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मुनितोपणी टीका
४५ इमा पट्टिका त्रिरुचार्य निर्वन्दना च विधाय गुरोः सकाशात्सविनय पडावश्यकाऽऽज्ञा याचेत, तदनु-"इच्छामिण भते ! तुम्भेहि अभणुन्नाए समाणे देवसिय पडिकमण ठाएमि, देवसियनाणदसणचरित्ततवअइयारचिंतणट्ट करेमि काउस्सग्ग" इति पट्टिका पठित्वा नमस्कारमन्त्रोच्चारणपूर्वकमावश्यक समारम्भणीयमिति नमस्कारमन्त्रमाह
॥ मूलम् ॥ णमो अरिहताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूण ॥ सू० २॥
॥ छाया ॥ नमः अरिहद्भयः, नमः सिद्धेभ्यः, नमः आचार्येभ्यः, नम उपाध्यायेभ्यः, नमो लोके सर्वसाधुभ्यः ॥ सू० २।।
इस (तिक्वुत्तो के) पाठ को तीन बार पढकर एव तीन बार ऊठ बैठ कर पचाग-नमन-पूर्वक वन्दना करके विनयपूर्वक गुरुसे आवश्यक-प्रतिक्रमण करने की आज्ञा मागे। बादमें 'इच्छामिण भते' का पाठ पढकर पहले नमस्कार-मन्त्रोचारणपूर्वक आवश्यक का आरम्भ करना चाहिए, अतएव पहले नमस्कार मन्त्र कहते हैं
__'नमो अरिहताण' चार घनघातिक कर्मों का नाश करके अनन्त केवलज्ञान केवलदर्शन को प्राप्त करने वाले, अरिहन्त को नमस्कार हो । यहाँ नमः शब्द का अर्थ नमस्कार होता है, वह दो प्रकार का है-(१) द्रव्यनमस्कार और (२) भावनमस्कार । उनमें
આ તિવૃત્તા ના પાઠને ત્રણ વખત ભણીને તથા ત્રણ વખત ઉઠી બેસીને પચાગ નમનપૂર્વક વદના કરીને વિનયપૂર્વક ગુરૂદેવ પાસેથી આવશ્યક–પ્રતિક્રમણ કરવાની भाज्ञा भावी पछी 'इच्छामि ण भतेन पाया प्रथम नभ४२ भारयार પૂર્વક આવશ્યકને આર ભ કરે જોઈએ, એ માટે પ્રથમ નમસ્કાર મિત્ર કહે છે 'नमो अरिहताण' यार धन धाति: भाना नाश शन अनन्त ज्ञान जानने पात ४२वावा. मति भगवान ने नमा२ याय अहिं नमः शनी अर्थ
१महीभावार्थकात् नम्धातोरौणादिकेऽसिपत्यये 'स्वरादिनिपातमव्ययम्' (१-१-३७) इति पाणिनिबचनेनाव्ययत्वम् ।