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प्राक्कथन
रोग से आक्रान्त मनुष्य के लिये जैसे औपध सेवन नितान्त आवश्यक है, उसी प्रकार भवरोग से सतप्त प्राणियो के लिये सामायिक आदि क्रियायें आवश्यक है । क्यो कि विना इनके आत्मामें निर्मलता नहीं आ सस्ती, और अनिर्मल आत्मा कभी भी भवरोग से मुक्त नही हो सकता।
ये सामायिक आदि मनुष्यो के लिये अवश्यफर्तव्य होने के कारण आवश्यक कहलाते हैं, और इनका ग्रथन इस आगममें किया गया है अतः यह आगम भी 'आवश्यक' कहलाता है।
इस 'आवश्यक सूत्र' की परमोपयोगिता देखकर पूज्यश्री घासीलालजी म सा. ने इस पर, सस्कृतमें विस्तत प्रस्तावना सहित 'मुनितोपणी' नामक टीका लिखी है । यह टीका अत्यन्त सरल होने के कारण साधारण सस्कृतज्ञो के लिये भी सुवोध है। सर्वसाधारण के लाभार्थ इस टीकाका हिन्दी और गुजराती भाषा में अनुगाद भी किया गया है । इस लिये सभी वर्ग के जिज्ञासुओं के लिये यह उपादेय है ।
इस आवश्यकसूत्र की प्रथम आवृत्तिका प्रकाशन श्री श्वे. स्था जैन शास्त्रोद्वार समिति (राजकोट ) ने सन् १९५१ ई में किया था। प्रथम आवृत्ति की सभी प्रतियाँ वितरित हो चुकी हैं, अत इस सूत्र की यह द्वितीय आवृत्ति प्रकाशित की गयी है । आत्मार्थी जन इससे पूर्णतया लाभ उठावें यही हमारी आकादक्षा है ।
निवेदक मगनलाल छगनलाल शेठ
मानद मत्री, श्री अ भा श्वे स्था जैनशा समिति
राजकोट.