ઉત્પન્ન કરવો, (૧૨) ઉપશાન્ત કવેશની ઉદીરણ કરવી, (૧૩) અકાલે સ્વાધ્યાય કરવો, (૧૪) સચિત્ત રજવાળા Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २३५ त्रयोदशमकाले स्वाध्यायकरणम् । चतुर्दश सरजस्फचरणेनाऽऽसनादावुपवेशनम् । पञ्चदश रात्रिषु प्रथममहरोत्तरमुच्चैः सम्भापणम् , गृहस्थभापामापण वा । पोडश गच्छादिपु भेदोत्पादनम् । सप्तदश झझकरणम् गणदुःखदभापाव्यवहरणम् । अष्टादश कलहकरणम् येन केनचित् सह विरोधाऽऽचरणम् । एकोनविंशतितम सूर्योदयादारभ्याऽस्त यावत्पौनःपुन्येनाऽभ्यवहरणम् । विंशतितममनेपणिकाहारादिसेवनम् ॥ मू० १३ ॥ ॥ मूलम् ॥ एगवीसाए सवलेहि ॥सू० १४ ॥ ॥ छाया ॥ एकविंशत्या शरलैः । भू० १४ ॥ ॥ टीका ॥ यद्वारा चारित्र शवल-कवुर भवति तानि शवलानि, तेपामेकविंशति अकाल में स्वा याय करना, (१४) सचित्त रजयुक्त चरणों से आसन आदि पर बैठना, (१५) प्रहररात्रि व्यतीत होने के बाद जोर से बोलना अथवा गृहस्थ जैसी भाषा बोलना, (१६) गच्छ आदि मे छेद-भेद करना, (१७) गण को दुख उत्पन्न हो ऐसी भाषा बोलना, (१८) हरेक के साथ विरोध करना, (१९) सूर्योदय से सूर्यास्त तक खाते रहना, (२०) अनेपणिक आहार आदि का सेवन करना। इनके विषयमे अतिचार किया गया हो तो उससे मै निवृत्त होता हूँ । सू० १३॥ जिनसे चारित्र शयल (कर्युर) अर्थात् चारित्र दृपित हो પગ વડે આસન વગેરે પર બેસવુ, (૧૫) પ્રહ- રાત્રા ગયા બાદ ઊંચા સ્વરથી બોલવું--અથવા ગૃહસ્થ જેવી ભાષા બોલવી, (૧૬) ગરછ, સઘ વગેરમાં છેદ-ભેદ પડાવવો, (૧૭) ગણુને દુ ખ ઉત્પન્ન થાય તેવી ભાષા બોલવી, (૧૮) દરેકની સાથે વિરોધ કરવો, (૧૯) સૂર્યોદયથી લઈ સૂર્યાસ્ત સમય થાય ત્યાં સુધી ભેજન કરતા રહેવું, (૨૦) અષણિક આહાર આદિનું સેવન કરવું, આ વિષે જે કોઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉં છું (સૂ૦ ૧૩) જેના વડે ચારિત્ર શબલ-અથત ચારિત્ર દૂષિત થાય છે તેને “શબલ' Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ आवश्यमूत्रस्य सा, तस्य स्थानानि पदान्यसमाधिस्थानानि-ज्ञानादिरहिताऽप्रशस्तमात्र सम्पन्नानि स्थानानीत्यर्थस्तैः । तानि क्रमेण यथा-प्रथम द्रुतगृतचरण-सयमविराधनामात्मविराधना चानपेक्ष्य गमनम् । द्वितीयमप्रमाणितचरणम् अपमानिते रजोहरणेनाऽपिशुद्धीकृते मार्गादौ गमनम् । तृतीय दुप्पमार्जितचरणम् असम्यक भमार्जिते गमनम् । चतुर्थ मर्यादातिरिक्तगय्यापीठफलकादिसेवनम् । पश्चम रत्नाधिकपरिभव -गुर्माचार्यादीना पराभवकरणम्। पष्ठ स्थविराणा घातचिन्तनम् । सप्तम भूतानामुपघातचिन्तनम् । अष्टम प्रतिक्षण क्रोधकरणम् । नवम पृष्ठ तोऽवर्णवाद -परोक्ष आक्षेपवचनम् । दशम शङ्कितेऽर्थे पुनः पुनर्निचितभाषणम् । एकादशमनुत्पन्ननूतनकलहमरणम् । द्वादश पुरातनोपशमितकलहोदीरणम् । (१) दवदव-जल्दी जल्दी चलना (२) विना पूँजे चलना, (३) सम्यक् प्रकार पूंजे विना चलना (पूजना कही चलना कही), (४) मर्यादा से अधिक पाट पाटला आदि का उपभोग करना, (५) गुरु आदि के साथ अविनयपूर्वक बोलना तथा उनका पराभव करना, (६) स्थविर (अपने से बडे ) की घात चिन्तन करना, (७) भूतों (जीवो) की घात चिंतन करना, (८) क्षण क्षण में क्रोध करना, (२) परोक्ष मे अवर्णवाद करना, (१०) शङ्कित विषय मे बार बार निश्चयपूर्वक बोलना, (११) नवीन क्लेश उत्पन्न करना, (१२) उपशान्त क्लेश की उदीरणा करना, (१३) જ્ઞાનાદિ રહિત અપ્રશસ્ત ભાવવાળા સ્થાન) છે (૧) દવદવ (જલદી જલદી) ચાલવુ (ર) પૂજ્યા વિના ચાલવું, (૩) સમ્યક પ્રકારે પૂજ્યા વિના ચાલવું (પૂજવું કયાય અને ચાલવું કયાય, (૪) મર્યાદાથી વધારે પ્રમાણમાં પાટ પાટલા વગેરેને ઉપભેગ કર, (૫) ગુરુ વગેરેની સાથે અવિનયપૂર્વક બોલવું તથા તેમને પરાભવ કર, (૬) સ્થવિર (પિતાનાથી મોટા)ની ઘાત કરવાનું ચિત્તવન કરવું, (૭) ભૂતે (છ ની) ઘાત કરવાનું ચિંતન કરવું, (૮) ક્ષક્ષણમાં ક્રોધ કરવો, (૯) પક્ષમાં અવર્ણવાદ બોલવુ, (૧૦) શકા હોય તેવા વિષયમા વારવાર નિશ્ચયપૂર્વક બેલવું, (૧૧) નો કલેશ ઉત્પન્ન કરવો, (૧૨) ઉપશાન્ત કલેશની ઉદીરણા કરવી, (૧૩) અકાલે સ્વાધ્યાય કર, (૧) સચિત્ત રજવાળા Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणा ययनम्-४ २३७ मम् (१०), मातृस्थानशब्देनात्र कपट (माया) गृह्यते । शग्यातरपिण्डसेवनमेकादशम् (११), ज्ञात्वा प्राणातिपातकरण द्वादशम् (१२), ज्ञात्वा मृपावादकरण त्रयोदशम् (१३), ज्ञात्वाऽदत्ताऽऽदान चतुर्दशम् (१४), ज्ञात्वा सचित्तपृथिव्युपवेशनादि पञ्चदशम् (१५) स्निग्यपृथिव्यामुपवेशन पोडशम् (१६), सजीवपीठफलकादिसेवन सप्तदशम् (१७), मूल-कन्द-स्कन्ध-स्वक्-प्रवालपत्र-पुष्प-फल-बीज-हरितादीना सेवनमष्टादशम् (१८), सवत्सराभ्यन्तरे दशोदकलेपसेवनमेकोनविंशतितमम् (१९) सवत्सराभ्यन्तरे दशमातृस्थानसेवन विंशतितमम् (२०), सचित्तोदकरजोव्याप्तहस्तादिना दत्तस्याऽऽहारादेः सेवनमेकविंशतितमम् (२१) ॥ सू० १४ ॥ आदि से उतरना), (१०) एक महीने मे तीन मातृस्थान (कपट) सेवन करना, (११) शय्यातर पिण्ड का सेवन करना, (१२) जानबूझ कर प्राणातिपात करना, (१३) जानबूझ कर झूठ बोलना, (१४) जानवृझ कर चोरी करना, (१५) जानबूझ कर सचित्त पृथ्वी पर बैठना, (१६) स्निग्ध (गीली) पृथ्वी पर बैठना, (१७) जीव सहित पीठ फलक आदि का सेवन करना, (१८) मूल-कन्दस्कन्ध-त्वक-प्रवाल-पत्र-पुष्प-फल-बीज और हरित, इन दश प्रकार की सचित्त वनस्पति आदि का सेवन करना, (१९) एक वर्ष मे दश उदक लेप लगाना, (२०) एक वर्ष मे दश मातृस्थान सेवन करना, (२१) सचित्त उदक से भीगे हुए (गीले) हस्तपात्र ત્રણ વાર પાણીને લેપ લગાડવો (નદી વિગેરે ઉતરવા), (૧૦) એક માસમાં ત્રણ માતૃસ્થાનનું (કપટ) સેવન કરવું, (૧૧) શય્યાતરપિડ સેવન કરવું, (૧૨) જાણી બુઝીને પ્રાણાતિપાન કરવો, (૧૩) જાણું-સમજીને અસત્ય બોલવુ, (૧) જા–સમજીને ચેરી કન્વી, (૧૫) જાણીબુઝીને સચિત્ત પૃથ્વી ઉપર બેસવુ, (૧) પાણીથી ભીજાએલી જમીન પર બેસવું, (૧૭) જીવ સહિત પીઠફલક વગેરેનું सेवन ४.७, (१८) भूस, ४६, २७न्ध, छास, प्रवास, पत्र, पु.५, ५८, ४ भने હરિતલીની આ દસ પ્રકારની સચિત્ત વનસ્પતિનુ સેવન કરવું, (૧૯) એક વર્ષમાં દસ પાણીના લેપ લગાડવા, (૨૦) એક વર્ષમાં દસ માતૃસ્થાન (પટ) સેવન કરવા, (૨૧) સચિત્ત પાણીથી ભીંજાએલા હાથ-પાત્ર આદિથી આપેલા આહાર-આદિનું સેવન Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - २३६ आवश्यकसूत्रस्य मैदा , तत्र हस्तकर्मकरण प्रथमम् (१) अतिक्रमव्यतिक्रमातिचारैमथुनसेवन द्वितीयम् , (२) रात्रिभोजन ठतीयम् (३) आधारर्मसेवन चतुर्थम् (४), राजपिण्ड-(नृपतिमुद्दिश्य निष्पादित) ग्रहण पञ्चमम् (५), द्रव्यादिना सा वय क्रीतमुद्धारगृहीतमनिच्छतः पुनभृत्यादेहस्तादपहत्याऽन्यसम्बन्धिसाधारणाऽऽहा रादिक ताननापृच्छय स्वकीयमपि स्वस्थानादपहृत्य वा साधवे दीयमानमित्येपा पञ्चाना पिण्डाना सेवन पष्ठम् (६), पुनः पुनः प्रत्यारयानभञ्जन सप्तमम् (७), पण्मासाभ्यन्तरे स्वगच्छानिःसृत्य गच्छान्तरगमनमष्टमम् (८), मासा भ्यन्तर उदकायले पसेवन नवमम् (९) मासाभ्यन्तरे मातस्थानत्रयसेवन दश उन्हे 'शबल' कहते हैं, वे इक्कीस (२१) हैं-(१) हस्तकर्म करना (२) अतिक्रम व्यतिक्रम और अतिचार से मैयुन सेवन करना, (३) रात्रि भोजन करना, (४) आधाकर्मी आहार आदिका सेवन करना, (५) राजपिण्ड लेना (६) 'कीय' (क्रीत)-साधु के निमित्त खरीदे हुए, 'पामिन्छे (प्रामित्य)-उधार लिये हुए, 'अच्छिन' (अच्छेद्य)-पुत्र भृत्य आदि के हाथ से छीने हुए, 'अणिसिह' (अनिसृष्ट)=अनेक के हिस्से का आहार आदि उनसे विना पूछे दिये हुए, तथा 'आह दिजमाण' (आहृत्य दीयमान) स्वस्थान से सामने लाकर दिये हुए, आहार आदि का सेवन करना, (७) प्रत्याख्यान का बारम्बार भग करना, (८) छह महीने से पहले अपना गच्छ छोड कर दूसरे गच्छ में जाना, (९) एक महीनेमे तीन बार उदक का लेप लगाना (नदी કહે છે તે એકવીશ પ્રકારના છે (૧) હસ્તકર્મ કરવુ, (૨) અતિક્રમ, વ્યતિક્રમ અને અતિચારથી મિથુન સેવન કરવુ (૩) રાત્રિ-ભૂજન કરવું, (૪) આધાકમાં माहार वगेरेनु सेवन ४२७, (५) पिंड अ५ ४वो (६) 'कीय' (क्रीत) साधुना निमित्त परी ४२सा, 'पामिच्चे' (मामित्य) धार बीघेसा, 'अच्छिन्न' (अच्छेद्य) पुत्र-ना४२ महिना माथी छीना enal, 'अणिसिह' (अनिसृष्ट) અનેક માણસના ભાગને આહાર વગેરે તેઓને પૂછયા વિના આપેલા તથા 'आह दिज्जमाण' (आहृत्य दीयमानम् ) पोताना स्थानथी साभा भाषीने तापी આપેલા આહાર આદિનું સેવન કરવું, (૭) પ્રત્યાખ્યાનને વાર વાર ભગ કરવે, ૮) છ માસ પૂર્વે પિતાને ગચ્છ ત્યજી બીજા ગ૭મા જવું, (૯) એક મહિનામાં Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २३७ मम् (१०), मातृस्थानशब्देनात्र कपट (माया) गृह्यते । शय्यातरपिण्डसेवनमेकादशम् (११), ज्ञात्वा प्राणातिपातकरण द्वादशम् (१२), ज्ञात्वा मृपावादकरण त्रयोदशम् (१३), ज्ञात्वाऽदत्ताऽऽदान चतुर्दशम् (१४), ज्ञात्वा सचित्तपृथिव्युपवेशनादि पञ्चदशम् (१५) स्निग्यपृथिव्यामुपवेशन पोडशम् (१६), सनीवपीठफलकादिसेवन सप्तदशम् (१७), मूल-कन्द-स्कन्ध-त्वक्-प्रवालपत्र-पुष्प-फल-वीज-हरितादीना सेवनमष्टादशम् (१८), सवत्सराभ्यन्तरे दशोदकले पसेवनमेकोनविंशतितमम् (१९) सवत्सराभ्य वरे दशमातृस्थानसेवन विंशतितमम् (२०), सचित्तोदकरजोव्याप्तहस्तादिना दत्तस्याऽऽहारादेः सेवनमेकविंशतितमम् (२१) । सू० १४ ॥ आदि से उतरना), (१०) एक महीने में तीन मातृस्थान (कपट) सेवन करना, (११) शय्यातर पिण्ड का सेवन करना, (१२) जानबूझ कर प्राणातिपात करना, (१३) जानबूझ कर झूठ योलना, (१४) जानबूझ कर चोरी करना, (१५) जानबूझ कर सचित्त पृथ्वी पर बैठना, (१६) स्निग्ध (गीली) पृथ्वी पर बैठना, (१७) जीव सहित पीठ फलक आदि का सेवन करना, (१८) मूल-कन्दस्कन्ध-त्वक्-प्रवाल-पत्र-पुष्प-फल-बीज और हरित, इन दश प्रकार की सचित्त वनस्पति आदि का सेवन करना, (१९) एक वर्ष मे दश उदक लेप लगाना, (२०) एक वर्ष में दश मातृस्थान सेवन करना, (२१) सचित्त उदक से भीगे हुए (गीले) हस्तपात्र ત્રણ વાર પાણીને લેપ લગાડવો (નદી વિગેરે ઉતરવા), (૧૦) એક માસમાં ત્રણ માતૃસ્થાનનું (કપટનું) સેવન કરવું, (૧૧) શય્યાતરપિંડ સેવન કરવું, (૧૨) જાણી બુઝીને પ્રાણાતિપાન કરવો, (૧૩) જાણી-સમજીને અસત્ય બોલવુ, (૧૪) જાણી-સમજીને ચોરી કરવી, (૧૫) જાણુ-બુઝીને સચિત્ત પૃથ્વી ઉપર બેસવું, (૧૬) પાણીથી ભીંજાએલી જમીન પર બેસવુ, (૧૭) જીવ સહિત પીઠફલક વગેરેનું मेवन ४.७, (१८) भूत, ४६, , छास, प्रवास, पत्र, पु.५, ५८, मी भने હરિતલીલી આ દસ પ્રકારની સચિત્ત વનસ્પતિનુ સેવન કરવુ, (૧૯) એક વર્ષમાં દસ પાણીના લેપ લગાડવા, (૨૦) એક વર્ષમાં દસ માતૃસ્થાન (કપટ) સેવન કરવા, (૨૧) સચિત્ત પાણીથી ભીંજાએલા હાથ–પાત્ર આદિથી આપેલા આહાર-આદિનું સેવન Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २३६ आवश्यकमूत्रस्य मैदाः, तर हस्तकर्मकरण प्रथमम् (१) अतिक्रमव्यतिक्रमातिचारैमथुनसेवन द्वितीयम् , (२) रात्रिभोजन उतीयम् (३) आधार्मसेवन चतुर्थम् (४), राजपिण्ड-(नृपतिमुद्दिश्य निष्पादित) ग्रहण पञ्चमम् (५), द्रव्यादिना साथै क्रीतमुद्धारगृहीतमनिच्छतः पुनभृत्यादेईस्तादपहत्याऽन्यसम्बन्धिसाधारणाऽऽहारादिक ताननापृच्छय स्वकीयमपि स्वस्थानादपहत्य या साधवे दीयमान मित्येपा पश्चाना पिण्डाना सेवन पष्ठम् (६), पुनः पुनः प्रत्याख्यानभञ्जन सप्तमम् (७), पण्मासाभ्यन्तरे स्वगच्छान्निःसृत्य गच्छान्तरगमनमष्टमम् (८), मासाभ्यन्तर उदकरयलेपसेवन नवमम् (९) मासाभ्यन्तरे मावस्थानत्रयसेवन दश उन्हें 'शबल' कहते है, वे इक्कीस (२१) हैं-(१) हस्तकर्म करना (२) अतिक्रम व्यतिक्रम और अतिचार से मैयुन सेवन करना, (३) रात्रि भोजन करना, (४) आधाकर्मी आहार आदिका सेवन करना, (५) राजपिण्ड लेना (६) 'कीय' (क्रीत)-साधु के निमित्त खरीदे हुए, 'पामिचे' (प्रामित्य) उधार लिये हुए, 'अच्छिन' (अच्छेद्य)-पुत्र भृत्य आदि के हाथ से छीने हुए, 'अणिसिह' (अनिसृष्ट)=अनेक के हिस्से का आहार आदि उनसे विना पूछे दिये हुए, तथा 'आहह दिजमाण' (आहृत्य दीयमान) स्वस्थान से सामने लाकर दिये हुए, आहार आदि का सेवन करना, (७) प्रत्याख्यान का बारम्बार भग करना, (८) छह महीने से पहले अपना गच्छ छोड कर दूसरे गच्छ म जाना, (९) एक महीनेमे तीन बार उदक का लेप लगाना (नदी કહે છે તે એકવીશ પ્રકારના છે (૧) હસ્તકર્મ કરવું, (૨) અતિક્રમ, વ્યતિક્રમ અને અતિચારથી મિથુન સેવન કરવુ (૩) રાત્રિ-ભૂજન કરવું, (૪) આધાકમાં मासा२ पगेरेनु सेवन ४२५, (५) पिंड ए ४.यो (६) 'कीय' (क्रीत) साधुना निमित्त गरी ४२सा, 'पामिचे' (पामित्य) Gधार दीर्घा, 'अच्छिज' (अच्छेच) पुत्र-ना४२ मा यमाथी छानवी सीसा, 'अणिसिद्ध' ( अनिसृष्ट) અનેક માણસોના ભાગને આહાર વગેરે તેઓને પૂછયા વિના આપેલા તથા 'आट्ट दिजमाण' (आहृत्य दीयमानम् ) पोताना स्थानयी सामा मापीन दावी આપેલા આહાર આદિનું સેવન કરવું, (૭) પ્રત્યાખ્યાનને વાર વાર ભગ કરવો, (૮) છ માસ પૂર્વે પોતાને ગચ્છ ત્યછ બીજા ગચ્છમાં જવું, (૯) એક મહિનામાં Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, पतिक्रमणाध्ययनम्-४ २३९ परिपहः (१९), प्रज्ञापरिपह. (२०), अज्ञानपरिपहः (२१), दर्शनपरिपह- (२२) थेति, सम्पन्धस्तु यो मयेत्यादिनैव सर्वत्रेति प्रागुक्त न विस्मर्त्तव्यम् ।। सू० १५ ॥ ॥ मूलम् ॥ तेवीसाए सूअगडझयणेहि । चउवीसाए देवेहिं । पणवीसाए भावणाहिं । छब्बीसाए दसाकप्पववहाराणं उद्देसणकालेहि । सत्तावीसाए अणगारगुणेहिं ॥ सू० १६ ॥ ॥छाया ॥ - त्रयोविंशत्या सूत्रकृताध्ययनै । चतुर्विंगत्या देवः । पञ्चविंशत्या भावनाभिः । पइविंशत्या दगाकल्पव्यवहाराणामुद्देशनकालै । सप्तविंशत्याऽनगारगुणैः॥ भू० १६॥ ॥ टीका ॥ _ 'तेवी.' इति । मूत्रकृताङ्गमथमश्रुतस्कन्यस्य पोडशाध्ययनानि प्रागु कानि तद्व्यतिरिक्तानि च द्वितीयश्रुतस्कन्यस्य पुण्डरीकाध्ययन-क्रियास्थानाध्ययना-ऽऽहारपरिज्ञाध्ययन-प्रत्याख्यानक्रिया ययना-ऽऽचारश्रुताभ्ययना-ऽऽका-ययन-नालन्दीयाध्ययनानि सप्तेति मिलित्वा त्रयोविंशति. मूत्रकृताध्ययनानि तैः। दर्शन । इन परिपहों को सम्यक् प्रकार न सहने से जो अतिचार किया गया हो तो उससे मैं निवृत्त होता हूँ' ॥ सू० १५ ॥ सूत्रकृताग के प्रथमश्रुतस्कन्ध के पूर्वोक्त सोलह (१६) अध्ययन और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के (१) पुण्डरीक, (२) क्रियास्थान, (३) आहारपरिज्ञा, (४) प्रत्याख्यानक्रिया, (५) आचारश्रुत, (६) आर्द्रकुमार और (७) नालन्दीय, ये सात मिलाकर तेईस अययनों में श्रद्धा प्ररूपणा आदि की न्यूनाधिकतासे, तथा दस भवनपति, आठ (૨૧) અજ્ઞાન, (૨૨) દર્શન, આ બાવીસ પરિવહને સમ્યક-ડા પ્રકારે સહન ન કરવાથી જે કાઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉ છુ (સૂ૦ ૧૫). • સૂત્રકૃતાગના પ્રથમ શ્રુતસ્કલ્પના પૂર્વોકત ૧૬ સેલ) અધ્યયન અને मी तन्ना (३), ५४री (२) छिया-थान, (3) मारपरिक्षा, (४) प्रत्याभ्यान या, (५) माया२श्रुत, (६) साभार भने (७) नालीय, मा સાત અધ્યયન મેળવીને કુલ તેવીશ (ર૩) અધ્યયનમાં શ્રદ્ધાપ્રરૂપણા-વગેરેની જૂનાધિકતાથી, તથા દસ ભવનપતિ, આઠ વ્યતર, પાચ તિથી અને એક Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ आवश्यकमूत्रस्य ॥ मूलम् ॥ वावीसाए परिसहेहिं । सू० १५ ॥ ॥ छाया ॥ द्वाविंशत्या परिप? ॥ सू० १५ ॥ ॥ टीका ॥ 'परिसहेहि परि समन्तात् सद्यन्ते-क्षम्यन्ते कर्मनिर्जराथै मोक्षार्थिभिरिति परिपहास्तैः, ते यथा क्षुधापरिपहः (१), पिपासापरिपहः (२), शीत परिपह. (३), उप्णपरिपहः (४), दशमशकपरिपहः (५), अचेलपरिपहः (६), अरतिपरिपह. (७), स्त्रीपरिपहः (८), चर्या-(विहार) परिपह (), नैषेधिकीपरिपहः (१०), शग्यापरिपहः (११), आक्रोशपरिपहः (१२), वधपरि पहः (१३), याचनापरिपहः (१४), अलाभपरिपहः (१५), रोगपरिषह (१६), तृणस्पर्शपरिषहः (१७), जल [मल्ल]-परिपह' (१८), 'सत्कारपुरस्कारआदि से दिये हुए आहार आदि का सेवन करना, इनसे जो अतिचार हुआ हो तो उससे मैं निवृत्त होता हूँ ॥सू० १४॥ .. मोक्षार्थी जिन्हें कर्मों की निर्जरा के लिये सहन करते हैं उन्हें 'परिपद' कहते हैं वे चाईस हैं (१) क्षुधा, (१) पिपासा, (३) शीत, (४) उष्ण, (५) दशमशक, (६) अचेल, (७) अरति, (८) स्त्री, (९) चर्या (चलना), (१०) नषेधिकी (बैठना), (११) शय्या, (१२) आक्रोश, (१३) वध, (१४) याचना, (१५) अलाभ, (१६) रोग, (१७) तृणस्पर्श, (१८) मल, (१९) सत्कारपुरस्कार, (२०) प्रज्ञा, (२१) अज्ञान, (२२) કરવુ,-એ સર્વથી જે કઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉં છું (सू. १४) મેક્ષાથી જ કર્મોની નિર્જ કરવા માટે જે સહન કરે છે તેને પરિષ' કહે છે અને તે પરિષહ બાવીસ-૨ પ્રકારના છે (૧) મુધા ભૂખ, (२) पिपासा (तृषा), (3) शीत (61), (४) GY (ताप), (4) शमश (स) (भ७२), (६) मयेत, (७) मरति, (८) स्त्री, (6) यर्या (स्यासयुत), (१०) नवधि (नस), (११० शय्या, (१२) श, (१३) १५, (१४) यायना (१५) मला, (१९) ३०१, (१७) तृशस्पर्श, (१८) भस, (16) सलारपुर, (२०) प्रज्ञा, १- अत्र सकारो वस्त्रादिना, पुरस्कारवाभ्युत्थानादिना । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ २४१ - - - - मुनितोपणी टीका, पतिक्रमणाध्ययनम्-४ मपिवृक्षादीनामच्छेदन, साधारणपिण्डस्याधिकतो न सेवन, साधुवैयावृत्यकरण चेति पञ्च तृतीयमहाव्रतस्य (३) । स्त्री-पशु-पण्डकरहितवसतिसेवन, स्त्रीकथावर्जन, स्त्र्यड्रोपागाऽनवलोकन, पूर्वकृतमुरतरतेरस्मरण, प्रतिदिन भोजनपरित्यागथति पञ्च चतुर्थमहातस्य (४)। प्रशस्ताऽप्रशस्त शब्द-रूप-गन्ध-रस-स्पर्शपु रागद्वेपवर्जन, शब्दादिभेदात्पश्च पश्चममहारतस्ये (५) ति मिलित्वा पञ्चविंशतिर्भावनास्ताभिः । 'दसा कप्प ववहाराण' दशा-कल्प व्यवहाराणा-दशाश्रुतस्कन्ध-बृहत्वल्प व्यवहारमत्राणा यथाक्रम दश-पड्-दशसख्यकाभ्ययनयुक्तानाम् 'उद्देसणकाहिं' उदेशनकाले. पठनसमयैः । 'सत्तावीसाए' सप्तविंशत्या, 'अणगारगुणेहि' अविद्यमानपीठ फलक आदि के लिए भी वृक्षादि को नहीं काटना, (१४) साधरण पिण्डका अधिक सेवन नहीं करना, (१५) साधुकी वैयावृत्य (वेयावच्च) करना । चौये महाव्रत की पाँच भावना-(१६) स्त्री-पशु-पण्डक-रहित स्थानका सेवन करना, (१७) स्त्रीकया वर्जन करना, (१८) स्त्रियों के अगोपागका अवलोकन नहीं करना, (१९) पूर्वकृत काम भोगका स्मरण नहीं करना, (२०) प्रतिदिन सरस भोजन का त्याग करना । पाँचवे महाव्रत की पाँच भावना- (२१) इप्टानिष्ट शब्द, (२२) रूप, (२३) गन्ध, (२४), रस, और (२५) स्पर्शमें राग-द्वेष नही करना। इन पच्चीस भावनाओ के विषयमें तथा दशाश्रुतस्कन्ध के दस, वृहत्कल्पके छह और व्यवहारसूत्र के दस, इन छब्बीस अ ययनों के पठनकालमे, और जिनके द्रव्यसे-मिट्टी आदिका बना हुआ તૃણ-કાષ્ઠાદિ અવગ્રહ લેવુ (૧૩) પીઠ ફલક આદિ માટે પણ વૃક્ષને કાપવું નહિ તે, (૧૪) સાધારણ પિંડનું અધિક સેવન કરવું નહિ તે, (૧૫) સાધુના वैयावृत्त्य (वैया१२य) ४५वी याथा भारतनी पाय सापना-(१९) खी-पशु-५३રહિત સ્થાનકનું સેવન કરવું, (૧૭) સ્ત્રીકથા વર્જન કરવું, (૧૮) સ્ત્રીઓના અ ગો પાગનું અવલોકન નહિ કરવું, (૧૯) પૂર્વકૃત કામગનું સ્મરણ નહિ કરવું, (૨૦) પ્રતિદિન સરસ ભેજનને ત્યાગ કરવો પાચમા મહાવ્રતની પાચ ભાવના(२१) शनिष्ट श६, (२२) ३५, (२3) गन्ध, (२४) २४ भने (२५) स्पर्शमा રાગ-દ્વેષ નહિ કર આ પચીશ ભાવનાઓના વિષયમાં તથા દશાશ્રુતકાધના દરા, બૃહકપના છે અને વ્યવહારસૂત્રના દસ, આ છવીસ અધ્યયનને પઠન Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० आवश्यकसूत्रस्य 'चउवीसाए देवेडिं' दश भवनपतयः, अष्टौ व्यन्तराः, पञ्च ज्योतिषिकाः, एको वैमानिकः, इति मिलित्वा चतुर्विशतिर्देवास्तः,अथवा चतुर्विशतितीर्थकरः । 'पणवीसाए भावणाहि' भाव्यते-गुणैर्वास्यते आत्मा याभिरिति, भाव्यन्ते अभ्यस्य १ २ ३ ४ न्ते कर्ममलक्षालनार्थ मुमुक्षुभिरिति वा भावना:-ई-मनो-नचनै-पणा-ऽऽदाननिक्षेपरूपाः पञ्च प्रथममहारतस्य (१) । आलोच्य सभापण क्रोध-लोभ-भयहास्येष्वनृतविवर्जनश्चेति पश्च द्वितीयमहारतस्य (२)। अष्टादशविधशृद्धवसते चिनापूर्वक सेवन प्रतिदिनमवग्रह याचित्वा तणकाष्ठादिग्रहण, पीठफलकावर्थव्यन्तर, पाच ज्योतिषी और एक वैमानिक, इन चौबीस प्रकार के देवों की अथवा चौवीस तीर्थंकरों की आशातना से जो अतिचार लगा हो तो उससे मैं निवृत्त होता है। जिसके द्वारा आत्मा गुणयुक्त होता है अथवा कर्ममल धोन के लिये मोक्षार्थी जिसका अभ्यास करते हैं, उसे भावना कहते हैं। प्रत्येक महाव्रतकी पाँच पाँच भावनाएँ होने से वे सब मिलकर पच्चीस है। उनमे पहले महाव्रत की पाच भावना-(१) ईर्या, (२) मन, (३) वचन, (४) एषणा, (५) आदाननिक्षेप । दुसरे महाव्रतकी पाँच भावना-(६) विचार कर बोलना, (७) क्रोध, (८) लोभ, (९) भय, (१०) हास्यवश असत्य नहीं बोलना। तीसरे महाव्रतकी पाँच भावना-(११) अठारह प्रकार के शुद्ध स्थानकी याचना करके सेवन करना, (१२) प्रतिदिन तृण काष्ठादिका अवग्रह लेना, (१३) વૈમાનિક, આ વીશ પ્રકારના દેવોની અથવા તે ચોવીશ તીર્થકરની આશાતનાથી જે અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉં છું જેના દ્વારા આત્મા, ગુણયુકત થાય છે, અથવા કર્મમલ દેવા માટે મેક્ષાથી છે જેનો અભ્યાસ કરે છે તેને ભાવના કહે છે, પ્રત્યેક મહાવ્રતની પાચ-પાચ ભાવનાઓ હોવાથી તે સર્વ મેલીને કલ પચીસ ભાવના થાય છે તેમા પહેલા મહાવ્રતની पाय भावना (१) ४ा, (२) मन, (3) qयन, (४) मेष, (५) माननिक्षेप भीत भारतनी पाय भावना (6) विद्यारीने पु, ७) ar, Cale, (૯) ભય, (૧૦) હાસ્યવશ અસત્ય નહિ બોલવુ તે ત્રીજા મહાવ્રતની પાચ ભાવના(૧૧) અઢાર પ્રકારના શુદ્ધ સ્થાનની યાચના કરીને સેવન કરવું, (૧) પ્રતિદિન Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणा-ययनम्-४ २४१ मपिवृक्षादीनामच्छेदन, साधारणपिण्डस्याधिकतो न सेवन, साधुवैयावृत्त्यकरण चेति पश्च तृतीयमहाव्रतस्य (३)। स्त्री-पशु-पण्डकरहितवसतिसेवनं, स्त्रीकथावर्जन, स्त्र्यझोपाङ्गाऽनवलोकन, पूर्वकृतसुरतरतेरस्मरण, प्रतिदिन भोजनपरित्यागश्चति पञ्च चतुर्थमहानतस्य (४)। प्रशस्ताऽप्रशस्त शब्द-रूप-गन्ध-रस-स्पर्शपु रागद्वेपवर्जन, गन्दादिभेदात्पञ्च पञ्चममहारतस्ये (५) ति मिलित्वा पञ्चविंशतिर्भावनास्ताभिः । 'दसा काप ववहाराण' दशा कल्प व्यवहाराणा-दशाश्रुतस्कन्ध-वृहत्कल्प व्यवहारमूत्राणा यथाक्रम दश-पड्-दशसख्यका-ययनयुक्तानाम् 'उद्देसणकाहिं' उद्देशनकालै. पठनसमयैः । 'सत्तावीसाए' सप्तविंशत्या, 'अणगारगुणेहिं' अविद्यमानपीट फलक आदि के लिए भी वृक्षादि को नहीं काटना, (१४) साधरण पिण्डका अधिक सेवन नहीं करना, (१५) साधुकी वैयावृत्य (वेयावच्च) करना । चौथे महाव्रत की पाँच भावना-(१६) स्त्री-पशु-पण्डक-रहित स्थानका सेवन करना, (१७) स्त्रीकथा वर्जन करना, (१८) स्त्रियों के अगोपागका अवलोकन नही करना, (१९) पूर्वकृत काम भोगका स्मरण नहीं करना, (२०) प्रतिदिन सरस भोजन का त्याग करना । पाँचवे महाव्रत की पाँच भावना- (२१) इष्टानिष्ट शब्द, (२२) रूप, (२३) गन्ध, (२४), रस, और (२५) स्पर्शमें राग-छेप नहीं करना। इन पच्चीस भावनाओं के विपयमें तथा दशाश्रुतस्कन्ध के दस, वृहत्कल्पके घर और व्यवहारसूत्र के दस, इन छब्बीस अ ययनों के पठनकालमें, और जिनके द्रव्यसे-मिट्टी आदिका बना हुआ તૃણ-કાષ્ઠાદિનું અવગ્રહ લેવુ (૧૩) પીઠ ફલક આદિ માટે પણ વૃક્ષને કાપવું નહિ તે, (૧૪) સાધારણ પિંડનુ અધિક સેવન કરવું નહિ તે, (૧૫) સાધુના વૈયાવૃત્ય (વૈયાવચ્ચ) કરવી ચોથા મહાવ્રતની પાચ ભાવના-(૧૬) સ્ત્રી–પશુ-પડક હિત સ્થાનકનું સેવન કરવું, (૧૭) શ્રીકથા વર્જન કરવું, (૧૮) સ્ત્રીઓને અને પાગનું અવલોકન નહિ કરવુ, (૧૯) પૂર્વકૃત કામગનું સ્મરણ નહિ કરવુ, (૨૦) પ્રતિદિન સરસ ભેજનને ત્યાગ કર પાચમા મહાવ્રતની પાચ ભાવના(२१) टानिष्ट शाह, (२०) ३५, (२3) गन्ध, (२४) २स अने (२५) स्पर्शमा રાગ-દ્વેષ નહિ કર આ પચીશ ભાવનાઓના વિષયમાં તથા દશાશ્રુતસક ધના દશ, બૃહતક૫ના અને વ્યવહારસૂત્રના દસ, આ છ વીસ અધ્યયનને પઠન Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ आवश्यकमूत्रस्य मगार-द्रव्यतो गृह भावतः कपायमोहनीय येपा तेऽनगाराम्साघवस्तेषा गुणा:पञ्चमहानतानि, पञ्चेन्द्रियनिग्रहाः, चत्वारः क्रोधादिविवेकाः, अन्तरात्मदिसञ्जाव भावसत्य, प्रत्युपेक्षणादिक्रियायामुपयुक्तत्व फरणसत्य, योगाना मनआदीना यथार्थत्व योगसत्यमिति भाव-करण-योगसत्यानि त्रीणि, क्षमैका, विरागितेका पमिद्धे इमे, अकुशलाना मनो-चाक्कायाना निरोधास्त्रयः, शान-दर्शन-चारित्र सम्पन्नतास्तिस्रः, शीतादिवेदनासहिष्णुत्वमेर, मारणान्तिकोपसर्गसहनशीलता चैकेति सङ्कलनेन सप्तविंशविरनगारगुणास्तैः ॥ मू० १६ ॥ ॥ मूलम् ॥ अट्ठावीसाए आयारप्पकप्पेहिं। एगणतीसाए पावसुयप्पसगेहि ॥सू० १७ ॥ अगार (घर) और भावसे-कषायमोहनीयरूप अगार नहीं है उन अनगार के (१-५) पाच महाव्रत, (६-१०) पाँच इन्द्रियनिग्रह, (११-१४) चार कषायजय, (१०) भावसत्य (अन्तरात्मशुद्धि ), (१६) करणसत्य (प्रतिलेखनादि क्रिया मे उपयोग), (१७) योगसत्य (शुद्धमार्गमें मनयोग आदि की प्रवृत्ति करना), (१८) क्षमा, (१९) विरागिता-वैराग्य, (२०) अप्रशस्त मन (२१) वचन (२२) काय का निरोध, (२३) सम्यम् दर्शन, (२४) ज्ञान, (२५) चारित्र से युक्तता, (२६) शीत आदि वेदना का सहना, और (२७) मारणान्तिक उपसर्ग सहना । इन सत्ताईस अनगार गुणों के विषय में जो कोई अतिचार किया गया हो तो उससे मै निवृत्त होता हूँ ॥ सू० १६ ॥ સમયમા, અને જેના દ્રવ્યથી--માટી આદિનું બનેલું મકાન (ઘર) અને ભાવથી-કષાય મેહનીય રૂ૫ અગાર નથી તે અણુગારના (૧-૫) પાચ મહાવ્રત (૬-૧૦) પાચ न्द्रियनि (11-1४) यार ४पाय-य, (१५) सापसत्य (अन्तरात्मशुद्धिा (१६) ४२सत्य (प्रतिमना लियाम पयोग), (७) योगसाय (Y भार्गमा भनायोग माहिनी प्रवृत्ति रवी), (१८) क्षमा, (16) राय, (२०) भरत मन, (२१) पयन मन (२२) यानु निशक, (२३) सभ्यम्हान, (२४) જ્ઞાન અને (૨૫) ચારિત્રથી ચુતતા, (૨૬) શીત આદિ વેદનાઓનું સહન કરવું અને ૨) મત્તિક ઉપસર્ગ સહન કરો આ સત્તાવીશ અણુગારના ગુણના વિષયમા જે કોઈ અતિચાર લાગ્યા છે તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉં છું” (લ૦ ૧૬). Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २४३ ॥ छाया ॥ अष्टाविंशत्याऽऽचारमकल्पैः । एकोनत्रिंशता पापश्रुतमसझैः ।। भू० १७॥ ॥ टीका ॥ 'अट्ठावीसाए' अष्टाविंशत्या, 'आयारप्पकप्पेहि' आचार: आचाराग पञ्चविंशत्यध्ययनात्मक, तत्र (१) शस्त्रपरिज्ञा-(२) लोकविजय-(३)शीतोष्णीय-(४) सम्यक्त्व-(५) लोकसार-(६) घृत-(७) विमोक्षो-(८) पधानश्रुत-(२) महापरिज्ञारूपाध्ययननवकः प्रथमश्रुतस्कन्धः, (१-२) पिण्डैपणा-शगये-(३) ा -(४) भाषा-(५) वस्त्रैपणा-(६-७) पात्रैपणाऽवग्रहमतिमाः, (८) स्थानसप्तैकिका (९) नैपेषिकीसप्तैकिका (१०) उच्चारप्रस्रवणसप्तैकिका (११) शब्दसप्तैकिका (१२) रूपसप्तैकिका (१३) परक्रियासप्वैरिका (१४) __ आचाराग के दो श्रुतस्कन्ध हैं, उनमें प्रथम के नव अध्ययन हैं-(१) शस्त्रपरिज्ञाध्ययन (२) लोकविजया ययन, (३) शीतोष्णनामा ययन, (४) सम्यक्त्वनामा ययन, (५) लोकसाराध्ययन, (६) धूताध्ययन, (७) विमोक्षाध्ययन, (८) उपधानश्रुता ययन, (९) महापरिज्ञा ययन । द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सोलह-(१) पिण्डैघणाध्ययन, (२) शग्या ययन, (३) ईर्याध्ययन, (४) भाषाध्ययन, (५) वस्त्रैपणाध्ययन, (६) पात्रैषणा ययन, (७) अवग्रहप्रतिमा ययन, (८) स्थानसप्तैकिकाध्ययन, (९) नैपेधिकीसप्तैकिकाभ्ययन, (१०) उच्चारप्रस्रवणसप्तैकिका ययन, (११) शब्दसप्तैकिकाध्ययन, (१०) रूपसप्तैकिका ययन, (१३) परक्रियासप्तैकिकाम्ययन, (१४) अन्योन्य આચારાંગના બે શ્રુતસ્ક ધ છે, તેમાં પ્રથમના નવ અધ્યયન છે (૧) શસ્ત્રપરિજ્ઞાધ્યયન (ર) લેકવિજયાધ્યયન (૩) શીતષ્ણનામાધ્યયન, (૪) સમ્યકત્વनामाध्ययन, (५) aselvध्ययन, (६) धूताध्ययना (७) विमाक्षाध्ययन, (८) ઉપધાનશ્રુતાથયન, (૯) મહાપરિક્ષાધ્યયન દ્વિતીય શ્રુતસ્કંધના સેળ અ યયન छ-(१) पिया ययन (२) शय्या, (3) ध्या, (४) भाषा, (५) क्षा , (6) પષણ (૭) અવગ્રહપ્રતિમાધ્યયન, (૮) સ્થાનસàકિકાથયન, (૯૦ નૈધિકી સપ્તકિકાધ્યયન (૧૦) ઉચારપ્રસવસતૈકિકાવ્યયન (૧૧) શબ્દસપ્તકિકાથયન (૧૨) રૂપસપ્તકિકાશ્ચયન (૧૩) પરઝિયાસપ્તકિકાયન (૧૪) અન્યક્રિયા Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ भावश्यकमूत्रस्य __ अन्योन्यक्रियासप्तैकिका, (१५) भारना, (१६) विमुक्तिश्चेति पोडशाध्ययनात्मको द्वितीयश्रुतसन्धः, इति मिलित्वा पञ्चविंशतिर ययनानि, माल्पा-प्रकृष्टः कल्पः स (१-२) चोद्घाताऽनुद्घाता-55 -(३) रोपणारूपाध्ययनत्रयात्मकनिशीथापर नामक इति सकला सङ्कलनयाऽष्टाविंशतिरभ्ययनानि, तथा चाऽऽचारपदेन पञ्चविंशतेरध्ययनाना, मक्ल्पपदेन च त्रयाणामध्यनाना ग्रहणमभिमेत्य आचाराश्च भकल्पाचेति द्वन्द्वेनाऽऽचारप्रकल्पास्तैरिति बहुपचनमुक्तम् ॥ 'एगूगतीसाए' एकोनत्रिंशता, 'पावसुयप्पसगेहिं पातयन्त्यात्मान दुर्गतारिति पापानि, श्रूयन्ते गुरुमुखादिति श्रुतानि शास्त्राणि, पापानि-पापरूपाणि श्रुतानि, पापश्रुतानि तेपा मसगाः तद्विवेचनरूपास्तदभ्यसनरूपा वा पापश्रुतप्रसङ्गास्तै, तर पापश्रुतानि यथा-भौमोत्पातस्थमा-ऽन्तरिक्षाग-स्वर-व्यञ्जनक्रियासप्तैकिकाध्ययन, (१५) भावनाप्ययन, (१६) विमुक्ताध्ययन, इस प्रकार दोनों मिलाकर पच्चीस अध्ययन हुए, और निशीथ के तीन--(१) उद्धात, (२) अनुद्धात, (३) आरोपणा, इन अट्ठाईस अध्ययनों की श्रद्धा प्ररूपणा मादिमे जो कोई अतिचार किया गया हो तो उससे मै निवृत्त होता है। ___ आत्मा को दुर्गति में डालनेवाले को 'पाप' कहते हैं, जो गुस्मुख से सुना जाय उसे 'श्रुत' कहते है, और पापरूप श्रुत को 'पापश्रुत' कहते हैं, वह उन्तीस प्रकार का है--(१) भौमभूकम्प आदि के फल का प्रतिपादक शास्त्र, (२) उत्पात-अपने आप સપ્તકિક યયન (૧૫) ભાવનાધ્યયન, (૧૬) વિમુકતાધ્યયન એ રીતે બને મળીને पया अययन थया, मन निशीथना ) (1) 6धात, (२) मनुधात, (3) २१ પણ એ પ્રમાણે એ અઠાવીશ અધ્યયનેની શ્રદ્ધા પ્રરૂપણુ આદિમા જે કાઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉં છું આને ગતિમા નાખનાર ક્રિયા તેને “પાપ કહે છે જે ગુરુના મુખથી સાભળવામાં આવે તેને “શ્રત” કહે છે અને પાપરૂપ થતને “પાપગ્રુત કહે છે તે ઓગણીશ પ્રકારના છે (૧) ભૌમ-ભૂમ્પિ વગેરેના ફલને કહેનાર શાસ્ત્ર (૨) ઉત્પાત-પિતાની મેળે-કુદરતી રીતે થનારી-લેહીની વૃષ્ટિના ફળને જણાવનારા १--'सफल'-आचार-पाल्पयोरुभयोरिति भाव । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ लक्षणरूपाण्यप्टौ। प्रत्येक मूत्र (मूल)-वृत्ति (टीका) वार्निम्-(आकाड्किदेशपरण) भेदाचतुर्विंशतिः, विस्थानुयोग-विद्यानुयोग-मन्त्रानुयोग-योगानुयोगा-ऽन्यतैथिम्प्रवृत्तानुयोगाथेति मिलित्वा एकोनत्रिंशत् । तत्र भौम भूकम्पादिफ्लप्रतिपादक शास्त्रम् । उत्पात स्वाभाविकरुधिरपृष्टयादिफलपतिपादकम् । 'स्वप्न= स्वमफलपतिपादकम् । अङ्गम् अङ्गस्फुरणादिफलप्रतिपादकम् । स्वर जीवाजीवगतस्वरफलपतिपादरम् । व्यज्यतेऽनेनेति व्यञ्जन-चिह्न, तत्सम्बन्धान्छास्त्रमपि व्यञ्जन, तच्च जन्मोत्तरकालजायमानशरीरस्थतिलमपाऽऽदिचिह्नविशेपशुभाशुभफलम्चकम् । लक्षण शरीरसहजातमानोन्मानप्रमाणादिफलाभिधायकम् । इत्येव चतुर्विंशतिः। तथा विस्थानुयोग =कामोपायप्रतिपादकानि वात्स्यायनप्रणीतहोनेवाली रुधिर आदि की वृष्टि के फल का कहनेवाला शास्त्र, (३) स्वन-स्वप्नफलप्रतिपादक शास्त्र, (४) अन्तरिक्ष-आकाश में ग्रहयुद्ध आदि के फलका सूचक शास्त्र, (५) अग फडकने के फल का सूचक शास्त्र, (६) स्वर-जीव आदि के स्वर के फल का प्रदर्शक शास्त्र, (७) व्यञ्जन-शरीर के तिल, मप आदि के फल का बोधक शास्त्र, (८) लक्षण-गरीर के साथ होने वाले मान उन्मान और प्रमाण के फलका प्रतिपादक शास्त्र ये आठ, सूत्र (मूल), वृत्ति (अर्थ) और वार्तिक (आकाइक्षित अर्थ की पूर्ति) ऐसे एक एक के तीन तीन भेद होने से आठत्रिक चौबीस हुए। (१) विकथानुयोग-कामोद्दीपकशास्त्र वात्स्यायन प्रणीत कामसूत्र आदि, (२) શાસ્ત્ર (૩) સપ-સ્વપ્રફલનું પ્રતિપાદન કરનારા શાસ્ત્ર (૪) અન્તરિક્ષ-આકા શમાં ગ્રહયુદ્ધ આદિના ફલને જણાવનારૂ શાસ્ત્ર (૫) અગ ફરકે તેનું ફળ જણા વનારૂ શાસ્ત્ર (૬) સ્વર-જીવ આદિના સ્વરના ફળને જણાવનારૂ શાસ્ત્ર (૭) વ્ય જન-શરીરમાં તિલ, મસા આદિના ફલને જણાવનારૂ શાસ્ત્ર (૮) લક્ષણ-શરીરના સાથે થવાવાળા માન ઉન્માન અને પ્રમાણને ફલને જણાવનારૂ શાસ્ત્ર એ આઠ सूत्र (भूटा), वृत्ति (मर्थ ) भने पाति (माक्षित मथनी पत्ति) से प्रभारी એક-એકના ત્રણ-ત્રણ ભેદ હોવાથી ત્રણ અઠ્ઠ ચેવિશ થાય છે, (૧) વિકથાનું ગ-કામદીપકશાસ્ત્ર-વાત્સ્યાયન રચિત કામસુત્રાદિ, ર) વિદ્યાનુયોગ-હિણું १-स्वनःस्वप्नसम्बन्धिफलाफलविपयोऽस्मिन्नस्तीति स्वमम् , अर्श आदिस्वान्मत्वर्थीयोऽपत्ययस्तेन 'स्वप्न' इति जातम् । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ भावश्यकमूत्रस्य अन्योन्यक्रियासप्तैरिका, (१५) भावना, (१६) निमुतिथेति पोडशाध्ययनात्मको द्वितीयश्रुतसन्धः, इति मिलिया पञ्चविंशतिर ययनानि, प्रकल्पामकृष्टः कल्पः स (१-२) चोद्घाताऽनुद्घाता-55 -(३) रोपणारूपाध्ययनत्रयात्मरनिशीथापर नामक इति सकला सङ्कलनयाऽटानिशतिरध्ययनानि, तथा चाऽऽचारपदेन पञ्चविंशतेरध्ययनाना, प्रल्पपदेन च त्रयाणामध्यनाना ग्रहणमभिप्रेत्य आचाराश्च प्रकल्पाचेति द्वन्द्वेनाऽऽचारमकल्पास्तैरिति बहुपचनमुत्तम् ॥ 'एगूणतीसाए' एकोनशिता, 'पावमयप्पसगेहि' पातयन्त्यात्मान दुर्गताविति पापानि, श्रयन्ते गुरुमुखादिति श्रुतानि शास्त्राणि, पापानि-पापरूपाणि श्रुतानि, पापश्रुतानि तेपा प्रसङ्गा--तद्विवेचनरूपास्तदभ्यसनरूपा वा पापश्रुतप्रसङ्गास्तै , तन पापश्रुतानि यथा-भौमोत्पातस्थमा-ऽन्तरिक्षाग-स्वर-व्यञ्जनक्रियासप्तैकिकाध्ययन, (१५) भावनाभ्ययन, (१६) विमुक्ताध्ययन, इस प्रकार दोनों मिलाकर पच्चीस अध्ययन हुए, और निशीथ के तीन--(१) उद्धात, (२) अनुद्धात, (३) आरोपणा, इन . अट्ठाईस अध्ययनों की श्रद्धा प्ररूपणा आदिमें जो कोई अतिचार किया गया हो 'तो उससे मैं निवृत्त होता हैं। __ आत्मा को दुर्गति में डालनेवाले को 'पाप' कहते हैं, जो गुरमुख से सुना जाय उसे 'श्रत' कहते है, और पापरूप श्रुत को 'पापश्रुत' कहते है, वह उन्तीस प्रकार का है-(१) भामभूकम्प आदि के फल का प्रतिपादक शास्त्र, (२) उत्पात-अपने आप સપ્તકિક ધ્યયન (૧૫) ભાવના ધ્યયન, (૧૬) વિમુકતાધ્યયન એ રીતે બને મળીને पधीश अध्ययन थया, मने निशाना (1) धात, (२) अनुधात, (3) भाश પણું એ પ્રમાણે એ અદાવીશ અધ્યયનેની શ્રદ્ધા પ્રણા આદમ જે કાઈ અતિચાર લાગ્યા હે“તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉં છું આત્માને દુગતિમા નાખનાર ક્રિયા તેને “પાપ” કહે છે જે ગુરુના મુખથી સાભળવામાં આવે તેને “કૃત” કહે છે અને પાપરૂપ શ્રતને “પાપકૃત” કહે છે તે ઓગણીશ પ્રકારના છે (૧) ભૌમ-ભૂકમ્પ વગેરેના ફલને કહેનારા શાસ્ત્ર (૨) ઉત્પાત પોતાની મેળે કુદરતી રીતે થનારી-લેહીની વૃષ્ટિના ફળને જણાવનારા १-'सफल'-आचार-पाल्पयोरुभयोरिति भावः । - - Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, पतिक्रमणाध्ययनम्-४ २४७ नीयशब्देन सामान्यतोऽष्टविध कर्म विशेपतचाष्टविधकर्मान्तर्गत चतुर्थ कर्म, तस्य स्थानानि निमित्तानि मोहनीयस्थानानि-मोहनीयफर्मबन्धनजनकानीत्यर्थस्तैः । सम्बन्धस्तु यथापूर्वम् । तत्र त्रिंशत्स्थानानि यथा- (१) जले ब्रोडयित्वा स्त्रीपुरुषादि-सजीवाना हननम् , (२) श्वासायवरोधेन हननम्, (३) अग्निधूमभयोगेण हननम् , (४) प्रकृष्टमहारपूर्वकमस्तकस्फोटनेन हननम् , (५) भाईचर्मणा शिरो वेष्टयित्वा हननम् , (६) उन्मत्तादीन् मातुलुङ्गादिफलादिभिः पौन:पुन्येन हत्वोपहसनम्, यद्वा तस्करमहासाहसिकादिवच्छ लेन निर्जने वने नीत्या हननम् , (७) गूढमायाचारित्व-मायया मायाऽऽच्छादन सूत्रार्थगोपन वा, (८) स्वात्मकृतस्य ऋपिघातापकृत्यस्यान्यस्मिन्नारोपणम् , (९) सदसि मिश्रभापासभाषणम् , (१०) भूपस्यार्थाऽऽगमद्वारमवध्रुय तद्द्वारा राज्यादेः स्वायत्तीकरणम् , मोहनीय कर्म के बन्ध का कारण है, उसे 'महामोहनीयस्थान' कहते हैं, उसके तीस भेद हैं- (१) सजीव स्त्रीपुरुष आदि पञ्चेन्द्रियों को पानी में डुबारकर मारना, (२) श्वास आदि को रोक कर मारना, (३) अग्नि धूम आदि के प्रयोग से मारना, (४) लट्ठ आदि से शिर फोड कर मारना, (५) गीले चमडे से सिर याध कर मारना, (६) पागल को नीबू आदि से मारकर हसना, या चोर डाकुओं की तरह छल से निर्जन स्थान में लेजाकर मारना, (७) कपट में कपट करना अथवा सूत्र और अर्थको छिपाना, (८) अपने किये हुए ऋपिघातादि के पापका दूसरे पर आरोप करना, (९) सभा में मिश्र भाषा बोलना, (१०) राजा की आमदनी आदि બંધનુ કારણ છે તેને મહામહનીય સ્થાન કહે છે, તેને ત્રીશ ભેદ છે (૧) ત્રસજીવ સ્ત્રી-પુરૂષ આદિ પચેન્દ્રિય જીને પાણીમાં ડુબાવી ડુબાવીને મારવા (૨) શ્વાસ વગેરે રદીને મારવા (૩) અગ્નિ, ધૂમાડા વગેરેના પ્રયોગથી મારવા તે. (૪) લાઠી આદિથી માથુ ફડીને મારવુ (૫) લીલા ચામડાથી માથું બાધીને મારવુ (૬) ગાડા માણસને લિંબુના ફળ વડે મારીને હસવુ, અગર ચારડાકુની પ્રમાણે છલ-કપટ કરી વગડામાં લઈ જઈને મારવુ (૭) કપટમા કપટ કરવું અથવા સત્ર-અર્થને છુપાવવું (૮) પોતે કરેલા ઋષિઘાતાદિ પાપને બીજા ઉપર આરોપ મૂકો (૯) સભામાં મિશ્ર ભાષા બોલવી (૧૦) રાજાની Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ आवश्यक सूत्रस्य कामसूत्रादीनि विधानुयोगः = रोहिण्यादिनियासाधनोपायप्रदर्शकानि शास्त्राणि । मन्नानुयोगः = भूत पिशाचादिसाधकमन्त्रमतिपादकानि शास्त्राणि । योगाऽनुयोग वशीकरणादिविधिबोधकानि हरमेखला दियोगमतिपादकानि शास्त्राणि । अन्यतैर्थि क्मवृत्तानुयोग'=अन्ये च ते तैर्थिकाः = अन्यतैर्थिकाः = कापिला (साङ्ख्या) दयस्तेभ्यः प्रवृत्त:=अन्यतैर्थिकमवृत्तः स चासावनुयोग = स्वकीयाऽऽचारवस्तुतच्चाना विचार विशेषस्तत्करणार्थं शास्त्रसन्दर्भोऽपि तथा 'गृहा दारा' इतिनदिति । सम्बन्धस्तु 'यो मयाऽतिचारः कृतः' इत्यादिना मागुतव देवेति बहुश उत्तमस्माभिः ॥मू० १७॥ ॥ मूलम् ॥ तीसाए मोहणीयाणेहि ॥ सू० १८ ॥ ॥ छाया || त्रिंशता मोहनीयस्थानैः ॥ सू० १८ ॥ ॥ टीका ॥ 1 'तीसाए' त्रिंशता = त्रिंशत्सख्य कै, 'मोहणीयट्ठाणेहिं' अत्र मोहविद्यानुयोग - रोहिणी आदि विद्या के साधन के उपाय का प्रदर्शक शास्त्र, (३) म त्रानुयोग भूतपिशाच आदि के साधक मन्त्रों के शास्त्र, (४) योगानुयोग-वशीकरण आदि का बोधक, तथा हरमेखलादियोगप्रतिपादक शास्त्र, (५) अन्यतैर्विकप्रवृत्तानुयोग- कपिल आदि के बनाये हुए साख्य आदि शास्त्र, इनकी श्रद्धा प्ररूपणा आदि करने से जो अनिचार किया गया हो ' तो उससे मैं निवृत्त होता हूँ' ॥ सृ० १७ ॥ जो सामान्य रूप से आठ कर्मोंके और विशेषरूप से આદિ વિદ્યા આદિના સાધનાના ઉપાયનું દર્શન કરાવનારૂં શાસ્ર, (૩) મત્રાનુ ચાગ-ભૂત પિશાચ આદિના સાધક મંત્રનુ શાસ્ત્ર (४) योगानुयोग-वशी४२ આદિને બેધ કરાનારૂં શાસ્ર, તથા હર-મેખલાદિ ચેગ પ્રતિપાદન કરનારૂં શાસ્ર (૫) અન્યર્થિકપ્રવૃત્તાનુયોગ-કપિલ આદિના અનાવેલા સાભ્યાદિ શાસ્ત્ર, તેની શ્રદ્ધા-પ્રરૂષણાદિ કરવાથી જે કઈ અતિચાર લાગ્યા હૈાય તે તેમાથી હું નિવૃત્ત થાઉ છુ (सू० १७) 2 જે સામાન્ય રૂપથી ભાડે કર્માંના અને વિશેષરૂપથી માહનીય કર્મના Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २४७ नीयशब्देन सामान्यतोऽष्टविध कर्म विशेषतचाष्टविधकर्मान्तर्गत चतुर्थ कर्म, तस्य स्थानानि-निमित्तानि मोहनीयस्थानानिमोहनीयकर्मवन्धनजनकानीत्ययस्तैः । सम्बन्धस्तु यथापूर्वम् । तत्र त्रिंशत्स्थानानि यथा- (१) जले घोडयिस्वा स्त्रीपुरुषादि-त्रसनीवाना हननम् , (२) श्वासाधवरोधेन हननम्, (३) अग्निधूमप्रयोगेण हननम् , (४) प्रकृष्टमहारपूर्वकमस्तकस्फोटनेन हननम्, (५) आईचर्मणा शिरो वेष्टयित्वा हननम् , (६) उन्मत्तादीन मातुलुगादिफलादिभिः पौन:पुन्येन हत्वोपहसनम्, यद्वा तस्करमहासाहसिकादिवच्छलेन निर्जने वने नीत्वा इननम् , (७) गूढमायाचारित्व-मायया मायाऽऽच्छादन सूत्रार्थगोपन वा, (८) स्वात्मकृतस्य ऋपिघातायकृत्यस्यान्यस्मिन्नारोपणम् , (९) सदसि मिश्रमापासभापणम् , (१०) भूपस्यार्थाऽऽगमद्वारमवध्रुय तद्वारा राज्यादेः स्वायत्तीकरणम् , मोहनीय कर्म के बन्ध का कारण है, उसे 'महामोहनीयस्थान' कहते हैं, उसके तीस भेद है- (१) सजीव स्त्रीपुरुष आदि पञ्चेन्द्रियों को पानी में डुबार कर मारना, (२) श्वास आदि को रोक कर मारना, (३) अग्नि धूम आदि के प्रयोग से मारना, (४) लट्ठ आदि से शिर फोड कर मारना, (५) गीले चमडे से सिर याध कर मारना, (६) पागल को नीबू आदि से मारकर हँसना, या चोर डाकुओं की तरह छल से निर्जन स्थान में लेजाकर मारना, (७) कपट में कपट करना अथवा सूत्र और अर्थको छिपाना, (८) अपने किये हुए ऋपिघातादि के पापका दूसरे पर आरोप करना, (९) सभा में मिश्र भाषा योलना, (१०) राजा की आमदनी आदि બધનું કારણ છે તેને મહામહનીય સ્થાન કહે છે, તેના ત્રીશ ભેદ છે (૧) ત્રસજીવ સ્ત્રી-પુરૂષ આદિ પચેન્દ્રિય જીને પાણીમાં ડુબાવી ડુબાવીને મારવા (૨) શ્વાસ વગેરે રોકીને મારવા (૩) અગ્નિ, ધૂમાડા વગેરેના પ્રયોગથી મારવા તે (૪) લાઠી આદિથી માથુ ફેડીને મારવું (૫) લીલા ચામડાથી માથું બાધીને મારવુ (૬) ગાડા માણસને લિબુના ફળ વડે મારીને હસવુ, અગર ચારડાકુની પ્રમાણે છલ-કપટ કરી વગડામાં લઈ જઈને મારવુ (૭) કપટમા કપટ કરવું અથવા સૂત્ર-અર્થને છુપાવવું (૮) પિતે કરેલા ઋષિઘાતાદિ પાપને બીજા ઉપર અપ મૂ (૯) સામા મિશ્રભાષા બેજવી (૧૦) રાજાની Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ आवश्यकमूत्रस्य (११) अकुमारब्रह्मचारिणः सवोऽपि 'अहमस्मि कुमारब्रह्मचारी'-तिभाष णम् , (१२) मैथुनादनिटत्तस्य सतोऽपि 'ब्रह्मचार्यह'-मिति सभाषणम्, (१३) यदवलम्पनेन वृद्धिमुपगतस्तस्यैव विभूतिपु गलोमः, (१४) यैः पौरजनैयः स्वा मिपदे समारोपितस्तेन तेपामनिष्टकरणम् , (१५) स्वीयाण्डसमूहस्य नागिन्येव स्वामिनो व्यभिचारिण्या पल्येव पोपयितू राजादेर्दसचिवादिनेवाऽऽश्रयस्य स्वेन हननम् , (१६) एकदेशाधिपतेर्धातचिन्तन धातो पा, (१७) अनेकदेशा धिपतेर्बहुजननायकस्य, हेयोपादेयवस्तुनिरूपकधार्मिकपुरुपस्य वा घातचिन्तन घातो वा, (१८) प्राज्यादिग्रहणरूपधर्मार्थमुवतम्य पुरुषस्य धर्माद रोककर उसके राज्य आदि को अपने अधिकार मे करना, (११) वालब्रह्मचारी न रहने पर भी अपने को चालब्रह्मचारी कहना (१२) ब्रह्मचारी नहीं और ब्रह्मचारी नाम धराना, (१३) जिसक आश्रय से उन्नत हुआ हो उसीकी जड काटना, (१४) जिस जनसमुदाय से उच्च अधिकार पाया हो उसीका अनिष्ट करना, (१५) जैसे सर्पिणी अपने अण्डेका, व्यभिनारिणी स्त्री अपने पतिका आर दुष्ट मन्त्री अपने राजाका सहार करते है उसी प्रकार अपन रक्षक का विनाश करना, (१६) एक देशके स्वामी राजा का घातचिन्तन करना, या घात करना, (१७) अनेक देशके स्वामी राजा, या जनसमुदाय के नायक, अथवा धर्मात्मा पुरुष का घात चितन करना या घात करना, (१८) प्रव्रज्या लेने के लिये उद्यत આમદાની વગેરે રેકીને તેના રાજ્યને પિતાના કબજામાં લેવું (૧૧) બાલછા ચારી ન હોવા છતાય પિતાને બાલબ્રહ્મચારી કહેવરાવવુ, (૧૨) પ્રચાર - હોય અને બ્રહ્મચારી કહેવરાવવુ (૧૩) જેના આશ્રયે પિતાની ઉન્નતિ થઈ હોય તેજ માણસના મૂળ કાઢવા તે (૧૪) જે માણસના સમુદાયથી ઉચ્ચ અધિકાર મળ્યો હોય તેનું જ અનિષ્ટ કરવું (૧૫) જેવી રીતે સર્પિણી પિતાના ઈડાને, વ્યભિચારિણી સ્ત્રી પિતાના પતિને અને દુઇ મત્રી પિતાના રાજાને સહાર કરે છે, તે પ્રમાણે પિતાના રક્ષકને વિનાશ કર (૧૬) એક દેશના સ્વામી રાજાને ઘાત ચિંતવ અથવા ઘાત કર (૧૭) અનેક દેશના સ્વામી રાજા, અથવા જનસમુદાયના નાયક અથવા ધર્માત્મા પુરુષના ઘાતનું ચિન્તવન કરવું, અગર તે ઘાત કરે (૧૮) પ્રવજ્યા લેવા તૈયાર થએલા પુરુષના પરિણામને પાછા Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ मुनितोपणी टीका, पतिक्रमणाध्ययनम्-४ भैशनम् , (१९) चीतरागावर्णवादकरणम् , (२०) मोक्षमार्गस्यापकरणमवर्णवादकरण वा, (२१) येभ्य आचार्योपाध्यायेभ्यः सूत्रविनयादिकं गृहीत तेषामेव निन्दनम् , (२२) आचार्योपान्यायादीना यथाशक्ति यावृत्त्याऽकरणम्, विनयायकरण वा, (२३) अपहुश्रुतस्या ऽपि सतो 'बहुश्रुतोऽस्मी'-ति वचनम्' (२४) अतपस्विन' सतोऽपि 'तपस्व्यहमस्मी' ति प्रक्थनम् , (२५) ग्लानादीना वैयावृत्त्याकरणम्, (२६) हिंसोपदेशदान सघच्छेदभेदादिकरण वा, (२७) आत्मश्लाघार्थ मुहुर्मुहुरधार्मिकवशीकरणादिप्रयोगसाधनम्, (२८) ऐहिकपारलौकिककामभोगाना तीनाभिलापाऽऽविष्करणम्, (२९) ऋद्धयादिमता पुरुष के परिणामों को हटाना, (१९) वीतराग का अवर्णवाद करना, (२०) मोक्षमार्गका अपकार, अथवा अवर्णवाद करना, (२१) जिन आचार्य उपाध्याय आदिकों से सूत्र विनय आदि सीखे हों उन्ही की निंदा करना, (२२) आचार्य उपायाय आदिकों की यथाशक्ति वैयावृत्य विनय आदि का नहीं करना, (२३) बहुश्रुत नहीं होने पर भी 'मै बहुश्रुत है' ऐसा कहना, (२४) तपस्वी न होने पर भी तपस्वी नाम धराना, (२५) ग्लान आदिकी यथाशक्ति वैयावृत्त्य नहीं करना, (२६) हिंसाका उपदेश देना या सघमें छेद-भेद करना, (२७) अपनी बडाई के लिये बारबार वशीकरण आदि अधार्मिक प्रयोगों का करना, (२८) इसलोक या परलोक सम्बन्धी कामभोगों की तीव्र लालसा करना, (२९) ऋद्धियुक्त હઠાવી દેવા તે (૧૯) વીતર ગના અવર્ણવાદ કરે (ર૦) મોક્ષમાર્ગને અપકાર, અથવા અવર્ણવાદ કર (૨૧) જે આચાર્ય ઉપાધ્યાય આદિથી સુત્ર વિનય આદિ શીખ્યા હોય તેની નિન્દા કરવી (૨૨) આચાર્ય ઉપાધ્યાય વગેરેની યથા– શક્તિ વેયાવચ વિનય આદિ નહિ કરવું તે (૨૩) બહુશ્રુત નહીં હોવા છતાય પણ “હું બહુથત છુ” એમ કહેવુ (૨૪) તપસ્વી નહિ હોવા છતાય તપસ્વી નામ ધરાવવુ (૨૫) વાન આદિની યથાશક્તિ વૈયાવૃત્ય નહિ કરવી (૨૬) હિંસાને ઉપદેશ આપે અથવા તે સઘમાં છેદ-ભેદ પાડવે (૨૭) પિતાની બડાઈ માટે વારંવાર વશીકરણ આદિ અધાર્મિક પ્રગ કર. (૨૮) આ લેક અથવા પરલેક સબ ધી કામગની તીવ્ર લાલસા કરવી, (૨૯) દ્ધિયુક્ત દેને અવ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ आवश्यकमुत्रस्य (११) अकुमारब्रह्मचारिणः सतोऽपि 'अहमस्मि कुमारब्रह्मचारी'-तिभाषणम्, (१२) मैथुनादनिवृत्तस्य सतोऽपि 'ब्रह्मचार्यह'-मिति सभापणम्, (१३) यदवलम्मनेन वृद्धिमुपगतस्तस्यैव विभूविधु गलोमः, (१४) यैः पौरजनैः स्वामिपदे समारोपितस्तेन तेपामनिष्टकरणम् , (१५) स्त्रीयाण्डसमूहस्य नागिन्येव स्वामिनो व्यभिचारिण्या पत्न्येव पोपयितू राजादेई सचिवादिनेबाऽऽश्रयस्य स्वेन हननम् , (१६) एकदेशाधिपतेर्यातचिन्तन घातो वा, (१७) अनेकदेशाधिपतेर्वहुजननायकस्य, हेयोपादेयवस्तुनिरूपधार्मिकपुरुषस्य या घातचिन्तन घातो वा, (१८) प्रत्रज्यादिग्रहणरूपधर्मार्थमुवतम्य पुरुषस्य धर्मादेरोककर उसके राज्य आदि को अपने अधिकार मे करना, (११) पालब्रह्मचारी न रहने पर भी अपने को चालब्रह्मचारी कहना, (१२) ब्रह्मचारी नहीं और ब्रह्मचारी नाम धराना, (१३) जिसके आश्रय से उन्नत हुआ हो उसीकी जड काटना, (१४) जिस जनसमुदाय से उच्च अधिकार पाया हो उसीका अनिष्ट करना, (१५) जैसे सर्पिणी अपने अण्डेका, व्यभिनारिणी स्त्री अपने पतिका और दुष्ट मन्त्री अपने राजाका सहार करते है उसी प्रकार अपने रक्षक का विनाश करना, (१६) एक देशके स्वामी राजा का धानचिन्तन करना, या घात करना, (१७) अनेक देशके स्वामी राजा, या जनसमुदाय के नायक, अथवा धर्मात्मा पुरुष का घातचिन्तन करना या घात करना, (१८) प्रव्रज्या लेने के लिये उद्यत આમદાની વગેરે રોકીને તેના રાજ્યને પિતાના કબજામાં લેવુ (૧૧) બાલબ્રહ્મ ચારી ન હોવા છતાય પિતાને બાલબ્રહ્મચારી કહેવરાવવુ, (૧૨) બ્રાચારી ન હોય અને બ્રહ્મચારી કહેવરાવવુ (૧૩) જેના આશ્રયે પિતાની ઉન્નતિ થઈ હોય તેજ માણસના મૂળ કાઢવા તે (૧૪) જે માણસના સમુદાયથી ઉચ્ચ અધિકાર મળ્યું હોય તેનું જ અનિષ્ટ કરવુ (૧૫) જેવી રીતે સર્ષ પિતાના ઇંડાને, વ્યભિચારિણી સ્ત્રી પિતાના પતિને અને દુષ્ટ મત્રી પિતાના રાજાને સહાર કરે છે, તે પ્રમાણે પિતાના રક્ષકને વિનાશ કરે (૧૬) એક દેશના સ્વામી રાજાને ઘાત ચિતવ અથવા ઘાત કરે (૧૭) અનેક દેશના સ્વામી રાજા, અથવા જનસમુદાયના નાયક અથવા ધમાં પુરુષના ઘાતનુ ચિન્તવન કરવુ, અગર તે વાત કરે (૧૮) પ્રવ્રયા લેવા તૈયાર થએલા પુરૂના પરિણામને પાછા Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २४९ भैशनम् , (१९) वीतरागावर्णवादकरणम् , (२०) मोक्षमार्गस्यापकरणमवर्णवादकरण वा, (२१) येभ्य आचार्योपाध्यायेभ्यः सूत्रविनयादिक गृहीत तेषामेव निन्दनम् , (२२) आचार्योपाध्यायादींना यथाशक्ति वैयावत्याऽकरणम्, विनयायकरण वा, (२३) अबहुश्रुतस्या ऽपि सतो 'बहुश्रुतोऽस्मी'-ति वचनम्' (२४) अतपस्विन' सतोऽपि 'तपस्व्यहमस्मी' ति प्रस्थनम् , (२५) ग्लानादीना वैयावृत्याकरणम् , (२६) हिंसोपदेशदान सघच्छेदभेदादिकरण वा, (२७) आत्मश्लाघार्थ मुहुर्मुहुरधार्मिकवशीकरणादिमयोगसाधनम्, (२८) ऐहिकपारलौकिककामभोगाना तीव्राभिलापाऽऽविष्करणम्, (२९) ऋद्धयादिमता पुरुष के परिणामों को हटाना, (१९) वीतराग का अवर्णवाद करना, (२०) मोक्षमार्गका अपकार, अथवा अवर्णवाद करना, (२१) जिन आचार्य उपाध्याय आदिकों से सूत्र विनय आदि सीखे हों उन्ही की निंदा करना, (२२) आचार्य उपायाय आदिकों की यथाशक्ति वैगावृत्त्य विनय आदि का नहीं करना, (२३) बहुश्रुत नहीं होने परभी 'मै बहुश्रुत है' ऐसा कहना, (२४) तपस्वी न होने पर भी तपस्वी नाम धराना, (२५) ग्लान आदिकी यथाशक्ति वैयावृत्त्य नहीं करना, (२६) हिंमाका उपदेश देना या सघमें छेद-भेद करना, (२७) अपनी बडाई के लिये बारबार वशीकरण आदि अधार्मिक प्रयोगों का करना, (२८) इसलोक या परलोक सम्बन्धी कामभोगों की तीव्र लालसा करना, (२९) ऋद्धियुक्त હઠાવી દેવા તે (૧૯) વીતર ગના અવર્ણવાદ કરે (૨૦) ક્ષમાર્ગને અપકાર, અથવા અવર્ણવાદ કરે (૨૧) જે આચાર્ય ઉપાધ્યાય અાદિથી સુત્ર વિનય આદિ શીખ્યા હોય તેની નિન્દા કરવી (૨૨) આચાર્ય ઉપાધ્યાય વગેરેની યથા– શક્તિ વેધાવી વિનય આદિ નહિ કરવું તે (૨૩) બહુશ્રત નહીં હોવા છતાય પણ “હું બહુશ્રત છુ ” એમ કહેવુ (૨૪) તપસ્વી નહિ હેવા છતાય તપસ્વી નામ ધરાવવુ (૨૫) ગ્વાન આદિની યથાશકિત વૈયાવૃત્ય નહિ કરવી (૨૬) હિંસાને ઉપદેશ આપ અથવા તે સ ઘમા છેદ-ભેદ પાડે (૨૭) પિતાની લડાઈ માટે વારંવાર વશીકરણ આદિ અધાર્મિક પ્રગ કર. (૨૮) આ લેક અથવા પર લેક સ બ ધી કામગની તીવ્ર લાલસા કરવી, (૨૯) અદ્ધિયુકત દેને અવ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० आवश्यकम्त्रस्य - देवानामवर्णपादः, (३०) अपश्यतोऽपि 'पश्याम्यह देवान्' इत्युक्तिः, अजिन त्वेऽपि 'जिनोऽस्मी' त्युक्तिषेति ॥ सू० १८ ॥ ॥ मूलम् ॥ एगतीसाए सिद्धाइगुणेहिं । बत्तीसाए जोगसगहेहिं ॥ सू० १९ ॥ ॥ छाया ॥ एकत्रिंशता सिद्धादिगुणैः । द्वारिंशता योगसङ्ग्रहः ।। मू० १९ ॥ ॥टीका ॥ 'एग०' इति. 'एगतीसाए' एकत्रिंशता-एकत्रिंशत्सङ्ख्यकैः, 'सिद्धाइगुणेहि' आदौ सिद्धावस्थामाप्तिवेलायामेर यौगपद्येन स्थायिनो न तु क्रमभाविनो गुणा आदिगुणा', सिद्धानामादिगुणाः सिद्धादिगुणास्तै. । सम्बन्धस्तूत एव । ते गुणा यथा-पञ्चविधज्ञानावरणीयक्षीणत्वानि पञ्च, नवविधदर्शनावरणीयक्षीणत्वानि नव, द्विविधवेदनीयक्षीणत्वे द्वे, द्विविधमोहनीयक्षीणत्वे द्वे, चतुविधायुःक्षीणत्वानि चत्वारि, द्विविधनामकर्मक्षीणत्वे द्वे, द्विविधगोत्रकर्म क्षीणत्वे द्वे, पञ्चविधान्तरायक्षीणत्वानि पञ्चेति मिलित्वैकत्रिंशदिति । 'बत्तीदेवोका अवर्णवाद बोलना, (३०) देवता को नहीं देखते हुए भी 'मै देवता को देखता हूँ' ऐसा कहना, इन तीस महामोहनीय स्थानों के द्वारा जो कोई अतिचार किया गया हो तो मैं उससे निवृत्त होता हूँ' ॥ सू०१८॥ सिद्ध अवस्था की प्राप्तिके समय सिद्धों में एक साथ रहनेवाले गुणोको सिद्धादिगुण कहते हैं, वे पाच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, दो वेदनीय, दो मोहनीय, चार आयु, दो गोत्र, दो नाम, पाँच अन्तराय, इन इकतीस प्रकृतियों के क्षयरूप इकत्तीस ર્ણવાદ બેલ (૩૦) દેવતાને નહિ જેવા છતાય “હ દેવતાને જોઉ છું” એ પ્રમાણે કહેવુ તે આ ત્રીશ મહામેહનીય સ્થાન દ્વારા જે કાઈ અતિચાર લાગ્યા છે તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉ છુ ”(સ. ૧૮) સિદ્ધ અવસ્થાની પ્રાપ્તિના સમયે સિદ્ધોમાં એક સાથે રહેવાવાળા ગુણેને સિદ્ધાદિગુણ કહે છે તે પાચ જ્ઞાનાવરણીય, નવ દર્શનાવરણીય, બે વેદનીય, બે મેહનીય, ચાર આયુ, બે ગોત્ર, બે નામ, પાચ અન્તરાય, એ એકગ્નીશ પ્રક Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २५१ साए' द्वात्रिंशता द्वात्रिंशत्सख्यकैः ‘जोगसगहेहिं' योगा योजनानि-मनोवाकायव्यापारास्ते च यद्यपि शुभाशुभभेदेन द्विविधास्तथापि प्रसङ्गादत्र शुभा एव विवक्षिताः, तेपा सड्ग्रहास्तैः, सम्बन्धो यथापूर्वमेव, ते च सग्रहा द्वात्रिंशयथा(१) गुरुसमीपगमनपुर सरपापसमालोचनरूपमालोचनम् , (२) अन्यपुरतो गुरुणाऽपि शिष्यानालोचनरूपो निरपलाप', (३) आपत्सु धर्मदाढयम्, (४) ऐहिकपारलौकिकसुखानिच्छया क्रियानुष्ठानरूपमनिधितोपधानम् , (५) 'ग्रहणाऽऽसेवनारूपा शिक्षा, (६) शरीरादिसस्कारवर्जनरूपा निप्पतिकर्मता, (७) प्रच्छन्नतपःगुण हैं, इनके विपयमे जो अतिचार किया गया हो तो मै उस से निवृत्त होता हूँ। मन वचन कायके व्यापार को योग कहते है, वे यद्यपि शुभ अशुभ के भेद से दो प्रकार के हैं, तथापि यहाँपर प्रकरण वश शुभ योगों का ही ग्रहण-है, उनके सग्रह को योगसग्रह कहते हैं, वे बत्तीस हैं—(१) आलोचन-गुरु के समीप जाकर पापकी आलोचना करना, (२) निरपलाप-दूसरे के सामने शिष्यकी आलोचना का प्रकाशित न किया जाना, (३) आपत्ति आने पर भी धर्ममे दृढ रहना, (४) अनिश्रितोपधान- इहलोक-परलोक सम्बन्धी सुख की इच्छा न रखकर क्रियानुष्ठान करना, (५) शिक्षा-विधि पूर्वक सूत्रादि-ग्रहण-रूप ग्रहणा और समाचारीका सम्यक्पालनरूप आसेवना (६) निष्प्रतिकर्मता-शरीरसस्कार का परित्याग, તિઓના ક્ષયરૂપ એકત્રીશ ગુણ છે તે વિષયમાં જે કાઈ અતિચાર લાયા હોય તે “તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉ છું” મન, વચન અને કાયાના વ્યાપારને વેગ કહે છે તે શુભ-અશુભના ભેથી બે પ્રકારના હોય છે છતા પણ આ સ્થળે પ્રકરણ વશ શુભાગોનું ગ્રહણ કરેલ છે તેમા સ ગ્રહને વેગસ ગ્રહ કહે છે તે બત્રીશ પ્રકારના છે (૧) આવેચન ગુરુના પાસે જઈને પાપની આચના કરવી, (૨) નિર૫લાપ-બીજાના પાસે શિની આચના જાહેર નહિ કરવી, (૩) આપત્તિ આવવા છતાય ધર્મમાં દઢ રહેવું, (૪) અનિશ્ચિતપધાન-આ લેક-પરલેક સ બ ધી સુખની ઈચ્છા નહિ રાખના ક્રિયાનુષ્ઠાન કરવા, (૫)શિક્ષા-વિધિપૂર્વક સૂદિગ્રહણરૂપ ગ્રહણ અને સમાચારીનું १-यथाविधिसूत्रादिग्रहणलक्षणा ग्रहणा, सामाचार्या. सम्यक्पालनमासेवना । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २५० आवश्यकमूत्रस्य देवानामवर्णवादः, (३०) अपश्यतोऽपि 'पश्याम्यह देवान्' इत्युक्तिः, अजिनस्वेऽपि 'जिनोऽस्मी' त्युकिषेति । सू० १८॥ ॥ मूलम् ॥ एगतीसाए सिद्धाइगुणेहिं । बत्तीसाए जोगसगहेहि ॥ सू० १९ ॥ ॥ छाया ॥ एकत्रिंशता सिद्धादिगुणैः । द्वारिंशता योगसङ्ग्रहः ॥ सू० १९ ॥ ॥ टीका ॥ 'एग' इति. 'एगतीसाए' एकत्रिंशता एकत्रिंशत्सङ्ख्यकैः, 'सिद्धाइगुणेहि' आदौ सिद्धावस्थामाप्तिवेलायामेर यौगपधेन स्थायिनो न तु क्रमभाविनो गुणा आदिगुणा, सिद्धानामादिगुणा सिदादिगुणास्तैः । सम्बन्धस्तू त एव । ते गुणा यथा-पञ्चविधज्ञानावरणीयक्षीणत्वानि पञ्च, नवविधदर्शनावरणीयक्षीणत्वानि नव, द्विविधवेदनीयक्षीणत्वे द्वे, द्विविधमोहनीयक्षीणत्वे दे, चतुविधायुक्षीणत्वानि चत्वारि, द्विविधनामकर्मक्षीणत्वे द्वे. द्विविधगोत्रकर्मक्षीणत्वे द्वे, पञ्चविधान्तरायक्षीणत्वानि पञ्चेति मिलित्वैकत्रिंशदिति । 'वत्ती देवोका अवर्णवाद बोलना, (३०) देवता को नहीं देखते हुए भी 'मै देवता को देखता हूँ' ऐसा कहना, इन तीस महामोहनीश स्थानों के द्वारा जो कोई अतिचार किया गया हो 'तो मैं उससे निवृत्त होता हूँ' ॥ सू०१८ ॥ सिद्ध अवस्था की प्राप्तिके समय सिद्धी में एक साथ रहने वाले गुणोको सिद्धादिगुण कहते हैं, वे पाँच ज्ञानावरणीय, नो दर्शनावरणीय, दो वेदनीय, दो मोहनीय, चार आयु, दो गोत्र, दो नाम, पाँच अन्तराय, इन इकतीस प्रकृतियों के क्षयरूप इकत्तीस વાદ બેલવો. (૩૦) દેવતાને નહિ જેવા છતાય “હ દેવતાને જોઉ છું” એ પ્રમાણે કહેવું તે આ ત્રિીશ મહામહનીય સ્થાન દ્વારા જે કાઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તો તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉ છુ”(સ. ૧૮) સિદ્ધ અવસ્થાની પ્રાપ્તિના સમયે સિદ્ધોમાં એક સાથે રહેવાવાળા ગુણેને સિદ્ધાદિગુણ કહે છે તે પાચ જ્ઞાનાવરણીય, નવ દર્શનાવરણીય, બે વેદનીય, બે મેહનીય, ચાર આયુ, બે ગોત્ર, બે નામ, પાચ અન્તરાય, એ એકત્રીશ પ્રફ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २५३ व्युत्सर्ग, (२६) अप्रमादः, (२७) समुचितममयानतिक्रमेण सामाचार्यनुष्ठान रूपो लवालव', (२८) आर्त्तरौद्रध्यानमहाणपूर्वकधर्मशुक्लभ्यानसमादरणरूपो ध्यानसवरणयोगः, (२९) मारणान्तिकवेदनोदयेऽपि क्षोभराहित्यम्, (३०) ज्ञ - प्रत्याख्या नपरिज्ञया 'सगपरिज्ञान - सगवर्जनरूपा सङ्गपरिज्ञा, (३१) प्रायश्चित्ताऽऽचरणम्, (३२) मरणान्ते ( मरणसमये ) ऽपि ज्ञानायाराधना चेति ॥ सू० १९ ॥ ॥ मूलम् ॥ तित्तीसाए आसायणाए ॥ सू० २० ॥ ॥ छाया || त्रयस्त्रिंशताऽऽशातनाभिः ॥ सू० २० ॥ ॥ टीका ॥ त्रयस्त्रिंशता=त्रयस्त्रिंशत्सरयकाभि., 'आसायणाए' ' तित्तीसाए ' व्युत्सर्ग, (२६) अप्रमाद, (२७) उचित समयमें सामाचारीका अनुष्ठानरूप लवालव, (२८) आतरौद्ररूप ध्यान के परित्याग-पूर्वक धर्मशुक्ल ध्यानका आदररूप ध्यान सवरणयोग, (२९) मारणान्तिक उपसर्ग सहन करना, (३०) प्रत्याख्यानपरिज्ञा से सगपरित्यागरूप सगपरिज्ञा, (३१) प्रायश्चित्त करना, (३२) मरणपर्यन्त ज्ञानादिकी आराधना करना । इन बत्तीस योगसग्रहों का सम्यग् आराधन नहीं होने से जो कोई अतिचार किया गया हो 'तो मै उससे निवृत्त होता हूँ' ॥ सू० १९ ॥ जिससे ज्ञान आदिगुण नष्ट हो जाते हैं, अथवा सम्यग् योग (२५) द्रव्य रमने भाषथी प्रयोत्सर्ग १२वा ३५ व्युत्सर्ग, (२६) अप्रभाहु, (२७) बुथित समयमा साभायारीना- अनुष्ठान ३५ सवा-सव, (२८) मातरौद्र - ३५ ધ્યાનના પરિત્યાગપૂ -ધ શુકલ ધ્યાનના આદર ૫ ધ્યાન (૨૯) મારણાન્તિક ઉપસ સહન કરવા, (૩૦) પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી સગ પરિત્યાગરૂપ સગપરિજ્ઞા, (૩૧) પ્રાયશ્ચિત્ત કરવુ તે (૩૨) મરણુ સુધી જ્ઞાનાદિકની આરાધના કરવી, આ પ્રમાણે અત્રીશ ચેગસ ગ્રહનું સમ્યક્ પ્રકારે આરાધન નહિ થવાથી જે કાઈ અતિચાર થયા હૈાય તે · તેમાથી હું નિવૃત્ત થાઉ છુ’(સૂ॰ ૧૯) C જેના કારણે જ્ઞાન આદિ ગુણુ નાશ થઇ જતા હાય, અયવા સમ્યગ્ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ आवश्यक सूत्रस्य करणरूपा अज्ञातता, (८) अलोभः = लोभराहित्यम्, (९) परिपठोपसर्गादिसहनरूपा तितिक्षा, (१०) कौटिल्यत्यागरूपमार्जनम्, (११) सयमविषयकाविचार - मलवर्जनरूपा शुचिः, (१२) सम्यक्त्वशुद्धरूषा सम्यग्दृष्टि', (१३) चित्तैकाग्रतारूपः समाधिः, (१४) आचार : = मायाराहित्यम्, (१५) विनयः = मानराहित्यम्, (१६) धैर्यसहिता या मतिस्तद्रूपा धृतिमतिः (१७) ससाराद्भयस्य मोक्षा भिलापस्य च यत्करण तद्रूपः सवेग (१८) मायाशल्यवर्जनरूपः प्रणिधिः, (१९) प्रशस्तक्रिया परायणतास्वरूपः सुविधिः, (२०) आश्रवनिरोधरूप सवरः, (२१) आत्मदोषपरिहारः, (२२) कामपरित्यागः, (२३) मूलगुणविषयक प्रत्याख्यानम्, (२४) उत्तरगुणविषयकप्रत्याख्यानम्, (२५) द्रव्यभावेन कायोत्सर्गकरणरूपो (७) अज्ञातता - गुप्त तप करना, (८) अलोभ- लोभ स्यागना, (९) तितिक्षा - परिषह - उपसर्गादिका सहन करना, (१०) आर्जव - कुटिल भावका त्याग करना, (११) शुचि = अतिचाररहित सयम पालना, (१२) सम्यग्दृष्टि - समकित की शुद्धि, (१३) समाधि - चित्तकी एकाग्रता, (१४) आचार, (१५) विनय, (१६) धृतिमति-धैर्ययुक्तमति, (१७) सवेग - ससार से भय और मोक्ष की इच्छा, (१८) प्रणिधिमायापरित्याग, (१९) सुविधि - उत्तम क्रियामें तल्लीन रहना, (२०) सवर - आश्रवनिरोध, (२१) आत्मदोषपरिहार, (२२) कामपरित्याग, (२३) मूलगुण - सम्बन्धी प्रत्याख्यान, (२४) उत्तरगुणसम्बन्धी प्रत्याख्यान, (२५) से कायोत्सर्गकरणरूप द्रव्यभाव સમ્યક્ પાલન કરવારૂપ આસેવના (૬) નિપ્રતિકતા-શરીરસમ્કારના પરિત્યાગ (७) अज्ञातती शुभतथ ४२५, (८) अयोभ - सोलनो त्याग पुग्यो, (e) तितिक्षा પરિષહ–ઉપસનું સહન કરવું, (१०) भाव-टिसभावना त्याग ४२वा, (११) शुभि - अतियाररहित सयभनु यासन ४२५, (१२), सम्यग्दृष्टि-समतिनी शुद्धि, ( 13 ) सभाधि - वित्तनी शेअअयता, (१४) मायार, (१५) विनय, (१६) ધૃતિમતિ-ધૈર્ય યુકત મતિ, (૧૭) સ વેગસ સારને ભય અને મેાક્ષની ઈચ્છા, (१८) प्रविधि - मायापरित्याग, (१८) सुविधि- उत्तम प्रियाभा तल्लीन रहेवु, (20) सवर माश्रवनिरोध, (२१) आत्मोपपरिहार, (२२) अमपरित्याग, મૂલગુણુસ બન્ધી (<3) प्रत्याख्यान, (२४) ઉત્તરગુસ ખ ધી प्रत्याभ्यान, Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २५३ व्युत्सर्गः, (२६) अपमादः, (२७) समुचितसमयानतिक्रमेण सामाचार्यनुष्ठानरूपो लबालबः, (२८) आर्तरौद्र यानप्रहाणपूर्वकधर्मभुक्तभ्यानसमादरणरूपो ध्यानसचरणयोगः, (२९) मारणान्तिकवेदनोदयेऽपि क्षोभराहित्यम् , (३०) ज्ञ-प्रत्याख्या नपरिज्ञया 'सगपरिज्ञान-सगवर्जनरूपा सङ्गपरिज्ञा, (३१) प्रायश्चित्ताऽऽचरणम् , (३२) मरणान्ते (मरणसमये )ऽपि ज्ञानाचाराधना चेति ॥ सू० १९ ॥ तित्तीसाए आसायणाए ॥ सू० २० ॥ ॥ छाया ॥ त्रयस्त्रिंशताऽऽशातनाभिः ॥ मू० २० ॥ ॥ टीका ॥ 'तित्तीसाए' त्रयस्त्रिंशतात्रयस्त्रिंशत्सख्यकाभिः, 'आसायणाए' व्युत्सर्ग, (२६) अप्रमाद, (२७) उचित समयमें सामाचारीका अनुष्ठानरूप लवालव, (२८) आर्तरौद्ररूप ध्यान के परित्याग-पूर्वक धर्मशुक्ल ध्यानका आदररूप ध्यान सवरणयोग, (२९) मारणान्तिक उपसर्ग सहन करना, (३०) प्रत्याख्यानपरिक्षा से सगपरित्यागरूप सगपरिज्ञा, (३१) प्रायश्चित्त करना, (३२) मरणपर्यन्त ज्ञानादिकी आराधना करना । इन बत्तीस योगसग्रहों का सम्यग् आराधन नहीं होने से जो कोई अतिचार किया गया हो तो मैं उससे निवृत्त होता हूँ' ॥ सू० १०॥ जिससे ज्ञान आदिगुण नष्ट हो जाते हैं, अथवा सम्पय (२५) द्रव्य भने भावथी योस ४२१। ३५ व्युत्सर्ग, (२६) मप्रभा, (२७) ઉચિત સમયમાં સામાચારીના-અનુષ્ઠાન રૂપ લવા-લવ, (૨૮) આર્સરૌદ્ર - રૂપ ધ્યાનના પરિત્યાગપૂર્વક-ધર્મશુકલ ધ્યાનના આદર રૂપ ધ્યાન સ વરણાગ, (૨૯) મારણાન્તિક ઉપસર્ગ સહન કર, (૩૦) પ્રત્યાખ્યાનપરિણાથી સગ પરિત્યાગરૂપ સગપરિણા, (૩૧) પ્રાયશ્ચિત્ત કરવું તે (૩૨) મરણ સુધી જ્ઞાનાદિકની આરાધના કરવી, આ પ્રમાણે બત્રીશ વેગસ ગ્રહનુ સમ્યફ પ્રકારે આરાધન નહિ થવાથી જે કાઈ અતિચાર થયા હેય તે “તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉં છુ”(સૂ૦ ૧૯) જેના કારણે જ્ઞાન આદિ ગુણ નાશ થઈ જતા હોય, અથવા સમ્યગ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ आवश्यक सूत्रस्य आ= समन्तात्' शात्यन्ते = अपनीयन्ते ज्ञानादयो गुणा याभिरिति यद्वा निरुक्तरीत्या आ= आयः सम्यग्ज्ञानादिलाभस्तस्य शातना'=खण्डनाः आशावनास्वाभिः । सम्वन्धस्तु पूर्ववदेन, अनेकवचन त्वार्थत्वात्, एतास्त्रयत्रिंशदानातनाः प्रकरणान्तरोक्ता गुरुसम्बन्धिन्यो बोद्धव्याः, ता यथा - (१) राज्निकस्य पुरतो गमनम्, (२) पार्श्वतः समश्रेण्या गमनम्, (३) 'आसन्न तो गमनम् . ए (४) रात्नि कस्य पुरतोऽवस्थानम्, (५) पार्श्वतोऽवस्थानम्, (६) आसन्नावस्थानम्, (७) पुरतो निषदनम्, (८) पार्श्वतो निपदनम्, (९) आसन्ननिपदन चेति ना । (१०) सज्ञाभूमिं गतवतोर्गुरुशिष्ययोर्गुस्तः पूर्वमाचमनम्, (११) गमनागमनयो. पूर्वमालोचनम्, (१२) गुरणा सलपितुमागतेन सह गुरतः पूर्वे सल्पनम्, (१३) 'को जागर्त्तीिति कः स्वपितीति वा' रात्रौ गुरुणा पृष्टस्य जाग्रतोऽपि शिष्यस्या - ज्ञानादि - रत्नत्रयका लाभ जिसके द्वारा खण्डित होता है वह गुरुसम्बन्धी 'आशातना' तेंतीस प्रकारकी है- (१) गुरु से आगे चलना, (२) बराबर चलना, (३) अत्यन्त नजदीक चलना, (४) गुरुके आगे खडा रहना, (५) बराबर खडा रहना, (६) अधिक पास में खड़ा रहना, (७) गुरुके आगे बैठना, (८) बराबर बैठना, (९) अत्यन्त समीप बैठना, (१०) गुरुके साथ सज्ञाभूमि जाने पर गुरुसे पहले शौच करना, (११) उपाश्रय में आकर गुरु के पहले इर्यावही - प्रतिक्रमण करना, (१२) गुरु से वार्तालाप करने के लिए आये हुए के साथ गुरु के पहले बोलना, (१३) 'कौन सोया कौन जागता है ?" ज्ञानाहि-रत्न-त्रयने। साल જૈના દ્વારા ખંડિત થતા હાય તે ગુરુસ બ ધી આશાતના ' तेन्रीश प्रहारनी छे. इस प्रकार 66 - (१) गुरुनी मागण व्यासवु, (२) मरागर यासवु, (3) अत्यन्त नलुभा यादवु, (૪) ગુરુની આગળ ઉભા રહેવુ, (૫) અરામર ઉભા રહેવુ, (૬) એકદમ નજીકમા ઉભા रहेवु, (७) गुरुनी मागण मेसवु, (८) मरामर मेसवु, (८) मेहमनलमा नेसवु (૧૦) ગુરુની સાથે સજ્ઞાભૂમિ જાતા ગુરુની પહેલા શૌચ કરવુ, (૧૧) ઉપા શ્રયમાં આવીને ગુરુના પહેલા ધૈર્યાવહી પ્રતિક્રમણુ કરવુ, (૧૨) ગુરુની સાથે વાર્તાલાપ કરવા માટે આવેલાની સાથે ગુરુ વાત કરે તે પહેલા વાત કરવી, (૧૩) કાણુ સુતેલા છે ? કાણુ જાગે છે? આ પ્રમાણે રાત્રીએ ગુરુજી પૂછે ત્યારે १- आसन्नत = निकटत | Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणा व्ययनम्-४ २५५ भाषणम्, (१४) अशनादिकमानीय पूर्व लघोः पुरत आलोचनम्, (१५) एव मेवोपदर्शनम्, (१६) निमन्त्रण च, (१७) रात्निकमपृष्ट्वा स्वेच्छयैवाहारादिकस्यान्येभ्यः प्रदानम्, (१८) गुरुणा सहाऽभ्यवहरणे अप्रशस्त विहाय प्रशस्तस्य वस्तुनो भोजनम्, (१९) सति प्रयोजने व्याहरता रात्निकेनाऽऽहूतस्यापि तूष्णींभावः, (२०) आसनासीनतयैव रात्निकाय प्रतिवाक्यदानम्, (२१) रात्निकाssहूतेन शिष्येण ' तथेति' इति वक्तव्ये 'किमुच्यते ? न श्रुत पुनरुच्यताम् /इत्यादिप्रलपनम् (२२ ) प्रेरयन्त रात्निक प्रति त्वङ्कारशब्दोच्चारणम्, (२३) रत्नाधिकस्य पुरतः प्रयोजनादधिक निरर्थक कठोर वा सभाषणम्, (२४) ग्लाना " रात्रिमे गुरु के पूछने पर जागते हुए भी उत्तर नहीं देना, (१४) आहार आदि लाकर प्रथम छोटे के पास आलोचना करना, (१५) आहारपानी आदि लाकर प्रथम छोटे को दिखाना, (१६) गुरु को पूछे बिना अपनी इच्छा से अन्य छोटे साधुओं की निमन्त्रणा करना, (१७) गुरु को पूछे विना ही अपनी इच्छासे अन्य साधुओं को आहार आदि देना, (१८) गुरु के साथ आहार करता हुआ मनोज्ञ २ स्वय खाजाना, (१९) कार्यवश गुरु के बोलाने पर चुप रह जाना, (२०) आसन पर बैठे हुए ही गुरु को उत्तर देना, (२१) गुरु के बुलाने पर 'तहत्ति' न बोल कर 'क्या कहते हैं !' क्या कहना है !" ऐसा बोलना, (२२) गुरुको 'तृ' शब्द बोलना, (२३) गुरु के सामने प्रयोजन से अधिक निरर्थक तथा कठोर बोलना, જાગતા હૈાવા છતાય ઉત્તર નહિ આપવે, (૧૪) આહાર વગેરે લાવીને પ્રથમ નાનાની પામે આલેચના કરવી, (૧૧) આહાર-પાણી આદિ લાવીને પ્રથમ નાના હાય તેને દેખાડવા, (૧૬) ગુરુજીને પૂછ્યા વિના પેાતાની દચ્છાથીજ અન્ય નાના સાધુને નિમત્રણ કરવુ, (૧૭) ગુરુજીને પૂછ્યા વિના પાતાની પૃચ્છાથીજ અન્ય સાધુઓને આહાર આદિ આપવુ, (૧૮) ગુરુની સાથે આહાર કરતા પેાતાને જે સારૂ લાગે તે પોતેજ ખાઇ જવુ, (૧૯) કાવશ ગુરુજી ખેલાવે તેા પશુ ચુપ રહી જવુ, (૨૦) આસન ઉપર બેઠા બેઠા ઉત્તર આપવા, (૨૧) ગુરુજી માલાવે त्यारे " तदत्ति " नहि उता "शु हो हो ? " शु अहेवु है ? से प्रभाव જવાળ આપવો, (૨૨) ગુરુજીને ‘તૂ’ શબ્દથી ખેલાવવા, (૨૩) ગુરુની સામે પ્રયા Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ मावश्यकमूत्रस्य आ समन्तात्' शात्यन्ते अपनीयन्ते ज्ञानादयो गुणा याभिरिति, यद्वा निरुक्तरीत्या आ-आयः सम्यग्ज्ञानादिलाभस्तस्य शातना सण्डनाः आगातना स्ताभिः । सम्बन्धस्तु पूर्वरदेव, अत्रैकवचन त्वार्यत्वात्, एतात्रयस्त्रिंशदाशातनाः प्रकरणान्तरोक्ता गुरुसम्बन्धिन्यो बोद्धव्याः, ता यथा-(१) रालिकस्य पुरतो गमनम्, (२) पार्वतः समश्रेण्या गमनम् , (3) आसन्नतो गमनम् . एव (४) रात्नि कस्य पुरतोऽवस्थानम् , (५) पार्वतोऽवस्थानम् , (६) आसन्नावस्थानम्, (७) पुरतो निपदनम् , (८) पार्श्वतो निपदनम् , (९) आसन्ननिपदन चेति नत्र । (१०) सज्ञाभूमि गतवतोगुरुशिष्ययोगुस्त. पूर्वमाचमनम्, (११) गमनागमनयो. पूर्वमालोचनम् , (१२) गुरुणा सलपितुमागतेन सह गुस्तः पूर्व सरूपनम् , (१३) 'को जागर्तीति कः स्वपितीति वा' रात्रौ गुरुणा पृष्टस्य जाग्रतोऽपि शिष्यस्याऽज्ञानादि-रत्नत्रयका लाभ जिसके द्वारा खण्डित होता है वह गुरुसम्बन्धी 'आशातना' तेतीस प्रकारकी है-(१) गुरु से आगे चलना, (२) थरावर चलना, (३) अत्यन्त नजदीक चलना, (४) गुरुके आगे खडा रहना, (५) बराबर खडा रहना, (६) अधिक पासमे खडा रहना, (७) गुरुके आगे बैठना, (८) घरायर बैठना, (९) अत्यन्त समीप बैठना, (१०) गुरुके साथ सज्ञाभूमि जाने पर गुरुसे पहले शौच करना, (११) उपाश्रय में आकर गुरु के पहले र्यावही प्रतिक्रमण करना, (१२) गुरु से वार्तालाप करने के लिए आये हुए के साथ गुरु के पहले बोलना, (१३) 'कौन सोया कौन जागता है। इस प्रकार જ્ઞાનાદિ-રત્ન-ત્રયને લાભ જેના દ્વારા ખડિત થતું હોય તે ગુ–સબ ધી " माना' तेत्रीश जी छ (१) गुरुनी मागण सास, (२) परामक न्यासयु, (३) मत्यन्त नभायालg, (૪) ગુરુની આગળ ઉભા રહેવું, (૫) બરાબર ઉભા રહેવું, (૬) એકદમ નજીકમાં ઉભા २९, (७) गुरुनी मानस, (८) मरा२ सयु, (6) मनभास, (૧૦) ગુરુની સાથે સત્તાભૂમિ જાતા ગુરુની પહેલા શૌચ કરવુ, (૧૧) ઉપ શ્રયમાં આવીને ગુરુના પહેલા ઈર્યાવહી પ્રતિક્રમણ કરવું, (૧૨) ગુરુની સાથે વાર્તાલાપ કરવા માટે આવેલાની સાથે ગુરુ વાત કરે તે પહેલા વાત કરવા, (૧૩) કે સુતેલા છે? કેણ જાગે છે? આ પ્રમાણે રાનીએ ગુરુજી પૂછે ત્યારે १-आसन्नता निकटत । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम् - ४ २५५ भाषणम्, (१४) अशनादिकमानीय पूर्व लघोः पुरत आलोचनम्, (१५) एव मेवोपदर्शनम्, (१६) निमन्त्रण च, (१७) रात्निकमपृष्ट्रा स्वेच्छयैवाहारादिकस्यान्येभ्यः प्रदानम्, (१८) गुरणा सहाऽभ्यवहरणे अप्रशस्त विहाय प्रशस्तस्य वस्तुनो भोजनम्, (१९) सति प्रयोजने व्याहरता रानिकेनाऽऽहूतस्यापि तूष्णींभावः, (२०) आसनासीनतयैव रात्निकाय प्रतिवाक्यदानम्, (२१) रात्निकाऽऽहूतेन शिष्येण ' तथेति' इति वक्तव्ये 'किमुच्यते ' न श्रुत पुनरुच्यताम् /इत्यादिपनम् (२२ ) प्रेरयन्त रात्निक प्रति त्वङ्कारशब्दोच्चारणम्, (२३) रत्नाधिकस्य पुरत. प्रयोजनादधिक निरर्थक कठोर वा सभाषणम्, (२४) ग्लाना " रात्रिमे गुरु के पूछने पर जागते हुए भी उत्तर नहीं देना, (१४) आहार आदि लाकर प्रथम घंटे के पास आलोचना करना, (१५) आहारपानी आदि लाकर प्रथम छोटे को दिखाना, (१६) - गुरु को पूछे बिना अपनी इच्छा से अन्य छोटे साधुओं की निमन्त्रणा करना, (१७) गुरु को पूछे बिना ही अपनी इच्छासे अन्य साधुओं को आहार आदि देना, (१८) गुरु के साथ आहार करता हुआ मनोज्ञ २ स्वय खाजाना, (१९) कार्यवश गुरु के बोलाने पर चुप रह जाना, (२०) आसन पर बैठे हुए ही गुरु को उत्तर देना, (२१) गुरु के बुलाने पर 'तहत्ति' न बोल कर 'क्या कहते हैं !" क्या कहना है !' ऐसा बोलना, (२२) गुरुको 'तृ' शब्द घोलना, (२३) गुरु के सामने प्रयोजन से अधिक निरर्थक तथा कठोर बोलना, જાગતા હોવા છતાય ઉત્તર નહિ આપવા, (૧૪) આહાર વગેરે લાવીને પ્રથમ નાનાની પાસે આલેચના કરવી, (૧૫) આહાર-પાણી આદિ લાવીને પ્રથમ નાના હોય તેને દેખાડવા, (૧૬) ગુજ્જીને પૂછ્યા વિના પાત્તાની ઠચ્છાથીજ અન્ય નાના સાધુને નિમ ત્રણુ કરવુ, (૧૭) ગુરુજીને પૂછ્યા વિના પેાતાની ઇચ્છાથીજ અન્ય સાધુઓને આહાર આદિ આપવુ, (૧૮) ગુરુની સાથે આહાર કરતા પેાતાને જે સાર્ લાગે તે પાતેજ ખાઇ જવુ, (૧૯) કાવશ ગુરુજી બાલાવે તે પશુ ચુપ રહી જવુ, (૨૦) આસન ઉપર બેઠા બેઠા ઉત્તર આપવા, (૨૧) ગુરુજી મેાલાવે त्यारे " तहप्ति " नहि उडता "शु अहो हो ? " शु महेवु है ? से प्रभाव वाण आपवो, (२२) गुस्कने 'तू' शण्डथी मासावा, (२३) गुरुनी सामे प्रयो Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - २५६ आवश्यकमूत्रस्य दिपरिचर्यार्थ मेरकाय गुरवे 'व कथ न सपरिचरसि'-इत्यादिरीत्योदीरणम्, (२५) कथा कथयतो रानिकस्य 'एव वक्तव्यम्' इति कथनम् , (२६) कथा कथयतो रात्निस्य 'नो स्मरति भवान्' इति कथनम् , (२७) कर्मकथा श्रावयति रात्निकेऽन्यमनस्कता, (२८) रालिककथाया परिपझेदनम्, (२९) धर्मकथाया 'गोचरीवेला सम्पाप्ता' इत्यादिविमलापः, (३०) अनुत्थिताया परिपदि रात्लिकोक्ताया एव कथाया मुहुर्मुहू रुचिररूपेण स्वयभापणम् , (३१) रात्निकसम्बन्धिशय्यासस्वारकादीना पादादिना सघट्टनम् , (३२) तस्य शय्यादिषूपवेशनादि, (३३) रात्निकादुच्चासने समुपवेशनमिति ॥ सू० २० ॥ (२४) ग्लान आदि की वैयावृत्य के लिये गुरुद्वारा प्रेरणा करने पर 'आप क्यों नहीं करते हो !' ऐसा उत्तर देना। (२५) धर्मकथा करते हुए गुरु 'को टोंकना अर्थात् 'यह ऐसा नही है ऐसा है' इत्यादि कहना, (२६) धर्मकथा करते हुए गुरु को 'आपको याद नहीं है क्या !' ऐसा करना, (२७) गुरु की धर्मकथा से प्रसन्न नही होना, (२८) गुरु की सभा मे छेदभेद करना, (२९) धर्मकथा में 'गोचरी का समय आ गया' इत्यादि बोलना, (३०) उपस्थित (वैठी हुई) सभामें गुरु से कही गई कथा को दोहरा कर सुन्दर रूप से कहना, (३१) गुरुसम्बन्धी शय्या-सथारे का पर आदि से सघट्टा करना, (३२) गुरु की शय्या आदि पर बैठना (३३) गुरु से ऊचे आसन पर बैठना। इन तेंतीस आशातनाओं જનથી અધિક નિરર્થક તથા કઠોર બેલવું, (૨૪) ગલાન આદિની વૈયાવૃત્ય કર વાની ગુરુદ્વારા આજ્ઞા મળતા “તમે કેમ કરતા નથી” ? એ ઉત્તર આપવો, (૨૫) ધર્મકથા કરતા હોય ત્યારે ગુરુને ટેકવું, અર્થાત “આ પ્રમાણે નથી” “એ પ્રમાણે છે, ઈત્યાદિ કહેવુ (૨૬) ધર્મકથા કરતા ગુરુજીને આપને યાદ નથી શું આવી રીતે કહેવુ, (૨૭) ગુરુની ધર્મકથાથી પ્રસન્ન નહીં થવું, (૨૮) ગુરુજીની સભામાં છેદભેદ કરવું (૨૯) ધર્મકથામાં ગોચરીને સમય થઈ ગયે છે આ પ્રકારે બોલવું, (૩૦) બેઠેલી સભામાં ગુરુજીએ કહેલી કથાને બીજી વખત સુદર રૂપથી કહેવી (૩૧) ગુરુજી સમ્બન્ધી શય્યા સ થારાને પગ વડે કરીને સ્પર્શ કરવો. (૩૨) ગુરુજીની શયા વગેરે ઉપર બેસવું, (૩૩) ગુરુજીના આસન કરતા ઉંચા આસન ઉપર બેસવું. આ તેનીશ આશાતનાઓ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ ।। २५७ एव गुरुसम्बन्धिनीस्त्रयस्त्रिंशदाशातना अभिधाय सम्प्रति तदितरा अप्याह-'अरिहताण' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ अरिहताण आसायणाए, सिद्धाण आसायणाए, आयरियाणं आसायणाए, उवज्झायाण आसायणाए, साहूण आसायणाए, साहुणीण आसायणाए, सावयाण आसायणाए, सावियाण आसायणाए, देवाण आसायणाए, देवीण आसायणाए, इहलोगस्स आसायणाए, परलोगस्स आसायणाए, केवलीण आसायणाए, केवलिपन्नत्तस्स धम्मस्स आसायणाए, सदेवमणुयासुरस्सलोगस्स आसायणाए, सव्वपाणभूयजीवसत्ताण आसायणाए, कालस्स आसायणाए, सुअस्स आसायणाए, सुयदेवयाए आसायणाए, वायणायरियस्स आसायणाए, ज वाइद्ध, वच्चामेलिय, हीणक्खर, । अञ्चक्खर, पयहीण, विणयहीण, जोगहीण, घोसहीण, सुदिन्नं, दुटुपडिच्छिय, अकाले कओ सज्झाओ, काले न कओ सझाओ, असज्झाए सज्झाइय, सज्झाए न सज्झाइय, तस्स मिच्छा मि दुक्कड ॥ सू० २१ ॥ अर्हतामाशातनया, सिद्धानामाशातनया, आचार्याणामाशातनया, उपाध्यायानामाशातनया, साधूनामाशातनया, साध्वीनामाशातनया, श्रावकाणामाशातनया, श्राविकाणामाशातनया, देवानामाशातनया, देवीनामाशातनया, इहलोकस्याऽऽशातनया, परलोकस्याऽऽशातनया, केवलिनामाशातनया, केवलिसम्बन्धी कोई अतिचार किया गया हो तो उससे मैं निवृत्त होता हूँ ॥ सू० २० ॥ इस प्रकार गुरु सम्बन्धी तेतीस (३३) आशातना कह कर अब अरिहन्तादि की आशातनाए कहते हैंસબન્ધી કઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉ છુ (સૂ) ૨૦) આ પ્રકારે ગુરુ સબન્ધી તેત્રીશ આશાતના કહ્યા પછી હવે અરિ હતાદિકની આશાતના કહે છે – ॥ जया । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २५६ आवश्यकमूत्रस्य दिपरिचर्याय प्रेरकाय गुरवे 'त्व कथ न सपरिचरसि'-इत्यादिरीत्योदीरणम्, (२५) कथा कथयतो रात्निकस्य 'एव वक्तव्यम्' इति कथनम्, (२६) कथा फययतो रानिकस्य 'नो स्मरति भवान्' इति कथनम् , (२७) कर्मकथा श्रावयति रात्निकेऽन्यमनस्कता, (२८) रालिककथाया परिपझेदनम् , (२९) धर्मकथाया 'गोचरीवेला सम्माता' इत्यादिविमलापः, (३०) अनुत्थिताया परिपदि रात्लिकोक्ताया एव कथाया मुहुर्मुहू रुचिररूपेण स्वयभापणम् , (३१) रात्निकसम्बन्धिशय्यासस्तारकादीना पादादिना सघट्टनम् , (३२) तस्य शग्यादिधूपवेशनादि, (३३) रात्निकादुच्चासने समुपवेशनमिति ॥ सू० २० ॥ (२४) ग्लान आदि की वैयावृत्य के लिये गुरुद्वारा प्रेरणा करने पर 'आप क्यों नहीं करते हो !' ऐसा उत्तर देना। (२५) धर्मकथा करते हुए गुरु 'को टोंकना अर्थात् 'यह ऐसा नहीं है ऐसा है' इत्यादि कहना, (२६) धर्मकथा कहते हुए गुरु को 'आपको याद नहीं है क्या ! ऐसा करना, (२७) गुरु की धर्मकथा से प्रसन्न नही होना, (२८) गुरु की सभा में छेदभेद करना, (२९) धर्मकथा मे 'गोचरी का समय आ गया' इत्यादि बोलना, (३०) उपस्थित (वैठी हुई) सभामें गुरु से कही गई कथा को दोहरा कर सुन्दर रूप से कहना, (३१) गुरुसम्बन्धी शय्या-सथारे का पैर आदि से संघटा करना, (३२) गुरु की शय्या आदि पर बैठना (३३) गुरु से ऊचे आसन पर बैठना। इन तेंतीस आशातनाओं જનથી અધિક નિરર્થક તથા કઠેર બોલવું, (૨૪) પ્લાન આદિની વૈયાવૃત્ય કરે વાની ગુરુદ્વારા આજ્ઞા મળતા “તમે કેમ કરતા નથી” ? એવો ઉત્તર આપવો, (૨૫) ધર્મકથા કરતા હોય ત્યારે ગુરુને ટેકવું, અર્થાત “આ પ્રમાણે નથી” “એ પ્રમાણે છે, ઈત્યાદિ કહેવું (૨૬) ધર્મકથા કરતા ગુરુજીને આપને યાદ નથી શુ” આવી રીતે કહેવુ, (૨૭) ગુરુની ધર્મકથાથી પ્રસન્ન નહીં થવું, (૨૮) ગુરુજીની સભામાં છેદભેદ કરવું (૨૯) ધર્મકથામાં ગોચરીને સમય થઈ ગયે છે” આ પ્રકારે બેલવું, (૩૦) બેઠેલી સભામાં ગુરુજીએ કહેલી કથાને બીજી વખત સુદર રૂપથી કહેવી (૧) ગુરુજી સાધી શ સ થારાને પગ 43 ४२ प ४२वो. (३२) शुरुनी शय्या करे 6५२ सयु, (33) ગુરુજીના આસન કરતા ઉંચા આસન ઉપર બેસવું. આ તેત્રીશ આશાતનાઓ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ पुण्यप्रकृतिमाहुल्येनाऽन्तःसन्त्यक्तनिखिलाऽऽसक्तितया केवलमौदासीन्येनैव, तदपि च ससारावस्थायामेव, एव केवलज्ञाने सम्प्राप्तेऽपि मोहनीयकर्माभावादनिच्छाया सत्यामपि समवसरणादिपाप्तिस्तीर्थकरनामकर्मप्रकृतिफलभोगस्य दुर्निवारतया तदुदयेनैव, न तावता वीतरागत्वप्राप्त्युत्तर तेषा किश्चिद्धीयते वीतरागत्वादेव । 'सिद्वाण' इति, सिद्धानामाशातना यथा-न सन्ति सिद्धाधेप्टालोगो की तरह मासक्त हो कर नही, किन्तु पूर्वोपार्जित पुण्यप्रकृति का प्रवल उदय होने के कारण अनिवार्य भोगों को अनासक्त हो कर उदासीन भावसे भोगा है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म का अभाव होने से सब प्रकार की इच्छा से रहित और वीतराग हो जाने पर भी तीर्थकरनामकर्म प्रकृति के उदय के कारण दुर्निवार देवकृत समवसरणादि से युक्त होते हैं। अतएव 'अर्हन्त नहीं हैं'-इत्यादि कथन करना आशातना है। सिद्धों की आशातना से, यह आशातना इस प्रकार होती है-'सिद्ध नहीं हैं,' क्यों कि उनके हलन चलन आदि किसी प्रकार की चेष्टा का अभाव है, और यदि वे हों भी तो रागढेपसे मुक्त नहीं है, क्यों कि राग-द्वेप ध्रुव होने के कारण किसी से नष्ट नहीं किये जा सकते, और साथ ही यह भी कह सकते है कि जिनको आप सिद्ध करते है वे भी असर्वज ही है, सर्वज्ञ नहीं है, क्यों कि નહિ, પરંતુ પાર્જિત પુણ્ય પ્રકૃતિના પ્રબળ ઉદય હોવાના કારણે અનિ વાર્ય ભેગેને અનાસકત થઇને ઉદાસીનભાવથી ભેગવ્યા છે, એ પ્રમાણે મેહનીય કર્મને અભાવ હોવાથી સર્વ પ્રકારની ઈચ્છાથી રહિત અને વિતરાગ થવા પછી પણ તીર્થકર નામકર્મ પ્રકૃતિના ઉદયના કારણે દુર્નિવાર દેવકૃત સમવસરણાદિથી યુક્ત હોય છે, એટલા માટે “અહંન્ત નથી” ઈત્યાદિ કહેવુ તે આશાતના છે સિદ્ધોની આશાતનાથી, તે આશાતના આ પ્રયાણે છે–પ્રસિદ્ધ નથી કારણ કે તેને હલન-ચલન આદિ કોઈ પ્રકારની ચેષ્ટા કરવાપણું નથી, અને જે તેઓ હેય તો પણ રાગ-દ્વેષથી તે મુક્ત નથી, કારણ કે રાગ-દ્વેષ ધ્રુવ હોવાના કારણે કઈથી નાશ થઈ શકતું નથી, અને સાથે-સાથે એ પણ કહી શકીએ છીએ કે – આપ જેને સિદ્ધ કહે છે તે પણ અસર્વજ્ઞ છે, સર્વજ્ઞ નથી, કેમકે વસ્તુના સામાન્ય Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ आरश्यकमूत्रस्य - - - पज्ञप्तस्य धर्मस्याऽऽशातनया, सदेवमनुजाऽमुरस्य लोकस्याऽऽशातनया, सर्वमाण भूतजीवसत्वानामाशातनया, कालस्याशातनया, श्रुतस्याशातनया, सुतदेवताया आशातनया, वाचनाचार्यस्याऽऽशातनया, यद् व्यापिद्र, व्यत्यानेडित, हीनाक्षरम् , अत्यक्षर, पदहीन, विनयहीन, योगहीन घोपहीन, मुष्ठु दत्त दुष्टु प्रतीच्छितम् , अकाले कृतः सा यायः, काले न कृतः स्वाध्यायः, अस्वाध्याये स्वा यायित, साध्याये न स्वा यायित, तस्य मिथ्या मयि दुष्कृतम् ॥ सू० २१ ॥ ॥ टीका ॥ 'अरिहताण' अर्हताम्, कर्मणि सम्बन्धसामान्ये वा पष्ठी, तेनाऽहत्वमिकयाऽहत्सम्बधिन्या वेत्यर्थ । एवमग्रेऽपि, आशातना चाऽत्र-'न सत्यहन्त स्तत्पदवान्यानामप्यस्मदादिवोगाऽऽसक्तवाद्' इत्यायुक्त्या जायते । ननु नेय माशातना ताचिकत्वात् तथाहि-श्रूयन्त एवाऽईन्तोऽपि विषमविपक्ल्पभोगभोगिनो,देवकृतैः समवसरणस्फाटिकादिसिंहासनादिभिरष्टविधमहामातिहार्यैश्च युक्ता, इति चेन्न, नहि ते सरागिण इवाऽऽसत्या भोगान् भुञ्जते स्म, अपितु पूर्वाजित अरित्तो की आशातना से, यह आशातना इस प्रकार है-'अहंन्त नहीं हैं, क्यों कि जिनको हम अर्हन्त कह रहे है वे भी कभी भोगों का फल कडवा समझते हुए भी भोगते ही थे, तथा केवलज्ञान प्राप्त होने पर भी देवकृत समवसरण स्फटिकसिंहासन आदि से युक्त होते ही हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि-'यह आशातना कैसे ? क्यों कि ऐसा उल्लेख तो अर्हन्त भगवान के लिये शास्त्रों में आता ही है। इसका उत्तर यह है कि-'अर्हन्त भगवान ने जो ससार अवस्थामे भोगादि भोगा है वह सरागी અરિહોની આશાતનાથી, તે આશાતના આ પ્રમાણે છે “અહંત નથી” કારણ કે જેને અમે અહંત કહીએ છીએ તે પણ કઈ વખત “ભેગેનું ફલ કડવું છે” એમ સમજતા છતાય જોગવતાજ હતા, તથા કેવલજ્ઞાન પ્રાપ્ત થવા છતાય પણ દેવકૃત સમવસરણ સ્ફટિકસિંહાસન આદિથી યુક્ત હોયજ છે, અહિં પ્રશ્ન થાય છે કે–આ આશાતને કેવી રીતે? કારણ કે એ ઉલ્લેખ તે અહંત ભગવાન માટે શાસ્ત્રમાં આવે છે, તેને ઉત્તર એ છે કે “અહેન ભગવાને જે સ સાર-અવસ્થામાં ભેગાદિ ભેગાવ્યા છે તે સરાગી કે પ્રમાણે આસકત થઇને Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २५९ पुण्यप्रकृतिमाहुल्येनाऽन्तःसन्त्यक्तनिखिलाऽऽसक्तितया केवलमौदासीन्येनैव, तदपि च ससारावस्थायामेव, एव केवलज्ञाने सम्माप्तेऽपि मोहनीयकर्माभावादनिच्छाया सत्यामपि समवसरणादिप्राप्तिस्तीर्थकरनामकर्मप्रकृतिफलभोगस्य दुर्निवारतया तदुदयेनैव, न तावता वीतरागत्वमाप्त्युत्तर तेषा किञ्चिद्धीयते वीतरागत्वादेव । 'सिद्वाण' इति, सिद्धानामाशातना यथा-न सन्ति सिद्धाश्चेष्टालोगो की तरह मासक्त हो कर नही, किन्तु पूर्वोपार्जित पुण्यप्रकृति का प्रल उदय होने के कारण अनिवार्य भोगों को अनासक्त हो कर उदासीन भावसे भोगा है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म का अभाव होने से सय प्रकार की इच्छा से रहित और वीतराग हो जाने पर भी तीर्थङ्करनामकर्म प्रकृति के उदय के कारण दुर्निवार देवकृत समवसरणादि से युक्त होते है। अतएव 'अर्हन्न नही हैं' इत्यादि कथन करना आशातना है। सिद्धों की आशातना से, यह आशातना इस प्रकार होती है-'सिद्ध नहीं हैं,' क्यों कि उनके हलन-चलन आदि किसी प्रकार की चेष्टा का अभाव है, और यदि वे हों भी तो रागद्वेपसे मुक्त नहीं है, क्यों कि राग-द्वेष ध्रुव होने के कारण किसी से नष्ट नहीं किये जा सकते, और साथ ही यह भी कह सकते हैं कि जिनको आप सिद्ध करते है वे भी असर्वज ही हैं, सर्वज्ञ नहीं हैं, क्यों कि નહિ, પરંતુ પૂર્વોપાર્જિત પુય પ્રકૃતિના પ્રબળ ઉદય હોવાના કારણે અનિ વાર્ય ભેગોને અનાસકત થઇને ઉદાસીનભાવથી ભેગવ્યા છે, એ પ્રમાણે મોહનીય કર્મને અભાવ હોવાથી સર્વ પ્રકારની ઈરછાથી રહિત અને વિતરાગ થવા પછી પણ તીર્થંકર નામકર્મ પ્રકૃતિના ઉદયના કારણે દુર્નિવાર દેવકૃત સમવસરણાદિથી યુક્ત હોય છે, એટલા માટે “અહુન્ત નથી” ઈત્યાદિ કહેવુ તે આશાનના છે સિદ્ધોની આશાતનાથી, તે આશાતના આ પ્રમાણે છે–સિદ્ધ નથી” કારણ કે તેને હલન-ચલન આદિ કોઈ પ્રકારની ચેષ્ટા કરવાપણું નથી, અને જો તેઓ હોય તે પણ રાગ-દ્વેષથી તે મુકત નથી, કારણ કે રાગ-દ્વેષ ઇવ હોવાના કારણે કેઈથી નાશ થઈ શકતું નથી, અને સાથે-સાથે એ પણ કહી શકીએ છીએ કે – આપ જેને સિદ્ધ કહે છે તે પણ અમર્વસ છે, સર્વજ્ઞ નથી, કેમકે વસ્તુના સામાન્ય Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० आवश्यकमुत्रस्य प्रदर्शनाद्रागद्वेपयुक्तत्वाच रागद्वेपौ हि धौव्यान्न केनापि दवयितु शक्येते, किश्च ये सिद्धपदवाच्यास्तेऽपि वयमित्राऽसर्वज्ञा, यतः पदार्थांना सामान्यधर्मग्राहि दर्शन, विशेषधर्मग्राहि च ज्ञानमिति सामान्यज्ञानोत्तरकाल एव विशेषज्ञानोत्पत्तेः सर्वत्र त्वान्नास्ति दर्शनज्ञानयो यौगपद्य (मेककालावच्छिन्नत्व) मिति ज्ञानदशनयोः परस्पराऽऽचारकतया ज्ञानोपयोगे दर्शनोपयोगस्य, दर्शनोपयोगे ज्ञानोपयोगस्य चाभाव एव भावे वा ज्ञानदर्शनयोरेकत्वमापयेत, तस्माज्ज्ञानत्त्रसामान्यावच्छिन्नयो दर्शनज्ञानयोर्यौगपद्येनाऽयौगपथेन वा भवदभिमतेषु सिद्धपदवाच्येष्वसम्भवान्नास्ति तेषु सर्वज्ञताऽपीति । ननु कथमियमाशावना ? सिद्धानावस्तु का सामान्यधर्मग्राही दर्शन और विशेषधर्मग्राही ज्ञान होता है, तथा पदार्थों का सामान्य ज्ञान हुए विना विशेष ज्ञान हो नही सकता, अतः एक समयमें एक ही उपयोग सिद्ध होता है, कारण यह है कि दर्शनोपयोग के समयमें ज्ञानोपयोग नहीं और ज्ञानोपयोग के समयमें दर्शनोपयोग नहीं, इसलिये एक समय में सामान्य विशेषात्मक उभय धर्म का ज्ञान असंभव है, यदि सभव कहें तो ज्ञान और दर्शन में एकत्व हो जायगा, क्यों कि वैसी अवस्था में पदार्थस्वरूप जितना ज्ञानसे प्रतीत होगा दर्शन से भी उतना ही होगा, इस कारण ज्ञान दर्शन का यौगपद्य (एक साथ स्थिति) न रहने से 'सिद्ध असर्वज्ञ हैं' - इत्यादि । 1 ધર્મ ગ્રાહી દર્શીન અને વિશેષધ ગ્રાડી જ્ઞાન હૈાય છે, તથા પદાર્થોનું સામાન્ય જ્ઞાન થયા વિના વિશેષ જ્ઞાન થઈ શકતુ જ નથી એટલા કારણથી એક સમયમા એકજ ઉપયેગ સિદ્ધ થાય છે, કારણ કે દર્શીન-ઉપયાગના સમયમા જ્ઞાન-ઉપયેગ હાય નહિ અને જ્ઞાન-ઉપયેગના સમયે દર્શનાપયેત્ર હાય નહિ, એટલા માટે એક સમયમા સામાન્ય-વિશેષાત્મક બન્ને વસ્તુ જ્ઞાન થવુ અસ ભવિત છે, જો સ ભવ છે એમ કહેશેા તા જ્ઞાન અને દર્શનમા એકત્વ આવી જશે, કારણ કે તેવી અવસ્થામા પદાર્થ સ્વરૂપ જેટલા જ્ઞાનથી પ્રતીત થશે તેટલુ જ દર્શનથી થશે, એ કારણથી જ્ઞાન-દર્શનનું યૌગપધ–એક સાથેની સ્થિતિ નહિ રહેવાથી સિદ્ધ અસન છે” ઇત્યાદિ १- दूरीकर्तुम् । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, पतिक्रमणाध्ययनम्-४ २६१ मुक्ताभ्य एव युक्तिभ्योऽसत्चात्, सत्त्वेऽपि वा तत्तदोपसम्पृक्तत्वादिति चेत्तुच्छमिदम्, यतः 'सिद्धाः' इति प्राप्तस्यैव हि प्रतिषेधो भवति, सिद्धाः सन्तीत्यत एव भवताऽप्युच्यते, 'न सन्ती'-ति, प्रसिद्धपतियोगिकस्यैव ह्यभावस्य सर्वत्र ग्रहण दृश्यते, गोशृङ्ग नास्तीति वक्तु शक्यते यतो गोशृङ्गमन्यत्रोपलभ्यते, यच्च नोपलभ्यते न तत्मतियोगिकाभायो वक्तु शक्यते-'शशशृङ्ग नास्त्यश्वशृङ्ग नास्तीति । यद्यपि पदपार्थक्ये शशादेः शृङ्गादेव वाच्याः सन्त्येव घटादेरिक, यदि कोई कहे कि-यह आशातना कैसे ? क्योंकि ऊपर कही हुई युक्तियों से यह बात सत्य ही जान पडती है' तो इस का उत्तर यह है कि-'तुमने जो कहा है कि-'सिद्ध नहीं हैं। इसी से 'सिद्ध हैं'-ऐसा सिद्ध हुआ, क्योंकि सत् (विद्यमान) वस्तु का ही निषेध किया जाता है, जो वस्तु विद्यमान नहीं है उसका निषेध भी नहीं किया जासकता है, 'गायके सींग नहीं हैं। ऐसा कहा जाता है, इसलिए कि गाय के सीग होते है, जो वस्तु त्रिकालमें होने की नहीं, जैसे घोडे या खरगोश के सीग, तो ऐसी वस्तुओं का निषेध भी प्रायः बुद्धिमान मनुष्यों के मुख से नहीं किया जाता, यों तो शशशृग आदि पदों को अलग २ रखने पर प्रत्येक का अर्थ प्रसिद्ध ही रहता है, किन्तु इकट्ठा कर देने पर 'शशशृग' 'अश्वशृग' आदि शब्दों का अर्थ होगा 'खरगोश के सींग' 'घोडे જે કઈ કહે કે –“આ આશાતના કેવી રીતે? કેમકે ઉપર કહેવામાં આવેલી યુકિતઓથી આ વાત તદન સત્યજ દેખાય છે, તે એને ઉત્તર એ છે કે – તમે જે કહ્યું કે “સિદ્ધ નથી,’ એ વાકય ઉપર સિદ્ધ છે, તેમ નિશ્ચય થયેલ છે કારણ કે સત્-વિદ્યમાન–વસ્તુને જ નિષેધ થઈ શકે છે, જે વસ્તુ વિદ્યમાન ન હોય તેને નિષેધ પણ કરી શકાતો નથી “ગાયને શીંગ નથી” એમ કહેવામાં આવે છે તે એટલા માટે કે “ગાયને શીંગ હોય છે જે વસ્તુ ત્રિકાળમા હાયજ નહિ, જેમકે ઘડા અથવા ખરગેશના શીંગ” તે એવી વસ્તુઓને નિષેધ પણ ઘણુ કરી બુદ્ધિમાન મનુષ્યના મુખથી કરવામાં આવતા નથી જેમકે શશશૃંગ આદિ પદેને જૂદા–જૂદા રાખવાથી પ્રત્યેકને અર્થ પ્રસિદ્ધજ રહે છે પરંતુ એકઠા કરવાથી શચરાગ” “અશ્વગૃગ” આદિ શબ્દનો અર્થ થશે “ખરગોશના શીંગ” “ઘડાના Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० आवश्यकमूत्रस्य - - पदर्शनाद्रागद्वेपयुक्तत्वाच, रागद्वेषौ हि धौव्यान्न केनापि दवयितु शक्येते, किञ्च ये सिद्धपदवाच्यास्तेऽपि वयमिवाऽसर्वज्ञा, यतः पदार्थाना सामान्यधर्मग्राहि दर्शन, विशेषधर्मग्राहि च ज्ञानमिति सामान्यज्ञानोत्तरकाल एवं विशेषज्ञानोत्पत्तेः सर्वत्र दृष्टत्वान्नास्ति दर्शनज्ञानयोयोगपद्य (मेककालावच्छिन्नत्व) मिति ज्ञान दशनयोः परस्पराऽऽवारकतया ज्ञानोपयोगे दर्शनोपयोगस्य, दर्शनोपयोगे शानोपयोगस्य चाऽभाव एव, भावे वा ज्ञानदर्शनयोरेकत्वमापयेत, तस्माज्ज्ञानत्व सामान्यावच्छिन्नयोर्दर्शनज्ञानयोयोगपद्येनाऽयोगपरेन वा भवदभिमतेषु सिद्धपदवाच्येष्वसम्भवानास्ति तेषु सर्वज्ञताऽपीति । ननु कमियमाशातना सिद्धाना• वस्तु का सामान्यधर्मग्राही दर्शन और विशेषधर्मग्राही ज्ञान होता है, तथा पदार्थों का सामान्य ज्ञान हुए विना विशेष ज्ञान हो नहीं सकता, अतः एक समयमें एक ही उपयोग सिद्ध होता है, कारण यह है कि दर्शनोपयोग के समयमें ज्ञानोपयोग नहीं और ज्ञानोपयोग के समयमें दर्शनोपयोग नहीं, इसलिये एक समयमें सामान्य-विशेषात्मक उभय धर्म का ज्ञान असभव है, यदि सभव कहें तो ज्ञान और दर्शन में एकत्व हो जायगा, क्यों कि वैसी अवस्था में पदार्थस्वरूप जितना ज्ञानसे प्रतीत होगा दर्शन से भी उतना ही होगा, इस कारण ज्ञान दर्शन का योगपद्य (एक साथ स्थिति) न रहने से 'सिद्ध असर्वज्ञ हैं'-इत्यादि।। ધર્મગ્રાહી દર્શન અને વિશેષ ધર્મગ્રાહી જ્ઞાન હોય છે, તથા પદાર્થોનું સામાન્ય જ્ઞાન થયા વિના વિશેષ જ્ઞાન થઈ શકતું જ નથી એટલા કારણથી એક સમયમાં એકજ ઉગ સિદ્ધ થાય છે, કારણ કે દર્શન-ઉપમના સમયમાં જ્ઞાન-ઉપયોગ હાય નહિ અને જ્ઞાન-ઉપયોગના સમયે દર્શને પગ હોય નહિ, એટલા માટે એક સમયમાં સામાન્ય-વિશેષાત્મક બન્ને વર્મનું જ્ઞાન થવુ અસ ભવિત છે, જે સ ભવ છે એમ કહેશે તે જ્ઞાન અને દર્શનમા એકત્વ આવી જશે, કારણ કે તેવી અવસ્થામાં પદાર્થ સ્વરૂપ જેટલા જ્ઞાનથી પ્રતીત થશે તેટલું જ દર્શનથી થશે, એ કારણથી જ્ઞાન-દર્શનનું યૌગપદ્ય-એક સાથેની સ્થિતિ નહિ રહેવાથી 'सिद्ध अस छ' त्या: १-दूरीकर्तुम् । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम् - ४ प्रक्षीणसकलकपायाणा तेपा सभवतामेव कृतः १ न चोपयोगयौगपद्यमन्तरेण सर्वनता कथमिति वाच्यम्, यौगपद्येनोपयोगद्वयाभावस्य जीवस्याभाव्यान्नयाभिप्रेतत्वाच्च तयोरैक्य तु न विभिन्नाऽऽवरणकत्वात् । द्रव्यार्थिकनयेन ज्ञानदर्शनयोरेकत्व, ज्ञाननयमाश्रित्य सर्वमेवेद ज्ञानमिति दर्शननयमाश्रित्य च सर्वमेवेद दर्शनमिति नास्त्यसर्वज्ञताशङ्कालेशोऽपीति । २६३ 'आयरियाण' आचार्याणाम्, 'आसायणाए ' आशातनया, आचार्याशातना च- 'बाला अकुलीना अतिमन्दबुद्धयथेमे, अन्योपदेशदक्षा न च किश्चिदाचरन्ति इत्यादिविकथनरूपा । एवमुपाध्यायानामप्याशातना पोद्रव्या | हैं कि उनके सम्पूर्ण कपाय नष्ट हो गये हैं । एक समय में दो उपयोग नहीं होते हैं, इसका कारण यह है कि जीवका स्वभाव ही ऐसा है। ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग दोनों को एक तो इसलिये नहीं कह सकते है कि दोनोंका आवरण भिन्नर है। रही बात असर्वज्ञताकी, उसका उत्तर यह है कि द्रव्यार्थिकनय के मतसे ज्ञान और दर्शनमें एकता है क्यों कि ज्ञाननय की अपेक्षा सब ज्ञानमय है और दर्शननय की अपेक्षा सव दर्शनमय, इसलिये सिद्ध सर्वज्ञ है । आचार्यकी आशातनासे, वह इस प्रकार - " ये बालक है, अकुलीन है, अल्प बुद्धि हैं, औरों को तो उपदेश देते हैं पर खुद कुछ नही करते" इत्यादि । इसी प्रकार उपाध्याय की आशातना समझनी चाहिये । કે —તેમના કષાયે સ પૂર્ણ નાશ થયા છે. એક સમયમા એ ઉપયાગ થાય નહિ એનું કારણ એ છે કે – જીવના સ્વભાષજ એવે છે. જ્ઞાનાપયેાગ અને દર્શને પયગ એ બન્નેને એટલા માટે એક કહેતા નથી કે બન્નેના આવરણુ જૂદા જૂદા છે હવે અસન્નતાની વાત રહી, તેના ઉત્તર એ છે કે દ્રવ્યાર્થિક નયના મતથી જ્ઞાન અને દનમા એકતા છે, કેમ કે જ્ઞાનનયની અપેક્ષાએ સર્વ જ્ઞાનમય છે અને દર્શનનયની અપેક્ષાએ સર્વ દનમય છે, એ કારણે સિદ્ધ સર્વજ્ઞ છે આચાર્યની આશાતનાથી, તે આ પ્રમાણે છે-આ માલક છે, અકુલીન છે, અલ્પબુદ્ધિ છે, બીજાને ઉપદેશ આપે છે પણ પાતે કાર્ય કરતા નથી' ઇત્યાદિ એ પ્રમાણે ઉપાધ્યાયની આશાતના સમજવી એઇએ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ आवश्यामूत्रस्य तथापि मिथः सम्बद्धाना शशशृङ्गादीनामप्रसिदिरेव, अत एर 'एप बन्यामुतो याति, खपुष्पकृतशेखरः। कर्मक्षीरचये स्नातः, शशशृङ्गपनुपरः ॥' इत्यादिषु समुदितार्थाभावेन मातिपदिकत्वाभावाऽऽपत्तिमाशङ्कय वयापदार्थपुत्रपदार्थादेरेकैकस्य प्रसिद्धया बौद्धमर्थमादायाऽथवचात्मातिपदिस्त्वमित्याहुवैयाकरणाः, तस्मात् 'सिद्धा न सन्ती'-ति दुप्पतिपादम् । यदुक्क 'निश्चेष्ट स्वमिति' तदत्यन्तमसत् , तेपा सिद्धसकलकार्यवान्निःशरीरत्वाच्च, रागद्वेपौ तु के सीग' इत्यादि, वह अप्रसिद्ध है। यही कारण है कि 'एष वन्ध्यासुतो याति' इत्यादि स्थलों में यद्यपि अलग २ रखने पर वन्या शब्द और सुत शब्द का अर्थ प्रसिद्ध ही है, परन्तु इकट्ठा कर देने पर 'वन्ध्यासुत' 'कर्मक्षीर' (कछुएका द्ध) आदि शब्दा का अर्थ कुछ भी नहीं होता है, अतएव अनर्थक होने से प्रातिपदिक सज्ञाका होना असभव जानकर वैयाकरणोंने एक एक पदा र्थकी प्रसिद्धि रहने के कारण समुदायमें चौद्ध (बुद्धिकृत) अर्थ को मानकर प्रातिपदिक सज्ञा आदि कार्य किये है, इस कारण 'सिद्ध नहीं है। ऐसा कहना सर्वथा असगत है। दूसरी बात यह है कि आपने जो सिद्धों को निश्चेष्ट कहा वह भी ठीक नहीं है, कारण यह कि सिद्वो के कर्तव्य कोई वाकी रहा नहीं और शरीर भी नही जिससे वे चेष्टा करे। राग-द्वेष भी उनमें इसलिये नहीं शींग' त्या, ते प्रसिद्ध नथी, मे ९ 'एप व यासुतो याति' ઈત્યાદિ સ્થળોમાં યદ્યપિ જુદા જુદા રાખવા પર વધ્યા શબ્દ અને સુત શબ્દને मर्थ प्रसिद्ध छ परन्तु मन्ने शन्हो ४४ ४२पाथी 'वभ्यामुत, 'कूमक्षीर' (य ખાનુ દૂધ) વગેરે શબ્દોને કઈ પણ અર્થ થશે નહિ, એટલા કારણથી અનર્થક હોવાના કારણે પ્રતિપદિક સજ્ઞાને અસ ભવ જાણીને વૈયાકરણઓએ એક એક પદાર્થની પ્રસિદ્ધિ રહેવાના કારણે સમુદાયમાં બૌદ્ધ (બુદ્ધિકૃત) અર્થ માનીને પ્રાતિપાદિક સંજ્ઞા આદિ કાર્ય કરેલું છે એ કારણથી “સિદ્ધ નથી એમ કહેવું તે સર્વથા અસ ગત છે બીજી વાત એ છે કે તમે સિદ્ધોને નિષ્ણ કહે છે તે પણ ઠીક નથી, કારણ એ છે કે સિદ્ધોને કેઈ કર્તવ્ય બાકી નેહલ જ નથી, અને શરીર પણ નથી કે જેનાથી ચેષ્ટા કરે, રાગ-દ્રવ પણ તેમનામાં એટલા માટે નથી Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २६३ प्रक्षीणसकलकपायाणा तेपा सभवतामेव कुतः १ न चोपयोगयोगपद्यमन्तरेण सर्वजता कथमिति वाच्यम् , योगपधेनोपयोगद्वयाभावस्य जीवस्वाभाव्यान्नयाभिप्रेतत्वाच, तयोरैक्थ तु न, विभिन्नाऽऽचरणकत्वात् । द्रव्याथिकनयेन ज्ञानदर्शनयोरेकत्व, ज्ञाननयमाश्रित्य सर्वमेवेद ज्ञानमिति दर्शननयमाश्रित्य च सर्वमेवेद दर्शन मिति नास्त्यसर्वज्ञताशङ्कालेशोऽपीति । ___ 'आयरियाण' आचार्याणाम् , 'आसायणाए' आशातनया, आचार्याशातना च-'वाला अकुलीना अतिमन्दबुद्धयश्चेमे, अन्योपदेशदक्षा न च किञ्चिदाचरति' इत्यादिविकथनरूपा । एवमुपाध्यायानामप्याशातना बोद्रव्या । है कि उनके सम्पूर्ण कपाय नष्ट हो गये हैं। एक समय में दो उपयोग नहीं होते हैं, इसका कारण यह है कि जीवका स्वभाव ही ऐसा है। ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग दोनों को एक तो इसलिये नहीं कह सकते है कि दोनोंका आवरण भिन्न है। रही यात असर्वज्ञताकी, उसका उत्तर यह है कि द्रव्याथिकनय के मतसे ज्ञान और दर्शनमें एकता है क्यों कि ज्ञाननय की अपेक्षा सब ज्ञानमय है और दर्शननय की अपेक्षा सब दर्शनमय, इसलिये सिद्ध सर्वज्ञ है। ___ आचार्यकी आशातनासे, वह इस प्रकार-"ये यालक है, अकुलीन हैं, अल्प बुद्धि हैं, औरों को तो उपदेश देते है पर खुद कुछ नहीं करते" इत्यादि । इसी प्रकार उपायाय की आशातना समझनी चाहिये। કે –તેમના કષાયે સંપૂર્ણ નાશ થયા છે. એક સમયમાં બે ઉપયોગ થાય નહિ એનું કારણ એ છે કે -- જીવને સ્વભાવજ એ છે જ્ઞાનપગ અને દર્શને પગ એ બનેને એટલા માટે એક કહેતા નથી કે બન્નેના આવરણ જૂદા જૂદા છે હવે અસર્વજ્ઞતાની વાત રહી, તેનો ઉત્તર એ છે કે દ્રવ્યાર્થિક નયના મતથી જ્ઞાન અને દર્શનમા એકતા છે, કેમ કે જ્ઞાનનયની અપેક્ષાએ સર્વ જ્ઞાનમય છે અને દર્શનનયની અપેક્ષાએ સર્વ દર્શનમય છે, એ કારણે સિદ્ધ સર્વજ્ઞ છે. આચાર્યની આશાતનાથી, તે આ પ્રમાણે છે-“આ બાલક છે, અકુલીન છે, અ૫બુદ્ધિ છે, બીજાને ઉપદેશ આપે છે પણ પિતે કાઈ કરતા નથી' ઇત્યાદિ એ પ્રમાણે ઉપાધ્યાયની આશાતના સમજવી જોઈએ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपावनया, पातल्या । - २६४ आवश्यकमूत्रस्य 'साहूण' साधूनाम् , 'आमायणाए' आशावनया, साध्याशातना चेत्यम्'एते साधवो पिरूपनेपथ्या हीनसस्कारा जडा व्यर्थजीरना मुण्डितमुण्डा भिक्षामात्रशरणाः' इत्यादि । एवमेव साध्वीनामप्याशातना ज्ञातव्या । 'साव याण' श्रावकाणाम् , 'आसायणाए' आशातनया, श्रावकाऽऽशातना च'अहो इमेऽभिगतजीवाजीग उपलब्धपुण्यपापा आश्रव-सवर-निर्जराक्रियाधि करणउन्धमोक्षकुशला जिनपचनपरिज्ञानेन यथार्थ मानुष्यफ - वाऽपि न विरति श्रयन्ते घिधिग्'-इत्यादिरूपा । श्राविकाणामप्याशातनेदृश्येव । 'देवाण' देवानाम्, 'आसायणाए' आशातनया, सा च- 'देवास्तु विषयवासनावासित साधु मुनिराजकी आशातना से, वह इस प्रकार 'ये साधु मैलेकुचले वस्त्रोंके धारक, सस्कारहीन, जड, मूढ, सिर मुडाकर जीवन को व्यर्थ करने वाले हैं, इत्यादि । इसी प्रकार सावीकी आशातना समझनी चाहिये। श्रावक की आशातना से, वह जैसे-'हाय ! जीव अजीव के स्वरूप और पुण्य पापके मर्म को जानने वाले, तथा आश्रव सवर निर्जरा क्रिया अधिकरण बन्ध और मोक्ष, इनमें हेय उपादेय का ज्ञान रखने वाले, एव जिन प्रवचन के यथार्थ ज्ञाता होकर भी ये श्रावक सर्वविरति को धारण नहीं करते है 'धिक्कार है' इत्यादि । श्राविकाओं की भी आशातना इसी प्रकार की है। । देवों की आशातना से, वह इस प्रकार-"देवता तो विषय સાધુ મુનિરાજની આશાતનાથી, તે આ પ્રમાણે છે-“એ સાધુ મેલા-ગ ધાતા કપડા ધારણ કરે છે, સંસ્કારહીન, જડ, મૂઢ, શિર મુડાવી જીવનને વ્યર્થ કરનાર છે ઈત્યાદિ આ પ્રમાણે સાધ્વીની આશાતના સમજવી જોઈએ શ્રાવકની આશાતનાથી, તે આ પ્રમાણે-હાય? જીવ-અજીવના સ્વરૂપ અને પુણ્ય-પાપના મર્મને જાણવાવાળા, તથા આશ્રવ સ વર નિર્જરા ક્રિયા અધિકરણ, બન્ધ અને મોક્ષ, તેમા હેય-ઉપાદેયનું જ્ઞાન રાખવાવાળા, એ પ્રમાણે જિન પ્રવચનને યથાર્થ જાણનાર હોઈને પણ તે શ્રાવક સર્વવિરતિને ધારણ કરતા નથી, ધિક્કાર છે ઈત્યાદિ શ્રાવિકાઓની આશાતના પણ આ પ્રમાણે જ છે દેવેની અશાતનાથી, તે આ પ્રમાણે-દેવતા તે વિષયવાસનામા આસકત, Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणा ययनम् - ४ चित्तवृत्तयोऽमत्याख्याना अविरताः शक्तिमन्तः सन्तोऽपि शासनसमुन्नतिमकुर्वाणा सन्ति - इत्येवरूपा । देवीनामप्याशातनैवमेव । ' इहलोगस्स' इहलोको = मनुष्यलोकस्तस्य 'आसायणाए' आगातनया न्यूनाधिकत्वनिरूपणादिलक्षणया | एवमेव परलोकस्याssशातनाऽपि, अन परलोकः = स्वर्गनरकादिलक्षणः । 'केवलीण' केवलिनाम्, 'आस्रायणाए' आशातनया = ' केवलिनः कैवल्याकवलाहारादिक न कुर्वन्ति - इत्यादिरूपया । ' केवलिपन्ननस्स ' केवल्मिज्ञप्तस्य 'धम्मस्स' धर्म्मस्य = जीवदया - सत्या - Sस्तेय - ब्रह्मचर्य - क्षान्ति - पञ्चेन्द्रियनिग्रहरूपस्य, 'आसायणाए' आशातनया = विपरीतनिरूपणस्वरूपया | 'सदेवमणुयासुरस्त' सदेवमनुष्यासुरस्य देव - मनुष्या - ऽसुरसहितस्य, 'लोगस्स ' लोकस्य, 'आसायणाए' आशातनया = वितथमरूपणस्वरूपया । 'सव्वपाणभूयजीवसत्ताण' प्राणाः प्राणिनो व्यकेन्द्रिया द्वि-नि-चतुरिन्द्रियलक्षणाः, भूता = वासनामें आसक्त, अप्रत्याख्यानी, अविरती हैं, और शक्तिमान होते हुए भी शासन की उन्नति नही करते है " इत्यादि । इसी प्रकार देवी की भी आशातना समझना । २६५ + # इस लोक की न्यूनाधिकन्च - निरूपणरूप आशातनासे, ऐसेही 'स्वर्ग नरक आदि रूप परलोक की आसातनासे । ' 'केवली कचलाहार आदि नही करते हैं' इत्यादि विरुद्ध प्ररूपणारूप केवली की आशातना से । केवलिप्ररूपित धर्मकी विपरीत प्ररूपणारूप आशातना से | देव मनुष्य और असुर सहित लोककी असत्य प्ररूपणारूप आशातना से । हीन्द्रियादि प्राणी, અપ્રત્યાખ્યાની, અવિરતિ છે, અને કિતમાન હોવા છનાય પપ્પુ શાસનની ઉન્નતિ કરતા નર્યા, ત્યાદિ એ પ્રમાણે દેવીની પણ આશાતના સમજવી + આ લેાકની વ્યૂનાધિકત્વ નિરૂપણુ રૂપ આશાતનાથી, એવીજ રીતે સ્વ-નનક આદિ રૂપ પલાકની આશાતનાચી “ કેવલી કવલ આહાર આદિ કરતા નથી ” વગેરે વિરુદ્ધ પ્રરૂપણારૂપ કેવલીની આશાતનાર્થી કેવલી પ્રરૂપિત ધર્મની વિપરીત પ્રરૂપણા રૂપ આશાતનાથી દેવમનુષ્ય અને અસુર સહિત લેાકની અમત્ય પ્રરૂપણા રૂપ આહનાથી હ્રોન્ડ્રિયાદિ પ્રાી, વનસ્પતિકાયરૂપ ભૂત, પચેદ્રિયરૂપ છત્ર અને પૃથ્વી આદિ સત્ત્વ, એ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आवश्यकमूत्रस्य ' याण C साहूण' साधूनाम्, 'आमायणाए' आशातनया, साध्धाशातना चेत्थम्'एते साधन विरूपनेपथ्या हीनसस्कारा जडा व्यर्थजीवना मुण्डितमुण्डा भिक्षामात्रशरणाः' इत्यादि । एवमेव साध्वीनामप्याशातना ज्ञातव्या । 'सात्र 9 श्रावकाणाम्, आसायणाए' आशातनया, श्रापकाऽऽगातना च'अहो इमेऽभिगतजीवाजीवा उपलब्धपुण्यपापा आश्रव - सबर - निर्जरा क्रियाधिकरणवन्धमोक्षकुशला जिनमाचनपरिज्ञानेन यथार्थ मानुष्यक लवाऽपि न विरति श्रयन्ते धिग्धिम् - इत्यादिरूपा । श्राविकाणामग्याशात नेदृश्येव । 'देवा' देवानाम्, 'आसायणाएं' आशातनया, सा च- 'देवास्तु विषयवासनावासित साधु मुनिराजकी आशातना से, वह इस प्रकार 'ये साधु मैले कुचले वस्त्रोंके धारक, सस्कारहीन, जड, मृढ, सिर मुडाकर जीवन को व्यर्थ करने वाले हैं, इत्यादि । इसी प्रकार सावीकी आशातना समझनी चाहिये । 1 श्रावक की आशातना से, वह जैसे- 'हाय ! जीव अजीव के स्वरूप और पुण्य पापके मर्म को जानने वाले, तथा आश्रव सवर निर्जरा क्रिया अधिकरण बन्ध और मोक्ष, इनमे हेय उपादेय का ज्ञान रखने वाले, एव जिन प्रवचन के यथार्थ ज्ञाता होकर भी ये श्रावक सर्वविरति को धारण नहीं करते हैं 'धिक्कार है' इत्यादि । श्राविकाओं की भी आशातना इसी प्रकार की है । - देवों की आशातना से, वह इस प्रकार - " देवता तो विषय સાધુ મુનિરાજની આશાતનાથી, તે આ પ્રમાણે છે– એ સાધુ મેલા-ગ ધાતા કપડા ધારણ કરે છે, સસ્કારહીન, જડ, મૂઢ, શિર મુ ડાવી જીવનને વ્યર્થ કરનાર છે ઇત્યાદિ આ પ્રમાણે સાધ્વીની આશાતના સમજવી જોઈએ શ્રાવકની આશાતનાથી, તે આ પ્રમાણે-હાય ? જીવ-અજીવના સ્વરૂપ અને પુણ્ય–પાપના મને જાણવાવાળા, તથા આશ્રવ સવર નિર્જરા ક્રિયા અધિકરણ, અન્ય અને મેક્ષ, તેમા હૈય-ઉપાદેયનુ જ્ઞાન રાખવાવાળા, એ પ્રમાણે જિત પ્રવચનને યથાર્થ જાણનાર હોઇને પશુ તે શ્રાવક સર્વાંવિત્તિને ધારણ કરતા નથી, ધિક્કાર છે ઇત્યાદિ શ્રાવિકાઓની આશાતના પણ આ પ્રમાણે જ છે દેવાની આશાતનાર્થી, તે આ પ્રમાણે-દેવતા તે વિષયવાસનામા આસકત, Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणा ययनम् - ४ चित्तवृत्तयोऽगत्याख्याना अविरताः शक्तिमन्तः सन्तोऽपि शासनसमुन्नतिमकुर्वाणा सन्ति ' - इत्येवरूपा । देवीनामप्याशातनैवमेव । ' इहलोगस्स' इहलोको = मनुष्यलोकस्तस्य, ‘आसायणाए' आशातनया न्यूनाधिकत्वनिरूपणादिलक्षणया । २६५ एवमेव परलोकस्याऽऽशातनाऽपि, अत्र परलोकः = स्वर्गनरकादिलक्षण' | 'केवलीण' केवलिनाम्, 'आसायणाए' आशातनया = ' केवलिनः कैवल्याकाहारादिक न कुर्वन्ति ' - इत्यादिरूपया | 'केवलिपन्नत्तस्स ' केवल्मिज्ञप्तस्य 'धम्मस्स' धर्म्मस्य = जीवदया - सत्या स्तेय- ब्रह्मचर्य - क्षान्ति- पञ्चेन्द्रियनिग्रहरूपस्य, 'आसायणाए' आशातनया = विपरीतनिरूपणस्वरूपया । 'सदेवमणुयासुरस' सदेवमनुष्यासुरस्य = देव - मनुष्या - ऽसुरसहितस्य, 'लोगम्स' लोकस्य, ' आसायणाए ' आशातनया - वितथमरूपणस्वरूपया । 'सव्वपाणभूयजीवसत्ताण' माणा' = प्राणिनो व्यकेन्द्रिया द्वि-नि-चतुरिन्द्रियलक्षणा, भूता = वासनामें आसक्त, अप्रत्याख्यानी, अविरती हैं, और शक्तिमान होते हुए भी शासन की उन्नति नही करते हैं" इत्यादि । इसी प्रकार देवी की भी आशातना समझना | इस लोक की न्यूनाधिकत्व - निरूपणरूप आशातनासे, ऐसे ही 'स्वर्ग नरक आदि रूप परलोक की आसातनासे । 'केवली कचलाहार आदि नही करते हैं' इत्यादि विरुद्ध प्ररूपणारूप केवली की आशातना से । केवलिप्ररूपित धर्मकी विपरीत प्ररूपणारूप आगातना से | देव मनुष्य और असुर सहित लोककी असत्य प्ररूपणारूप आशातना से । द्वीन्द्रियादि प्राणी, અપ્રત્યાખ્યાની, અવિરતિ છે, અને કિતમાન હેાવા છતાય પત્તુ શાસનની ઉન્નતિ કરતા નર્યા, ત્યાદિ એ પ્રમાણે દેવીની પણુ આશાતના સમજવી આ લેાકની ન્યૂનાધિકત્વ નિરૂપણુ રૂપ આશાતનાથી, એવીજ રીતે સ્વર્ગ-નરક આદિ ૩પ પરવેાકની આશાતનાયી "" “ કેવલી કવલ આહાર આદિ કરતા નથી” વગેરે વિરુદ્ધ પ્રરૂપણારૂપ કેવલીની આશાતનાથી કેવલી પ્રરૂપિત ધર્મની વિપરીત પ્રરૂપણા રૂપ આશાતનાયી ધ્રુવમનુષ્ય અને અસુર સહિત લેકની અસત્ય પ્ર૩પણા ૩૫ આત્માતનાથી ક્રોન્ડ્રિયાદિ પ્રાણી, વનસ્પતિકાયરૂપ ભૂત, પદ્રિયરૂપ છત્ર અને પૃથ્વી આદિ સત્ત્વ, એ 1 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ आवश्यक सूत्रस्य वनस्पतयः, जीवा = पञ्चेन्द्रिया, सच्चा : = पृथिव्यप्तेजोरायव; प्राणाथ भूताम tara सचाचेत्येतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वे प्राण भूत- जीव-सच्चाः सर्वे च ते प्राण- भूत - जीव- सच्चाथेति सर्व-माण-भूत-जीर-सच्चाः, उक्त च " ' प्राणा द्वि-नि-चतुः प्रोक्ता, भूतास्तु तरत्रः स्मृता । जीवा' पञ्चेन्द्रिया ज्ञेया, शेषा. सच्चा इतीरिताः' इति । 'तेपाम् 'आसायणाए' आगातनया = वितथमरूपणादिरूपया, त्रितथ प्ररूपणा यथा - ' अद्रुष्ठपर्वमात्रात्मवन्तो द्वीन्द्रियादयः भूतसच्चा वनस्पतिपृथि व्यादिरूपा अजीवा एव चेतनगतस्पन्दनादिचेष्टारहितत्वाद, जीवास्तु क्षणिका " इत्यादि । 'कालस्स' कालस्य, 'आसायणाए' आशातनया, कालाऽऽशातना च - ' वर्त्तनालक्षण कालो नास्ति' इत्यपलापरूपा, काल एव कर्ता यथा- 'काल: पचति भूतानि, काल सहरते प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरति क्रमः ॥ इत्येकान्तकालस्वरूपया वा । 'सुयस्स' श्रूयते इति श्रुत भग वनस्पतिका रूप भूत, पञ्चेन्द्रियरूप जीव और पृथिवी आदि सत्त्व, इन सबकी असत्य प्ररूपणारूप आशातना से, वह असत्य प्ररूपणा जैसे - ' द्वीन्द्रिय आदिमे आत्मा अगूठे के पर्व (पोर) के बराबर होती है, वनस्पति और पृथिवी आदि तो हलन चलन आदि चेष्टा के न होने से अचेतन ही हैं और जीव भी क्षणिक ही है' इत्यादि । वर्त्तनालक्षण काल नही है' इस प्रकारकी, अथवा 'काल ही सबकुछ करता है जीवो को पचाता है उनका सहार करता और ससार के सोये रहने पर जागता है अतएव काल दुर्निवार है' इस प्रकार काल को एकान्त कर्त्ता माननेरूप आशातना से । भगवान महावीर के मुखचन्द्र से निस्सृत, गणधरके कर्णमें पहुँचा સની અસત્ય પ્રરૂપણારૂપ આશાતનાથી, તે અસત્ય પ્રરૂપણા- જેમકે ઢોન્દ્રિય ાિ આત્મા અશુઠાના પ (પાર)ની ખરાખર હાય છે વનસ્પતિ અને પૃથ્વી વગેરે હલન-ચલન આદિ ચેષ્ટા કરતા નથી તેથી અચેતનજ છે, અને જીવ પણ ક્ષણિક છે' ઇત્યાદિ વનાલક્ષણુ કાલ નથી’ ‘આ પ્રકારની? અથવા કાલજ સર્જે કાઈ કરે છે. જીવાને પચાવે છે તેમના સાર કરે છે અને સ સાર સુવે છે ત્યારે તે કાલ જાગે છે, એટલા માટે ‘ કાલ ' દુર્નિવાર છે' એ પ્રમાણે કાલને એકાન્ત કર્યાં માનવા રૂપ આશાતનાથી, ભગવાન મહાવીરના સુખરૂપચન્દ્રમાથી નિકલી ગણધરના 7 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २६७ वन्मुखमुधाशुनिःमृत-गणधरश्रवणपुटपविष्ट-विशिष्टार्थप्रदर्शकाऽजरामरत्वससाधकवापीयूपमात्र, तस्य, 'आसायणाए' आशातनया-वितथप्ररूपणादिलक्षणया । 'मयदेवयाए' श्रुताधिष्ठात्रीदेवता-श्रुतदेवता-जिनवाणी, तस्याः, 'आसायणाए' आशातनया, अत्राऽऽशातना च-विपरीतश्रद्धानमरूपणादिरूपा । 'वायणायरियस्स' वाचनाचार्यः श्रुताध्यापनाचार्यस्तस्य, 'आसायणाए' आशातनया='अयमध्यापको विनयवन्दनायथै मुहुर्मुहुर्मा प्रेरयति-इत्येवमादिमकथनस्वरूपया। ‘ज वाइद्ध' इत्यादिपदव्याख्या 'आगमे तिविहे' इत्यत्र पट्टिकाया गता ॥ मू० २१ ।। ।। एवमेकविधाऽसयमादारभ्य त्रयस्त्रिंशत्तमपर्यन्तैः स्थानरहंदाघाशावना आ, सामान्य विशेषात्मक पदार्थों के योधक और भव्य जीवों को अजर अमर करनेवाले-वचनामृत स्वरूप श्रुतकी असत्य प्ररूपणा आदि आशातना से। श्रुतदेवता की आशातना से । ये विनय बन्दना आदि के लिये मुझे वारवार तग करते रहते हैं। इस प्रकार की वाचनाचार्य की आशातना से तथा व्याविद्ध-क्रमरहित (आगेपीछे बोलना), व्यत्यानेडित (अपनी मति से पाठ बनाकर बोलना) आदि पूर्वोक्त (पृष्ठ) दोपों से जो कोई अतिचार किया गया हो तो मैं उससे निवृत्त होता है और उसका 'मिच्छा मि दुकड' देता हूँ । सू० २१ ॥ - इस प्रकार एकविध असयम से लेकर तेतीस (३३) स्थानों, तथा अरिहन्त आदिकी आशातनाओं के द्वारा किये गये हुए अतिકાનમાં પહોંચેલા સામાન્ય-વિશેષાત્મક પદાર્થોને બેધક અને ભવ્ય જીને અજરઅમર કરવા વાળા વચનામૃતસ્વરૂપ શ્રુતની અસય પ્રરૂપણુ આદિ આશાતનાથી, ચુત દેવની આશાતનાથી, “એ વિનય વેદના આદિ માટે મને વાર વાર તગ કર્યા કરે છે, એ પ્રમાણે વાચનાચાર્યની આશાતનાથી તથા વ્યાવિદ્ધ-ક્રમાહિત (આગલ પાછલ બેલ), વ્યત્યાઍડિત (પિતાની ઇચ્છાથી પાઠ બનાવી બોલવુ) આદિ પૂર્વ કહેલા (પૃષ્ટ) દથિી જે કાઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તેનાથી નિવૃત્ત થાઉં છું भने तेन 'मिच्छा मि दुक्कड' मा छु (२० २१) આ પ્રમાણે એક સયમથી લઈને તેત્રીસ (૩૩) સ્થાને, તથા અરિહન્ત આદિની આશાતના દ્વાન થયેલા અતિચારેથી નિવૃત્ત થઈને ફરીથી અતિચાર નહિ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ आवश्यकत्रस्य वनस्पतयः, जीवाः पत्रेन्द्रियाः, सचाः पृथिव्यतेजोगायत्र ; प्राणाच भूताभ जीवाथ सचाश्चेत्येतेपामितरेतरयोगद्वन्दे माण भूत-जीव-सत्वाः, सर्वे च ते माण-भूत-जीव-सत्चाचेति सर्व-प्राण-भूत-जीर-सत्वाः , उक्त च 'प्राणा द्वि-त्रि-चतुः मोक्ता, भूतास्तु तरव' स्मृताः। जीया पश्चेन्द्रिया जेयाः, शेषा. सत्वा इतीरिताः' इति । तेपाम् 'आसायणाए' आगातनया त्रितयमरूपणादिरूपया, वितय मरूपणा यथा-'अगष्ठपर्वमानात्मवन्तो द्वीन्द्रियादयः, भूतसत्त्वा वनस्पतिथि व्यादिरूपा अजीवा एव चेतनगतस्पन्दनादिचेष्टारहितत्वाद, जीवास्तु क्षणिका" इत्यादि । 'कालस्स' कालस्य, 'आसायणाए' आशातनया, कालाऽऽशातना च-'वर्तनालक्षण. कालो नास्ति' इत्यपलापरूपा, काल एव कर्ता यथा-'काल: पचति भूतानि, काल. सहरते प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागत्ति, कालो हि दुरति क्रम ॥' इत्येकान्तकालसर्तृत्वरूपया वा । 'मुयस्स' श्रूयते इति श्रुत-भग वनस्पतिकायरूप भूत, पञ्चेन्द्रियरूप जीव और पृथिवी आदि सत्त्व, इन मयकी असत्य प्ररूपणारूप आशातना से, वह असत्य प्ररूपणा जैसे-'दीन्द्रिय आदिमें आत्मा अगठे के पर्व (पोर) के बराबर होती है, वनस्पति और पृथिवी आदि तो हलन चलन आदि चेष्टा के न होने से अचेतन ही है और जीव भी क्षणिक ही हैं' इत्यादि । वर्त्तनालक्षण काल नहीं है। इस प्रकारकी, अथवा 'काल ही सबकुछ करता है जीवों को पचाता है उनका सहार करता और ससार के सोये रहने पर जागता है अतएव काल दुनिवार है। इस प्रकार काल को एकान्त कर्त्ता माननेरूप आशातना से । भगवान महावीर के मुखचन्द्र से निस्सृत, गणधरके कर्णमें पहुँचा સર્વના અસત્ય પ્રરૂપણારૂપ આશાતનાથી, તે અસત્ય પ્રરૂપણ– જેમકે “કન્દ્રિય આદિમાં આત્મા અગુઠાના પર્વ પિ૨ની બરાબર હોય છે વનસ્પતિ અને પૃથ્વી વગેરે હલન-ચલન આદિ ચેષ્ટા કરતા નથી તેથી અચેતન જ છે, અને જીવ પણ ક્ષણિક છે” ઈત્યાદિ વર્તાના લક્ષણ કાલ નથી” “આ પ્રકારની અથવા કાલજ સર્વ કાઈ કરે છે અને પચાવે છે તેમને સહાય કરે છે અને સ સાર સુવે છે ત્યારે તે કાલા જાગે છે, એટલા માટે “કાલ' દુવિાર છે એ પ્રમાણે કાલને એકાન્ત કર્તા માનવા રૂપ આશાતનાથી ભગવાન મહાવીરના મુખરૂપચન્દ્રમાથી નિકળી ગણધરના Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, पतिक्रमणाध्ययनम्-४ २६९ ग्गहधारा पंचमहव्वयधारा अहारससहस्ससीलगधारा अक्खयायारचरित्ता ते सव्वे सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि 'खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमतु मे । मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झ न केणई ॥१॥ ___नमद आलोइय, निदिअ गरहिअ दुगछिय सम्मं । . ॥सू० २२॥ .... N . ... AIRA भ्यः। इदमेव द्र शल्यकर्तन सर्वदुःखमहीणन्त सर्वदुःखानाध्यामि अनुपालभनुपालयन् तस्य विराधनायाम् । पिसम्पये, अकल्प , अक्रिया परिजापछे, अबोधि परियत्स्मरामि यच न सिकस्यातिचारस्य । अनिदानो दृष्टिर्मभूमिषु ये केऽपि व्रतधारा अष्टादश। मनसा मस्तकेन मैत्री मे सर्वभूतेषु, वर मम न १॥ । एवमहमालोच्य, निन्दिला गई यिसा जुगुप्सिला सम्यक् । त्रिविधेन प्रतिक्रामन् , वन्दे जिनाना चतुर्विंशतिम् ।। २ ।। ।। मू० २२ ॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ মানুষ भिचाऽतिचारेभ्यः प्रतिक्रान्तः पुनरतिचाराकरणार्य प्रविचिक्रसयाऽऽदौ नमस्करोति-नमो चउनीसाए' इत्यादिना । ॥ मृलम् ॥ _ नमो चउवीसाए तित्थयराण उसभाइमहावीरपज्जवसाणाणं। इणमेव निग्गथ पावयण सच्च अणुत्तर केवलिय पडिपुन्न नेयाउयं संसुद्ध सल्लंगत्तण सिद्धिमग्ग मुत्तिर्मग्ग निजाणमग्ग निवाणमग्ग अवतिहमविसधि सव्वटुक्खप्पहीणमग्ग। इत्थ ठिआ जीवा सिज्झति बुज्झति मुञ्चति परिनिबायति सव्वदुक्खाणमत करति । त धम्म सदहामि पत्तियामि रोएमि फासेमि पालेमि अणुपालेमि। त धम्म, सदहतो पत्तियतो रोअतो फासतो पालतो अणुपालतो तस्स धम्मस्स केबलिपन्नत्तस्स अभुठिओमि आराहणाए विरओमि विराहणाए, असजम परियाणामि, सजम उवसपजामि, अबभ परियाणामि वभ उवसपज्जामि। अकप्प परियाणामि, कैप्प उसपज्जामि । अन्नाण परियाणामि, नाण उवसपज्जामि। अकिरिय परियाणामि, किरियं उवसपनामि। मिच्छत्त परियाणामि, सम्मत्त उवसपज्जामि। अबोहि परियाणामि, बोहि उवसपजामि । अमग्ग परियाणामि, मग्ग उवसपज्जामि । ज सभराभि ज च न सभरामि, ज पडिकमामि ज च न पडिकमामि तस्स सव्वस्स देवसियस्स अइयारस्स पडिकमामि । समणोह सजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मो अनियाणो दिहिसपन्नो मायामोसविवजिओ अढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु जावति केइ साहू रयहरणमुहपत्तियगोच्छगपडिचारों से निवृत्त हो कर फिरसे अतिचार न करने के लिए प्रतिक्रमण करना जरूरी है, इसलिये प्रथम नमस्कार करते हुए प्रतिक्रमण करते हैं-'नमो चोवीसाए' इत्यादि। કરવા માટે પ્રતિક્રમણ કરવું એ જરૂરની વસ્તુ છે, એટલા માટે નમસ્કાર કરીને प्रतिभय ४३ छ 'नमो चोवीसाए' ४त्या Page #449 --------------------------------------------------------------------------  Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ आवश्यकत्रस्व भिवाऽतिचारेभ्यः प्रतिक्रान्तः पुनरतिचाराकरणाथै प्रतिक्रिसयाऽऽदौ नमस्करोति 'नमो चउरीसाए' इत्यादिना । ॥ मूलम् ॥ ' नमो चउवीसाए तित्थयराण उसभाइमहावीरपज्जवसाणाण। इणमेव निंग्गथ पवियण सच्च अणुत्तर केवलिय पडिपुन्न नेयाउयं ससुद्ध सल्लगत्तण सिद्विमग्ग मुत्तिमग्ग निजाणमग्ग निवाणमग्गअवतिहमविसधि सव्ववखप्पहीणमग्ग। इत्थ ठिआ जीवा सिज्झति बुज्झति मुच्चति परिनिव्वायति सव्वदुक्खाणमत करति । त धम्म सदहामि पत्तियामि रोएमि फासेमि पालेमि अणुपालेमि। त धम्म सहहतो, पत्तियतो रोअतो फासतो पालतो अणुपालतो तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अदभुठिओमि आराहणाए विर ओमि विराहणाए, असजम परियाणामि, सजम उवसपजामि, अबभ परियाणामि बभ उवसपज्जामि। अकप्प परियाणामि, कप्प उवसपंजामि । अन्नाण परियाणामि, नाणं उवसंपन्जामि। अकिरिय परियाणामि, किरिय उवसपज्जामि। मिच्छत्त परियाणामि, सम्मत्त उवसपज्जामि। अवोहि परियाणामि, बोहि उवसपज्जामि। अमग्ग परियाणामि, मग उक्सपजामि । ज सभराभि ज च न सभरामि, ज पडिकमामि ज च न पडिकमामि तस्स सव्वस्स देवसियस्स अइयारस्स पडिकमामि । समणोह सजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मो अनियाणो दिहिसपन्नो मायामोसविवजिओ अढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु जावति, केइ साहू रयहरणमुहपत्तियगोच्छगपडिचारों से निवृत्त हो कर फिरसे अतिचार न करने के लिए प्रति. क्रमण करना जरूरी है, इसलिये प्रथम नमस्कार करते हुए प्रतिक्रमण करते हैं-'नमो चोवीसाए' इत्यादि । કરવા માટે પ્રતિક્રમણ કરવું એ જરૂરની વસ્તુ છે, એટલા માટે નમસ્કાર કરીને प्रतिभy 'नमो चोवीसाए' त्यादि Page #451 --------------------------------------------------------------------------  Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० - - - || टीका ॥ 'चउवीसाए.' इति स्पष्टोऽयः । 'उसमाइ०' अत्र मालाचतुर्य] पष्ठी, व्यक्तमन्यत् । एत्र नमस्कृत्य तीर्थङ्करमणीतमवचनमशसनपूर्वकं प्रकृतमाह_ 'इणमेव' इदमेव नान्यत्, "निग्गथ' नैन्य-निर्गता ग्रन्थान्द्रव्यतः स्वर्णाः दयो, भावतो मिथ्यात्वाऽविरत्यादिलक्षणा येभ्यस्ते, यद्वा अन्येभ्यो निष्कान्ता निर्ग्रन्थाः गुनयस्तेपामिदम् ‘पावयण' प्राण यथार्थत उच्यन्ते पदार्था यत्र तत्मवचन तदेव पावचनम् -स्वापिकः प्रज्ञादिपाठादण। सामायिकप्रभृतिमत्या ख्यानपर्यन्त द्वादशाङ्ग गणिपिटक वा, एतदेव विशिनष्टि-'सच' इत्यादिना, सन्तः पाणिनः पदार्था-मुनयो वा तेभ्यो हित, सत्म-मुनिजीवादिपदायेंषु यथा: क्रम मुक्तिमापकत्व-यथास्थितचिन्तनाभ्यां साधु वा सस्यम्', यद्वा सन्तमयमाययतिमत्यायतीति निरुक्तमक्रियया सत्यम् । 'अणुत्तर' न उत्तरम् उच्चतर (प्रधान) यस्माचदनुत्तरम्-अनन्यसदृश मित्यर्थः । 'केवलिय' केवलिना प्रोक्त यद्वा केवलमेव कैवलिकम्-अद्वितीयमि श्री ऋषभदेव स्वामी से लेकर श्री महावीर स्वामी पर्यन्त चौबीसो तीर्थङ्कर भगवान को मेरा नमस्कार हो। इस प्रकार नमस्कार करके तीर्थङ्कर प्रणीत प्रवचनकी स्तुति करते हैं-यही निर्ग्रन्य अर्थात् स्वर्ण रजत आदि द्रव्यरूप और मिथ्यात्व आदि भावरूप ग्रन्थ (गांठ) से रहित-मुनिसम्बन्धी सामायिक आदि प्रत्याख्यानपर्यन्त द्वादशाङ्ग गणिपिटकस्वरूप तीर्थङ्करों से उपदिष्ट प्रवचन, सत्य, सर्वोत्तम, अद्वितीय, समस्त गुणों से परिपूर्ण, मोक्षमागे શ્રી ઇષભદેવ સ્વામીથી આર ભીને શ્રી મહાવીર સ્વામી સુધી વીસ તીર્થકરભગવાનને મારા નમસ્કાર છે આ પ્રમાણે નમસ્કાર કરીને તીર્થકર 'પ્રણીત પ્રવચનની સ્તુતિ કરે છે આ નિર્ચન્વ-અર્થાત સનું-ચાદી આદિ દ્રવ્યરૂપ અને મિથ્યાત્વ આદિ ભાવરૂપ ગ્રન્થ-ગાઠથી રહિત-મુનિ સ બધી સામાયિક આદિ પ્રત્યા ખ્યાન પર્યન્ત બાર અગ ગણિપિટસ્વરૂપ તીર્થકરથી ઉપદેશાએલું પ્રવચન, સત્ય, સર્વોત્તમ, અદ્વિતીય, સમસ્ત ગુણેથી પરિપૂર્ણ, મોક્ષમાર્ગ પ્રદર્શક, અગ્નિમા १- तस्मै हित'-मिति, 'तत्र साधु'-रिति वा यत् प्रत्ययः । २-बोषयति । A. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम् -४ २७१ विभात्रः, 'पडिपुन्न' प्रतिपूर्ण सूत्रतोऽक्षरमात्रादिन्यूनतया, अर्थतोऽध्याहाराssकाङ्क्षादिभि रहित सर्वममाणोपेतमपवर्गमापककृत्स्नगुणसयुत वा । 'नेयाउद ' न्यायेन चरति न्यायमनुगच्छति न्यायमनतिक्रान्त न्याये भव वा नैयायिक- मोक्षगमकम् । 'समृद्ध' स = सामस्त्येन शुद्ध = कपायादिमलरहित निर्वाच्छेद-तापताडन - कोटिविशुद्ध हेमवन्निर्दोषमिति यावत् । 'सल्लगत्तण' शल्य = मायादि पाप वा कृन्तति = छिनतीति कृत्यते = छियतेऽनेनेति वा शल्यकर्त्तनम् । वादिमत प्रतिक्षिपति - 'सिद्धिमग्ग' सिद्धि साध्य निष्पत्तिः अविचलमुखमाप्तिस्तस्या मार्ग उपाय:- सिद्धिमार्ग । 'मुत्तिमग्ग' मुक्ति = अहितार्थकर्ममहाण, तस्य मार्ग | विप्रतिपत्तिं निरस्यति - 'निज्जाणमग्ग' निर्याण सकलकर्मभ्य आत्मनो निःसरण, तस्य मार्गों निर्याणमार्ग = विशिष्टनिर्वाणावाप्तिनिदानमित्यर्थः । 'निव्वाणमग्ग' निर्वाण=निर्वृति = निखिलकर्मक्षयजन्य परममुख, यद्वा निर्वायते = अपुनरा - वृत्ति गम्यतेऽस्मिन्निति, तस्य मार्गों निर्वाणमार्ग' । वस्त्वन्तर पूर्वतः सुस्थमपि कालान्तरेण विक्रियते मवचन तु न तथा काल्त्रयेऽप्यविकृतत्वादिति निगमयन्नाह'अवितह' अवितथ = तथ्यम्, आह- सत्याऽवितथयो. पर्यायत्वात् पौनरुक्तय कथ नेति ? उच्यते- पूर्व सत्यार्थप्रतिपादकत्वात्सत्यमित्युक्तमिह तु सवस्वरूपत्वादवितयमिति 'अविसधि = अव्यवच्छिन्नम्, एतच्च विदेहक्षेत्रमपेक्ष्योक्त, भरतक्षेत्रायप्रदर्शक, अग्निमें तपाये हुए सोने के समान निर्मल (कषाय मलसे रहित), मायादि शल्यका नाशक, अविचल सुखका साधन मार्ग, कर्मनाशका मार्ग, आत्मा से कर्मको दूर करनेका मार्ग, शीतलीभूत होनेका मार्ग, अवितथ अर्थात् तीनों कालमें भी अविनाशी, महाविदेह क्षेत्रकी अपेक्षा सदा और भरतक्षेत्र आदिकी अपेक्षा हकीम हजार वर्ष रहनेवाला और सन दुखों का नाश करनेवाला मार्ग है। તપાએલા સેાના સમાન નિર્મલ ( કષાયમલથી રહિત ), માયાદિશલ્યનાશક, અવિચલ સુખના સાધન-મા, કર્માંનારા કરવાના માર્ગ, આત્માને લાગેલા કર્મને દૂર કરવાના માર્ગ, શીતલીભૂત થવાનેા મા, અતિથ અર્થાત ત્રણે કાલમા અવિનાશી, મહાવિદેહ ક્ષેત્રની અપેક્ષા સદા અને ભરતક્ષેત્ર આદિની અપેક્ષા એકવીશ હજાર વર્ષ રહેવાવાળા અને સર્વ દુઃખને નાશ કરવાવાળા માર્ગ છે टि १ - क्रियाविशेषमिदम् । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० भावश्यकस्मत ॥ टीका ॥ ___'चउवीसाए.' इति स्पष्टोऽयः । 'उसमाइ०' अत्र मासाचतुर्थ्य पष्ठी, व्यक्तमन्यत् । एवं नमस्कृत्य वीर्यवरमणीतमवचनमशसनपूर्वक प्रकृतमाह'इणमेव' इदमेव नान्यत्, 'निग्गय' नम्रन्य-निर्गता ग्रन्थान्द्रव्यतः स्वर्णा दयो, भावतो मिथ्यात्वाऽविरत्यादिलक्षणा येभ्यस्ते, यद्वा अन्येभ्यो निष्कान्ता निर्ग्रन्थाः मुनयस्तेपामिदम् ‘पावयण' प्रकर्षेण यथार्थत उच्यन्ते पदार्था यत्र तत्मवचन तदैव प्रावचनम् वॉर्थिकः प्रज्ञादिपाठादण। सामायिकमभृतिमत्या ख्यानपर्यन्त द्वादशाङ्ग गणिपिटक वा, एतदेव विशिष्टि-'सच' इत्यादिना, सन्तः पाणिनः पदार्था-मुंनयो वा तेभ्यो हित, सत्मभुनिजीवादिपदायेंषु यथा क्रम मुक्तिमापकत्व यथावस्थितचिन्तनाभ्या साधु वा सत्यम्' , यद्वा सन्तमयमाययति-प्रत्यायतीति निरुक्तपक्रियया सत्यम् । 'अणुत्तर' न उत्तरम् उच्चतर (प्रधान) यस्मात्तदनुतरम्-अनन्यसांशमित्यर्थः । 'केवलिय' केवलिना प्रोक्त यद्वा केवलमेव कैवलिकम्-अद्वितीयमि श्री ऋषभदेव स्वामी से लेकर श्री महावीर स्वामी पर्यन्त चौबीसो तीर्थङ्कर भगवान को मेरा नमस्कार हो । इस प्रकार नमः स्कार करके तीर्थङ्कर प्रणीत प्रवचनकी स्तुति करते हैं-यही निग्रन्थअर्थात् स्वर्ण रजत आदि द्रव्यरूप - और मिथ्यात्वं आदि भावरूप ग्रन्थ (गाठ) से रहित-मुनिसम्बन्धी सामायिक आदि प्रत्याख्यान: पर्यन्त द्वादशाङ्ग गणिपिटकस्वरूप तीर्थङ्करों से उपदिष्टं प्रवचन, सत्य, सर्वोत्तम, अद्वितीय, समस्त गुणों से परिपूर्ण, मोक्षमार्ग શ્રી અષભદેવ સ્વામીથી આરંભીને શ્રી મહાવીરસ્વામી સુધી વીસ તીર્થ કરભગવાનને મારા નમસ્કાર છે આ પ્રમાણે નમસ્કાર કરીને તીર્થ કર "પ્રણીત પ્રવચનની સ્તુતિ કરે છે આ નિન્ય-અર્થાત સેનું-ચાદી આદિ “દ્રવ્યરૂપ અને મિથ્યાત્વ આદિ ભાવરૂપ ગ્રન્થ-ગાઠથી રહિત-મુનિ સબધી સામાયિક આદિ પ્રત્યા ખ્યાન પર્યન્ત બાર અગ ગણિપિટક સ્વરૂપ તીર્થ કરેથી ઉપદેશાએલું પ્રવચન, સત્ય, સર્વોત્તમ, અદ્વિતીય, સમસ્ત ગુણેથી પરિપૂર્ણ, મોક્ષમાર્ગ પ્રદક, અગ્નિમાં १-'तस्मै हित'-मिति, 'तत्र साधु'-रिति वा यत् प्रत्यय । २-बोधयति । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माग निरस्यामार्ग:विजय परम मुनितोषणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २७१ तिभावः, 'पडिपुन्न' प्रतिपूर्ण सूत्रतोऽक्षरमात्रादिन्यूनतया, अर्थतोऽध्याहाराऽऽकाक्षादिभिश्च रहित सर्वप्रमाणोपेतमपवर्गमापककृत्स्नगुणसयुत वा। 'नेयाउर' न्यायेन चरति न्यायमनुगच्छति न्यायमनतिक्रान्त न्याये भव वा नैयायिष-मोक्षगमकम् । 'समुद्ध' स-सामस्त्येन शुद्ध पायादिमलरहित निघर्षच्छेद-तापताडन-कोटिविशुद्धहेमवन्निदोपमिति यावत् । 'सल्लगत्तण' शल्य-मायादि पाप वा कृन्तति-छिनत्तीति, कृत्यते-छियतेऽनेनेति वा शल्यकर्तनम् । वादिमत प्रतिक्षिपति-'सिदिमग्ग' सिद्धिा-साध्यनिष्पत्तिः अविचलमुखमाप्तिस्तस्या मार्ग. उपायः-सिद्धिमार्गः। 'मुत्तिमग्ग' मुक्तिः अहितार्थकर्मपहाण, तस्य मार्ग । विमतिपत्ति निरस्यति-'निज्जाणमग्ग' निर्माण सकलकर्मभ्य आत्मनो निःसरण, तस्य मार्गों निर्याणमार्ग:-विशिष्टनिर्वाणावाप्तिनिदानमित्यर्थः । 'निवाणमग्ग' निर्वाण-निर्वृतिः निखिलकर्मक्षयजन्य परममुख, यद्वा निर्वायते अपुनरा .. वृत्ति गम्यतेऽस्मिन्निति, तस्य मार्गों निर्वाणमार्गः । वस्त्वन्तर पूर्वतः मुस्थमपि कालान्तरेण विक्रियते प्रवचन तु न तथा कालत्रयेऽप्यविकृतत्वादिति निगमयन्नाह'अवितह' अवितथ-तथ्यम्, आह- सत्याऽवितथयो. पर्यायत्वात् पौनरुपय कथ नेति ? उच्यते-पूर्व सत्यार्थप्रतिपादकत्वात्सत्यमित्युक्तमिह तु सत्वस्वरूपत्वादवितयमिति 'अविसधि अव्यवन्छिन्नम्, एतच्च विदेहक्षेत्रमपेक्ष्योक्त, भरतक्षेत्रायप्रदर्शक, अग्निमें तपाये हुए सोने के समान निर्मल (कपाय मलसे रहित), मायादि शल्यका नाशक, अविचल सुखका साधन मार्ग, कर्मनाशका मार्ग, आत्मा से कर्मको दूर करनेका मार्ग, शीतलीभूत होनेका मार्ग, अवितथ अर्थात् तीनों कालमें भी अविनाशी, महाविदेह क्षेत्रकी अपेक्षा सदा और भरतक्षेत्र आदिकी अपेक्षा इक्कीस हजार वर्ष रहनेवाला और सर दुखों का नाश करनेवाला मार्ग है। તપાએલા સોના સમાન નિર્મલ (કપાયમલથી રહિત), માયદિશયનાશક, અવિચલ સુખને સાધન-માર્ગ, કર્મનાશ કરવાને માર્ગ, આત્માને લાગેલા કર્મને દૂર કરવાને માર્ગ, શીતલીભૂત થવાને માર્ગ, અવિતથ અર્થાત ત્રણે કાલમા અવિનાશી, મહાવિદેહ ક્ષેત્રની અપેક્ષા સદા અને ભરતક્ષેત્ર આદિની અપેક્ષા એકવીશ હજાર વર્ષ રહેવાવાળે અને સર્વ દુ અને નાશ કરવાવાળો માર્ગ છે ठि १-क्रियाविशेषमिदम् । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ आवश्यकमुत्रस्य पेक्षयैकविंशतिसहस्रान्छिन्नाण्येर निरपच्छेदमपस्थिते । सम्बदुक्खापहीणमग्ग' सर्वदुःखपक्षीण=निःश्रेयस तस्य मार्गः सर्वदुःखमक्षीणमार्गः । - ' इत्य प्रपचनस्य विशेषणमाहुल्येन यन्निर्गलित तदाह-'इत्थठिया' इत्यमिति 'अ' इत्यस्यार्थेऽव्ययम् , इत्यम् अत्र=मोक्तविशेषणविशिष्टे निर्ग्रन्य मवचने स्थिता' वर्तमानाः जीनामाणिनः, 'सिझति' सियन्ति-सिद्धिगति माप्नुवन्ति 'अणिमायष्टसिद्रियुक्ता भान्ति । 'युज्झति' चु-यन्ते केवरिनो भवन्ति, मुञ्चति' मुच्यन्ते-कर्मबन्धात्पृथय् भान्ति 'परिनिव्यायति' परिनि वान्ति सर्वथा सुखिनो भवन्ति । 'सन्दुक्साणमत करति सर्वाणि च तानि दुःखानि सर्वदुःखानि शारीरमानसादीनि तेपामन्तो नाशस्त कुर्वन्ति । इत्य ज्ञात्वा ससारसागर तितीपुरात्मानमुद्दिश्याऽऽह-त' तम्=पूर्वोक्तविशेषण: विशिष्टम् , 'धम्म' धर्म-निर्ग्रन्थमवचनस्वरूपम् 'सदहामि' श्रद्दधे-अयमेव केवल. ससारपारावारपारोत्तारक इति भावये । 'पत्तियामि' प्रत्येमि-विश्वा• इस मार्गमें रहे हुए प्राणी सिद्धगति से, अथवा अणिमा आदि आठ सिद्धियों से युक्त होते हैं, केवल पदको प्राप्त होते हैं, कर्मबन्ध से मुक्त होते है, सर्व सुख को प्राप्त होते हैं और शारीरिक मानसिक सर्व दुखोंसे निवृत्त होते है। उस धर्मकी में श्रद्धा करता हूँ अर्थात् एक यही ससार समुद्र से तारनेवाला है ऐसी भावना करता हूँ, अन्त करण से प्रतीति करता हूँ, उत्साहपूर्वक आसेवन करता हूँ, आसेवना द्वारा स्पर्श करता हूँ और प्रवृद्ध परिः . આ માર્ગમાં રહેલા પ્રાણી સિદ્ધગતિથી અથવા અણિમાદિ આઠ સિદ્ધિઓથી યુત હોય છે, કેવલપદને પ્રાપ્ત થાય છે, કર્મબન્ધથી મુકત થાય છે, સર્વ સુખને પ્રાપ્ત કરે છે અને શારીરિક માનસિક દુખોથી નિવૃત્ત થાય છે તે ધર્મની હુ-શ્રદ્ધા કરૂ છુ અર્થાત આ સ સાર સમુદ્રથી તારવાવાળો તે એકજ છે એવી ભાવના કરૂ ધુ, અત્ત કરણથી પ્રતીતિ કરૂ છુ ઉત્સાહપૂર્વક આસેવન કરૂ છુ, આસેવના દ્વારા સ્પર્શ કરૂ છું, અને પ્રવૃદ્ધ પરિણામ-ઉચ ભાવથી પાલન કરૂ છુ, અને સર્વથા નિરતર આરાધના કરૂ છુ તે ધર્મમાં શ્રદ્ધા કરતે થકે, પ્રતીતિ કરતો થક, રુચિ રખિતે १- अणिमादयो यथा-"अणिमा महिमा चव गरिमा लघिमा तथा। प्राप्ति प्राभ्यमीशिव, शित्व चाटद्रिय " इति ॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ सभूमिं करोमि, यद्वा पतिपये-पीत्या मामोमि । 'रोएमि' रोचयामि-उत्सा हातिरेकेणाऽऽसेवनाभिमुखो भवामि 'फासेमि' सेवनाद्वारेण स्पृशामि। 'पालेमि' माद्धपरिणामेन पालयामि । 'अणुपालेमि' अनु अनुकूल पालयामि, यद्वा सर्वतोभावेन करोमि । 'त धम्म' त धर्मम् , 'सद्दहतो' श्रद्दधानः= प्रवचनमिद सत्यमस्ती'-त्येवमात्मपरिणाम कुर्वाणः, 'पत्तियतो' प्रतियन् विश्वासभूमि कुर्वन् , यद्वा प्रतिपयमानः पीत्या स्वीकुर्वाणः, 'रोएतो' रोचयमानः रुचिपिपय कुर्वाणः, 'फासतो' स्पृशन् आसेवमान', 'पालतो' पालयन्= प्रद्धपरिणामेन सेवमानः, 'अणुपालतो' अनुपालयन् अनुकूल पालयन् , यद्वा सर्वतोभावेन कुर्वन्, 'तस्स' तस्य पूर्वोक्तस्य 'केवलिपन्नत्तस्स' केवल्पिज्ञप्तस्य, 'धम्मस्स' धर्मस्य, 'अन्भुटिओमि' अभ्युत्थितोऽस्मि उयतो भवामि 'आराहणाए' आराधनायामर्थादासेवनाविपये, 'विरओमि' विरतोऽस्मि,निवृत्तोऽस्मि 'विराहणाए' विराधनाया-खण्डनायाम् । एप एवार्थों विभिद्योच्यते-यत एवमतः-'असजम परियाणामि' असयमा पाणातिपातायकुशलानुष्ठानरूपः सयमाभावस्त परिजानामि-ज्ञपरिज्ञावलेन ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यजामि। 'सनम' सम्-शोभनाः यमाः माणातिपातादिनिवृत्तिरूपा यस्मिन्, यद्वा सयभ्यते-निवर्त्यते सायद्यानुष्ठानादात्मा येन स सयमस्तम् 'उवसपज्जामि' णाम (उच्चभाव) से पालता है और सर्वथा निरन्तर आराधना करता है। उस धर्ममें श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता हुआ, रुचि रखता हुआ, स्पर्श करता हुआ, पालन करता हुआ और सम्यक् पालन करता हुआ उस केवलि प्ररूपित धर्म की आराधना के लिए मै उद्यत हुआ हूँ, तथा सब प्रकार की विराधना से निवृत्त हुआ हूँ, अतण्व असयम (प्राणातिपात आदि अकुशल अनुष्ठान) की जपरिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से परित्याग कर सावद्य अनुष्ठानથકે, સ્પર્શ કરતો થડે, પાવન કરતો થકે, અને સમ્યફ પાલન કરતે થકે તે કેવલિ-પ્રરૂપિત ધર્મની આરાધના માટે હું તૈયાર થયે છુ, તથા સર્વ પ્રકારની વિરાધનાથી નિવૃત્ત થયો છું, એટલા માટે અસયમ (પ્રાણુતિપાત આદિ અકુશલ અનુષ્ઠાન) ને રૂપરિણાથી જાણીને અને પ્રત્યાખ્યાનપરિણાથી પરિત્યાગ કરીને સાવધ અનુષ્ઠાન નિવૃત્તિરૂ૫ સયમને સ્વીકાર કરૂ છુ મિથુનરૂપ અકૃત્યને છેડી Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ आवश्यकमूत्रस्य उपसम्पधे-स्वीरें । 'अपम' अनम-मैथुनलक्षणाऽकुशलकम परियाणामि' परिजानामि-परित्यजामि । 'बम' ब्रह्म मैथुनपरित्यागलक्षण कुशलकर्मशीलमित्यर्थः, 'उपसपज्जामि' उपसम्पद्ये अङ्गीकर्चे । एवम्-'अप्प' 'अल्पम्मुमुक्षुभिरनाचरित 'कप्प' कल्पाकरण-चरणस्वरूप आचारस्तम्, 'अन्नाण' जीवादिवस्तुनो यथारस्थितस्वरूपानिर्णयलक्षणमज्ञानम् , 'नाण' ज्ञायते-परिच्छि घते वस्त्वनेनास्माद्वेति ज्ञानम-प्रस्तुयथावत्स्वरूपक, यद्वा ज्ञातिनिम्बस्तुयथाव स्वरूपानुभास्तत् , 'अकिरिय' अक्रियाम्, ननोऽत्र दुरर्थक्खादुष्टा क्रियामिति, यद्वा अप्राशस्त्यार्थकोऽत्र नन्, तेनामशस्ता क्रिया नास्तिकवादस्वरूपामित्यर्थः, 'फिरिय' क्रिया सम्यगव्यापारः, सम्यग्वादो वा ताम्, 'मिच्छत्त' मिथ्यात्वतत्त्वार्थाश्रद्धानविपर्यस्तश्रद्धानमित्यर्थः, तथा चोक्तम्-'मिच्छत्त जिणधम्म विवरीय' इति । 'सम्मत्त' सम्यक्त्व सामान्य विशेषाभ्या जिनमणीतजीवादि पदार्थसार्थस्य श्रद्धानम् । 'अबोहि' अबोधि: आत्मनो मिथ्यात्वपरिणामस्तम्। 'वोहिं' चोधि: आत्मनः सफलदुःखक्षयनिदानजिनधर्ममाप्तिस्तम्, 'अमग्ग' निवृत्तिरूप सयम को स्वीकार करता हूँ, मैथुनरूप अकृत्य को छोड कर ब्रह्मचर्यरूप शुभ अनुष्ठान को स्वीकार करता हूँ, अ. कल्पनीय को छोड कर करणचरणरूप कल्प को स्वीकार करता हूँ, अज्ञान को त्याग कर ज्ञान को अङ्गीकार करता हूँ, नास्तिक वादरूप अक्रिया को छोडकर आस्तिकवाद रूप क्रिया को ग्रहण करता हूँ, मिथ्यात्व को त्याग कर सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूँ, आत्मा के मिथ्यात्व परिणामरूप अयोधि को छोड कर सकल दुखनाशक जिनधर्मप्राप्तिरूप बोधि को ग्रहण करता हूँ और जिनमतसे विरुद्ध पार्श्वस्थ निहव तथा कुतीर्थ-सेवित अमार्ग પ્રાચર્યરૂપ શુભ અનુષ્ઠાનને સ્વીકાર કરૂ છુ અકલ્પનીયને છોડીને કરણચરણરૂપ ક૯૫ને સ્વીકાર કરૂ છુ અજ્ઞાનને છોડીને જ્ઞાનને અગીકાર કરું છું નાસ્તિકવાદરૂપ અક્રિયાને ત્યાગ કરીને આસ્તિકવાદરૂપ ક્રિયાને ગ્રહણ કરૂ છું મિથ્યાત્વને ત્યાગ કરીને સમ્યકત્વને સ્વીકાર કરૂ છુ આત્માના મિથ્યાત્વપરિથામરૂપ અધિને છેડીને સકલ દુખને નાશ કરનાર જિનધર્મની પ્રાપ્તિરૂપ બોધિને ગ્રહણ કરૂ છુ, અને જિનમતથી વિરુદ્ધ પાર્શ્વસ્થ નિદ્ધવ તથા કુતીર્થિ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २७५ अमार्गः-जिनवचनविरुद्धपार्श्वस्थनिझवादिकुतीथिससेवितलक्षणस्तम्, 'मग्ग' मार्गो ज्ञानादिरत्नत्रयस्वरूपस्तम्, छद्मस्थत्वात्समस्तदोपशुदिमाह-'ज सभरामि' यत्स्मरामि-स्मृतिपथमानयामि, 'ज च न सभरामि' यच न स्मरामि उद्मस्थत्वेन विस्मृतिस्वाभाव्यात्स्मृतिपथ नाऽऽनयामि, ‘ज पडिकमामि' यत्मतिकामामि-ज्ञात सत् प्रतिनिवर्तयामि परित्यजामि वा, ‘ज च न पडिकमामि' यच्चाऽनाभोगादज्ञात मूक्ष्म न प्रतिक्रमितु शक्नोमि, ' तस्स सव्वस्स देवसियस्स अइयारस्स पडिकमामि' निगदव्याख्यातमिदम् । इत्थ प्रतिक्रम्य सयतविरतादिविशेषणविशिष्ट स्वात्मानमनुस्मरन् सर्वसाधुवन्दना करोति-'समणोह' श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः, तपश्चरणशील: कश्चिदन्यो वा सम्भवतीत्यत आह-सजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मो' सयता वर्तमानकालिकसर्वसावधानुष्ठाननिवर्तकः, विरतः अतीतकालिकपापाज्जुगुप्सापूर्वक भविष्यति च सवरपूर्वक निवृत्तः, अत एन प्रतिहत-सम्यक्रमकारेण को छोड कर ज्ञानादि रत्नत्रय रूप मार्ग को स्वीकार करता हूँ। इसी प्रकार जो अतिचार स्मरण में आता है या छद्मस्थ अवस्था के कारण स्मरण में नहीं आता है तथा जिसका प्रतिक्रमण किया हो या अनजानवश जिसका प्रतिक्रमण नहीं किया हो उन सब दैवसिक अतिचारों से निवृत्त होता हूँ। इस प्रकार प्रतिक्रमण करके सयत-विरतादिरूप निज आत्मा का स्मरण करता हुआ सब साधुओं का वन्दना करता है। सयत ( वर्तमान में सकल सावद्य व्यापारों से निवृत्त) विरत (पहले किये हुए पापों की निन्दा और भविष्य काल के સેવિત અમાર્ગને છેડીને જ્ઞાનાદિ–રત્નત્રયરૂપ માર્ગનો હું સ્વીકાર કરૂ છુ એ પ્રમાણે જે અતિચાર સ્મરણમાં આવે છે અથવા છદ્મસ્થ અવસ્થાના કારણે સ્મરણમાં ન આવે તથા જેનું પ્રતિક્રમણ કર્યું હોય અથવા અજાણપણાથી જેનું પ્રતિક્રમણ ન કર્યું હોય તે સર્વ દેવસિક અતિચારેથી નિવૃત્ત થાઉં છું આ પ્રમાણે પ્રતિક્રમણ કરીને સયત-વિરતાદરૂપ નિજ આત્માનું સ્મરણ કરતે થક સર્વ સાધુઓને વદના કરૂ છું. સચત (વર્તમાનમાં સર્વ સાવધ વ્યાપારેથી નિવૃત્ત), વિરત (પ્રથમ કરેલ. Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - २७४ आवश्यकमूत्रस्य उपसम्पधे-स्वीकुर्ने । 'अपम' अवाम मैथुनलक्षणाऽकुशलकर्म' 'परियाणामि' परिजानामि परित्यजामि । 'वभ' ब्रह्म मैथुनपरित्यागलक्षण कुशलकर्मशीलमित्यर्थः, 'उबसपज्जामि' उपसम्पये अङ्गीकुर्वे । एवम्-'अप्प' 'अकल्पम्मुमुक्षुभिरनाचरित 'कप्प' कल्पःकरण-चरणस्वरूप आचारस्तम्, 'अन्नाण' जीवादिवस्तुनो यथावस्थितस्वरूपानिर्णयलक्षणमज्ञानम्, 'नाण' ज्ञायते परिच्छिघते वस्त्वनेनास्माद्वेति ज्ञानम्-वस्तुयथावत्स्वरूपक, यद्वा ज्ञातिनिम्बस्तुयथाव स्वरूपानुभवस्तत्, 'अकिरिय' अप्रियाम्, नबोऽत्र दुरर्थकलादृष्टा क्रियामिति, यद्वा अमाशस्त्यार्थकोऽत्र नन्, तेनामशस्ता क्रिया नास्तिकवादस्वरूपामित्यर्थः, 'किरिय' क्रिया सम्यगन्यापारः, सम्यग्वादो वा ताम्, 'मिच्छत्त' मिथ्यात्वतवार्थाश्रद्धानविपर्यस्तश्रद्धानमित्यर्थः, तथा चोक्तम्-'मिच्छत्त जिणधम्म विवरीय' इति । 'सम्मत्त' सम्यक्त्व-सामान्य विशेषाभ्या निनप्रणीतजीवादि पदार्थसार्थस्य श्रद्धानम् । 'अबोहि' अबोधि: आस्मनो मिथ्यात्वपरिणामस्तम्। 'वोहि' बोधि: आत्मन. सकलदुःखक्षयनिदानजिनधर्ममाप्तिस्तम्, 'अमग्ग' निवृत्तिरूप सयम को स्वीकार करता हूँ, मैथुनरूप अकृत्य को छोड कर ब्रह्मचर्यरूप शुभ अनुष्ठान को स्वीकार करता हूँ, अ कल्पनीय को छोड कर करणचरणरूप कल्प को स्वीकार करता हूँ, अज्ञान को त्याग कर ज्ञान को अङ्गीकार करता हूँ, नास्तिक वादरूप अक्रिया को छोडकर आस्तिकवाद रूप क्रिया को ग्रहण करता हूँ, मिथ्यात्व को त्याग कर सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूँ, आत्मा के मिथ्यात्व परिणामरूप अयोधि को छोड कर सकल दुःखनाशक जिनधर्मप्राप्तिरूप योधि को ग्रहण करता हूँ और जिनमतसे विरुद्ध पार्श्वस्थ निहव तथा कुतीथि सेवित अमार्ग પ્રાચર્યરૂપ શુભ અનુષ્ઠાનને સ્વીકાર કરૂ છુ અકલ્પનીયને છોડીને કરચરણ રૂપ કપને સ્વીકાર કરૂ છુ અજ્ઞાનને છોડીને જ્ઞાનને અગીકાર કરું છું નાસ્તિકવાદરૂપ અક્રિયાને ત્યાગ કરીને આરિતકવાદરૂપ ક્રિયાને ગ્રહણ કરૂ છું મિથ્યાત્વને ત્યાગ કરીને સમ્યકત્વને સ્વીકાર કરૂ છુ આત્માના મિથ્યાત્વપરિણામરૂપ અધિને છેડીને સકલ દુ ખ નાશ કરનાર જિનધર્મની પ્રાતિરૂપ બોધિને ગ્રહણ કરૂ છું, અને જિનમતથી વિરુદ્ધ પાસ્થ નિદવ તથા કીર્થિ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २७७ वाह्य पृथिव्यादिरजः, आभ्यन्तर-बध्यमानकर्मस्वरूप, कारणे कार्योंपचारात्, ननु-रजोहरणस्पर्शवशादल्पकायाना कुन्थु-मत्कुण-पिपीलिका-मशकादीना जीवाना विनाशस्य, यथेच्छगमनभोज्यादिव्याघातस्य प्रमृष्टरजःप्रभृतिभिः कदाचित् पिपीलिकादिविचरादिसमुद्रणादिनोपघातस्य प्रायः प्रत्यक्षसिद्धत्वाद्रजोहरण सयमयोगाना न कारण प्रत्युताऽनर्थस्य, तस्मान्न धार्यमिति, हजार शीलागरथ के धारक तथा आधाकर्म आदि ४२ दोषों को टाल कर आहार लेने वाले, ४७ दोष टाल कर आहार भोगने वाले, अखण्ड आचार चारित्र को पालने वाले ऐसे स्थविरकल्पी जिनकल्पी मुनिराजों को 'तिक्खुत्तो' के पाठ से वन्दना करता हूँ। यहा पर रजोहरण धारण करने के विषयमे कोई शङ्का करता है कि-रजोहरण धारण करना एक प्रकार की हिंसा का कारण है, क्यों कि रजोहरण के स्पर्श से कुन्यु, पिपीलिका आदि छोटे २ जीवों के इच्छानुकूल चलने फिरने में बाधा हो सकती है, और इसके द्वारा एकत्रित की हुई धूली आदि से पिपीलिका आदि का विवर (दर) ढक जाने पर उनका उपघात होना प्रायः प्रत्यक्ष सिद्ध है, इसलिये रजोहरण सयम योग का कारण नहीं है प्रत्युत अनर्थ का कारण है, अत: इसका धारण करना उचित नहीं है। ૪૨ દેને ટાલી આહાર ગ્રહણ કરનારા, ૪૭ દેષ ટાલીને આહાર ભેગવવાવાળા, અખંડ આચાર ચારિત્ર પાલન કરવાવાળા એવા સ્થવિરકલ્પી જિનકલ્પી મુનિરાજેને તિખુત્તાના પાઠથી વદના કરું છું અહીં રજોહરણ ધારણ કરવા વિષે કોઈ શક કરે છે કે-રજોહરણ ધારણ કરવું એક પ્રકારની હિંસાનું કારણ છે કારણ કે રજોહરણના સ્પર્શથી કુથવા, કીડી આદિ નાના નાના ને સ્વઈચ્છા પ્રમાણે હરવા-ફરવામાં તકલીફ થઈ શકે છે અને એના વડે એકઠી કરેલી પૂલ આદિથી કીડી આદિના દર (રહેવાના દર) ઢકાઈ જવાથી તે જીવને ઉપઘાત થઈ જવુ પ્રાય પ્રત્યક્ષ સિદ્ધ છે એટલા માટે હરણ સ યમ ને સાધક નથી પરંતુ અનર્થનું કારણ છે, માટે એને ધારણ કરવું ઉચિત નથી Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ आवश्यक सूत्रस्य नाशित प्रत्याख्यात च= पूर्वकृतस्याऽतिचारस्य निन्दया, भविष्यतोऽकरणेन च निराकृत पापकर्म = पापानुष्ठान येन स प्रतिहतमत्याख्यातपापकर्मा, सयतवासौ विरतश्च सयतविरतः, (विशेषणयोरपि परस्परविशेष्यविशेषणभावात्समासो गतमत्यागतादिवत्) सयतविरतथासौ प्रतिहतमत्याख्यातपापकर्मा चेति सयतविरतप्रतिहप्रत्याख्यातपापकर्मा, पुनः कीदृशोऽहम् ? 'अणियाणी" अनिदानः = अकृतनिदानः, एतादृशो मिथ्यादृष्टिरपि सम्भवति तस्मादाह - ' दिहिसपन्नो' दृष्टिसम्पन्नः = सम्यग्दर्शनसहितः, अतएव 'मायामोस विवज्जिओ' मायामृपाविवर्जितः = मायामृपावादाभ्या रहितः एव भूत्वा 'अड्ढाइज्जेसु दीनसमुद्देसु' 'अतृतीयेषु द्वीप समुद्रपु= जम्बूद्वीप- धातकीखण्ड - पुष्करार्द्धरूपेषु, 'पन्नरसम्मभूमीसु' पञ्चदशसु कर्मभूमिषु=कर्म=कृषिवाणिज्यप्रभृति मोक्षानुष्ठान वा तत्प्रधाना भूमयः कर्मभूमयः भरतपञ्चकैरवत पञ्चक-महाविदेहपञ्चक-लक्षणास्तासु स्थिता इति शेषः, 'जावति' यावन्तः, 'के' केचित् 'स्यहरणमुहपत्तियगोच्छगप डिग्गहधारा' रजः = बाह्याभ्यन्तर रजो हियते = अपनीयतेऽनेनेति, हरत्यपनयतीति वा रजोहरणम्, तत्र , , लिये सवर करके सकल पापों से रहित), अतएव अतीत अनागत वर्त्तमान कालीन सय पापों से मुक्त, अनिदान - नियाणारहित, सम्यग्दर्शनसहित तथा माया मृषा का त्यागी ऐसा मै श्रमण, अढार दीप पन्द्रह क्षेत्र ( कर्मभूमियों) में विचरनेवाले, रजोहरण पूजनी पात्र को धारण करने वाले और डोरासहित मुखवस्त्रिका को मुख पर बाधनेवाले, पाच महाव्रत के पालनहार और अठारह પાપાની નિન્દા અને ભવિષ્ય કાલ માટે સવર કરીને સર્વ પાપથી રહિત ), એટલા માટે અતીત, અનાગત અને વમાન કાલના સર્વ પાપેાથી મુકત, અનિદાન-નિયાણા રહિત, સમ્યગ્દર્શન સહિત તથા માયામૃષાનેા ત્યાગી એવા હું શ્રમણુ, અઢી દ્વીપ સબધી પદર ક્ષેત્રા (ક ભૂમિ) મા વિચરવાવાળા, રજોહરણ પૂજણી પાત્રને ધારણ કરવાવાળા અને દારાસહિત મુખવસ્તિકાને મુખ પર બાધવાવાળા, પાંચ મહાવ્રતના પાલનહાર અને અઢાર હજાર શીલાગરયના ધારણ કરનાર તથા આધાકમાં આદિ १- अ तृतीय येषु तेऽर्द्वतीयास्तेषु । २ - अर्थमात्रमदर्शनमिद, व्युत्पत्तिस्तु 'रजसो हरण - मित्येवेति मेक्षता सूक्ष्मेक्षिका । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ वाह्य पृथिव्यादिरजः, आभ्यन्तर बध्यमानकर्मस्वरूप, कारणे कार्योपचारात् , ननु-रजोहरणस्पर्शवशादल्पकायाना कुन्थु मत्कुण पिपीलिका मशकादीना जीवाना विनाशस्य, यथेच्छगमनभोज्यादिव्याघातस्य प्रमृष्टरजामभृतिभिः कदाचित् पिपीलिकादिविवरादिसमुद्रणादिनोपघातस्य प्रायः प्रत्यक्षसिद्धत्वाद्रनोहरण सयमयोगाना न कारण प्रत्युताऽनर्थस्य, तस्मान धार्यमिति, हजार शीलाइरथ के धारक तथा आधाकर्म आदि ४२ दोपों को टाल कर आहार लेने वाले, ४७ दोष टाल कर आहार भोगने वाले, अखण्ड आचार चारित्र को पालने वाले ऐसे स्थविरकल्पी जिनकल्पी मुनिराजों को 'तिक्खुत्तो' के पाठ से वन्दना करता हूँ। यहा पर रजोहरण धारण करने के विषयमें कोई शङ्का करता है कि-रजोहरण धारण करना एक प्रकार की हिंसा का कारण है, क्यों कि रजोहरण के स्पर्श से कुन्थु, पिपीलिका आदि छोटे २ जीवों के इच्छानुकूल चलने फिरने में बाधा हो सकती है, और इसके द्वारा एकत्रित की हुई धूली आदि से पिपीलिका आदि का विवर (दर) ढक जाने पर उनका उपघात होना प्रायः प्रत्यक्ष सिद्ध है, इसलिये रजोहरण सयम योग का कारण नहीं है प्रत्युत अनर्थ का कारण है, अतः इसका धारण करना उचित नहीं है। ૪૨ દેને ટાલી આહાર ગ્રહણ કરનારા, ૪૭ દોષ ટાલીને આહાર ભેગવવાવાળા, અખડ આચાર ચારિત્ર પાલન કરવાવાળા એવા સ્થવિરકતપી જિનકલપી મુનિરાજોને તિખુત્તાના પાઠથી વદના કરૂ છું અહીં રજોહરણ ધારણ કરવા વિષે કેઈ શકા કરે છે કે-રજોહરણું ધારણ કરવું એક પ્રકારની હિંસાનું કારણ છે કારણ કે રજોહરણના સ્પર્શથી કુથવા, કીડી આદિ નાના નાના છને સ્વઈચ્છા પ્રમાણે હરવા-ફરવામાં તકલીફ થઈ શકે છે અને એના વડે એકઠી કરેલી ધૂલ આદિથી દોડી આદિના દર (રહેવાના દ૨) ઢકાઈ જવાથી તે જીવને ઉપઘાત થઈ જવુ પ્રાય પ્રત્યક્ષ સિદ્ધ છે એટલા માટે હરણ સયમ ગેને સાધક નથી પરંતુ અનર્થનું કારણ છે, માટે એને ધારણ કરવું ઉચિત નથી Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २७८ भावश्यकमूत्रस्य अत्रोच्यते-अपरिज्ञातरजोहरणग्रहणाऽऽशयत्वाभ्रान्तोऽसि, येन नेत्रे लिदानतो द्विचन्द्रादिमतिभानवदमोहरणधारणस्थाऽन्यथात्वमित्थमाशङ्कसे, हन्त विकृताङ्ग ! नासौ स्वत्पक्षः क्षोदक्षेमक्षमः, नहि क्य धृतरजीहरणा यूयमिव गनिमील्किया सञ्चरामः पर्यटामोऽया निविद्वयवहरामो, येन रजोहरण स्पर्शादिना जीवकेशलेशोऽपि समुत्पधेत, चक्षुपा समीक्ष्य कुन्युपिपीलिकादीना मनुपलम्भे सति उपलम्भेऽपि वा तद्रक्षणसक्षणतयैव तत्राऽप्यतिकोमलोर्णादिरचितेन रनोहरणेन प्रमाम इति कथमुपघातादिसम्भवः ? न द्यपथ्याशिनोऽपरिपाकादिकायदोषमझावात्पथ्याशन केनापि सद्विवेकजुपा विदुपा परिहीयते, जीवाधव इस शका (प्रश्न) का उत्तर देते हैं-अरे भ्राता! रजोहरण धारण करने के आशय से अनभिज्ञ होने के कारण आप भ्रान्त है। इस कारण आपका पक्ष तर्क की कसौटी पर खरा (वराबर) नहीं उतरता, क्यों कि बाह्य-पृथ्वी आदि रज और आभ्यन्तरबाधे हुए कर्मरूपी रज जिससे दूर किया जाय उसे रजोहरण कहते हैं। उस सुकोमल रजोहरण द्वारा हम उपयोग-सहित यत्नायुक्त प्रमार्जन करते हैं, इसलिये प्रमार्जन (पूजने) से जीवापघात होने की सभावना नही हो सकती। यदि किसी को अपथ्य भोजन से अजीर्ण होजाय तो क्या पथ्याहारी लोग पथ्य भोजन करना छोड देंगे ! कदापि नहीं । इसी प्रकार यदि कदाचित् असयमी द्वारा प्रमार्जन करते जीवोपधात આ શકાને ઉત્તર આપે છે કે--અરે ભ્રાતા ! રજોહરણ ધારણ કરવાના આશયથી અનભિજ્ઞ હોવાના કારણે ત્ બ્રાન્ત છે તેથી તમારો પક્ષ તર્કની કસોટી ઉપર બરાબર નથી ઉતરતે, કેમ કે બાહા-પૃથ્વી આદિ રજ અને આભ્યન્તર-બાયેલા કર્મરૂપી રજ જેનાથી દૂર કરી શકાય તેને રજોહરણ કહે છે તે સુકેમલ રજોહરણું દ્વારા ઉપયોગ સહિત યુતનાયુકત પ્રમાર્જન કરીએ છીએ, એ કારણે પ્રમાજન (પૂજવાથી જીપઘાતક થવાની સંભાવના નથી જે કદાચિત કેઈને અપથ્ય આહારથી અજીર્ણ થઈ જાય તે શું પથ્ય આહાર કરવાવાળા માણુ ખાવું છેડી દેશે! ન જ છે. એ જ રીતે જે કદાચિત અસચમી દ્વારા પાતા છાપધાત થઈ જાય તે શું સ યમી રજોહરણને Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ मुनितोपणी टीका, पतिक्रमणाध्ययनम्-४ लोकनपूर्वकेऽपि प्रमार्जने त्वत्कल्पितेन सम्भावितोपघातेन तु वय नाऽपरा-यामो, न वा शास्त्रसिद्धान्तगन्धोऽपि तथा, यतो रजोहरणधारणतत्पमार्जनादिकमस्माभिर्जन्तुजातत्राणार्थमेव क्रियते नतूपघातधिया, अत एव व्यापिग्रस्ताना माणिनामुपकारार्थ चिस्त्सिता विज्ञेन विहिते चिकित्साप्रयोगे कदाचित्तेपा व्यापत्तौ सत्यामपि नासौ प्रायश्चित्ताईचिकित्सकः । किञ्च यदि सम्मार्जनादिना कदाचित्सभावित दोपमपेक्ष्य रजोहरणग्रहणप्रतिषेधाऽऽग्रहग्रहिलोऽसि, तदा मन्ये त्वयाऽशन-पानहो जाय तो क्या सयमी रजोहरण का त्याग करदें ! कदापि नही । क्यों कि सयमी द्वारा जीवोपघात होने की सभावनाही नहीं है। जीवों को देखकर यत्नापूर्वक प्रमाजेन करने पर भी तुमने जो कल्पना की उस सभावित जीवोपघात का अपराध हमें नहीं लग सकता, इस कारण तुम्हारी शङ्का जरा भी शास्त्रानुकूल नहीं है, क्यों कि जीवों की रक्षा के लिये ही सयमी रजोहरण धारण करते हैं एव उसके द्वारा प्रमार्जन करते हैं, उपघात के लिये नहीं। यदि उपकार की दृष्टि से रोगियों की चिकित्सा करने वाले वैद्य की चिकित्सा से किसी रोगी को किसी भी प्रकार की क्षति पहुच भी जाय तो भी वह वैद्य अपराधी नहीं हो सकता, क्यों कि वैद्य रोगी की हितबुद्धि से ही चिकित्सा करता है। ___ इस पर भी यदि तुम रजोहरण धारण करने में आपत्ति समझते हो तो मैं मानता हूँ कि तुम्हें अशन, पान, भ्रमण, ત્યાગ કરી ? ન જ કરે કેમકે સયમી દ્વારા જીપઘાત થવાની સ ભવનાજ નથી જેને જેતા થકા યત્નાપૂર્વક પ્રમાર્જન કર્યા છતા તમે જે કલ્પના કરી તે સભાવિત છપઘાતને અપરાધ અમને નથી લાગી શકતો, એ કારણે તમારી શકા જરાય શાસ્ત્રાનુકુલ નથી, કેમ કે સ યમી મુનિ જીની રક્ષા અર્થે જ રહરણ ધારણ કરે છે તેમજ તેના વડે પ્રમાર્જન કરે છે, જીપઘાત માટે નહી જે ઉપકારની દૃષ્ટિથી રેગિઓની ચિકિત્સા કરવાવાળા વૈદ્યની ચિકિત્સાથી કે રોગીને કઈ પણ જાતની હાનિ પહોંચી પણ જાય તે પણ વૈદ્ય અપરાધી થઈ શકતો નથી, કારણ કે વૈદ્ય તે રોગીની હિતબુદ્ધિથીજ ચિકિત્સા કરવાવાળે છે. તે છતા જો તમે રજોહરણ ધારણ કરવામા આપત્તિ માનશે તે મને માનવ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ आवश्यक सूत्रस्य अत्रोच्यते- अपरिज्ञातरजोहरणग्रहणाऽऽशयत्वाद्भ्रान्तोऽसि येन नेत्रे ऽङ्गुलिदानतो द्विचन्द्रादिमतिभानवद्रजोहरणधारणस्याऽन्यथात्वमित्यमाशङ्कसे, हन्त विकृताङ्ग ! नासौ त्वत्पक्षः क्षोदक्षेमक्षमः, नहि वय धृतरजोहरणा यूयमिव गजनिमीलिकया सञ्चरामः पर्यटामोऽन्यद्वा निश्चिद्वयवहरामो, येन रजोहरण स्पर्शादिना जीवकेशलेशोऽपि समुत्पद्येत, चक्षुपा समीक्ष्य कुन्युपिपीलिकादीना मनुपलम्भे सति उपलम्भेऽपि वा तद्रक्षण सक्षणतयैव तत्राऽप्यविकोमलोर्णादिरचितेन रनोहरणेन प्रमा इति कथमुपघातादिसम्भवः ? न ह्यपथ्याशिनोऽपरिपाकादिकायदोपमद्भावात्पथ्याशन केनापि सद्विवेकजुपा विदुषा परिहीयते, जीवाद्यव इस शका (प्रश्न) का उत्तर देते हैं-अरे भ्राता ! रजोहरण धारण करने के आशय से अनभिज्ञ होने के कारण आप भ्रान्त है । इस कारण आपका पक्ष तर्क की कसौटी पर खरा ( बराबर ) नही उतरता, क्यों कि बाह्य-पृथ्वी आदि रज और आभ्यन्तरबाधे हुए कर्मरूपी रज जिससे दूर किया जाय उसे रजोहरण कहते हैं । उस सुकोमल रजोहरण द्वारा हम उपयोग - सहित यत्नायुक्त प्रमार्जन करते हैं, इसलिये प्रमार्जन ( पूजने ) से जीवो - पघात होने की सभावना नही हो सकती । यदि किसी को अपथ्य भोजन से अजीर्ण होजाय तो क्या पथ्याहारी लोग पथ्य भोजन करना छोड देंगे ! कदापि नहीं । इसी प्रकार यदि कदाचित् असयमी द्वारा प्रमार्जन करते जीवोपघात આ શકાના ઉત્તર આપે છે કે--મરે ભ્રાતા રજોહરણુ ધારણ કરવાના આશયથી અનભિજ્ઞ હાવાના કારણે ત્ ભ્રાન્ત છે તેથી તમારા પક્ષ તર્કની કસેાટી ઉપર ખરાબર નથી ઉત્તરતા, કેમ કે ખાદ્ય પૃથ્વી આદિ રજ અને આભ્યન્તર-ખાધેલા ક રૂપી રજ જેનાથી દૂર કરી શકાય તેને રજોહરણ કહે છે તે સુકેામલ રજોહરણુ દ્વારા ઉપયેગ સહિત તનાયુકત પ્રમાન કરીએ છીએ, એ કારણે પ્રમાન (પૂજવા)થી જીવાપધાતક ચવાની સભાવના નથી જો કચિત કેાઈને અપચ્ય આહારથી અજીણું થઈ કરવાવાળા માણુસા પચ્ચ ખાવું છેડી દેશે! ન જ છે? અસ ચસી દ્વારા પ્રમાન થાતા જીવાપઘાત થઈ જાય તે જાય તે થ્રુ પથ્ય આહાર એજ રીતે જો કદાચિત 2 સયમી રજોહરણના Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम् - ४ ॥ छाया ॥ केऽपि भणन्ति मूढाः, सयमयोगाना कारण नैवम् । रजोहरणमिति प्रमार्जनादिभिरुपघातभावात् ॥ १ ॥ मूइङ्गलिकादीना, विनाशसन्तानभोग्यविरहादयः । रजोदरिस्थगनससर्जनादिना भवत्युपघात ॥ २ ॥ प्रत्युपेक्ष्य प्रमार्जन, - मुपघातः कथं नु तत्र भवेत् । अपमृज्य च दोषा वर्ज्या आदावागाढव्युत्सर्गे ॥ ३ ॥ आत्मपर परित्यागी द्विधापि शास्त्रस्य (शासितुः) अकौशल नूनम् । सर्जनादिदोषा देहे व अविधिना नो भवन्ति ॥ ४ ॥ इव २८१ इत्यास्ता विस्तरः प्रकृतमनुत्रियते मुखवस्त्रिका - वायुकाया दियतनार्थ मुखोपरि दवरकेण बन्धनीयमष्टपुटमुपकरणम्, गुच्छकः = पात्रादिप्रमार्जनीविशेषः, पूँजनी' इति भाषाप्रसिद्धः प्रतिगृह्णाति = भक्तपानादिक स्वस्मिन्नाधत्त इति प्रतिग्रह. = भक्तपानादिपात्रम्, रजोहरण च मुखवस्त्रिका च, गुच्छकश्च प्रतिग्रहखेति रजोहरणमुखवस्त्रिकागुच्छ कप्रतिग्रहास्तान् धरन्ते ये ते रजोहरण-मुखवत्रिकागुच्छक - प्रतिग्रहधारा । इत्थ निवादयोऽपि सभवन्तीति तदपाकरणार्थमाह'पंचमहव्त्रयधारा' पञ्चमहानतानि=पाणातिपाताऽनृतभाषणाऽदत्ताऽऽदाना - ऽब्रह्मचर्य परिग्रहव्युपरमलक्षणानि धरन्त इति पञ्च महाव्रतधारा । न केवलमेत एव किन्तुक्तगुणविशिष्टाः सन्तोऽपि - ' अहारससहस्ससीलगधारा ' अष्टादशसहस्त्रशीलाङ्गधारा । अष्टादशशीलाङ्गसहस्राणि तु यथा-यो न करोति मनसाऽऽहारसञ्ज्ञाविमयुत श्रोत्रेन्द्रियसनृत. क्षान्तिसम्पन्न, पृथिवीकायारम्भम् ( १ ), एवमकायारम्भम् (२), तेजस्कायारम्भम् (३), वायुकायारम्भम् ( ४ ), वनस्प तिकायारम्भम् (५), द्वीन्द्रियारम्भम् (६), त्रीन्द्रियारम्भम् (७), चतुरिन्द्रियारम्भम् (८), पञ्चेन्द्रियारम्भम् (९), अजीवारम्भ च (१०) । एते क्षान्तिपदेन धारा.' कर्मण्यण । 3 " १- ' २ - निनुवत इति निवाः, पचादेराकृतिगणत्वात्कर्त्तर्यच्, यद्वा निह्नवः = अपलापोऽस्त्येपामिति निहवा., निहत्रशब्दादर्श आदित्वान्मत्वर्थीयोऽच, सज्ञेय तान्त्रिकी । ३- धारा. ' कर्मण्यण | Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० । आवश्यकमूत्रस्य भ्रमण-भाषणो-स्थान-पार्श्वपरिवर्तन-मलमूत्रत्यागादिकाः क्रिया अपि परिहरणीया एव स्युः, त्वत्सम्भावितस्योक्तदोपस्य कदाचित्ताभ्योऽपि सद्भावादिति कथ जीवसि ? कथ वा न निगृहीतोऽसीति हि, तूप्णी वाऽऽस्स्त्र, त्वत्पक्षे जीवदयास्वरूपमेव गगनकुसुमायत इति विभावय च । तस्मामुनीना सयम निर्वाहार्थ रजोहरणाशुपकरणग्रहण परमावश्यफमिति वोयम् । अत्र सक्षिप्तपूर्वोचरपक्षसङ्ग्रहगाथा अप्यन्यत्रोक्ता यथा'केई भणति मूढा, सजमजोगाण कारण नेव । रयहरणति पमजण,-माईहुवघायभावाओ ॥१॥ मूइगलिआईण, विणाससनाणभोगविरहाई । स्यदस्थिगण-सस,-जणाऽऽइणा होइ उवघाओ ॥ २ ॥ पडिलेहिउ पमन्जण,-मुवधाओ कहणु तत्थ होजाउ' । अप्पमजिउ च दोमा, बज्जाऽऽदागाढवोसिरणे ॥३॥ आयपरपरिचाओ, दुहावि सत्थस्सऽकोसल नूण । ससज्जणाइदोसा, देहेवाविहीए णो हुति ॥ ४ ॥ भाषण, उत्थान (उठना), शयन, पार्श्वपरिवर्तन (करवट बदलना) और मल-मूत्र-परित्याग आदि क्रियाओं को भी छोडना होगा, क्यों कि तुम्हारे द्वारा कथित दोष इन क्रियाओ में भी आसकता है तो फिर बताओ कि जीवित ही कैसे रह सकोगे? तुम्हारे कथनमे जीवदया का स्वरूप आकाशकुसुम के समान हो जायगा, यह भी सोचो। इसलिये 'किसी भी जीवको किसी प्रकारका कष्ट न पहुँचने पावे' इसी हेतु मुनियोंको रजोहरण आदि उपकरण धारण करना सयमनिर्वाह के लिये अत्यन्त आवश्यक है ! પડશે કે તમને અશન, પાન, ભ્રમણ, ભાષણ, ઉત્થાન (ઉઠવું, શયન, પાર્શ્વ પરિવર્તન (પડખુ ફેરવવું) અને મલમૂત્ર પરિત્યાગ આદિ ક્રિયાઓને છોડી દેવી પડશે કારણ કે તમારા તરફથી કથિત (કહેલ) દેવ એ સર્વ ક્રિયાઓમાં પણ આવી શકે છે, તે પછી કહો કે જીવિતજ કઈ રીતે રહી શકશે. તમારા કથનમાં જીવદયાનું સ્વરૂપ આકાશકસમ સમાન થઈ જશે આ માટે કોઈપણ જીવને કે પ્રકારનું કષ્ટ ન પહેચે આ હેતથી મુનિને રજોહરણ આદિ ઉપકરણ ધારણ કરવું સ યમનિર્વાહ અર્થે અત્યંત આવશ્યક છે - - Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ ॥ छाया ॥ केऽपि भणन्ति मूढाः, सयमयोगाना कारण नैवम् । रजोहरणमिति प्रमार्जनादिभिरुपघातभावात् ॥ १॥ मुइङ्गलिकादीना, विनाशसन्तानभोग्यविरहादयः । रजोदरिस्थगनससर्जनादिना भवत्युपधात. ॥२॥ प्रत्युपेक्ष्य प्रमार्जन,-मुपघातः कथ नु तत्र भवेत् । अपमृज्य च दोपा वा आदावागाढव्युत्सर्गे ॥३॥ आत्मपरपरित्यागो द्विधापि शास्त्रस्य (शासितुः) अकौशल नूनम् । ससर्जनादिदोपा देहे इव अविधिना नो भवन्ति ॥४॥ इत्यास्ता विस्तरः, प्रकृतमनुस्रियते-मुखवत्रिका-वायुकायादियतनाथ मुखोपरि दवरकेण बन्धनीयमष्टपुटमुपकरणम् , गुच्छका पात्रादिप्रमार्जनीविशेषः, पूँननी' इति भाषाप्रसिद्धः, प्रतिगृह्णाति-भक्तपानादिक स्वस्मिन्नाधत्त इति प्रतिग्रहः भक्तपानादिपात्रम् , रजोहरण च मुखवत्रिका च, गुच्छमश्च प्रतिग्रहश्चेति रजोहरणमुखवत्रिकागुच्छकपतिग्रहास्तान् धरन्ते ये ते रजोहरण-मुखवत्रिकागुच्छक-प्रतिग्रहधारा । इत्थ निहवादयोऽपि सभवन्तीति तदपाझरणार्थमाह'पचमहन्वयधारा' पञ्चमहारतानिपाणातिपाताऽनृतभापणाऽदत्ताऽऽदाना-ऽब्रह्मचर्यपरिग्रहव्युपरमलक्षणानि धरन्त इति पञ्चमहाव्रतधारा । न केवलमेत एव किन्तूक्तगुणविशिष्टा. सन्तोऽपि- अहारससहस्ससीलगधारा' अष्टादशसहस्रशीलागधारा । अष्टादशशीलासहस्राणि तु यथा-यो न करोति मनसाऽऽहारसज्ञाविप्रयुत श्रोत्रेन्द्रियसत क्षान्तिसम्पन्न. पृथिवीमायारम्भम् (१), एवमफायारम्भम् (२), तेजस्कायारम्भम् (३), वायुकायारम्भम् (४), बनस्पतिकायारम्भम् (५), द्वीन्द्रियारम्भम् (६), त्रीन्द्रियारम्भम् (७), चतुरिन्द्रियारम्भम् (८), पञ्चेन्द्रियारम्भम् (९), अनीवारम्भ च (१०) । एते शान्तिपदेन १- धाराः' कर्मण्यण् ।। २-निनुवत इति निवाः, पचादेराकृतिगणत्वाकर्त्तयेच, यद्वा निहवः= अपलापोऽस्त्येपामिति निहवा., निहवशब्दादर्श आदित्वान्मत्वर्थीयोऽच्, सज्ञेय तान्त्रिकी। ३- धारा.' कर्मण्यण । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० आवश्यकसूत्रस्य भ्रमण-भापणो-स्थान-पार्चपरिवर्तन-मलमूत्रत्यागादिका. क्रिया अपि परिहरणीया एच स्युः, त्वत्सम्भावितस्योक्तदोपस्य कदाचित्ताभ्योऽपि सद्भावादिति कथ जीवसि ? कथ वा न निगृहीतोऽसीति ब्रूहि, तूष्णीं वाऽऽस्स्त्र, त्वत्पक्षे जीवदयास्वरूपमेव गगनकुसुमायत इति विभावय च । तस्मा मुनीना सयम निर्वाहार्थं रजोहरणाशुपकरणग्रहण परमावश्यकमिति' चोभ्यम् । अत्र सक्षिप्तपूर्वोत्तरपक्षसड्ग्रहगाथा अप्यन्यत्रोक्ता यथा'केई भणति मूढा, सजमजोगाण कारण नेव । रयहरणति पमजण,-माईहुवघायभावाओ ॥१॥ मइगलिआईण, विणाससनाणभोगविरहाई । रयदरिथगण-सस, जणाऽऽइणा होइ उवधाओ ॥२॥ पडिलेहिउ पमजण,-मुवधाओ कहणु तत्थ होज्जाउ'।' अप्पमज्जिउ च दोमा, वज्जाऽऽदागाढवोसिरणे ॥३॥ आयपरपरिचाओ, दुहावि सत्यस्सऽकोसल नूण । ससज्जणाइदोसा, देहेवऽविहीए णो हुति ॥ ४॥ भापण, उत्थान (उठना), शयन, पार्श्वपरिवर्तन (करवट बदलना) और मल-मूत्र-परित्याग आदि क्रियाओं को भी छोडना होगा, क्यो कि तुम्हारे द्वारा कथित दोप इन क्रियाओ में भी आसकता है तो फिर बताओ कि जीवित ही कैसे रह सकोगे' तुम्हारे कथनमें जीवदया का स्वरूप आकाशकुसुम के समान हो जायगा, यह भी सोचो। इसलिये 'किसी भी जीवको किसी प्रकारका कष्ट न पहुँचने पावे' इसी हेतु मुनियोंको रजोहरण आदि उप. करण धारण करना सयमनिर्वाह के लिये अत्यन्त आवश्यक है ! पाये तमान मशन, पान, प्रभा, माप, अत्यान (GB), शयन, पाव परिवर्तन (પડખુ ફેરવવું) અને મલમૂત્ર પરિત્યાગ આદિ ક્રિયાઓને છેડી દેવી પડશે કારણ કે તમારા તસ્કુથી કથિત (કહેલ) દેપ એ સર્વ ક્રિયાઓમાં પણ આવી શકે છે, તે પછી કહે કે જીવિતજ કઈ રીતે રહી શકશે! તમારા કથનમાં જીવદયાનું સ્વરૂપ આકાશકુસુમ સમાન થઈ જશેઆ માટે “ઈપણ જીવને કઈ પ્રકારનું કષ્ટ ન પહોચે” આ તથી મુનિને રજોહરણ આદિ ઉપકરણ ધારણ કરવું એ યમનિર્વાહ અથે અત્યંત આવશ્યક છે Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ अतएव, 'अक्खयाचारचरिता' आचारः = आधाकर्मादिदोपपरित्यागः, चारित्र = सामायिकादि, आचारच चारित्र चेत्याचारचारित्रे, अक्षते = अखण्डिते आचारचारित्रे येषा ते - अक्षताऽऽचारचारित्राः देशतः सर्वतश्चाऽविप्लुताऽऽचारचारित्रा इत्यर्थः । सम्प्रत्युपसजिहीर्षयाऽऽह - ' ते सव्वे' तान् सर्वान्गताँस्तन्निर्गताँश्च जिनकल्पिकादीन् साधून 'सिरसा ' शिरसा = करशिरः सयोगेनेति भावः, अग्रे ' मत्थएण' ( मस्तकेन ) इत्यस्योपादानात्, 'मणसा' मनसा = हृदयेन, 'मत्यण' मस्तकेन शिरसा नतेनेति शेष', अतएव 'सिरसा ' ' मत्थएण' इत्यनयो' पर्यायत्वेऽपि न पौनरुक्त्त्यम्, यत्तु पौनरुक्तचभयाद्गडुलिकामवादेण वा 'मत्थण वदामि' इति वाचा वदेदिति व्याख्यान तदत्यन्ताऽसामजस्यात्सूत्राक्षराभिमायापरिज्ञानाद्वा विद्वदश्रदेयमेवेति सहृदयाः प्रमाणम् । न च - 'सिरसा ' इत्यनेन कायिकस्य ' मणसा' इत्यनेन मानसिकस्य च वन्दनस्योक्तौ वाचिकस्यापि तस्योपादानमावश्यकमेवेति युक्तमेवेति वाच्यम्, 'तान् सर्वान् शिरसा मनसा मस्तकेन वन्दे' इत्युक्तो वाचिकवन्दनम्याऽर्थापत्तिलभ्यत्वात् नहि वाक्प्रयोग विनैत्रमुक्ति: समस्तीत्यास्ता वापत् । इत्थ सर्वसाधून भिवन्द्य निखिप्राणिजातक्षमापणपूर्वक मैत्रीमभिव्यक्ति- 'सव्य०' इति 'सव्वजीवे' सर्वे च ते जीवाः सर्वजीवास्तान् क्षुद्रक्षुद्रेतराखिलमाणिनः, 'खामेमि' क्षमयामि = सर्वेभ्यो जीवेभ्य, क्षमामभिकाङ्क्षामीत्यर्थ, 'सव्वे जीवा' सर्वे जीवाः 'मे' मम अज्ञानादिवशाज्जातमपराधमितिशेषः 'खमतु' क्षमेरन् । 'मे' मम, 'सव्वभूएस' सर्वभूतेषु, 'मित्ती' मैत्री = मित्रभाव अस्तीत्यध्याहियते, 'यत्र २८३ इस प्रकार सन्त मुनिराजों को वन्दना करके समस्त जीवों की क्षमापनापूर्वक मित्रभावना प्रकट करते हैं— 'मे सब जीवों से अपने अपराध की क्षमा मागता है और वे सभी मेरे अपराध की એ પ્રમાણે સન્ત મુનિરાજોને વદના કરીને સમસ્ત જીવેની ક્ષમાપના ક મિત્રભાવના પ્રગટ કરે છે હુ સ છવા પાસે મારા પરાધની ક્ષમા માગુ છુ, અને टि० १ - समस्ति = सभवति । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ आवश्यकमूत्रस्य जाता दश । एव मुक्ति (निर्लोभता) पदेन (१०), आर्जवेन (१०), मार्दवेन (१०), लाघवेन (१०), सत्येन (१०), सयमेन (१०), तपसा (१०), त्यागेन (१०), ब्रह्मचर्येण च (१०); जाताः सर्वे श्रोत्रेन्द्रियपदेन शतमेकम् (१००)। एव चक्षुपा (१००), प्राणेन (१००), रसनया (१००), स्पर्शेन च (१००), जाताः सर्वे आहारसज्ञापदेन शतानि पञ्च (५००)। एव भयसज्ञापदेन (५००), मैथुनसज्ञापदेन (५००), परिग्रहसज्ञापदेन च (५००)। जाताः सर्वे 'न करोति' पदेन सहस्रद्वयम् (२०००), ए 'न कारयति' पदेन(२०००), 'नानुजानाति' पदेन (२०००), जाताः सर्वेः 'मनसा' पदेन पट् सहस्राणि (६०००)। एव वचसा (६०००), कायेन च (६०००), जाताः सर्वेऽष्टादश सहस्राणि शीलाङ्गानि, तानि धरन्ते इत्यष्टादशशीलाइसहस्रधारा इति । उक्त च-- जोए' करणे सण्णा, इदिय भोम्माइ समणधम्मे य । अण्णोण्णेहि अन्भस्था, अट्ठारह सीलसहस्साइ ॥१॥ 3 १० ' छाया-योगाः करणानि सज्ञा इन्द्रियाणि भूम्यादयः श्रमणधर्माश्च । अन्योन्यैरभ्यस्ता अष्टादशशीलसहस्राणि ॥१॥ अठारह हजार शीलागरथ ये हैं-१-पृथ्वीकाय आरम्भ, २अप्काय आरम्भ, ३-तेजस्काय आरम्भ, ४-वायुकाय आरम्भ, ५-वनस्पतिकाय आरम्भ, ६-बेन्द्रिय आरम्भ, ७ तेन्द्रिय आरम्भ, ८-चतु रिन्द्रिय आरम्भ, ९-पचेन्द्रिय आरम्भ, १०-अजीव आरम्भ, ये १० भेद क्षान्ति के हुए, इसी प्रकार मुक्ति के (१०), आर्जव के (१०), मार्दव के (१०), लाघव के (१०), सत्य के (१०), सयम के (१०), तप के (१०), त्याग के (१०), ब्रह्मचर्य के (१०), ये सब श्रोत्रेन्द्रिय के १०० भेद हुए, इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय के १००, घ्राणेन्द्रिय के १००, रसेन्द्रिय के १००, स्पर्शन्द्रिय के १००, ये सब आहार सज्ञा के ५०० भेद हुए, इसी प्रकार भयसज्ञा के ५००, मैथुनसज्ञा के ५००, और परिग्रहसज्ञा के ५०० हुए, इस प्रकार सब २००० भेद एए, इन्हें न करने, न कराने और न अनुमोदन करने के द्वारा तिगुना करने पर ६००० भेद एए, इन्हें फिर मन, वचन, काया से तिगुना करने पर १८००० होते हैं। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनितोपणी टीका, प्रतिक्रमणाध्ययनम्-४ २८३ __अतएव, 'अक्खयाचारचरिता' आचार: आधाकर्मादिदोपपरित्यागः, चारित्र-सामायिकादि, आचारश्च चारित्र चेत्याचारचारित्रे, अक्षते अखण्डिते आचारचारित्रे येपा ते-अक्षताऽऽचारचारित्राः देशतः सर्वतश्चाऽविप्लुताऽऽचारचारित्रा इत्यर्थः । सम्मत्युपसजिहीर्पयाऽऽह-'ते सव्वे' तान् सर्वान् गन्छगताँस्तन्निर्गताँश्च जिनकल्पिकादीन् साधुन् 'सिरसा' शिरसा करशिरःसयोगेनेति भावः, अग्रे 'मत्थएण' (मस्तकेन) इत्यस्योपादानात, 'मणसा' मनसा हृदयेन, 'मत्थएण' मस्तकेन-शिरसा नतेनेति शेप', अतएव 'सिरसा' 'मत्थएण' इत्यनयोः पर्यायत्वेऽपि न पौनरुत्वम्, यत्तु पौनरुत्यभयाद्डलिकामवाहेण वा 'मत्थएण वदामि' इति वाचा वटेदिति व्याख्यान तदत्यन्ताऽसामञ्जस्यात्सूत्राक्षराभिमायापरिज्ञानाद्वा विद्वदश्रद्धेयमेवेति सहृदयाः प्रमाणम् । न च'सिरसा' इत्यनेन कायिकस्य 'मणसा' इत्यनेन मानसिकस्य च वन्दनस्योक्ती वाचिकस्यापि तस्योपादानमावश्यकमेवेति युक्तमेवेति वाच्यम्, 'तान् सर्वान् शिरसा मनसा मम्तकेन वन्दे' इत्युक्तो वाचिकवन्दनस्याऽर्थांपत्तिलभ्यत्वाद, नहि वाक्प्रयोग विनैवमुक्तिः 'समस्तीत्यास्ता तारत् । इत्य सर्वसावूनभिवन्ध निखिलपाणिजातक्षमापणपूर्वक मैत्रीमभिव्यनक्ति-'सब०' इति 'सव्वजीवे' सर्वे च ते जीवाः सर्वजीवास्तान-शुद्रक्षुद्रेतराखिलपाणिनः, 'खामेमि' क्षमयामि सर्वेभ्यो जीवेभ्यः क्षमामभिमासामीत्यर्थ , 'सव्वे जीवा' सर्वे जीवाः 'मे' मम अज्ञानादिवशाजातमपराधमितिशेष 'खमतु' क्षमेरन् । 'मे' मम, 'सव्वभूएमु' सर्वभूतेपु, 'मित्ती' मैत्री मित्रभावः अस्तीत्यध्याहियते, 'यत्र इस प्रकार सन्त मुनिराजों को वन्दना करके समस्त जीवों की क्षमापनापूर्वक मित्रभावना प्रकट करते हैं-'मै सब जीवों से अपने अपराध की क्षमा मागता हूँ और वे सभी मेरे अपराध की એ પ્રમાણે સન્ત મુનિરાજોને વદના કરીને સમસ્ત જીની ક્ષમાપનાપૂર્વક મિત્રભાવના પ્રગટ કરે છે હુ સર્વ જી પાસે મારા અપરાધની ક્ષમા માગુ છું, અને टि० १-समस्ति-सभवति । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २८२ आवश्यकमूत्रस्य जाता दश । एव मुक्ति (निलो मता) पदेन (१०), आर्जवेन (१०), मार्दवेन (१०), लाघवेन (१०), सत्येन (१०), सयमेन (१०), तपसा (१०), त्यागेन (१०), ब्रह्मचर्येण च (१०); जाताः सर्वे श्रोत्रेन्द्रियपदेन शतमेकम् (१००)। एव चक्षुपा (१००), घ्राणेन (१००), रसनया (१००), स्पर्शेन च (१००), जाताः सर्वे आहारसज्ञापदेन शतानि पञ्च (५००)। एव भयसनापदेन (५००), मैथुनसज्ञापदेन (५००), परिग्रहसज्ञापदेन च (५००)। जाताः सर्वे 'न करोति' पदेन सहस्रद्वयम् (२०००), ए 'न कारयति' पदेन(२०००), 'नानुमानाति' पदेन (२०००), जाताः सर्वेः 'मनसा' पदेन पट् सहस्राणि (६०००)। एव वचसा (६०००), कायेन च (६०००), जाताः सर्वेऽष्टादश सहस्राणि शीलाङ्गानि, तानि धरन्ते इत्यष्टादशशीलाइसहस्रधारा इति । उन च-- जोए' करणे सण्णा, इदिय भोम्माइ समणधम्मे य । अण्णोण्णेहि अ०भत्था, अट्ठारह सीलसहस्साइ ॥१॥ ४ ५ १० १० ' छाया-योगाः करणानि सज्ञा इन्द्रियाणि भूम्यादयः श्रमणधर्माश्च । अन्योन्यैरभ्यस्ता अष्टादशशीलसहस्राणि ॥१॥ अठारह हजार शीलाङ्गरथ ये हैं-१-पृथ्वीकाय आरम्भ, २अप्काय आरम्भ, ३-तेजस्काय आरम्भ, ४-वायुकाय आरम्भ, ५-वनस्पतिकाय आरम्भ, ६-बेन्द्रिय आरम्भ, ७-तेन्द्रिय आरम्भ, ८-चतु रिन्द्रिय आरम्भ, ९-पचेन्द्रिय आरम्भ, १०-अजीव आरम्भ, ये १० भेद क्षान्ति के हुए, इसी प्रकार मुक्ति के (१०), आर्जव के (१०), मार्दव के (१०), लाघव के (१०), सत्य के (१०), सयम के (१०), तप के (१०), त्याग के (१०), ब्रह्मचर्य के (१०), ये सब श्रोत्रेन्द्रिय के १०० भेद हुए, इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय के १००, घ्राणेन्द्रिय के १००, रसेन्द्रिय के १००, स्पर्शेन्द्रिय के १००, ये सब आहार सजा के ५०० भेद हुए, इसी प्रकार भयसज्ञा के ५००, मैथुनसज्ञा के ५००, और परिग्रहसज्ञा के ५०० हुए, इस प्रकार सब २००० भेद हुए, इन्हें न करने, न कराने और न अनुमोदन करने के द्वारा तिगुना करने पर ६००० भेद एए, इन्हें फिर मन, वचन, काया से तिगुना करने पर १८००० होते हैं। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, प्रतिक्रमणा ययनम्-४ २८५ चतुर्विंशतिसख्यकान् 'जिणे जिनान् रागद्वेपादिकर्मशत्रुजेतृन् 'वन्दे' वन्दे स्तौम्यभिवादये च। चतुर्विंशतिनिनवन्दनयाऽ ययनसमापन मद्गलार्थम् ।।मु०२२॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगद्वलम-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापारलितललितकलापाऽऽलापक-प्रविशुद्धगयपयनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूउत्रपतिकोल्हापुररानप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य-पदभूपित -कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलाल-तिविरचिताया श्रीश्रमणसूत्रस्य मुनि तोपण्याख्याया व्याख्याया चतुर्थ प्रतिक्रमणाख्यमध्ययन समाप्तम् ॥५॥ इत्यादि रूप) करके तीन करण और तीन योग से निर्मल घना हुआ मैं चौबीसों जिनेश्वरों को नमस्कार करता हूँ॥ ॥ सू० २२ ॥ ॥ इति चतुर्थ अध्ययन सम्पूर्ण ॥ અને ત્રણ વેગથી નિર્મલ બનેલ હુ વીસ જિનેશ્વરેને નમસ્કાર કરૂ છુ (સૂ૨૨) પ્રતિ ચોથુ અધ્યયન સ પૂર્ણ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २८४ आवश्यमूत्रस्य काचन क्रिया नास्ति तनास्तिर्भग्न्तीपरः प्रयोकव्य' इति वैयाकरणसिद्धान्तात् । 'केणवि' केनापि सह, सहार्थे वृतीया, ननु सहशब्दस्य तदर्थकशब्दा न्तरस्य वा प्रयोगाभावेन कथ सहार्थे वतीयेति चेन्मैत्रम् , 'पृथग्विनानानामिस्त तीयाऽन्यतरस्या'-मित्यादाचित्र 'सहेनाऽभधाने' इतिन्यासेनेवः योगार्थलाभे सिद्धे 'सहयुक्तेऽधाने' इत्यत्र युक्तग्रहण 'सहशब्दाभावेऽपि तदर्थमात्रसत्वेऽपि ठतीये'-ति वोधनार्थम् , अत एव 'वृद्धो यूने'-त्यादयो निर्देशा अपि सग च्छन्ते, एतेन 'वीरो युभ्यति कर्मभिः' इत्यादिषु तृतीया क्थमिति प्रत्युक्तमि त्यलमिहातिप्रसङ्गेन, 'मज्झ' मम, 'वेर' वैर-विरोध', 'न' नहि अस्ती तीहापि पूर्ववदध्याहृत ज्ञेयम् । उक्तः क्षमापणापूर्वको मैत्रीभाव., सम्पति मङ्गल मयमुपसहारमाह--'एवमह' एवम् उनः प्रकारैः अहमित्यात्मनिर्देशे, 'सम्म' सम्यक् यथावत् सम्यगित्यस्य सर्वैः क्तान्तैः सह सम्बन्धः, 'आलोइय' आलोच्य आलोचनाविषयीकृत्य, 'निदिय' निन्दित्वा स्वसाक्षिक सम्य विनिन्ध, 'गरहिय' गहित्वा गुरुसाक्षिक सम्यग्विनिन्ध, 'दुगुछिय' जुगुप्सित्वा 'घिड्मा पापकर मूढधिय' मित्यादिभर्त्सनापूर्वक निन्दित्वा, 'तिवि हेण' त्रयो विधामकारा यस्य स त्रिविधस्तेन त्रिप्रकारेण वाड्-मन'-कायलक्षणेन कृत-कारिता-ऽनुमोदित-लक्षणेन चेत्यथ । 'पडिकतो' प्रतिक्रान्तम्क्षालितारिखलातिवारमलतया परमशुचित्यमान , 'चउच्चीस' चतुर्विंशतिम्क्षमा करे, क्यो कि सब जीवों के साथ मेरा मित्रभाव है, किसी के भी साथ वैरभाव नहीं है। इस तरह विधिपूर्वक आलोचना, निन्दा, गीं और जुगुप्सा (पापकारी मुझ मृढात्मा को धिक्कार है તે સર્વ જી મારા અપરાધની ક્ષમા કરે, કારણ કે સર્વ સાથે મારે મિત્રભાવ છે, કોઈની સાથે મારે વૈરભાવ નથી એ પ્રમાણે વિધિપૂર્વક આચના, નિન્દા, ગઈ અને જુગુપ્સા (પાપકારી મારા મૂઢાત્માને ધિકકાર છે ઈત્યાદિ રૂ૫) કરીને ત્રણ કરણ २-भवन्तीपर लट्परः भवन्तीति ल्ट सज्ञा पूर्वाचार्याणाम् । ३-युध धातोरात्मनेपदित्वाधुभ्यतीति युमिन्छतीति क्पनिति सिदातकौमुदी। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, प्रतिक्रमणाभ्ययनम् - ४ २८५ चतुर्विंशतिसख्यकान् ' जिणे' जिनान् रागद्वेषादिकर्मशत्रुजेतॄन् ‘चन्दे' वन्दे= स्तौम्यभिवादये च । चतुर्विंशतिजिनवन्दनयाऽ ययनसमापन मङ्गलार्थम् ॥ ० २२ ॥ इति श्रीविश्वविख्यात - जगवल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषा+लितललितकलापाऽऽलापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनेकग्रन्थनिर्माण - वादिमानमर्दक- श्रीशाहूउनपतिकोल्हापुरराजमदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' - पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर - पूज्यश्रीघासीलाल- प्रतिविरचिताया श्रीश्रमणसूत्रस्य मुनितोपण्याख्याया व्याख्याया चतुर्थ प्रतिक्रमणाख्यमध्ययन समाप्तम् ॥ ५ ॥ इत्यादि रूप) करके तीन करण और तीन योग से निर्मल बना हुआ मैं चौबीसों जिनेश्वरों को नमस्कार करता हूँ || || सू० २२ ॥ ॥ इति चतुर्थ अध्ययन सम्पूर्ण ॥ અને ત્રણ ચેગથી નિ`લ અનેલે! હુ ચાવીસ જિનેશ્વરાને નમસ્કાર કરૂ છુ (સૂ॰ ૨૨) તિ ચાથુ અધ્યયન સપૂર્ણ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ आवश्यकमूत्रस्य काचन क्रिया नास्ति तत्रास्तिर्भग्न्तीपर: प्रयोकव्य'---इति वैयाकरणसिद्धा न्तात् । 'केणवि' केनापि सह, सहार्थे तृतीया, ननु सहशब्दस्य तदर्थकशब्दा न्तरस्य वा प्रयोगाभावेन कथ सहार्थे वतीयेति चेन्मैवम् , 'पृथग्विनानानाभिस्ततीयाऽन्यतरस्या'-मित्यादावि 'सहेनाऽमधाने' इतिन्यासेनैव योगार्थलाभे सिद्धे 'सहयुक्तेऽभधाने' इत्यत्र युक्तग्रहण 'सहशब्दाभावेऽपि तदर्थमात्रसत्वे ऽपि तृतीये'-ति बोधनार्थम् , अत एव 'वृद्धो यूने'-त्यादयो निर्देशा अपि सग च्छन्ते, एतेन 'वीरो युभ्यति कर्मभिः' इत्यादिषु वतीया कथमिति प्रत्युक्तमि त्यलमिहातिप्रसङ्गन, 'मज्झ' मम, 'वेर' वैर-विरोधः, 'न' नहि अस्ती तीहापि पूर्ववध्याहत ज्ञेयम् । उक्तः क्षमापणापूर्वको मैत्रीभावः, सम्मति मङ्गल मयमुपसहारमाह-'एवमह' एवम् उनौः प्रकारैः अहमित्यात्मनिर्देशे, 'सम्म' सम्यक् यथावत् सम्यगित्यस्य सर्वैः तान्तैः सह सम्बन्धः, 'आलोइय' आलोच्य आलोचनाविषयीकृत्य, 'निदिय' निन्दित्वा-स्वसासिक सम्यगविनिन्द्य, 'गरहिय' गहित्वा गुरुसाक्षिक सम्यग्विनिन्ध, 'दुगुछिय' जुगुप्सित्वा='घिड्मा पापकर मूढधिय' मित्यादिभर्त्सनापूर्वक निन्दित्वा, 'तिविहेण' त्रयो विधा:-कारा यस्य स त्रिविधस्तेन-त्रिपकारेण वाङ्-मनः-कायलक्षणेन कृत-कारिता-ऽनुमोदित-लक्षणेन चेत्यथः । 'पडिक्कतो' पतिक्रान्तः= क्षालिताखिलातिचारमलतया परमशुचित्वमाप्त , 'चउच्चीस' चतुर्विंशतिम्क्षमा करे, क्यों कि सब जीवों के साथ मेरा मित्रभाव है, किसी के भी साथ वैरभाव नहीं है। इस तरह विधिपूर्वक आलोचना, निन्दा, गर्दी और जुगुप्सा (पापकारी मुझ मृढात्मा को धिक्कार है તે સર્વ જી મારા અપરાધની ક્ષમા કરે, કારણ કે સર્વ જી સાથે મારે મિત્રભાવ છે, કેઈની સાથે મારે વેરભાવ નથી એ પ્રમાણે વિધિપૂર્વક આચના, નિન્દા, ગોં અને જુગુપ્સા (પાપકારી મારા મૂહાત્માને ધિકકાર છે ઈત્યાદિ રૂ૫) કરીને ત્રણ કરણ २-भवन्तीपर लट्पर' भवन्तीति ल्ट सजा पूर्वाचार्याणाम् । ३-युध धातोरात्मनेपदिलायुध्यतीति युधमिन्उतीति क्यनिति सिदान्तकौमुदी। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, कायोत्सर्गाध्ययनम् = ५ २८७ सिंहासन, अशोकवृक्ष, कुसुमवृष्टि, देवदुन्दुभि, क्षत्र धरावें, चंवर विजायें, पुरुषाकार पराक्रम के धरणहार, अढाई द्वीप पन्द्रहक्षेत्र मे विचरे, जघन्य दो क्रोड केवली और उत्कृष्ट नव क्रोड केवली केवलज्ञान केवलदर्शन के धरणहार सर्व द्रव्य क्षेत्र काल भाव के जाननहार । ऐसे श्री अरिहन्त भगवन्त दीनदयाल महाराज आपकी (दिवस सम्पन्धी) अविनय आशातना की हो तो बारम्बार हे अरिहन्त भगवन् ! मेरा अपराध क्षमा करिये। हाथ जोड, मान मोड, शीस नमाकर १००८ बार नमस्कार करता हूँ । तिम्खुतो आयाहिणं पयाहिण (करेमि ) वन्दामि नमसामि सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाण मंगल देवय चेsय पज्जुवासामि मत्थण वदामि । आप मागलिक हो, उत्तम हो, हे स्वामी । हे नाथ ! आपका इस भव, पर भव, भव भव में सदा काल शरण हो । ऋषभानन भ्वाभी (८) श्री मनतवीर्य स्वाभी, (८) श्री सुरप्रभ स्वामी, (१०) श्री विशासग्रल स्वाभी, (११) श्री वभ्रधर स्वामी, (१२) श्री चंद्रानन स्वामी, ( 13 ) श्री श्रद्रणा स्वाभी, (१४) श्री लुम गद्देव स्वामी (१५) श्री ईश्वर स्वामी, (१६) श्री नेमप्रम स्वाभी, (१७) श्री वीरसेन स्वामी, (१८) श्री महालद्र स्वाभी, ( 16 ) શ્રી દેવરાજ સ્વામી (૨૦) શ્રી અજિતસેન સ્વામી તે વન્ય તીર્થકર ૨૦ અને ઉત્કૃષ્ટ હેય તે ૧૦ અગર ૧૭૦ તેમને મારી તમારી સમય સમયની વદના હાજો । તે સ્વામીનાથ કેવા છે! માને તમારા મન મનની વાત જાણી દેખી રહ્યા છે, ઘટઘટની વાત જાણી દેખી રહ્યા છે, સમય સમયની વાત જાણી દેખી રહ્યા છે, ચૌદ રાજુને અજલીજલ પ્રમાણે જાણી દેખી રહ્યા છે તે સ્વામીને અનત જ્ઞાન છે, અનત દર્શન છે, અનત ચારિત્ર છે, અન ત તપ છે, અનત ધૈ છે, અને અનત વીય છે, એ ષટ (છ) ગુણુ કરી સહિત છે ચેાત્રીશ અતિશયે કરી ખિરાજમાન છે, પાર્કીંગ પ્રકારની મત્ય વચન વાણીના ગુણ્ણા કરી સહિત છે એક હજારને અષ્ટ ઉત્તમ લક્ષણે કરી સહિત છે, અઢાર દ્વેષ રહિત છે, ખાર ગુણે કરી સહિત છે, ચાર કર્માં ઘનઘાતિ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૬ आवश्यकसूत्रस्य - - - - । अथ पञ्चममध्ययनम् ।।। अथ 'इच्छामि खमासमणो' इति पट्टिका द्विः पठित्वा परमेष्ठिना भाववन्दना विधातव्या, तदनु 'अनन्त चउवीसी जिन नमो' इत्यादि पठेत् । ततश्च ॥ अथ पञ्चम अध्ययन ॥ 'नमो चउवीस.' की पट्टी (पाटी) पूरी होने के बाद 'इच्छामि खमासमणो' की पट्टी दो यार बोलकर पचपरमेष्ठी की भाववन्दना करनी चाहिये। पाच पदों की वदना । टि. १- पहिले पद श्री अरिहन्तजी जघन्य घीस तीर्थकरजी उत्कृष्ट एक सौ साठ तथा एक सौ सित्तर देवाधिदेवजी उन में धर्तमान काल में बीस विहरमानजी महाविदेहक्षेत्र में विचरते हैं एक हजार आठ लक्षण के धारणहार, चौतीस अतिशय, पैतीस वाणी करके विराजमान, चौसठ इन्द्रों के वन्दनीय, अठारह दोष रहित, घारह गुण सहित अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-चारित्र, अनन्त-बलवीर्य, अनन्तसुख, दिव्यध्वनि, भामण्डल, स्फटिक અથ પચમઅધ્યયન "नमो चठवीसाए"n पारी पूरी यया पछी "इच्छामि खामासमणो" ની પાટી બે વાર બેલીને પચ પરમેષ્ઠીની ભાવવ દના કરવી જોઈએ ? પહેલા ખામણ-શ્રી અરિહંત દેવને (ગને ઢીચણ નીચા ઢાળી ખામણા બેલા) પહેલા ખામણ શ્રી પચ મહાવિદેહ ક્ષેત્રને વિષે જયવતા તીર્થ કર દેવ બિરાજે છે, તેમને કરૂ છુ તે સ્વામીના ગુણગ્રામ કરતા જઘન્ય રસ ઉપજે તે કર્મની કોડી ખપે અને ઉત્કૃષ્ટ રસ ઉપજે તે આ જીવ તીર્થકર નામ ગોત્ર ઉપાર્જે હાલ બિરાજતા વીશ તીર્થકરોના નામ - (१) श्री सीमधर स्वामी, (0) श्री गुमयर स्वामी, (3) श्री माई स्वाभी, (४) श्री सुमाई स्वामी (५) यी सुन्नत स्वाभी, () श्री २१य प्रम स्वामी, (७) श्री Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, कायोत्सर्गाध्ययनम् = २ २८७ सिंहासन, अशोकवृक्ष, कुसुमवृष्टि, देवदुन्दुभि, क्षत्र धरावें, चँवर विजायें, पुरुषाकार पराक्रम के धरणहार, अढाई द्वीप पन्द्रहक्षेत्र मे विचरे, जघन्य दो क्रोड केवली और उत्कृष्ट नव मोड केवली केवलज्ञान केवलदर्शन के धरणहार सर्व द्रव्य क्षेत्र काल भाव के जाननहार । ऐसे श्री अरिहन्त भगवन्त दीनदयाल महाराज आपकी (दिवस सम्पन्धी) अविनय आशातना की हो तो बारम्बार हे अरिहन्त भगवन् | मेरा अपराध क्षमा करिये। हाथ जोड, मान मोड, शीस नमाकर १००८ बार नमस्कार करता है । तिक्खुतो आयाहिण पयाहिण (करेमि ) वन्दामि नमसामि सकारेमि सम्माणेमि कल्लाण मंगल देवय चेइय पज्जुवासामि मत्थ वदामि । आप मागलिक हो, उत्तम हो, हे स्वामी' हे नाथ! आपका इस भव, पर भव भव भव में सदा काल शरण हो । ऋषभानन स्वाभी (८) श्री मनतवीर्य स्वाभी, (८) श्री सुरप्रभ स्वामी, (१०) श्री विशासयम स्वामी, (११) श्री पपर स्वामी, (१२) श्री चंद्रानन स्वामी, (१३) श्री श्रद्राडु स्वाभी, (१४) श्री सुभ गहेव स्वामी (१५) श्री ईश्वर स्वामी, (१६) श्री नेमप्रम स्वामी, (१७) श्री वीरसेन स्वामी, (१८) श्री महालद्र स्वाभी, (१७) શ્રી દેવરાજ સ્વામી (૨૦) શ્રી અજિતસેન સ્વામી તે વન્ય તીર્થંકર ૨૦ અને ઉત્કૃષ્ટ હાય તા ૧૬ અગર ૧૭૦ તેમને મારી તમારી સમય સમયની વદના હાજો તે સ્વામીનાથ કેવા છે ! માન તમારા મન મનની વાત જાણી દેખી રહ્યા છે, ઘટઘટની વાત જાણી દેખી રહ્યા છે, સમય સમયની વાત જાણી દેખી રહ્યા છે, ચોદ રાજુનેક અજલીજલ પ્રમાણે જાણી દેખી રહ્યા છે તે સ્વામીને અનત જ્ઞાન છે, અનત દર્શન છે, અનત ચારિત્ર છે, અનત તપ છે, અનત ધૈર્ય છે, અને અનત વી છે, એ ષટ (છ) ગુણે કરી સહિત છે ચેાત્રીશ અતિશયે કરીબિરાજમાન છે, પાત્રીગ પ્રકારની મત્ય વચન વાણીના ગુણેા કરી સહિત છે એક હજારને અષ્ટ ઉત્તમ લક્ષો કરી સહિત છે, અઢાર દેષ રહિત છે, માર ગુણુ કરી સતિ છે, ચાર ક ઘનઘતિ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ आवश्यकसूत्रस्य । अथ पञ्चममध्ययनम् । अथ 'इच्छामि खमासमणो' इति पट्टिका द्विः पठित्वा परमेष्ठिना भाव चन्दना विधातव्या, तदनु 'अनन्त चउवीसी जिन नमो' इत्यादि पठेत् । ततश्च ॥ अथ पञ्चम अध्ययन ॥ 'नमो चउवीस.' की पट्टी (पाटी) पूरी होने के बाद 'इच्छामि खमासमणो' की पट्टी दो चार बोलकर पचपरमेष्ठी की भाववन्दना करनी चाहिये। पाच पदों की वदना । टि० १- पहिले पद श्री अरिहन्तजी जघन्य घीस तीर्थकरजी उत्कृष्ट एक सौ साठ तथा एक सौ सित्तर देवाधिदेवजी उन में घर्तमान काल में बीस विहरभानजी महाविदेहक्षेत्र में विचरते हैं एक हजार आठ लक्षण के धारणहार, चौतीस अतिशय, पैतीस वाणी करके विराजमान, चौसठ इन्द्रों के वन्दनीय, अठारह दोष रहित, धारह गुण सहित अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-चारित्र, अनन्त-बलवीर्य, अनन्तसुख, दिव्यध्वनि, भामण्डल, स्फटिक અથ પચમઅધ્યયન "नमो चठवीसाए "नी पटरी पूरी यया पछी "इच्छामि खामासमणो" ની પાટી બે વાર બેલીને પચ પરમેષ્ઠીની ભાવવધના કરવી જોઈએ ? પહેલા ખામણ-શ્રી અરિહંત દેવને (બને ઢીચણ નીચા ઢાળી ખામણા બેલવા) પહેલા ખામણ શ્રી પચ મહાવિદેહ ક્ષેત્રને વિષે જયવતા તીર્થ કર દેવ બિરાજે છે, તેમને કરૂ છુ તે સ્વામીના ગુણગ્રામ કરતા જઘન્ય રસ ઉપજે તે કર્મની ક્રોડી ખપે અને ઉત્કૃષ્ટ રસ ઉપજે તે આ જીવ તીર્થકર નામ ગેર ઉપજે હાલ બિરાજતા વીશ તીર્થકરોના નામ (१) श्री सीम५२ स्वामी, (२) श्रीनगर स्वाभी, (3) श्री माई स्वामी, (४) શ્રી સુબાહ સવામી (૫) થી સુજાત સ્વામી, (૬) શ્રી સ્વયપ્રભ સ્વામી, (૭) શ્રી Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ % 3D मुनितोपणी टीका, कायोत्सर्गाध्ययनम्-५ (१२) अन्यलिंगसिद्धा (१३) गृहस्थलिंगसिद्धा (१४) एकसिद्धा (१५) अनेकसिद्धा, जहा जन्म नहीं, जरा नही, मरण नहीं, भय नहीं, रोग नहीं, शोक नहीं, दुःख नहीं, दारिद्रय नहीं, कर्म नही, काया नहीं, मोह नहीं, माया नहीं, चाकर नही, ठाकर नहीं, भूख नहीं, तृषा नहीं, जोत में जोत विराजमान, सकल कार्य सिद्ध करके चवदे प्रकारे पन्द्रह भेदे अनन्त सिद्ध भगवन्त हुए। अनन्तसुखों में तल्लीन, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, निरायाध, क्षायिक समकित, अटल अवगाहना, अमृर्ती, अगुस्लघु, अनन्तवीर्य, यह आठ गुण करके सहित है। ऐसे श्री सिद्ध भगवन्तजी महाराज आपकी अविनयआशातना की हो तो यारम्वार हे सिद्ध भगवन् ! मेरा अपराध क्षमा करिये, हाथ जोड, मान मोड, शीस नमाकर तिक्खुत्ता के पाठ से १००८ धार नमस्कार करता हूँ। (७) श्री सुपावनाय स्वामी, (८) श्री ५प्रम पाभी, (e) श्री सुविधिनाय स्वामी, (१०)श्री शीतलनाथ पाभी, (११) श्री श्रेयासनाथ स्वामी, (१२) श्री वासुपूज्य स्वाभा, (१३) श्री विभनाथ स्वामी, (१४) श्री सनातनाथ स्वामी, (१८) श्री धर्मनाथ સ્વામી, (૧૬) શ્રી શાંતિનાથ સ્વામી, (૧૭) શ્રી કુંથુનાથ સ્વામી, (૧૮) શ્રી અરનાથ स्वाभी, (१९) श्री मतिनाथ स्वामी, (२०) श्री मुनिसुव्रत स्वाभी, (२१) श्री नभिनाय स्वामी, (२२) श्री नभीनाथ स्वामी, (२३) श्री पावनाय स्वामी, (२४) શ્રી (વીર વર્ધમાન) મહાવીર સ્વામી - આ એક એવીસી અનત વીશી પદર ભેદે મીઝી બુઝી, આઠ કર્મક્ષય કરી મોક્ષ પધાર્યા, તેમને મારી તમારી સમય સમયની વદના હેજે ! આઠકમના નામન્નાનાવરણીય, દર્શનાવરણીય, વેદનીય, મેહનીય, આયુષ્ય, નામ, ગોત્ર અને અતરાય, એ આઠે કર્મક્ષય કરી મુકિત શિલાએ પહેચ્યા છે, તે મુકિતશિલા કયા છે! સમપૃથ્વીથી ૭૯૦ જન ઉચપણે તારા મડળ આવે ત્યાથી દશ જે જન ઉચે સૂર્યનું વિમાન છે, ત્યાથી ૮૦ જેજન ઉચપણે ચંદ્રમાનું વિમાન છે, ત્યાથી ચાર જન ઉચપણે નક્ષત્રના વિમાન છે, ત્યાથી ચાર જેજન ઉચપણે બુધને તારે છે, ત્યાથી ત્રણ જે જન ઉચપણે શુકને તારે છે, ત્યાથી ત્રણ જજન ઉચપણે બૃહસ્પતિને Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ आवश्यकमूत्रस्य दूजे पद श्री सिद्ध भगवान महाराज पन्द्रर भेदे अनन्त सिद्ध हैं । आठ कर्म खपाय के मोक्ष पहुंचे हैं। (१) तीर्थसिद्धा (૨) અતીર્થસિદ્દી, (૩) તીર્થ સિદ, (૪) કતીરા (૧) વા પુનિદ્રા (૬) બધુ સિક્કા ( લુધિતfણા), (૮) સિંહા (8) પુજિસિદ્ધા, (૨૦) નપુરાવા, (૨) સિદ્ધાં ક્ષય કર્યા છે બાકીના ચાર કર્મ પાતળા પડયા છે મુકિત જવાના કામી થકા વીચરે છે, ભવ્ય જીવના સ દેહ ભાગે છે સગી, સશરીરી, કેવળજ્ઞાની, ચાખ્યાત ચારિત્રના ધરણહાર છે, ક્ષાવિક સમકિત, શુકલેશ્યા, શુભધ્યાન, શુભગ સહિત છે, ૬૪ ઇદ્રોના પૂજનીક, વદનિક અર્થનિક છે પડિત વીર્ય આદિ અનત ગુણે કરી સહિત છે ધન્ય તે ગ્રામ, નગર, રાજધાની, પુર, પાટણ જ્યાં જ્યાં પ્રભુ દેશના દેતા થા વિચરતા હશે ત્યા ત્યા રાઈસર, તલવર, માડ બી, કેડ બી, શેઠ, સેનાપતિ, ગાથાપતિ આદિ, સ્વામીની દેશના સાભળી કર્ણ પવિત્ર કરતા હશે, સ્વામીના દર્શન દેદાર કરી નેત્ર પવિત્ર કરતા હશે, અશનાદિક ચૌદ પ્રકારનું દાન દઈ કર પવિત્ર કરતા હશે, ચરણે મસ્તક નમાવી કાયા પવિત્ર કરતા હશે વ્રત પચ્ચખાણ આદરી આત્માને નિર્મળ કરતા હશે અને પ્રશ્ન પૂછી મનના સ દેહ દૂર કરતા હશે, તેમને ધન્ય છે સ્વામીનાથી આપશ્રી ૫ચ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં બિરાજે છે, હું અપરાધી, દીનકિકર, ગુણહીન, અહીંયા બેઠો છુ આજના દિવસ સ બ ધી આપના જ્ઞાન, દર્શન ચારિત્ર, તપને વિષે અવિનય, આશાતના, અભકિત, અપરાધ કીધે હોય તે હાથ જોડી, માન મેડી, મસ્તક નમાવી, ભુજે ભુજે (વાર વાર) કરી ખમાવુ છુ (અહિં તિખુત્તાની પાઠ ત્રણવાર બોલ) બીજા ખામણા–શ્રી સિદ્ધ ભગતેને બીજા ખામણ અનતા સિદ્ધ ભગવતજીને કરૂ છુ તે ભગવતજીના ગુણગ્રામ કરતા જઘન્ય રસ ઉપજે તે કમની કેડી ખપે, અને ઉત્કૃો રસ ઉપજે તે જીવ તીર્થકરનામગોત્ર ઉપાજે આ ભરતક્ષેત્રને વિષે આ વીશીમાં વીશ તીર્થ કરે સદ્ધ થયા, તેમના નામ કહુ છુ - (૧) શ્રી કષભદેવ સ્વામી, (૨) શ્રી અજિતનાથ સ્વામી, (૩) શ્રી સંભવનાથ સ્વામી, (૪) શ્રી અભિનદન સ્વામી, (૫) શ્રી સુમતિનાથ સ્વામી, (૬) શ્રી પદ્મપ્રભ સ્વામી Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, कायोत्सर्गाभ्ययनम्-५ २८९ (१२) अन्यलिंगसिद्धा (१३) गृहस्थलिंगसिद्धा (१४) एकसिद्धा (१५) अनेकसिद्धा, जहां जन्म नहीं, जरा नहीं, मरण नहीं, भय नहीं, रोग नहीं, शोक नहीं, दुःख नही, दारिद्रय नही, कर्म नही, काया नहीं, मोह नही, माया नही, चाकर नही, ठाकर नही, भूख नहीं, तृषा नही, जोत में जोत विराजमान, सकल कार्य सिद्ध करके चवदे प्रकारे पन्द्रह भेदे अन त सिद्ध भगवन्त हुए । अनन्तसुखों में तल्लीन, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, निरायाध, क्षायिक समकित, अटल अवगाहना, अमृर्ती, अगुस्लघु, अनन्तवीर्य, यह आठ गुण करके सहित है। जमान, सकलत हुए। अन समकिन ऐसे श्री सिद्ध भगवन्तजी महाराज आपकी अविनयआशातना की हो तो चारम्यार हे सिद्ध भगवन् ! मेरा अपराध क्षमा करिये, हाथ जोड, मान मोड, शीस नमाकर तिक्खुत्ता के पाठ से १००८ बार नमस्कार करता है। (७) श्री सुपाय नाय स्वाभी, (८) श्री सप्रम पाभी, (6) श्री सुविधिनाथ स्वामी, (१०)श्री शीतलनाथ स्वामी, (११) श्री श्रेयासनाय स्वामी, (१२) श्री वासुजन्य स्वाभी, (13) श्री विमलनाथ स्वामी, (१४) श्री सनतनाय स्वाभी, (१८) श्री धर्मनाथ स्वाभी, (१९) श्री शातिनाथ स्वामी, (१७) श्री थुनाथ स्वामी, (१८) श्री सरनाथ स्वामी, (१८) श्री महिनाय स्वामी, (२०) श्री मुनिसुमत पाभी, (२१) श्री नभिनाय स्वामी, (२२) श्री मीनाय स्वामी, (२३) श्री पानाय स्वाभी, (२४) શ્રી (વીર વર્ધમાન મહાવીર સ્વામી આ એક ચોવીસી અનત વીશી પદર ભેદે સીઝી બુઝી, આઠ કર્મક્ષય કરી મોક્ષ પધાર્યા, તેમને મારી તમારી સમય સમયની વદના હેજે આઠ કર્મના નામ-જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણીય, વેદનીય, મોહનીય, આયુષ્ય, નામ, ગેત્ર અને અતરાય, એ આઠે કર્મક્ષય કરી મુકિત શિલાએ પહોંચ્યા છે, તે મુકિતશિલા કયા છે! સમપૃથ્વીથી ૭૯૦ જન ઉચપણે તારા મડળ આવે ત્યાથી દશ જેજન ઉચે સૂર્યનું વિમાન છે, ત્યાથી ૮૦ જેજન ઉચપણે ચદ્રમાનું વિમાન છે, ત્યાથી ચાર જે જન ઉચપણે નક્ષત્રના વિમાન છે, ત્યાંથી ચાર જે જન ઉચપણે બુધને તારે છે, ત્યાથી ત્રણ જે જન ઉચપણે શુકને તારે છે, ત્યાથી ત્રણ જજન ઉચપણે બૃહસ્પતિને Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० आवश्यक सूत्रस्य तीजे पद श्री आचार्यजी छत्तीस गुण करके विराजमान पाच महाव्रत पालें, पाच आचार पालें, पाच इन्द्रिय जीते, चार कपाय टालें, नव-वाड सहित शुद्ध ब्रह्मचर्य पालें, पाच समिति तीन गुप्ति शुद्ध आराधें, यह ३६ गुण और आठ सम्पदा ( १ आचारसम्पदा, २ श्रुतसम्पदा, ३ शरीरसम्पदा, ४ वचन सम्पदा, ५ वाचनासम्पदा, ६ मतिसम्पदा, ७ प्रयोगसम्पदा, ८ सग्रहपरिज्ञासम्पदा ) सहित हैं | ऐसे आचार्य महाराज न्याय पक्षवाले, भद्रिकपरिणामी, परम पूज्य, कल्पनीय अचित्त वस्तु के ग्रहणहार, सचित्त के त्यागी, वैरागी, महागुणी, गुण के अनुरागी, सौभागी हैं। ऐसे श्री आचार्यजी महाराज आपकी ( दिवससम्बन्धी) अविनय - आशातना की हो तो बारम्बार हे आचार्यजी महाराज ! मेरा अपराध क्षमा करिये, हाथ जोड मान मोड, शीस नमाकर तिवखुत्ता के पाठ से १००८ चार नमस्कार करता है । તારે છે, ત્યાથી ત્રણ જોજન ઉચપણે મગળને તારે છે, ત્યાથી ત્રણ જોજન ઉચપણે છેલ્લે શનિશ્ચરના તારા છે એમ નવસે જોજન લગી ચૈતિષચક્ર છે - ત્યાથી અસ ખ્યાતા જોજન ક્રોડા કોડી ઉચપણે ખાર દેવલાક આવે છે તેના नाभ - सुधर्म, ईशान, सनत्कुभार, भाहेन्द्र ब्रह्मा, बात, भडाशुद्ध, सहसार, भात, પ્રાણત, આરણ અને અચ્યુત, ત્યાથી અસ ખ્યાતા જોજનની ક્રોડા ક્રોડી ઉચપણે ચડીએ ત્યારે નવ ચૈવેયક આવે, તેના નામ लद्दे, सुभद्द, सुनमे, सुभाणुसे, प्रियह सबे, આમેહ, સુખિહૂં અને જસેધરે, તેમા ત્રણત્રિક છે, પહેલી ત્રિકમા ૧૧૧ વિમાન છે, જીમાં ૧૦૭ અને ત્રીજીમા ૧૦૦ વિમાન છે. ત્યાથી અસ ખ્યાતા જોજનની ક્રોડાકોડી ઉચાપણુંએ ચડીએ ત્યારે પાચ અનુત્તર વિમાન આવે, તેના નામ જયંત અપરાજિત અને સર્વાંસિદ્ધ વિજય, વિજય ત - આ સર્વાસિદ્ધ મહાવિમાનની ધ્વજાથી ખાર એજન ઉચપણે મુકેશલા છે તે મુકિતશિલા કેવી છે? પીન્તાલીશ ોજનની લાખી પહાળી છે, મધ્યે આઠ ોજનની જાડી છે ઉતરતા છે. માખીની પાખ કરતા પણ પાતળી છે ગાક્ષીર, શખ, ચદ્ર, અકરત્ન, રૂપાને પટ, મેતીનેા હાર અને ક્ષીર સાગરના પાણી થકી પણ અધિક ઉજળી છે Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ मुनितोपणी टीका, कायोत्सर्गाध्ययनम्-५ चौथे पद श्री उपाध्यायजी, पच्चीस गुण करके सहित (ग्यारह अग, घारह उपांग, चरणसत्तरी, करणसत्तरी-इन पचीस गुण करके सहित), ग्यारह अग का पाठ अर्थ सहित सम्पूर्ण जानें, १४ पूर्व के पाठक और निम्नोक्त वत्तीस सूत्र के जानकार हैं। તે સિદ્ધશિલા ઉપર એક જોજન, તેના કેટલા ગાઉના છઠ્ઠા ભાગને વિષે સિદ્ધ ભગવતજી નિર જન નિરાકાર બિરાજી રહ્યા છે તે ભગવતજી કેવા છે? અરે, અગધે, અસે, અફાસે, અમૃતિ, અવિનાશી, ભૂખ નહિ, દુખ નહિ, રાગ નહિ, શેક નહિ, જન્મ નહિ, જરા નહિ, મરણ નહિ, કાયા નહિ, કર્મ નહિ, અન ત અનત આત્મિક સુખની લહેરમાં બિરાજી રહ્યા છે ધન્ય સ્વામીનાથ? આપ શ્રી સિદ્ધક્ષેત્રને વિષે બિરાજે છે, હું અપરાધી દીકિંકર, ગુણહીન અહીં બેઠે છુ, આપના જ્ઞાન દર્શનને વિષે આજના દિવસમાં બધી અવિનય, અશાતના, અભકિત અપરાધ થયે હોય તે હાથ જોડી, માન મેડી, મતક નમાવી ભુજ ભુજે કરી ખાવુ છુ (અહીં તિyત્તાને પાઠ ત્રણ વખત કહેવ) ત્રીજા ખામણા–કેવળી ભગવાનને ત્રીજા ખામણું પચ મહાવિદેહ ક્ષેત્રને વિષે બિરાજતા જયવતા કેવળી ભગવાનને કરૂ છુ તે સ્વામી જઘન્ય હોય તે બે કોડ અને ઉત્કૃષ્ટ હોય તે નવઠ્ઠોડ કેવળી, તે સર્વને મારી તમારી સમય સમયની વદના છે તે સ્વામી કેવા છે? મારે તમારા મન મનની વાત જાણી દેખી રહ્યા છે, ઘટ ઘટની વાત જાણી દેખી -હ્યા છે, સમય સમયની વાત જાણી દેખી રહ્યા છે ચૌદરાજુ લોક અ જલિ-જલ– પ્રમાણે જાણી દેખી રહ્યા છે, અનતુ જ્ઞાન છે, અનતુ દર્શન છે, અનતુ ચારિત્ર છે, અને તે તપ છે, અને તે પૈર્ય છે, અને તે વીર્ય છે-એ ષટે (છ) ગુણે કરી સહિત છે ચાર કર્મ ઘનઘાતી ક્ષય કર્યા છે, બાકીના ચાર કર્મ પાતળા પડયા છે મુકિત જવાના કામી થકા વિચરે છે, ભવ્ય જીના સદેહ ભાગે છે સગી, અશરીરી, કેવળજ્ઞાની, કેવળદર્શની, યથાખ્યાત ચારિત્રના ધરણહાર છે, ભાયિક સમકિત, શુકલ ધ્યાન, શુકલ લેશ્યા, શુભ ધ્યાન, શુભ ગ, પડિત વીર્ય આદિ અન તે ગુણે કરી સહિત છે. ધન્ય તે સ્વામી ગામાગર, નગર, ગયહાણી, જ્યા જ્યા દેશના દેતા થકા વિચતા હશે, ત્યાં ત્યાં રાઈસ, તલવર, ભાડ બી, કડબ, શેઠ, સેનાપતિ, ગાથાપતિ આદિ સ્વામીની દેશના સાભળી કશું પવિત્ર કરતા હશે, તેમને ધન્ય છે? સ્વામીના દર્શન Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ आवश्यकमुत्रस्य - - ग्यारह अग-आचाराग, सूयगडाग, ठाणाग, समवायाग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, उवासगदसा, अतगडदसा, अणुसरोववाई, प्रश्नव्याकरण, विपाकसत्र । घारह उपाग-उववाई, रायपसेणी, जीवाभिगम, पनवणा, जम्बूद्दीवपन्नत्ती, चन्दपन्नत्ती, सूरपन्नत्ती, निरयावलिया, कप्पवडसिया, पुल्फिया, पुप्फचूलिया, पण्डिदसा। चार मूलसूत्र-उत्तराध्ययन, दशवैकालिकसूत्र, नन्दीसत्र, અનુયાદારી चार छेद-दशा तस्कन्ध, वृहत्कल्प, व्यवहारसूत्र, निशीथ सूत्र, और बत्तीसवा आवश्यक, इत्यादि अनेक स्वसमय परसमय के जानकर, सात नय, निश्चय, व्यवहार, चार प्रमाण आदि स्वमत દેદાર કરી નેત્ર પવિત્ર કરતા હશે તેમને ધન્ય છે સ્વામીને અશનાદિક ચૌદ પ્રકારનું દાન દઈ કર પવિત્ર કરતા હશે, તેમને પણ ધન્ય છે ધન્ય સ્વામીનાથ ! આપ ૫ચ મહાવિદેહ ક્ષેત્રને વિષે બિરાજે છે, હું અપરાધી દીનકિકર ગુણહીન અહીં બેઠે છુ આજના દિવસ સબ ધી આપના જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર તપને વિષે અવિનય, આશાતના, અભકિત, અપરાધ થયો હોય, તે હાથ જોડી, માન મેડી, મસ્તક નમાવી ભુજે ભુજે કરી ખમાવુ છુ (અહીં તિખુત્તાના પાઠ ત્રણ વખત કહે) ચોથા ખામણ ચેથા ખામણા ગણધરજી, આચાર્યજી, ઉપાધ્યાયજીને કરૂ છુ ગણધરજી બાવન ગુણે કરી સહિત છે, આચાર્યજી છત્રીશ ગુણે કરી સહિત છે, ઉપાધ્યાયજી પચ્ચીશ ગુણે કરી સહિત છે, મારા તમારા ધર્મગુરુ, ધર્માચાર્ય, ધર્મ ઉપદેશના દાતા, પડિતરાજ, મુનિરાજ મહાપુરુષ, ગીતાર્થ, બહુસૂત્રી, સૂત્રસિદ્ધાતના પારગામી, તરણતારણું, તારણ નાવા સમાન, સફરી જહાજ સમાન, રત્નચિંતામણિ સમાન, જિન શાસનના શણગાર, ધર્મના નાયક, સ ઘના મુખી, સ ઘના નાયક આદિ અનેક ઉપમાએ કરી બિરાજમાન હતા ઘણુ સાધુ-સાધ્વીએ આવી, પડિકમી, નિન્દી, નિ શવ્ય થઈને પ્રાય દરેક પધાર્યા છે તેમને ઘણે ઘણે ઉપકાર છે આજ વર્તમાન કિ તારણ, તારી નાવા સમાન, સફરી જહાજ સમાન, રતનચિંતામણિ - ૧ ના શણગાર, ધર્મના નાયક, સઘના મુખી, સ ઘના Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, कायोत्सर्गाध्ययनम् -५ २९३ तथा अन्यमत के जानकार मनुष्य या देवता कोई भी विवाद में जिनको छलने में समर्थ नहीं, जिन नही पण जिन सरीखे केवली नहीं पण केवली सरीखे हैं । ऐसे उपाध्ययाजी महाराज मिथ्यात्वरूप अधकार के मेटनहार, समकित रूप उद्योत के करनहार, धर्म से डिगते प्राणी को स्थिर करे, सारए, वारए, धारए इत्यादि अनेक गुण करके सहित हैं । ऐसे श्री उपाध्यायजी महाराज आपकी अविनय - आशालना की हो तो हे उपाध्यायजी महाराज ! मेरा अपराध बारम्वार क्षमा करिये, हाथ जोड, मान मोड, शीस नमाकर तिक्खुत्ता के पाठ રાય से १००८ बार नमस्कार करता हूँ । पाचवें पद " णमो लोए सव्व साहूण " - अढाईद्वीप पन्द्रह क्षेत्र નાયક આદિ અનેક ઉપમાએ કરી બિરાજમાન જે જે સાધુ-સાધ્વી વીતરાગ દેવની માનામાં ખિરાજતા હૈાય, તેમને મારી તમારી સમય સમયની વદના હેડો તે સ્વામી કેવા છે? પંચ મહાવ્રતના પાલનહાર છે, પાચ સમિતિએ અને ત્રણ ગુપ્તિએ સહિત, છકાયના પિયર, છકાચના નાથ, સાત ભયના ટાલણુહાર, આઠે મના ગાલણુહાર, નવવાડ વિશુદ્ધ બ્રહ્મચર્યંના પાલણહાર, દર્શાવધ યંત ધના અજવાળક, ખાર ભેદે તપશ્ચર્યાના કરણહાર, સત્તર ભેદ્દે સયમના ધરણહાર, ખાવીશ પનિષદ્ધના જિતણુહાર, સત્તાવીશ સાધુજીના ગુણૅ કરી સહીત ૪૨-૪૭-૯૬ દોષ રહિત આહાર પાણીન લેનાર, ખાવન અનાચારના ટાલણહાર, સચિત્તના ત્યાગી, અચેતના લેગી, કચન-કામિનીના ત્યાગી, માયા-મમતાના ત્યાગી, સમતાના સાગર, દયાના આગર, આદિ અનેક ગુણે કરી સહિત છે ધન્ય મહારાજ ! આપ ગામ, નગર, પૂર, પાટણને વિષે વિચરે છે, અમે અપરાધી, દીનકિંકર, ગુહીન અહીં બેઠા છીએ આજના દિવસસ બધી આપના જ્ઞાન, દર્શન, ચર્ચા-ત્ર, તપને વિષે અવિનય, આશાતના, અકિત અપરાધ થયેા હાય, તા હાથ જોડી, માન મેાડી, મસ્તક નમાવી ભુજો ભુો કરી ખમાવુ છુ (અહીં તિખ઼ત્તાના પાઠ ત્રણ વખત કહેવા) પાચમા ખામણા પાંચમા ખામણુા પાંચ ભરત, પાંચ ઈરવત પાચ મહાવિદેહ એ અઢી ટ્રીપ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमूत्रस्य થાર –ાચાર, સૂવારા, કાળ, સમવાયી, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, उवासगदसा, अतगडदसा, अणुसरोववाई, प्रश्नव्याकरण, विपाकसत्र । बारह उपाग-उववाई, रायपसेणी, जीवाभिगम, पन्नवणा, जम्बूद्दीवपन्नत्ती, चन्दपन्नत्ती, सूरपन्नत्ती, निरयावलिया, कप्पवडसिया, पुल्फिया, पुप्फचूलिया, चण्डिदसा। चार मूलसूत्र-उत्तराध्ययन, दशवकालिकसूत्र, नन्दीसूत्र, __ अनुयोगद्वार। चार छेद-दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहारसूत्र, निशीथ सूत्र, और बत्तीसवा आवश्यक, इत्यादि अनेक स्वसमय परसमय के जानकर, सात नय, निश्चय, व्यवहार, चार प्रमाण आदि स्वमत દેદાર કરી નેત્ર પવિત્ર કરતા હશે તેમને ધન્ય છે સ્વામીને અનાદિક ચૌદ પ્રકારનું દાન દઈ કર પવિત્ર કરતા હશે, તેમને પણ ધન્ય છે ધન્ય સ્વામીનાથ ! આપ ૫ચ મહાવિદેહ ક્ષેત્રને વિષે બિરાજે છે, હું અપરાધી દીકિંકર ગુણહીન અહીં બેઠે હુ આજના દિવસ સ બ ધી આપના જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર તપને વિષે અવિનય, આશાતના, ભકિત, અપરાધ થયો હોય, તે હાથ જોડી, માન મેડી, મસ્તક નમાવી ભુજે ભુજે કરી ખમાવુ છુ (અહીં તિખુત્તાના પાઠ ત્રણ વખત ચોથા ખામણું ચોથા ખાણું ગણુધરજી, આચાર્યજી, ઉપાધ્યાયજીને કરૂ છુ ગણધરજી બાવન ગુણે કરી સહિત છે, આચાર્યજી છત્રીશ ગુણે કરી સહિત છે, ઉપાધ્યાયજી પચ્ચીશ ગુણે કરી સહિત છે, મારા તમારા ધર્મગુરુ, ધર્માચાર્યધર્મ ઉપદેશના દાતાર, પડિતરાજ, મુનિરાજ મહાપુરુષ, ગીતાર્થ, બહુસૂત્રી, સૂત્રસિદ્ધાતના પારગામી, તરણતારણ, તારણ નાવા સમાન, સફરી જહાજ સમાન, રત્નચિંતામણિ સમાન, જિન શાસનના શણગાર, ધર્મના નાયક, સાઘના મુખી, સ ઘના નાયક આદિ અનેક ઉપમાએ કરી બિરાજમાન હતા ઘણુ સાધુ-સાધીએ આવી, પડિકમી, નિન્દી, નિ શદય થઈને પ્રાય દેવલે પધાર્યા છે તેમને ઘણો ઘણે ઉપકાર છે આજ વર્તમાન કાળે તરણું, તારણ, તારણ નાવા સમાન, સફરી જહાજ સમાન, રત્નચિંતામણિ સમાન, જિનશાસનના શણગાર, ધર્મના નાયક, સઘના મુખી, સ ઘના Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, कायोत्सर्गाध्ययनम्-५ २९५ ऐसे मुनिराज महाराज आपकी अविनय आशातना की हो तो हे मुनिराज ! मेरा अपराध बारम्बार क्षमा करिये। हाथ जोड, मान मोड, शीस नमाकर, तिक्खुत्ता के पाठ से १००८ बार नमस्कार करता हूँ। ॥ दोहा ॥ अनन्त चौबीसी जिन नम्, सिद्ध अनन्ता कोड ! केवल ज्ञानी गणधरा, वन्द वे कर जोड ॥१॥ दोय कोडि केवलधरा, विहरमान जिन बीस । सहस्र युगल कोडी नमू, सायु नमू निशदीस ॥२॥ धन साधु धन साधवी, वन धन है जिन धर्म । ये समयाँ पातक झरे, टूटे आठो कर्म ॥ ३ ॥ अरिहत सिद्ध समरू सदा, आचारज उवज्झाय । साधु सकल के चरण को, चन्द् शीस नमाय ॥४॥ अगूठे अमरित वसे, लब्धि तणा भण्डार । श्री गुरु गौतम समरिये, वाछित फल दातार ॥५॥ लोभी गुरु तारे नही, तिरे सो तारण हार । जो तृ तिरियो चाह तो, निरलोभी गुरु धार ॥६॥ गुरु दीपक गुरु नादणो, गुरु विन घोर अधार । पलक न विसरू तुमभणी, गुरुमुझ प्राण अधार ॥७॥ હાથ જોડી, મસ્તક નમાવી ભુજે ભુજે કરી ખમાવુ છુ (અહીં તિખુત્તાને પાઠ ત્રણ વખત કહે) અને સાધુ-સાધ્વીજી બિરાજતા હોય, તે નીચેની ગાથા બેલી ત્રણ વખત સવિધિ વદના કરવી માધુ વદે તે સુખીયા થાય, ભ ભવના તે પાતક જાય, ભાવ ધરીને વદે જેહ, વહેલ મુતે જાશે તેહ ડું ખામણા (છઠ્ઠા ખામણા અઢીદ્વિીપ માહે અઢીદ્વિીપ બહાર અસખ્યાતા શ્રાવક-શ્રાવિકાને કરૂ છુ તે શ્રાવકજી કેવા છે? Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ आवश्यकमुत्रस्य रूप लोक के विषे सर्व साधुजी जघन्य दो हजार करोड, उत्कृष्ट नव हजार करोड जयवन्ता चिचरे । पाँच महाव्रत पालें, पाँच इन्द्रिय जीतें, चार कपाय टालें, भावसच्चे, करणसच्चे, जोगसच्चे, क्षमावन्त, वैराग्यवन्त, मनसमाधारणीया, वयसमाधारणीया, काय समाधारणीया, नाणसम्पन्ना, दसणसम्पन्ना, चारित्तसम्पन्ना, वेदनीयसमा अहियासनीया, मरणातिकसमा अहियासनीया है - ऐसे सत्ताईस गुण करके सहित, पाँच आचार पालें, छह काय की रक्षा करे, सात कुव्यसन, आठ मद छोडें, नववाड सहित ब्रह्मचर्य पालें, दस प्रकार यतिधर्म धारें, बारह भेदे तपस्या करें, सत्रह भेदे सयम पालें, अठारह पापों को त्यागें, बाईस परिषद जीतें, तीस महामोहनीय कर्म निवारें, तेतीस आशातना टालें, बयालीस दोष टाल के आहार पानी लेवें, संतालीस दोष टाल के भोगें, बाचन अनाचार टालें, तेडिया ( बुलाया ) आवे नहीं, नातिया जीमे नही, सचित्त के त्यागी, अचित्त के भोगी, लोच करें, नगे पैर चालें - इत्यादि कायक्लेश करें और मोह-ममता-रहित हैं । ક્ષેત્રને વિષે બિરાજતા સાધુ સાધ્વીજીને કરૂ છુ તેઓ જઘન્ય ડ્રાય તે બે હજાર ક્રોડ સાધુ–સા વી, અને ઉત્કૃષ્ટા હોય ત। નવ હજાર ક્રોડ સાધુ-સાધ્વી, તેમને મારી તમારી સમય સમયની વદના હાજો તે સ્વામી કેવા છે? પાચ મહાવ્રતના પાલણુહાર છે, પાચ સમિતિએ અને ત્રણ ગુપ્તિએ સહિત, છ કાયના પિયર, છ કાયના નાથ, સાત ભયના ટાલહાર, આઠે મદના ગાલણુહાર, નવવાવિશુદ્ધ બ્રહ્મચર્યંના પાલહાર, દર્શાવધ યુતિધર્મના અજવાલક, બાર ભેદે તપશ્ચર્યાના કરગુહાર, સત્તર ભેદે સચમના ધરણુહાર, ખાવીશ પરિષદ્ધના છતણુહાર, સતાવીશ સાધુજીના ગુણૅ કરી સહિંત, ૪૨-૪૭-૯૬ દોષ રહિત આહાર પાણીના લેવાર, ખાવન અનાચારના ઢાલણુહાર, ચિત્તના ત્યાગી, અચેતના लोगी, अयन अभिनीना त्यागी, भाया-भभताना त्यागी, समताना सागर, ध्याना भागर, આદિ અનેક ગુણે કરી સહિત છે धन्य स्वामीनाथ आप ग्राम, नगर, અપરાધી, દીન કિકર, ગુણહીન અહીં બેઠા છુ દર્શન, ચારિત્ર, તપને વિષે અવિનય, આશાતના पूर, पाटथुने विधे मिराले थे, हु આજના દિવસસ બધી આપના જ્ઞાન, અભક્તિ, અપરાધ કીધા હાય તા Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, कायोत्सर्गान्ययनम्-५ २९७ चतुरशीतिलक्षयोनिगतान् जीवान् क्षमाप्य सार्द्धसप्तनवतिलक्षारिफैककोटि कुलकोटिविराधनासम्बन्धि मिथ्यादुष्कृत दत्त्वा पापाष्टादशकपट्टिकामुच्चार्य कायोत्सर्गाभिधस्य पञ्चमावश्यकस्याज्ञा गृह्णीयात् । तत्र पूर्वस्मिन्नभ्ययने मृलोत्तर अनन्तर 'अनन्तचउबीसी जिन नमो' इत्यादि पढे, बाद में चौरासी लाख योनि गत जीवों से क्षमापना करके एक करोड साढे सत्तानवेलाख (१९७०००००) कुल कोटि (कोडी) जीवों की विराधनासम्बन्धी मिथ्यादप्कत देकर और अठारह पापम्यान की पट्टी बोलकर गुरु से कायोत्सर्ग नामक पाचवें आवश्यक की आजा ग्रहण करे । ત્યાર બાદ “અનન્ત ચકવીસી જિન ન” ઈત્યાદિ બેલે, પછી ચેરાસી લાખ નિગત જેની પાસે ક્ષમાપના માગીને એક કરોડ સાડા સત્તાણુ લાખ ( ૧૭૫૦૦૦૦) કુલ કેટી (કડી) જેની વિરાધના સ બ ધી મિથ્યા દુષ્કૃત આપીને અને અઢાર પા૫ સ્થાનની પાટી બોલીને ગુરુપાસે કાર્યોત્સર્ગ નામના પાંચમા આવશ્યકની આજ્ઞા ગ્રહણ કરવી हजार एक सौ वीस (१८२४१२०) प्रकारे "तस्स मिच्छामि दुक्कड" । खामेमि सव्वे जीवा, सब्वे जीवा खमतु मे। मित्ती मे सबभूएसु, वेरं मज्झ न केणइ ॥ एवमह आलोइय, निदिय गरहिय दुगछिउ सम्म । तिविहेण पडिक्कतो, वदामि जिणे चउव्वीस ॥ છેદ્યા હોય, ભેયા હોય, પરિતાપના-કિલામના ઉપજાવી હોય, તે અરિહન્ત અનતા સિદ્ધ ભગવતની સાખે “તસ્સ મિચ્છામિ દુકડ ખામેમિ સવે જીવા ખમવુ છુ સર્વ જીવોને, સવે જીવા ખમતુ મે સર્વ જીવો મને ક્ષમા આપજે મિત્તીમે સવભૂસુ સર્વ જી સાથે મારે મિત્રતા છે વેર મગ્ન ન કેણઈ કેડની સાથે મારે વેર નથી એવમહ આલેઈય એ પ્રકારે હુ આ ચના કરી, નિદિયગડિયદુગછિક મમ્મ, નિંદા કરી, (ગુની સાક્ષીએ) વિશે નિંદા કરી, દુગછા કરી નિવિહેણ પડિકકતે સભ્ય પ્રકારે, ત્રણ પ્રકારે (મન, વચન, કાયાએ) પ્રતિક્રમણ કરતે થક વામિ છણે ચઉવીસ ચેવિશ જીનેશ્વર પ્રભુને વદુ છું Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ आवश्यकमुत्रस्य ॥ चौरासी लास जीव योनि का पाठ ॥ सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अप्काय, सात लाख तेउकाय, सात लाख वायुकाय, दश लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय, चौदर लाख साधारण चनस्पतिकाय, दो लास वेइन्द्रिय, दो लाख तेइन्द्रिय, दो लाख चउरिन्द्रिय, चार लाख नारकी, चार लाख देवता, चार लाख तिर्यञ्च पचेन्द्रिय, चौदह लाख मनुष्यकी जात ऐसे चार गति में चौरासी लाख जीव-योनि के सूक्ष्म चादर पर्याप्त अपर्याप्त जीवों में से हालते चालते उठते पैठते सोते किसी जीव का हनन किया हो, कराया हो, हनता प्रति अनुमोदन किया हो, छेदा हो, भेदा हो, किलामणा उपजाई हो, मन वचन काया करके अठारह लाख चौबास હુથી તમથી, દાન, શીયળે, તપ, ભાવે, ગુણે કરી અધિક છે, બે વખત આવશ્કય પ્રતિક્રમણના કરનાર છે, મહિનામાં બે, ચાર અને છ પિવાના કરનાર છે, સમકિત સહિત બાર વ્રતધારી, અગિયાર પડિમાના સેવણહાર છે, ત્રણ મને રથના ચિતવનાર છે, દુબળા-પાતળાવની દયાના આણનાર છે, જવ અજીવ આદિનવ તત્વના જાણનાર છે, એકવીશ શ્રાવકેના ગુણે કરી હિત છે, પરધન પત્થર બાબર લેખે છે, પરસ્ત્રી માત બેન સમાન લખે છે, દઢધમી, પ્રિયધમી, દેવતાના ડગાવ્યા ડગે નહિ એવા છે, ધર્મને ૨ ગ હાડ હાડની મીંજા લાગ્યા છે એવા શ્રાવક, શ્રાવિકા, સ વર, પિવા, પ્રતિક્રમણમાં બિરાજતા હશે તેમને આજના દિવસ સબધી અવિનય, આશાતના, અભકિત, અપરાધ કર્યો હોય, તે હાથ જોડી, માન મેડી, મસ્તક નમાવી ભુજે ભુજે કરી ખમાવુ છુ ) સાધુ-સાધ્વીને વાદુ છુ, શ્રાવક-શ્રાવિકાને ખમાવુ છુ, રાશી લાખ અવાજેનિના જીવને ખમાવું છું – છ લાખ પૃથ્વીકાય, ૭ લાખ અપકાય, ૭ લાખ તેઉકાય ૭ લાખ વાયુકાય, ૧૦ લાખ પ્રત્યેક વનસ્પતિક ય, ૧૪ લાખ સાધારણ વનસ્પતિકાય, ૨ લાખ બે ઈદ્રિય, ૨ લાખ તેઈદ્રિય, ૨ લાખ રેટિંય, ૪ લાખ નારદી, ૪ લાખ દેવતા, ૪ લાખ તિર્યંચ પચેદિય, ૧૪ લાખ મનુષ્ય જાતિ, એ ચોરાશી લાખ છવાજેનિના જીવને હાલતા ચાલતા, ઉઠતા, બેસતા જાણતા અજાણતા, હરયા હાય, હણાવ્યા હોય, Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, कायोत्सर्गा ययनम्-५ २९७ चतुरशीतिलक्षयोनिगतान् जीवान् क्षमाप्य सार्द्धसप्तनवतिलक्षारिफैक्कोटि कुलकोटिविराधनासम्बन्धि मिथ्यादुप्कृत दत्त्वा पापाष्टादशकपट्टिकामुच्चार्य कायोत्सर्गाभिधस्य पश्चमावश्यकस्याज्ञा गृह्णीयात् । तत्र पूर्वस्मिन्नभ्ययने मूलोत्तर अनन्तर 'अनन्तचउवीसी जिन नमो' इत्यादि पढे, बाद में चौरासी लाख योनि गत जीवों से क्षमापना करके एक करोड साढे सत्तानवेलाख (१९७०००००) कुल कोटि (कोडी) जीवों की विराधनामम्बन्धी मिय्यादुष्कृत देकर और अठारह पापम्यान की पट्टी बोलकर गुरु से कायोत्सर्ग नामक पाँचवें आवश्यक की आजा ग्रहण करे। - ત્યાર બાદ “અનન્ત ચઉવીસી જિન નમો” ઈત્યાદિ બેલે, પછી ચોરાસી લાખ યે નિગત જેની પાસે ક્ષમાપના માગીને એક કરોડ સાડા સત્તાણુ લાખ (૧૯૭૫૦૦૦૦) કુલ કેટી (કડી) જીવેની વિરાધના સ બ ધી મિથ્યા દુષ્કત આપીને અને અઢાર પા૫ સ્થાનની પાટી બેલીને ગુરુ પાસે કોત્સર્ગ નામના પાંચમા આવશ્યકની આજ્ઞા ગ્રહણ કરવી हजार एक सौ वीस (१८२४१२०) प्रकारे "तस्स मिच्छामि दुक्कड" । खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेर मज्झ न केणइ । एवमह आलोइय, निदिय गरहिय दुगछिउ सम्म । तिविहेण पडिक्कतो, वदामि जिणे चउव्वीस ॥ છેવા હેય, ભેવા હય, પરિતાપના-કિલામના ઉપજાવી હોય, તે અરિહન્ત અનતા સિદ્ધ ભગવતની સાખે “તમ્સ મિચ્છામિ દુક્કડ ? ખામેમિ સવે જીવા ખમાવુ છુ સર્વ ને, સવે જીવા ખમતુ એ સર્વ જી મને ક્ષમા આપજે મિનીમે સવભૂએલ્સ સર્વ જી સાથે મારે મિત્રતા છે વેર મશ્ન ન કેણઈ. કેની સાથે મારે વેર નથી એવમહ આલેઈય એ પ્રકારે હું આલોચના કરી, નિંદિયગરહિયદુગછિ સમ્મ, નિંદા કરી, (ગુરુની સાક્ષીએ) વિશે નિંદા કી, દુગ છા કરી નિવિહેણ પડિકકતે સમ્યફ પ્રકારે, ત્રણ પ્રકાર (મન, વચન, કાયાએ) પ્રતિક્રમણ કરતે થે વામિ જીણે ચઉવ્વીસ ચેવિશ જીનેશ્વર પ્રભુને વદુ છુ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक मूत्रस्य - - - गुणेषु स्यलितम्य निन्दाभिहिता, इह त्वाचारमस्पलितस्य चारित्रपुरुषस्याविचार लक्षणग्रणोत्पत्तिसम्भवात्तचिकित्सारूप कायोत्सर्ग उच्यते, अथवा प्रोने गति क्रमणाध्ययने मिथ्यात्वापिरत्यादिपञ्चविधपतिक्रमणद्वारा कर्माऽऽगमप्रतिरोध उपपादित', इह तु कायोत्सर्गविधिना पूर्वसचिताना कर्मणा प्रक्षयो भवतीति भतिपाद्यते-'इच्छामि ण' इत्यादि ॥ मूलम् ॥ इच्छामिण भते तुम्भेहि अन्भणुण्णाए समाणे । देवसियपायच्छित्तचिसोहणट्ट करेमि काउस्सग्ग ॥१॥ ॥ छाया ॥ इच्छामि खलु भगवन् युष्माभिरभ्यनुज्ञात' सन् । देवसिकमायश्चित्तविशोधनार्थ करोमि कायोत्सर्गम् ॥१॥ ॥ टीका ॥ . . , . व्याख्या प्रस्फुटा ॥ १॥ पूर्व (चौथे) अध्ययन में मूल और उत्तर गुणो मे स्खलित की निन्दा कही है, इस पांचवें अध्ययन में आचार से , स्खलित चारित्ररूप पुरुष के अतिचाररूप व्रण (घाव) होने के सभव से उस की चिकित्सारूप कायोत्सर्ग कहा जाता है । ' अथवा प्रतिक्रमणाध्ययन में मिथ्यात्व आदि पाँच प्रकार के प्रतिक्रमण द्वारा कर्मों के आगमन का प्रतिरोध किया गया है, और यहाँ कायोत्सर्ग द्वारा पूर्वसञ्चित कर्मों का क्षय दिखलाया जाता है-'इच्छामिण भते' इत्यादि। - પ્રથમ પહેલા (થા) અધ્યયનમાં મૂલ અને ઉત્તર ગુણેમા સ્કૂલિતની નિદ્ધા કહી છે આ પાચમા અધ્યયનમાં આચારથી ખલિત ચારિત્રરૂપ પુરુષના તિરાર રૂ૫ વ્રણ (ઘા) થવાની સ ભવથી તેની ચિકિત્સારૂપ કાન્સ કહે છે. અથવા પ્રતિક્રમgશ્ચયનમાં મિથ્યાત્વ આદિ પાંચ પ્રકારના પ્રતિક્રમણ દ્વારા કળા આવવાપણું કરવામાં આવે છે, અને અહીં કાર્યોત્સર્ગ દ્વારા वामा भाषेत छ (इच्छामि ण मते) त्या પૂર્વ સચિત Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, कायोत्सर्गाध्ययनम्-५ २९९ करेमि भते ? सामाइय' 'इच्छामि ठामि काउस्सग्ग०' ' तस्सोत्तरीकरणेण' इत्येताः सर्वाः पट्टिकाः पठित्वा कायोत्सर्ग विदध्यात् , तत्र 'लोगस्स उज्जोयगरे०' इति पट्टिका वारचतुष्टय मनसा सस्मृत्य सनमस्कार कायोत्सर्ग समाप्य च पुनरपि 'लोगस्स उज्जोयगरे०' इत्यादि पट्टिका पूर्णामुच्चारयेत् , ततः 'इच्छामि समासमणो०' इति पट्टिका द्विः पठित्वा गुरुसमीपे प्रन्याचक्षीत ॥१॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापारलितललितकलापाऽऽलापक-विशुद्धगयपयनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुररानप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य-पदभूपित -कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलाल-तिविरचित्ताया श्रीश्रमणमूत्रस्य मुनि तोपण्यारयाया व्याख्याया पञ्चम कायोत्सर्गार यम ययन समाप्तम् ॥५॥ उसमें प्रथम 'इच्छामिण भते' की पट्टी से कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा करके 'करेमि भते! सामाइय०' और 'इच्छामि ठामि काउस्सग्ग' तथा 'तस्सोत्तरीकरणेण०' बोलकर कायोत्सर्ग करे' और कायोत्सर्गमें चार 'लोगस्स.' मनमे गिन कर नमस्कारपूर्वक कायोत्सर्ग की समाप्ति करें, फिर 'लोगस्स.' की पट्टी प्रगट घोलें। तदनन्तर 'इच्छामि खमासमणो०' की पट्टी दो बार बोल कर गुरुफे निकट प्रत्याख्यान करें ॥१॥ ॥ इति पञ्चमअध्ययन समाप्त ॥ तभा प्रथम 'इच्छामि णभते,' नी पाटीया योत्सना प्रतिज्ञा ४शन 'करेमि भते सामाइय' भने 'इच्छामि ठामि काउस्सग्ग' तथा 'तस्सोत्तरीकरणेण' मादान योस ४२२॥ भने योसभा या२ 'लोगस्स' मनमा यार! १२ नाली नभ२पूर्व योसनी समाप्ति की, भने पछी 'लोगस्सी पारी प्रमट मालवी, ५४ी 'इच्छामि खमाममणो' नी पारी मे पार मोटीन शुरु સમીપે પ્રત્યાખ્યાન કરવું (૧) ઈતિ પાચમુ અધ્યયન સપૂર્ણ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ आवश्यक सूत्रस्य गुणेषु स्खलितम्य निन्दाऽभिहिता, इह त्याचारमस्सलितस्य चारित्रपुरुषस्यातिचार लक्षणनणोत्पत्तिसम्भवात्तचिकित्सारूप कायोत्सर्ग उच्यते, अथवा प्रोके प्रति क्रमणाभ्ययने मिथ्यात्वा चिरत्यादिपञ्चविधप्रतिक्रमणद्वारा कर्माऽऽगमप्रतिरोध उपपादितः इह तु कायोत्सर्गविधिना पूर्वसञ्चिताना कर्मणा प्रक्षयो भवतीति प्रतिपाद्यते -' इच्छामि ण' इत्यादि || मूलम् ॥ इच्छामिण भते तु भेहि अम्भणुण्णाए समाणे । देवसियपाय च्छित्त विसोहण करेमि काउस्सग्ग ॥ १ ॥ ॥ छाया ॥ इच्छामि खलु भगवन् युष्माभिरभ्यनुज्ञात सन् । दैवसिकप्रायश्चित्तविशोधनार्थ करोमि कायोत्सर्गम् ॥ १॥ ॥ टीका ॥ व्याख्या प्रस्फुटा ॥ १ ॥ पूर्व (चौथे) अध्ययन में मूल और उत्तर गुणो मे स्खलित की निन्दा कही है, इस पांचवें अध्ययन में आचार से स्खलित चारित्ररूप पुरुष के अतिचाररूप व्रण ( घाव) होने के संभव से उस की चिकित्सारूप कायोत्सर्ग कहा जाता है । अथवा प्रतिक्रमणाध्ययन में मिथ्यात्व आदि पाँच प्रकार के प्रतिक्रमण द्वारा कर्मों के आगमन का प्रतिरोध किया गया है, और यहाँ कायोत्सर्ग द्वारा पूर्वसञ्चित कर्मों का क्षय दिखलाया जाता है-' इच्छामि णं भते' इत्यादि । પ્રથમ પહેલા (ચેાથા) અધ્યયનમાં મૂલ અને ઉત્તર ગુ@ામા સ્ખલિતની નિન્દા કહી છે આ પાચમા અધ્યયનમાં આચારથી સ્ખલિત ચારિત્રરૂપ પુરુષના અતિચાર રૂપ ત્રણુ (ધા) થવાના સ ભવથી તેની ચિકિત્સારૂપ કા સ કહેલા છે, અથવા પ્રતિક્રમણાધ્યયનમાં મિથ્યાત્વ આદિ પાચ પ્રકારના પ્રતિક્રમણ દ્વારા કર્માંના આવવાપણાના પ્રતિધ કરવામા આવે છે, અને અહીં કાર્યોત્સર્ગ દ્વાગ पूर्व सथित न क्षय मताववामा आवे छे (इच्छामि ण मते) धत्याहि. Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रत्याख्यानाध्ययनम् - ६ ३०१ निरवशेषम् ( ८ ) । सङ्केत (९) चैत्र अद्रायाः (६) परिमाणकृत (७) (१०) प्रत्याख्यान भवति दशधा || सू० १ ॥ ॥ टीका ॥ ' पच्चक्खाणे ' प्रत्याख्यायते = गुरसाक्षिक तदभावे स्वसाक्षिक वा प्रतिविध्यते यस्तु, अनागतपाप वा येनेति प्रत्याख्यानम् | 'दसविहे ' दशचिव 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्त भगवतेत्यर्थात् । ' तजहा' तयथा भविष्य में लगनेवाले पापों से निवृत्त होने के लिये गुरुसाक्षी या आत्मसाक्षी से हेय वस्तु के त्याग करने को प्रत्याख्यान कहते हैं, वह दस प्रकार का है ભવિષ્યમાં લાગવાવાળા પાપાથી નિવૃત્ત થવા માટે ગુરુની સાક્ષી અથવા તેા આત્મની સાક્ષીથી હેય વસ્તુના ત્યાગ કરવા તેને પ્રત્યાખ્યાન કહે છે, તે દસ अारना छे १ - 'प्रत्याख्यानम्' अत्र करणे, यद्वा भावे प्रत्याइ पूर्वकात् चक्षिड् व्यक्ताया वाचि इत्यस्माल्ल्युटि, तस्यार्द्धधातुकत्वात्तस्मिन् परे चक्षिड' ख्गावादेशे, खुशालः शकारस्य 'शस्य यो वे' ति यादेशे प्रत्याख्यानम् । यत्तु 'ख्या प्रकथने ' इत्यस्य प्रत्यादपूर्वकस्य ल्युडन्तस्य प्रत्यारयान भवती ' - ति ' तथा प्रत्याख्यातीति प्रत्याख्याते ' -ति च केचिदाहुस्तद्व्याकरणाज्ञानमृल्कम्, 'रया प्रस्थने' इत्यस्य सार्वधातुमात्रविषयकत्वात्, तदुक्त 'सस्थानत्व नम. ख्यात्रे' इति वार्तिके व्याकरणमहाभाष्यकार पतञ्जलिना - 'नमः ख्यात्रे' इत्यत्र चक्षिड ख्शानादेशे शकारस्य 'शस्य यो वे' ति कृतो यादेश. 'शर्परे विसर्जनीय' ' इति सूत्र मत्यसिद्ध शर्परखर्परत्वाद्विसर्गस्य निसर्ग एव भवति न तु 'कुप्वो पो चे' - ति सस्थानत्व (जिह्वामूलीयत्व) मिति 'नम. ख्यात्रे' इत्यत्र सस्थानत्वाभावश्चक्षिड ख्शानादेशस्य प्रयोजनमितरथा जिह्वामूलीयस्य दुर्वारत्यात्, यदि तु 'ख्या प्रकथने' इत्यस्य ठनादौ प्रयोग स्यानदास्माचि 'नम ख्यात्रे' इत्यत्र 'शर्परे० ' इत्यस्यामप्त्या जिद्दामूलीयो दुर्वार स्यादिति भाष्यासद्गति स्पष्टैव । अतएव 'पुख्यानम् ' इत्यत्र 'पुम खम्यम्परे' इति रु, 'सौख्ये भव ' इत्यर्थे 'योपाद्गुरूपोत्तमादि' - ति बुजु, 'आख्यातम्' इत्यादी 'सयोगांदरातो धातोर्यण्त्रत ' इतिनिष्ठानत्वम्, 'पर्याख्यानम् इत्यादौ णत्व च 'शस्य यो वे' - त्यस्याऽसिद्धत्वेन नेति पञ्चितमन्यत्र विस्तरेण । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० आवश्यकमूत्रस्य । अथ पष्ठमध्ययनम् । अनन्तरोत पञ्चमाध्ययने पूर्वसचिताना कर्मणा मक्षयः प्रतिपादित', सम्प्रतीह पष्ठाध्ययने आगन्तूना कर्मणा निरोधः पोच्यते, अथवा पूर्वत्र कायोत्सर्गद्वारा व्रणचिकित्सा सम्मोक्ता, चिस्त्सिोत्तर च गुणप्रतिपत्तिर्भवतीतीह गुणधारणापराऽऽख्ये प्रत्याख्यानाध्ययने मृलोत्तरगुणधारणामाह-दसविहे' इत्यादि। ॥ मूलम् ॥ दसविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते तजहा'अणागयमइक्कत, कोडीसहिय नियटिय चेव । सागारमणागार, परिमाणकड निरवसेस । सकेय चेव अद्धाए, पञ्चक्खाण भवे दसहा ॥सू०१॥ ॥ छाया ॥ दशविध प्रत्याख्यान प्रज्ञाप्त तद्यथा-अनागतम-(१) अतिक्रान्तम् (२) कोटिसहित (३) नियन्त्रित (४) चैव । साकारम् (५) आनाकार अथ छठा अध्ययन पाचवें अध्ययनमें पूर्वसश्चित कर्मों का क्षय कहा गया है । इस छठे अध्ययनमें नवीन बन्धनेवाले कर्मों का निराध कहा जाता है। अथवा पाचवें अध्ययनमें कायोत्सर्ग द्वारा अतिचाररूप व्रण की चिकित्सा का निरूपण किया गया है। चिकित्साके अनन्तर गुण की प्राप्ति होती है, इसलिये 'गुणधारण' नामक इस प्रत्याख्यान अ ययनमें मूलोत्तर गुण की धारणा कहते हैं-'दसविहे पञ्चक्खाणे' इत्यादि । અથ છઠ્ઠ અધ્યયન પાચમા અધ્યયનમાં પૂર્વ સચિત કર્મોને ક્ષય કહેવામાં આવ્યું છે હવે આ છઠા અધ્યયનમા નવીન બન્ધ થવાવાળા કમેને નિધિ કહેવામાં આવે છે અથવા પાચમા અધ્યયનમા કાત્સર્ગ દ્વારા અતિચાર રૂપ ત્રણ-ઘાવની ચિકિત્સાનું નિરૂપણ કરવામા આવ્યુ છે, ચિકિત્સા કર્યા પછી ગુણની પ્રાપ્તિ થાય છે, એ માટે “ગુણધારણ નામના આ પ્રત્યાખ્યાન અધ્યયનમાં મુલેત્તર ગુણની धारा ४ छ 'दसविहे पञ्चवरसाणे" त्या Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मुनितोपणी टीका, प्रत्याख्यानाध्ययनम्-६ (६) परिमाणकृत (७) निरवशेपम् (८)। सङ्केत (९) चैव अद्रायाः (१०) प्रत्याख्यान भवति दशधा ॥ सू० १॥ ॥टीका ॥ 'पच्चक्खाणे' प्रत्याख्यायते-गुस्साक्षिक तदभावे स्वसाक्षिक वा प्रतिपिध्यते हेयरस्तु, अनागतपाप वा येनेति मित्याल्यानम् । 'दसविहे' दशविध 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्त भगवतेत्यर्थात् । 'तजहा' तयथा भविष्यमें लगनेवाले पापों से निवृत्त होने के लिये गुरुसाक्षी या आत्मसाक्षी से हेय वस्तु के त्याग करने को प्रत्याख्यान कहते हैं, वह दस प्रकार का है ભવિષ્યમાં લાગવાવાળા પાપોથી નિવૃત્ત થવા માટે ગુરુની સાક્ષી અથવા તે આત્મની સાક્ષીથી હેય વસ્તુને ત્યાગ કરે તેને પ્રત્યાખ્યાન કહે છે, તે દસ प्रारना - १-'प्रत्याख्यानम्' अत्र करणे, यद्वा भावे प्रत्याइ-पूर्वका चसिड् व्यक्ताया वाचि इत्यस्माल्ल्युटि, तस्यार्द्धधातुकत्वात्तस्मिन् परे चसिड' खुशाबादेशे, वशानः शफारस्य 'शस्य यो वे' ति यादेशे प्रत्याख्यानम् । यत्तु 'रया प्रमथने' इत्यस्य भत्याइपूर्वकस्य ल्युडन्तस्य प्रत्याख्यान भवती'-ति तथा प्रत्याख्यातीति प्रत्याख्याते'-ति च केचिदाहुस्तव्याकरणाज्ञानमूलकम् , 'ख्या मथने' इत्यस्य सार्वधातुकमात्रविपयफ्लात्, तदुन 'सस्थानत्व नम. ख्यात्रे' इति वार्तिके व्याकरणमहाभाष्यकारपतञ्जलिना-'नमः ख्यात्रे' इत्यत्र चसिडः खुशाबादेशे शमारस्य 'शस्य यो वे' ति कृतीयादेश 'शपरे विसर्जनीयः' इति सूत्र प्रत्यसिद्धः शर्परखपरत्वाद्विसर्गस्थ विसर्ग एव भवति न तु 'कुप्वो ४ क * पौ चे-ति सस्थानत्व (जिह्वामूलीयत्व) मिति 'नम ख्यारे' इत्यत्र सस्थानत्याभावश्चसिडः खशाआदेशस्य प्रयोजनमितरथा जिहामूलीयस्य दुर्वारत्वात्, यदि तु 'ख्या प्रकथने' इत्यस्य उनादी प्रयोग. स्यानदास्मातचि 'नम ख्यात्रे' इत्यत्र 'शपरे०' इत्यस्यामप्त्या निहामूलीयो दुर स्यादिति भाप्यासद्गतिः स्पप्टैव । अतएव 'पुख्यानम्। इत्यत्र 'पुमः खग्यम्परे' इति रु , 'सौख्ये भवः' इत्यर्थे 'योपवादगुरूपोत्तमादि'-ति बुन, 'आरयातम्' इत्यादौ 'सयोगादरातो धातोर्यण्वतः' इतिनिठानत्वम् , 'पर्याख्यानम् , इत्यादौ णत्व च 'शस्य यो वे'-त्यस्याऽसिद्धत्वेन नेति अपश्चितमन्यत्र विस्तरेण । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ आवश्यकमुत्रस्य 'अणागय' अनागतवैयाटच्या दिकारणवशान्निर्दिष्ट समयात्मागेव तपः करणम् (१) 'अइकत' अतिक्रान्त= निर्दिष्ट समयमतिक्रम्य तपोविधानम् ( २ ) | ' कोडीसहिय' कोटिसहितम् = यया कोट्या तपः समारब्ध तयैव तस्य परिसमापनम्, अर्थाच्चतुर्भक्तादिना समारब्ध तपश्चतुर्भक्तादिनैव समापनीयम् । 'णियटिय' नितरा यन्त्रित=प्रतिज्ञया प्रतिबद्ध नियन्त्रितम् = वैयावृत्त्यादिप्रगाढकारणसद्भावेऽपि ' मयाऽवश्यमेवमुकदिवसे तपः कर्तव्य' - मिति प्रतिज्ञाया कृताया कारणे सत्यपि नियमिततपश्ररणम् ( ४ ) । एतच्च वज्रर्षभनाराचसहन नधारिणा नगारेणैव क्रियते । 'सागार' उत्सर्गाऽपवाद हेतु गर्भेणाऽऽकारेण सह भर्तत इति साकारम्, इडोत्सर्गपक्षेऽनाभोग - सहसाकाराभ्यामवश्य भाव्यम्, अपवादपक्षे च महत्तराद्याकारै' (५) । ' अणागार' अविद्यमाना आकारा= (१) अनागत- वैयावृत्त्य ( वेयावच ) आदि कारणवश नियत समय से पहले तप करना, (२) अतिक्रान्त-नियत समय के बाद तप करना, (३) काटिसहित - जिस कोटि (चतुर्भक्त आदि क्रम) से प्रारम्भ किया उसी से समाप्त करना, (४) नियन्त्रित वैयावृत्त्य (वेयावच) आदि प्र कारणों के हो जाने पर भी सकल्पित तप का परित्याग न करना, यह प्रत्याख्यान वज्रऋषभनाराचसहननधारी अनगार ही कर सकते है । (५) सागार - जिसमे उत्सर्ग अवश्य रखने योग्य अपत्यणाभोग और सहसागार रूप तथा अपवाद ( महत्तर आदि) रूप आगार हो उसे सागार कहते है, (६) अणागार - जिसमे उक्त (१) मनोगत-वैयावृत्त्य (वैयावश्य) आहि अस्य वश नियत ( निर्णय કરેલા) સમય પહેલા તપ કરવું, (૨) તિકાન્ત નિયત (નિર્ણય કરેલા) સભ્ય પછી તપ ક×વુ, (૩) કૅટિહિત-જે કાટિ (ચતુર્ભીકત - આદિ ક્રમ) થી પ્રારંભ કર્યાં તેનાથીજ સમાપ્ત કરવુ, (૪) નિયત્રિત–વૈયાવૃત્ત્વ આદિ પ્રખલ કારણેા અની જાય તાપણું સકલ્પ કરેલા તપનેા પરિત્યાગ ન કરવે, આ પ્રત્યાખ્યાન વઋષભનારાચ-સ હુનન-ધારી અણુગારજ કરી શકે छे, (५) सागार - भा ઉત્સર્ગ વચ્ રાખવા ગ્ય मायुत्थाथालोग" "अने 6 સહસાગાર રૂપ” તથા અપવાદ ( મહત્ત આદિ) રૂપ આગાર તૈય તેને સાગાર કહે છે (६) माशार - प्रेमा * રૂપ આગાર (છૂટ) રાખવામાં નહિ આવે 88 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनितोपणी टीका, प्रत्याख्यानाध्ययनम् - ६ ३०३ " अनाभोगसहसाकारव्यतिरिक्ता महत्तरादयो यत्र तदनाकारम् (६) । 'परिमाणकड', परिमाण = दन्त्यादिरूप कृत = त्रिति यस्मिस्तत् ( ७ ) । 'निरवसेस' निर्गतानि अत्रशेपाणि=अवशिष्टान्यशनपानादीनि यत्र तत्, सर्वथाऽशनादिपरित्यागरूपमित्यर्थः (८) । ‘ सकेय' सङ्केतः=अङ्गुल्यादिचालनस्त्ररूपश्चिह्नविशेषः सोऽस्मिन्नस्तीति सङ्केतम्' –अङ्गुल्यादिसङ्केतावधिकमित्यर्थ, सृष्टिमोचनाऽङ्गुल्यादिपरिचालनादिक्रियातः प्रागेव प्रत्याख्यानमिति भावः (९) । 'अद्वाए' अद्धा = कालो= मुहूर्त्त पौरुष्यादिकस्तस्या (१०) । प्रत्याख्यानमिति दशस्वपि सम्बध्यते । अद्वामत्याख्यान चानेकधा तदुपदर्श्यते(१) नमोक्कारसहियपञ्चक्खाण C उग्गए सूरे नमुक्कारसहिय पच्चक्खामि चउविहपि आहार असण पाण खाइम साइम अन्नत्थणाभोगेण (१) सहसागारेणं (२) वोसिरामि । अपवाद रूप आगार ( छूट ) न रक्खे जायँ उसे अणागार कहते हैं, (७) परिमाणकृत - जिसमें दत्ति (दात) आदिका परिमाण किया जाय । (८) निरवशेष - जिसमें अशनादि का सर्वथा त्याग हो । (९) सकेतजिसमे मुट्ठी खोल्ने आदि का सकेत हो, जैसे- 'मैं जनतक मुट्ठी नही खोलूँगा तबतक मेरे प्रत्याख्यान है' इत्यादि । (१०) अद्धाप्रत्याख्यान - मुहूर्त्त पौरपी आदि काल सम्बन्धी प्रत्याख्यान | इसके अनेक भेद है, उनमें से मुख्य २ दस भेद कहते हैं जो सस्कृत टीका में स्पष्ट हैं || सू० १ ॥ તેને અણુાગાર કહે છે (૭) પરિમાણુકૃત-જેમા ત્તિ (દાત ) અદિનું પરિમાણુ पुरवामा आवे (८) निरवशेष - नेमा अशनाहिना सर्वथा त्याग होय (७) सतજેમા મુઠ્ઠી ખેલવા આદિના સ કેંત હાય, જેવી રીતે કે નહિ ખેાલુ ત્યા સુધી મારે પ્રત્યાખ્યાન છે” ઇત્યાદિ. મુહૂર્ત પાષી આદિ કાલ સખી પ્રત્યાખ્યાન તેના અનેક મુખ્ય દસ ભેદ કહે છે જે સસ્કૃત ટીકામા સ્પષ્ટ છે (સ્૦૧) १ अर्श आदित्वान्मत्वर्थीयोऽच् । “હુ જ્યા સુધી મુઠ્ઠી (૧૦) અદ્ધાપ્રત્યાખ્યાન ભેદ છે, તેમા મુખ્ય - Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकसूत्रस्य ' 'अणागय' अनागत वैयारत्यादिकारणवशानिर्दिष्टसमयामागेत्र तपः करणम् (१) 'अइफत' अतिक्रान्त-निर्दिष्टसमयमतिक्रम्य तपोविधानम् (२)। 'कोडीसहिय' कोटिसहितम् यया कोटया तपः समारब्ध तयैव तस्य परिसमापनम्, अर्थाचतुर्भक्तादिना समारब्ध तपश्चतुर्भक्तादिनैव समापनीयम् । "णियटिय' नितरा यन्त्रित पतिज्ञया पतिवद्ध नियन्त्रितम्-यावृत्यादिप्रगाढकारणसद्भावेऽपि 'मयाऽवश्यमेवामुकदिवसे तपः वर्तव्य'-मिति प्रतिज्ञाया कृताया कारणे सत्यपि नियमिततपश्चरणम् (४)। एतच्च वज्रर्पभनाराचसहन नधारिणाऽनगारेणैव वियते । 'सागार' उत्सर्गाऽपवादहेतुगर्भेणाऽऽकारेण सह वर्तत इति साकारम् , इहोत्सर्गपक्षेऽनाभोग-सहसाकाराभ्यामवश्य भाव्यम् । अपवादपक्षे च महत्तराधाकारैः (५)। 'अणागार' अविद्यमाना आकारा (१) अनागत-वैयावृत्त्य (वेयावच ) आदि कारणवश नियत समय से पहले तप करना, (२) अतिक्रान्त-नियत समय के बाद तप करना, (३) काटिसहित-जिस कोटि (चतुर्भक्त आदि क्रम) से प्रारम्भ किया उसीसे समाप्त करना, (४) नियन्त्रित-वैयावृत्त्य (वेयावच) आदि प्रवल कारणो के हो जाने पर भी सकल्पित तप का परित्याग न करना, यह प्रत्याख्यान वज्रऋषभनाराचसहननधारी अनगार ही कर सकते है। (५) सागार-जिसमें उत्सर्ग अवश्य रखने योग्य अण्णत्थणाभोग भोर सहसागार रूप तथा अपवाद (महत्तर आदि) रूप आगार हो उसे सागार कहते है, (६) अणागार-जिसमे उक्त (१) मनायत-वैयाकृत्य (वैया१२) मा ४५९५ १० नियत (निर्वाय કરેલા સમય પહેલા તપ કરવું, (૨) અતિક્રાન્ત નિયત નિર્ણય કરેલા) સમય પછી તપ કરવું, (૩) કેટિસહિત-જે કેટિ (ચતુર્ભકત આદિ કમ) થી પ્રારંભ કર્યો તેનાથી જ સમાપ્ત કરવું, (૪) નિયત્રિત-વૈયાવૃજ્ય આદિ પ્રબલ કારણે બની જાય તે પણ સ ક૫ કરેલા તપને પરિત્યાગ ન કર, આ પ્રત્યાખ્યાન વાવનારાચ–સહનન-ધારી અણગારજ કરી શકે છે, (૫) સાગાર-જેમાં ઉત્સર્ગ અવશ્ય રાખવા ચગ્ય “અણુયુગ” અને “ સહસાગાર રૂપ” તથા અપવાદ (મહાર-મોટા આદિ) રૂપ આગાર હોય તેને સાગર કહે છે (૨) અણગાર-જેમાં કહેલા અપવાદ રૂપ આગાર (છ) રાખવામાં નહિ આવે Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, प्रत्याख्यानाभ्ययनम् - ६ ३०३ अनाभोगसहसा कारव्यतिरिक्ता महत्तरादयो यत्र तदनाकारम् (६) । 'परिमाणकड' परिमाण = दयादिरूप कृत = विति यस्मिस्तत् ( ७ ) । 'निरवसेस' निर्गतानि अवशेपाणि=अवशिष्टान्यशनपानादीनि यत्र तत्, सर्वथाऽशनादिपरित्यागरूपमित्यर्थ' (८) । ' सकेय' सङ्केतः=अङ्गुल्यादिचालनस्त्ररूपश्चिह्नविशेष', सोऽस्मिन्नस्तीति सङ्केतम्' --अङ्गुल्यादिसङ्केतावधिकमित्यर्थः, मुष्टिमोचनाऽङ्गुल्यादि परिचालनादिक्रियातः प्रागेव प्रत्याख्यानमिति भावः ( ९ ) । 'अद्धाए' अद्धा = कालो= मुहूर्त्त पौरुष्यादिकस्तस्याः (१०) । प्रत्याख्यानमिति दशस्वपि सम्बभ्यते । अद्धापत्याख्यान चानेकधा तदुपदर्श्यते (१) नमोक्कारसहियपच्चक्खाण उग्गए सूरे नमुक्कारसहिय पच्चक्खामि चउविहपि आहार असण पाण खाइम साइम अन्नत्थणाभोगेण (१) सहसागारेण (२) वोसिरामि । अपवाद रूप आगार ( छूट ) न रक्खे जायँ उसे अणागार कहते हैं, (७) परिमाणकृत - जिसमें दत्ति (दात) आदिका परिमाण किया जाय । (८) निरवशेष - जिसमे अशनादि का सर्वथा त्याग हो । (९) सकेतजिसमे मुट्ठी खोलने आदि का संकेत हो, जैसे- 'मैं जबतक मुठी नही खोलूँगा तबतक मेरे प्रत्याख्यान है' इत्यादि । (१०) अद्धाप्रत्याख्यान - मुहर्त्त पौरपी आदि काल सम्वन्धी प्रत्याख्यान | इसके अनेक भेद है, उनमें से मुख्य २ दस भेद कहते हैं जो संस्कृत टीका मे स्पष्ट हैं | सृ० १ ॥ तेने मायागार उडे हे (७) परिभायुद्धृत-गेमा हत्ति ( हात ) महिनु परिभायु ४२वाभा भावे (८) निरवशेष-नेमा अशनाहिना सर्वथा त्याग होय (5) सडेतજેમા મુઠ્ઠી ખેલવા આદિના સ કેત હાય, જેવી રીતે કે “હુ જ્યા સુધી મુઠ્ઠી નહિ ખેાલુ ત્યા સુધી મારે પ્રત્યાખ્યાન છે” ઇત્યાદિ (૧૦) અદ્ધાપ્રત્યાખ્યાનમુહૂર્ત પેસ્પી આદિ કાલ સબન્ધી પ્રત્યાખ્યાન તેના અનેક ભેદ છે, તેમા મુખ્ય મુખ્ય દસ ભેદ કહે છે જે સસ્કૃત ટીકામા સ્પષ્ટ છે (સ્૦૧) १ अर्श आदित्वान्मत्वर्थीयोऽच् । - Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ - - - आवश्यकमूत्रस्य (९) अभिग्गहपच्चक्खाणं उग्गए सूरे गठिसहियं मुट्टिसहिय पञ्चक्खामि-चउविहपि आहारं असण पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थणाभोगेणं (१), सहसागारेणं (२), महत्तरागारेणं (३), सबसमाहिवत्तियागारेणं (४) वोसिरामि। (१०) निविगयपञ्चक्खाणं उग्गए सूरे निबिगइय पच्चक्खामि-चउविहपि आहार-असणं पाणं खाइम -साइम अन्नत्थणाभोगेणं (१), सहसागारेणं (२), लेवालेवेणं (३), गिहत्थससठेणं (४) उक्खित्तविवेगेणं (५), पडुच्चमक्खिएणं (६), पारिहावणियागारेणं (७), महत्तरागोरेण (८),सबसमाहिवत्तियागारेणं (९) वोसिरामि ॥ सू०१॥ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्न साहु महत्तरा आगार विवेगेण सख्या प्रत्याख्यानों के आगारों का यन्त्र सागा | आउ- | गुरु पारिहाआगार अन्नत्य सहसा पच्छन| दिसा रिया | दृण अमुहा वणिया-बर ख्यानणा गारेण कालेण मोहेण वयणणावत्तिया गारेण पसारेण णेण | गारेणी गारण पसारणा १ नवकारमी १ १ ० ० ० ० ० २ | पौरुपी । १ १ ३ पुरिमदद | १ १ १ १ १ १ १ . | | २ मुनितोपणी टीका, प्रत्याख्यानाध्ययनम्-६ ० |2| एकाशन . 2| ७/चउत्या (उपवास) ८ दिवसचरिम १ १ ० • ११० . 2020 १ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થવાય - - ઉદયભકિત - -- * | * | • • • • • • • • • • • • \ | \ge 2 * ° | | | | | | | | | | | | | | ખાટh-gne * |- |- | | | \ | | | | | \ | | |\ | \ | અome | કે | | * |- | | | | | | | | | \ \ | love. 1 - | * |- | | | | | | |\ | \ • • • • • vજme | * -- --- . એણ કમ્યા પ્રત્યાખ્યાન મેગ રણુભા થઇકાલેણ Ik 12 સસરણ | ઉફખિતા | વિગેણ (@TARાગારેણગારેણ િ 'ટુ ણિયે થી છg * ૨ રિયા8િ સમા | રબાર અસહસપિ પડુ | સમિહત્તસાગા' ટkle ३०८ પ્રત્યાખ્યાનના આગારનો યત્ન Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रत्याख्यानाध्ययनम् - ६ ३०९ एव यथाशक्ति प्रत्याख्याय गुरोरभिमुखस्तदभावे पूर्वाभिमुख उत्तराभिमुखो वा भूत्वा दक्षिण जानु भूमौ सस्थाप्य वाम चोविकृत्य साञ्जलिपुट 'नमोत्थु ण' इति पठेत, तथाहि ॥ मूलम् ॥ नमोत्थूण अरिहताणं भगवताणं आइगराण तित्थयराण सयसबुद्धाणं पुरिसुत्तमाण पुरिससीहाण पुरिसवरपुंडरीआण पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाण लोगनाहाण लोगहियाण लोगपईवाण लोगपज्जोअगराण अभयदद्याण चक्खुदयाणं मग्गदयाण सरणदयाणं जीवद्याण वोहिदयाण धम्मदयाण धम्मदेसयाण धम्मनायगाणं धम्मसारहीण धम्मवरचाउरतचक्कवट्टीण दीवो ताण सरण गई पट्ठा अप्पडिहयवरनाणदसणधराण विअहछउमाणं जिणाण जावयाण तिन्नाणं तारयाणं बुडाणं वोहयाणं मुत्ताणं मोयगाण सव्वन्नूण सव्वढरिसीण सिवमयलरुमयमणंतमक्खयमव्त्रावाहमपुणरावित्तिसिद्धिगडनामधेय ठाणं सपत्ताण नमो जिणाण जियभयाणं ॥ सू० २ ॥ ॥ छाया ॥ नमोऽस्तु अर्हद्भयो भगवद्भय आदिकरेभ्यस्तीर्थकरेभ्य स्वयसयुद्धेभ्यः पुरुषोत्तमेभ्य पुरुपसिंहेभ्य पुरपवरपुण्डरीकेभ्य पुरुपवरगन्धहस्तिभ्यो लोको इस प्रकार यथाशक्ति प्रत्याख्यान करके गुरुके निकट और उनके न रहने पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुँह करके पैटे, और दाहिने जानु (घुटने) को जमीन से अडा कर बायें जानु को ऊचा रखकर उसके उपर अञ्जलिपुट धरकर 'नमोत्युण' का पाठ बोले આ પ્રમાણે યથાશકિત પ્રત્યાખ્યાન કરીને ગુરુની પાસે અને તેએાની હાજરી ન હૈાય તેા પૂર્વ અથવા ઉત્તરદિશા તરફ મુખ રાખીને એમવુ અને જમણા પગના ઘુટણને જમીનથી અડાવી અર્થાત નીચે રાખી તથા ડાબા ઘુટણને ઉંચા રાખી तेना उपर मे हाथ लेडी "नमोत्थु णं" नो पाठ मोलवी Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० आवश्यक सूत्रस्य मेभ्यो लोकनाथेभ्यो लोकहितेभ्यो लोकमदीपेभ्यो लोकप्रयोतकरेभ्यः, अभयदयेभ्यश्चक्षुर्दयेभ्यो मार्गदयेभ्यः शरणदयेभ्यो जीवदयेभ्यो वोधिदयेभ्यो धर्मदयेभ्यो धर्म्म देशकेभ्यो धर्मनायकेभ्यो धर्मसारथिभ्यो धर्मवरचा तुरन्त चक्रवर्त्ति - भ्यो द्वीपस्त्राण शरण गतिः प्रतिष्ठा अप्रतिहतारज्ञानदर्शनधरेभ्यो व्यावृत्तच्छ्द्मभ्यो जिनेभ्यो जापकेभ्यस्तीर्णेभ्यस्तारकेभ्यो उद्धेभ्यो बोधकेभ्यो मुक्तेभ्यो मोचके भ्यः सर्वज्ञेभ्यः सर्वदशिभ्यः शिवमचलमरुजमनन्तमक्षयमन्यानाधमपुनरा वृत्ति सिद्धिगतिनामधेय स्थान सम्प्राप्तभ्यो नमो जिनेभ्यो जितभयेभ्यः || सू० २ ॥ ॥ टीका ॥ 'नमोत्यु ण' नमोऽस्तु 'ण' इति वाक्यालङ्कारेऽव्ययम् । 'अरिहताण' अरीन् = रागादिरूपान् शत्रून् घ्नन्ति = नाशयन्तीति व्युत्पत्त्याऽत्र सिद्धाऽर्द्धतोरुभयोररिहन्तृपदेन ग्रहण बोय, तेभ्योऽरिहन्तृभ्यः, एवमग्रेऽपि सर्वनेदृशस्थले । 'भगवताण' व्याख्यातो भगवessदार्थः । 'आइगराण' आदौ प्रथमतः स्वस्वशासनापेक्षया श्रुतचारित्रधर्मलक्षण कार्य कुर्वीत तच्छीला आदिकेरास्तेभ्यः 'तित्थयराण' तीर्यते= पार्यते ससारमोहमहोदधिर्येन यस्मात्रस्मिन्वेति तीर्थ चतुर्विधः सङ्घस्तत्करणशीलत्वात् तीर्थकरास्तेभ्यः । ' सयसबुद्धाण' स्वय= परोपदेशमन्तरेण सम्बुद्धा:= सम्यक्तया बोध प्राप्ताः - स्वयसम्बुद्धास्तेभ्य । ' पुरिमुत्तमाण' पुरुषेषु उत्तमाः श्रेष्ठा ज्ञानानन्तगुणत्वात् इति पुरुषोत्तमास्तेभ्य' । पुरिससीहाण 'पुरुषेषु सिंहा कर्म रूप शत्रुको जीतने वाले अरिहन्त और सिद्ध भगवान को नमस्कार हो । तचारित्ररूप धर्मकी आदि करनेवाले, जिससे ससार समुद्र तिरा जाय उसे 'तीर्थ' कहते हैं, वह तीर्थ चार प्रकार का है - साधु साध्वी श्रावक श्राविका ! इस चतुर्विध संघ की स्थापना करने वाले, स्वय बोधको पाने वाले, ज्ञानादि अनन्त गुणोंके કર્મરૂપ શત્રુને જીતવાવાળા અન્તિ અને સિદ્ધ ભગવાનને નમસ્કાર થાય શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મની આદિ કરવાવાળા, જેનાથી સસારસમુદ્ર તરી શકાય તેને "तीर्थ" उडे छे, ते तीर्थ यार प्रहारना है, साधु-साध्वी, श्रीवः अने श्राविश्र, એ ચતુર્વિધ સંઘની સ્થાપના કરવાવાળા, સ્વય બૈધને પ્રાપ્ત કરવાવાળા, જ્ઞાદિ અનન્ત ગુણાના ધારક હેાવાથી પુરુષામા શ્રષ્ઠ, રાગદ્વેષ આદિ શત્રુઓને પરાજય १-कमो हेतुताच्छील्येति कर्तरि टः । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोषणी टीका, प्रत्याख्यानाध्ययनम् - ६ ३११ रागद्वेषादिशत्रु पराजयेदृष्टाद्भुत पराक्रमत्वादिति यद्वा पुरुषाः सिंहा इवेति पुरुषसिंहास्तेभ्यः । ' पुरिसवरपुडरीयाण' पुण्डरीक = धवलकमल, चर च तत्पुण्डरीकं चरपुण्डरीक=धवल कमलप्रधान, पुरुषो वरपुण्डरीकमिवेत्युपमितसमासे पुरुषवरपुण्डरीक, पुरुपवरपुण्डरीक च पुरुषवरपुण्डरीक च पुरुषवरपुण्डरीक चेत्यादिरीत्यैकशेषे पुरुपवरपुण्डरीकाणि, तेभ्यः, भगवतो वरपुण्डरीकोषमा च विनिर्गताऽशुभमलीमसत्वात् सर्वैः शुभानुभावैः परिशुद्धत्वाच यद्वा यथा पुण्डरीकाणि पड्काज्जातान्यपि सलिले वर्द्धितान्यपि चोभयसम्वन्धमपहाय निर्लेपानीव जलोपरि रमणीयानि सन्दृश्यन्ने निजानुपमगुणगणनलेन सुरासुरनरनिकर शिरोधारणीयतयाऽतिमहनीयानि परमसुरवास्पदानि च भवन्ति तथेमे भगवन्तः कर्मपङ्काज्जाता भोगाम्भवर्द्धिताः सन्तोऽपि निर्लेपास्तदुभयतिवर्त्तन्ते गुणसम्पदाऽऽस्पदतया च केवलादिगुणभावादखिलभव्यजनशिरोधारणीया भवन्तीति, विस्तरस्वत्र शास्त्रान्तरेभ्योऽवलोकनीयः । 'पुरिसवरगधद्दत्थीण' गन्धयुक्ता हस्तिनो गन्ध धारक होने से पुरुषों मे श्रेष्ठ, राग द्वेष आदि शत्रुओंका पराजय करनेमे अलौकिक पराक्रम शाली होनेसे पुरुषों में सिंह के समान, समस्त अशुभ रूप मलसे रहित होने के कारण विशुद्ध, श्वेतकमल के समान निर्मल, अथवा जैसे कीचड से उत्पन्न और जलके योग से बढा हुआ होकर भी कमल उन दोनों के ससर्ग को छोड कर सदा निर्लेप रहा करता है और अपने अलौकिक सुगन्धि आदि गुणों से देव मनुष्य आदि के शिरोभूषण बनता है, वैसेही भगवान कर्मरूप कीचड से उत्पन्न और भोगरूप जलसे बढे हुए होकर भी उन दोनों के ससर्ग को छोड़कर निर्लेप रहते हैं, और केवलज्ञान आदि गुणों से परिपूर्ण रहने के कारण भव्यजनों के शिरोधार्य होते કરવામા અલૌકિક પરાક્રમાલી હેાવાથી પુરુષમા મિઠુ સમાન, સર્વ પ્રકારના અશુભ રૂપ મલથી રહિત હોવાના કારણે વિશુદ્ધ શ્વેત કમલના જેવા નિલ, અથવા જેમ કાદવમાંથી ઉત્પન્ન અને જલ-પાણીના ચેગથી વધેલેા હેાવા છતા કમલ એ બન્નેના સ સ ત્યજી હંમેશા નિર્લેપ રહે છે અને પેાતાના અલૌકિક સુગધ આદિ થેાથી દેવ મનુષ્ય આદિના શિરનું આભૂષણ અને છે તેવી જ રીતે ભગવાન કર્રરૂપ કાદવથી ઉત્પન્ન અને સેાગરૂપ જલથી વધીને પણ એ બન્નેના સસ ત્યજી નિલેષ મહે છે, અને કેવલ જ્ઞાન આદિ ગુણેથી પરિપૂર્ણ રહેવાના કારણે ભવ્ય જીવાને શિરાધાય Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३१० आवश्यकसूत्रस्य तमेभ्यो लोकनायेभ्यो लोकहितेभ्यो लोकपदीपेभ्यो लोकमयोतकरेभ्यः, अभय दयेभ्यश्चक्षुर्दयेभ्यो मार्गदयेभ्यः शरणदयेभ्यो जीवदयेभ्यो वोधिदयेभ्यो धर्मदयेभ्यो धर्मदेशकेभ्यो धर्मनायकेभ्यो धर्मसारयिभ्यो धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ति भ्यो द्वीपस्त्राण शरण गतिः प्रतिष्ठा अमतिहतवरज्ञानदर्शनधरेभ्यो व्यावृत्तच्छद्मभ्यो जिनेभ्यो जापकेभ्यस्तीर्णेभ्यस्तारकेभ्यो बुद्धेभ्यो योधकेभ्यो मुक्तेभ्यो मोचके भ्यः सर्वज्ञेभ्यः सर्वदशिभ्यः शिवमचलमरुजमनन्तमक्षयमव्यागराधमपुनरा वृत्तिसिद्धिगतिनामधेय स्थान सम्माप्तभ्यो नमो जिनेभ्यो जितभयेभ्यः ।। मू०२॥ ॥ टीका ॥ 'नमोत्थु ण' नमोऽस्तु 'ण' इति वास्थालङ्कारेऽव्ययम् । 'अरिहताण' अरीन्-रागादिरूपान् शत्रून् घ्नन्ति नाशयन्तीति व्युत्पत्त्याऽत्र सिद्धार्हतोरुभयोररिहन्तपदेन ग्रहण वोय, तेभ्योऽरिहन्तृभ्यः, एवमग्रेऽपि सर्वत्रेदशस्थले। 'भगवताण' व्याख्यातो भगवन्छब्दार्थ। 'आइगराण' आदौ प्रथमतः स्वस्वशासनापेक्षया श्रुतचारित्रधर्मलक्षण कार्य कुर्वन्ति तच्छीला आदिकरास्तेभ्य. 'तित्थयराण तीर्यते पार्यते ससारमोहमहोदधिर्यन यस्मायस्मिन्वेति तीर्थ-चतुर्विध सङ्घस्तत्करणशीलत्वात् तीर्थकरास्तेभ्यः। 'सयसबुद्धाण' स्वय-परोपदेशमन्तरेण सम्बुद्धा सम्यक्तया बोध प्राप्ताः-स्वयसम्बुद्धास्तेभ्यः । 'पुरिसुत्तमाण' पुरुषेषु उत्तमाः श्रेष्ठा ज्ञानाद्यनन्तगुणवचात् इति पुरुषोत्तमास्तेभ्यः । पुरिससीहाण' पुरुषेषु सिंहा कर्म रूप शत्रुको जीतने वाले अरिहन्त और सिद्ध भगवान को नमस्कार हो । श्रुतचारित्ररूप धर्मकी आदि करनेवाले, जिससे ससार समुद्र तिरा जाय उसे 'तीर्थ' कहते है, वह तीर्थ चार प्रकार का है-साधु साध्वी श्रावक श्राविका ! इस चतुर्विध सघ की स्थापना करने वाले, स्वय योधको पाने वाले, ज्ञानादि अनन्त गुणोंके કર્મરૂપ શત્રુને જીતવાવાળા અરિહનત અને સિદ્ધ ભગવાનને નમસ્કાર થાય થતચારિત્ર રૂપ ધર્મની આદિ કરવાવાળા, જેનાથી સ સારસમુદ્ર તરી શકાય તેને "ती" छ, ते तीर्थ यार प्रारना छ, साधु-सायी, श्राप४ मत श्रावि, એ ચતુર્વિધ સંઘની સ્થાપના કરવાવાળા, વય બેધને પ્રાપ્ત કરવાવાળા, જ્ઞાનાદિ અનન્ત ગુણના ધારક હોવાથી પુરુમાં શ્રેષ્ઠ, રાગદ્વેષ આદિ શત્રુઓને પરાજય १-कृयो हेतुताच्छील्येति तरि ट। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रत्याख्यानाध्ययनम् - ६ ३१३ नाहाण ' लोकाना=भव्याना नाथाः = नेतारो योग' - २ क्षेमकरत्वादिति लोक्नाथास्तेभ्यः, 'लोगडियाण' लोकः = एकेन्द्रियादिः सर्वप्राणिगणस्तस्मै हिताः रक्षोपायपथप्रदर्शकत्वालोकहितास्तेभ्यः । ' लोगपईवाण' लोकस्य = भव्यजनसमुदायस्य मदीपास्वन्मनोऽभिनिविष्टानादिमिथ्यात्वतम पटलव्यपगमेन विशिष्टात्मतत्त्वप्रकाशकत्वाद्दीपतुल्यास्तेभ्यः, यथा प्रदीपस्य सकलजीवार्थे तुल्यप्रकाशक्त्वेऽपि चक्षुमन्त एव तत्प्रकाशसुखभाजो भवन्ति न त्वन्धास्तथा भव्या एव भगवदनुभावसमुद्भूतपरमानन्दसन्दोह भाजो भवन्ति नाभव्या इति प्रतिबोधयितु मदीपष्टान्त', अत एव च लोकपदेन भव्यानामेव ग्रहणम् । 'लोगपज्जोयगराण' लोकशब्देनान-लोक्यते दृश्यते केवलाऽऽलोकेन यथावस्थिततयेति व्युत्पत्त्या और लब्ध रत्नत्रय के पालनरूप क्षेम के कारण होनेसे भव्य जीवों के नायक । एकेन्द्रिय आदि सकल प्राणिगण के हितकारक । जिस, प्रकार दीपक सबके लिये समान प्रकाशकारी है तो भी नेत्रवाले ही उससे लाभ उठा सकते हैं, नेत्रहीन नहीं, उसी प्रकार भगवान का उपदेश सबके लिये समान हितकर होने पर भी भव्यजीव ही उससे लाभ उठाते हैं, अभव्य नही, अतएव भव्यो के हृदय में अनादिकाल से रहे हुए मिथ्यात्वरूप अन्धकार को मिटाकर आत्माके यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करनेवाले । 'लोक' शब्द से यहाँ लोक और अलोक दोनों का ग्रहण है, अतएव केवलज्ञान रूपी आलोक અલભ્ય રત્નત્રયના લાભરૂપ ચેગ અને લબ્ધ રત્નત્રયના પાલનરૂપ ક્ષેમના કારણુ હાવાથી ભષ્ય જીવેના નાયક, એકેન્દ્રિય આદિ સકલ પ્રાણિગણના હિતકારક જે પ્રમાણે દીપક સર્વને માટે સમાન પ્રકાશ આપનાર છે તે પશુ નેત્રવાળા જીવા જ તેને લાભ પ્રાપ્ત કરી શકે છે, પણ નેત્રહીન પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી, તે પ્રમાણે ભગવાનના ઉપદેશ સૌના માટે સમાન હિતકર હાવા છતાય ભવ્ય જીવેા જ તેના લાભ પામી શકે છે, અસભ્ય થવા પામી રાકતા નથી એટલા માટે ભવ્ય જીવેાના હૃદયમાં અનાદિ કાલથી રહેલ મિથ્યાત્વરૂપ અન્ધકારને નિવારણુ કરી આત્માના યથાર્થ સ્વરૂપને પ્રકાશિત કરવાવાળા લેક શથી આ સ્થળે १- २ - अलब्धलाभो योग, लब्धपरिरक्षण क्षेम, इह च प्रकरणादन्धलब्धपदाभ्या रत्ननयस्य ग्रहणम् । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '३१२ आवश्यकमूत्रस्य हस्तिनः, वराथ, ते गन्धहस्तिनो वरगन्धहस्तिनः पुरुषा वरगन्धहस्तिनः पुरुपवरगन्धहस्तिनस्तेभ्यः । गन्धइस्तिलक्षण यथा --- " 56 यस्य गन्ध समाप्राय, पलायन्ते परे गजाः । त गन्धहस्तिन विद्यान्नृपतेर्विजयानहम् " ॥ इति । अत एव यथा गन्धस्तिगन्धमाघ्राय गजान्तराणीतस्ततो हुन पलाग्य क्वापि निलिलीयन्ते तद्वदचिन्त्यातिशयमभाववशाद्भगवद्विहरणसमीरणगन्ध सम्बध गन्वतोऽपीति- उमर - मरकादय उपद्रवा द्वारा दिक्षु मद्रवन्तीति, गन्धगजाश्रितराजद्भगवदाश्रितो भव्यगणः सर्वदा विजयवान् भवतीति भवत्युभयोयुक्त सादृश्यम् एतच्चै सर्वत्र चन्द्रमुखादिवदेकदेशिकतयैव न सर्वव्यापकतयेति नात्र कश्विदपि विपश्चिता केनापि कर्तु क्षमः क्षोदक्षेमः । 'लोगुत्तमाण' लोकेषु = भव्य समाजेषु उद्यमाश्चतुस्त्रिंशदतिशय-पञ्चत्रिंशद्वाणीगुणोपेतत्वात् तेभ्यः । 'लोगहैं। जिसका गन्ध सुँघते ही सब हाथी डर के मारे भग जाते हैं उस हाथी को 'गन्धरस्ती' कहते हैं, उस गन्धरस्ती के आश्रय से जैसे राजा सदा विजयी होता है उसी प्रकार भगवानके अतिशय से देशके अतिवृष्टि - अनावृष्टि आदि स्वचक्र-परचक्र भयपर्यन्त छह प्रकार की ईति, और महामारी आदि सभी उपद्रव तत्काल दूर होजाते हैं, और आश्रित भव्यजीव सदा सब प्रकार से विजयी होते हैं। चोतस अतिशयों और वाणी के पैतीस गुणो से युक्त होने के कारण लोगो मे उत्तम, अलभ्य रत्नत्रय के लाभरूप योग થાય છે જેને ગધ સુધત્તાજ સ` હાથી ડરીને ભાગી જાય છે તે હાથીને “ ગન્ધ હસ્તી' કહે છે તે ગધઠુસ્તીના આશ્રયથી જેમ રાજા હુમેશા વિજયી થાય છે તે પ્રમાણે ભગવાનના અતિશયથી દેશ । અતિવૃષ્ટિ અનાવૃષ્ટિ સ્માદિ વક્ર પરચ/ -ભય પન્ત છ પ્રકારની ઈતિ અને મહામારી આદિ સર્વાં ઉપદ્રવે તત્કાલ દૂર થઈ જાય છે, અને આશ્રિત ભવ્ય જીવે સદાય સ પ્રકારથી વિજયવાન્ થાય છે. ચાડીશ અતિશયા અને વાણીના પાત્રીશ ગુણુાથી યુકત હાવાના કારણે લેાકેામા ઉત્તમ, १- गन्धत' = लेशत इत्यर्थ, "गन्धो गन्धक आमोदे लेशे सबन्धगर्वयो " इति कोशात् । २- ईतयो यथा-" अतिवृष्टिरनावृष्टिर्मूषिका' शलभा खगा "। प्रत्यासन्नाश्च राजान' पडेता ईतय' स्मृता ॥” इति । ३- सादृश्यम् । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रत्याख्यानाध्ययनम्-६ प्रदर्शयति, तथा भगवन्तोऽपि भवाऽरण्ये रागद्वेपलुण्टा कलुष्टिताऽऽत्मगुणधनेभ्यो दुराग्रहपट्टिकाच्छादितज्ञानचक्षुभ्य मिथ्यात्वोन्मार्गे पातितेभ्यस्तदपनयनपूर्वक ज्ञानचक्षुर्दत्त्वा मोक्षमार्गे प्रदर्शयन्ति । एतदेव भगयन्तरेणाऽऽह - 'मग्गदयाण' मार्गः = सम्यग्रत्नत्रयलक्षणः शिवपुरपथ, यद्वा विशिष्टगुणस्थानावापकः क्षयोपशमभावो मार्गस्तस्य दया: = दातारस्तेभ्यः । ' सरणदयाण' शरण = परित्राण, कर्मरिपुवशीकृततया व्याकुलाना प्राणिना रक्षणस्थान वा तस्य दयास्तेभ्यः । 'जीवदयाण' जीवेपु = एकेन्द्रियादिसमस्तप्राणिषु दया= सङ्कटमोचनलक्षणा येषामिति, यद्वा जीवन्ति मुनयो येन स जीवः =सयमजीवित तस्य दयास्तेभ्यः । 'वम्मदयाण' धर्म = दुर्गतिमपतज्जन्तु संरक्षणलक्षणः श्रुतचारित्रात्मकस्तस्य दया ३१५ (अरण्य) मे राग-द्वेपरूप लुटेरो से ज्ञानादि गुण लुटाये हुए तथा कदाग्रह रूप पट्टे से ज्ञाननेत्र को ढक कर मिथ्यात्व के गड्ढे में गिराये हुए उन भव्य जीवो के उस कदाग्रह रूप पट्टे को दूर कर उन्हे ज्ञान नेत्र देने वाले, अतएव सम्यक्रत्नत्रयस्वरूप मोक्ष मार्ग, अथवा विशिष्ट गुण को प्राप्त कराने वाला क्षयोपशमभाव रूप मार्ग को देनेवाले, कर्मशत्रुओ से दुखित प्राणियों को शरण (आश्रय देनेवाले, पृथिव्यादि पजीवनिकाय में दया रखने वाले, अथवा मुनियों के जीवनाधारस्वरूप सघमजीवित को देनेवाले, सम- सवेग आदि के प्रकाशक, अथवा जिनवचन मे रुचि को देनेवाले, दुर्गति मे पडते हुए प्राणियों के धारक, अथवा श्रुत- चारित्र रूप धर्म को देनेवाले, धर्म के उपदेशक, धर्म के नायक अर्थात् તથા કદાગ્રહ રૂપી પાટા ખાધી જ્ઞાનનેત્રને ઢાકીને મિથ્યાત્વ રૂપ ખાડામા નાખેવા તે ભવ્ય જીવેાના કદાગ્રહ રૂપ પાટાને દૂર કરી તેમને જ્ઞાનનેત્ર આપવાવાળા, એટલે કે સમ્યક્ રત્નત્રયસ્વરૂપ મેક્ષમાર્ગ, અથવા વિશિષ્ટ ગુણ પ્રાપ્ત કરાવનાર યૈપશમ ભાવ રૃપ મા ના માપવાવાળા કશત્રુઓથી ૬ ખિત પ્રાણીઓને શણુ-આશ્રય દેનારા, પૃથ્વી આદિ ષડ્ઝનિકાયમા દયા રાખવાવાળા, અથવા સુનિયેાના જીવનાધાર સ્વરૂપ સયમજીવનના દેવાવાળા સમસવેગ આદિના પ્રકાશક, અથવા જિનવચનમા રુચિ આપનારા, દુર્ગતિમા પડતા જીવેને ધારણ કરનાર, અથવા શ્રુત-ચારિત્ર રૂપ ધર્મના દેવાવાળા ધર્મ ઉપદેશક ધર્મના નાયક અર્થાત્ પ્રવર્ત્તક ધર્મના સારથી Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ आवश्यक सूत्रस्य 9 " लोकालोकयोरुभयोर्ग्रहण, तेन लोकस्य = लोकालोकलक्षणस्य सकलपदार्थस्य प्रद्योतः - लोकालोकमधोतस्त कर्त्तुं शील येषा ते लोकालोकमतकराः = सर्वलोकप्रकाशकरणशीलास्तेभ्यः, ताच्छील्ये कर्तरि टः प्रत्ययः । ' अभयदयाण' न भयमभय भयानामभावो वा अभयमक्षोभलक्षण आत्मनोऽनस्थाविशेषो मोक्षसाधनभूतमुत्कृष्टधैर्यमिति यावत् दयन्ते ददतीति दयाः २, अभयस्याभय वा दयाः अभयदयाः, यद्वा-अभयाभयविरहिता दया= सर्वजीवसङ्कट प्रतिमोचनस्वरूपाऽनुकम्पा येषा तेऽभयदयास्तेभ्यः । 'चक्सुदयाण' चक्षुः ज्ञान निखिलवस्तुतत्वावभासकतया चक्षु. सादृश्यात्, तस्य दयाः दायका क्षुर्दयास्तेभ्य., यथा हरिणादिशरण्येऽरण्ये लुण्टाकलुष्टितेभ्यः पट्टिकादिदानेन चक्षूपि पिधाय हस्तपादादि बद्ध्वा तैर्गर्ते पातितेभ्य कश्चित्पट्टिकायपनोदनेन चक्षुर्दवा मार्गे (प्रकाश) से समस्त लोकालोक के प्रकाश करने वाले । मोक्ष के साधक, उत्कृष्ट धैर्यरूपी अभय को देनेवाले, अथवा समस्त प्राणियों के सकट को छुडानेवाली दया (अनुकम्पा ) के धारक । ज्ञान नेत्र के दायक, अर्थात् जैसे किसी गहन वनमें लुटेरों से लूटे गये और आखों पर पट्टी बाधकर तथा हाथ-पैर पकडकर गड्ढे में गिराये गये पथिक के सब बन्धनो को तोडकर कोई दयालु नेत्र खोल देता है, इसी प्रकार भगवान भी ससाररूपी अपार कान्तार લેક અને અલાક બન્નેનુ ગ્રહણ કરેલું છે, ખેટલા માટે કેવળજ્ઞાન રૂપી આલેાક (પ્રકાશ) થી સમસ્ત લેાકાલેાકના પ્રકાશ કરવાવાળા મેાક્ષના સાધક, ઉત્કૃષ્ટ ધૈયરૂપી અભયના દેવાવાળા, અથવા સમસ્ત પ્રાણીએના કટને છેડાવવાવાળી દયા (અનુકમ્પા)ના ધારક જ્ઞાન નેત્રના આપવાવાળા, અર્થાત્ જેમ ફાઇ ગાઢ વનમા લુટારાથી લુટામેલા અને નેત્ર ઉપર પાટા ખાધીને તથા હાથ પગને પકડીને ગહુરા ખાડામાં ફેકી દીધા હૈાય તેવા મુમાને કાઈ દયાળુ માણુસ આવીને તેના તમામ બધના તેડીને નેત્રને ખેલી આપે છે, એ પ્રમાણે ભગવાન પણ સ સાર રૂપી વિષમ વનમા રાગ-દ્વેષ રૂપી લુટારાઓથી જ્ઞાનાદિ ગુણુ લુટાએલા १ - ' अविघ्न' - मित्यादिवदभावार्थ कनमा 'अव्यय विभक्ती' -स्यव्ययीभाव" । २- 'दया' - पचादेराकृतिगणत्वादच् । ३- अव्ययीभावपक्षे पष्ट्या 'नाव्ययीभावादतोऽस्वपश्वम्या' इत्यमादेश | Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रत्याख्यानाध्ययनम्-६ पदर्शयति, तथा भगवन्तोऽपि भवाऽरण्ये रागद्वेपल्लुण्टाकलुष्टिताऽऽत्मगुणधनेभ्यो दुराग्रहपट्टिकाऽऽच्छादितज्ञानचक्षुभ्यों मिथ्यात्वोन्मार्गे पातितेभ्यस्तदपनयनपूर्वक ज्ञानचक्षुर्दचा मोक्षमार्ग प्रदर्शयन्ति। एतदेव भङ्गयन्तरेणाऽऽह-'मग्गदयाण' मार्गः सम्यग्रत्नत्रयलक्षणः शिवपुरपथ., यद्वा विशिष्टगुणस्थानावापकः क्षयोपशमभावो मार्गस्तस्य दया दातारस्तेभ्यः । 'सरणदयाण' शरण-परित्राण, कमरिपुवशीकृततया व्याकुलाना प्रागिना रक्षणस्थान वा तस्य दयास्तेभ्यः । ‘जीवदयाण' जीवेपु=एकेन्द्रियादिसमस्तपाणिपु दया सङ्कटमोवनलक्षणा येपामिति, यद्वा जीवन्ति मुनयो येन स जीवः सयमजीवित तस्य दयास्तेभ्यः । 'धम्मदयाण' धर्म =दुर्गतिपपतजन्तुसरक्षणलक्षण. श्रुतचारित्रात्मकस्तस्य दया(अरण्य) में राग-द्वेपरूप लुटेरो से ज्ञानादि गुण लुटाये हुए तथा कदाग्रह रूप पट्टे से ज्ञाननेत्र को ढक कर मिथ्यात्व के गड्ढे में गिराये हुए उन भव्य जीवों के उस कदाग्रह रूप पट्टे को दूर कर उन्हे ज्ञान नेत्र देने वाले, अतएव सम्यक्ररत्नत्रयस्वरूप मोक्ष मार्ग, अथवा विशिष्ट गुण को प्राप्त कराने वाला क्षयोपशमभाव रूप मार्ग को देनेवाले, कर्मशत्रुओं से दुखित प्राणियों को शरण (आश्रय) देनेवाले, पृथिव्यादि पड्जीवनिकाय मे दया रखने वाले, अथवा मुनियों के जीवनाधारस्वरूप सयमजीवित को देनेवाले, सम-सवेग आदि के प्रकाशक, अथवा जिनवचन में रुचि को देनेवाले, दुर्गति में पड़ते हुए प्राणियों के धारक, अथवा श्रुत-चारित्र रूप धर्म को देनेवाले, धर्म के उपदेशक, धर्म के नायक अर्थात् તથા કદાગ્રહ રૂપી પાટા બાંધી જ્ઞાનનેત્રને ઢાકીને મિયાત્વ રૂપ ખાડામાં નાખવા તે ભવ્ય છાના કાગ્રહ રૂપ પાટાને દૂર કરી તેમને જ્ઞાનનેત્ર આપવાવાળા, એટલે કે સમ્યક રત્નત્રયસ્વરૂપ મેક્ષમાર્ગ, અથવા વિશિષ્ટ ગુણ પ્રાપ્ત કરાવનાર ક્ષપશમ ભાવ રૂપ માન આપવાવાળા કર્મશત્રુઓથી દુખિત પ્રાણીઓને શરણું-આશ્રય દેનારા, પૃથ્વી આદિ વજીવનિકાયમી દયા રાખવાવાળા, અથવા સુનિના જીવનાધાર સ્વરૂપ સ યમજીવનના દેવાવાળા સમ સ વેગ આદિના પ્રકાશક, અથવા જિનવચનમાં ચ આપનારા, દુર્ગતિમા પડતા ને ધારણ કરનાર, અથવા યુત-ચારિત્ર ૩૫ ધર્મના દેવાવાળા ધર્મ ઉપદેશક ધર્મના નાયક અર્થત પ્રવર્તક ધર્મના સારથી Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ आवश्यकमूत्रस्य स्तेभ्यः । 'धम्मदेसयाण' धर्मः मारुमतिपादितलक्षणस्तस्य देशका उपदेशकास्तेभ्यः। 'धम्मनायगाण' धमस्य नायका नेतारः प्रभव इति यावत् धर्मनायफास्तेभ्यः । धम्मसारहीण' धर्मस्य सारथयः धर्मसारथयस्तेभ्यः, भग वत्स सारथिवाऽऽरोपेण धर्म रथखाऽऽरोपो व्यज्यत इति परम्परितरूपकमलङ्कारस्तस्माद् यथा सारथयो रयद्वारा तत्स्थमध्वनीन मुखपूर्वकमभीष्ट स्थान नयन्त्युन्मार्गगमनादितश्च गतिरुन्धन्ति तथा भगवन्तो धर्मद्वारा मोक्षस्थानमिति भावः । 'धम्मवरचाउरतचकवट्टीण' दान-शील-तपो-भावैः चतरणा नरकादिगतीना चतुर्णा वा कपायाणामन्तो नाशो यस्मात्, अथवा चतस्रो गतीश्चतुरः कषायान् वा अन्तयति-नाशयतीति, यद्वा चतुभिर्दान-शील-तपो-भावैः कृत्वा अन्तो - रम्यः, अथवा चत्वारसदानादयः अन्ताः अवयवा यस्य, यद्वा चत्वारिन्दानादीनि अन्तानि स्वरूपाणि यस्य, 'अन्तोऽवयवे स्वरूपे च' इति हेमचन्द्रः, स प्रवर्तक, धर्म के सारथी अर्थात् जिस प्रकार रथपर चढे हुए को सारथी रथके द्वारा सुखपूर्वक उसके अभीष्ट स्थान पर पहुँचाता है उसी प्रकार भव्य प्राणियों को धर्मरूपी रथ के द्वारा सुखपूर्वक मोक्ष स्थान पर पहुँचाने वाले, दान-शील-तप और भाव से नरक आदि चार गतियों का अथवा चार कपायों का अन्त करने वाले, अथवा चार दान शील तप और भाव से अन्त-रमणीय, या दान आदि चार अन्त-अवयव वाले, अथवा दान आदि चार अन्त - स्वरूप वाले, અર્થાત જેવી રીતે રથ પર બેઠેલાને સારથી રથ દ્વારા સુખપૂર્વક તેના ધારેલા સ્થાનકે પહેચાડે છે તે પ્રમાણે ભવ્ય પ્રાણીઓને ધર્મરૂપી રથ વડે સુખપૂર્વક મેક્ષ સ્થાન પર પહોચાડવાવાળા દાન-શીલ-તપ અને ભાવથી નરક આદિ ચાર ગતિઓને અથવા ચાર કષાને અન્ન કરવાવાળા, અથવા ચાર દાન-શીલ-તપ અને ભાવથી અન્ત-રમણીય, અથવા દાન આદિ ચાર અન્ત-અવયવવાળા, અથવા દાન આદિ ચાર અન્ત-સ્વરૂપવાળા શ્રેષ્ઠ ધર્મને “ધર્મવરચાતુરન્ત” કહે છે, એ જ १-इदोनोपु सर्वत्र 'त दयन्ते' इत्यपव्याख्यानम् 'अधीगर्थदयेशाम्-इति कर्मणि पठधुपपत्तेः, शेपत्वाविवक्षाया द्वितीयाया सत्त्वेऽपि वा 'कर्मण्यण' (३ । २११) इत्यणुत्पत्त्या अभयदायेभ्य' इत्यायनिष्टमयोगापत्तेदुरित्वादित्यास्तामिदम् । २-अन्तोः रम्यः-'मृतावसिते रम्ये समाप्तावन्त इप्यते' इति विश्वकोप.। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रत्याख्यानाध्ययनम् - ६ ३१७ , चतुरन्तः, स एव चातुरन्तः १, स्वार्थिकः प्रज्ञाद्यण, चातुरन्त एव चक्र जन्म-जरा- मरणोच्छेदकत्वेन चक्रतुल्यत्वात्, वर च तत् चातुरन्तचक्र वरचातुरन्तचक्र, वरपदेन राजचक्रापेक्षयाऽस्य श्रेष्टत्व व्यज्यते, लोकद्वयसाधकत्वात्, धर्म एव वरचा तुरन्तचक्र धर्मरचातुरन्तचक्र तादृशस्य धर्मातिरिक्तस्यासम्भवात्, अत एव सौगतादिधर्माभासनिरासः तेपा तात्त्विकार्थप्रतिपादकत्वाभावेन श्रेष्ठत्वाभावात्, धर्मवरचा तुरन्तचक्रेण वर्त्तितु शील येपामिति धर्मवरचा तुरन्तचक्रवर्त्तनस्तेभ्यः, चक्रवर्तिपदेन पट्खण्डाधिपतिसादृश्य व्यज्यते, तथाहि चत्वारः= उत्तरदिशि हिमवान्, शेर्पादिक्षु चोपाधिभेदेन समुद्राः अन्ताः सीमानस्तेषु स्वामित्वेन भवाश्रातुरन्ताः, चक्रेण = रत्नभूतप्रहरणविशेषेण वर्त्तितु शील येषा ते चक्रवर्तिनः, चातुरन्ताथ ते चक्रवर्त्तिनश्चातुरन्वचक्रवर्त्तिनः धर्मेण = न्यायेन वराः श्रेष्ठा इतरराजापेक्षयेति धर्मबराः 'धर्मा. पुण्य-यम- न्याय - स्वाभावाऽऽचार - सोमपाः' इत्यमरः, ते च ते चातुरन्तचक्रवर्त्तिनथेति धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्त्तिनः, यद्वा चातुरन्त च तच्चक्र - चातुरन्तचक्र वर च तच्चातुरन्तचक्र - वरचातुरन्तचक्र, धर्मो श्रेष्ठ धर्म को 'धर्मरचातुरन्त' कहते हैं, यही जन्म जरामरण के नाशक होने से चक्र के समान है, अतएव धर्मवरचातुरन्त रूप चक्र के धारक । यहां पर 'वर' पद देने से राजचक्र की अपेक्षा धर्मचक्र की उत्कृष्टता सूचित की गयी है, तथा सौगत आदि धर्म का निराकरण किया गया है, क्यों कि राजचक्र केवल इस लोकका साधक है परलोकका नहीं, तथा सौगत आदि धर्म यथार्थ तत्त्वों का निरूपक न होने से वह श्रेष्ठ नहीं है । 'चक्रवर्ती' पद देने से तीर्थङ्करों को छह खण्ड के अधिपति राजा की उपमा दी गई है, क्यों कि वह राजा भी चार अर्थात् उत्तर दिशामें हिमवान और पूर्व-दक्षिण-पश्चिम दिशामें જન્મ જરા અને મરણનું નાશક હાવાથી ચક્ર સમાન છે એટલે ધ વરચાતુરન્ત રૂપ ચક્રના ધારક અહિં વર' પદ આપવાથી રાજચક્રની અપેક્ષા ધર્મચક્રની ઉત્કૃષ્ટતા તથા સોગત આદિ ધર્મોનું નિરાકરણ કરવામા આ યુ છે કારણ કે –રાજચક્ર કેવલ આ લેાકનું સાધન છે, પરલોકનું નથી, તથા સૌગત આદિ ધમ યથાર્થ તત્વનું નિશ્પક ન હાવાથી તે શ્રેષ્ઠ નથી ‘ચક્રવત્તિ’ પદ આપવાથી તીર્થંકરાને છ ખંડના અધિપતિ રાજાની ઉપમા આપી છે કારણ કે તે રાજા પણ ચાર અર્થાત્ ઉત્તર દિશામા હિમવાન્ અને Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ आवश्यकमूत्रस्य वरचा तुरन्तचक्रमिव-धर्मपरचा तुरन्तचक्र तेन वर्त्तितु वर्तयितु वा शील्मेषामिति । 'दीवो' द्वीपः ससारसमुद्रे निमज्जता द्वीपतुल्यसात्, 'ताण' त्राण = कर्मकदर्थिताना भव्याना रक्षणसक्षणः, अत एव तेपा 'सरणगई' शरणगति:= आश्रयस्थानम्, 'पड्डाण प्रतिष्ठान = कालत्रयेऽप्यविनाशित्वेन स्थितः, 'दीवो'इत्यादीनि 'पट्टा' इत्यन्तानि सौनत्वाच्चतुर्थ्यर्थे प्रथमैकवचनान्तानि, 'त्राण' - मिति नपुसकत्व 'प्रतिष्ठे' - ति स्रीत्व च भगवतः सर्वशक्तिमत्त्वप्रदर्शनाय । 'अप्पडिsयवरनाणदसणधराण' प्रतिद्दत = भिन्यायावरणस्खलित, न प्रतिहतमप्रतिहत ज्ञान च दर्शन चेति ज्ञानदर्शने, वरे श्रेष्ठे च ते ज्ञानदर्शने परज्ञानदर्शने केवल ज्ञानकेवलदर्शने अपहिते वरज्ञानदर्शने - अप्रतिहतवरज्ञानदर्शने, धरन्तीति धरा' अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनयोर्धराः - अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरा = आवरणरहित केवलज्ञानकेवलदर्शनधारिणस्तेभ्यः । ‘विभट्टछउमाण' जायते = आप्रियते केवलज्ञान केवल दर्शनाद्यात्मनोऽनेति छद्म=धातिकर्मवृन्द ज्ञानावरणीयादिरूप वा कर्म्मजातम्, व्यावृत्तनिवृत्त छद्म येभ्यस्ते व्यावृत्तच्छमानस्तेभ्य' । 'जिणाण' जिनेभ्य'= स्वय-राग-द्वेष - शत्रुजेतभ्य । 'जावयाण' जापयन्ति = जयन्त भव्यजीवगण लवण समुद्र हैं सीमा जिसकी ऐसे भरतक्षेत्र पर एकशासन राज्य करता है । ससार समुद्र मे डूबते हुए जीवोंके एक मात्र आश्रय होने से द्वीप समान, कर्मों से सत्रस्त भव्य जीवो की रक्षामे दक्ष होने से त्राणरूप, उनको शरण देने के कारण शरणगति - आश्रयस्थान । तीनो कालमे अविनाशी स्वरूपवाले होने से प्रतिष्ठानरूप | आवरण रहित केवलज्ञान केवलदर्शन के धारक । ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का नाश करने वाले । राग-द्वपरूप शत्रु પૂર્વ-દક્ષિણ-પશ્ચિમ દિશામા લવણુ સમુદ્ર છે સીમા જેની એવા ભરત ક્ષેત્ર પર એકશાસન રાજ્ય કરે છે સસારસમુદ્રમા ડૂબતા જીવાને એકમાત્ર આશ્ચય હાવાથી દ્વીપ સમાન, કર્મોથી સતાપ પામેલા ભવ્ય જીવેાની રક્ષામા દક્ષ હાવાથી (કુશળ ઢાવાથી) તાણુરૂપ, તેઓને શરણુ દેવાવાળા હાવાથી શરÇગતિ-આશ્રયસ્થાન ત્રણે કાલમા અવિનાશી સ્વરૂપવાળા હાવાથી પ્રતિષ્ઠાન રૂપ આવરણુરહિત કેવલજ્ઞાન ધ્રુવલ નના ધારક જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોના નાશ કરવાવાળા રાગ-દ્વેષરૂપ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रत्याख्यानाध्ययनम्-६ ३१९ धर्मदेशनादिना प्रेरयन्तीति जापका, तेभ्यः । 'तिन्नाण' स्वय ससारौघ तीर्णास्तेभ्यः। 'तारयाण' तारयन्त्यन्यानिति तारकास्तेभ्यः । 'बुद्धाण' युद्धेभ्यः स्वय वोध प्राप्तेभ्यः । 'वोहयाण' वोधयन्त्यन्यानिति बोधकास्तेभ्यः । 'मुत्ताण' अमोचिपत स्वय कर्मपञ्जरादिति मुक्तास्तेभ्यः । 'मोयगाण' मुच्यमानानन्यान् प्रेरयन्तीति मोचकास्तेभ्यः। 'सम्वन्नूण' सर्वसम्लद्रव्य-गुण-पर्यायलक्षण वस्तुजात याथातथ्येन जानन्तीति सर्वज्ञास्तेभ्यः । 'सन्चदरिसीण' सर्व समस्तपदार्थस्वरूप सामान्येन द्रष्टु शील येपा ते सर्वदर्शिनस्तेभ्यः। 'सिव' शिव निखिलोपद्रवरहिताखान्छिन (कल्याण) मयम् , स्थानमित्यस्य विशेषणमिदम्, शिवादीना सर्वेपा द्वितीयान्तानामग्रेतनेन 'सम्प्राप्तेभ्य' इत्यनेन सम्बन्धः । 'अयल' अचलम् स्वाभाविकमायोगिकचलनक्रियाशून्यम् । 'अरुय' अरुजम्-अविद्यमाना रुजा यस्मिस्तत्, तत्रात्मनामविद्यमानशरीरमनस्कलादाधिव्यापिरहितमित्यर्थः । 'अणत' अविधमानोऽन्तो नाशो यस्य तत् । अत एव 'अक्खय' नास्ति लेशतोऽपि क्षयो यस्य वत्-अविनाशीत्यर्थः । 'अब्बावाह' न विद्यते व्यावाधा-पीडा द्रव्यतो भारतश्च यत्र तत् । 'अपुणरावित्ति' अविधमाना पुनरावृत्ति. ससारे पुनरवतरण यस्मात् तत्, यत्र गला न कदाचिदप्यात्मा विनिवर्चते, समाम्नातमन्यत्रापि न स पुनरावर्त्तते न स पुनरावर्तते' इति । इत्यमुक्तशिवत्वादिविशेषणविशिष्टम् 'सिद्रिगइनाम पेय' सिद्धिगतिरिति को स्वय जीतने वाले और दूसरों को जीताने वाले । भवसमुद्र को स्वय तैरने वाले और दूसरों को तिराने वाले । स्वय बोध को प्राप्त करने वाले और दूसरों को प्राप्त कराने वाले । स्वय मुक्त होने वाले और दूसरे को मुक्त कराने वाले । सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा निरुपद्रव, निश्चल, कर्मरोगरहित, अनन्त, अक्षय, बाधारहित, पुनरागमनरहित, ऐसे सिद्धिस्थान अर्थात् मोक्ष को प्राप्त सिद्ध શત્રુઓને પિતેજ જીતવાવાળા અને બીજાઓને જીતાવવાવાળા ભવસમુદ્રને પિતે તરવાવાળા અને બીજાને તારવાવાળા, સ્વય બોધ પ્રાપ્ત કરનારા અને બીજાને બોધ પ્રાપ્ત કરાવનારા, સ્વય મુકત થવાવાળા અને બીજાને મુક્ત કરનારા સર્વજ્ઞ, સર્વદશ તથા નિરુપદ્રવ, નિશ્ચલ, કર્મવેગ રહિત, અનન્ત, અક્ષય, १- जापका-'जि' धातोणी 'क्रीड्जीणा'-मित्यात्वे ण्यन्ताण्ण्वुल् । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकत्रस्य वरचातुरन्तचक्रमिव-धर्मवरचातुरन्तचक्र तेन वर्तितु वर्तयितु वा शीलमेषामिति । 'दीवो' द्वीपः ससारसमुद्रे निमज्जता द्वीपतुल्यसात् , 'ताण' त्राण-कर्मकर्थिताना भव्याना रक्षणसक्षणः, अत एव तेपा 'सरणगई' शरणगतिःआश्रयस्थानम् , 'पइटाण' प्रतिष्ठानकालत्रयेऽप्यविनाशित्वेन स्थितः, 'दीवो'इत्यादीनि 'पइट्टा' इत्यन्तानि सौनत्वाचतुर्थ्यर्थे प्रथमैकवचनान्तानि, 'त्राण'मिति नपुममत्व 'प्रतिष्ठे'-ति स्त्रीत्व च भगवत. सर्वशक्तिमत्वमदर्शनाय । 'अप्पडिहयवरनाणदसणधराण' प्रतिहत-भियायावरणस्खल्ति, न प्रतिहतमपतिहत ज्ञान च दर्शन चेति ज्ञानदर्शने, वरे श्रेष्ठे च ते ज्ञानदर्शने वरज्ञानदर्शने केवलज्ञानकेवलदर्शने अपतिहते वरज्ञानदर्शने-अपतिहतवरज्ञानदर्शने, धरन्तीति धरा' अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनयोधरा'-अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरा आवरणरहितकेवलज्ञान केवलदर्शनधारिणस्तेभ्यः । 'विअट्टछउमाण' डायते-आरियते केवलज्ञानकेवलदर्शनावात्मनोऽनेति छद्म-धातिकमवृन्द ज्ञानावरणीयादिरूप वा कर्मजातम्, व्यारत्त-निवृत्त छद्म येभ्यस्ते व्यावृत्तच्छयानम्तेभ्यः । 'जिणाण' जिनेभ्यः= स्वय-राग-द्वेप-शत्रुजेतभ्यः । 'जावयाण' जापयन्ति जयन्त भव्यजीवगण लवण समुद्र है सीमा जिसकी ऐसे भरतक्षेत्र पर एकशासन राज्य करता है। ससार समुद्रमे डूबते हुए जीवोंके एक मात्र आश्रय होने से द्वीप समान, कर्मों से सत्रस्त भव्य जीवों की रक्षामे दक्ष होने से त्राणरूप, उनको शरण देने के कारण शरणगति-आश्रयस्थान । तीनों कालमें अविनाशी स्वरूपवाले होने से प्रतिष्ठानरूप। आवरण रहित केवलज्ञान केवलदर्शन के धारक। ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का नाश करने वाले । राग-द्वपरूप शत्रु પૂર્વ-દક્ષિણ-પશ્ચિમ દિશામાં લવણ મમુદ્ર છે સીમા જેની એવા ભરત ક્ષેત્ર પર એકશાસન રાજ્ય કરે છે તે સારસમુદ્રમાં ડૂબતા અને એકમાત્ર આશ્રય હેવાથી દ્વીપ સમાન, કર્મોથી સ તાપ પામેલા ભવ્ય ની રક્ષામા દક્ષ હેવાથી (કુશળ હોવાથી) ત્રાણરૂપ, તેઓને શરણુ દેવાવાળા હેવાથી શરણાગતિ-આશ્રયસ્થાન ત્રણે કાલમા અવિનાશી સ્વરૂપવાળા હોવાથી પ્રતિષ્ઠાન રૂપ આવરણરહિત કેવલજ્ઞાન કેવલ ર્શનના ધારક જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોને નાશ કરવાવાળા. રાગ-દેવરૂપ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका, प्रत्याख्यानाध्ययनम् - ६ ३१९ धर्मदेशना दिना प्रेरयन्तीति जापकाः, तेभ्यः । 'विनाण' स्वय ससारौघ तीर्णास्तेभ्यः । 'तारयाण' तारयन्त्यन्यानिति तारकास्तेभ्यः | 'बुद्धाण' बुद्धेभ्यः =स्वय बोध प्राप्तेभ्यः । ' वोsयाण' बोधयन्त्यन्यानिति बोधकास्तेभ्यः । 'मुत्ताण' अमोचित स्वय कर्मपञ्चरादिति मुक्तास्तेभ्य: । 'मोयगाण' मुच्यमानानन्यान् प्रेरयन्तीति मोचकास्तेभ्यः । 'सञ्चन्नूण' सर्वे सकलद्रव्य-गुण- पर्यायलक्षण वस्तुजात याथातथ्येन जानन्वीति सर्वज्ञास्तेभ्यः । ' सव्वदरिसीण' सर्व= समस्तपदार्थस्वरूप सामान्येन द्रष्टु शील येषा ते सर्वदर्शिनस्तेभ्यः । ' सिव' शिव निखिलोपद्रवरहिताखाच्छित्र ( कल्याण ) मयम्, स्थानमित्यस्य विशेषणमिदम्, शिवादीना सर्वेषा द्वितीयान्तानामग्रेतनेन 'सम्प्राप्तेभ्य' इत्यनेन सम्बन्धः । 'अयल' अचलम् = खाभाविकप्रायोगिकचलन क्रियाशून्यम् । 'अरुय' अरुजम् - अविद्यमाना रजा यस्मिंस्तत्, तनात्मनामविद्यमानशरीरमनस्क्खादाधिव्याधिरहितमित्यर्थः । ' अणत' अविद्यमानोऽन्तो नाशो यस्य तत् । अत एव 'अक्खय' नास्ति लेशतोऽपि क्षयो यस्य तत्- अविनाशीत्यर्थः । ' अन्वावाह ' न विद्यते व्यावाधा=पीडा द्रव्यतो भावतथ यत्र तत् । 'अपुणरावित्ति' अविद्यमाना पुनरावृत्ति = ससारे पुनरवतरण यस्मात् तत्, यत्र गला न कदाचिदप्यात्मा विनिवर्त्तते, समाम्नातमन्यत्रापि - ' न स पुनरावर्त्तते न स पुनरावर्त्तते' इति । इत्थमुक्तशिवत्वादिविशेषणविशिष्टम् 'सिद्धिगइनाम प्रेय' सिद्धिगतिरिति को स्वय जीतने वाले और दूसरों को जीताने वाले । भवसमुद्र को स्वय तैरने वाले और दूसरों को तिराने वाले । स्वय बोध को प्राप्त करने वाले और दूसरों को प्राप्त कराने वाले । स्वय मुक्त होने वाले और दूसरे को मुक्त कराने वाले । सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा निरुपद्रव, निश्चल, कर्मरोगरहित, अनन्त, अक्षय, बाधारहित, पुनरागमनरहित, ऐसे सिद्धिस्थान अर्थात् मोक्ष को प्राप्त सिद्ध શત્રુઓને પોતેજ જીતવાવાળા અને ખીલને જીતાવવાવાળા ભવસમુદ્રને પેાતે તરવાવાળા અને બીજાને તારવાવાળા, લય મેધ પ્રાપ્ત કરનારા અને ખીજાને બાધ પ્રાપ્ત કરાવનારા, સ્વયં મુકત થવાવાળા અને બીજાને મુકત કરનારન सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा निरुपद्रव, निश्चल, उर्मरोग रहित अनन्त, अक्षय, १ - जापका- 'जि' धातोर्णो 'क्रीड्जीणा ' - मित्यात्वे ण्यन्ताण्ण्वुल् । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० आवश्यकसूत्रस्य नामधेय नाम यस्य तत् । 'ठाण' स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थान लोकाग्रलक्षण 'सपनाण' सम्पाप्तेभ्यः समाश्रितेभ्यः। 'नमो जिणाण' नमो जिनेभ्यः, कीदृशेभ्यः ? 'जियभयाण' जित भय यैस्तेभ्य इति सिद्धपक्षे, अर्हत्पते तु 'नमोत्थुण जात्र सपाविउमामस्स' नम्गेऽस्तु यारसिद्धिगतिनामक स्थान सम्माप्तुकामाय, 'ण' इतिवाक्यालङ्कारेऽव्ययपदम् ।। मू० २ ॥ - इत्य नमस्कारान्त प्रत्याख्यानमकरण परिसमाप्य सम्पति तत्पारण समापनविधिरुच्यते-'फासिय' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ फासिय (१) पालिय (२) सोहिय (३) तीरिय (8) किहिय (५) आराहिय (६) अणुपालिय (७) भवइ, ज च न भवइ, तस्स मिच्छा मि- दुक्कड ॥ सू० ३ ॥ ॥ छाया ॥ स्पृष्ट (१) पालित (२) शोधित (३) तीरित (४) कीर्तितम् (५) __ आराधितम् (6) आज्ञयाऽनुपालित (७) भवति, यञ्च न भवति, तस्य मिथ्या मयि दुष्कृतम् ॥ मू० ३॥ ॥ टीका ॥ मया स्वीकृत प्रत्याख्यानमिति शेष., 'फासिय' स्पृष्ट कायादिना भगवान को तथा मोक्ष को प्राप्त होनेवाले अरिहन्त भगवान को नमस्कार हो । सू० २॥ इस प्रकार नमस्कारपर्यन्त प्रत्याख्यान की विधि करकर अब उसके पारण की विधि दिखलाते हैं- 'फासिय' इत्यादि । मुझ से स्वीकृत प्रत्याख्यान का काय आदि से सेवन, बार यार उपयोग देकर सरक्षण, अतिचार शोधन, समाप्तिका समय हो બાધા રહિત, પુનરાગમન રહિત, એવા સિદ્ધ સ્થાન અર્થાત મને પ્રાપ્ત થયેલા સિદ્ધ ભગવાનને તથા મેલને પામવાવાળા અરિહન્ત ભગવાનને નમસ્કાર છે (૨) આ પ્રમાણે નમસ્કારપર્યન્ત પ્રત્યાખ્યાનની વિધિ કહીને હવે તેને પાળવાની दियिता छ "फासिय" त्या મારાથી સ્વીકૃત પ્રત્યાખ્યાનનું શરીર આદિથી સમ્યફ સેવન, વાર વાર ઉપગ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनितोपणी टीका. प्रत्याख्यानाध्ययनम् - ६ ३२१ सेवित (१), 'पालिय ' पालित = मुहुर्मुहुरुपयोगदानेन सरक्षितम् (२), 'सोहिय' शोपित=तद्गताऽतिचारपरिमार्जन कृतम् (३), 'तीरिय ' तीरित = प्रत्याख्याना सम्पूर्णता गतेऽपि कञ्चित्कालमवस्थाय तीर नीतमित्यर्थः (४), 'किट्टिय' कीर्तित= प्रत्याख्यानेऽस्मिन्निद च कर्त्तव्य मया कृतमित्येव तत्तन्नामोपादाय गुरुपुरतो विनिवेदितमित्यर्थः (५), ' आराहिय' आ= समन्तात् राधितमा - राधितम् उत्सर्गापवादादिभिः समर्यादमन्तःकरणेन सेवितम् (६), 'आणाए अणुपालय' आज्ञयाऽनुपालित=श्रीजिनेन्द्रोक्तरीत्याऽनुष्ठितम् (७), ' भवइ ' भवति = अस्ति । ' ज च ' यत् ' मागुतेषु स्पृष्टादिषु मध्ये ' इत्यर्थात् चकारः जाने पर भी कुछ देर विश्राम, 'प्रत्याख्यान में अमुक अमुक विधि करनी चाहिये सो मैंने सब करली' इस प्रकार नामग्रहणपूर्वक गुरुके समक्ष निवेदन, मर्यादापूर्वक अन्त करण से सेवन तथा भगवान की आज्ञा के अनुसार पालन किया गया है तो भी प्रमादवश उसमें जो कुछ त्रुटि रह गई हो तो 'तस्स मिच्छा मि રાખીને સ રક્ષણ, અતિચાર શેાધન, સમાપ્તિ સમય થવા છતાય ચૈડીવાર વિશ્રામ, પ્રત્યાખ્યાનમાં અમુક અમુક વિધિ કરવી ોઇએ તે મે સર્વ કરી લીધી” એ પ્રમાણે નામ-ગ્રહણુ—પૂર્વક ગુરુની પાસે નિવેદન, મર્યાદાપુર્વક અત કરણથી સેવન તથા ભગવાનની આજ્ઞા પ્રમાણે પાલન કર્યું છે તેા પણ પ્રમાદ રહેવાથી તેમા જે કાઈ ત્રુટી रही गई होय ते! “तस्स मिच्छा मि दुक्ड" ते समधी भा३ पाय निष्ण Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आवश्यकसूत्रस्य नामधेय नाम यस्य तत् । 'ठाण' स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थान लोकापलक्षण 'सपनाण' सम्प्राप्तेभ्यः समाश्रितेभ्यः। 'नमो जिणाण' नमो जिनेभ्यः, कीदृशेभ्यः ? 'जियभयाण' जित भय यैस्तेभ्य इति सिद्धपक्षे, अर्हत्पले तु 'नमोत्थुण जात्र सपाविउामस्स' नम्गेऽस्तु यारसिद्धिगतिनामक स्थान सम्माप्तुकामाय, 'ण' इतिवाक्यालङ्कारेऽव्ययपदम् ।। सू० २॥ इत्य नमस्कारान्त प्रत्याख्यानप्रकरण परिसमाप्य सम्प्रति तत्पारण समापनविधिरुच्यते--'फासिय' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ फासिय (१) पालिय (२) सोहिय (३) तीरिय (8) किट्टियं (५) आराहिय (६) अणुपालिय (७) भवइ, ज च न भवइ, तस्स मिच्छा मि. दुक्कड ॥ सू० ३ ॥ ॥ छाया ॥ स्पृष्ट (१) पालित (२) शोषित (३) तीरित (४) कीर्तितम् (५) आराधितम् (६) आज्ञयाऽनुपालित (७) भवति, यत्र न भवति, तस्य मिथ्या मयि दुष्कृतम् ॥ सू० ३ ॥ ॥ टीका ॥ मया स्वीकृत प्रत्याख्यानमिति शेष , 'फासिय' स्पृष्ट कायादिना भगवान को तथा मोक्ष को प्राप्त होनेवाले अरिहन्त भगवान को नमस्कार हो ॥ सू० २॥ इस प्रकार नमस्कारपर्यन्त प्रत्याख्यान की विधि कहकर अब उसके पारण की विधि दिखलाते है- 'फासिय' इत्यादि । मुझ से स्वीकृत प्रत्याख्यान का काय आदि से सेवन, बार पार उपयोग देकर सरक्षण, अतिचार शोधन, समाप्तिका समय हो બાધા રકત, પુનરાગમન રહિત, એવા સિદ્ધ સ્થાન અર્થાત મિક્ષને પ્રાપ્ત થયેલા સિદ્ધ ભગવાનને તથા મોક્ષને પામવાવાળા અરિહન્ત ભગવાનને નમસ્કાર છે (૨) આ પ્રમાણે નમસ્કારપન પ્રત્યાખ્યાનની વિધિ કરીને હવે તેને પાળવાની विवि मताव छ “फासिय" त्यादि મારાથી સ્વીકૃત પ્રત્યાખ્યાનનું શરીર આદિથી સાફ સેવન, વાર વાર ઉપયોગ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - परिशिष्ट ॥ वारह व्रतों के अतिचार सहित पाठ ॥ पहिला अणुव्रत- बुलाओ पाणाड़वायाओ वेरमण, प्रसजीव - बेडदिय तेsदिय चउरिदिय पचिदिय जानके पहिचानके सङ्कल्प करके उसमे स्वसम्न्धी - शरीर के भीतर में पीडाकारी सापराधी को छोड निर पराधी को आकुट्टी की बुद्धि (हनने की बुद्धि) से हनने का पच्चक्खाण जावज्जीवाए दुविह तिविहेण न करेमि, न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा, ऐसे पहिले स्थूल प्राणातिपात विरमण - व्रत के पच अडयारा पेयाला जाणिव्या, न समायरियन्वा, तजहा ते आलोड बधे वहे उविच्छेए अडभारे भत्तपाणविच्छेए, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कड | दूजा अणुव्रत - वूलाओ मुसावायाओ वेरमण, कन्नालिए, गोवालिए, भोमा लिए, णासावहारी (धापणमोसो) कूडसक्खिवज्जे ( कूडी साख ) इत्यादिक मोटा झूठ बोलने का पचक्खाण जावजीचाए दुविह तिविहेण न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा, कायसा, एव दूजा स्थूल मृपावाद विरमणव्रत के पच अइयारा जाणिवा न समायरियव्वा, तजहा ते आलोउ सहसभक्खाणे, रहस्सन्भक्खाणे, सदारमंतभेए, मोसोवएसे, कुडलेहकरणे, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कड | तीजा अणुव्रत - वूलाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं, खात खनकर, गाठ ग्वोलकर, ताले पर कुजी लगाकर, मार्ग मे चलते को लुट कर, पडी हुई घणियाती मोटी वस्तु जानकर लेना इत्यादि मोटा अटतादान का पचवाण, सगे-सम्बन्धी, व्यापार - सवधी तथा पडी निर्भमी वस्तु के उपरान्त अदत्तादान का पचखाण जावज्जीवाण दुविह तिविहेण न करेमि न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा, एव तीजा स्थूल अदत्तादान विरमणव्रत के पंच अडयारा जाणिवा न समायरिया, तजहा ते आलोउ तेनारडे तकरप्पओगे, विम्वरज्जाइक्कमे, कूड़्तुले, कृडमाणे, तप्पडिख्वगववहारे, जो में देवसिओ अयारों कओ तस्स मिच्छामि दुक्कड | १ 'स्वदारसन्तोष' ऐसा पुरुष को बोलना चाहिये, और स्त्री को स्वपतिसन्तोष ऐसा बोलना चाहिये । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ आवश्यक सूत्रस्य समुच्चयार्थ', 'नभइ ' न भवति न जायते, ' तस्स मिच्छा मि टुकड' व्याख्यात पूर्वमिदमित्यलमाम्रेडितेन ॥ भ्रू० ३ ॥ इति श्रीविश्वविख्यात - जगद्वलभ - प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषाकलितललित- कलापाऽऽलापक-प्रविशुद्धगय पत्रनैकग्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दक- श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुर राजमदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' - पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर - पूज्यश्रीघासीलाल- प्रतिविरचितायाम् आवश्यकसूत्रस्य मुनितोपण्याख्याया व्याख्याया षष्ठ प्रत्याख्यानाख्यमभ्ययन समाप्तम् ॥ ६ ॥ ॥ सम्पूर्णमिद सूत्रम् ॥ दुक्कड' उस सम्बन्धी मेरा पाप निष्फल हो - इत्यादि अर्थ पहले की तरह जान लेवें ॥ सू० ३ ॥ ॥ इति छठा अध्ययन सम्पूर्ण ॥ इति आवश्यक सूत्र की मुनितोषणी टीका का हिन्दी भवार्थ सपूर्ण. થાએ ઇત્યાદિ અર્થ પ્રથમ પ્રમાણે જાણી લેવા (સ્૦૩) ઇતિ છઠ્ઠું અધ્યયન સંપૂર્ણ સ્મૃતિ આવશ્યક સૂત્રની સુનિતાપણી ટીકાને ગુજરાતી અનુવાદ સ પૂ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-परिशिष्ट ॥ बारह व्रतों के अतिचार सहित पाठ ॥ पहिला अणुव्रत-थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमण,सजीव-वेडदिय तेडदिय चउरिदिय पचिंदिय जानके पहिचानके सङ्कल्प करके उसमें स्वसम्बन्धी-शरीर के भीतर में पीडाकारी सापराधी को जेड निरपराधी को आकुट्टी की बुद्धि (हनने की धुद्धि) से हनने का पञ्चक्खाण जावज्जीवाए दुविद् तिविहेण न करेमि, न कारवेमि, मणसा वयमा कायसा, ऐसे पहिले स्थल प्राणातिपात-विरमण-व्रत के पच अडयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियन्वा, तजहा-ते आलोउ वधे वहे उविच्छेए अइभारे भत्तपाणविच्छेए, जो मे देवसिओ अहयारो कओ तस्स मिच्छामि दुकड। .. दूजा अणुव्रत-थूलाओ मुसावायाओ वेरमण, कन्नालिए, गोवालिए, भोमालिए, णासावहारो (थापणमोसो) कृडसक्खिवज्जे (कूडी साख, ) इत्यादिक मोटा झूठ बोलने का पचक्खाण जावज्जीवाए दुविह तिविहेण न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा, कायसा, एवं दूजा स्थूल मृपावाद विरमणव्रत के पच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तजहा-ते आलोउ सहसभक्खाणे, रहस्सन्भक्खाणे, सदारमंतभेए, मोसोवएसे, कृडलेहकरणे, जो मे “देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुकड। तीजा अणुव्रत-थूलाओ अदिन्नाटाणाओ वेरमणं, खात रखनकर, गाठ ग्वोलकर, ताले पर कुजी लगाकर, मार्ग में चलते को लूट कर, पड़ी हुई धणियाती मोटी वस्तु जानकर लेना इत्यादि मोटा अदत्तादान का पचखाण, सगे-सम्बन्धी, व्यापार-सवधी तथा पडी निभ्रमी वस्तु के उपरान्त अदत्तादान का पञ्चरखाण जावज्जीवाए दुविह तिविहेण न करेमि न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा, एव तीजा स्थूल अदत्तादान विरमणव्रत के पंच अडयारा जाणियचा न समायरियव्वा, तजहा ते आलोउ तेनाडे तकरप्पओगे, विमद्वरज्जाइक्कमे, कूडतुल्ले, कृडमाणे, तप्पडिरूवगववहारे, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्न मि दुकड। १ 'स्वदारसन्तोप' ऐसा पुरुप को गोलना चाहिये, और स्त्री को स्वपतिसन्तोप ऐसा बोलना चाहिये । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ आवश्यकमूत्रस्य चौथा अणुव्रत-थूलाओ मेहुणाओ वेरमण, ' सदारसतोसिए, अवसेसमेहुणविहिं पञ्चस्खामि जावज्जीवाए, देवदेवी सम्बन्धी दुविह तिविहेण न करेमि, न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा, तथा मनुष्य-तिर्यञ्च-सम्बन्धी एगविह एगविहेण न करेमि कायसा, एव चौथा स्थूल मेहुणवेरमणव्रत के पच अइयारा जाणियब्वा न समायरियव्वा, तजहा ते आलोउ इत्तरियपरिग्गहियागमणे, अपरिग्गहयागमणे, अनगकीडा, परविवाहकरणे, कामभोगतिव्वाभिलासे, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कड । पाचवा अणुव्रत-थूलाओ परिग्गहाओ वेरमण, खेत्त-वत्थु का यथापरिमाण, हिरपणसुवण्ण का यथापरिमाण, धनधान्य का यथापरिमाण, दुपयचउप्पय का यथापरिमाण, कुवियधातु का यथापरिमाण, जो परिमाण किया है, उसके उपरान्त अपना करके परिग्रह रखने का पञ्चक्खाण, जावज्जीवाए, एगविह तिविहेण न करेमि मणसा वयसा कायसा, एवं पाचवा स्थूलपरिग्रह परिमाण-व्रत के पच अइयारा जाणियन्वा न समायरियव्या, तजहा-त आलोउ खेत्तवत्थुप्पमाणाइक्मे हिरण्णसुवण्णप्पमाणाइक्कमे धणधन्न प्पमाणाइक्मे, दुपयचउप्पयप्पमाणाइक्कमे, कुवियप्पमाणाइकमे, जो में देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कड । र छठा दिशिव्रत-उड्ढदिशि का यथापरिमाण, अहोदिशि /का यथापरिमाण किया है, इसके उपरान्त स्वेच्छा काया से आगे / जाकर पाच आस्रव सेवन का पचक्खाण जावज्जीवाए। दुविह तिविहेण न करेमि न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा, एव छटे दिशिव्रत के पच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियन्वा, तजा ते आलोउ उढदिसिप्पमाणाइफमे, अहोदिसिप्पमाणाइक्कमे, तिरिअदिसिप्पमाणाइक्कमे, ग्वित्तबुढी, सइअन्तरदा, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुकड । १- एगविह वितिहण' भी कोई कोई पोलते हैं। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत का अतिचार सहित पाठ | ३२५ सातवां व्रत-उवभोगपरिभोगविहिं पञ्चक्खायमाणे उल्लणियाविहि १, दतणविहि २, फलविहि ३, अन्भगणविहि ४, उवट्टणविहि, ५, मज्जणविहि ६, वत्थविहि ७, विलेवणविहि ८, पुप्फविहि ९, आभरणविहि १०, धूवविहि, ११, पेज्जविहि १२, भक्खणविहि १३, ओदणविहि १४, पविहि १५, विगयविहि १६, सागविहि महुरविहि १८, जीमणविहि १९, पाणीअविधि २०, मुखवासविहि २१, वाहणविहि २२, उवाणविहि २३, सयणविहि २४, सचित्तविहि २५, व्यवहि २६, इत्यादि का यथापरिमाण किया है, इसके उपरान्त उव भोगपरिभोग वस्तु को भोगनिमित्त से भोगने का पच्चक्खाण, जावज्जीवाए एगविह तिविहेण न करेमि मणसा वयसा कायसा, एव सातवा उवभोगपरिभोग दुविहे पन्नत्ते, तजहाभोयणाओ य, कम्मओ य । भोयणाओ समणोवासएणं पच अइयारा जाणियच्वा न समायरियब्बा, तजहा ते आलोउ सचित्ताहारे, सचितपडियद्वाहारे, अप्पउलिओसहिभक्खणया, दुप्पउलिओसहिभक्खणया, तुच्छोसहिभक्खणया, कम्मओण समणोवासएण पन्नरस कम्मादाणाइ जाणियव्वाइ न समायरियव्वाइ, तजहा ते आलोउ इगाल कम्मे, वणकम्मे साडीकम्मे भाडीकम्मे, फोडीकम्मे दतवाणिज्जे, लक्खवाणिज्जे, केसवाणिज्जे, रसवाणिज्जे, विसवाणिज्जे, जतपीलणकम्मे, निल्लउणकम्मे, दवग्गिदावणया सरदहतलायसोसणया, असईजणपोसणया, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कड । आठचा अणट्ठादण्डविरमणव्रत - चउन्विहे अणट्टादडे पण्णत्ते, तजहा अवज्झाणायरिए, पमायायरिए, हिंसप्पयाणे, पावकम्मोवणसे, एव आठवा अणवादंड सेवन का पच्चक्खाण ( जिसमें आठ आगारआए वा, राए वा, ना वा, परिवारे वा, देवे वा, नागे वा, जक्खे वा, भूप वा, एत्तिएहिं आगारेहिं अन्नत्थ) जावज्जीवाए दुविह तिविहेण न करेमि न कारवेमि मणसा चयसा कायसा, एवं आठवा अणट्ठदड, विरमणव्रत के पच अइयारा जाणियव्वा न समायरियच्चा, तजा - ते आलोउ कदप्पे, कुस्कुइए, मोहरिए सजुत्ताहिगरणे, Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ आवश्यकमूत्रस्य - - चौथा अणुव्रत-थूलाओ मेहुणाओ वेरमण, । सदारसतोसिए, अवसेसमेहुणविहिं पञ्चरखामि जावज्जीवाए, देवदेवी सम्बन्धी दुविह तिविहेण न करेमि, न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा, तथा मनुष्य-तिर्यञ्च-सम्बन्धी एगविह एगविहेण न करेमि कायसा, एक चौथा स्थूल मेहुणवेरमणव्रत के पच अइयारा जाणियव्वा न समा यरियव्या, तजहा ते आलोउ इत्तरियपरिग्गहियागमणे, अपरिग्गहि यागमणे, अनगकीडा, परविवाहकरणे, कामभोगतिव्वाभिलासे, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कड । पाचवा अणुव्रत-थूलाओ परिग्गहामी वेरमण, खेत्त-वत्थु का यथापरिमाण, हिरण्णसुवण का यथापरिमाण, धनधान्य का यथापरिमाण, दुपयचउप्पय का यथापरिमाण, कुचियधातु का यथापरिमाण, जो परिमाण किया है, उसके उपरान्त अपना करके परिग्रह रखने का पञ्चक्खाण, जावज्जीचाए, एगविह तिविहेण न करेमि मणसा वयसा कायसा, एव पाचवा स्थूलपरिग्रह परिमाण-व्रत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तजहा-ते आलोउ खेत्तवत्थुप्पमाणाइक्मे हिरण्णसुवण्णप्पमाणाइकमे धणधन्न: प्पमाणाइक्मे, दुपयचउप्पयप्पमाणाडकमे, कुवियप्पमाणाइकमे, जो में देवसिओ अइयारो को तस्स मिच्छा मि दुक्कड । । छठा दिशिवत-उड्ढदिशि का यथापरिमाण, अहोदिशि का यथापरिमाण किया है, इसके उपरान्त स्वेच्छा काया से आगे जाकर पाच आस्रव सेवन का पचरखाण जावज्जीवाए' दुविद तिविहेण न करेमि न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा, एव छठे दिशिव्रत के पच अइयारा जाणियन्वा, न समायरियन्वा, तजहा ते आलोउ उढदिसिप्पमाणाइकमे, अहोदिसिप्पमाणाइकमे, तिरिअदिसिप्पमाणाइक्कमे, ग्वित्तबुड्ढी, सइअन्तरद्वा, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिठा मि दुकड। १-'एगविह तिनिहेण' भी कोई कोई पोलते हैं। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रतों का अतिचार सहित पाठ। ३२७ पच अइयारा जाणियन्वा न समायरियव्वा, तजहा ते आलोउ अप्पडिलेरिय-दुप्पडिलेदिय-सेज्जासथारण, अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जियसेज्जासधारए, अप्पडिलेयि - दुप्पडिलेदिय - उच्चारपासवणभूमि, अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जिय - उच्चारपासवणभूमि, पोसहस्स सम्म अणणुपालणया, जो मे देवसिओ अइयारो कओतस्स मिच्छा मि दुकड। ____ बारहवा अतिथिसविभागवत-समणे निग्गथे फासुयएसणिज्जेणं-असणपाणखाइमसाइमवत्थपडिग्गहकबलपायपुंछणेण पडिहारियपीढफलगसेज्जासथारएण ओसहभेसज्जेण पडिलाभेमाणे विहरामि, ऐसी मेरी सदहणा परूपणा है, साधु साध्वी का योग मिलने पर निर्दोष दान दू तव शुद्ध होउ । एव बारहवें अतिथिसविभागवत के पंच अइयारा जाणियन्वा न समायरियव्वा, तजहा-ते आलोउसचित्तनिक्खेवणया, सचित्तपिणया, कालाइक्कमे, परववएसे, मच्चरिआए, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कड। । पडी सलेखना का पाठ । __अह भते अपच्छिममारणन्तियसलेहणाझूसणा आराहणा पोषधशाला पूजे, पूज के उच्चारपासवण भूमिका पडिलेहे, पडिलेह के गमणागमणे पडिकमे, पडिक्कम के दर्भादिक सथारा सथारे, सथार के दर्भादिक सथारा दुरूहे, दुरूह के पूर्व तथा उत्तरदिशि सन्मुख पल्यकादिक आसन से बैठे, बैठ के करयलसपरिग्गहिय सिरसावत्त मत्थए अजलि कटु एव वयासी-'नमोत्थु ण अरिहन्ताण भगवताण जाव सपत्ताण' ऐसे अनन्त सिद्धो को नमस्कार करके, 'नमोत्थुण अरिहन्ताण भगवताण जाव सम्पाविउकामाण' जयवते वर्तमानकाले महाविदेह क्षेत्र में विचरते हुए तीर्थङ्करों को नमस्कार करके अपने धर्माचार्यजी को नमस्कार करता हू । साधु प्रमुख चारो तीर्थ को खमाके, सर्वजीवराशि को खमा के पहिले जो व्रत आदरे हैं उनमें जो अतिचार दोप लगे हो, वे सर्व आलोच के पडिक्कम करके निंद के निःशल्य हो करके, सन्च पाणाइवाय पच्चक्खामि, सब मुसाबाय पच्चक्खामि, सन्च अदिन्नादाण पञ्चक्खामि, सच मेहुण पच्चक्खामि, सन्न परिग्गह पच्चक्खामि, सव्व कोह माण जाव मिच्छादसणसल्ल सव्य अफरणिज्जजोग पच्चक्खामि, जावजीवाए विविह विविहेण न करेमि Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकमुत्रस्य उवभोगपरिभोगाइरित्ते, जो मे देवसिओ अडयारो कओ तस्स मिच्छामि टुक्ड | ३२६ नववा सामायिकव्रत - सव्वसावज्ज जोग पच्चक्खामि जावनियम पज्जुवासामि, दुविह तिविहेण न करेमि न कारवेमि मणसा, वयसा, कायसा, ऐसी सद्दहणा परूपणा तो है सामायिक का अवसर आये सामायिक करू तब फरसना करके शुद्ध होउ, एव नववें सामायिक व्रत के पच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तजा - ते आलोउ मणदुप्पणिहाणे, वयदुष्पणिराणे, कायदुपणिहाणे, सामाइ यस्स सह अकरणया सामाइयस्स अणवद्वियस्स करणया जो मे देवसिओ अहयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कड | दसवां देसावगासिकव्रत - दिन प्रति प्रभात से प्रारंभ करके पूर्वादिक छहों दिशा की जितनी भूमिका की मर्यादा रक्खी हो उसके उपरान्त स्वेच्छा काया से आगे जाकर पाच आश्रव सेवने का पञ्चवाण, जाव अहोरत दुविह तिविहेण न करेमि न कारवैमि मनसा वयसा कायसा, जितनी भूमिका की हद रक्खी उसमे जो द्रव्यादिक की मर्यादा की है उसके उपरान्त उपभोग परिभोग निमित्त से भोगने का पच्चकवाण जाव अहोरत एगविह तिविण न करेमि मणसा वयसा कायसा, एव दशवें देसावगासिक व्रत के पच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तजहा ते आलोउ आणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे, सद्दाणुवाए, रूवाणुवाए, बरिया पुग्गलपखेबे, जो मे देवसिओ अहयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कड | ग्यारहवा पडिपुन पोषधवत असण पाण खाइम साइम का पच्चक्खाण, अरंभ सेवन का पन्चक्खाण, अमुक मणि सुवर्ण का पच्चत्स्वाण, मालावन्नग चिलेवण का पचनखाण, सत्यमुसलादिक सावज्जोग सेवन का परचमाण, जाव अहोरन्त पज्जुवासामि, दुविह तिविहेण न करेमि न कारवेमि, मणमा, वयसा कायमा ऐसी सदरणा परूपणा तो है पोमह का अवसर आये पोमर करूँ तब फरसना करके शुद्ध होउ, एवं ग्यारवा पडिपुन पोपधवत का Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બાર વ્રતના અતિચાર સહિત પાઠ ગુજરાતી—પરિશિષ્ટ પહેલુ અણુવ્રત શૂલાએ પાણાઇવાયા વેમણુ, શ્રમજીવ, બે ઇન્દ્રિય, તે ઇદ્રિય,ચરિદિય, પચેન્દ્રિય, જીવ, ાણીપીછી, સ્વસ બધી, શરીર માહેલા પીડાકારી, સઅપરાધી, વિગલે દ્રિય વિના, ટ્ટિ, હણવાનિમિત્તે, હણવાના પચ્ચક્ખાણુ, તથા સુક્ષ્મ એકેદ્રિય પણ હશુવાના પચ્ચક્ખાણુ, જાવજીવાએ, દુનિહ, તિવિહેણ, ન કરેમિ, ન કારવેમિ, મણસા, વયસા, કાયસા, એહવા, પહેલા, ચલ પ્રાણાતિપાત વેરમણુવ્રતના પચ અઈયારા, પેયાલા જાણિયન્ના, ન સમાયરિયવ્વા, ત જહા, તે આલે, ધે, વર્ષ, છવિòએ, અઈભારે, ભત્તપાણવાòએ, તસ્સ મિચ્છામિ દુક્કડ મ ખીજું અણુવ્રત, શૂલા મુસાવાયા વેરમણુ, કન્નાલિક, ગાત્રાલિક, લેામાલિક, થાપણુમેસે, મેાટકી ફુડીસાખ ઇત્યાદિ મેટક જૂઠ્ઠું બોલવાના પચ્ચક્ખાણુ જાવજીવાએ દુવિહ, તિવિહેણુ ન કરેમિ, ન કારવેષિ, મણસા, વયસા, ક્રાયસા, એવા ખીજા સ્થૂલ મૃષાવાદ વેમણુ નતના પંચ અઈયારા, જાણિયવ્વા ન સમાયરિયવા, ત જહા તે આલેઉ સહસ્સાભકૂખાણે, રહસ્સાભર્કખાણે, સદામ તલેએ, મેસેાવએસે, ફૂલેહક ણે તસ્સ મિચ્છા મિ દુક્કડ ત્રીજુ અણુવ્રત, ચૂલા દિન્નાદાણુા વેરમણુ, ખાતર-ખણી, ગાઠડી છોડી, તાલુ પર કુચી કરી, પડી વસ્તુ ધણીતી જાણી, ઇત્યાદિ માટે અદત્તાદાન લેવાના પચ્ચક્ખાણું, સગાસ ખંધી તથા વ્યાપારસાધી નભમી વસ્તુ ઉપરાત અદત્તાદાન લેવાના પચ્ચક્ખાણુ, તવ જીવાખે, દુવિઢ તિવિહેણ, ન કરેમિ ન કારવેમિ, મણુસા, વયસા, કાયસા એવા ત્રીજ ફૂલ અદત્તાદાન વેરમણુવ્રતના પંચ અઈયારા, જાણિયા, ન સમાયરિયવ્વા તજહા, તે આલેઉ તેના હર્ડ, તરગે, વિરુદ્ધ રજાઇકમેં, કૂડતેલે ફૂડમાણે, તપડિફ વગવવહારે, તસ મિચ્છા મિ દુક્કડં, મેહુણા વરમણ, સદારસ તાષિ, અવસેસ ચેાથુ અણુનત, ચૂલા મેહુણિનિહઁ ના પચ્ચક્ખાણુ અને જે સ્ત્રીપુષને મૂળ થકી કાયાએ કરી મેહુણુ સેવવાના પચ્ચકખાણુ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ आवश्यकमूत्रस्य न कारवेमि करतपि अन्न न समणुजाणामि, मणसा वयसा कायसा, ऐसे अठारह पापस्थानक पच्चक्खके सत्र असण पाण खाइम साइम चउचिह पि आहार पच्चक्खामि जावज्जीवाए, ऐसे चारो आहार पन्चरस के जपि य इम सरीर इड, कत, पिय मणुण्ण, मणाम, धिज, विमासिय समय, अणुमय, बहुमय, भण्डकरण्डसमाण, रयणकरडगभूय, मा ण सीय, मा ण उण्ड, मा ण खुहा, माण पिवासा, माण वाला, मा ण चोरा, मा ण दसमसगा, मा ण वाहिय, पित्तिय, कप्फिय, सभीम सनिवाइय विविहा रोगायका परिसहा उत्सग्गा फासा फुसतु-एव पि य ण चरमेहिं उस्सासनिस्सासेहिं वोसिरामि त्ति कटु ऐसे शरीर वोसिरा के, काल अणवकखमाणे विहरामि, ऐसी मेरी सदहणा परूपणा तो है, फरसना करू तो शुद्ध होऊ ऐसे अपन्छिम-मारणतियसलेहणा झुमणा-अराहणाए पच अइयारा जाणियव्या, न जहा-इहलोगाससप्पओगे परलोगाससप्पओगे, जीवियाससप्पओगे, मरणाससप्पओगे कामभोगाससप्पओगे तस्स मिच्छा मि दुकर्ड । तस्स धम्मस्स का पाठ । तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अब्भुटिओमि आराहणाए विरओमि विराहणाए तिविहेण पडिक्कतो वदामि जिणचउन्नीस । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બાર વ્રતના અતિચાર સહિત પાઠ. ગુજરાતી પરિશિષ્ટ પહેલું અણુવ્રત ચૂલાઓ પાણઈવાયાએ વેરમણ, ત્રસજીવ, બે ઈદ્રિય, તે ઈદ્રિય, ચઉરિદિય, પચેદ્રિય, જીવ, જાણ પીછી, સ્વસ બધી, શરીર મહેલા પીડાકારી, સઅપરાધી, વિગલેન્દ્રિય વિના, આકૃદ્ધિ, હલુવાનિમિતે, હણવાના પચ્ચખાણ, તથા સૂમ એકેન્દ્રિય પણ હણવાના પચ્ચક્ખાણ, જાવજજીવાએ, વિહ, તિવિહેણ, ન કરેમિ, ન કામિ, મણસા, વસા, કાયસા, એહવા, પહેલા, થલ પ્રાણાતિપાત વિરમણ વ્રતના પચ અઈયારા, પૈયાલા જાણિયવ્યા, ન સમાયરિવા, ત જહા, તે આલેઉ, બધે, વહે, છવિએ, અઈભારે, બાપાએ, તસ્સ મિચ્છા મિ દુક્કડ બીજુ અણુવ્રત, ચૂલાઓ મુસાવાયાઓ વેરમણ, કાલિક, વાલિક, માલિક, થાપણમેસે, મટકી કુડીસા ઈત્યાદિ મટકુ જૂઠું બેલવાના પચ્ચકખાણ જાવજીવાએ દુવિહ, તિવિહેણ ન કરેમિ, ન કારમિ, મણસા, વસા, કાયસા, એવા બીજા સ્થૂલ મૃષાવાદ વેરમણ વ્રતના પચ અઈયારા, જાણિયા ન સમાયરિયા, ત જહાને આલેઉ સહસ્સાભફખાણે, રહસ્સાભખાણે, સદારમતભેએ, મેસેવસે, ફૂડલેહકારણે તસ્સ મિચ્છા મિ દુક્કડ ત્રીજુ અણુવ્રત, ચૂલા અદિક્ષાદાણાઓ વેરમણ, ખાતર–ખણી, ગાઠડી છોડી, તાલ પર કુચી કરી, પડી વસ્તુ ધણુઆતી જાણે, ઈત્યાદિ મટકુ અદત્તાદાન લેવાના પચ્ચખાણ, સગાસ બધી તથા વ્યાપારસબધી નભમી વરતુ ઉપરાત અદત્તાદાન લેવાના પશ્ચમ્માણ, જીવ જીવાએ, દુવિહ તિવિહેણુ, ન કરેમિ ન કારવેમિ, મણસા, વયસા, કાયસા એવા ત્રીજા શૂલ અદત્તાદાન રમણ વ્રતના પચ અઈયારા, જાણિયા, ન સમાયરિયળ્યા તજહા, તે આલેઉ તેના હડે, તકરપગે, વિરુદ્ધ ૨જાઈકમે, કુડતેલે કુડમાણે, તપડિરૂ વગવવહારે, તસ્સ મિચ્છા મિ દુકડ, ચેથ અણુવ્રત, શૂલાએ મેહુણાઓ વેરમણ, સદાર તેષિએ, અવસ મેહુણવિહિં ના પચ્ચખાણ અને જે સ્ત્રીપુરૂને મૂળ થકી કાયાએ કરી મેહુણ નેવવાના પચ્ચકખાણ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० आवश्यफमूत्रस्य હોય તેને દેવતા, મનુષ્ય, તિર્યંચ સબધી મેહુણના પચ્ચખાણ, જાવજીવાએ, દેવતા સ બ ધી દુવિહ, તિવિહેણ ન કરેમિ, ન કામિ, મણસા, વયસ કાયમી મનુષ્ય તિર્યંચ સબ ધી એગવિહ, એગવિહેણ, ન કરેમિ કાયસા એવા ચેથા ચૂલ મેહણવેરમણ વ્રતના પચ અઈયારા, જાણિયા, ન સમાયરિચવા, ત જહા તે આલેઉ ઈત્તરિય પરિષ્ણહિયાગમ, અપરિગહિયાગમાણે, અન શકીડા, પરવિવાહ કરશે, કામગેસુ તિવાભિલાસા, તસ્સ મિચ્છા મિ દુક્કડ પાચમુ અણુવ્રત ચૂલાઓ પરિગહાએ વેરમણ, ખેરવત્થનું યથાપરિમાણ, હિરણસુવણનું યથાપરિમાણ, ધનધાન્યનું યથાપરિમાણ, દુપદચઉપદનું યથાપરિમાણ, કુવિયનું યથાપરિમાણ એ યથાપરિમાણુ કીધુ છે, તે ઉપરાત પિતાને પરિગ્રહ કરી રાખવાના પચ્ચખાણ જાવજીવાએ એગવિહ, તિવિહેણ, ન કરેમિ, મણસા, વયસા, કાયસા એવા પાચમા પૂલપરિગ્રહ-પરિમાણ-વેરમણ વ્રતના પચ અઈયારા જાણિયળ્યા, ન સમાયરિયા, ત જહાને આલેઉં, ખેરવત્થપમાણઈકમે, હિરણ્યસુવણુપમાણઈકમે, ધનધાન્યપમાણાઇકમે, દુપદચઉપદપમાણુઈકમે, કુવિયપમાણઈકમ્મ, તસ્સ મિચ્છામિ દુક્કડ - છઠું દિશિવન, ઉદ્યદિશિનું યથાપરિમાણ, અદિશિનું યથાપરિમાણ, તિરિયદિશિનું યથાપરિમાણ એ યથાપરિમાણુ કીધુ છે, તે ઉપરાત સઈચ્છાએ કાયાએ જઈને પાચ આશ્રવ સેવવાના પચ્ચખાણ, જાવજજીવાએ, દુવિહ, તિવિહેણ, ન કરેમિ, ન કારમિ, મણસા, વયસા, કાયસા એવા છઠા દિશિવેરમણ વ્રતના પચ અઈયા, જાણિયા, ન સમાયરિવા, તજહા તે આલેઉ ઉદિસિ પમાઈકમે, અદિતિ પમાઇકમે, તિરિયદિતિ પમાણુઈકમે ખેતવુ, સઈઅતરદ્ધા, તસ્સ મિરછા મિ દુકકડ સાતમુ વ્રત, ઉવગપરિગવિહિં પડ્યુફખાયમાણે, લિણિયાવિહિં, દતણુવિહ, કુલવિહિં, અબ્બે ગણુવિહિં વિદ્રવિહિં મજ્જણવિહિ, વત્યવિહિં, વિલવણવિહિ, પુષ્કવિહિં, આભારવિહિં, “પવિહિં, પિવિડુિં, કુખવિહિ, Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - बारह व्रतों का अतिचार सहित पाठ । એણુવિહિં, સૂપવિહિં, વિગયવિહિં, સાગવિહિં, માહરયવિહિં, જેમણવિહિં, પાણિયવિહિં, મુહવાસવિહિ, વાહવિહિં, વાહવિહિં, સયણવિહિં, સચિત્તવિહિં, દવિહિં. ઈત્યાદિકનું યથા પરિમાણ કીધુ છે, તે ઉપરાત ઉભેગપરિભેગ, ભેગનિમિત્તે ભોગવવાના પચ્ચક્ખાણ જાવજછવાએ એગવિહ, તિવિહેણ ન કરેમિ, મણસા, વયસા, કાયસા એવા સાતમા ઉભેગ પરિભેગ. દુવિહે પત્તે, ત જહા, મેયણાઉય, કમ્મઉય, ભયઉં, સમણવાસણ પચ અઈયાર, જાણિયકવા ન સમાયરિવા, ત જહને આલેહ સચિત્તાહાર, સચિત્તપડિબદ્ધાહારે, અપેલિએસહિભફખણયા, દુલિ એસહિમખણયા, તુસહિભખણયા, કમ્મઉણ સમવાસએણ, પન્નરસ કમ્માદાણાઈ જાણિયવા, ન સમાયરિયવા, તજહા-તે આલેઉં, ઇશાલક, વણકમે, સાડીએ, ભાડીઓ, ડીકમ્મ, દતવાણિજો, કેસવાણિજે, રસવાણિજે, લખવાણિજે, વિસવાણિજે, જતપિટલણ– કમે, નિકલ છણકમે, દવગિટાવણયા, સરદહતલાગપરિસેસણુયા, અસઈજણપિસણયા, તસ્સ મિચ્છા મિ દુકકડ આઠમુ વ્રત-અનર્થદડનું વેરમણ, ચવિહે અનWાદ: પન્નત્ત, ત જહા, અવજઝાણુચરિય પમાયાચરિય હિંસપયાણ, પાવકમેવ એવા આઠમા અનર્થદડ સેવવાના પચ્ચખાણ જાવજછવાએ દુવિહ વિવિહેણ ન કરેમિ, ન કારમિ, મણસા, વસા, કાયસા એવા આઠમા અનર્થ દડ વેરમણ વ્રતના પચ અઈયારા જાણિયા, ન સમાયરિયળ્યા, ત જહા-તે આલેઉ કદ, કુફઈએ, મહરિએ, સત્તાહિગર, ઉવગપરિભેગાઈ, તસ્સ મિચ્છામિ દુકકડ નવમું સામાયિક વ્રત, વજેગનું વેરમણ જાવ નિયમ પíવાસામિ, દુવિહ તિવિહેણ, ન કરેમિ ને કારમિ, માણસા, વસા, કાયમ એવી મારી-તમારી મદ્દતણ પ્રરૂપણ સામાયિકનો અવસર આવે અને સામાયિક કરીએ ત્યારે સ્પર્શનાએ કરી શુદ્ધ હેજે ! Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આવવા એવા નવમા સામાયિક વ્રતના પંચ અઈયારા જાણિયવા, ન સમાયર યુવા, ત્ત જહા તે લેઉ મજીદુપ્પણિહાણે, યદુપશુિહાણે, કાયદુપ્પણિહાણે, સામાઈયસ્સ સઈ અકરણયાએ, સામાઈયસ્સ અણુવટ્ટિયસ્સ કરણયાએ, તસ્ય મિચ્છા મિ દુકકડે ३३२ દશમ દેશાવગાસિક વ્રત દિન પ્રત્યે પ્રભાત થકી પ્રારભીને પૂર્વાદિક છ દિશિ જેટલી ભૂમિકા મેકળી રાખી છે, તે ઉપરાત સઇચ્છાએ કાયાએ જઈને પાચ આશ્રવ સેવવાના પચ્ચક્ખાણુ જાનમહારત્ત ધ્રુવિહ્ તિવિહેણ, ન કરેમિ ન કારવેમિ, મણુસા વયસા કાયસા, જેટલી ભૂમિકા મેાકળી રાખી છે, તે માહિ જે દ્રાદ્રિની મર્યાદા કીધી છે તે ઉપરાત ઉવભાગ, રેિભાગ, ભાગ નિમિત્તે ભાગવવાના પચ્ચકખાણ જાવ અહેારત્ત, એવિડ તિવિહેણુ ન કરેમિ મણુસા વયસા કાયસા એવા દશમા દેશાવસક વેરમણુવ્રતના પંચ અઈયારા જાણિયવ્વા ન સમાયરિયા, ત જહા—તે આલાઉ આજીવણુપગે, પેસવણુ પગે, સદૃાણુવાએ, વાણુવાખે, અહિઆ પેાલ પછેૢવે, તસ્સ મિચ્છા મિ દુક્કડ ' અગિયારમુ પરિપૂર્ણ પાષધ વ્રત, અસણુ ' પાછુ, ખાઈમ, સાઇમ'ના પચ્ચક્ખાણુ અખ ભના પચ્ચક્ખાણુ, મણિસાવનના પચ્ચક્ખાણુ, માલાવન્નવિલેવજીના પચ્ચ ખાણુ, સત્યમુસલાદિક સાવજ્જ જોંગના પચ્ચક્ખાણુ, જાવ અહેારત્ત પન્નુવાસામિ દુહિતિવિહેણ ન કરેમિ ન કારવેમિ, મણુસા વયસા કાયસા એવી મારી સહા પ્રરૂપણા પાષાના અવસર આવે અને પેાષા કરીએ, તે વારે સ્પર્શનાએ કરી શુદ્ધ હાજો, એવા અગિયારમા પરિપૂર્ણ પૌષધ વ્રતના પચ અઈયારા જાણિય વા નસમાયરિયવ્વા ત જહા તે આલેઉ અડિલેહિય દુપ્પડિલેહિય-સેાસ થારએ, અપ્પમજિય—દુપ્પમજ્જિય સેજજાસ થા-એ, અàિહિય-દુÀિહિય-ઉચ્ચારપાસવણુભૂમિ, અલ્પમજિય દુપ્પમજિય–ઉચ્ચાર–પાસવદ્યુભૂમિ, પેસહસ્સ સમ્મ અણુશુપાલાયા, મિચ્છ મિ દુકકડ તસ બારમુ અતિથિસવિભાગન્નત, સમણે નિગ્સચે સુએજી એસણિજેિણ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रतों का अतिचार सहित पाठ । ३३३ અસણુ પાછુ ખાઇમ સાઇમ વર્ત્યપર્ડિગ્સહકખલપાયપુઋણેણુ, પાઢિયારૢ પીઢફુલગ–સેજજા–સ થારએણુ, ઉસદ્ધભેસન્ટેણુ, પડિલામાણે, વિદ્યુસિામિ એવી મારી સદૃહણા પ્રરૂપણાએ કરી સુપાત્ર સાધુ-સાધ્વીજીની ભેગવાઈ મળે અને નિર્દોષ આહાર પાણી વહેારાવુ, તે વારે સ્પર્શનાએ કરી શુદ્ધ ઊર્જા ! એવા ખારમા અતિથિ સ વિભાગ વ્રતના પંચ અઈયારા જાણિયવ્વા ન સમાયરિયવા, ત જહા તે આલેાઉ સચિત્તનિક્૫ેવયા સચિત્તપેણુયા કાલાઈકક્ષ્મ પરવઐસે મરિયાએ તસ્સ મિચ્છામિ દુકડ તમે અરિહ તાણ, નમેલેએ સવ્વસાહૂ છુ નમો સિદ્ધાણુ, નમા આયરિયાણુ, તમે ઉવજ્ઝાયાણુ, સંથારા ( અણુસણુઅનશન ) ના પાઢ અપછિમ મારણેન્દ્રિય સ લેહુણા, પાષધશાળા પાજીને, ઉચ્ચાર પાસવણુ ભૂમિકા પડિલેહીને, ગમણુાગમણે "પકિકમીને, સ થારા દુઠ્ઠીને, પૂર્વ તથા ઉત્તર દિશિ પલ્ય કાર્દિક આસને બેસીને, કરયલ સપરિગૃહિય સિરસાવત્તય મત્યએ અલિ એવ વયાસી, નમેત્યુ! અરિહંતાણુ ભગત્રતાળુ જાવ સપત્તાણુ ક એમ અનતા સિદ્ધને નમસ્કાર કરીને, વર્તમાન પોતાના ધર્મગુરુ-ધર્માં ચાર્યને નમસ્કાર કરીને પૂ જે વ્રત આદર્યાં છે, તે સન્ આલેવી, પડિકકમિ, નિંદી, નિશલ્ય થઈને, સભ્ય પાણાઈવાય પચ્ચક્ખામિ, મુસાવાય પચ્ચક્ ખામિ, સવ સ્મૃદિન્નાદાણુ પચ્ચક્ખામિ, સવ્વ મેહુણુ પચ્ચખ્ખામિ, સવ્વ પરિગ્ગ પચ્ચક્ખામિ, સ કાહ પચ્ચક્ ખામિ જાવ મિચ્છા દસણુ સલ, કરણિજ્જ જોગ પચ્ચક્ખામિ જાવજ્જીવાએ, તિવિહ, તિવિહેણુ, ન કરેમિ, ન કારવેમિ, કરતપિ અન્ન ન સમણુજાણુામિ, મણુસા યસા કાયસા, એમ અઢારે પાપ થાનક પચ્ચક્ખીને, સવ્વ અસણુ પાછુ ખાઇમસાઇમ ચવિડ આહાર પચ્ચક્ખીને, જાવજીવાએ, એમ ચારે આહાર પચ્ચક્ખીને, જપિય ઈમ સરીર ઈ‡ ફત્ત પિય મછુન્ન મનુામ ધિજ્જ વિસાસિય સમય અણુમય બહુમય લકર ડગસમાણુ રયણુકર ડગર્ભીય માછુ સી ય માણુ ઉù, મા શું ખુહા, મા ! પીવાસા, મા શુ ખાલા, મા ણુ ચારા, મા ! દસા, મા ણુ વાહિય પિત્તિય સભિમ સન્નિવાય વિવિહા રોગાય કા પરિસંહેાવસગ્ગા Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ३३४ { , *, * ભાવથી ફસા કુતિ, એય પિ ણ ચરમેષ્ઠિ ઉસ્સાસનિસ્સસેહિં સિરામિ તિ ક, એમ શરીર સિરાવીને, કાલ અણુવક પ્રમાણે વિહરિસ્સામિ, I ! એવી સહણ પ્રરૂપણાએ કરી, અણુસણુને અવસર આવ્યું, અણુસણ કરૂ તે વારે સ્પર્શનાએ કરી શુદ્ધ હેજે ! એવા અપ૭િમ મારણતિય સલેહણું ગુસણા અરાહણના પચ અઈયારા જાણિયવા ન સમાયરિયળ્યા ત જહા તે આલેઉ ઈહલેગાસસપગે, પરલેગાસ સપગે, છવિયાસ સમ્પગે, મરણ સસપગે, કામભેગાસ સખિઓગે, તસ્સ મિચ્છામિ દુકકડ એમ સમકિતપૂર્વક બાર વ્રત લેખણ સહિત તથા નવાણુ અતિચાર એને વિષે જે કેઈ અતિક્રમ, વ્યતિક્રમ, અતિચાર, અણુચાર, જાણતા અજાણતા મન, વચન, કાયાએ કરી સેવ્યા હય, સેવરાવ્યા હોય, સેવતા પ્રત્યે અનુમોદ્યા છે, તે અરિહત, અનત સિદ્ધ ભગવાનની સાખે તસ્સ મિચ્છા મિ દુકકડ ૧ પ્રાણાતિપાત, ૨ મૃષાવાદ, ૩ અદત્તાદાન, ૪ મૈથુન, ૫ પરિગ્રહ, ૬ ક્રોધ ૭ માન, ૮ માયા, ૯ લેભ, ૧૦ રાગ, ૧૧ ષ, ૧૨ કલહ, ૧૩ અભ્યાખ્યાન, ૧૪ પશુન્ય, ૧૫ પર પરિવાદ, ૧૬ રઈઅરઈ, ૧૭ માયાસે, ૧૮ મિચ્છા દસણુસલ, તસ્સ મિચ્છા મિ દુકકડ ૨૫ પ્રકારના મિથ્યાત્વ ૧ અભિગ્રહિક મિથ્યાત્વ, ૨ અભિગ્રહિક મિથ્યાત્વ, ૩ અભિનિવેશિક મિથ્યાત્વ, ૪ સાશયિક મિથ્યાત્વ + અણુભગ મિથ્યાત્વ, ૬ લૌકિક મિથ્યાત્વ, ૭ લેત્તર મિથ્યાત્વ, ૮ કુપ્રવચન મિથ્યાત્વ, ૯ જીવને અજીવ સરધે તે મિથ્યાત્વ ૧૦ અછવને જીવ સરધે તે મિથ્યાત્વ, ૧૧ સાધુને મુસાધુ સરધે તે મિથ્યાત્વ, ૧૨ મુસાધુને સાધુ સરધે તે મિથ્યાત્વ, ૧૩ આઠ કમથી મૂકાણ, તેને નથી મૂકાણા સરધે તે મિથ્યાત્વ, ૧૪ આઠ કર્મથી નથી મૂકાણા, તેને મૂકાણ સાથે તે મિથ્યાત્વ, ૧૫ ધર્મને અધર્મ સરધે તે મિથ્યાત્વ, ૧૬ અધર્મને ધર્મ સરધે તે મિથ્યાત્વ, ૧૭ જિનમાર્ગને અન્ય ભાગ સરપે તે મિથ્યાત્વ, ૧૮ અન્ય માગને જિનમાર્ગ સરધે તે મિથ્યાત્વ, ૧૯ જિન માર્ગથી ઓછુ પ્રરૂપે તે મિથ્યાત્વ, ૨૦ જિન માર્ગથી અધિક પ્રરૂપે તે મિથ્યાત્વ, ૨૧ જિનમાર્ગથી વિપરીત પ્રરૂપે તે મિથ્યાત્વ, ૨૨ અવિનયમિથ્યાવ, ૨૩ અકિરિયામિથ્યાત્વ, ૨૪ અજ્ઞાનમિત્વ, ૨૫ આશાતનામિથ્યાત્વ, તસ્સ મિચ્છામિ દુક્કડ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ શૉ મા થી દો જ बारह व्रतों का अतिचार सहित पाठ ३३५ ચૌદ પ્રકારના સામૂચ્છિમ ઉચ્ચારેસુ પાસવણેસુ ખેલેસ સિંઘાણેસુ વતેસુ પિત્તસુ પૂએસુ સેણિએસુ સુકકે, સુપગલપસિડિએગુ વિગયજીવકલેવરેસ, ઈથીરિયસ ગેસ, નગર નિદ્ધમસ, સસુ ચેવ અસુઈઠાસુ વા તમ્સ મિચ્છા મિ દુકકડ આ ઠેકાણે ઈચ્છામિ ઠમિ આલેઉ જે મે દેવસિઓ અઈઆર કાથી જ ખડિય જ વિરાહિય તસ્સ મિચ્છામિ દુકકડ” સુધીને પાઠ કહે પછી નવકાર મત્ર અને કરેમિ ભંતે સામાઈયથી “અપ્પા સિરામિ' સુધી પાઠ કહે assuu સમાપ્ત છે Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ आवश्यक सूत्रस्य ફ્ાસા ટ્રુસતિ, ઐય પિ ણુ ચરમેડુિં ઉસ્સાર્સાનસ્સાસેહિ વેસિરામિક ત્તિ ક એમ શરીર વાસિરાવીને, કાલ અણુવક ખમાણે વરિસ્સામિ, એવી સત્તુણા પ્રરૂપણાએ કરી, અણુસણુના અવસર આળ્યે, અણુસશુ કરૂ તે વારે પનાએ કરી શુદ્ધ હાજો એવા અપચ્છિમ માણુતિય સલેહણા ઝુસણા આરાણુના પચ અર્ધયારા જાણિયવ્વા ન સમાયરિયવા ત જહા તે આલેઉ ઇહલેાગાસ સ`ગે, પરલેગાસ સર્પમેગે, જીવિયાસ સર્પમેગે, મરણા સ સર્પમાગે, કામલેાગાસ સ`મેગે, તસ્સ મિચ્છા મિ દુકકડ એમ સમકિતપૂર્ણાંક ખાર વ્રત સલેખણા સહિત તથા નવાણુ અતિચાર એને વિષે જે કોઈ અતિક્રમ, વ્યતિક્રમ, અતિચાર, અણુાચાર, જાણતા અજાણતા મને, વચન, કાયાએ કરી સેવ્યા હાય, સેવરાવ્યા હાય, સેવતા પ્રત્યે અનુમેઘા હાય, તે અરિહંત, અનત સિદ્ધ ભગવાનની સામે તસ્સ મિચ્છામિ દુકકડ ૧ પ્રાણાતિપાત, ૨ મૃષાવાદ, ૩ અદ્દત્તાદાન, ૪ મૈથુન, પ પરિગ્રહ, ૬ ક્રોધ ૭ માન, ૮ માયા, ૯ લેાભ, ૧૦ રાગ, ૧૧ દ્વેષ, ૧૨ કલહ, ૧૩ અભ્યાખ્યાન, ૧૪ પશુ, ૧૫ પરપરિવાદ, ૧૯ રઇઆરઇ, ૧૭ માયામાસા, ૧૮ મિચ્છા દેસણુસલ, તસ્સ મિચ્છા મિ દુકકડ ૨૫ પ્રકારના મિથ્યાત્વ ૧ અભિજ્ઞહિક મિથ્યાત્વ, ૨ અણાલિગ્રહિક મિથ્યાત્વ, ૩ અભિનિવેશિક મિથ્યાત્મ, ૪ સાયિક મિથ્યાત્વ ૫ અણુાભાગ મિથ્યાત્વ, ૬ લૌકિક મિથ્યાત્વ, ૭ લેાકેાત્તર મિથ્યાત્વ, ૮ કુપ્રાચન મિથ્યા, ૯ જીવને અજીવ સાધે તે મિથ્યાત્વ ૧૦ અજીવને જીવ સરધે તે મિથ્યાત્વ, ૧૧ સાધુને મુસાધુ સરધે તે મિથ્યાત્વ, ૧૨ કુસાધુને સાધુ સરધે તે મિથ્યાત્વ, ૧૩ આઠ કમથી મૂકાણા, તેને નથી મૂકાણા સાધે તે મિથ્યાત્વ, ૧૪ આઠ કર્મથી નથી મૂકાણા, તેને મૂકાણા સરધે તે મિથ્યાત્વ, ૧૫ ધર્મને અધમ સરધે તે મિથ્યાત્વ, ૧૯ અધર્મીને ધમ સરધે તે મિથ્યાત્વ, ૧૭ જિનમાર્ગના અન્ય માર્ગ' સરધે તે મિથ્યાત્વ, ૧૮ અન્ય માગને જિનમાર્ગી સરણે તે મિય્યાત્વ, ૧૯ જિન માર્ગથી ઓછુ પ્રરૂપે તે મિથ્યાત્વ, ૨૦ જિન માથી અધિકુ પ્રરૂપે તે મિથ્યાત્વ, ૨૧ જિનમાથી વિપરીત પ્રરૂપે તે મિથ્યાત્વ, ૨૨ અવિનયમિથ્યાત્વ, ૨૩ અકિરિયામિથ્યાત્વ, ૨૪ અજ્ઞાનમિથ્યાત્વ, ૨૫ આશાતના— મિથ્યાત્વ, તસ્સ મિચ્છા મિ દુકડ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દાતાઓની નામાવલી આઘ મુરબ્બીશ્રી, મુરબ્બીશ્રી, સહાયક મેમ્બરે તથા મેમ્બરની યાદી . ગામવાર કક્કાવારી લીe તા. ૧૮-૧૦-૪૪ થી તા ૨૮-૨-૫૮ સુધીમાં દાખલ થએલ મેમ્બરે, (૩ ૨૫૦ થી ઓછી રકમ આ યાદીમાં સામેલ કરી નથી ) શ્રી અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર સ્થાનક્વાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ગરેડીઆ કુવા રેડ – ગ્રીન લેજ પાસે રાજકેટ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શાસ્ત્રોની માહીતી. ૧ શ્રી ઉપાસક દશાગ સૂત્ર પહેલી આવૃત્તિ ખલાસ બીજી , તૈયાર છે ૮-૮-૦ ૨ , દશવૈકાલિક છે ભાગ ૧ પહેલી , ખલાસ બીજી , તૈયાર છે ૧૦-૦૦ ૩ , દશવૈકાલિક ઈ ભાગ ૨ પહેલી ૭-૮-૦ ક , નિરયાવલિકા - ભાગ ૧ થી ૫ પહેલી આચારાગ એ ભાગ ૧ પહેલી ખલાસ બીજી તૈયાર છે ૧૦-૦-૦ આચારાગ ભાગ ૨ પહેલી ૧૦-૦-૦ આચારાગ ભાગ 3 પહેલી ૧૦-૦-૦ 9 આવશ્યક પહેલી ખલાસ બીજી તૈયાર છે ૭-૮૦ ૯ + વિપાક પહેલી ખલાસ બીજી છપાય છે ૧૦-૦૦ ૧૦ , દશાશ્રુત સ્કલ , ખલાસ બીજી છપાય છે ૭-૦-૦ ૧૧ છે અન્નકૃત દશાગ છે પહેલી ખલાસ બીજી છપાય છે ૫-૦-૦ » અનુત્તરપાતિક, પહેલી ખલાસ બીજી છપાય છે ૩૮૧૩ , નદી પહેલી છપાય છે ઉવવાઈ પહેલી , છપાય છે ઉત્તરાધ્યયન પહેલી આ છપાય છે ૧૬ ૪ કપ પહેલી , છપાય છે ૩૫-૦-૦ (પત્રકાર). (અગાઉથી ગ્રાહક થનારને માટે રૂા૨૫-૦-૧) રાજકોટ તા. ૧૫-૩-૫૮ , પહેલી Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દાતાઓની નામાવલી આઘ મુરબ્બીશ્રી, મુરબ્બીશ્રી, સહાયક મેમ્બરે તથા મેમ્બરોની યાદી ગામવાર કાવારી લીe તા. ૧૮-૧૦-૪૪ થી તા ૨૮-૨-૫૮ સુધીમાં દાખલ થએલ મેમ્બરે, (૩ ૨૫૦ થી ઓછી રકમે આ યાદીમાં સામેલ કરી નથી ) શ્રી અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ગરેડીઆ કુવા રેડ – ગ્રીન લેજ પાસે રાજકેટ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શાસ્ત્રોની માહીતી. પહેલી છે. ૧ શ્રી ઉપાસક દશાગ સૂત્ર પહેલી આવૃત્તિ ખલાસ બીજી એ તૈયાર છે ૮-૮-૦ ૨ | દશ વિકાલિક , ભાગ ૧ પહેલી , ખવાસ બીજી, તૈયાર છે ૧૦-૦૦ ૩ , દશવૈકાલિક ભાગ ૨ પહેલી ૭-૮-૦ ૪ , નિરયાવલિકા | ભાગ ૧ થી ૫ પહેલી , ૫ , આચારાગ ભાગ ૧ પહેલી ખલાસ તૈયાર છે ૧૦-૦-૦ આચરાગ એ ભાગ ૨ આચરાગ ભાગ ૩ પહેલી , ૮ આવશ્યક પહેલી , ખલાસ બીજી , તૈયાર છે ૭-૮-૦ ૯ વિપાક પહેલી , ખલાસ બીજી , છપાય છે ૧૦-૦-૦ ૧૦ , દશાશ્રુત સ્કંધ , ખલાસ બીજી છે. છપાય છે ૭-૦૦ ૧૧ ) અન્નકૃત દશાગ, પહેલી , ખલાસ બીજી છપાય છે ૫-૦-૦ અનુત્તરપાતિક, પહેલી , ખલાસ બીજી , છપાય છે ૩-૮-૦ પહેલી , છપાય છે ૧૪ , ઉવવા પહેલી , છપાય છે ઉત્તરાધ્યયન પહેલી , છપાય છે ૧૬ , ક૫ પહેલી , છપાય છે ૩૫-૦-૦ (પત્રાકારે) (અગાઉથી ગ્રાહક થનારને માટે રૂ. ૨૫-૦-૦ ) રાજકોટ તા. ૧૫-૩-૫૮ પહેલી છે , ન” Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૬ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ ૧૦૦૧ ૧૭ શેઠ માણેકલાલ ભાણજીભાઈ પિરબ દર ૧૦૦૧ ૧૮ શ્રીમાન ચદ્રસિંહ મહેતા (રેવે મેનેજર સાહેબ) કલકત્તા ૧૦૦૧ ૧૯ મહેતા સમચદ નેણસીભાઈ (કરાચીવાલા) મેરખી ૧૦૦૧ ૨૦ શાહ હરીલાલ અનેપચદભાઈ ખભાત ૧૦૦૧ ૨૧ ઠેઠારી છબીલદાસ હરખચંદભાઈ મુબઈ ૧૦૦૦ ૨૨ કોઠારી રગીલદાસ હરખચંદભાઈ શિહોર ૧૦૦૦ સહાયક મેમ્બર-૩૬ (ઓછામાં ઓછી રૂ ૫૦૦ ની રકમ આપનાર) ૧ શાહ ૨ગજીભાઈ મેહનલાલ અમદાવાદ ૭૫૧ ૨ મંદી કેશવલાલ હરીચ દ્ર સાબરમતી ૭૫૦ ૩ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસંઘ હા શેઠ ઝુઝાભાઈ વેલસીભાઈ વઢવાણ શહેર ७५० ૪ શેઠ નરોત્તમદાસ ઓઘડભાઈ જોરાવરનગર ૭૦૦ ૫ શેઠ રતનશી હીરજીભાઈ હા ગોરધનદાસભાઈ જામજોધપુર પપપ ૬ બાટવીયા ગીરધર પ્રમાણદ હા અમીચંદભાઈ ખાખીજાળીઆ પ૨૭ ૭ મેરબીવાળા સઘવી દેવચંદ નેણશીભાઈ તથા તેમના ધર્મપત્ની આ સો મણબાઈ તરફથી હા મુળચદ દેવચંદ (કરાચીવાલા) મલાડ પ૧૧ ૮ વેરા મણીલાલ પોપટલાલ અમદાવાદ ૧૦૨ ૯ ગેસલીયા હરીલાલ લાલચદ તથા અ સૌ ચ પાબેન ગેસલીયા અમદાવાદ ૧૦૨ ૧૦ પ્રેમચંદ માણેકચંદ તથા અ સૌ સમરતબેન (રાજસીતાપુરવાળા)અમદાવાદ ૧૦૨ ૧૧ શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરૂષોતમદાસ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧ર શેઠ ચદુલાલ છગનલાલ અમદાવાદ ૧૩ શાહ શાન્તીલાલ માણેકલાલ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૪ શેઠ શીવલાલ ડમરભાઈ (કરાચીવાળા) લી બડી ૫૦૧ ૧૫ કામદાર તાગચદ પિપટલાલ ધેરાજીવાળા રાજકેટ પ૦૦ ૧૬ મહેતા મેહનલાલ કપુરચદ રાજકોટ ૫૦૦ ૧૭ શેઠ ગોવીંદજી પિપટભાઈ રાજકૈટ ૫૦૦ ૧૮ શેઠ રામજી શામજી વીરાણી રાજકૈટ ૫૦૧ ૧૯ સ્વ પિતાશ્રી નદાજીના સ્મરણાર્થે હા વેચદ શાન્તીલાલ (જાબુવાળા) મેઘનગર ૫૦૧ ૨૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસંઘ હા શેઠ ઠાકરશી કરસનજી થાનગઢ ૫૦૦ ૨૧ શેઠ તારાચદજી પુખરાજજી ઓરગાબાદ ૫૦૦ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ન કર, આમુરબીશ્રીએ-૪ (ઓછામાં ઓછી રૂ ૫૦૦૦ ની રામ પનીર નામ ગામ રૂપિયા ૧ શેઠ શાન્તીલાલ મગળદાસભાઈ જાણીતા મીલમાલીક અમદાવાદ ૧૦૦૦૦ ૨ શેઠ હરખચંદ કાલીદાસભાઈ વારીયા હા શેક લાલચ દભાઈ, જેચંદભાઈ, નગીનભાઈ, વૃજલાલભાઈ તથા વલભદાસભાઈ ભાણવડ ૬૦૦૦ ૩ કોઠારી જેચદભાઈ અજરામર હા હરગોવીંદભાઈ જેચંદભાઈ રાજકેટ પરપ૧ ૪ શેઠ ધારશીભાઈ જીવનભાઈ સેલાપુર ૫૦૦૧ ૧ ૨ ) મુરબ્બીશ્રીઓ-૨૨ (ઓછામાં ઓછી રૂ ૧૦૦૦ ની રકમ આપનાર) ૧ વકીલ જીવરાજભાઈ વર્ધમાન કોઠારી હ કહાનદાસભાઈ તથા વણીલાલભાઈ * -- - --* જેતપુર ૩૬૦૫ ૨ દેશી પ્રભુદાસ મૂળજીભાઈ * * * રાજકેટ ૩૬૦૪ ૩ મહેતા ગુલાબચંદ પાનાચંદ રાજકેટ ૩૨૮લાના ૪ સ્વ પિતાશ્રી છગનલાલ શામળદાસના સ્મરણાર્થે હ ભાવસાર જોતીલાલ છગનલાલ અમદાવાદ ૩૨૫૧ ૫ મહેતા માણેકલાલ અમુલખરાય - - - - * ઘાટકોપર ૩૨૫૦ ૬ સઘવી પીતામ્બરદાસ ગુલાબચદ જામનગર ૩૧૦૧ ૭ શેઠ શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વીરાણી રાજકોટ ૨૫૦૦ ૮ નામદાર ઠાકૅર સાહેબ લખધીરસિંહજી બહાદુર મોરબી ૨૦૦૦ ૯ શેઠ કહેરચંદ કુવરજી હા શેઠ ન્યાલચદ હેરચદ જ સિદ્ધપુર ૨૦૦૦ ૧૦ શાહ છગનલાલ હેમચદ વસા - ! “ ! ! - હા મેહનલાલભાઈ તથા મેતીલાલભાઈ ' મુ બઈ ૨૦૦૦ ૧૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ મોરબી ૧૯૬૩ ૧૨ મહેતા સોમચદ તુલસીદાસ તથા તેમના ધર્મપત્ની ?' અ. સો મણગોરી મગનલાલ રતલામ ૧૫૦૦ ૧૩ મહેતા પિપટલાલ માવજીભાઈ , જામજોધપુર ૧૩૦૧ ૧૪ દેશી કપુરચદ અમરશી હા દલપતરામભાઈ જામજોધપુર ૧૦૦૨. ૧૫ બગડીઆ જાજીવનદાસ રતનગી - દામનગર ૧૦૦૨ દ૬૬૬ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૬ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ ૧૦૦૧ ૧૭ શેઠ માણેકલાલ ભાણજીભાઈ પિરબદર ૧૦૦૧ ૧૮ શ્રીમાન ચદ્રસિંહજી મહેતા (રેલવે મેનેજર સાહેબ) કલકત્તા ૧૦૦૧ ૧૯ મહેતા સમચદ નેણશીભાઈ (કરાચીવાલા) મોરબી ૧૦૦૧ ૨૦ શાહ હરીલાલ અનેપચદભાઈ ખભાત ૧૦૦૧ ૨૧ કઠોરી છબીલદાસ હરખચંદભાઈ મુબઈ ૧૦૦૦ ૨૨ કે ઠારી ગીલદાસ હરખચંદભાઈ શિહેર ૧૦૦૦ સહાયક મેમ્બરે-૩૬ (ઓછામાં ઓછી રૂ ૫૦૦ ની રકમ આપનાર) ૧ શાહ ૨ગજીભાઈ મેહનલાલ અમદાવાદ ૭૫૧ ૨ મોદી કેશવલાલ હરીચદ્ર સાબરમતી ૭પ૦ ૩ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસ ઘ હા શેઠ ઝુઝાભાઈ વેલસીભાઈ વઢવાણ શહેર ૭૫૦ ૪ શેઠ નત્તમદાસ ઓઘડભાઈ જેરાવરનગર ૫ શેઠ રતનશી હીરજીભાઈ હા ગેરધનદાસભાઈ જામજોધપુર પપપ ૬ બાટવીયા ગીરધર પ્રમાણ દ હા અમીચ દભાઈ ખાખીજાળીઆ પર૭ ૭ મેરબીવાળા સઘવી દેવચંદ નેણશીભાઈ તથા તેમના ધર્મપત્ની આ સો મણીબાઈ તરફથી હ મુળચદ દેવચંદ (કરાચીવાલા) મલાડ ૫૧૧ ૮ વારા મણીલાલ પોપટલાલ અમદાવાદ ૫૦૨ ૯ ગોસલીયા હરીલાલ લાલચ તથા અ સૌ ચપાબેન ગોસલીયા અમદાવાદ ૫૦૨ ૧૦ પ્રેમચંદ માણેકચંદ તથા સૌ સમરતબેન (રાજસીતાપુરવાળા) અમદાવાદ ૧૦૨ ૧૧ શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરૂતમદાસ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૨ શેઠ ચદુલાલ છગનલાલ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૩ શાહ શાન્તીલાલ માણેકલાલ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૪ શેઠ શીવલાલ ડમરભાઈ (કરાચીવાળા) લીબડી ૫૦૧ ૧૫ કામદાર તારાચદ પિપટલાલ ધોરાજીવાળા રાજકેટ ૫૦૦ ૧૬ મહેતા મેહનલાલ કપુરચદ રાજકોટ ૫૦૦ ૧૭ શેઠ ગોવીંદજી પોપટભાઈ રાજકેટ ૧૮ શેઠ રામજી શામજી વીરાણી રાજકેટ ૫૦૧ ૧૯ સ્વ પિતાશ્રી નદાજીના સ્મરણાર્થે હા વેણચદ શાન્તીલાલ (જાબુભવાળા) મેઘનગર ૫૦૧ ૨૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસંઘ હ શેઠ ઠાકરશી કરસનજી થાનગઢ ૫૦૦ ૨૧ શેઠ તારાચદજી પુખરાજજી ઓરંગાબાદ ૫૦૦ ૫૦૦ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - નામ આમુરબીશ્રીઓ-૪ (ઓછામાં ઓછી રૂ ૫૦૦૦ ની રકમ આપનાર). ન બર નામ ગામ રૂપિયા ૧ શેઠ શાન્તીલાલ મગળદાસભાઈ જાણીતા - મીલમાલીક છે અમદાવાદ ૧૦૦૦૦ ૨ શેઠ હરખચંદ કાલીદાસભાઈ વારીયા હા શેઠ લાલચદભાઈ, જેચંદભાઈ, નગીનભાઈ વૃજલાલભાઈ તથા વલ્લભદાસભાઈ ભાણવડ ૬૦૦૦ - ૩ કોઠારી જેચંદભાઈ અજરામર હા હરગોવીંદભાઈ જેચંદભાઈ રાજકેટ પરપ૧ ૪ શેઠ ધારશીભાઈ જીવનભાઈ સેલાપુર ૫૦૦૧ મુરબ્બીશ્રીઓ-૨૨ (ઓછામાં ઓછી રૂા ૧૦૦૦ ની રકમ આપનાર) ૧ વકીલ જીવરાજભાઈ વર્ધમાન કે ઠારી કહાનદાસભાઈ તથા વેણીલાલભાઈ - -. ‘જેતપુર ૩૬૦૫ ૨ દેશી પ્રભુદાસ મૂળજીભાઈ રાજકેટ ૩૬૦૪ ૩ મહેતા ગુલાબચંદ પાનાચંદ રાજકેટ ૩૨૮લ્લાના ૪ સ્વ પિતાશ્રી છગનલાલ શામળદાસના સ્મરણાર્થે હ ભાવસાર લેતીલાલ છગનલાલ અમદાવાદ ૩૨૫ ૫ મહેતા માણેકલાલ અમુલખરાય ઘાટકોપર ૨૩૨૫૦ ૬ સઘવી પીતામ્બરદાસ ગુલાબચ દ જામનગર ૩૧૦૧ ૭ શેઠ શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વીરાણુ રાજકોટ ૨૫૦૦ ૮ નામદાર ઠાકર, સાહેબ લખધીરસિંહજી બહાદુર “ મેરખી , ૨૦૦૦ ૯ શેઠ લહેરચદ કુંવરજી હા શેઠ ન્યાલચદ હેરચદ * “સિદ્ધપુર ૨૦૦૦ ૧૦ શાહ છગનલાલ હેમચદ વસા - ૧ : ૧ : - હા મેહનલાલભાઈ તથા મેતીલાલભાઈ મુ બ ૨૦૦૦ ૧૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ મોરબી ૧૯૬૩ ૧૨ હેતા સોમચદ તુલસીદાસ તથા તેમના ધર્મપત્ની :અ. સો મણગોરી મગનલાલ રતલામ ૧૫૦૦ ૧૩ મહેતા પોપટલાલ માવજીભાઈ જામજોધપુર ૧૩૦૧ ૧૪ દેશી કપુરચદ અમરશી હા દલપતરામભાઈ જામજોધપુર ૧૦૦૨ ૧૫ બગડી જાજીવનદાસ રતનશી . . .દામનગર ૧૦૦૨ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬ શેઠ પ્રેમચંદ સાકરચંદ ૨૫૦ ૭ શાહ રતીલાલ વાડીલાલ ૨૫૧ ૮ શેઠ લાલભાઈ મગળદાસ ૨૫૧ ૯ સ્વ અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે હા કાનજીભાઈ અમૃતલાલ દેસાઈ ૨૫૧ ૧૦ ભાવસાર ભોગીલાલ જમનાદાસ (પાટણવાળા) ૨૫૧ ૧૧ શાહ નટવરલાલ ચદુલાલ ૨૫૧ ૧૨ શાહ નરસિંહદાસ ત્રીભોવનદાસ ૨૫૧ ૧૩ શ્રી શાહપુર દરીયાપુરી આઇટી સ્થા જૈન ઉપાશ્રય હા વહીવટ કર્તા શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરૂતમદાસ ૨૫૧ ૧૪ શ્રી છીપાળ દરીયાપુરી આઠકેટી થા જેનસઘ હ ચ દુલાલ અમૃતલાલ ૨૫૧ ૧૫ શાહ ચીનુભાઈ બાલાભાઈ c. શાહ બાલાભાઇ મહાસુખરામ ૨૫૧ ૧૬ શાહ ભાઈલાલ ઉજમશી ૨૫૧ ૧૭ શ્રી સુખલાલ ડી શેઠ હા કુ સરસ્વતી વ્હેન શેઠ ૨૫૧ ૧૮ શ્રી સૌરાષ્ટ સ્થા જેનસ ઘ હા શાહ કાન્તીલાલ જીવણલાલ ૨૫૧ ૧૯ મેદી નાથાલાલ મહાદેવદાસ ૨૫૧ ૨૦ શાહ મેહનલાલ ત્રીકમદાસ ૨૫૧ ૨૧ શ્રી છોટી સ્થા જેનસઘ હ શાહ પાચાલાલ પીતામ્બરદાસ ૨૫૧ ૨૨ શેઠ પિપટલાલ હસરાજના સ્મરણાર્થે હા શેઠ બાબુલાલ પિપટલાલ ૨૫૧ ૨૩ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાન બદિરાવાળા હા ભાઈલાલ અમૃતલાલ દેસાઈ ૨૫૧ ૨૪ શાહ નવનીતલાલ અમુલખરાય રપ શાહ મલાલ આશારામ ૨૨૧ ૨૬ શાહ ચીનુભાઈ સાકરચંદ ૨૫૧ ૨૭ શાહ હરજીવનદાસ ઉમેદચદ ૨૮ શાહ રજનીકાન્ત કસ્તુરચદ ૨૫૧ ૨૯ મઘવી જીવણલાલ છગનલાલ (સ્થા જેન) ૨૫૧ ૩૦ શાહ શાતિલાલ મેહનલાલ પ્રાગધાવાળા ૨૫૧ ૩૧ સો બેન રતનબાઈ નાદેચા હ શાહ ધુલાજી પાલાલજી ૨૫૧ ૩૨ શાહ હરિલાલ જેઠાલાલ ભાડલાવાળા ૨૫૧ ૩૩ શ્રી સરસપુર દરીયાપુરી આઠ ટી સ્થા જૈન ઉપાશ્રય હા ભાવસાર ભોગીલાલ છગનલાલ ૩૪ શેઠ પુખરાજજી સમતીરામજી સાદડીવાળા ૨૫૧ ૩૫ શેઠ લાલચ દ મીશ્રીલાલ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઓરગાબાદ ૫૦૦ ૨૨ શ્રી સ્થાકવાસી જૈનસંઘ ૧૫. શેઠ શેષમલજી જીવરાજજી ૧૨૫ શેઠ અનરાજજી લાલચ દજી ૧૨૫ ધુકડચ દઇ રૂપચંદજી ૧૦૦ દગડુમલજી ચાદમલજી પિ૦૦ ૫૦૦ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૨૩ મહેતા મૂળચંદ રાઘવજી હા મગનલાલભાઈ તથા દુર્લભજીભાઈ પ્રોફા ૨૪ શેઠ હરખચદ પુરૂતમ હ ઈન્દુકુમાર ચારવાડ ૨૫ શેઠ કેસરીમલજી વસતીમલજી ગુગલીયા રાણાવાસ ૨૬ સ્થા જેનસઘ હા બાટવીઆ અમીચદ ગીરધરભાઈ ખાખીજાળીઆ ર૭ શેઠ ખીમજીભાઈ બાવાભાઈ હા કુલચદભાઈ, નાગરદાસભાઈ તથા જમનાદાસભાઈ મુંબઈ ૨૮ શેઠ મણીલાલ મેહનલાલ ડગલી હદ મુળજીભાઈ મણીલાલ મુબઈ ૨૯ સ્વ કાતીલાલભાઈના સ્મરણાર્થે હા, શેઠ બાલચ દ સાકરચદ મુબઈ ૩૦ કામદાર રતીલાલ દુર્લભજી (જેતપુરવાળા) મુ ગઈ ૩૧ શાહ જયતીલાલ અમૃતલાલ શીવ ૩૨ વેરા મણીલાલ લહમીદ શીવ ૩૩ શેઠ ગુલાબચદ ભુદરભાઈ ખારોડ ૩૪ મહાન ત્યાગી બેન ધીરજકુવર ચુનીલાલ મહેતા ભાણવડ ૩૫ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસંઘ ધ્રાફા ૩૬ શ્રી મગનલાલ છગનલાલ શેઠ રાજકોટ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૩૧૬ મેમ્બરેનુ ગામ વાર લીસ્ટ અમદાવાદ તથા પરાઓ ૧ શેઠ ગીરધરલાલ કરમચદ ૨ શેઠ ઇટાલાલ વખતચદ હા ફકીરચંદભાઈ ૩ શાહ કાન્તીલાલ ત્રીભોવનદાસ ૪ શાષ પિચલાલ પીતામ્બરદાસ ૫ શાહ પિપટવાલ મેહનલાલ ૨૫૧ ૨પ૧ ૨૫૧ ૨૫ ૨૫૧ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 પૂજ્ય પિતાશ્રી મેાતીલાલજી મ્હેતાના સ્મરણાર્થે હા રણજીતલાલજી મેીવાલજી મહેતા ૭ શેઠ છગનલાલ ખારેચા ઉમરગાવરાડ ૧ શાહ માહનલાલ પેપટલાલ પાનેલીવાળા ઉપલેટા ૧ શેઠ જેઠાલાલ ગાન્ધનદાસ સ્વ મેન સત્તાકમેન કચરા હા, આતમચંદભાઇ, ટાલાલભાઈ તથા અમૃતલાલભાઈ વાલજી (કલ્યાણુવાળા) ૩ શેઠ ખુશાલચંદ કાનજીભાઈ હા શેઠે પ્રતાપભાઈ ૪. મઘાણી મૂળશકર હરજીવનભાઈના સ્મરણાર્થે હા તેમના પુત્ર જયતીલાલભાઇ તથા રમણીકલાલ એડન કેમ્પ ૧ શાહ ગોકળદાસ શામજી ઉદાણી " ૪ ૫૧ ૨૫૧ ૧ કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ શેઠ માણેકલાલ ભગવાનદાસ શ્રી સ્થા.જૈન સઘ હા પટેલ કાન્તીલાલ અખાલાલ ૩ શાહ સાકરચંદ મેાહનલાલ ૪ શાહ ચંદુલાલ હરીલાલ ૨૫૧ લાલ ૧.શેઠ મેહનલાલ જેઠાભાઈના મરણાથે હા શેઠ આત્મારામ મેહનલાલ ૨૫૧ ર્ડા માયાચદ મગનલાલ શેઠ હા ડા રતનચંદ મયાચદ ૨૫૧ ૧ ૨૫૧ સ્વ નોંધાલાલ ઊમેદચદના સ્મરણાર્થેહા શાહ રતીલાલ નાથાલાલ ૨૫૧ શાહ મણીલાલ તલકચદના મરણાર્થે હા મારફતીયા ચદુલાલ મણીલાલ ૨૫૧ ડી ૧ શ્રી સ્થા દરીયાપુરી જૈન સઘ હા ભાવસાર દામોદરદાસ ઈશ્વરભાઈ કાકી . ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૧ પટેલ ગાવીંદલાલ ભગવાનજી ૨૫૧ ૨ પટેલ ખીમજી જેઠાભાઇ વાઘણી (તેમના સ્વ સુપુત્ર રામજીભાઈના સ્મરણાર્થે ૩૦૨ ખીચન ખભાત ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૩૦૧ ૩૬ સ્વ પિતાશ્રી જવાહરલાલજી તથા પૂજ્ય ચાચાજી હજારીમલજી બરડીયાના સમરણાર્થે હા મૂળચદ જવાહરલાલ ૩૭ સ્વ ભાવસાર બબાભાઈ (મગળદાસ) પાનાચરના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્ની પુરીબેન ૩૮ - સ્વ પિતાશ્રી રવજીભાઈ તથા સ્વ માતુશ્રી મૂળીબાઈના સ્મરણાર્થે હા કલભાઈ કે ઠારી ૩૯ ભાવસાર કેશવલાલ મગનલાલ ૪૦ શાહ કેશવલાલ નાનચંદ જાખડાવાળા હા પાર્વતીબેન ૪૧ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ માણેકચંદ રાજસીતાપુરવાળા (સાબરમતી) ૪૨ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ (સાબરમતી) ૪૩ બીપીનચદ્ર તથા ઉમાકાત ચુનીલાલ મેવાણું (રાણપુરવાળા) અમલનેર ૧ શાહ નાગરદાસ વાઘજીભાઈ ૨ શ્રી સ્થા જૈનસંઘ હર શાહ ગાંડાલાલ ભીખાલાલ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૦ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ આણ દ ૧ શેઠ રમણીકલાલ એ કપાસી હ મનસુખલાલભાઈ આસનસેલ ૧ બાવીસી મણીલાલ ચત્રભુજના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની મણીબાઈ તરફથી હા રમણીકલાલ, અનીલકાત, વિનેદરાય આટકેટ ૧ શાહ ચુનીલાલ નારણજી ઉદેપુર ૧ શેઠ મોતીલાલજી રણજીતલાલજી હીંગડ ૨ શેઠ મગનલાલજી બાગટેચા ૩ અ સો હેન ચદ્રાવતી તે શ્રીમાન બહેતલ લજી નાહરના ધર્મપત્ની હા શેઠ રણજીતલાલજી હીંગડ ૪ સ્વ શેઠ કgવાલજી લેવાના સ્મરણાર્થે હા શેઠ લતસિંહજી હા ૫ સ્વ શેડ પ્રતાપમલજી સાંખલાના સ્મરણાર્થે હા પ્રાણલાલ હિરાલાલ સાખલા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જુનાગઢ ૧ શાહ મણીલાલ મિઠાભાઈ હા હરીલાલભાઈ (હાટીના માળીવાળા) ૨૫૧ જુનારદેવ (મધ્ય પ્રાત) ૧ ઘેલાણી ત્રીકમજી લાધાભાઈ જેતપુર ૧ શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ હા નરભેરામભાઈ (જસાપુરવાળા) ૨૫૧ ૨ દેશી છેટાલાલ વનેચંદ ૨૫૧, ૩ કે ઠારી લરકુમાર વેણીલાલ ૨૫૧ 1 જેતલસ૧ શાહ લક્ષ્મીચદ કપુરચદ ૨૫૧ ૨ કામદાર લીલાધર જીવરાજના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ જનકબેન તરફથી હા શાન્તીલાલભાઈ ગોડલવાળા ડભાસ ડભાસ ૧ સ્વ તરખી લહેરચદ માણેકચંદના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ જીવતીબાઈ તરફથી હા જયતીભાઈ ૨૫૧ ૨૫૧ ડોડાઈચા ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા શેઠ ચ પાલાલજી માર ૨૫૦ થાનગs ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શાહ ઠાકરશીભાઈ કરશનજી ૨ શેઠ જેઠાલાલ ત્રીભવનદાસ ૩ શાહ ધારશી પાશવીર હે સુખલાલભાઈ દહાડ રોડ (થાણા) ૧ શાહ હરજીવનદાસ ઓઘડ ખ ધાર (કરાચીવાળા) ૨૫૧ ૩૫૧ ૧ લાલા પૂર્ણચદજી જેન (સેન્ટ્રલ બેકવાળા) વાર (મધ્યપ્રાત) ૧ શેઠ સાગરમલજી પનાલાલજી ૦૫ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગુદા ૧ વ મહેતા પુનમચંદ ભવાનભાઈનાં સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્નિ દીવાળીબેન લીલાધર ગાડવ ૧ સ્વ ખાખડા વચ્છરાજ તુલસીદાસના ધર્મ પત્નિ કમળખાઈ તરફથી હા માણેકચંદભાઈ તથા કપુરચંદભાઈ ૨ પીપળી લીલાધર દામોદર તરફથી તેમના ધર્મપત્ની આ સૌ લીલાવતી સાકરચંદ કાઠારીના બીજા વરસીતપની ખુશાલીમા 3 કામદાર જુઠાલાલ કેશવજીના સ્મરણાર્થે હા હરીલાલ જુઠાભાઈ ગોધરા ઘણુ ૧ શાહ ત્રીભાવનદાસ છગનલાલ શાહુ ચકુલાલ કેશવલાલ ૧ યેાલવાડ (થાણા) ૧. મહેતા ગુલાબચદજી ગંભીરલાલજી ચુડા (કાલાવાડ) ૧ શ્રી સ્થા.જૈનસઘ હા રતીલાલ ગાધી પ્રમુખ જલેસર (ખાલાસેાર) ક્ સઘવી નાનચંદ પાપટભાઈ થાનગઢવાળા જામોધપુર ૧ શ્રી સ્થા. જૈનસ ધ ૨ શાહ ત્રીભાવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા જામનગર 1 ૧ પીઠ કેટાલાલ કેશવજી ૨ શેઠ ચતુરદાસ ઠાકરશી 3 વારા ચીમનલાલ દેવજીભાઈ 1 જામખભાળી ૧ીઠ વસનજી નારણજી ૨ શ્રી સ્થા, જૈનસઘ હા શ્વેતા રણુછૈડદાસ પરમાણુદ ૩ સધી પ્રાસુલાલ લવજીભાઈ ' ૫૧ ૨૫૩ ૩૦૧ ૩૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૩૦૦ ૨૫૧ ૫૧ ૨૩૮૭ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ પા Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જુનાગઢ શાહુ મણીલાલ મીઠાભાઈ હા હરીલાલભાઈ (હાટીના માળીઓવાળા) જુનારદેવ (મધ્ય પ્રાત) ૧. વેલાણી ત્રીકમજી લાધાભાઈ જેતપુર ૧, શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ હા નરભેરામભાઈ (જસાપુરવાળા) ૨ દોશી ટાલાલ વનેચંદ ૩ કોઠારી ડૉલરકુમાર વેણીલાલ ૧ . ૧ જેતલસ શાહુ લક્ષ્મીચંદ કપુરચંદ કામદાર લીલાધર જીવરાજના મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ જખકબેન તરફથી હા શાન્તીલાલભાઇ ગાડલવાળા ભાસ ૧ સ્વ તુરખી લહેરચંદ માણેકચંદના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ જીવતીમાઇ તરફથી હા જય તીભાઈ ઊંડાઇચા ૧ શ્રી સ્થા.જૈન સઘ હા શેઠ ચપાલાલજી મારવે થાનગઢ ૧ શાહ ઠાકરશીભાઈ કરશનજી ૨. શેઠ જેઠાલાલ ત્રીભોવનદાસ 3 શાહુ ધારશી પાશવીર હા મુખલાલભાઇ દહ૩ રાડ (થાણા) ૧ શાહ હરજીવનદાસ એધડ ખધાર (કરાચીવાળા) દિલ્હી ૧ લાલા પૂર્ણચંદજી જૈન (સેન્ટ્રલ એકવાળા) વાર (મધ્યપ્રાત) ૧ શેઠ સાગરમલજી પનાલાલજી ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ * ૨૫૧ ૨૫૧ ૦૫૧. ૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ રૂપા ૫૧ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગુદા ૧ સ્વ મહેતા પુનમચંદ ભવાનભાઈના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ દીવાળીબેન લીલાધર હા ગાડેલ ૧ સ્વ ખાખડા વચ્છરાજ તુલસીદાસના ધર્મ પત્ન કમળખાઈ તરફથી હા માણેકચ દભાઈ તથા કપુરચંદભાઈ ૨ પીપળી લીલાધર દામેદર તરફથી તેમના ધર્મપત્ની આ સૌ લીલાવતી સાકરચંદ કાઠારીના ખીજા વરસીતપની ખુશાલીમા 3 કામદાર જુડાલાલ કેશવજીના સ્મરણાર્થે હા હરીલાલ જીઠાભાઈ ગાધરા ઘટકણુ ૧ શાહ ત્રીભાવનદાસ છગનલાલ ૧ શાહ ચદુલાલ કેશવલાલ ઘાલવાડે (થાણા) ૧ મહેતા ગુલાચ દજી ગંભીરલાલજી ૧ ચુડા (ઝાલાવાડ) ૧. શ્રી સ્થા જૈનસઘ હા રતીલાલ ગાંધી પ્રમુખ જલેસર (બાલાસેાર) સઘવી નાનચંદ પાપટભાઈ થાનગઢવાળા જામજોધપુર ' ૧ શ્રી સ્થા જૈનસ ધ ૨ શાહ ત્રીસેાવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા જામનગર ૧- શેઠ છેોટાલાલ કેશવજી ૨ શેઠ ચતુરદાસ ઠાકરશી ૩ વેારા ચીમનલાલ દેવજીભાઈ જામખભાળીઆ ૧ શેઠ વસનજી નારણુજી ૨ શ્રી સ્થા. જૈનસઘ ના શ્વેતા રણછોડદાસ પરમાણુદ 3 સઘવી પ્રાણુલાલ લવજીભાઈ 1 ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૩૦૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૩૦૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૮૭ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ પા Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બગસરા (ભાયાણી) સ્વ પૂજ્ય માતુશ્રી જકલખાઇના સ્મરણાથે હા દેશાઈ વ્રજલાલ કાળીદાસ ૨શેઠ પેાપટલાલ રાઘવજી રાયડીવાળા હા શેઠ માનસગ પ્રેમચદ એરાજા (કચ્છ) ૧ ૧૧ ૧ શેઠે ગાગજી કેશવજી (જ્ઞાનભડાર માટે) મેટા ૧ ૧ વસાણી હરગાવીંદદાસ છગનલાલના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્નિ છખલખેન ૨. શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસઘ (૨૫૦ બાકી) મેડલી શાહ પ્રવીણુચદ્ર નરસીદાસ (સાણ દવાળા) ૨ શાહે ગીરધરલાલ સાકરચંદ ભાવા ૧ શેઠ જેચદભાઇ માણેકચદ ૨ સઘવી માણેકચદ માધવજી ૩ શેઠ લાલજીભાઈ માણેકચદ (લાલપુરવાળા) ૪ શેઠે રામજી જીણાભાઈ ૫. શેઠ પદમશી ભીમજી ફાફરી ૬ ફ્રાફી ગાડાલાલ કાનજીભાઈ હા આ સૌ શાતાબેન વસનજી મદ્રાસ ૧ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચદજી મનાર (થાણા) શાહુ શેરમલજી દૈવીચ ઢજી જસવ તગઢવાળા હા પૂનમચ દજી શેરમલજી ખેલ્યા માનકુના (કચ્છ) ' સ્વ મહેતા કુવજી નાથાલાલના સ્મરણાથે હા તેમના ધર્મપત્નિ કુવરબાઇ હરખચંદ (માનકુવા સ્થાનકવાસી જૈનસ ધ માટે) પા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫ ૨૫૧ ૩૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૫૧ ૨૫૧ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦ યાત્રા ૧ શ્રી સ્થા જૈન મોટા સઘ હા શેઠ માવજીભાઈ જીવરાજ ૨ સ થવી નારણદાસ વખતચંદ્ ઠકકર નારણદાસ હરગોવીંદદાસ ર ۳۰ ૧ શ્વેતા પ્રભુદાસ મૂળજીભાઈ ૨ સ્વ પિત્તાશ્રી ભગવાનજી કચરાભાઈના સ્મરણાર્થે * હા પટેલ દલીચ ઃ ભગેવાનજી ૩ અ સૌ ખચીબેન ખાખુભાઈ ૪ શ્રી નવ સૌરાષ્ટ્ર ઓઈલ મીલ પ્રા લીમીટેડ ૫ સ્વ રાયચંદ પાનાચંદ શાહના સ્મરણાર્થેા ચીમનલાલ રાયચ દ ૬ ગાધી પાપટલાલ જેચંદ * + ધાણજી ૧ ભાવસાર ખાડીદાસ ગણેશભાઈ ૨ શેઠ પીપટલાલ ધારશી 3 સ્વ. ગુલામચ દભાઈના સ્મરણાર્થે દ્વાવારા પાપટલાલ નાનચ દ ૪૪ મસાણી ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ ન દુરબાર - ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સઘ હા શેઠ પ્રેમચદ ભગવાનલાલ } ' ધંધુકા શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સઘ 7 પાણાણા 1 પાલણપુર ૧ લક્ષ્મીમેન હાશ્વેતા હરીલાલ પીતામ્બરદાસ ૨ શ્રી લેાકાગચ્છ સ્થાનકવાસી જૈન પુસ્તકાલય પાલેજ ૧ સ્વ મનસુખલાલ મેહનલાલ સઘવીના સ્મરણાર્થે હા ભાઈ ધીરજલાલ મનસુખલાલ ખરવાળા (ઘેલાશા) ૧ સ્વ મેહનતાલ નરસીદાસના સ્મરણાથે હા. તેમના ધર્મ પત્નિ સુરજબેન મેરારજી £ ૨૫૧ ૩૦૧ ૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મગસરા (ભાયાણી) સ્વ પૂજ્ય માતુશ્રી જકલખાઈના સ્મરણાથે હા દેશાઈ વ્રજલાલ કાળીદાસ ૨ શેઠ પે।પટલાલ રાઘવજી રાયડીવાળા હા શેઠ માનસગ પ્રેમચંદ બેરાજા (કચ્છ) ૧ ૧ શેઠ ગાગજી કેશવજી (જ્ઞાનભડાર માટે) મેઢાદ સ્વ હા તેમના ધર્મપત્નિ છાલએન ૨ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસઘ (૨૫૦ ખાકી) ખેડેલી વસાણી હરગોવીંદદાસ છગનલાલના સ્મરણુાથે ૧ શાહુ પ્રવીણચંદ્ર નરસીદાસ (સાણુ દવાળા) ૨ શાહ ગીરધરલાલ સાકરચંદ ૧ શેઠ ચદભાઇ માણેકચંદ ૨ સધવી માણેકચઃ માધવજી ૧ ભાણવડ ૩ ૪ શેઠે રામજી જીણાભાઈ ૫. શેઠ પદમશી ભીમજી ફ્ફરી ૬ કારીઆ ગાડાલાલ કાનજીભાઇ હા અ સૌ શાતાબેન વસનજી મદ્રાસ ૧ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચદજી શેઠ લાલજીભાઈ માણેકચંદ (લાલપુરવાળા) મનાર (થાણા) શાહ શેરમલજી દેવીચદજી જસવતગઢવાળા હા પૂનમચ દજી શેરમલજી એલ્યા માનકુવા (કચ્છ) સ્વ મહેતા કુવરજી નાથાલાલના સ્મરણાથે હા તેમના ધર્મપત્નિ કુવરખાઇ હરખચ દ (માનકુવા સ્થાનકવાસી જૈનસઘ માટે) પા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫ ૨૫૧ ૩૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ te ધાગમા ૧ શ્રી સ્થા જૈન મેટા, સઘ હા શેઠ માવજીભાઈ જીવરાજ ૨સ ઘવી નારણદાસ વખતચંદ ૩ ઠકકર નારણદાસ હરગોવીંદદાસ ++ ૧ શ્વેતા પ્રભુદાસ મૂળજીભાઇ ૨ સ્વ પિતાશ્રી ભગવાનજી કચરાભાઈના સ્મરણાર્થે F હા પટેલ દલીચંદ ભગવાનજી 3 અ સૌ ખચીબેન ખાભુભાઈ ૪ થ્રી નવ સૌરાષ્ટ્ર એઇલ મીલ પ્રા લીમીટેડ પ સ્વ રાયચંદ પાનાચંદ શાહના સ્મરણાર્થે હા ચીમનલાલ રાયચ દ ૬ ગાધી પોપટલાલ જેચંદ ભાવસાર ખાડીદાસ ગણેશભાઈ ધારાજી ૧ ૨. શેઠ પેપિટલાલ ધારશી ધકા ૩ સ્વ. ગુલામચંદભાઈના સ્મરણાર્થે હા વારા પોપટલાલ નાનચ ૪ વસાણી ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સઘ f. ન દુખાર ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સઘ હા શેઠ પ્રેમચંદ ભગવાનલાલ } પાણસણા પાલણપુર ૧. લક્ષ્મીમેન હાશ્વેતા હરીલાલ પીતામ્બરદાસ ૨ શ્રી લેાકાગચ્છ સ્થાનકવાસી જૈન પુસ્તકાલય પાલેજ ૧ સ્વ મનસુખલાલ મેહનલાલ સઘવીના સ્મરણાર્થે હા ભાઈ ધીરજલાલ મનસુખલાલ . બરવાળા (ઘેલાશા) સ્વ મેહનલાલ નરસીદાસના સ્મરણાર્થે હા. તેમના ધર્મપત્નિ સુરજબેન મેરારજી 1 ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ( ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩ ૨૬ સ્વ કાનજી મૂળજીના સ્મરણાર્થે તથા માતુશ્રી દિવાળીબાઇના ૧૬ ઉપવાસના પારણા પ્રસગે હા જયતીલાલ કાનજી કાળાવડવાળા (મલાડ) ૨૫૫ ૨૭ શેઠ ખુશાલભાઈ ખેગારભાઇ ૨૫૦ ૨૮ શાહ પ્રેમજી માલશી ગગર (મલાડ) ૨૫૧ ૨૯ સ્વ પિતાશ્રી પત્તુભાઈ માનાભાઈના મરણાથે હા કાનજી પતુભાઈ મલાડ ૨૫૧ શાહુ વેલજી જેશીંગભાઈ છાસરાવાળા તરફથી તેમના ૩૦ ધર્મપત્નિ અ.સૌ. સ્વ નાનાઈના સ્મરણાર્થે ૩૦૧ ૩૧ સ્વ પિતાશ્રી રામશી વેલજીના સ્મરણાર્થે હા શાહુ દામજી રામશી (મલાડ) ૩૦૧ ૩૨ શેઠ બકલાલ કસ્તુરચંદ લીંબડીવાળા તરફથી શ્રી અજરામર શાસ્ત્રભડાર લીંબડી માટે (માટુંગા) 33 સ્વ પિત્તાશ્રી ભીમજી ઢારશી તથા માતુશ્રી પાલાળાઈના સ્મરણાર્થે હા શાહ ઉમરશીભાઇ ભીમશી કચ્છપતરીવાળા (મલાડ) ૩૪ શેઠ ચુનીલાલ નરભેરામ વેકરીવાળા ૩૫ શાહ વૃજાગભાઈ શીવજી (મલાડ) 31 ૨૫૧ ૨૫૬ ૩૬ રતીલાલ ભાઈચંદ મહેતા ૨૫૧ ૩૭ શાહુ ખીમજી મૂળજી પૂજા (મલાડ) ૨૫૧ ૩૮ મેસર્સ સવાણી ટ્રાન્સપોર્ટ કંપની હા શેઠ માણેકલાલ વાડીલાલ ૨૫૧ ૩૯ ઘેલાણી વલભજી નરભેરામ ! નરસીભાઈ વલભજી ૨૫૧ ૪૦ સૌ સમતાબેન શાન્તીલાલ C/॰ શાન્તીલાલ ઉજમશી શાહ (મલાડ) ૨૫૧ ૪૧ તેજાણી કુમેરદાસ પાનાચદ ૨૫૧ ૪૨ કપાસી મેહનલાલ શીવલાલ ૫૧ ૪૩ સ્વ પિતાશ્રી કેશવલાલ વછરાજ કૈડેરીના સ્મરણાર્થે સુરજબેન તરફથી હા તનસુખલાલભાઈ (મલાડ) ૪૪ દડીયા અમૃતલાલ મોતીચંદ (ઘાટકોપર) ૪૫ શેઠ સરદારમલજી દેવીચદજી કાવેડીયા (સાદડીવાળા) ૪૬ દેશી ચત્રભુજ સુદરજી (ઘાટકે પર) ૪૭ દેશી જુગલકીચાર ચત્રભુજ (ધાટકેાપર) ૪૮ દેશી પ્રવીણચંદ્ર ચત્રભુજ (ઘાટકાપર) ૪૯ ૫૦ ૫૧ શાહ ત્રીભેાવનદાસ માનસિંગ દેઢીવાળાના સ્મરણાર્થે ૨૫૧ હા શાહ હેરખચંદ ત્રીભાવનદાસ શાહ જેટાલાલ ડામરશી ધાગધ્રાવાળા હા શાહ વાડીલાલ જેઠાલાલ શાહ ચંદુલાલ કેશવલાલ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ પર૧ પા ૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મુબઈ તથા પરાઓ ૧ શેઠ છગનલાલ નાનજીભાઈ ૨૫૧ ૨ શાહ હરજીવન કેશવજી. ૨૫૧ ૩ ઘેલાણી પ્રભુલાલ ત્રિીકમજી (બેરીવલી) ૨પર ૪ શેઠ છોટુભાઈ હરગોવિંદદાસ કટેરીવાલા ૨પ૧ ૫ શ્રી વર્ધમાન સ્થા જેનસઘણા કેસરીમલજી અને પચદજી ગુગળીયા(મલાડ) ૨૫૧ ૬ શેઠ ડુંગરશી હસરાજ વીસરીયા ૨૫૧ ૭ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા આ સો કાન્તાબેન રમણીકલાલ ૨૫૧ ૮ શાહ હિંમતલાલ હરજીવનદાસ ૨૫૧ ૯ શાહ રતનશી મેણશીની કુપની ૨૫૧ ૧૦ શાહ શીવજી માણેક (કચ્છ બેરાજાવાળા) ૨૫૧ ૧૧ શાહ પાનાચદ સઘજી હા શાહ ત્રણકલાલ રતીલાલ ૨૫૧ ૧૨ સ્વ પૂ પિતાશ્રી વચ્ચદ જેસી ગભાઈ લખતરવાળાને સ્મરણાર્થે હા કેશવલાલ વીરચંદ શેઠ ૨૫૧ ૧૩ શા કુંવરજી હંસરાજ ૨૫૧ ૧૪ સ્વ માતુશ્રી માણેકબેનના સ્મરણાર્થે હા શેઠ વલભદાસ નાનજી (પરબદરવાળા) ૩૦૧ ૧૫ શેઠ દેવરાજજી જીતમલજી પૂનમીયા સાદડીવાળા ૨૫૧ ૧૬ એક સદગૃહસ્થ હા શેઠ સુદરલાલ માણેકચર ૨૫૧ ૧૭ અ સો પાનબાઈ હા શેઠ પદમશી નરસિભાઈ (મલાડ) ૨૫૧ ૧૮ શ્રીયુત અમૃતલાલ વર્ધમાન બાપોદરાવાળા હા દલીચદ અમૃતલાલ ૨૧૧ ૨૯ સ્વ શાહ નાગાશી સેજપાળ ગુદાળાવાળાના સ્મરણાર્થે હા રામજી નાગશી (મલાડ) ૩૦૧ ૨૦ શાહ રામજી કરશનજી થાનગઢવાળા ૨૫૧ શાહ નગીનદાસ કલ્યાણજી વેરાવળવાળા ૨૫૧ ૨૨ શીવલાલ ગુલાબચંદ શેઠ મેવાવાળા ૨૩ સ્વ જટાશકર દેવજી દેશના સ્મરણાર્થે હા રણછોડદાસ (બાબુલાલ) જટાશકર દેશી સ્વ ગડા વરશી ત્રીભવન સરસઈવાળાના સ્મરણાર્થે હા જગજીવન વણારશી ગડા (મલાડ) ૨૫૧ રપ સ્વ ત્રીભોવનદાસ વ્રજપાળ વીંછીયાવાળાના સ્મરણાર્થે હા હરગોવિંદદાસ ત્રિીભોવનદાસ અમેરા ૯૫૧ ૩૦૧ ૩૫૧ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬ સ્વ કાનજી મૂળજીના સ્મરણાર્થે તથા માતુશ્રી દિવાળીબાઈના ૧૬ ઉપવાસના પારણે પ્રસ ગે હા જયતીલાલ કાનજી કાળાવડવાળા (મલાડ) ૨૫૫ ર૭ શેઠ ખુશાલભાઈ ખેંગારભાઈ ૨૫૦ ૨૮ શાહ પ્રેમજી માલશી નગર (મલાડ) ૨૫૧ ૨૯ સ્વ પિતાશ્રી પતભાઈ મેનાભાઈના સ્મરણાર્થે હા કાનજી પતભાઈ મલાડ ૨૫૧ ૩૦ શાહ વેલજી જેશીંગભાઈ છાસરાવાળા તરફથી તેમના ધર્મપત્નિ અ સૌ સ્વ નાનબાઈને સ્મરણાર્થે ૩૦૧ ૩૧ સ્વ પિતાશ્રી રામશી વેલજીના સ્મરણાર્થે હા શાહ દામજી રામશી (મલાડ) ૩૦૧ શેઠ બકલાલ કસ્તુરચદ લીંબડીવાળા તરફથી શ્રી અજરામર શાસ્ત્રભડાર લીંબડી માટે (માટુંગા) ૨૫૧ ૩૩ સ્વ પિતાશ્રી ભીમજી કોરશી તથા માતુશ્રી પાલાબાઈના સ્મરણાર્થે હા શાહ ઉમરશીભાઈ ભીમશી કચ્છપતરીવાળા (મલાડ) ૩૧ ૩૪ શેઠ ચુનીલાલ નરભેરામ વેકરીવાળા ૨૫૧ ૩૫ શાહ વૃજા ગભાઈ શીવજી (મલાડ) ૨૫૧. ૩૬ રતીલાલ ભાઈચ દ મહેતા ૨૫૧ ૩૭ શાહ ખીમજી મૂળજી પૂજા (મલાડ) ૨૫૧ ૩૮ મેસર્સ નવાણું ટ્રાન્સપોર્ટ કંપની હા શેઠ માણેકલાલ વાડીલાલ ૨૫૧ ૩૯ ઘેલાણી વલભજી નરભેરામ જ નરસીભાઈ વલભજી ૨૫૧ ૪૦ અ સો સમતાબેન શાન્તીલાલ વ. શાન્તીલાલ ઉજમશી શાહ (મલાડ) ૨૫૧ ૪૧ તેજાણી કુબેરદાસ પાનાચદ ૨૫૧ ૪૨ કપાસી મેહનલાલ શીવલાલ ૨૫૧ ૪૩ સ્વ પિતાશ્રી કેશવલાલ વછરાજ કઠારીના સમરણાર્થે સુરજબેન તરફથી હા તનસુખલાલભાઈ (મલાડ) ૨૫૧ ૪૪ દડીયા અમૃતલાલ મેતીચદ (ઘાટકોપર) ૨૫૧ ૪૫ શેઠ સરદારમલજી દેવીચદજી કોડીયા (સાદડીવાળા) ૨૫૧ ૪૬ દેશી ચત્રભુજ સુદરજી (ઘાટકેયર) ૨૫૧ ૪૭ દેશી જુગલકીશોર ચત્રભુજ (ઘાટકોપર) પર ૪૮ દેશી પ્રવીણચંદ્ર ચત્રભુજ (ઘાટકે પર) ૨૫૧ ૪૯ શાહ ત્રીભોવનદાસ માનસિંગ દેઢીવાળાના સ્મરણાર્થે હા શાહ હરખચદ ત્રીભવનદાસ ૨૫૧ ૫૦ શહ જેઠાલાલ ડામરશી ધાગધાવાળા હા શાહ વાડીલાલ જેઠાલાલ ૨૫૦ ૫૧ શાહ ચદુલાલ કેશવલાલ ૨૫૧ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ પર સવ પિતાશ્રી શામળજી કલ્યાણજી ગોડલવાળાના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હા વૃજલાલ શામળજી બાવીશી ૫૩ શાહ પ્રેમજી હીરજી ગાલા ૨૫૧ ૫૪ સ્વ પિતાશ્રી ભગવાનજી હીરાચદ જસાણના સમરણાર્થે હા લક્ષ્મીચદ તથા કેશવલાલભાઈ ૩૦૧ પપ સ્વ પિતાશ્રી હસરાજ હીરાના સ્મરણ્યાર્થે હા દેવશી હસરાજ કરછ બીડાલાવાળા (મલાડ) ૨૫૧ ૫૬ રવ માતથી ગમતીબાઈના સ્મરણાર્થે હા શાહ પિપટલાલ પાનાચક્ર ૨૫૧ ૫૭ શેઠ નેમચદ સ્વરૂપચદ ખભાતવાળા હા ભાઈ જેઠાલાલ નેમચંદ ૨૫૧ ૫૮ સ્વ પિતાશ્રી શાહ અબાલાલ પરસેતમ પાણશણાવાળાના મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હા બાપાલાલભાઈ ૨૫૧ ૫૯ બેન કેશરભાઈ ચદુલાલ જેસીંગલાલ શાહ ૬૦ દડીયા જેસીંગલાલ ત્રીકમજી ૬૧ શાહ કાન્તીલાલ મગનલાલ (ધાપર) ૨૫૧ ૬૨ કેડારી સુખલાલજી પૂનમચંદજી (ખાર) ૨૫૧ ૬૩ સ્વ માતુશ્રી કડવીબાઈના સ્મરણાર્થે હા તેમના પોત્ર હકમીચદ તારાચદ દેશી (કાંદીવલી) ૬૪ શેઠ સારાભાઈ ચીમનલાલ ૨૫૧ ૬૫ શાહ કેરશીભાઈ હીમજીભાઈ ૩૦૧ ૬૬ પિતાશ્રી કુદનમલજી મોતીલાલજીના સ્મરણાર્થે હા મોતીલાલ જુબરમલ (અહમદનગરવાળા) ૨૫૧ ૬૭ શ્રી વર્ધમાન શ્વેતામ્બર સ્થા જૈન સંઘ હા શેઠ રૂપચંદ શીવલાલ કામદાર (અધૂરી) ૨૫૧ ૬૮ અ સો કમળાબેન કામદાર હા રૂપચંદ શીવલાલ ( ધેરી) ૨૫૧ ૬૯ ધી મરીના મેડને હાઈસ્કુલ ટ્રસ્ટ ફડ હા શાહ મણીલાલ ઠાકરશી ૨૫૧ ૭૦ સ્વ માતુશ્રી જીવીબાઈના સ્મરણાર્થે હ શામજી શીવજી કછ ગુદાળાવાળા (ગેરેગાવ) ૨૫૧ ૭૧ શાહ રવજીભાઈ તથા ભાઈલાલભાઈની કપની (કાદીવલી) ૨૫૧ કર અ સો. લાછુમેન હી રવજી શામજી (કાદવલી) ૨૫૧ ૭૩ આ સો. બેન કુદનગૌરી મનહરલાલ સઘવી (ખારેડ) ૨૫૧ ૭૪ શાહ કરશન લધુભાઈ (દાદર) ૩૦૧ ૭૫ અ સૌ. રજનગોરી ચદુલાલ શાહ . ચદુલાલ લહમીદ (માટુંગા) ૨૫૧ ૭૬ હેતા મેટર સ્ટોર્સ હા અનેપચદ ડી મહેતા (મુંબઈ) ૨૨૧ ૨૫૧ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૦ માડવી (કચ્છ) ૧ શ્રી સ્થા છે કેટી જૈન સંઘ હા મહેતા ચુનીલાલ વેલજી ૨૭ મેસાણું ૧ શાહ પદમશી સુરચદના સ્મરણાર્થે હા શીવલાલ પદમશી વીરમગામવાળા ૨૫૧ મેમ્બાસા ૧ શાહ દેવરાજ પિથરાજ ૨૫૦ ૨ શ્રીયુત નાથાલાલ ડી મહેતા ૨૫૧ યાદગીરી ૧ શેઠ બાદરમલજી સૂરજમલજી બેન્કર્સ રાણપુર (ઝાલાવાડ) ૧ શ્રીમતી માતુશ્રી અમૃતભાઈના સ્મરણાર્થે હા કે નત્તમદાસ ચુનીલાલ ૨૫૧ રાણાવાસ (મારવાડ) ૧ શેઠ જવાનમલજી નેમીચંદજી હા બાબુરખબચજી રાજકોટ ૧ ધી વાડીલાલ ડાઈગ એન્ડ પ્રિન્ટીંગ વર્કસ ૪૦૦ ૨ શેઠ રતીલાલ ન્યાલચ દ ૨૫૧ ૩ બાબુ પરશુરામ છગનલાલ શેઠ (ઉદેપુરવાળા) ૨૫૦. ૪ શેઠ મનુભાઈ મુળચદ (એજીનીઅર સાહેબ) ૨૫૧ ૫ શેઠ શાન્તીલાલ પ્રેમચદ તેમના ધર્મપત્નિના વરસીતપ પ્રસંગે ૨૫૧ ૬ ઉદાણી ન્યાલચદ હાકેમચદ વકીલ ૨૫૧ ૭ શેઠ પ્રજારામ વીઠ્ઠલજી ૨૫૧ ૮ શેઠ હકમીચ દ દીપચદ (ગોડલવાળા) સ્ટેશનમાસ્તર ૨૫૧ ૯ બહેન સથુંબાળા નોત્તમલાલ જસાણ (વરસીતપની ખુશાલી) - ૨૫૧ ૧૦ મેદી સૌભાગ્યચદ મોતીચ દ ૨૫ ૧૧ બદાણ ભીમજી વેલજી તરફથી તેમના ધર્મપત્નિ આ સૌ સમરતબેનના વરસીતપની ખુશાલી ૨૫૧ ૧૨ દેશી મેતીચદ ધારશીભાઈ (રીટાયર્ડ એજીનીઅર સાહેબ) ૨૫૧ ૧૩ કામદાર ચ દુલાલ જીવરાજ ૨૫૦ ૧૪ હેમા ઘેલુભાઈ સચદ ૨૫૧ ૩૦૧ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૬ ૨૫ ગુન ૧ કામદાર ગોરધનદાસ મગનલાલના ધર્મપિત્ન અ સો કમળાબેન ૨૫૧ લખતર ૧ શાહ રાયચદ ઠાકરશીના સમરણાર્થે હા શાહ શાન્તીલાલ રાયચદ ૨૫૧ ૨ ભાવસાર હરજીવનદાસ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા ભાઈ ત્રીભોવનદાસ હરજીવનદાસ ૨૫૧ ૩ શાહ તલકશી હીરાદના સ્મરણાર્થે હા ભાઈ અમૃતલાલ તલકશી - ૨૫૧ ૪ શાહ ચુનીલાલ માણેકચંદ , ૨૫૧ ૫ શાહ જાદવજી ઓઘડભાઈ સદાદવાળાના સમરણાર્થે હા ભાઈ શાનીલાલ જાદવજી ૬ દેશી ઠાકરશી ગુલાબચદના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપનિ સમરતબેન વૃજલાલ તરફથી હા જયતીલાલ ઠાકરશી લાલપુર ૧ શેઠ નેમચદ સવજીભાઈ મેદી હા મગનલાલભાઈ ૨૫૧ ૨ શેઠ મુળચદ પિપટલાલ હા ભણલાલભાઈ તથા જેસીંગલાલભાઈ ૨૫૧ લાખેરી (રાજસ્થાન) - ૧ માસ્તર જેઠાલાલ મનજીભાઈ હા મહેતા અમૃતલાલ જેઠાલાલ ! ” (સીવીલ એજીનીઅર સાહેબ) ૨૫૧ લીમડી (પચમહાલ) ૧ શાહ કુવરજી ગુલાબચ દ ૨૫ ૨ છાજેડ ઘાસીરામ ગુલાબચદ લેનાવવા ૧ શેઠ ધનરાજજી મૂળચંદજી મૂળા વઢવાણ શહેર ૧ શાહ દિલીપકુમાર સવાઈલાલ હ સવાઈલાલ ત્રબકલાલ શાહ ૨૫૧ ૨ શાહ મગનલાલ ગોકળદાસ કાં રતીલાલ મગનલાલ કામદાર ૩ સઘવી મુળચદ બેચરભાઈ હા ભાઈ જીવણલાલ ગફલદાસ ૨૫૧ ૪ શેઠ વૃજલાલ સુખવાલ ૨૫૧ ૫ શેઠ કાતીલાલ નાગરદાસ ૩૫૧ ૨૫૧e ૨૫૧ ૨૫૧ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬ વેરા ચરભુજ મગનલાલ ૨૫૧ ૭ સ ઘવી શીવલાલ હીમજીભાઈ ૨૫૧ ૮ શાહ દેવશી દેવકરણે ૨૫૧ ૯ વેરા ડોસાભાઈ લાલચ દ સ્થા જૈન સંઘ હા વેરા નાનચંદ શીવલાલ ૨૨૧ ૧૦ વેરા ધનજીભાઈ લાલચદ સ્થા જૈન સ ઘ હા વેરા પાનાચંદ ગેબરદાસ ૨૫૧ ૧૧ દેશી વીરચદ સુરચદ હા દેશી નાનચદ ઉજમશી ૨૫૧ ૧૨ સ્વ વેરા મણીલાલ મગનલાલ હા વેરા ચત્રભુજ મગનલાલ ૨૫૧ વટામણ ૧ શ્રી વટામણ સ્થા જેનસ ઘ હા શ્રી ડાહ્યાભાઈ હસુભાઈ પટેલ ૨૫૧ વલસાડ ૧ શાહ ખીમચ દ મૂળજીભાઈ ૨૫૧ વણું ૧ મહેતા નાનાલાલ છગનલાલના ધર્મપત્નિ સ્વ ચ ચળબેન તથા પુરીબેનના સ્મરણાર્થે હા ભાઈ મનહરલાલ નાનાલાલ ૨૫૧ વડેદના ૧ કામદાર કેશવલાલ હિમતરામ પ્રેફેસર સાહેબ (ગોડલવાળા) ૨૫૧ ૨ વકીલ મણીલાલ કેશવલાલ શાહ ૨૫૧ ૩ સ્વ પિતાશ્રી શાહ ફકીરચદ પુજાભાઈના સ્મરણાર્થે હા શાહ રમણલાલ ફકીરચંદ વડીયા ૧ પચમીયા ભવાનભાઈ કાળાભાઈ (જેતપુરવાળ) ૨૫૧ વાકાનેર ૧ માસ્તર કાન્તીલાલ ત્રબકલાવ ખડેરી ગા ૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા જેન સઘ (રૂ. ૨૫૦ બાકી) ૨૫૧ ૩ દક્તરી ચુનીલ લ પિપટમાઈ મેરબીવાળા હા ભાઈ પ્રાણલાલ ચુનીલાલ ૨૫૧ વીંછીયા ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ અજમેરા રાયચદ વૃજપાળ ૨પ૧ ૨૫૧ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ગુન ૧ કામદાર ગોરધનદાસ મગનલાલને ધર્મપિન અ સૌ કમળાબેન ૨૫ લખતર ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શાહ રાયચદ ઠાકરશીના સ્મરણાર્થે હા શાહ શાન્તીલાલ રાયચદ ૨ ભાવસાર હરજીવનદાસ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા ભાઈ ત્રીભોવનદાસ હરજીવનદાસ - ૨૫૧ ૩ શાહ તલકશી હીરાદના સમરણાર્થે હા ભાઈ અમૃતલાલ તલકશી - ૨૫૬ ૪ શાહ ચુનીલાલ માણેકચંદ ૨૫૧ ૫ શાહ જાદવજી ઓઘડભાઈ સદાબવાળાના સમરણાર્થે હા ભાઈ શાન્તીલાલ જાદવ ૨૫૧ ૬ દેશી ઠાકરશી ગુલાબચદના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ સમતબેન વૃજલાલ તરફથી હા જયતીલાલ ઠાકરશી ૨૫૧ લાલપુર ૧ શેઠ નેમચદ સવજીભાઈ મોદી હા મગનલાલભાઈ ૨ શેઠ મુળચર પોપટલાલ હા ભણીલાલભાઈ તથા જેસીંગલાલભાઈ લાખેરી (રાજસ્થાન) ૧ માસ્તર જેઠાલાલ મનજીભાઈ હા મહેતા અમૃતલાલ જેઠાલાલ (સીવીલ એજીનીઅર સાહેબ) લોમડી (૫ ચમહાલ) ૧ શાહ કુવરજી ગુલાબચદ ૨૫૫ ૨ છાજેડ ઘાસીરામ ગુલાબચ દ ૨૫૧e લોનાવલા ૧ શેઠ ધનરાજજી મૂળચદજી મૂળા ૨૫૧ વઢવાણ શહેર ૧ શાહ દિલીપકુમાર સવાઈલાલ હા સવાઈલાલ બકલાલ શાહ ૨૫૧ ૨ શહ મગનલાલ ગોકળદાસ હા રતીલાલ મગનલાલ કામદાર ૨૫૧ ૩ સઘવી મુળચદ બેચરભાઈ હા ભાઈ જીવણલાલ ગફલદાસ ર૫૧ ૪ શેઠ વૃજલાલ મુખવાસ ૨૫૧ ૫ શેઠ કરતીલાલ નાગરદાસ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સતારા ૨૫૧ ૧ સ્વ મદનલાલજી કુંદનમલજી કોઠારીના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્નિ રાજકુવરબાઈ મદનલાલજી સાલબની બગાળ) ૧ દેશી ચુનીલાલ કુલચર મોરબીવાળા ૨૫e સાણ દ ૧ શાહ હીરાચંદ છગનલાલ હ શાહ ચીમનલાલ હીરાચદ ૩૦૧ ૨ અ સૌ ચ પાબેન હા દેશી જીવરાજ લાલચદ ૨૫૧ ૩ પટેલ મહાસુખલાલ ડોસાભાઈ ૨૫૧ ૪ શાહ સાકરચદ કાનજીભાઈ ૨૫૧ ૫ પુરીબેન ચીમનલાલ કલ્યાણુજી સ ઘવી લીંબડીવાળાના સમરણાર્થે હા વાડીલાલ મેહનલાલ ઠારી ૨૫૧ ૬ પારેખ નેમચંદ મોતીચદ મુળીવાળાના સમરણાર્થે હા પારેખ ભીખાલાલ નેમચંદ ૨૫૧ ૭ સ ઘવી નારણદાસ ધરમશીના સ્મરણાર્થે હા ભાઈ જયંતીલાલ નારણદાસ ૨૫૧ સુરત ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શ્રી સ્થા જેને સઘ હા શાહ છોટુભાઈ અભેચંદ સુવઇ (કચ્છ) ૧ સાવળા શામજી હીરજી તરફથી સદાનદી જૈન મુનીશ્રી ઇટાલાલ મહારાજના ઉપદેશથી સુવઈ સ્થા જૈન સંઘ જ્ઞાનભંડારને ભેટ સુરેન્દ્રનગર ૧ શેઠ ચાપશીભાઈ સુખલાલ ૨ ભાવસાર ચુનીલાલ મેમચંદ ૩ સ્વ કેશવલાલ મૂળજીભાઈના ધર્મપત્નિ અમૃતબાઈના સ્મરણાર્થે હા શાહ ભાઈલાલ કેશવલાલ (થાનગઢવાળા) ૪ શાહ ન્યાલચંદ હરખચદ هم ૨૫૧ ૨૫૫ له ૨૫૧ ૨૫૧ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વીરમગામ ૧ શાહ વાડીલાલ નેમચદ વકીલ ૨૫૦ ૨ શાહ વીઠલભાઈ મેડી માસ્તર ૨૫૧ ૩ શાહ નાગરદાસ માણેકચર ૨૫૧ ૪ શાહ મણીલાલ જીવણુલાલ (શાહપુરવાળા) ૨૫૫ ૫ શાહ અમુલખ (બચુભાઈ) નાગરદાસના ધર્મપત્નિ અ સો બેન લીલાવતીના વરસીતપના પારણાની ખુશાલીમાં હા ભાઈ કાન્તીલાલ નાગરદાસ સ્વ શેઠ ઉજમશી નાનચ દના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હા શેઠ ચુનીલાલ નાનચદ. ૨૫૧ ૭ સ્વ શેઠ મણીલાલ લહમીચદના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હા ખીમચ દભાઈ (ખારાઘોડાવાળા) ૨૫૧ ૮ સ્વ શેઠ હરીલાલ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા શેઠ અનભાઈ હરીલાલ ૨૫૧ ૯ સઘવી જેચંદભાઈ નારણદાસ ૨૫૧ ૧૦ સ્વ શાહ વેલશીભાઈ સાકરચંદભાઈના સ્મરણાર્થે હ ચીમનલાલ વેલશી (કત્રાસવાળા) ૨૫૧ ૧૧ પારેખ મણીલાલ ટેકરશી લાતીવાળા તરફથી (મેટી બેનના સ્મરણાર્થે) ૨૫૧ ૧૨ શાહ નારણદાસ નાનજીભાઈના સુપુત્ર વાડીલાલભાઈના ધર્મપત્નિ અ સૌ નાર ગીબેનના વરસીતપ નિમીતે હા શાન્તીભાઈ ૨૫૧ ૧૩ સ્વ છબીલદાસ ગોકળદાસના સમરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ અ સૌ કમળાબેન તરફથી છે મજુલાકુમારી ૨૫૧ ૧૪ શ્રી સ્થા જૈન શ્રાવિકાસઘ હા પ્રમુખ અ સો રભાબેન વાડીલાલ ૨૫૧ ૧૫ સ્વ ત્રીભવનદાસ દેવચદ તથા સ્વ અ સો ચચળબેનના સ્મરણાર્થે હા ડો હિમતલાલ સુખલાલ ૨૫૧ ૧૬ શાહ મૂળચંદ કાનજીભાઈ તરફથી હા શાહ નાગરદાસ ઓઘડભાઈ ૨૫૧ ૧૭ શેઠ મોહનલાલ પીતામ્બરદાસ હો ભાઈ કેશવલાલ તથા મનસુખલાલભાઈ ૨૫૧ શ્રીમતી હીરાબેન નથુભાઈને વરસીતપ નિમીતે હા નથુભાઈ નાનચંદ શાહ ૩૦૧ ૧૯ સ્વ મણીયાર પરસેતમદાસ સુદરજીના સ્મરણાર્થે આ શેઠ સાકરચદ પરસેતમદાસ ૨૫ ૨૦ શેઠ મણીલાલ શીવલાલ વેરાવલ ૧ શાહ કેશવલાલ જેચદભાઈ ૨૫૧ ૨ શાહ ખીમચંદ સોભાગ્યચદ વસનજી ૨૫૧ ૨પ૧ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સતારા 1 સ્વ મદનલાલજી કુદનમલજી કોઠારીના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્નિ રાજકુવરબાઈ મદનલાલજી 251 સાલબની (બગાળ) 1 દેશી ચુનીલાલ કુલચર મોરબીવાળા 250 251 251 સાણંદ 1 શાહ હીરાચદ છગનલાલ હ શાહ ચીમનલાલ હીરાચદ 301 2 અ સૌ ચ પાબેન હા દોશી જીવરાજ લાલચદ 251 3 પટેલ મહાસુખલાલ ડોસાભાઈ 251 4 શાહ સાકરચદ કાનજીભાઈ 251 5 પુરીબેન ચીમનલાલ કલ્યાણજી સ ઘવી લીંબડીવાળાના સમરણાર્થે હા વાડીલાલ મોહનલાલ કઠારી 6 પારેખ નેમચદ મેતીચદ મુળીવાળાના સ્મરણાર્થે હા પારેખ ભીખાલાલ નેમચદ 7 સ ઘવી નારણદાસ ધરમશીના સ્મરણાર્થે હા ભાઈ જયંતીલાલ નારણદાસ 251 સુરત 1 શ્રી સ્થા જેન સંઘ હ શાહુ છેટુભાઈ અભેચંદ 251 સુવઇ (કચ્છ) 1 સાવળા શામજી હીરજી તરફથી સદાન દી જૈન મુનીશ્રી છોટાલાલ મહારાજના ઉપદેશથી સુવઈ સ્થા જૈન સંઘ જ્ઞાનભંડારને ભેટ 251 સુરેન્દ્રનગર 1 શેઠ ચાપશીભાઈ સુખલાલ 251 2 ભાવસાર ચુનીલાલ મેમચંદ 251 3 સ્વ કેશવલાલ મૂળજીભાઈના ધર્મપત્નિ અમૃતબાઈને મરથે હા શાહ ભાઈલાલ કેશવલાલ (થાનગઢવાળા) ર૫૧ 4 શાહ ન્યાલચંદ હરખચદ 251