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एक परिशीलन
२. विषय साम्य
योग-सूत्र और जैन-दर्शन में शब्दों के समान विषय निरूपण में भी साम्य है । प्रसुप्त, तनु आदि क्लेश अवस्थाएँ, ' पाँच यम २, योग - जन्य विभूति 3,
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१. प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और
उबार — इन चार अवस्थाओं का योगसूत्र २, ४ में वर्णन है । जैन शास्त्र में मोहनीय कर्म की सत्ता, उपशम, क्षयोपशम, विरोधि प्रकृति के उदयादि कृत व्यवधान और उदयावस्था के वर्णन में यही भाव परिलक्षित होते हैं। इसके लिए उपाध्याय यशोविजय जी कृत योग-सूत्र ( वृत्ति) २, ४ देखें ।
२. पाँच यमों का वर्णन महाभारत श्रादि ग्रन्थों में भी है, परन्तु उसकी परिपूर्णता योग-सूत्र के "जाति-देश काल - समयाऽनवच्छिन्नाः, सार्वभौमा महाव्रतम् " योग सूत्र २, ३१ में तथा दशवेकालिक सूत्र अध्ययन ४ एवं अन्य श्रागमों में वर्णित महाव्रतों में परिलक्षित होती है ।
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३. योग-सूत्र के तृतीय पाद में विभूतियों का वर्णन है । वे विभूतियाँ दो प्रकार की हैं— १. ज्ञान रूप, और २. शारीरिक । प्रतीतानागतज्ञान, सर्वभूतरूतज्ञान, पूर्वजाति ज्ञान, परिचित ज्ञान, भुवन ज्ञान, ताराव्यूह ज्ञान आदि ज्ञान-विभूतियाँ हैं । प्रन्तर्धान, हस्तिबल, परकाय- प्रवेश, प्रणिमादि ऐश्वर्य तथा रूप, लावण्यादि काय संपत्तियाँ शारीरिक विभूतियाँ हैं । जैन-शास्त्र में भी अवधि ज्ञान मनः पर्याय ज्ञान, जाति स्मरण, पूर्व ज्ञान प्रादि ज्ञान- लब्धियाँ हैं और ग्रामोषषि, विडौषधि, श्लेष्मोषधि, सर्वोषधि, जंघाचरण, विद्याचरण, वैक्रिय, प्राहारक प्रावि शारीरिक लब्धियाँ हैं । लब्धिविभूति का नामान्तर है। श्रावश्यक निर्मुक्ति, गाथा ६९, ७० ।
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