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मुनितोपणी टीका
११७ (२) लोभ (१०) राग (११) द्वेष (१२) कलह (१३) अभ्याख्यान (१४) पैशुन्य (१५) परपरिवाद (१६) रति अरति (१७) मायामोसो (१८) मिथ्यादनशल्य ये अट्ठारह पाप सेव्या होय, सेवाया होय, सेवता प्रत्ये भलो जाण्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुक्कड ।
* पाचमूलगुणमहावत के विषय जो कोई पाप दोप लाग्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिन्छामि दुधाड । इस उत्तरगुण पचक्खाण के विषय जो कोई पाप टोप लाग्यो होय तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुकड । तेतीस आशातना में से गुरु की घडों की कोई भी आशातना हुई हो तो देवसिय सम्बन्धी तस्स मिच्छामि दुक्ड।
सूचना-इसके पीछे 'इच्छामि ठामि काउसग्ग' का पाठ योलना, इस प्रकार ये सभी पाठ मौन रहकर प्रथम अध्ययन (आवश्यक) के ध्यान में योलने का है, एवं तीसरा अध्ययन (आवश्यक) के बाद श्रमणसूत्र के पहले चौथे अध्ययन के आदि में खडे होकर स्पष्ट उच्चारणपूर्वक बोला जाता है। (इसी प्रकार प्रथम आवश्यक के व्यान मे और तीसरे आवश्यक के बाद चौथे आवश्यक के आदि में जो निन्यानवें अतिचार गृहस्थ बोलते हैं उन्हें आवश्यकसूत्र के अन्त के परिशिष्ट में देखें)
इति प्रथम अध्ययन मम्पूर्ण