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आवश्यकमूत्रस्य
एव । 'पडिकमामि' पतिक्रामामि, 'चऊहिं' चतुभिः, 'शाणेहिं' ध्यातिः= ध्यान निर्यातस्थानस्थित निथलमदीपशिखावत स्थिरतर- धारावाहिज्ञानविच्छेदकविषयान्तरसञ्चारानन्तरितकमात्रार्थचिन्तन रूप चित्तैकाग्रतास्वरूप, यदुक्तम् -
' अतोमुहुतमित, वित्तावत्थाणमेगवत्युम्मि | छउमभाण झाण, जोगणिरोहो जिणाण ति' इति ।
तैः, तद्द्वारा यो मयाऽतिचारः कृतः, इत्याद्यन्वयः प्राग्वत् । क्रमेण भेद चतुष्टयमेवाद - 'अट्टेण झाणेण' आर्सेन ध्यानेन, अत्तिः = मनोव्यथा, तस्या तया सह वा भवमिति, अथवा 'ऋतिः =अशुभ तया सह भवमार्च तेन ध्यानेन मनोज्ञामनोज्ञवस्तुस योगधियोगजनितचित्तोद्रकलक्षणेनेत्यर्थः, तदुक्तमितरत्रापि --- पवन रहित स्थानमें रखे हुए निश्चल दीपकी शिखाके समान अत्यत स्थिर - धारावारी ज्ञानका विच्छेद करनेवाले अन्य पदार्थों के सबन्ध से रहित एक मात्र वस्तु के न्तन को ध्यान कहते हैं, जैसा कि कहा है- 'छद्मस्थों के एक वस्तु में अन्तर्मुहूर्त मात्र मनका अवस्थान 'ध्यान' कहलाता है, किन्तु जिन भगवान के मन का अभाव होने के कारण योगनिरोध ही होता है, अवस्थान नहीं' । वह ध्यान आर्त्त (१) रौद्र (२) धर्म्य ( ३ ) और शुक्ल (४) भेद से चार प्रकार का है, उनमें से (१) आर्तध्यान उसे कहते हैं जो अति-मन की व्यथा के साथ, अथवा ऋति-अशुभ के साथ होने वाला हो, अर्थात् इष्ट शब्दादि के सयोग और अनिष्ट के वियोग का चिन्तन करना । जैसा कि लिखा है 'जिसमें
નિર્વાંત ( જ્યા પવન આવી શકે નહિ તેવા ) સ્થળે રાખેલા નિશ્ચલ દ્વીપકીવાની શિખા સમાન અત્યત સ્થિર ધારાવાહી જ્ઞાનને વિચ્છેદ કરવાવાળા અન્ય પદાર્થાંના સબ ધથી રહિત એક માત્ર વસ્તુના ચિન્તનને ધ્યાન ’ કહે છે સ્થને ' એક વસ્તુમા અન્તર્મુહૂ માત્ર મનનું અવસ્થાન
હ્યુ છે કે ‘
र छेतेने ध्यान हे छे ते ध्यान (१) भात, (२) रौद्र, (3) धर्म्य, (४) शुस ભેદ થી ચાર પ્રકારનું છે તેમા (૧) આર્ત્તધ્યાન તેને કહે છે કે—જે અત્તિ—મનની પીડાની સાથે અથવા ઋતિ—અશુભની સાથે થનારૂ હાય, અર્થાત્ ઈષ્ટ શબ્દાદિ
१ - ऋतिः -- अशुभमिति शब्दकल्पद्रुम ।