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सोपक्रम-निरुपक्रम कर्म का स्वरूप' और अनेक कायों-शरीरों का 'निर्माण प्रादि विषय के निरूपण में दोनों परंपरागों में समानता परिलक्षित होती है। ३. प्रक्रिया साम्य
दोनों में प्रक्रिया का भी साम्य है। वह यह है कि परिणामी नित्यता अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से त्रिरूप वस्तु मानकर तदनुसार धर्म और धर्मी का वर्णन किया गया है।
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१. योग-सूत्र के भाष्य और जैन-शास्त्रों में सोपक्रम-निश्पक्रम प्रायुष्कर्म
का एक-सा वर्णन मिलता है । इसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए योगसूत्र, ३, २२ के भाष्य में पाई वस्त्र और तृण राशि के दो दृष्टांत दिए हैं, वे दोनों दृष्टांत आवश्यक नियुक्ति, ९५६ तथा विशेषावश्यक भाष्य, ३०६१ प्रादि ग्रन्थों में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं। तस्वार्थ सूत्र २, ५२ के भाग्य में उक्त दो उदाहरणों के अतिरिक्त गणित विषयक तीसरा दृष्टान्त भी दिया है और योग-सूत्र के व्यास भाष्य में भी यह दृष्टान्त
मिलता है। और दोनों में शाब्दिक साम्य भी बहुत अधिक है। २. योग-पल से योगी अनेक शरीरों का निर्माण करता है, इसका वर्णन .... योग-सूत्र ४,४ में है। यही विषय वैक्रिय-माहारक लब्धि रूप
से बन भागमों में वर्णित है। ३. जैनागमों में वस्तु को द्रव्य-पर्याय स्वरूप मानी है। द्रव्य की अपेक्षा
से वह सवा शाश्वत रहती है, इसलिए वह नित्य है। परन्तु, पर्याय की अपेक्षा से उसका प्रतिक्षण नाश एवं निर्माण होता रहता है, इसलिए वह अनित्य भी है। इसलिए तत्त्वाचे सूत्र, ५,
२९ में सत् का यह लक्षण दिया है-'उत्पादव्ययग्रोव्ययुक्तं सद।' · योग-सूत्र ३, १३-१४ में जो धर्म-धर्मा का वर्णन है, मवस्तु के
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