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________________ मुनितोपणी टीका स्तदर्थत्वाभावेन न तयोग इदम्, कुप्यति कस्मै चिदित्यायसाध्वेवे' - ति । 'निन्दामि, गर्दामि' इत्यनयोस्तस्येत्यनेन मागुतेन सम्बन्धस्तेन सावययोगसम्बन्धिनीं स्वसाक्षिक गुरुसाक्षिकी च निन्दा करोमीति निर्गलितोऽर्थः, तस्येत्यत्र सम्वन्धसामान्ये पष्ठ्याः प्रागुक्तत्वात् । यद्वा 'आत्मान' - मित्यस्यैव मय्यमणिन्यायाद्देहलीदीपन्यायाद्वा व्युत्सृजामीत्यनेन निन्दामि गर्हामि' इत्याभ्या च सम्बन्धस्तेन सावप्रयोगकारिणमात्मान जुगुप्से, व्युत्सृजामि = विविधभावनया विशिष्य वा परित्यजामीत्यर्थ ॥०१॥ ७७ साक्षी से होती है । अथवा निन्दा साधारण कुत्साको कहते हैं और गर्दा अत्यन्त निन्दा को कहते है । इसका अर्थ यह होता है कि हे भगवन् । अतीत काल में सावध व्यापार करनेवाले आत्मा (आत्मपरिणति) को अनित्य आदि भावना भाकर त्यागता हूँ, निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ । जैसे घर की देहलीपर दीपक रखने से भीतर भी प्रकाश होता है और बाहर भी प्रकाश होता है, इसीको 'देहली दीपक' न्याय कहते हैं, कहा भी है-' परे एक पद बीच मे, दुहु दिन लागे मोय । सो है दीपक - देहरी, जानत है सव कोय ॥ १॥ बीच में मणि जड देने से दोनों ओर मणिका प्रकाश होता है, यह 'म यमणि' न्याय कहलाता है, इसी प्रकार 'अप्पाण' का दोनों के साथ सम्बन्ध होता है । अर्थात् सावध व्यापारवाली आत्मा को त्यागता हूँ और उसकी निन्दा करता हूँ तथा गर्दा करता हूँ ॥ सू० १॥ ગાઁ ગુરૂસાક્ષીગ્મે થાય છે, અથવા નિદા સાધારણ કુત્સાને કહે છે અને ગાઁ અત્યંત નિને કહે છે 4 આના અર્થ એ થાય છે કે હે ભગવન્ ! અતીત કાળમા દડ (સાવદ્ય વ્યાપાર) કરનાર આત્મા (આત્મપરિણતિ) તે અનિત્ય આદિ ભાવના ભાવીને ત્યાગુ छ, निहु छ, गर्नु छ, नेम धरनी हेडेवी (गर) पर ही रामनाथी અંદર પશુ પ્રકાશ થાય છે અને અહાર પણ પ્રકાશ થાય છે તેને દેહલી-દીપક ન્યાય' કહે છે. કહ્યુ છે કે પ૨ એક પદ ખીચમે, દુહુ દિસ લાગે નેય મે ३ 'टीप- हेडरी, ' जनत है सम होय (1)' वथमा भधि डी देवाधी मेउ ખાજી મણિના પ્રકાશ થાય છે તેને મધ્યમણિ-ન્યાય' કહે છે. એજ રીતે "
SR No.009344
Book TitleAavashyak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages575
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size15 MB
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