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मुनितोपणी टीका, पतिक्रमणाध्ययनम्-४
योगैस्तथा त्रिभिरहो ? निभृतान्तरात्मा,
__ ध्यान तु शुक्लमिदमस्य समादिशन्ति ॥४॥' इति। -- सक्षिप्यपा स्वरूपाण्युक्तानि यथा
'कामाणुरजिय अट्ट, रोद्द हिंसाणुरजिय । धम्माणुरजिय धम्म, मुक्कझाण निरजण ॥१॥' इति ॥ सू० ७॥
॥ मूलम् ॥ पडिकमामि पंचहि किरियाहि-काइयाए, अहिगरणियाए, पाउसियाए, परितावणियाए, पाणाड़वायकिरियाए । पडिक्कमामि पचहि कामगुणेहि-सद्देण, रूवेणं, गधेण,रसेण, फासेणापडिकमामि पंचहि महव्वएहि-सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमण, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमण, सव्वाओअदिन्नादाणाओ वेरमण, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमण, सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमण। पडिकमामि पचहि समिईहि-इरियासमिईए, भासासमिईए, एसणासमिईए, आयाणभडमत्तनिक्खेवणासमिईए, उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाइन्द्रियाँ विषयवासना रहित हो, सकल्परिकल्पादिदोषयुक्त जो तीन योग उनसे रहित उस महापुरुष के भ्यान को 'शुक्ल यान' कहते है । सक्षेप से चारों का स्वरूप इस प्रकार है-'किसी वस्तुकी कामना से युक्तको आर्त, हिंसादि से युक्त को रौद्र, धर्म से युक्त को धम्य और सब प्रकार के दोषों से रहित को शुक्लध्यान कहते हैं ' ॥ इन चार ध्यानों के निमित्त से जो अतिचार लगा हो उससे मैं निवृत्त होता है। सू०७॥ યુકત જે ત્રણ ચોગ તેનાથી રહિત એવા મહાપુરુષના સ્થાનને શુકલધ્યાન કહે છે સક્ષેપથી ચારે ધ્યાનનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે કેઈ વસ્તુની કામનાથી યુક્તને આર્તા, હિંસાદિથી યુકતને રોદ્ર, ધર્મથી યુક્તને ધર્મો અને સર્વ પ્રકારના દેવ રહિતને શુકલધ્યાન કહે છે આ ચાર ધ્યાને નિમિત્તથી જે કાઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેનાથી હુ નિવૃત્ત થાઉં છું (સ. ૭)
१- कामानुरञ्जितमा रौद्र हिंसातुरञ्जितम् । धर्मानुरञ्जित धये, शुल्कभ्यान निररुजनम् ।। १ ।।